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अनेकान्त/55/2
यह तो शुद्ध "धनतंत्र" है
या मनमाना "तंत्र" है। 22" जहाँ अपराधी की जगह निरपराधी सजा पाने लगें, रक्षक भक्षक बन जायें, राजा अपने धर्म से विमुख हो जायें, मंत्री चाटुकार और पदलिप्सु हो जायें, सेवक अवज्ञाकारी हों, वहां "समाजवाद" तो क्या सामजिक स्वरूप की कल्पना ही बेकार हो जाती है। किसी भी तंत्र की सफलता उसके प्रति जन आस्था से प्रभावित होती है किन्तु यदि उसी "जन" का विश्वास न्याय पर नहीं रहे तो "तंत्र" की सफलता खतरे में ही मानना चाहिए। आज के दौर में न्याय प्राप्ति चाँद-तारे तोड़ने जैसा प्रतीत होने लगा है क्योंकि न्याय लम्बित ही नहीं, बल्कि विलम्बित भी हो गया है परिणाम स्वरूप न्याय और अन्याय के बीच की विभाजक रेखा समाप्त सी हो गई है। "मूकमाटी" में इसी भाव की अभिव्यक्ति प्रसंगवश हुई है
"आशातीत विलम्ब के साथ अन्याय न्याय-सा नहीं न्याय अन्याय सा लगता ही है
और यही हुआ
इस युग में इसके साथ। 23" समाजवाद का एक लक्ष्य है सामाजिक असमानता को समाप्त कर विभेदक रेखाओं को समाप्त करना। तथाकथित पद-दलितों के उत्थान हेतु अनेकानेक सहयोगी योजनायें चल रही हैं, किन्तु अपेक्षित परिणाम सामने नहीं आ रहा है। कारण स्पष्ट है कि शरीर, अर्थ और शिक्षा की उन्नति से ही कोई व्यक्ति उन्नत नहीं बन सकता जब तक कि उसके संस्कार सात्विक हो
"परन्तु! यह ध्यान रहेशारीरिक आर्थिक शैक्षणिक आदि सहयोग मात्र से नीच बन नहीं सकता उच्च इस कार्य का सम्पन्न होना सात्विक संस्कार पर आधारित है। 24।।