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जैन आचार दर्शन : आर्थिक व्यवस्था के संदर्भ में
-डॉ. जिनेन्द्र जैन
यह एक बुद्धिगम्य तथ्य है कि जब तक योजनाबद्ध और सनियंत्रित आदर्शमूलक विकास-पथ का सक्रिय अनुसरण मानव-समाज द्वारा न होगा, तब तक वास्तविक उत्कर्ष के उन्नत शिखर पर दृढ़तापूर्वक चरण स्थापित नही किये जा सकेंगे। अनेक भौतिक उपलब्धियों के बाद भी, आज मानव वास्तविक सुख से वंचित है। वास्तविक सुख मानव-जाति में धर्म अर्थ, काम
और मोक्ष रूप पुरुषार्थ है और उनका आपस में सम्बन्ध है। इसीलिए धर्म के साथ अर्थ रखने का फलितार्थ यह है कि अर्थ का उपयोग धर्म द्वारा नियन्त्रित हो और धर्म अर्थ द्वारा प्रवृत्यात्मक बने। इस दृष्टि से धर्म-अर्थ का सम्बन्ध संतुलित अर्थव्यवस्था और समाज-रचना का समाजवादी दृष्टिकोण स्थापित करने में सहायक बनता है। धर्म मानव-जीवन की आध्यात्मिक एवं धार्मिक शक्तियों के साथ-साथ सामाजिक विकास और उसके रक्षण के लिए भी आवश्यक व्यवस्था देता है। अतः समाज व्यवस्था के सूत्रों के धरातल पर धर्म आर्थिक तत्वों से जुडता है।
जैनधर्म केवल निवृत्तिमूलक दर्शन नहीं है, बल्कि उसके प्रवृत्यात्मक रूप में अनेक ऐसे तत्व विद्यमान हैं, जिनमें निवृत्ति और प्रवृत्ति का समन्वय होकर धर्म को लोकोपकारी रूप प्रकट हुआ है। इस दृष्टि से जैन धर्म जहां एक ओर अपरिग्रही, महाव्रतधारी अनगार धर्म के रूप में निवृत्तिप्रधान दिखाई देता है तो दूसरी ओर मर्यादित प्रवृतियाँ करने वाले अणुव्रतधारी श्रावक धर्म की गति-विधियों में सम्यक् नियन्त्रण करने वाला दिखाई देता है। समाज-रचना के समाजवादी दृष्टिकोण में से दोनों (अनगार एवं श्रावक) वर्ग सदा अग्रणी रहे हैं। समाज रचना में राजनीति और अर्थनीति के धरातल पर यदि जैनदर्शन के अहिंसात्मक स्वरूप को प्रयोग करें तो आधुनिक युग में समतावादी दृष्टिकोण को स्थापित किया जा सकता है। महात्मा गांधी ने भी आर्थिक क्षेत्र में ट्रस्टीशिप का