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समाजवाद की सही प्रतिष्ठा न होने का कारण है वर्ग भेद, वर्णभेद, जाति भेद । किसी का अधिक पोषण किया जा रहा है तो दूसरी और अत्यन्त शोषण है जिसकी परिणति आतंकवाद में होती है
"यह बात निश्चित है कि मान को टीस पहुँचने से ही आतंकवाद का अवतार होता है
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अनेकान्त / 55/2
अति पोषण या अति शोषण का भी यही परिणाम होता है। 21"
'आतंक" जब किसी "वाद" से अभिव्यक्त होने लगे तो समझना चाहिए कि समाज में कुछ लोग इसके समर्थक भी हैं। भले ही हम इन्हें " भ्रमित जन" की संज्ञा दे । "वाद" वही श्रेष्ठ है जिसमें हिंसा, असत्य और चोरी के लिए कोई अवकाश नहीं हो। यही कारण है कि नक्सलवादी भी अपने आपको अमीर-गरीब का भेद मिटाने वाला कहते हैं, किन्तु उनके हिंसक और चौर्य रूप के कारण समाज उन्हें मान्यता नहीं देता ।
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समाजवाद को फलने-फूलने के अवसर लोकतंत्र में अधिक होते हैं, किन्तु आज लोकतंत्र भी नाम के रह गए हैं। जिस तंत्र को "जन" का सेवक होना चाहिए था वह "जन" से अपने पैर पुजवा रहा है। "जनतंत्र" के पर्याय रूप में " धनतंत्र " 'मनमाना तंत्र" " भीड़ तंत्र" जैसे नाम प्रचलित हो गए हैं। लोक पीछे छूट गया है। तंत्र लोक को हाँक रहा है फिर भी हम हैं कि जाग नहीं रहे हैं यहाँ तक कि "गणतंत्र" के स्वरूप को लेकर भी प्रश्न उभरने लगे है
"कभी-कभी बनाई जाती कड़ी से और कड़ी छडी
अपराधियों की पिटाई के लिए।
प्रायः अपराधी जन बच जाते निरपराध ही पिट जाते, और उन्हें
पीटते-पीटते टूटती हम । इसे हम गणतंत्र कैसे कहें ?