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अनेकान्त/55/2
है या फिर कहीं-कहीं कुछ जैन साहित्यकारों का नामोल्लेख मात्र करके चुप्पी साध ली जाती है। यही नहीं, कहीं-कहीं तो यह कह दिया गया है कि वह जैन धर्म से सम्बन्धित और साम्प्रदायिक है। जबकि साहित्यकार चाहे जिसे देश, जाति, धर्म या सम्प्रदाय का हो वह सत्य और सौन्दर्य की तह में प्रवेश करके, अपने मानस से भाव राशि के मोती चुनकर, उन्हें शब्दों की लड़ी में पिरोकर, शिव की साधना करता है।
जैन मतानुसार, 'साहित्य', 'श्रुतज्ञान' का अपरनाम है। जो मूलतः अर्ध-मागधी प्राकृत भाषा में था। मानवीय आवश्यकता के अनुरूप वह संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश आदि भाषाओं में रचा गया। पूर्वाचार्यों की इस परम्परा और संस्कृति को अविच्छिन्न बनाये रखने वाले जैन मनीषियों ने भी साहित्य की अभिवृद्धि में अपना अमूल्य योगदान दिया। उनके द्वारा जो सुन्दर आत्मपीयूष से छल-छलाता हुआ साहित्य रचा गया, वही आज जैन साहित्य के नाम से अभिप्रेत है। जैनाचार्यों ने प्रारम्भ से ही, लोक भाषा को, अपने साहित्य का माध्यम बनाया। सातवीं-आठवीं शताब्दी में तो उन्होनें संस्कृत का पल्ला छोड़कर, अपभ्रंश भाषा में साहित्य का सृजन किया। यों तो 17 वीं शताब्दी तक अपभ्रंश रचनाएँ पायी जाती है, पर 10वीं, 11 वीं और 12 वीं शताब्दी तो अपभ्रंश भाषा की स्वर्ण युग रही है। इस अवधि में अपभ्रंश साहित्य विपुल परिमाण में रचा गया।
यही वि. सं. 1010 से 1075 तक का समय, महाकवि वीर का काल रहा है। कवि ने अपनी एक मात्र उपलब्ध कृति, 'जंबुसामि चरिउ' में उसके रचना काल का उल्लेख करते हुये माध शुक्ला दशमी वि. सं. 1973 में उसके पूर्ण होने की बात कही है
"विक्कमनिवकालाओं छाहत्तर दससएसु वरिसाणं।
माहम्मि सूद्ध पक्खे दसम्मि दिवसम्मि संतम्मि।।2।।"? जैसा कि कवि ने आगे प्रशस्ति में ही लिखा है कि बहुत से राजकार्यों में व्यस्त रहने के कारण उन्हें पूरा करने में एक वर्ष का समय लगा।' कवि के द्वारा उल्लेखित अपने समय की पुष्टि बाह्य साक्ष्य से भी होती है। उनकी इस कृति पर महाकवि पुष्पदंत का प्रभाव देखा जाता है तथा उनका समय वि. की