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अनेकान्त/55/1
रहा। फलस्वरूप श्रम के शोषण से बढ़े वर्ग-संघर्ष की मुख्य समस्या ने अन्तर्राष्ट्रीय समस्या का रूप ले लिया। ।
इस समस्या के समाधान में समाजवाद, साम्यवाद जैसी कई विचार धाराएं आयी, किन्तु सबकी अपनी-अपनी सीमाएं हैं। भगवान महावीर ने आज से लगभग 2500 वर्ष पूर्ण इस समस्या के समाधान के कुछ सूत्र दिए, जिनके संदर्भ में समतावादी समाज की रचना की जा सकती है। ये सूत्र अर्थ प्रधान होते हुए भी जैन धर्म के साधना सूत्र कहे जा सकते हैं। महावीर ने श्रावकवर्ग की आवश्यकताओं एवं उपयोग का चिंतन कर हर क्षेत्र में मर्यादा एवं परिसीमन पूर्वक आचरण करने के लिए 12 व्रतों का विधान किया है। जिनके पालने से दैनिक जीवन मे आवश्यकताओं का स्वैच्छिक परिसीमन हो जाता है। परिसीमन के वे सूत्र है:(क) महावीर ने अपरिग्रह का सिद्धान्त देकर आवश्यकताओं को मर्यादित कर
दिया। सिद्धान्तानुसार समतावादी समाज रचना में यह आवश्यक हो गया कि आवश्यकता से अधिक वस्तुओं का संचय न करें। मनुष्य की इच्छाएं आकाश के समाने अनन्त हैं, और लाभ के साथ ही लोभ के प्रति आसक्ति बढ़ती जाती है। क्योंकि चांदी-सोने के कैलश पर्वत भी व्यक्ति को प्राप्त हो जायें, तब भी उसकी इच्छा पूरी नही हो सकती अतः इच्छा का नियमन आवश्यक है। इस दृष्टि से श्रावकों के लिए परिग्रह-परिमाण या इच्छा परिमाण व्रत की व्यवस्था की गयी है। अत: मर्यादा से व्यक्ति आवश्यक संग्रह और शोषण की प्रवृत्ति से बचता है। सांसारिक पदार्थो का परिसीमन जीवन-निर्वाह को ध्यान में रखते हुए किया गया है, वे हैं(1) क्षेत्र (खेत आदि भूमि) (2) हिरण्य (चांदी) (3) वास्तु (निवास योग्य स्थान) (4) सुवर्ण (सोना) (5) धन (अन्य मूल्यवान् पदार्थ) (ढले हुए या घी, गुड़ आदि) (6) धान्य (गेहूं, चावल, तिल आदि) (7) द्विपद (दो पैर वाले) (8) चतुष्पद (चार पैर वाले) (9) कुप्य (वस्त्र, पात्र, औषधि आदि)