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आचार्य श्री विद्यासागर कृत "मूकमाटी" में अभिव्यक्त
-समाजवादी विचार
-डॉ. सुरेन्द्र कुमार जैन "भारती" श्रमण सन्त परम्परा के जाज्वल्यमान नक्षत्र आचार्य श्री 108 विद्यासागर जी महाराज कृत "मूकमाटी" महाकाव्य एक महाकृति ही नहीं, बल्कि धार्मिक, दार्शनिक, सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक विचारों का ऐसा बीजक है जिसे वर्तमान में जिया जा सकता है, भविष्य में परखा जा सकता है और अतीत से जोड़ा जा सकता है। सन्त सहज होते हैं और उनका जीवन सहजता का प्रतिबिम्ब। वे न तो कानों सुनी कहते हैं न आँखों देखी बल्कि जिसे भोगा है, अनुभव किया है तथा शास्त्र और तर्क की कसौटी पर कसकर देखा है, उसे ही कहते हैं। इसीलिए उनके विचारों में गंगा जैसी ही नहीं, वरन् गंगोत्री जैसी पावनता होती है। “मूकमाटी" में माटी मूक नहीं होती बल्कि सम्पूर्ण रूप से मुखरित होती है। वह जन के मन को छूती है ओर तन को पावनता के चरम तक ले जाने की प्रेरक बन जाती है। व्यष्टि में समष्टि और समष्टि में व्यष्टि की कल्पना को सार्थक आयाम देती है। "मूकमाटी" में समाजवादी विचार यत्र-तत्र प्रसंगवश बिखरे हुए हैं, जिनकी सुरभि से आप भी सुरभित हो सकते हैं। "मूकमाटी" में व्यक्त समाजवादी विचारों पर दृष्टि डालने से पूर्व हमें उसके शब्दगत यथार्थ को समझना चाहिए। “समाजवाद" दो शब्दों से मिलकर बना है "समाज" और "वाद"। "वाद" का तात्पर्य है विचार या विचारधारा। अर्थात् ऐसी विचारधारा जिसका लक्ष्य समाज हित हो। "समाजवाद" के लिए अंग्रेजी भाषा में "सोशलिज्म" का प्रयोग किया जाता है जिसकी उत्पत्ति "सोश्यिस" शब्द से हुई है, जिसका अर्थ "समाज" होता है। अर्थात् इसका लक्ष्य भी समाज ही है। सुप्रसिद्ध समाजशास्त्री एफ. एच. गिडिंग्स का कथन है कि- "समाज स्वयं एक संघ है, संगठन है, औपचारिक सम्बन्धों का एक ऐसा योग है, जिसमें सहयोग देने वाले व्यक्ति परस्पर सम्बन्धों द्वारा जुड़े रहते हैं।