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अनेकान्त/55/2
गुणित करने पर उनके सत्तर भेद होते हैं तथा नियति एवं काल की अपेक्षा जीव आदि सात पदार्थ नहीं है, इस गुणन से उनके 14 भेद हो जाते हैं। 70 एवं 14 मिलकर 84 हो जाते हैं। गोम्मटसार के उल्लेख से ज्ञात होता है अक्रियावादियों में भी दो प्रकार की अवधारणा थीं। एक तो काल आदि पांचों से ही जीव आदि का निषेध करते हैं तथा दूसरे मात्र नियति एवं काल की अपेक्षा से जीव आदि पदार्थों का निषेध करते हैं दोनों का एकत्र समाहार कर लेने से अक्रियावादी के 84 भेद हो जाते हैं।
प्रस्तुत विमर्श से यह भी परिलक्षित हो रहा है कि कालवादी आदि दार्शनिक क्रियावादी एवं अक्रियावादी दोनों ही प्रकार के थे। जो काल आदि के आधार पर जीव आदि पदार्थो का अस्तित्व सिद्ध करते थे वे क्रियावादी हो गये जो इनका इन्हीं हेतुओं से नास्तिक सिद्ध करते थे वे अक्रियावादी हो गये। अक्रियावादियों ने पुण्य, पाप, नित्यता-अनित्यता आदि विकल्पों को क्यों नहीं स्वीकार किया, यह अन्वेषणीय है। नव तत्त्व का आधार
क्रियावादी, अक्रियावादी के भेद नवतत्त्व को आधार बनाकर किये गये हैं। नव तत्त्वों के संदर्भ में इस प्रकार का मात्र वैचारिक प्रस्थान ही रहा होगा, हो सकता है श्रमण निर्ग्रन्थों में इस प्रकार का पारस्परिक विचार होता रहा हो उसका ही उल्लेख इन मतवादों में हो गया हो। इनके वास्तविक प्रस्थानों का अस्तित्व हो, ऐसा संभव नहीं लगता।
जीव आदि नव पदार्थो को अस्ति, नास्ति सात भंगों से साथ गुणित करने पर तिरेसठ भेद हो जाते हैं। जीव है, ऐसा कौन जानता, जीव नहीं है ऐसा कौन जानता है, इस प्रकार सभी भंगों के साथ संयोजना की जाती है।58
देव, राजा, ज्ञानी, यति, वृद्ध, बालक, माता-पिता का मन, वचन, काया एवं दान-सम्मान से विनय करना चाहिये। आठ को चार गुणित करने पर बत्तीस भेद हो जाते हैं।
सूत्रकृतांग सूत्र में क्रियावाद आदि चार वादों का उल्लेख है। 'महावीरत्थुई' अध्ययन में इन वादों के उल्लेख के साथ यह सूचना दी गयी कि महावीर ने