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अनेकान्त/55/2
दार्शनिक विचारधारा के संदर्भ में समवसरण की अवधारणा ___ जैन आगम साहित्य में चार समवसरणों का उल्लेख है।' उनमें इन 363 मतवादों का समाहार हो जाता है। सूत्रकृतांग प्रथम श्रुतस्कन्ध के बारहवें अध्ययन का नाम ही समवसरण है तथा उसका प्रारम्भ इन चार समवसरणों के उल्लेख से ही होता है
चत्तारि समोसरणाणिमाणि पावादया जाइं पुढो वयंति। किरियं अकिरियं विणयं ति तइयं अण्णामाहंसु चउत्थमेव॥
समवसरण का अर्थ है-वाद-संगम। जहां अनेक दर्शनों या दृष्टियों का मिलन होता है, उसे समवसरण कहते हैं
समवसरति जेसु दरिसणाणि दिट्ठीओ वा ताणि समोसरणाणि।''
क्रियावाद, अक्रियावाद, अज्ञानवाद एवं विनयवाद ये चार समवसरण हैं। नियुक्ति में अस्ति के आधार पर क्रियावाद, नास्ति के आधार पर अक्रियावाद, अज्ञान के आधार पर अज्ञानवाद और विनय के आधार पर विनयवाद का प्रतिपादन किया है। 12 क्रियावाद
चार समवसरणों में एक है- क्रियावाद। क्रियावाद और अक्रियावाद का चिंतन आत्मा को केन्द्र में रखकर किया गया है। क्रियावाद आत्मा का अस्तिव मानते हैं। आत्मा है, वह पुनर्भवगामी है। वह कर्म का कर्ता है, कर्म-फल का भोक्ता है और उसका निर्वाण होता है- यह क्रियावाद का पूर्ण लक्षण है।
क्रियावाद की विस्तृत व्याख्या दशाश्रुतस्कन्ध में मिलती है। उसके अनुसार जो आस्तिक होता है, सम्यग्वादी होता है, इहलोक-परलोक में विश्वास करता है, कर्म एवं कर्मफल में विश्वास करता है। वह क्रियावादी है। शाश्रुतस्कन्ध के विवेचन से क्रियावाद के चार अर्थ फलित होते हैं- आस्तिकवाद, सम्यग्वाद, पुनर्जन्म और कर्मवाद। सूत्रकृतांग में क्रियावाद के आधारभूत सिद्धान्तों का उल्लेख प्राप्त होता है। वे सिद्धान्त निम्नलिखित हैं
(1) आत्मा है (2) लोक है (3) आगति और अनागति है (4) शाश्वत