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अनेकान्त/55/2
लंगोटी के परिग्रह के धारक थे। उस समय मरसलगंज धनधान्य से परिपूर्ण एक व्यापारिक केन्द्र था। बाबा ऋषभ दास ने इस पुण्यभूमि पर मन्दिर बनवाने का संकल्प किया। नगर के धर्म प्रेमियों से मन्दिर का निर्माण कार्य आरम्भ हुआ। उसी समय किसी अधर्मी ने राजा से शिकायत कि कोई जैन बाबा मरसलगंज की जमीन को अपने आधीन कर जैन मन्दिर का निर्माण करवा रहा है। राजा के आदेश से निर्माण कार्य बन्द करवा दिया गया। कहते हैं कि किसी धार्मिक कार्य में बाधा उत्पन्न करने पर परिणाम नजर आने लगते हैं। उसी रात्रि राजा अपने शयन कक्ष में विराजमान थे उन्होंने अनुभव किया कि मेरा किला घूम रहा है और मुझे कोई पीट रहा है। मगर दिखाई नही दे रहा है। राजा ने मंत्रियों से मंत्रणा की। किसी ने कहा- आपने बाबा को मन्दिर न बनवाने का आदेश दिया है, यह उसी का परिणाम है। राजा तुरन्त नंगे पैर जाकर बाबा के चरणों में गिर गया तथा क्षमा मांगी एवं आदेश दिया कि जितना धन मन्दिर निर्माण में लगेगा वह सब राज कोष से दिया जायेगा कोई चंदा एकत्रित नही होगा। जितने रुपये की जरूरत होती थी बाबा चटाई के नीचे से निकाल कर जेवर आभूषण रुपया आदि दिया करते थे। इस प्रकार एक विशाल शिखर युक्त कलात्मक जिनालय का निर्माण किया गया। यह चमत्कारी घटना मन्दिर निर्माण की गाथा स्वतः कह रही है।
मन्दिर में जिन बिम्ब स्थापना का आयोजन स्वयं बाबा ने अपने नेतृत्व में किया तथा दूर दूर से लाकर अतिशय युक्त प्राचीन मनमोहन वीतराग शांत मुद्रा की 1008 देवाधिदेव भगवान ऋषभदेव की श्वेतवर्ण पद्मासन जिनबिम्ब को मन्दिर जी की मुख्य वेदी में मूलनायक के रूप में विराजमान किया गया। यह मूर्ति एक हजार वर्ष पूर्व प्रतिष्ठित है। जिनबिम्ब प्रतिष्ठा के पावन अवसर पर अनेकों चमत्कारी आश्चर्य जनक घटनाओं से समाज एवं अधिकारियों को भी चकित कर दिया था। कहा जाता है कि प्रतिष्ठा के अवसर पर श्रद्धालुओं की अपार भीड़ थी। कुएँ के पानी समाप्त हो गये, पानी के लिए हा-हाकार यात्री कर रहे थे तभी बाबा ने मंत्र पढ़कर कुएं में कुछ कंकड डाल दिये तो कुऐ में पानी इतना हो गया कि आज तक समाप्त नहीं हुआ है। मेले में अपार भीड़ के कारण भोजन कम पड़ने लगा। भोजन बनाते समय आटा, घी समाप्त हो