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अनेकान्त/55/1
या नहीं? जितनी भी परम्पराएं या मान्यताएं हैं या धर्म संस्थाएं हैं वे भी धर्म से अनुप्राणित हैं या नहीं? इन सबकी पहचान या कसौटी अहिंसा है।
अहिंसा के अतिरिक्त और कोई आधार नहीं, जो खण्ड-खण्ड होती हुई मानव जाति को एकरूपता दे सके या एक सूत्र में ग्रथित कर सके। विश्व के प्रत्येक प्राणी को सुरक्षा का आश्वासन, सृजनात्मक स्वातन्त्र्य का विश्वास आत्मौपम्य दृष्टिमूलक अहिंसा ही दिला सकती है। मानवों के साथ कल्पित इन औपचारिक भेदों को मिटाकर सद्भावना स्थापित करना अहिंसा का ही कार्य है। शिवार्य का भगवती आराधना में कहना है- "जिस प्रकार अणु से छोटी कोई वस्तु नहीं है। और आकाश से बड़ी कोई वस्तु नहीं। ठीक उसी तरह विश्व में अहिंसा से बढ़कर अन्य कोई व्रत या नियम नहीं है।''(गाथा. 784)
शान्ति का हनन हिंसा तथा उसकी रक्षा करना अहिंसा है। अहिंसा कायरों का नहीं वीरों का धर्म है। अहिंसक का हृदय उदार तो होता है पर निर्भय भी होता है। अहिंसक जीते जी शत्रु से हार नहीं मानता। अहिंसक हृदय प्रायः अवसरों पर मौन रहता है। किन्तु जब विरोधी के विरोध का अवसर आता है तो पाषाण से भी कठोर हो जाता है। दूसरों के तनिक से कष्ट पर उसका मन रो उठता है और उनकी रक्षा के अवसरों पर सिंहवृत्ति धारण कर लेता है।
आध्यात्मिक क्षेत्र मे तो अहिंसा की अनिवार्यता ही है इसके बिना आध्यात्मिक गाति ही नहीं हैं। व्यावहारिक जीवन के जितने भी पक्ष हैं उन सबमें अहिंसा की मुख्यता है। माता की ममता, पिता का दुलार, भगिनी का स्नेह, पुत्र की भक्ति, राजा की सुव्यवस्था, आयात-निर्यात के साधन, आवागमन के संकेत, राजमागों पर प्रकाश, चौराहों पर दिशा निर्देशक. तेल, मोटर गाड़ी, स्कूटर, साईकिल आदि की लाल बत्तियां आदि सभी अहिंसा के ही भाग है।
अहिंसा में अलौकिक वीरत्व भी है पर उसको प्रधानता साधु के जीवन में है जिसके शत्रु बाहर के पशु व मनुष्यादि नहीं हैं बल्कि अतरंग के मानसिक विकार हैं जिनके साथ वह निरन्तर युद्ध करता रहता है।
आज मानव जाति प्रकृति से हटकर विकृति की और बढ़ रही है। इसी का परिणाम है परस्पर का द्वेष बढ़ रहा है। प्रत्येक मानव एक दूसरे को विनष्ट करने पर तुला हुआ है। विनाश मानव का स्वभाव नहीं विभाव है प्रकृति नहीं