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अनेकान्त/55/1
सिद्धान्त आवश्यकताओं से अधिक वस्तुओं का संचय न करना, शरीर श्रम, स्वादविजय, उपवास आदि के जो प्रयोग किये, उनमें जैनदर्शन के प्रभावों को सुगमता से रेखांकित किया जा सकता है।
जैनदर्शन का मूल लक्ष्य वीतरागभाव अर्थात् राग-द्वेष से रहित समभाव की स्थिति प्राप्त करना है। समभाव रूप समता में स्थित रहने को ही धर्म कहा गया है। समता धर्म का पालन श्रमण के लिए प्रति समय आवश्यक है। इसीलिए जैन परम्परा में समता में स्थित जीव को ही श्रमण कहा गया है। जब तक हृदय में या समाज में विषम भाव बने रहते हैं, तब तक समभाव की स्थिति प्राप्त नहीं की जा सकती। समतावादी समाज-रचना के लिए यह
आवश्यक है कि विषमता के जो कई स्तर यथा-समाजिक विषमता, वैचारिक विषमता, आर्थिक विषमता, दृष्टिगत विषमता, सैद्धान्तिक विषमता आदि प्राप्त होते हैं, उनमें व्यावहारिक रूप से समानता होनी चाहिए। समतावादी समाज रचना की प्रमुख विषमता आर्थिक क्षेत्र में दिखाई देती है। आर्थिक वैषम्य की जड़ें इतनी गहरी हैं कि उससे अन्य विषमता के वृक्षों को पोषण मिलता रहता है। आर्थिक विषमता के कारण निजी स्वार्थो की पूर्ति से मन में कषायभाव जागृत होते हैं फलतः समाज में पापोन्मुखी प्रवृत्तियाँ पनपने लगती हैं। लोग
और मोह पापों के मूल कहे गये हैं। मोह राग-द्वेष के कारण ही (जीव) व्यक्ति समाज में पापयुक्त प्रवृत्ति करने लगता है। इसलिए इनके नष्ट हो जाने से आत्मा को समता में अधिष्ठित कहा गया है। समाज में व्याप्त इस आर्थिक वैषम्य को जैनदर्शन में परिग्रह कहा गया है। यह आसक्ति, अर्थ-मोह या परिग्रह कैसे टूटे, इसके लिए जैनधर्म में श्राविक के लिए बारह व्रतों की व्यवस्था की है। समतावादी समाज रचना के लिये आवश्यक है कि न मन मे विषम भाव रहें और न प्रवृति में वैषम्य दिखाई दे। यह तभी सम्भव है जब धार्मिक और आर्थिक स्तर पर परस्पर समतावादी दृष्टिकोण को अपनाएं। प्रत्येक मनुष्य के सामने विकास के समान अवसर एवं साधन उपलब्ध होंइसे समाजवाद का मूलसिद्धान्त माना गया है। मानव-मात्र की समानता समतावादी समाज की रचना का व्यावहारिक लक्ष्य है। जैन दर्शन में धार्मिक प्रेरणा से जो अर्थतन्त्र उभरा है, वह इस दिशा में हमारा मार्ग दर्शन कर सकता है। अत: समतावादी समाज रचना के लिए जैन दर्शन के संदर्भ में निम्नांकित