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अनेकान्त/55/1
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सचित्त दव्व विग्गई, पन्नी ताम्बूल वत्थ कुसुमेसु।
वाहक सयल विलेवण, बम्म दिसि नाहण भत्तेसु।।" इन नियमों से व्रत विषयक जो मर्यादा रखी जाती है, उसका संकोच होता है और आवश्यकताएं उततरोत्तर सीमित होता है।
उक्त सभी व्रतों में जिन मर्यादाओं की बात कही गयी है, वह व्यक्ति की अपनी इच्छा और शक्ति पर निर्भर है। भगवान महावीर ने यह नहीं कहा कि आवश्यकताएं इतनी-इतनी सीमित हों। उनका मात्र संकेत इतना था कि व्यक्ति स्वेच्छा पूर्वक अपनी शक्ति और सामर्थ्यवश आवश्यकताओं - इच्छाओं को परिसीमित व नियंत्रित करें। जिससे समतावादी समाज का निर्माण किया जा सके। 5. साधन-शुद्धि पर बल देकर भी समतावादी समाज की रचना करने के कुछ सूत्र महावीर ने दिए। अणुव्रतों के द्वारा व्यक्ति की प्रवृत्ति न केवल धर्म या दर्शन के क्षेत्र विकसित होती है, बल्कि आर्थिक दृष्टि से भी अणुव्रतों का पालन समतावादी समाज रचना का हेतु साधन माना जाता है। साधन वृद्धि में विवेक, सावधानी और जागरूकता का बड़ा महत्व है।
जैनदर्शन में साधन शुद्धि पर विशेष बल इसलिए भी दिया गया है कि उससे व्यक्ति का चारित्र प्रभावित होता है। बुरे साधनों से एकत्रित किया हुआ धन अन्तत: व्यक्ति को दुर्व्यसनों की ओर ले जाता है और उसके पतन का कारण बनता है। तप के बारह प्रकारों में अनशन ऊनोदरी भिक्षाचर्या और रस परित्याग भोजन से ही सम्बन्धित हैं। इसीलिए खाद्य शुद्धि संयम प्रकारान्तर से साधन शुद्धि के ही रूप बनते हैं।
अहिंसा की व्यावहारिकता की तरह ही सत्याणुव्रत एवं अस्तेयाणुव्रत का साधन-शुद्धि के संदर्भ में महत्त्व है। ये विभिन्न व्रत साधन की पवित्रता के ही प्रेरक और रक्षक है। अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अथवा अर्थाजन करने में व्यक्ति को स्थूल हितों से बचना चाहिए। सत्याणुव्रत में सत्य के रक्षण और असत्य से बचाव पर बल दिया गया। व्यक्ति अपने स्वार्थ के लिए कन्नालाए (कन्या के विषय में) गवालीए (गौ के विषय में) भोमा लिए