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अनेकान्त/55/1
करने वाला पुरुष, मनि कहलाता है। ऋषि शब्द जहाँ प्रवृत्ति-परायणता का वाचक है, मुनि वहीं निवृत्ति-परायणता का। पुराणों के प्रमाण से ब्रम्हाजी ने प्रलय के बाद प्रजा की उत्पत्ति और वेदों की रक्षा हेतु एक मनु और सात ऋषियों को उत्पन्न किया। 10 इन सप्तर्षियों के पूर्ववर्ती दिगंबर जैन मुनि सनन्दन आदि की उत्पत्ति ब्रम्हाजी के साथ ही भगवान् शिव के द्वारा हुई।। इस प्रकार वैदिक पुराण स्वयं ही मुनियों का अस्तित्व ऋषियों से पूर्व ही स्वीकारते हैं।
वैदिक साहित्य के प्राचीनतम ग्रंथ ऋग्वेद में न केवल मुनियों का उल्लेख है, बल्कि उनको या उनकी एक विशेष शाखा को वातरशना मुनि कहकर उनकी वृत्तियों का विवरण भी दिया गया है। 12 मुनियों के साथ "वातरशना" विशेषण, ऋषि पृथक् वैराग्य, अनासक्ति, मौनादि वृत्तियों वाले मुनियों को विशेष अर्थ देता है। वात-रशना (वायु-मेखला) से अर्थ है जिनका वस्त्र वायु हो अर्थात् नग्न। “वातरशना" जैन परंपरा में नितांत परिचित शब्द है। जिनसहस्त्रनाम में इसका उल्लेख है
“दिग्वासा वातरशनो निर्ग्रन्थज्ञोनिरम्बर:"-महापुराण २५/२०४
अतः स्पष्टतया, ऋग्वेद की रचना के समय दिगंबर मुनि परंपरा विद्यमान, प्रतिष्ठित एवं स्तुत्य थी। इसके बाद के अर्थात् उत्तरकालीन वैदिक परंपरा में वातरशनामुनि पूर्ववत् सम्मान पाते हुए ऊर्ध्वरेता (ब्रम्हचारी) और श्रमण नामों से भी अभिहित होने लगे थे।
“वातरशना हवा ऋषयः श्रमणाः ऊर्ध्वमथिनो वभूवः'।" पद्मपुराण (6/212) के अनुसार "तप का नाम ही श्रम है, अत: जो राजा राज्य का परित्याग कर तपस्या से अपना संबंध जोड़ लेता है, वह श्रमण कहलाने लगता है"।
अथर्ववेद के पंद्रहवें व्रात्यकांड का तुलनात्मक अध्ययन एवं विश्लेषण कर विद्वानों ने निष्कर्ष निकाला है कि "व्रात्य" जैनों को ही संबोधित किया गया है। 14