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अनेकान्त/55/2
- बस ।
अर्थात् यहाँ सबका जीवन मंगलमय बने, सबका कल्याण हो । सब पर सुख की छाया हो । सबके अमंगल दूर हो। सबकी जीवन रूपी लता हरी-भरी और खिली हुई हो उस पर गुण के फूल खिले हों। सबकी नाशा की आशा यानी सुगन्धि की चाह मिट जाये ताकि वह जीवन लता जड़ सहित महक उठे।
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इस प्रकार "मूकमाटी" में आचार्य श्री विद्यासागर जी ने समाजवाद के उन रूपों, पक्षों का उद्घाटन किया है जिनके स्तम्भ और भित्तियों पर समाजवाद का महल खड़ा हो सकता है। सच्चे सामाजिक और समाजवादी बनने के लक्ष्य को सामने रखते हुए हमें विवेक-बुद्धि को जागृत करना चाहिए तथा भेद-भाव समाप्त करना चाहिए; यही कवि की धारणा भी "मूकमाटी' में मूक नहीं बल्कि मुखरित होती है
'समाजवाद का लय हो भेदभाव का अन्त हो भेद-भाव जयवन्त हो । ३३ "
सन्दर्भ
(1) प्रिंसिपल्स ऑफ सोशियोलॉजी, प्र. 27 (2) डिक्शनरी ऑफ सोशियोलॉजी, प्र. 300
(3) द्रष्टव्य आधुनिक राजनीतिक विचारधाराये : पुखराज जैन, प्र 115
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(4) मूकमाटी 32, (5) वही - 33, (6) उत्तराध्ययन 2531, (7) मूकमाटी (8) वही - 355, (9) वही - 55, ( 10 ) वही 64, (11) मूकमाटी 50, (12) मूकमाटी (14) जिनवाणी संग्रह (शान्ति पाठ) पृ. 521 से 522, ( 15 ) मूकमाटी - 82, ( 16 ) मूकमाटी (17) मूकमाटी - 115, (18) वही 171, (19) मूकमाटी 168, (20) कामायनी - (21) मूकमाटी 418, (22) मूकमाटी 271, (23) मूकमाटी- 272, (24) वही (25) निजी डायरी में संगृहीत विचार, ( 26 ) मूकमाटी 366, (27) मूकमाटी 432, (28) मूकमाटी 460 - 461, ( 29 ) मूकमाटी- 461, (30) ससद से सड़क तक, 126-127, (31) मूकमाटी - 467-468, (32) मूकमाटी 478, (33) मूकमाटी - 474
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273,
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51, - 105,
- सम्पादक पार्श्वज्योति
हिन्दी विभाग,
सेवासदन महाविद्यालय, (बुरहानपुर) म. प्र.