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अनेकान्त/55/2
आदमी वहीं है जो यथा-योग्य
सही-आ---दमी है।" आज व्यक्ति की प्रवृत्तियाँ बदल गयी हैं, उसके लक्ष्य बदल गए हैं, उसके सोच में परिवर्तन हुआ है; स्थिति यहाँ तक आ गयी कि उसे दूसरों के दु:ख देखकर करुणा तो दूर, दर्द भी नहीं उभरता। ऐसे लोगों को पाषाण हृदय की संज्ञा देते हुए आचार्य श्री कहते हैं कि
"मैं तुम्हें हृदय शून्य तो नहीं कहूँगा परन्तु पाषाण-हृदय अवश्य है तुम्हारा दूसरों का दुःख दर्द देखकर भी नहीं आ सकता कभी जिसे पसीना है ऐसा तुम्हारा
-----सीना।।" व्यक्ति बुरा नहीं होता बुरे होते हैं उसके विचार। अत: विचारों को बदलना नितान्त आवश्यक है। लोक में प्रसिद्ध है कि "भावना भवनाशिनी" अर्थात् भावना संसार का नाश करने वाली होती है। सन्त, महर्षि, मुनि आदि सदा से इसी बात को कहते आए हैं
"फिर भी ऋषि-सन्तों का सदुपदेश-सदोदश हमें यही मिला कि पापी से नहीं पाप से, पंकज से नहीं पंक से