________________
अनेकान्त/55/2
के कारण नष्ट हो जाय तो असह्य दुःख होता है और पहले भोगे हुए विषयों को बार-बार स्मरण कर जीव दुखी होता रहता है। जिस प्रकार ईंधन से अग्नि की तृप्ति नहीं होती, नदियों के पूर से समुद्र की तृष्णा नहीं मिटती, उसी प्रकार विषयों के भोग से जीव को कभी तृप्ति नहीं होती। जैसे खारा जल पीकर मनुष्य की प्यास और अधिक बढ़ जाती है वैसे ही विषयों के भोग से मनुष्य को तृष्णा भी अधिक बढ़ जाती है।
एक-एक इन्द्रिय की आधीनता के कारण होनेवाली जीव की दुर्दशा का वर्णन करते हुए वे कहते हैं कि वनों में बड़े-बड़े जंगली हाथी जो अपने समूह के स्वामी होते हैं तथा अत्यन्त मदोन्मत्त रहते हैं, वे भी हथिनी के स्पर्श से मोहित होकर गड्ढों में फंस कर दु:खी होते देखे जाते हैं। विकसित कमलों से युक्त अत्यन्त स्वादिष्ट जलवाले तालाब में अपनी इच्छानुसार विहार करने वाली मछली रसना इन्द्रिय के वश में होकर बंसी में लगे हए मांस की लालसा से अपने प्राण गंवा देती है। घ्राण इन्द्रिय के वश में होकर मदोन्मत्त हाथियों के मद की वास को ग्रहण करने वाला भौंरा गुजार करता हुआ हाथियों के कर्णरूपी पंखों के प्रहार से मृत्यु को प्राप्त हो जाता है। वायु से हिलती हुई दीपक की शिखा पर पड़कर चक्षु इन्द्रिय की आधीनता के कारण पंतगे की मृत्यु हो जाती है। इसी प्रकार अपनी इच्छानुसार जंगलों में विचर कर कोमल-कोमल स्वादिष्ट तृणों के अंकुर को चरनेवाली हरिणियां शिकारी के मधुर गीतों की ध्वनि से आकृष्ट होकर काल का ग्रास बन जाती हैं। जब एक-एक इन्द्रिय के विषय का सेवन अनेक दु:खों का कारण है तब पांचों इन्द्रियों के विषयों में आसक्त प्राणी का तो कहना ही क्या है।
पुन: आचार्य कहते हैं कि जो औषधि रोग को जड़ से दूर न कर सके, वह औषधि औषधि नहीं है, जो जल प्यास को न बुझा सके, वह जल जल नहीं है, जो धन आपत्ति को दूर न कर सके, वह धन धन नहीं है, इसी प्रकार विषयभोग से प्राप्त जो सुख विषयों की इच्छा को नष्ट न कर सके, वह सुख नहीं सुखाभास ही है। जिस प्रकार विकारयुक्त घाव होने पर उसे शस्त्र आदि से चीरने का उपचार किया जाता है, उसी प्रकार विषयों की चाह रूपी रोग के उत्पन्न होने पर उसे दूर करने के लिये विषयसेवन किया जाता है, वह विषय सेवन सुख का कारण नहीं है, केवल इच्छारूपी रोग का प्रतीकार है। जिस प्रकार खाज खुजलाते