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अनेकान्त/55/1
आर्थिक बिन्दुओं को रेखांकित किया जा सकता है:
1. अहिंसा की व्यावहारिकता 2. श्रम की प्रतिष्ठा 3. दृष्टि की सूक्ष्मता 4. आवश्यकताओं का स्वैच्छिक परिसीमन 5. साधनशुद्धि पर बल
6. सर्जन का विसर्जन 1. महावीर ने समता के साध्य को प्राप्त करने के लिए अहिंसा को साधन रूप बताया है। अहिंसा मात्र नकारात्मक शब्द नहीं है बल्कि इसके विधि रूपों में सर्वाधिक महत्त्व सामाजिक होता है। वैभवसम्पन्नता, दानशीलता, व्यावसायिक कुशलता, ईमानदारी, विश्वसनीयता और प्रामाणिकता जैसे विभिन्न अर्थ प्रधान क्षेत्रों में अहिंसा की व्यावहारिकता को अपनाकर श्रेष्ठता का मापदंड सिद्ध किया जा सकता है। अहिंसा की मूल भावना यह होती है कि अपने स्वार्थो, अपनी आवश्यकताओं को उसी सीमा तक बढ़ाओ जहां तक वे किसी अन्य प्राणी के हितों को चोट नहीं पहुंचाती हों। अहिंसा इस रूप में व्यक्ति संयम भी है और सामाजिक संयम भी। 2. साधना के क्षेत्र में श्रम की भावना सामाजिक स्तर पर समाधृत हुई। इसीलिए महावीर ने कर्मणा श्रम की व्यवस्था को प्रतिष्ठापित करते हुए कहा कि व्यक्ति कर्म से ही ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र बनता है।' उन्होंने जन्मना जाति के स्थान पर कर्मणा जाति को मान्यता देकर श्रम के सामाजिक स्तर को उजागर किया, जहां से श्रम अर्थव्यवस्था से जुड़ा और कृषि, गोपालन, वाणिज्य आदि की प्रतिष्ठा बढ़ी।
जैन मान्यतानुसार सभ्यता की प्रारम्भिक अवस्था में जब कल्पवृक्षादि साधनों से आवश्कताओं की पूर्ति होना सम्भव न रहा, तब भगवान ने असि, और कृषि रूप जीविकावार्जन की कला विकसित की और समाज की स्थापना में प्रकृति-निर्भरता से श्रम जन्य आत्म-निर्भरता के सूत्र दिए। यही श्रमजन्य