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अनेकान्त/55/2
तत्रास्त्यधो निखिलवस्त्ववगाहयुक्तं भास्वत्कलाधरबुधैः संवृषं सतारम् । अध्यासितं वियदिव स्वसमानशोभं ख्यातं पुरं जगति कुण्डपुराभिधानम् ।। उन्मीलितावधिदृशा सहसा विदित्वा तज्जन्म भक्ति भरतः प्रणतोत्तमांगाः । घण्टा निनाद समवेतनिकायमुख्या दिष्टया ययुस्तदिति कुण्डपुरं सुरेन्द्राः ||
- असग (10 वीं शती ई.), वर्द्धमानचरित, 17/1, 7, 61
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'अथानन्तर इसी भरतक्षेत्र में एक ऐसा लक्ष्मी सम्पन्न देश है जो पृथिवी की स्वयं इकट्ठी हुई अपनी समस्त कान्तियों का मानों सार ही है, जो समस्त दिशाओं में विदेह इस नाम से प्रसिद्ध है, तथा उत्तम मनुष्यों के रहने का उत्कृष्ट स्थान है। "
" तदनन्तर उस विदेह देश में कुण्डपुर नाम का एक जगत्-प्रसिद्ध नगर था जो स्वसदृश शोभा से सम्पन्न होता हुआ आकाश के समान सुशोभित हो रहा था, क्योंकि जिस प्रकार आकाश समस्त वस्तुओं के अवगाह से युक्त है, उसी प्रकार वह नगर भी समस्त वस्तुओं के अवगाह से युक्त था। तात्पर्य यह है कि " आकाशस्यावगाह : " इस आगम वाक्य से जिस प्रकार आकाश, जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल इन छह द्रव्यों को अवगाह देता है, उसी प्रकार वह नगर भी संसार के समस्त पदार्थों को अवगाह देता था - उसमें संसार के समस्त पदार्थ पाये जाते थे। जिस प्रकार आकाश- भास्वत्-सूर्य, कलाधर - चन्द्रमा और बुध ग्रहों से अध्यासित - अधिष्ठित है उसी प्रकार वह नगर भी भास्वत्कलाधर बुधों दैदीप्यमान कलाओं के धारक विद्वानों से अधिष्ठित था इस सबका उसमें निवास था। जिस प्रकार आकाश सवृष-वृष राशि से सहित होता है, उसी प्रकार वह नगर भी सवृष - धर्म से सहित था व जिस प्रकार आकाश सतार - ताराओं से सहित है उसी प्रकार वह नगर भी सतार - चाँदी, तरुण पुरुष, शुद्ध मोती अथवा मोतियों आदि की शुद्धि से सहित
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था।
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"खुले हुए अवधिज्ञान रूपी नेत्र के द्वारा शीघ्र ही जिन बालक का जन्म जानकर भक्ति के भार से जिनके मस्तक झुक गये थे तथा जिनके मुख्य भवन घण्टा के शब्द से शब्दायमान हो रहे थे। ऐसे इन्द्र उस समय सौभाग्य से कुण्डपुर आये । "