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अनेकान्त / 55/1
अनुपलब्धि के साथ पूर्णतः संगत है। वह प्रमाणित करता है कि भारत ( पश्चिमोत्तर प्रदेशों को छोड़कर) में लेखन कला का अस्तित्व चंद्रगुप्त मौर्य के युग तक नहीं था । इस प्रकार के चौदह तर्क श्री राम गोयल ने प्रस्तुत किये
हैं । '
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प्रो. एल. सी. जैन द्वारा निर्देशित लेखों में (अर्हत् वचन में प्रकाशित ) इस संभावना की अभिव्यक्ति भी है कि जो 'कर्म सिद्धान्त" दिगम्बर जैनाचार्यो के पास शेष रहा था, उसे सुरक्षित रखने हेतु भद्रबाहु और उनके शिष्य चंद्रगुप्त मौर्य (मुनि प्रभाचंद्र) ने बारह वर्ष की समाधि काल के दौरान ब्राम्ह्मी और सुंदरी क्रमशः भाषा के व्याकरण और गणित की लिपियों (अंक) का आविष्कार कर लेख रूप में रचित की होंगी, जिनके दो रूप गुणभद्राचार्य कृत कषाय प्राभृत और पुष्पदंत भूतबलि आचार्य कृत षट्खंडागम के रूप में अनेकानेक टीकाओं सहित तथा नेमिचंद्र चक्रवर्ती कृत 13 वीं सदी के लब्धि-सार और गोम्मटसार तथा उनकी टीकाओं सहित 13 वीं सदी तक कर्नाटक वृत्ति के रूप में गणतीय संदृष्टियों सहित हमारे सामने उपलब्ध हैं। उक्त साहित्य इस तथ्य का सक्षम व पुष्ट प्रमाण है कि इन दोनों लिपियों का आविष्कार अशोक के पूर्व चंद्रगुप्त मौर्य की दीक्षा होने के पश्चात् दक्षिण में श्रवण बेलगोल पर प्रारंभ हुआ होगा जहां से शेष मुनिसंघ को और आगे दक्षिण भारत में बढ़ने के लिए आचार्य भद्रबाहु ने निर्देश दिया था ।
पुरातात्त्विक प्रमाण सैन्धव हड़प्पा सभ्यता में मिली मुहरें, छापे, शिलालेखो के अंश आदि कुछ ऐसी वस्तुएं हैं जिनका सीधा संबंध भगवान ऋषभदेव व श्रमण परंपरा से है।
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1928 ई. में खुदाई से प्राप्त एक मुहर ( सी क्रं. 620, जो कि केन्द्रीय पुरातात्त्विक संग्रहालय में सुरक्षित है) में " जैन विषय एवं पुरातथ्य को एक रूपक के माध्यम से इस खूबी के साथ अंकित / समायोजित किया गया है कि वे जैन पुराततव, इतिहास व परंपरा की एक प्रतिनिधि निधि बन गए हैं"।
इस सील में दायीं ओर नग्न कायोत्सर्ग मुद्रा में भगवान ऋषभदेव हैं, जिनके शिरोभाग पर एक त्रिशूल है जो रत्नत्रय (सम्यग्दर्शन, समयग्ज्ञान ओर सम्यक् चारित्र) का प्रतीक है। ऊपर की तरफ कल्पवृक्ष पुष्पावली तथा