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महाकवि वीर : 'जंबुसामि चरिउ'
-डॉ. प्रकाशचन्द्र जैन भारत एक ऐसा विशाल देश है, जहाँ धर्म, सम्प्रदाय, जातियों की विविधता के बावजूद भी, अनेकता में एकता पायी जाती है। इसी विशेषता के कारण भारतीय संस्कृति की गणना विश्व की महान् संस्कृतियों में की जाती है। प्राचीन काल में भारत जगद्गुरु कहलाता था। उन्नीसवीं शताब्दी के सांस्कृतिक महाजागरण काल में हमें ऐसा लगने लगा था कि विश्व का आध्यात्मिक नेतृत्व, फिर से भारत के हाथ में आने वाला है। स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद तो दुनिया के दूसरे देशों के लोग भी यह सोचने लगे थे, कि भारत के पास कोई ऐसा सन्देश है, जिसमें समूची मानवता का हित निहित है। भले ही आज के अति भौतिकवादी युग में हम अपनी रोटी दूसरों के साथ बाँट कर खाने के बजाय, दूसरों की रोटी छीन कर खाने पर आमादा हों। भले ही उपनिषद् के ऋषि के "तेन त्यक्तेन भुंजीथाः" अर्थात् 'भोग भी त्याग के साथ करें', के सन्देश को हमने भुला दिया हो; पर फिर भी, यह बात सच है कि इन नवीन विश्व को, यदि कुछ पाना है, तो वह उसे प्राचीन भारत से ही प्राप्त हो सकता है। प्राचीन भारत से यहाँ अभिप्राय, हमारे ऋषि मुनियों द्वारा हमें सौंपी गई, उस आध्यात्मिक और साहित्यिक धरोहर से है, जो काफी जद्दो-जहद के बाद बड़े प्रयत्न-पूर्वक आज भी हमारे ग्रंथागारों में सुरक्षित है। इनमें से कुछ अमूल्य रत्न प्रकाश में आये हैं, और कुछ अभी प्रकाश में आने की बाट जोह रहे हैं।
इस साहित्य भण्डार की श्रीवृद्धि में जैन साहित्यकारों का भी अत्यन्त महत्वपूर्ण योगदान रहा है। पर साहित्य के महाराथियों ने, उसे आँख उठाकर देखने की कृपा ही नहीं की। हिन्दी-साहित्य के एक नहीं, अनेक इतिहास प्रकाशित हुए, किन्तु उनमें जैन साहित्य का कहीं कोई उल्लेख नही मिलता जिसे देख कर यह पता चले कि जैन साहित्यकारों का भी कोई अनूठा साहित्य था। हिन्दी की उत्पत्ति की चर्चा में कहीं-कहीं अपभ्रंश का नाम लिया गया