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जैन विद्वत्ता : हास या विकास
____ -डॉ. नंदलाल जैन इग्लैंड से प्रकाशित होनेवाली पत्रिका 'जैन स्पिरिट' के पिछले दो अंको में एडिनबरो विश्वविद्यालय के संस्कृत के प्रोफेसर के 'जैन साहित्य की परंपरा एवं जैन विद्वत्ता के गिरते हुए स्तर' पर दो लेख प्रकाशित हुए हैं। इन लेखों से जैनों के विषय में पाश्चात्य विचारधारा का अनुमान तो होता ही है, हमें भविष्य के लिये मार्गदर्शन भी मिलता हैं। वे कहते हैं कि जैनों का आध्यात्मिक आगम साहित्य अपनी टीकाओं एवं भाष्यों आदि के माध्यम से पर्याप्त स्वयं-समीक्षात्मक हैं ओर प्रारंभ में यह विद्वान् साधुओं द्वारा लिखा गया हैं। चौदहवीं सदी तक जैन प्रायः अभिजात कुलीन राजा या क्षत्रिय ही थे और साधुओं ने केवल साधु-आचार ही लिखा या साधुत्व की ओर बढ़ने की प्रेरणा देने वाला साहित्य लिखा जिसमें 'ज्ञाताधर्मकथा' के समान काव्य-सौदर्य से भरा कथा साहित्य भी है। इसके बाद जैन प्राय: व्यवसायी हो गये और फलतः साहित्य की दिशा भी बदल गई। गृहस्थों के आचार पर भी साहित्य लिखा जाने लगा। लेकिन यह साहित्य आदर्शवादी अधिक है और बहूतेरे अंशो में, नितांत अव्यावहारिक है। इस विवरण का आधार मुख्यतः श्वेतांबर साहित्य ही है। वस्तुतः लेखक का यह कथन सही नही हैं। त्रिलोक प्रज्ञप्ति में ऋषभ से लेकर महावीर तक श्रावक-श्राविकाओं की संख्या दी गई है, जो साढ़े चार लाख से सदैव ही अधिक रही हैं। इसमें अभिजात वर्ग तो अल्प ही था, अन्य वर्ग ही प्रायः 99 प्रतिशत था। तीर्थकर इन्हें समुचित चर्या न बताते यह कैसे संभव था? इसीलिये 'उपासक दशा' अंग तो श्रावक के विषय में ही हैं, अन्य आगम ग्रंथो में भी श्रावक की चर्या और व्रतों का वर्णन हैं। हाँ, स्वतंत्र रूप से श्रावकाचार के ग्रंथ नहीं होंगे, पर दिंगबरों में समंतभद्र का रत्नकरंडश्रावकाचार तो प्रसिद्ध हैं। इसका अंग्रेजी अनुवाद भी 'मानव धर्म' के रूप सामने आया है।