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अनेकान्त/55/2
जीव क्रियावादी एवं अक्रियावादी दोनों ही नहीं होते अपितु अज्ञानवादी अथवा विनयवादी होते हैं। भगवती के उपर्युक्त वचन से यह फलित होता है कि जैन क्रियावादी है। सम्यक् दृष्टि एवं क्रियावाद
सूत्रकृतांग में भी क्रियावाद के प्रतिपादक की अर्हता में उसके ज्ञानपक्ष को ही महत्त्व दिया है। ऐसा प्रतीत हो रहा है कि आगम युग में सम्पूर्ण विचारधाराओं को चार भागों में स्थूल रूप से विभक्त कर दिया और जैन दर्शन
का भी समावेश उन्हीं में (क्रियावाद) कर दिया यद्यपि यह सत्य है कि सारे क्रियावादियों की अवधारणा पूर्ण रूप से एक जैसी नहीं थी, किंतु कुछ अवधारणाएं उनकी परस्पर समान थी जैसा कि दशाश्रुतस्कन्ध के उल्लेख से स्पष्ट है। उन्हीं कुछ समान अवधारणाओं के आधार पर वे एक कोटि में परिगणित होने लगे। जैसे वैदिक और श्रमण दो परम्पराएं हैं। जैन, बौद्ध श्रमण परम्परा के अंग हैं, किंतु इसका यह तात्पर्य नहीं कि श्रमण परम्परा के होने के कारण उनकी सारी अवधारणाएं एक जैसी हो, हां, इतना तो स्पष्ट है कि उनमें कुछ अवधारणाएं समान हैं, जिससे वे वैदिक धारा के पृथक् होकर श्रमण परम्परा में समाहित होते हैं ठीक इसी प्रकार क्रियावाद के संदर्भ में समझना चाहिये। सारे क्रियावादी जैन नहीं हैं। यह स्पष्ट है। अतः सारे क्रियावादी सम्यग्दृष्टि भी नहीं हो सकते, किंतु जो सम्यग्दृष्टि है वह क्रियावादी है इस व्याप्ति को स्वीकार करने में कोई आपत्ति प्रतीत नहीं होती।
नियुक्ति में कहा भी है- 'सम्मदिट्ठी किरियावादी।2 अर्थात् जो सम्यकदृष्टि हैं वे क्रियावादी हैं किन्तु इस वक्तव्य को उलटकर नहीं कहा जा सकता कि सारे क्रियावादी सम्यक्दृष्टि होते हैं। चूर्णिकार ने यह भी कहा है कि निर्ग्रन्थों को छोड़कर 363 में अवशिष्ट सारे मिथ्यादृष्टि है। इससे स्पष्ट है कि चूर्णिकाल तक निर्ग्रन्थ धर्म प्रस्तुत क्रियावाद का ही भेद रहा है।
आगम उत्तरकालीन साहित्य में इन सारे ही वादों को मिथ्यादृष्टि समझा जाने लगा जैसा कि भगवतीवृत्ति से स्पष्ट है।74 यद्यपि टीकाकर भी यह मानने को तो विवश हैं ही कि भगवती में आगत क्रियावाद में सम्यग्दृष्टि का भी