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अंगनाद
४०
अगमका
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अगनाद gaumatla-बं वन तिकिका, याकनादि
FO) Srphithia Ilernanclif.
ofia फो। इ, १ मा अगनोyami-60 संज्ञा स्त्रा०देअग्नि । संझा स्त्रो० [सं.) अन] घोड़े के माथे पर की भौरी वा
घूमे हुए बाल । अगनीन againin-इ, जलीय ऊर्ण वसा
(Atips ] ashyarsus): इ0 मे) मे.) श्रग़नीयुम ghaniyusa-मिरिक किर्मिज दाना,
मसूर के बरावर रक वर्ण का एक कीट है ।
(Cochinal) देखो कोचनोल । अगनीस ॥galist यु० निगुण्डी सम्हाल ..
feris (Vites begundo, Linn.) अगनू gan) अगनेऊ agmai-हिर, संज्ञा स्त्री) [सं० । अगनेत ghatii )
अाग्नेय ] अग्नि कोण । प्राग्नेय दिशा। अगन्धखर पर्पको amithakha.harpati..
pati-M० स्त्रो० योग-शुद्ध पारद १२ मासे, . लौह भस्म १२ मासे, दोनोंकी कजली करें पुनः थोड़े से घी में मन्दी आग पर पिघला कर विधि बत गोबर के ऊपर केले के पत्र रब उस पिचली हुई कजली को डालकर ऊपर से दूसरे केले के पत्र से दाव। फिर भारंगी, सी, अगस्निया, त्रिफला, जयन्ती, निगुरकी, त्रिकुटा, चाला, कुमारी इनके सम्मकी ७-७ भावना देकर एक लघु पुट दें। गुराग-उचित अनुपानासे समस्त रोगों को नष्ट । करनी हैं । पान, तुलसीके रस तथा गो मूत्रके साथ । सेवन करने से श्वास और स्वाँसी का नाश हाता
है। मात्रा-सामा से २ रत्ती । श्रगन्धिकम adhikam-सं) को संचल
लवण-बं! sochal-stilt भा) मध्य ।
देखो-सौवच्चलम् । अगम ॥gin--हिं० वि) [ 10 अगम्य ] (1):
अथाह । (२) अलभ्य । अगमको gamki-हि) स्त्रो) विलारी । म्यु.
किया स्कैल्ला Mukia sea.bulta,
dow.), बायो निया स्कैल्ला (Bryonia Sathi , in )-ले।। अहिल्यकम् , घण्टाली,-सं) । चिरानी, बेल्लारी-सिक चिस्ती-मह) | बाल ककड़ी-उः प। सू)। मोसुमुसती, मुसु मुसुक्काइ-ता) | पुटेन--पुदिङ्ग, पोट्टी बुढ़मु, नृधोय कुलतरू बुदम--ते.) । सुकपिरी, मुक्कल-पीरस्-मल) । विस्टली ब्रायोना ( Bristly Bryony )
कुम्मार वगं. (1.0. Cucurbitaceit) उत्पत्ति स्थान-समग्र भारतवर्ष । वानस्पनिक विवरण-पोवा लोमश, खुरदरा, (विषम तलाय ), अाधारकतन्तु ( tendril ) सामान्य, पत्र-हृदाकार, घर डयुक या कोणयुक पप्प-लब्बन युः, जिसमें असंग्टन्य नर पप्प होते हैं । और पुष्प गुच्छाकार होता है। नारि पुष्प ? में ४, लघु, घण्टाकार और पीत वर्ण का, बोज (berry ) व लाकार, पकावस्था में गम्भीर रजवण का जिसपर लम्बाई की रुव श्वेत धारियों पड़ी रहती हैं, चिकना ( मननल) अथवा कतिपय प्रष्ट रोमों मे व्याप्त होता है । फल एवं पोधा स्वाद में कटु होते हैं । फल अक्टूबर सं दिसम्बर मास तक परिपका होते हैं। इतिहास व गुणधर्म आदि- डाइमांक ऐन्सली के वर्णनानुसार इसका दाक्षिणात्य संस्कृत नाम अहिल्यकमह जो स्पष्टतया अहिलेखनका अपभ्रंश है । इसके फल पर सर्वकार श्वेन धारियों पड़ी रहती हैं इस कारण इसका उर नाम भी उचित ही । इसका तथा शिवलिङ्गी ( BryoniaieiniosI) का दसरा संस्कृत नाम दो प्रयोग में श्राता हुश्रा दीख पड़ना है । वह घरटाली-- है जिसका अर्थ "सून में एक पंक्ति में पिरोई हुई धस्टियां" हैं जैसाकि नर्मक कुमारी गण नृत्य काल में पहनती हैं। यह नाममी उपयंत्र सादृश्यताके कारण ही रखा गया है। यह पौधा साधारण भेड़क एवं प्रामाशय बलप्रद है। इसका शीत कपाय अद्ध प्याली की मात्रामें
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