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अनेकान्त/55/2
चोरों को पालते हो और
चोरों के जनक भी।" अर्थात् अब धनसंग्रह के स्थान पर जनसंग्रह करो यानी कि जिससे जनहित हो; ऐसे कार्य करो। लोभ के वशीभूत होकर जो तुमने अंधाधुंध संपदा एकत्र की है उसका समुचित वितरण करो। ऐसा नहीं होने पर धनहीनों (गरीबों) में चोरी के भाव जागते हैं, जागे हैं। चोरी मत करो, चोरी मत करो" यह कहना केवल धर्म का नाटक, बाह्य सभ्यता मात्र बनकर रह गया है क्योंकि हमारा आचरण चोर बनने के लिए व्यक्तियों को प्रेरणा देता है। वास्तव में चोर इतने पापी नहीं होते जितने कि चोरों को पैदा करने वाले। जो संचयी हैं वे स्वयं चोर हैं, चोरों को वे ही पालते हैं और चोरों को उत्पन्न भी वे ही करते हैं इसलिए आवश्यक है कि हम अपनी सोच-विचार को बदलें। किसी शायर ने ठीक ही लिखा है कि
"कोठियों से मत आँकिए मुल्क की मैयार।
असली हिन्दुस्तान तो फुटपाथ पर आबाद है।।" "समाजवाद" में क्रान्ति को कोई स्थान नहीं है यह तो पूरी तरह स्वैच्छिक शान्ति की व्यवस्था है जो "महाजनो येन गतः सा पन्थः" की नीति पर चलती है इसीलिए सच्चा समाजवादी भावना करता है कि
"यहाँ ---- सब का सदा जीवन बने मंगलमय छा जावे सुख-छाँव सबके सब टलेंअमंगल भाव सब की जीवन लता हरित-भरित विहँसित हो गुण के फूल विलसित हों नाशा की आशा मिटे आमूल महक उठे