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अनेकान्त/55/2
ने शुकदेव से कहा-मेरे धर्म का मूल विनय है। यहां विनय शब्द महाव्रत
और अणुव्रत अर्थ में व्यवहत है। बौद्धों के विनयपिटक ग्रन्थ में आचार की व्यवस्था है। विनय शब्द आचार अर्थ में प्रयुक्त होता रहा है। विनय शब्द के आधार पर विनम्रता और आचार-ये दोनों अर्थ अभिप्रेत हैं। आचार पर अधिक बल देने वाली दृष्टि का प्रतिपादन बौद्ध साहित्य में भी मिलता है। जो लोग आचार के नियमों का पालन करने मात्र से शील-शुद्धि होती है- ऐसा मानते थे, उन्हें 'शीलब्बतपरामास' कहा गया है। केवल ज्ञानवादी और केवल आचारवादी-ये दोनों धाराएं उस समय प्रचलित थीं। ज्ञानवादी जैसे ज्ञान के द्वारा ही सिद्धि मानते थे, वैसे ही आचारवादी केवल आचार पर ही बल देते थे। ज्ञानवाद और आचारवाद दोनों एकांगी होने के कारण मिथ्यादृष्टि की कोटि में आते हैं। विनयवाद के द्वारा ऐकान्तिक आचारवाद की दृष्टि का निरूपण किया गया है। विनम्रतावाद आचारवाद का ही एक अंग है, इसलिए उसका भी इसमें समावेश हो जाता है, किंतु विनय का केवल विनम्रता अर्थ करने से आचारवाद का उसमें समावेश नहीं हो सकता।"
वशिष्ठ पाराशर आदि इस दर्शन के विशिष्ट आचार्य थे।
जैसा कि हमने पूर्व में उल्लेख किया था कि चार वादों के 363 भेद मात्र गणितीय पद्धति के आधार पर किये हैं। जिसका विस्तार से उल्लेख गोम्मटसार में भी हुआ है।
क्रियावादी वस्तु को 'अस्ति' रूप ही मानते हैं। वे वस्तु को स्वरूप एवं पररूप दोनों ही प्रकार से अस्ति रूप मानते हैं। नित्य-अनित्य के विकल्प से ' भी वस्तु को नित्य मानते हैं। काल, ईश्वर, आत्मा, नियति एवं स्वभाव से जीव, अजीव आदि नौ पदार्थों को स्वतः, परतः, नित्य एवं अनित्य के विकल्प से 'अस्ति' रूप मानते हैं। इनको परस्पर गुणित करने से क्रियावादी के 180 भेद हो जाते हैं। 56 ____ अक्रियावादी वस्तु को स्वरूप एवं पररूप दोनों ही अपेक्षा से 'नास्ति' कहते हैं। अक्रियावाद में पुण्य, पाप एवं नित्य-अनित्य के विकल्प की योजना नहीं है। जीव आदि सात पदार्थों की काल, ईश्वर आदि के स्वतः परत: से