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आचार्य जिनसेन की दृष्टि में भोगवाद के दुष्परिणाम
-डॉ. सूरज मुखी जैन आज विश्व में भोगवाद का बोलबाला है, मानव अधिकाधिक भोग सामग्री की प्राप्ति के लिये उचित-अनुचित किसी भी प्रकार धनार्जन करने की चिन्ता से प्रतिक्षण व्याकुल रहता है। रात-दिन ऊपरी दिखावा और ऐशो-आराम की सामग्री जुटाने की आपाधापी में उसके हृदय से पारस्परिक स्नेह, सौहार्द एवं सहानुभूति की सुखद भावनाएं लुप्त हो गयी है। अटूट धन सम्पत्ति की लालसा ने अपनों को पराया बना दिया है। धर्मप्राण भारत में खून की नदियां बह रही हैं। भाई-भाई के पिता-पुत्र के, पुत्र-पिता के, बेटा-मां के और मां-बेटे के खून से अपने हाथ रंग रहे है। गौ हमारी माता है, किन्तु आज धन प्राप्ति के लिये प्रतिदिन लाखों गायों की हत्या कर मांस का निर्यात किया जा रहा है। देश में नित्य नये कत्लखाने खुल रहे हैं, जहाँ अत्यन्त निर्दयता के साथ लाखों मूक पशुओं का वध किया जा रहा है। मांसाहार की प्रवृत्ति बढ़ रही है। सिल्क के कपड़े, चमड़े के जूते चप्पल, सुगन्धित इत्र तेल साबुन तथा सौन्दर्य प्रसाधन की अन्य अनेक वस्तुओं की प्राप्ति के लिये अनेक निर्दोष प्राणियों को हत्या कर हम अपनी अमानवीय इच्छाओं की पूर्ति करने का प्रयत्न कर रहे हैं। किन्तु 'ज्यों-ज्यों दवा की, मर्ज बढ़ता ही गया, की उक्ति चरितार्थ हो रही है। आज संसारिक दृष्टि से भी कोई व्यक्ति सुखी और सन्तुष्ट नहीं दिखाई देता। हमारे ऋषि-महार्षियों ने 'सन्तोष एव सुखस्य परं निधानं' कहकर हमें स्पष्ट निर्देश दिया है कि सुख का कारण भोगों का भोग नहीं अपितु सन्तोष है। ___ आचार्य जिनसेन ने आदिपुराण में भोगवाद के दुष्परिणाम को दिखाते हुए कहा है
प्रथम तो विषयों को एकत्र करने में जीव को महान् कष्ट होता है, किसी प्रकार वह एकत्र भी हो जाय तो उसकी रक्षा की चिन्ता से जीव दुखी रहता है
और उसके आर्त परिणाम रहते हैं। यदि संचित किया हुआ धन या विषय सामग्री दुर्भाग्य से चोरी हों जाय या डकैती हो जाय अथवा अन्य किसी प्राकृतिक प्रकोप