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अनेकान्त/55/2
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"वसुधैव कुटुम्बकम्' इस व्यक्तित्व का दर्शन स्वाद-महसूस इन आँखों को सुलभ नहीं रहा अब। यदि यह सुलभ भी है तो भारत में नहीं महाभारत में देखो। भारत में दर्शन स्वारथ का होता है।
------ हाँ - हाँ ।। इतना अवश्य परिवर्तन हुआ है कि "वसुधैव कुटुम्बकम्' इसका आधुनिकीकरण हुआ है वसु यानी धन-द्रव्य धन ही कुटुम्ब बन गया है
धन ही मुकुट बन गया है जीवन का।।" और इस सोच के परिणामस्वरूप हमारी आध्यात्मिकता को ही नहीं, बल्कि समाजवादी स्वरूप को भी ठेस पहुंची है। धन-लिप्सा की दौड़ में व्यक्ति ने अपने सुख-चैन को तो खोया ही है, दूसरों के सुख-चैन को भी नष्ट कर दिया है। स्वयं के संचय के लिए वह दूसरों के मुँह का निबाला भी छीनने से नहीं डरता। आज व्यक्ति को सामाजिक बनाने के लिए धन के पीछे दौड़ने वाले पूँजीवादी दिमाग को परे करना पड़ेगा क्योंकि संसार में रहकर हमें संसार से मैत्री का भाव ही रखना चाहिए आखिर हम बैर करें भी तो किससे? यहाँ हमारा बैरी है ही कौन? बैर पशुप्रवृत्ति है मानवीय नहीं, मानव तो मैत्री भावना से बनता है। रचनाकार की कामना है कि
"सबसे सदा-सहज बस मैत्री रहे मेरी। वैर किससे क्यों और कब करूँ?