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अनेकान्त/55/2
घृणा करो। अयि आर्य! नर से नारायण बनो
समयोचित कर कार्य। 12 अर्थात् ऋषि-सन्तों का सदा यही आदेशात्मक उपदेश मिला है कि पापी से नहीं, पाप से घृणा करो। पंकज (कमल) से नहीं बल्कि पंक (कीचड़) से घृणा करो। हे आर्य! (श्रेष्ठ पुरुष)। तुम समयोचित कार्य कर नर नारायण बनो। भारतीय संस्कृति का आदर्श और कामना सूत्र रहा है
सर्व भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः ।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःखभाग्भवेत् ।।" अर्थात् सभी सुखी हों, सभी आलस्य (प्रभाद) से रहित हों, सभी कल्याण को देखें, किसी को भी दुख नहीं हो। इसी कामना के साथ सदगृहस्थ देवपूजन के समापन पर विश्व शान्ति की कामना करता हुआ कहता है कि
"संपूजकों को प्रतिपालकों को यतीन को यतिनायकों को। राजा प्रजा राष्ट्र सुदेश को ले कीजै सुखी है जिन शांति को दे।। होवै सारी प्रजा को सुख बलयुत हो धर्मधारी नरेशा। होवै वर्षा समै पे तिलभर न रहे व्याधियों को अंदेशा।। होवै चोरी न जारी सुसमय बरतै हो न दुष्काल मारी।
सारे ही देश धारै जिनवर-वृषको जो सदा सौख्य कारी।। 14 इतना ही नहीं, भारतीय संस्कृति में विश्वशांति की कामना के साथ-साथ "विश्व बन्धुत्व" और "वसुधैव कुटुम्बकम्" की भावना भी भायी गयी है, किन्तु आज के इस विषम दौर में धन-आधारित व्यवस्था के कारण इन भावनाओं ने या तो अपने अर्थ खो दिए हैं या अपने अर्थ बदल दिए हैं। "धन" जो कभी साधन था आज साध्य बन गया है। इस चिन्ता से प्रेरित "मूकमाटी" का रचनाकार लिखता है कि