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अनेकान्त/55/2
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समय सुख का अनुभव होता है, किन्तु बाद में दाह बढ़ जाने से कष्ट ही होता है, उसी प्रकार विषय-भोगों को भोगते समय तो सुख का अनुभव होता है किन्तु तृष्णा की वृद्धि होते रहने से अन्ततः वह दु:ख का ही कारण होता है। जले हुए घाव पर गीले चन्दन का लेप कुछ समय आराम देता है किन्तु फोड़े के अन्दर का विकार दूर नहीं होने पर चन्दन का लेप स्थायी आराम नहीं देता, उसी प्रकार विषयी जीव को विषयसेवन करते समय सुख का आभास होता है किन्तु विषयों की चाहरूपी रोग के रहते हुए उसे स्थायी सुख नहीं मिलता। दांतों से सूखी हड्डी चबाने वाले कुत्ते को रसास्वादन का कोई आनन्द नहीं मिलता, फिर भी वह हड्डी को चबाता रहता है उसी प्रकार विषयसेवन करने वाले की कभी सन्तुष्टि नहीं होती, फिर भी वह विषय सेवन में संलग्न रहता है और अपने को सुखी मानता है।'
अतः समस्त अनर्थपरम्परा को विषय भोगों से उत्पन्न हुआ जानकर तीव्र दुःख देने वाली विषयों से राग को त्याग देना चाहिये।
परद्रव्यों से प्राप्त होने वाला सुख सच्चा सुख नहीं है अपनी आत्मा से प्राप्त होनेवाला सुख ही नित्य, अविनाशी और सच्चा सुख है।" भोगों के भोग से प्राप्त होने वाला सुख पराधीन है उसमें अनेक बाधाएं उत्पन्न होती रहती हैं, बीच-बीच में व्यवधान उपस्थित होता रहता है और वह कर्मबन्ध का भी कारण है। अत: वह सुख, सुख न होकर दु:ख ही है। बुद्धिमान् लोग उसी सुख को चाहते हैं, जिसमें चित्त सन्तुष्ट हो जाय, विषयासक्त जनों का चित सदैव विषय प्राप्ति के लिये व्याकुल रहता है। अत: वे कभी सुखी नहीं हो सकते।"
आज के भोगवादी मानव को भी सुख प्राप्ति के लिये अपने प्राचीन ऋषि-महार्षियों तथा आचार्यो द्वारा प्रतिपादित भोगों के दुपरिणाम को समझ कर अपनी असीमित इच्छाओं को नियमित कर भगवान महावीर के 'जियो और जीने दो' के आदर्श को ही अपनाना होगा अन्यथा सुखप्राप्ति के हेतु किये गये उसके सभी प्रयास निष्फल ही सिद्ध होंगे। सन्दर्भ 1. आचार्य जिनसेन आदिपुराण 11/182, 183, 186, 2. वही 11/187 से 203 तक 3 आचार्य जिनसेन, आदिपुराण 11/168, 168, 4. वही 11/176, 5. वही 11/178, 6. वही 11/175 7 वही 11/185,8. वही 11/211, 9. वही 21/208, 10 आचार्य जिनसेन आदिपुराण 11/173 11. वही 11/172