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अनेकान्त/55/2
9 वीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध एवं 10 वीं शताब्दी का पूर्वार्द्ध रहा है। यही नहीं, कवि के परवर्ती, वि. सं. 1100 में हुये मुनि नयनंदि के 'सुदंसण चरिउ' पर कवि के 'जंबुसामि चरिउ' का प्रभाव भी इस काल की सिद्धि करता है। कवि ने अपनी इस कृति में जिन ऐतिहासिक तथ्यों का उल्लेख किया है, उनसे भी इसका रचना काल यही सिद्ध होता है। डॉ. हीरालाल जैन और डॉ. आ. ने. उपाध्ये भी इस कृति का अन्य कृतियों के साथ तुलनात्मक अध्ययन करने के पश्चात् इसी निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि 'जंबूचरियं' की रचना निश्चित ही वि. सं. 1076 में 'जंबुसामि चरिउ' के प्रणयन से अवश्य ही कुछ समय पूर्व ही हो चुकी होगी, तथा इसकी ख्याति से आकृष्ट होकर 'वीर कवि' ने इसका अध्ययन किया होगा।
कवि ने 'जंबुसामि चरिउ' में अपना परिचय देते हुये लिखा है कि वह मालव देश के प्राचीन नगर सिद्ध वर्षों के पास गुलखेडी/गुलखेड गाँव के निवासी लाड वग्ग वंशीय महाकवि देवदत्त की पत्नी, 'संतुवा' की कोख से जन्मे प्रथम पुत्र थे। इनके अलावा इन के तीन छोटे भाई और भी थे, जिनके नाम साहिल, लक्षणीक तथा जईस थे। कवि के चार विवाह हुये थे। उनकी चारों पत्नियों के नाम - जिनमती, पद्मावती, लीलावती और जयादेवी थे। इनमें से पहली पत्नी 'जिनमती' से कवि को 'नेमिचन्द्र' नामक पुत्र की प्राप्ति हुई। 'जंबुसामि चरिउ' के अध्ययन से पता चलता है कि कवि का अध्ययन बहुत विशद था। उन्होंने पतंजलि के व्याकरण महाभाष्य पर कैयट द्वारा रचित 'प्रदीप' नामक प्रख्यात टीका से शब्द शास्त्र का, छन्द शास्त्र का', नामकोश का, तर्कशास्त्र का गहन अध्ययन किया। इसके अलावा उन्होंने प्राकृत काव्य 'सेतबन्धु' का भी विशेष अध्ययन किया। बाल्मीकि रामायण और महाभारत' तथा शिवपुराण आदि का भी उन्हें अच्छा ज्ञान था। जैनागम के चारों अनुयोगों में भी उनका अच्छा अध्ययन था। भरतमुनि के नाट्यशास्त्र" आदि प्राचीन ग्रथों का तथा अन्य शास्त्रीय लक्षण ग्रथों का भी उन्होंने तलस्पर्शी अध्ययन किया था। अपने पूर्ववर्ती कवियों-महाकवि कालिदास और पुष्पदन्त आदि के साहित्यिक गुण उन्हें परम्परा से प्राप्त थे। वे बाण आदि प्रख्यात लेखकों की कृतियों से भी सुपरिचित थे। कवि के अध्ययन सम्बन्धी इस विस्तृत विवरण से स्पष्ट है कि वे संस्कृत और प्राकृत भाषाओं में भी काव्य रचना करने में