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अगर
अंगर
-ले० । एलोबुद्ध Aloe spood, ईग़ल वुड Eaglewood-इ) बायस डी कैलम्बक (Boustic Calambine )-फ्रां)। अगर, अगलीचन्दन-ता। हलाहचेटु--ते । कृनागरु, अगर--ता) ते), कना)। कृष्ण(गरु शिशवाचे झाड़-म । अगरू-गु० । अवयन-बर।। प्राकिल-मलाबा"हागलगंध-तु । चिन-हिअंगचीन । गरू, क्यागहरू--मल । सासी --श्रासा।
_ थाईमलेसोई वर्ग [ N. (). thyme:lactiti:] उत्पत्ति स्थान प्रासाम, पूर्वी हिमालय पश्चिमीमलय पर्वत, खसिया पर्वत, भूटानसिलहर, टिपेरा पहाड़ी, मर्तबान पहाड़ी, पूर्वी बंगाल । प्रांत, दक्षिण प्रायद्वीप, मलका और मलायाद्वीप;
नाट-अासाम प्रदेश प्राचीन काल से अगुरु वृक्ष की जन्मभूमि होने के लिए विख्यात है। रत्रु दिग्वजय वर्णन काल में कालिदास लिखते
अनार्य या अनार्य है। अस्तु विलियम डाइमाक नहोदय का निश्चय है कि भारतीयों से प्रथम कदाचित् पूर्वी एशिया के मूल निवासियों को इसके उपयोग का ज्ञान हुआ। प्राचीन समय में वश्की के रास्ते यह मध्य एशिया और फारस में लाया गया और वहां से अस्य और यूरूप में पहुँचा । राजनिघण्टुकार ने कृष्णागुरु ( काला अगर), काप्टगुरु (पीली अगर), दाह काम्, दाहाग (गु)रू (गुर्जर देश प्रसिद्ध अगरु विशेष ) तथा स्वाद्वगुरु (मङ्गल्यागुरु, मधुर रसागुरु, कंदार देश प्रसिद्ध अगर ) नाम से इसे पांच प्रकार का लिखा है। मघण्ट्रकार के मतसे मङ्गल्यागर है। विस्तृत विवरण के लिए उन उन नामों के अन्तर्गत देखिए । । भावप्रकाशकार-इसके चार प्रकार के भेदों को स्वीकार नहीं करते | ऐसा विदित होता है कि अरब यात्रियों ने इसके व्यापार एवं उत्पत्ति स्थान सम्बन्ध में काफी समाचार संग्रह किए हैं।
चकम्पे तीर्ण जाहित्ये तस्मिन् प्राग् ज्योतिपेश्वरः | सद्गजालानतां प्राप्त : सह कालागुरु द्रुमैः ॥
[ रघु०, ४ र्थ सर्ग] इतिहास-अगर का सुगन्धि तथा श्रीषध . तुल्य उपयोग ग्राज का नहीं वरन् अत्यन्त प्राचान है। इसकी प्रचीनता का पता तो केवल एक इसी बात से लग सकता है कि इसका वर्णन सभी प्राचीन आयुर्वेदीय प्रधा-सुश्रत, चरक श्रादि में पाया है। इतना ही नहीं प्रत्युत लोबान और तेजपात प्रमति के साथ अलोट तथा अह.. लीम नाम से इसका ज़िकर यहूदी धर्म ग्रन्थों । में भी पाया जाता है ।(साम ४५ ८, कहा। ७.१७)। डीसकगीदूस (Dioscories) के कथनानुसार यह भारत वर्ष एवं अरब से यूरूप में लाया गया। ईटियस ( tius) से पश्चातकालीन लेखकों ने एलोबुद्ध (Alo. wool) नाम से इस औषध का उस्लेख किया है, और इसी नाम से यह अब तक युरूप में प्रसिद्ध है। अगर का संस्कृत नाम |
याना बिन .... सेगपियन-ने हिन्दी, मंडली, सिन्फी और कनारी नान से इसके चार भेदों का वर्णन किया है । दरायीं शताब्दि में इब्नसीनाइसके सम्बन्ध में निम्न बिबरण देते हैं--- मंडली हिंदी या (पहाड़ी) सनंदूरी,कमारी, सम्फी
और काकुली,किस्मूरी ये दोनों महुल मधुर होती है !इनमें से सबसे खराब प्रकार हलाई, कम्ताई, मन्ताई, लबथी या स्तार्थी है। नंडली सोत्तम है, इसके बाद सदुरी धूसर व युक्र, वसामय एवंलीय भारी श्वेत धारियों सहित और धीरे धीरे जलने वाली होती है । कोई कोई भूरीसे काली अगर को उत्सन स्याल करने और सबसे अधिकतर काली,श्धेन धारी रहित वसामय तेलीय और धीरे धीरे उ.लने वाली “कमारी" है।ती है। संक्षेप में सर्वोत्तम अगर वह है जो काली, भारी, जल में डूबने वाली, चूण करने पर रेशा रहित हो, तथा जो जल में न डूबे वह अच्छी नहीं । अरव यात्री भी अगर को लगभग उन्हीं नामों से पुकारते हैं।
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