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अनेकान्त/55/2
वइस्सो कम्मुणा होइ सुद्दो हवइ कम्मुणा।'' अर्थात् मनुष्य कर्म से ब्राह्मण होता है कर्म से क्षत्रिय होता है, कर्म से वैश्य होता है और कर्म से ही शूद्र होता है।
किन्तु आज वर्ग व्यवस्था जन्मत: मान लेने से श्रेष्ठता के मायने भी बदल गये हैं। दलित-सवर्ण संघर्ष तथा भेदभाव के मूल में यही भावना है। आचार्य श्री "वर्ण को व्याख्यायित करते हुए कहते हैं कि
"वर्ण का आशय न रंग से है न ही अंग से वरन्
चाल-चरण, ढंग से है।'' अर्थात् वर्ण का तात्पर्य न रंग से है और न ही शरीर से अपितु आचरण और जीवन पद्धति से है।
कर्मणा जीवन पद्धति को स्वीकारने वाला व्यक्ति दुखों से दूर रहता है। आचार्य श्री के अनुसार यदि गम (दु:ख) से डर हो तो श्रम से प्रेम करो
“गम से यदि भीति हो तो --- सुनो
श्रम से प्रीति करो।" श्रमशील व्यक्ति न तो किसी पर बोझ बनता है और न ही किसी पर अन्याय करता है। वह व्यष्टि के सुख में सुख नहीं, बल्कि समष्टि के सुख में सुख मानता है। "वाद" के पीछे मान होता है जो व्यक्ति को व्यक्ति से अलग कर देता है। आचार्य श्री का मानना है कि
"पृथक्वाद का आविर्भाव होना
मान का ही फलदान है।'' यह सही है। मनुष्य बनने के लिए संयमी होना आवश्यक है
"संयम के बिना आदमी नहीं यानी