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अनेकान्त/55/1
सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, एवं अपरिग्रह आदि सभी व्रतों का समावेश अहिंसा में हो जाता है। श्रमणसंस्कृति का मूल स्वरूप अहिंसा है। इसके बिना न नैतिकता जीवित रह सकती है और न ही आध्यात्मिकता। अहिंसा की व्यावहारिकता सिद्ध है। क्योंकि चाहे गृहस्थ हो या साधु सर्वप्रथम अहिंसा की प्रतिज्ञा लेता है। इसकी प्रतिज्ञापूर्वक ही जीवन विकासपथ पर बढ़ पाता है। सामाजिक जीवन का प्रथम कर्तव्य अहिंसा है। मानव सभ्यता का आदर्श है। आत्मसिद्धि के लिये अनुकूल क्रिया-कर्म, जप-तप, अनुष्ठान, त्याग व्रतादि सभी अहिंसा
अहिंसा सभी सुखों का स्रोत रही है, इसकी आराधना से मानव ने लौकिक और पारलौकिक सभी प्रकार की सुख शान्ति प्राप्त की है। आज भी अहिंसा में वही शक्ति है। मानव के जीवन में क्लेशों और कष्टों का अन्त करने में अहिंसा आज भी उतनी ही सक्षम है, जितनी पूर्वकाल मे थी। यह तभी संभव है, जब अहिंसा का पूर्ण आदर किया जाय, उसे जीवन में उतारा जाय। मानव को मांस, मदिरा, मधु का सर्वथा त्याग करना ही होगा। हिंसा जन्य व्यापार का त्याग करना ही चाहिए। ऐसे किसी भी कार्य को जानबूझकर नहीं करना चाहिए, जिसमें किसी प्राणी का प्राण हरण किया जाय। __ अहिंसा को तत्त्वचिन्तकों ने चेतना विकास के लिए अपरिहार्य माना है उन्होंने इसे धर्म का स्वरूप व्याख्यायित किया है।
अहिंसा लक्षणो धर्मः अधर्मः प्राणिनां वधः।
तस्माद् धर्मार्थिभिर्लोके कर्तव्या प्राणिनां दया॥ अहिंसा धर्म का लक्षण, स्वरूप, आधार या मूलकेन्द्र जो कुछ भी कहें, वह सब है। अहिंसा जीवन का प्रकाश है। अहिंसक को भय नहीं होता उसका धैर्य अभेद्य किले के समान रक्षा करता है। सत्य प्रतिपादन में वह निर्भय रहता है, कोई प्रतिवादी उसे परास्त नहीं कर सकता संसार प्रपञ्चों में नहीं फंसता है, सर्वप्रिय हो जाता है। संसार का मित्र बन जाता है सम्यक्त्व के अंग वात्सल्य उपगूहन, स्थितिकरण और श्रावक के व्रत उसके जीवन के अंग हो जाते हैं। अहिंसक वृत्ति वाले को धर्म और धर्मात्माओं के प्रति प्रीति-वात्सल्य विनय जाग्रत रहता है। सतत सावधान रहता है।