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श्वेतांबर प्रतिष्ठाओं में आय का 15 प्रतिशत शैक्षिक एवं अकादमिक कार्यों में व्यय किया जाता है। क्या साधुजन तीर्थो की या धार्मिक आयोजनों की आय का कम से कम 10 प्रतिशत भी इस कार्य में उपयोग के लिये प्रेरित नहीं कर सकते? दिगंबर समाज में प्राय: 100 प्रतिष्ठायें प्रतिवर्ष होती हैं जिनकी औसत आय पांच लाख माननी चाहिये। इस आधार पर जैनधर्म के विश्वीय संवर्धन के ऐसे कार्य के लिये प्रतिवर्ष 50 लाख रुपये तक उपलब्ध हो सकते हैं। प्रतिष्ठाचार्य
भी इस दिशा में प्रेरणा और योगदान कर सकते हैं। इस संबंध में मैने अपने एक लेख (जैन गजट, अक्टूबर, 2000) में भी संकेत दिया था। इन लेखों से उसकी पुष्टि होती हैं। एक योजना भी सुझाई थी। पर 'दिगंबरत्व' का अर्थ ही हैं, "ऊर्ध्वदिशा में उडना, जमीन से ऊपर रहना" फिर भी, महत्ता दूसरों के द्वारा आंकी जाती है, यह ध्यान में रखना चाहिये। अंतर्मुखी एवं व्यक्तिवादी धर्म दूसरों के मतों का क्यों सम्मान करे? फिर भी, एक उदाहरण सामने आया है कि दिल्ली के श्री आर. पी. जैन ने अमरीका के एक प्रोफेसर को दिगंबर धर्म के अध्ययन के लिए प्रोत्साहित किया और उन्होने जयपुर में द्यानतराय की पूजाओं पर कुछ काम भी किया है। (महावीर जयती स्मारिका, 2001)। पर इसे अपवाद ही समझना चाहिये। क्या हमारे समाज का नेतृवृंद या साधुवृंद भगवान् महावीर के 2600 वें जन्मोत्सव वर्ष में इस ओर ध्यान देगा?
-जैन केन्द्र रीवॉ, (म.प्र.)