Book Title: Tirth Darshan Part 1
Author(s): Mahavir Jain Kalyan Sangh Chennai
Publisher: Mahavir Jain Kalyan Sangh Chennai
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AAINAYAVAR wwwww तीर्थ दर्शन সুজন ভ Page #2 --------------------------------------------------------------------------  Page #3 --------------------------------------------------------------------------  Page #4 --------------------------------------------------------------------------  Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिस सपना सोधर्म: aaaaaaaaaaaaaaaaववववववववववववववन" तीर्थ दर्शन प्रथम खंड प्रकाशक: श्री जैन प्रार्थना मन्दिर ट्रस्ट (रजि.) (श्री महावीर जैन कल्याण संघ प्रांगण) चेन्नई - 600 007. Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Research - Study - Compilation First Published in 1980 by Shree Mahaveer Jain Kalyan Sangh 96, Vepery High Road, Chennai - 600 007. Copyright's Registered Second Publication & Future Reprints (As authorised by Shree Mahaveer Jain Kalyan Sangh) By Shree Jain Prarthana Mandir Trust (Regd.) 96, Vepery High Road, Chennai - 600 007. Year 2002. आवश्यक आवेदन अंजनशलाकायुक्त प्रतिष्ठित प्रभु प्रतिमाओं के फोटु प्रभु स्वरुप हैं, जिनमें दैविक परमाणुओं की उर्जा अवश्य रहती है । आजकल इन प्रभु प्रतिमाओं के फोटु केलेन्डर, पोस्टर, पत्रिकाओं आदि में छापे जा रहे हैं, क्या इन्हें संभालकर सही स्थान में रखना संभव है? कब तक? आशातना से बचने हेतु इसके अंत परिणाम व अंत विसर्जन पर थोडा अवश्य सोचें व उचित निर्णय लें। कृपया इसमें छपे फोटुओं आदि की किसी भी प्रकार कापी न करें। आवश्यकता पर संपर्क करें। अवश्य सहयोग दिया जायेगा। -प्रकाशक Printed at: "Srinivas Fine arts Ltd", Sivakasi - 626123. INDIA. Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना भगवान महावीर की 25वीं निर्वाण शताब्दी के पावन उपलक्ष में आम उपयोगार्थ ई. सं. 1974 में प्रारंभ किया गया "तीर्थ-दर्शन" पावन ग्रंथ का संशोधनीय कार्य ई. सं. 1980 में सम्पूर्ण हुवा था, जिसका विमोचन ई. सं. 1981 में त्रीदिवसीय विराट समारोह के साथ यहाँ चातुर्मासार्थ विराजित प. पूज्य श्री जयन्तसेन विजयजी (वर्तमान प. पू. आचार्य भगवंत श्री जयन्तसेनसुरिजी) की पावन निश्रा व भूतपूर्व प्रधानमंत्री श्री मोरारजी देसाई एवं तमिलनाडु के मुख्य मंत्री श्री एम. जी. रामचन्द्रन व कई विशिष्ट महानुभावों के सानिध्यता में सुसम्पन्न हुवा था । इस ढंग का इतिहास में प्रथम व उच्च कोटि का कार्य रहने के कारण सभी ने इस ग्रंथ की अति ही प्रशंसा व सराहना व्यक्त की । विमोचन पश्चात् तीर्थाधिराज भगवन्तों व आचार्य भगवंतो के कर कमलों में वह पावन ग्रंथ समर्पित किया गया । आचार्य भगवन्तों, मुनि भगवंतो, संस्थाओं के व्यवस्थापकों व कई विशिष्ट महानुभावों ने अपने पत्रों द्वारा मुक्त कंठ से इस ग्रंथ की प्रशंसा, अनुमोदना व सराहना की । यह बताते हर्ष होता है कि हमारे उक्त प्रकाशन के पश्चात् प्रायः सभी तीर्थ स्थानों पर यात्रीओं का आवागमन काफी बढ़ा है व तीर्थ-स्थलों का भी जीर्णोद्धार आदि होकर साधन-सुविधाएँ भी काफी बढ़ी है। यह पावन ग्रंथ दैविक परमाणुओं की उर्जा से भरा रहने के कारण पुण्योपार्जनकारी, पापविनाशकारी व आत्महितकारी है अतः बच्चों, युवकों एवं वृद्धजनौं सभी के लिये अति उपयोगी सिद्ध हुवा है । इस पावन ग्रंथ का दुरुपयोग न हों उसीको ध्यान में रखकर इसकी कापी राइट प्रांरभ से रिजर्व करवाली थी । क्योंकि हमारा उद्देश्य सिर्फ संशोधन व प्रचार मात्र का था व अभी भी है । प्रकाशन के तुरन्त पश्चात् सभी प्रतियाँ वितरण हो चुकी थी परन्तु मांग जारी थी । अंग्रेजी में भी मांग रहने के कारण अंग्रेजी का भी अनुवाद करवाया गया । पुनः प्रकाशन का भी निर्णय लिया गया परन्तु संयोगवश प्रारंभ से इस कार्य के प्रेरक, प्रयासी, संशोधक व सम्पादक हमारे संस्थापक मानद मंत्री श्री यू. पन्नालालजी वैद की तबियत अस्वस्थ हो जाने के कारण कार्य आगे नहीं बढ़ सका । इस कार्य के संकलन में इनके अन्य सहयोगी भी थे, परन्तु कार्य आगे बढ़ने में तकलीफ महसूस हो रही थी क्योंकि समय काफी बीत चुका था । समय काफी बीत जाने के कारण सभी तीर्थ क्षेत्रों पर प्राचीनता व विशिष्टता के अतिरिक्त बाकी सभी विषयों में काफी परिवर्तन हो चुका था । अतः टाइप सेट भी पुनः करवाना आवश्यक हो गया था । फिल्म का रंग भी प्रायः परिवर्तन हो चुका था अतः लगभग पूरी सामग्री नई जुटानी थी । हमारा संशोधन का कार्य पूरा हो जाने के कारण हमने यही उपयुक्त समझा कि इस कार्य को संभालने के लिये श्री जैन प्रार्थना मन्दिर ट्रस्ट से अनुरोध किया जाय व उन्हें कापी राइट के साथ आवश्यक सहयोग भी दिया जाय । दिनांक 14.11.1999 को संभलाने का निर्णय लेकर पुरानी सारी फिल्म आदि के साथ कार्य इस ट्रस्ट को सोम्पा गया । आवश्यकतानुसार सहयोग देने का भी आश्वासन दिया गया । अतः अब यह प्रकाशन हमारे निर्देशनानुसार उनके द्वारा आवश्यकतानुसार होता रहेगा । आपको यह भी बताते हर्ष हो रहा है कि श्री जैन प्रार्थना मन्दिर हमारे प्रांगण में ही निर्मित है व उस ट्रस्ट में भी प्रायः सभी ट्रस्टीगण व कार्यकर्ता हमारे सदस्य ही हैं । संशोधन के पश्चात् पूर्ण धार्मिक क्षेत्र का कार्य रहने के कारण उस ट्रस्ट से हो रहा है क्योंकि हमारा क्षेत्र शिक्षण का है । प्रभु कृपा से इस बार भी प्रकाशन उच्च स्तर का हुवा है उसका श्रेय हमारे संस्थापक मानद मंत्री श्री यू. पन्नालालजी वैद (जो प्रारंभ से इस कार्य के प्रेरक, संशोधक व सम्पादक है) व उनके साथिओं को है । प्रभु की असीम कृपा से ही यह कार्य सुसम्पन्न हो सका है। प्रभु से प्रार्थना है कि ट्रस्ट का कार्य निरन्तर आगे बढ़ता रहे व यह तीर्थ-दर्शन का सन्देश घर-घर में पहुंचे जिससे सभी पुण्य के लाभार्थी बने इसी शुभ कामना के साथ वास्ते, श्री महावीर जैन कल्याण संघ, (रजि.) जे. मोतीचन्द डागा चेन्नई, मार्च 2002 अध्यक्ष Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय हमारा श्री जैन प्रार्थना मन्दिर ट्रस्ट, मुख्य छात्र-छात्राओं में सुसंस्कारमय जीवन का निर्माण करने, उन्हें निरन्तर प्रभु का आशीर्वाद प्राप्त होता रहने व साथ ही साथ आम समाज को भी पूजा-सेवा-दर्शन का लाभ मिलता रहे, उसीको ध्यान में रखकर श्री महावीर जैन कल्याण संघ द्वारा अपने ही इस प्रांगण में प्रारंभ किये गये श्री जैन प्रार्थना मन्दिर का निर्माण कार्य करने व उसके सुसंचालन करने व अन्य धार्मिक उद्देश्यों के साथ श्री महावीर जैन कल्याण संघ के निर्देशनानुसार, प्रथक गढन कर रजिस्टर करवाया गया था । "तीर्थ-दर्शन" पावन ग्रंथ को पुनः व आगामी प्रकाशन हेतु श्री महावीर जैन कल्याण संघ ने हमारे ट्रस्ट से अनुरोध किया । यह कार्य अति ही विशाल जटिल व जिमेवारी का होते हुवे भी कार्य धार्मिक क्षेत्र का मुख्यतः तीर्थ स्थलों के प्रचार-प्रसार का रहने, इस पावन ग्रंथ के कार्य हेतु प्रारंभ से मुख्य आशीषदाता श्री पार्श्वप्रभु, आधेष्टायक श्री धरणेन्द्र-पद्मावती व योगीराज श्रीमद् विजय शांतीसूरीश्वरजी गुरु भगवंत हमारे इस प्रार्थना मन्दिर के नायक प्रारंभ से हमारे आशीषदाता रहने एवं इस पावन कार्य के प्रारंभ से प्रेरक संशोधक व संपादक आदि हमारे संस्थापक मानद मंत्री श्री यू. पन्नालालजी वैद ही रहने के कारण हमारे ट्रस्ट ने मंजूरी प्रदान की व भगवान महावीर की 26वीं जन्म शताब्दी के पावन अवसर पर प्रकाशन करने का निर्णय लिया गया । इस कार्य को संभालते ही आगे बढ़ाने हेतु प्रथम कई प्रेसो से सम्पर्क साधकर भारत में उच्चतम स्तर की मानी जाने वाली प्रेस निर्धारित की गई । उच्च स्तर के पेपर का भी इंतजाम किया गया । कल्पतरुसम यह पावन ग्रंथ हर घर में पहुँच सके उसको ध्यान में रखकर यथाशक्य कम लागत रखने का निर्णय लेकर अग्रीम बुकिंग हेतु रुपये आठ सौ एक मात्र प्रति सेट के रखे गये । हम चाहते थे कि बुकिंग के आधार पर ही ग्रंथ की प्रतियाँ छपाई जाय अतः अग्रीम बुकिंग का श्री गणेश हमारे प्रार्थना मन्दिर में ही श्री पार्श्वप्रभु के सन्मुख भक्ति-भावना व दीप प्रज्वलता के साथ हर्षोल्लासपूर्वक किया गया । बुकिंग की अन्तीम तारीख 31.12.2000 रखी गई । बुकिंग की आम जानकारी पोस्टरों आदि द्वारा सभी तीर्थ स्थलों के मारफत व गुरु भगवंतो के मारफत सभी जगह दी गई। अकबार आदि में भी विज्ञापन दिया गया । प्रचार-प्रसार के लिये समय कुछ कम रहने के कारण यह भी स्पेशल तौर से निर्णय लेकर आम जाहिर किया गया कि कम से कम 108 ग्रंथों की बुकिंग करने या करवाने वालों के नाम सहयोगी के तौर पर इस पावन ग्रंथ में छापे जायेंगे । हालांकि इस बार इस ग्रंथ में पृष्ट मुद्रण दाता का नाम भी नहीं रखा है न शुभेच्छु, सहयोगी आदि के रुप कोई नाम । हम चाहते हैं कि ग्रंथ के अवलोकन के समय पाठक या दर्शक का ध्यान किसी भी कारण विचलित न होकर एकाग्रतापूर्वक प्रभु में तल्लीन रहे जिससे उनको पूण्य-निर्जरा का लाभ पूर्ण तौर से मिल सके । हमारे मानद मंत्री महोदय श्री यू. पन्नालालजी वैद जो पूर्व से ही इसके संशोधक, सम्पादक आदि है, अग्रीम बुकिंग करवाने के कार्य में साथ रहने के साथ-साथ तीर्थ-स्थलों से वर्तमान स्थिती की जानकारी पाने, नये फोटु मंगवाने कोई रहे हुवे प्राचीन तीर्थ-स्थलों की जानकारी पाने, संशोधन व सम्पादन करने, पूरे मेटर का पुनः टाइप सेटिंग करवाने में निरन्तर निःस्वार्थ जुटे हुवे रहे । उनके कठिन परिश्रम का परिणाम ही आज हमारे सामने है। उनका व उनके सहयोगियों का मै अत्यन्त आभारी हूँ व हार्दिक धन्यवाद देता हूँ व प्रभु से प्रार्थना करता हूँ कि भविष्य में भी ऐसे अनुपम कार्य करने की शक्ति उनमें प्रदान करें । सभी तीर्थ-स्थलों के व्यवस्थापकों, कर्मचारियों 108 ग्रंथो की अग्रीम बुकिंग करने व करवाने वाले महानुभावों बुकिंग करवाने में सहयोग देनेवाले मद्रास के सभी मन्दिरों के व्यवस्थापकों व अन्य व्यक्तिगत महानुभावों को हार्दिक धन्यवाद देता हूँ जिनके सहयोग के कारण कार्य सुलभ हो सका । ___ श्री महावीर जैन कल्याण संघ के सभी पदाधिकारियों, सदस्य महानुभावों को भी हार्दिक धन्यवाद देता हूं जिन्होंने ऐसे पुनित कार्य को करने का मौका हमें दिया और सहयोग देते रहे । हमारे सभी ट्रस्टीगणों को भी हार्दिक धन्यवाद देता हूं जिन्होंने भी इस कार्य में रुचि लेकर भाग लिया । ____अंत में जिनेश्वर देव, अधिष्टायकदेव व गुरु भगवन्तों से प्रार्थना करता हूँ कि आपका शुभ आशीष हमपर निरन्तर बना रहे व ऐसे पुनित कार्यों का सुअवसर हमें प्राप्त होता रहे इसी शुभ कामना के साथ वास्ते, श्री जैन प्रार्थना मन्दिर ट्रस्ट, (रजि.) जी. विमलचन्द झाबख I.R.S. (Rtd.) अध्यक्ष चेन्नई, मार्च 2002 Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय देव-गुरु-धर्म की अशीम कृपा से इस कल्पतरुसम तीर्थ-दर्शन पावन ग्रंथ का जटिल कार्य प्रारंभ से अंत तक करने का सुअवसर मुझे प्राप्त हुवा था जो सात वर्ष की लम्बी अवधि में उन्हीं की कृपा से सुसम्पन्न हो पाया था । इस कार्य की परिकल्पना आदि का विवरण मेने प्रथम आवृति की भूमिका में दिया था जिसे पुनः इस ग्रंथ में ज्यों का त्यों पाठकों की जानकारी हेतु समाविष्ट है । उक्त प्रकाशन के पश्चात् निरन्तर मांग रहने के कारण हम चाहते थे कि पुनः प्रकाशन हो, कार्य भी पुनः चालू किया गया था परन्तु कभी मेरी शारीरिक कठिनाई के कारण तो कभी कुछ और कारण काम में रुकावट आती रही । ई.सं. 1995 में यहाँ चातुर्मासार्थ विराजित प. पूज्य अध्यात्मयोगी आचार्य भगवंत श्री कलापूर्ण सूरीश्वरजी म.सा. का भी आशीर्वाद प्राप्त हुवा, परन्तु काम में कुछ न कुछ कारण रुकावट होती रही । श्री महावीर जैन कल्याण संघ के अनुरोध पर श्री जैन प्रार्थना मन्दिर ट्रस्ट ने नवम्बर 1999 में कार्य संभालकर महावीर भगवान की 26 वीं जन्म शताब्दी के पावन अवसर पर प्रकाशन करने का निर्णय लिया। इस बार निरन्तर काम चलने पर भी कार्य में कभी भी रुकावट नहीं आई । मेरा भी स्वास्थ्य बिलकुल ठीक रहा व कार्य समय पर अच्छे ढंग से सुसम्पन्न हुवा यह सब प्रभु कृपा का ही कारण है। शायद प्रभु को, चरम तीर्थंकर भगवान महावीर की 26 वीं जन्म शताब्दी महोत्सव के पावन अवसर पर ही व श्री जैन प्रार्थना मन्दिर ट्रस्ट द्वारा ही प्रकाशन करवाना था । इस बार बुकिंग के समय देखा गया कि अनेकों महानुभावों ने यह ग्रंथ देखा ही नहीं न उन्हें जानकारी। अतः इस ग्रंथ को खरीदने वालों से अनुरोध करता हूँ कि कृपया इस ग्रंथ का अवलोकन आपके जान-पहिचान वाले बंधुवों को अवश्य कराकर पुण्य के भागी बनें । प्रथम मैं सभी तीर्थाधिराज भगवंतों व गुरुभगवंतो को यह पावन ग्रंथ समर्पित करते हुवे प्रार्थना करता हूँ कि आपका शुभ आशीर्वाद निरन्तर बना रहे । आपके आशीर्वाद से ही कार्य सुसम्पन्न हो सका । आचार्य भगवंत श्री कलापूर्णसूरीश्वरजी म.सा. का मैं आभारी हूँ आपके आशीर्वाद निरन्तर मिलते रहे व आपने पाठकों व दर्शनार्थियों के उपयोगार्थ इस ग्रंथ की उपयोगिता व प्रतिफल के बारें में लिखकर भेजा जो इन ग्रंथों में समाविष्ट है । इसका असर हर पाठक पर अवश्य पडेगा जो उनके पुण्य-निर्जरा का कारण बनेगा। सभी तीर्थों के व्यवस्थापकों व कर्मचारियों को हार्दिक धन्यवाद देता हूँ। आपके पूर्ण सहयोग से कार्य की सफलता में सुविधा रही । श्रीमान् विमलचंदजी चोरड़िया, भानपुरा (M.P.) वालों को भी धन्यवाद देता हूँ जिन्होंने हर तीर्थ के दोहे बनाकर ग्रंथ की और भी शोभा बढ़ाई है । इसके संकलन सम्पादन व अन्य कार्यों में हरदम सहयोग देनेवाले श्री ओ. निहालचंदजी नाहर को हार्दिक धन्यवाद देता हूँ जिन्होंने अपना अमूल्य समय निकालकर इस कार्य में दिन रात निःस्वार्थ सेवा की । श्री हंसराजजी लूणीया को भी हार्दिक धन्यवाद देता हूँ, जिनका सहयोग हर वक्त हर कार्य में रहा । श्री महावीर जैन कल्याण संघ के अध्यक्ष श्री मोतीचंदजी डागा, उपाध्यक्ष श्री शेंशमलजी पान्डीया, श्री जी. विमलचंदजी झाबख, कोषाध्यक्ष श्री ओ. ताराचंदजी गुलेच्छा सहमंत्री श्री हंसराजजी लूणीया व सभी सदस्यों, श्री जैन प्रार्थना मन्दिर के सभी ट्रस्टी गणों एवं सभी शुभ चिन्तकों को हार्दिक धन्यवाद देता हूँ। आप सभी की शुभ-कामना से ही कार्य निर्विघ्न सुसम्पन्न हो सका । श्रीनीवास फायन आर्ट लिमिटेड को हार्दिक धन्यवाद देता हूँ जिन्होंने छपाई के कार्य में पूर्ण रूची ली अतः काम में सुन्दरता आ सकी। अंग्रेजी भाषा के अनूवादक स्व. श्री रमणिक शाह का मैं आभारी हूँ जिन्होंने पूर्ण रूचि से कार्य सम्पन्न किया था । नये तीर्थों के गुजराती अनुवादक श्री उदय मेघाणी को भी कार्य सुसम्पन्न करने के लिये धन्यवाद देता हूँ । प्रेस कार्य में साथ रहने वाले श्री एस. कांतिलालजी रांका, उमेदाबाद वालों व श्री पी. गौतमचंद वैद को धन्यवाद देता हूँ जिन्होंने प्रेस के कार्य में हरवक्त निःस्वार्थ साथ में चलकर कार्य को सुन्दर ढंग से बनाने में सहायता प्रदान की । पुनः जिनेश्वरदेव, अधिष्टायक देव-देविओं व सभी आचार्य, मुनि भगवंतो को हार्दिक आभार प्रदर्शन करते हुवे प्रार्थना करता हूँ कि आपका आशीर्वाद निरन्तर हम पर बना रहे इसी शुभ कामना के साथ .... सम्पादक व संस्थापक मानन्द मंत्री चेन्नई, मार्च 2002 यू. पन्नालाल वैद Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख (पूर्व प्रकाशित, प्रथम आवृति में से) जैन धर्म में ही नहीं अन्य धर्मों में भी तीर्थ-स्थलों को अनादि काल से अत्यन्त महत्वपूर्ण माना गया है । तीर्थंकर भगवन्तों के च्यवन, जन्म, दीक्षा, केवलज्ञान एवं मोक्ष इन पाँच कल्याणकों से पवित्र हुए स्थान, प्रभु के समवसरण स्थल, प्रभु की बिहार-भूमि, प्रभु के चातुर्मास स्थल एवं उनके जीवन की महत्वपूर्ण घटनाओं से संबंधित स्थल, मुनि [गों की तपोभूमि व निर्वाण भूमि, किसी सातिशय जिन प्रतिमाओं के चमत्कारों से प्रसिद्ध हुआ स्थान, विशिष्ठ कलात्मक मन्दिर व स्मारक, एक सौ वर्षों से ज्यादा प्राचीन मन्दिर व स्मारक-ये सब जैन परम्परा के पावन व पूज्यनीय स्थावर तीर्थ माने गये हैं। उक्त स्थानों की यात्रा कर मानव अपना जन्म सफल बनाता है । इन पुनीत स्थलों के वातावरण शुद्ध व निर्मल तो होते ही है, उनमें एक ऐसी भी अतिशय शक्ति रहती है जिसके कारण दर्शक वहाँ पहुँचते ही उनके परिणाम निर्मल होकर एक अलौकिक शान्ति का अनुभव करते हैं । जैसे मीलों दूर हुई बरसात की हवा बहुत दूर तक अपनी मलयानिल ठण्डी हवा आंखो से ओझल रहते हुए भी हिलोरें देती है, जेसे आटे मे शक्कर मिलाने से फीका आटा भी मीठा हो जाता है, उसी प्रकार तीर्थंकर भगवन्तों, मुनि महाराजों व सैकड़ों वर्षों तक भाग्यशाली श्रद्धालु दर्शकों द्वारा सेवन किये गये स्थल भी उन शुद्ध परमाणुओं से मिल-जुलकर दर्शकों में एक ऐसी अलौकिक शान्ति की भावना प्रदान करते हैं जो यात्रियों के मनुष्य जन्म को सफल बना देते हैं । उक्त स्थलों की संख्या सहस्रों में हैं । लेकिन कई आज ओझल हैं तो कई खण्डहर के रूप में हैं और अपूजित हैं । पूजित स्थलों में से अनेकों मुख्य स्थलों का इस ग्रंथ के माध्यम से भक्त जनों को मार्ग दर्शन देने का प्रयास किया गया है । निःसन्देह इस ग्रंथ में उपलब्ध चित्ताकर्षक चित्रों के दर्शन से भक्तजन घर बैठे प्रभु को अपनी श्रद्धा-सुमन अर्पण करके पुण्योपार्जन कर सकेंगे । कई तीर्थ-स्थलों के संबंध में अलग-अलग पुस्तिकाएँ प्रकाशित हुई हैं । लेकिन भक्त जनों के लिये इन अलग-अलग पुस्तकों को संग्रहित कर रखना इतना सुलभ नहीं । इन सबको ध्यान में रखते हुए सारे तीर्थ-विवरणों को एक ही अमूल्य व अद्वितीय ग्रंथ के रूप में प्रकाशन करने का निर्णय हमारी संस्था ने लिया । इस ग्रंथ की उपयोगिता व महत्ता दर्शक व पाठक स्वतः अनुभव करेंगे । इस कार्य में अनेक आचार्य भगवन्तों, मुनि महाराजों, पेढ़ी के व्यवस्थापकों व अन्य श्रावकगणों का सहयोग सराहनीय है । इन सबका मैं आभारी हूँ । इस कार्य के प्रारंभ से सम्पूर्ण होने तक का श्रेय हमारे, मानद मंत्री श्री यू. पन्नालालजी वैद को है जिनकी प्रेरणा, पूर्ण प्रयास व निरन्तर मेहनत से ही कार्य सुसम्पन्न हो सका । अतः मानद मंत्री महोदय व उनके सहयोगियों को हार्दिक धन्यवाद देता हूँ जिनके कारण हमारे संघ को यह महान ग्रंथ प्रकाशन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ । इनकी निस्वार्थ सेवा संघ के इतिहास में चिर स्मरणीय रहेगी । मुझे पूर्ण विश्वास है कि यह ग्रंथ अति उपयोगि सिद्ध होकर हर घर में पुण्य का संचार करेगा । पाठकों से अनुरोध है कि कृपया त्रुटियों के लिये क्षमा करें । ___ अंत में श्री जिनेश्वर देव से प्रार्थना करता हूँ कि इस कल्पतरु महान ग्रंथ के दर्शकों व पाठकों को सुख समृद्धिवान बनावें । नवम्बर 1980 ए. मानकचन्द बेताला, अध्यक्ष, श्री महावीर जैन कल्याण संघ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका (पूर्व प्रकाशित, प्रथम आवृति में से) विश्व के भूभाग में स्थित स्थलों में तीर्थ-स्थल विशिष्ट माने गये है । सभी धर्मों में तीर्थ स्थानों को विशेष महत्व दिया गया है। जैन तीर्थ-स्थल प्राकृतिक सौन्दर्य से ओत-प्रोत विशिष्ट कला युक्त रहने के कारण अपना निराला स्थान रखते हैं । तीर्थ-स्थलों में पहुंचने पर वहाँ के पवित्र परमाणुओं से भाव निर्मल हो जाते हैं जिससे मानव भक्ति में लीन होकर अपूर्व पुण्य का संचय करता है । ये पावन तीर्थ आत्म-साधना के विशिष्ट स्थल हैं, जहाँ अनन्त भव्य आत्माओं ने सिद्धि प्राप्त की है व भविष्य में भी करेंगे। आदि काल से अनेकानेक भक्त जनों ने इन स्थलों की यात्रा कर अपना जीवन सफल बनाया है जिसका इतिहास साक्षी है । ऐसे पावन जैन तीर्थ-स्थलों को व्यापक रूप से प्रकाश में लाने व अन्य कई उद्देश्यों के साथ इस अपूर्व ग्रंथ की रचना की गई, जिसकी भूमिका प्रारंभ करने के पूर्व श्री महावीर जैन कल्याण संघ का परिचय देना मेरा कर्तव्य हो जाता है । श्री महावीर जैन कल्याण संघ की स्थापना : श्री महावीर जैन कल्याण संघ की स्थापना का मुख्य कारण “गुरु श्री शान्तिविजय जैन विद्यालय" है । इस विद्यालय की स्थापना स्व. यतिवर्य श्री मंछाचन्द्रजी महाराज के कर कमलों द्वारा दिनांक 16 मार्च 1966 के शुभ दिन श्री चन्द्रप्रभ भगवान की छत्र-छाया में यहाँ वेपेरी सूलै में स्थित श्वेताम्बर जैन मन्दिर के उपाश्रय के एक कमरे में "श्री जैन विद्यालय" के नाम से हुई । इस विद्यालय को सुचारु रूप से चलाने हेतु "श्री महावीर जैन कल्याण संघ" का गठन कर दिनांक 1-7-1967 के शुभ दिन उसे पंजीकृत करवाके यह विद्यालय उक्त संघ के अंतर्गत किया गया जो दिनांक 22-1-1971 माघ शुक्ला बसन्त पंचमी के शुभ दिन दानदाताओं के इच्छानुसार परमपूज्य योगीराज श्री सहजानन्दधनजी महाराज के करकमलों द्वारा “गुरु श्री शान्तिविजय जैन विद्यालय" के नाम से परिवर्तित हुआ । गुरुदेव की असीम कृपा से प्रारम्भ से ही विद्यालय तीव्रगति से प्रगति के पथ पर है । वर्तमान में इस विद्यालय में 1125 विद्यार्थी शिक्षा पा रहे हैं व छात्र-छात्राओं के लिये बारहवीं कक्षा तक अलग-अलग पढ़ाई की व्यवस्था है । व्यावहारिक पढ़ाई के साथ-साथ संगीत व धार्मिक ज्ञान देने की भी व्यवस्था की गई है । आज यह विद्यालय मद्रास शहर के मध्य, खेल-कूद के लिये विशाल मैदान के साथ श्री महावीर जैन कल्याण संघ की निजी जगह में चल रहा है । संघ के उद्देश्य : गुरु श्री शान्तिविजय जैन विद्यालय का संचालन करने व आगे बढ़ाने के अतिरिक्त जन-कल्याण के लिये हर प्रकार के अध्ययन व चिकित्सा सम्बन्धी कार्यों की स्थापना करना, संचालन करना व सहयोग देना संघ के उद्देश्य हैं। "तीर्थ-दर्शन" ग्रंथ की परिकल्पना : वि. सं. 2024 में "अखिल भारत जैन-तीर्थ यात्रा संघ मद्रास" की 101 दिनों की मेरी यात्रा ही इस कार्य के प्रारंभ का मुख्य कारण है । उस यात्रा के दौरान अनेकों महानुभावों के सुझाव थे कि इस यात्रा का वर्णन व अनुभव प्रकाशित किया जाये ताकि भविष्य में यात्रियों को भी इसका लाभ मिल सके । उसको ध्यान में रखते हुए मैंने "भारत के जैन-तीर्थ व हमारे 101 दिनों की यात्रा के अनुभव" नामक पुस्तक लिखी । लेकिन कार्यवश विलम्ब होता गया । इतने में भगवान महावीर का पच्चीसवीं-निर्वाण शताब्दी-महोत्सव मनाने का सुअवसर आया व पूरे भारत में कई प्रकार के कार्य प्रारंभ हुए । गुरुदेव की असीम कृपा व अदृश्य प्रेरणा से मेरी भी इच्छा हुई कि कुछ ऐसा कार्य किया जाय जिसका सदियों तक लाभ मिल सके एवं संग्रहित सामग्री का प्रतिफल श्री महावीर जैन कल्याण संघ के उद्देश्यों की पूर्ति के लिये काम आ सके । अतः इस पुस्तक को कुछ धार्मिक विवरणों के साथ व्यापक रूप देकर प्रकाशित करने की इच्छा हुई । अतः यह प्रस्ताव मैंने संघ की समिति के सम्मुख विचारार्थ रखा । उसपर समिति Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ने विचार-विमर्श करके यह संशोधनीय कार्य प्रारंभ करने का निश्चय कर भगवान महावीर निर्वाण शताब्दी महोत्सव .. की स्मृति में ऐतिहासिक ग्रंथ प्रकाशित करने का निर्णय लिया । "तीर्थ-दर्शन" ग्रंथ प्रकाशन के उद्देश्य : 1 यात्रियों को जैन-तीर्थ स्थल संबंधी जानकारी देना हर एक तीर्थ-स्थल का इतिहास तीर्थंकर भगवन्तों, आचार्य भगवन्तों, जैन राजा-महाराजाओं, मंत्रिओं या श्रेष्ठियों से संबंध रखता है । कुछ ऐसे भी तीर्थ है जो पुरातत्व दृष्टि व धार्मिक दृष्टि से विशिष्ट माने गये हैं । मुझे पूर्ण विश्वास है कि यात्रीगण इन पावन तीर्थ-स्थलों के इतिहास की जानकारी पाकर प्रसन्नता व गौरव का अनुभव करेंगे व जिन्दगी में कम से कम एक बार हर तीर्थ-स्थल का दर्शन कर अपना जीवन सफल बनायेंगे । वर्तमान पीढ़ी के लिये ही नहीं भावी पीढ़ी के लिये भी यह ग्रंथ प्रेरणाप्रद होगा । 2 युवावर्गों में धार्मिक भावना जाग्रत करना युवावर्गों में धार्मिक भावना जागृत करना ही नहीं उसे कायम रखना भी इस वैज्ञानिक युग में अति आवश्यक है । इसके लिये यह ग्रंथ सहायक सिद्ध होगा। दर्शन के साथ-साथ धार्मिक भावना जागृत करने के लिये यह ग्रंथ बोधप्रद सचित्र इतिहास से अलंकृत किया गया है । साधारणतया पाठक उसी पुस्तक या ग्रंथ के लिये हाथ बढ़ाता है जिनमें चित्र हों । उनमें भी रंगीन चित्रों के देखते ही उस पुस्तक के अवलोकन की तीव्र इच्छा जागृत हो जाती है चाहे वह कोई भी पुस्तक हो । जब पाठक चित्र देखता है तो पढ़ने की भी कुछ इच्छा हो जाती है । इसी भांति इस अनमोल ग्रंथ के हर पृष्ठ पर अलग-अलग प्रकार के अलौकिक चित्र हैं जो प्रत्यक्षता प्रमाणित करते हैं । निःसंदेह हर एक वयस्क इस ग्रंथ को दूर से देखते ही एक बार तो पूरे पृष्ठों के अवलोकन की इच्छा करेंगे । इन अपूर्व चित्रों के दर्शन करते ही उनको इतिहास पढ़ने की इच्छा होगी व इतिहास की जानकारी होने से धर्म के प्रति श्रद्धा बढ़ेगी । इस प्रकार बच्चों व नवयुवकों में धर्म के प्रति श्रद्धा व प्रभु के प्रति भक्ति बढ़ाने में यह ग्रंथ प्रेरणाप्रद होगा । 3 तीर्थ-स्थलों का प्रचार होकर आवागमन बढ़ना तीर्थ-स्थलों का आवागमन बढ़ना उतना ही आवश्यक है जितना धर्म का प्रचार । क्योंकि ये तीर्थ-स्थल ही अपने तीर्थंकर भगवन्तों, आचार्य भगवन्तों, व अपने पूर्वजों आदि की याद दिलाते हैं । इतिहास की प्रमाणिकता के ये स्मारक साक्षी स्वरूप हैं । इन्हें व्यवस्थित ढंग से संभालना हर जैन बन्धु का कर्तव्य हो जाता है । यहाँ का वातावरण इतना निर्मल व शुद्ध है जो मानव को भवसागर से पार लगा देता है । मुझे पूर्ण विश्वास है कि इस ग्रंथ के प्रकाशन से तीर्थ स्थलों पर यात्रियों का आवागमन बढ़ेगा । 4 बुजुर्गों को प्रतिदिन देवाधिदेव तीर्थाधिराजों के दर्शन का लाभ मिलना यह प्रकृति का नियम है कि वृद्धावस्था आने पर प्रायः हर मानव में धर्म के प्रति विशेष रुचि जागृत होती है । उस वक्त उनको समय बिताने व आत्मशान्ति के लिये किसी प्रकार के धर्म कार्य में लीन होने की इच्छा होती है । उन भाग्यवान बंधुओं के लिये यह एक महान अति उपयोगी ग्रंथ सिद्ध होगा, जिसके माध्यम से उनको हर तीर्थाधिराज के साक्षातकृत दर्शन का लाभ मिलेगा । दर्शन करते ही तीर्थ का स्मरण हो आयेगा । हमेशा उनके लिये समय बिताना तो आसान होगा ही, प्रभु-दर्शन से उनको महान पुण्य का लाभ भी होगा व वे अत्यन्त शान्ति का अनुभव भी करेंगे । शास्त्रों में भी बताया गया है कि किसी कठिनाईवश तीर्थ यात्रा न कर सकने पर मानव घर बैठे-बैठे सात्विक भाव से तीर्थाधिराजों के भावपूर्वक दर्शन कर पुण्योपार्जन कर सकता है। 5 पर्यटकों व संशोधकों को मार्ग-दर्शन देना आज के युग में यातायात के अनेकों साधन होने के कारण कई भारतीय व विदेशी पर्यटक अपने अमूल्य मानव भव में अधिक से अधिक दर्शनीय स्थलों के दर्शन की अभिलाषारखते हैं । विश्व के विभिन्न स्थलों में बसे सर्वसुविधा सम्पन्न कई सज्जन ऐसे स्थलों की खोज में घूमते रहते हैं जहाँ उनकी आत्मा को विशेष शान्ति मिल सके । विश्व में दर्शनीय स्थल तो अनेक हैं परन्तु शान्ति का अनुभव तो धार्मिक स्थलों पर ही हो सकता है जहाँ के परमाणु अत्यन्त निर्मल व शुद्ध होते है । Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन तीर्थ स्थल उन धार्मिक स्थलों में हैं जहाँ उन्हें अपूर्व शान्ति का प्रत्यक्ष अनुभव तो होता ही है साथ ही उन्हें विशिष्ट कला व प्राकृतिक सौन्दर्य के अवलोकन का अमूल्य अवसर भी प्राप्त होता है । ऐसे स्थलों पर जाने की अभिलाषा रखने पर भी सही मार्ग-दर्शन के बिना पर्यटक कभी-कभी स्थल के निकट पहुँचने पर भी जाने से वंचित रह जाता है । अतः यह अमूल्य ग्रंथ उनके लिये मार्ग-दर्शन के रूप में रहेगा व अधिक से अधिक पर्यटक इन स्थलों के दर्शन का लाभ उठा सकेंगे । इसी भांति संशोधकों के लिये भी यह ग्रंथ उतना ही लाभप्रद होगा । निःसन्देह इस ग्रंथ में शोधकों के लिये ज्यादा विस्तार पूर्वक वर्णन नहीं है लेकिन हर स्थान के बारे में आवश्यक संकेत दिये गये हैं जिनके माध्यम से संशोधकगण अपने कार्य में प्रगति कर सकेंगे । मुझे पूर्ण विश्वास है कि संशोधकों को भी यह ग्रंथ उनके संशोधन कार्य में सहारे के रूप में रहेगा । कार्य का प्रारंभ : कार्य को व्यवस्थित ढंग से आगे बढ़ाने के लिये संस्मृति ग्रंथ समिति व अन्य उपसमितियाँ बनाई गईं एवँ "जैन कंट्रिब्यूशन टु तमिल लिटरेचर एण्ड आर्ट” विषय पर सेमीनार के विराट सम्मेलन के साथ दिनांक 17-3-74 को कार्य प्रारंभ हुआ । जिसमें तमिलनाडु के तात्कालीन राज्यपाल महोदय, विधान सभा के अध्यक्ष महोदय, मंत्री महोदय एवं अनेकों विद्वानों ने भाग लिया । दक्षिण भारत के इतिहास में इस ढंग का यह प्रथम सम्मेलन था, जिसका उल्लेख तमिलनाडु सरकार द्वारा प्रकाशित तमिल अरसु नवम्बर 74 की पत्रिका में निम्र प्रकार हुआ है । The Sangh organised recently a Seminar on Jain contribution to Tamil Art and Literature and an Exhibition for 3 days in connection with 2500th Nirvan of Bhagwan Mahavir. The Seminar and Exhibition were the first of its kind in South India. सहयोग पाने के लिये भ्रमण : विभिन्न जगहों के भाग्यशालियों के नाम सहयोगी के तौर पर इस अनमोल ग्रंथ में अंकित हो सके, इसी उद्देश्य को लेकर पूरे तमिलनाडु का भ्रमण किया गया । बड़े ही उत्साह के साथ सब जगह से आवश्यक सहयोग प्राप्त हुआ । तीर्थों की फोटोग्राफी : हम चाहतें थे कि इस ग्रंथ में प्रत्यक्ष रंगीन फोटो दिये जायँ ताकि दर्शक मुग्ध हो सके रखते हुए यहाँ से फोटुग्राफरों के साथ दिनांक 16 जनवरी 1975 को एक डेलीगेशन भेजा गया करने के लिये तमाम पेढ़ी के व्यवस्थापकों से अनुरोध किया गया । T I । इसी को ध्यान में उन्हें सहयोग प्रदान यात्रा का अमूल्य अवसर व संघ की सेवा को ध्यान में रखकर डेलीगेशन के सदस्यों ने पूरे भ्रमण का खर्चा खुदने किया जिससे संघ को सिर्फ फोटोग्राफर का वेतन व फिल्म का मूल्य ही देना पड़ा । डेलीगेशन 141 दिनों का निरन्तर भ्रमण करके फोटोग्राफी लेकर दिनांक 5 जून 1975 को लौटा। इनके प्रयाण में जगह-जगह अनेकों आचार्य भगवन्तों, मुनि महाराजों एवं विशिष्ट व्यक्तियों से वार्तालाप हुआ व सबने कार्य की सराहना करते हुए आशीर्वाद दिया । लोद्रवपुर में चमत्कार : लोद्रवपुर में हुए चमत्कार का विवरण लोद्रवपुर तीर्थ के इतिहास में पुष्ठ 164 पर दिया गया है । ठीक फोटोग्राफी के समय अधिष्ठायक देव का साक्षात् में प्रकट होना इस ग्रंथ के लिये पार्श्वप्रभु का प्रत्यक्ष आशीर्वाद है । इस अनहोनी घटना ने इस ग्रंथ की महानता को प्रमाणित किया है। यह आशीर्वाद डेलीगेशन के लिए ही नहीं इस संस्था एवं इस ग्रंथ के दर्शकों व पाठकों के लिये भी अति दुर्लभ महत्वपूर्ण आशीर्वाद है । श्री धरणेन्द्रदेव के अतिदुर्लभ चित्र का इस ग्रंथ में समाविष्ठ होना भी अत्यन्त महत्वपूर्ण है। इस अलौकिक, अचिंतनीय, अवर्णनीय, अतिदुर्लभ घटना के रहस्य को समझना मेरी शक्ति के परे है। मुझे पूर्ण विश्वास है कि श्री धरणेन्द्रदेव की अनुकम्पा से दर्शकगण विशेष आत्मशांति का अनुभव करेंगे । Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रंथ में तीर्थ-स्थलों का समावेश : भारत भूमि में असंख्य जैन-मन्दिर व स्मारक थे जिनका इतिहास साक्षी है । आज भी अनेकों खण्डहर रूप में अपूजित मन्दिर व गुफाएँ आदि हर प्रान्त में जगह-जगह पाये जाते हैं, तो कई परिवर्तित भी हो चुके हैं । तब भी आज पूजित जिन मन्दिरों की संख्या लगभग 15,000 से कम नहीं होगी जो भारत के तमाम प्रान्तों में स्थित हैं । इनमें लगभग 5 हजार मन्दिर सौ साल से ज्यादा प्राचीन होंगे । परन्तु इन सबका वर्णन संभव नहीं । हमने निम्न स्थानों के जिन मन्दिरों को यथा संभव इस ग्रंथ में समाविष्ठ किया है । ये प्राचीन स्थल आज भी गौरव के साथ अपने पूर्व प्रतिभा की याद दिलाते हैं । इस का श्रेय अपने परमपूज्य आचार्य भगवन्तों व मुनि महाराजों को है जिनके उपदेश से हमारे पूर्वज कई राजा महाराजाओं, मंत्रियों व श्रेष्ठियों ने बड़ी ही लग्न व श्रद्धा से इन भव्य मन्दिरों का निर्माण करवाया । जिन पर जैन समाज को अतीव गौरव है । आज भी हम उन पावन स्थलों की यात्रा कर पुण्योपार्जन करके अपने को धन्य समझते हैं। * तीर्थंकर भगवन्तों की कल्याणक भूमियाँ - जहाँ पर प्रभु के च्यवन, जन्म, दीक्षा, केवलज्ञान व मोक्ष-कल्याणक हुए हैं । चमत्कारिक (अतिशय) या सिद्ध क्षेत्र । कलाकृति आदि में विशिष्ट मन्दिर । * प्राचीन क्षेत्र - जहाँ का इतिहास सात सौ वर्षों के पूर्व का हो वहाँ का प्राचीन पूजित जिन मन्दिर। * किसी भी पंचतीर्थी में स्थान पाने वाले स्थल । हमने कई पत्र-पत्रिकाओं में उक्त प्रकार के पावनस्थलों की जानकारी भेजने के लिये आम अनुरोध किया था । प्राप्त जानकारी, हमारा अनुभव व कई ग्रंथ एवं पुस्तकों आदि का सहारा लेकर इन पावन स्थलों को इस ग्रंथ में समाविष्ट किया है । पाठकों से अनुरोध है कि अगर और भी कोई स्थल रह गया हो तो हमें आवश्यक जानकारी भेजें । परिशिष्ट प्रकाशन की आवश्यकता समझी गई तो सुविधा होने पर प्रकाशित किया जायेगा । उस समय फोटो आदि प्राप्त होने पर उस स्थान को मिलाने का प्रयास किया जायेगा । इतिहास व अन्य जानकारी : हम चाहते थे कि इस ग्रंथ में तीर्थों की जानकारी के अतिरिक्त जैन-दर्शन, साहित्य व कला संबंधी भी कुछ जानकारी दें । परन्तु तीर्थों की जानकारी पाकर व्यवस्थित ढंग से गठन करने में ही इतना समय लग गया । जिसके कारण उन विषयों पर ध्यान नहीं दिया जा सका । अतः मैं क्षमा प्रार्थी हूँ। हमने हर तीर्थ के विवरण को अनेकों ग्रंथ व पुस्तकों की मदद एवं प्रत्यक्ष प्राप्त जानकारी से गठन कर पेढ़ी व संबंधित अध्यक्ष महोदय को भेजकर उनसे आये सुझावों पर गौर करके तीर्थों के विवरणों को मुद्रित किया है । इस कार्य में तमाम तीर्थ स्थलों के व्यवस्थापकों व कर्मचारियों का जो सहयोग प्राप्त हुआ वह सराहनीय है । स्व. सेठ श्री कस्तूरभाई (सेठ आनन्दजी कल्याण पेढ़ी के प्रमुख) के साथ अनेकों बार पत्र व्यवहार एवं परस्पर वार्तालाप में इन्होंने हर वक्त अपने अमूल्य सुझाव दिये जो सराहनीय है। इस कार्य में कई आचार्य भगवन्तों व मुनि महाराजों का भी सहयोग प्राप्त हुआ जिनमें यहाँ विराजित आचार्य श्री विक्रमसूरीश्वरजी व मुनि श्री राजयशविजयजी आदि का सहयोग उल्लेखनीय है । नमूने के तौर पर झांकी का विमोचन : हमने इस ग्रंथ के प्रारुप का विमोचन "तीर्थ दर्शन की एक झांकी' के रूप में पांच भाषाओं में दिनांक 23-4-78 चैत्री पूर्णिमा के शुभ दिन परमपूज्य श्री विशालविजयजी महाराज की निश्रा में यहाँ के राज्यपाल श्री प्रभुदासजी पटवारी के हार्थों कराया था । इस विमोचन का मुख्य उद्देश्य इस ग्रंथ का प्रचार व आचार्य भगवन्तों, मुनि महाराजों एवं समाज के विशिष्ट व्यक्तियों के सुझावों को पाना था ताकि तीर्थों के इतिहास का गठन सुन्दर ढंग से किया जा सके । अतः हमने इस झांकी की प्रतियों को अनेकों आचार्य भगवन्तों, मुनि महाराजों एवं 3000 से ज्यादा 10 Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर व दिगम्बर मन्दिरों को भेजा । साथ में प्रचार के लिये पोस्टर भी भेजे । हमें प्रसन्नता है कि कार्य आम तौर पर पसन्द किया गया व अनेकों आचार्य भगवन्तों व मुनि महाराजों के आशीर्वाद भी प्राप्त हुए । अग्रिम बुकिंग की आवश्यकता :____ माननीय सहायकों से हमने जितना सहयोग प्राप्त किया था उससे पाँच - छ: गुना खर्च अधिक था। हम यह नहीं चाहते थे कि कर्ज लेकर आवश्यकता की पूर्ती की जाय । अतः कम मूल्य में अग्रिम बुकिंग करके आवश्यकता की पूर्ती करने का निर्णय लिया गया । इस प्रयत्न में भी समाज का प्रोत्साहन सहित सहयोग प्राप्त हुआ । विलम्ब का कारण : हम इस कार्य की व्यापकता का कोई अनुमान नहीं लगा सके थे । हमने समझा था कि फोटोग्राफी होते ही अन्य कार्य शीध्र हो जायेंगे । परन्तु यह तो श्रीगणेश था । हमने यह भी सोचा था कि तीर्थों के इतिहास का गठन पेढ़ी वालों के सहयोग से शीध्र हो जायेगा । लेकिन इसमें भी हमारा अनुमान गलत था । शोध कार्य के कारण विषय का गठन करने में अनुमान से कई गुना अधिक समय लगा। हमारा उद्देश्य था कि हर पेढ़ीवालों को जानकारी देकर व उनके सुझावों पर गौर करके विवरण मुद्रित करें। अतः पत्र व्यवहार में अत्यन्त समय निकल गया तथा निरन्तर कार्य करने पर भी इतना समय लग गया। नये ढंग का व अति विशाल कार्य होने के कारण समय का बराबर अनुमान नहीं लगाया जा सका अतः ग्रंथ नियत समय तक प्रकाशित नहीं हो सका । जिससे सहायक महानुभावों व अग्रिम बुकिंग कर्ताओं को लम्बे समय तक प्रतीक्षा करनी पड़ी इसके लिये मैं क्षमा प्रार्थी हूँ व उनकी सहनशीलता के लिये मैं हार्दिक धन्यवाद देता हूँ। विभिन्न भाषाओं में प्रकाशन : ____ हमने सूचित किया था कि ग्रंथ विभिन्न भाषाओं में प्रकाशित किया जायेगा । लेकिन प्रति भाषा के लिये न्यूनतम पांच सौ प्रतियों की बुकिंग आवश्यक है । हिन्दी व गुजराती की बुकिंग निर्धारित संख्या से ज्यादा हो पाई जिनका प्रकाशन कर रहे हैं । अब हम अंग्रेजी भाषा में प्रकाशन का प्रयत्न करेंगे ताकि अन्य लोगों के लिये भी यह ग्रंथ उपयोगी हो सके । पर्यटकों से : तीर्थ स्थानों पर जैन-यात्रियों के लिए आवास का साधन व भोजनशालाओं की कई स्थानों पर सुविधाएँ हैं । अन्य लोगों को पूर्व पत्र व्यवहार करके या अपने साधन के साथ जाना सुविधाजनक होगा। जैन तीर्थ-क्षेत्र प्रायः एकान्त में शान्त व निर्मल वातावरण में स्थित हैं, जो अपनी विभिन्न शैली की कला के लिए प्रसिद्ध हैं । ऐसी कला के नमूने अन्यत्र कम मिलेंगे । आप सिर्फ पर्यटक के रूप में न जाकर अपने को यात्री समझें व प्रभु को भावपूर्वक वन्दन करें । आप भी विशिष्ट आनन्द का अनुभव करेंगे । जैन-यात्रियों के लिये कुछ मुख्य सुझाव : हमें यात्रा में जो अनुभव हुए उन्हें यात्रियों के ध्यान में लाना आवश्यक समझता हूँ। 1 यात्रा शान्ति से करें चाहे यात्रा कम जगह की हों । तभी आप विशेष आनन्द का अनुभव करेंगे । 2 यात्रा में खाने की कुछ सूखी सामग्री साथ रखें ताकि अधिक जगह की आप यात्रा कर सकेंगे । दिन में एक बार गरम रसोई का साधन मिल जाय तो स्फूर्ति के लिय पर्याप्त है । 3 भ्रमण का मार्ग प्रथम निश्चित कर लें ताकि समय व्यर्थ न जाय । 4 यात्रा में कम से कम सामान, ओढ़ने-बिछाने का साधन व पूजा के वस्त्र साथ रखें । 5 यात्रा जाने के पहले वहाँ की विशेषता आदि की जानकारी पढ़कर जावें ताकि आप विशेष प्रफुल्लता का अनुभव करेंगे । Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6 तीर्थ-स्थानों पर संसारिक चर्चाओं का यथा-संभव त्याग करें तो आप अपूर्व शान्ति का अनुभव करेंगे । 7 यात्रा का समय दिवाली के पश्चात् चैत्र तक ऋतु की दृष्टि से उत्तम है । वर्षा ऋतु में भ्रमण में कठिनाई पड़ सकती है । अगर सुविधापूर्वक तीर्थ स्थान तक पहुँच सकें तो हर ऋतु उत्तम है ।। 8 लम्बी दूर का रास्ता रेल से पार करके वहाँ आस पास के तीर्थों की यात्रा बस या टैक्सी द्वारा करें तो सुगमता होगी व अधिक स्थानों की यात्रा हो सकेगी । तीर्थ स्थानों के बने हुए नियमों का पालन करें ताकि हम आशातना से बचते हुए यात्रा का प्रतिफल पा सकेंगे । 10 हर वर्ष किसी तीर्थ की यात्रा अवश्य करें । उसमें भी अगर हर वर्ष अलग-अलग दिशा में जायेंगे तो धीरे-धीरे सभी तीर्थों की यात्रा हो जायेगी । 11 स्पेशल बस द्वारा लम्बी यात्रा करनेवाले यात्री ध्यान रखें कि बस एक दिन में लगभग 250 कि. मी. से अधिक रास्ता तय नहीं कर सकती । उसी प्रकार से अपना मार्ग निश्चित करें । पहले, तीर्थ व अन्य स्थानों पर पत्र व्यवहार कर लें । रसोई का साधन अपने साथ रखें, अन्यथा मार्ग में कठिनाई होगी। आभार प्रदर्शन : मैं परमपूज्य आबू के महान योगीराज जगद्गुरु आचार्य सम्राट विजय श्री शान्तिसूरीश्वरजी का अत्यन्त आभारी हूँ जिनकी अदृश्य प्रेरणा से ही इतना विशाल कार्य उठाया व उनकी असीम कृपा व अलौकिक अदृश्य शक्ति से यह कार्य सम्पन्न हो सका । इनका आशीर्वाद ही संस्था के प्रगति का कारण है जो हम प्रत्यक्ष रूप में अनुभव करते आ रहे हैं । हमारे भूतपूर्व अध्यक्ष स्व. श्री जतनलालजी डागा का मैं आभारी हूँ जिन्होंने, संस्था की स्थापना के समय से अपने अंत समय तक मुझे हर कार्य में उत्साहित करते हुए मार्गदर्शन दिया । इस ग्रंथ के कार्य में भी आप मुझे मार्ग दर्शन देते रहे जिसके कारण कठिनाईयाँ सुलभ होती गई । मैं स्व. स्वामीजी श्री रिषबदासजी, श्री मिलापचन्दजी ढहा, श्री बहादुरसिंहजी बोथरा, श्री चम्पालालजी मरलेचा को भी आभार प्रदर्शन करता हूँ जिन्होंने इस कार्य में अति उत्साह के साथ भाग लिया था । स्व. शेठ श्री कस्तूरभाई, साहू श्री शान्तिप्रसादजी जैन, श्री सम्पतलालजी कोचर का भी मैं अत्यन्त आभारी हूँ, जिन्होंने इस कार्य में अपने अमुल्य अनुभवों से मार्ग दर्शन दिया है । हमारे अध्यक्ष श्री मानकचन्दजी बेताला का मैं आभारी हूँ जो अपने अमूल्य अनुभवों से मार्ग-दर्शन देते आ रहे हैं । संघ के सभी सदस्यों, संस्मृति ग्रंथ समिति के मंत्री श्री लालचन्दजी जैन उपसमितियों के मंत्री श्री कपूरचन्दजी जैन, प्रकाशमलजी समदड़िया, केशरीमलजी सेठिया, पुखराजजी जैन, सायरचन्दजी नाहर, आर. के. जैन, आर. नागस्वामी व अन्य सदस्यों द्वारा प्रदान किये गये सहयोग के लिये हार्दिक धन्यवाद देता हूँ । माननीय सहायक महोदयों का मैं विशेष आभारी हूँ जिन्होंने कार्य के प्रारंभ में सहायता देकर उत्साह बढ़ाया है अतः उन्हें हार्दिक धन्यवाद देता हूँ। फोटोग्राफी डेलीगेशन के सदस्यों श्रीमान जीवनचन्दजी समदड़िया, सम्पतलालजी झाबख, आसकरणजी गोलेछा, ताराचन्दजी छजलाणी व गेनमलजी संचेती का मैं अत्यन्त आभारी हूँ जिन्होंने अपना 141 दिनों का अमूल्य समय निकालकर फोटोग्राफी के समय मेरे साथ रह कर सहयोग प्रदान किया है । फोटोग्राफी के लिए दुबारा जाते समय सादड़ी के प्रेस फोटोग्राफर श्री कांतिलालजी रांका ने अपने केमरों आदि सहित साथ रहकर निःस्वार्थ सेवा की है । अतः इन सबको मैं हार्दिक धन्यवाद देता हूँ । तमाम पेढ़ी के व्यवस्थापकों को भी बारंबार धन्यवाद देता हूँ जिनके पूर्ण सहयोग से ही यह कार्य सुगमता पूर्वक सुन्दर ढंग से पूर्ण हो सका । श्री जयसिंगजी श्रीमाल, श्री कान्तिभाई शाह, श्री गेनमलजी संचेती, श्री भीखमचन्दजी वैद व हंसराजजी लूणिया का मैं अत्यन्त आभारी हूँ जिन्होंने विवरण गठन करने व अन्य कार्यों में निरन्तर अपना समय निकाल कर पूर्ण सहयोग प्रदान किया है । अतः मैं इन्हें हार्दिक धन्यवाद देता हूँ । Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमपूज्य आचार्य श्री विशालसेनसूरिजी महाराज का मैं अत्यन्त आभारी हूँ जिन्होंने ग्रंथ के प्रचार व अग्रिम बकिंग करवाने में विशेष सहयोग प्रदान किया है । मैं उन सभी सहायकों का भी आभारी हूँ जिन्होंने बुकिंग करने व कराने में विशेष सहायता प्रदान की है । उन सब का विवरण देने में मैं असमर्थ हूँ एवं उन सबको हार्दिक धन्यवाद देता हूँ । मेसर्स प्रसाद प्रोसेस (प्रा.) लिमिटेड-मद्रास, ऑल इन्डिया प्रेस-पान्डिचेरी, जन्म भूमि प्रेस-बम्बई, फोटोग्राफर गोपालरत्नम्-मद्रास, एवं सी. हरिशंकर गुप्ता-मद्रास, को भी धन्यवाद देना अपना कर्तव्य समझता हूँ जिन्होंने प्रिंटिंग, फोटोग्राफी व संशोधन कार्य में अत्यन्त रुचि लेकर कार्य को सुन्दर ढंग से सफल बनाने में सहयोग प्रदान किया है । जिन कार्यकर्ताओं ने अपना अमूल्य समय निकाल कर तन, मन या धन से निःस्वार्थ सेवा करते हुए इस पुनीत कार्य में सहयोग प्रदान किया है उन सबका मैं अत्यन्त आभारी हूँ । कार्यकर्ताओं की इस प्रकार की सेवा के कारण कागज व मुद्रण व्यय के अतिरिक्त संघ के कार्यालय का व अन्य खर्चा नहीं के बराबर था अतः उनकी सेवा के लिये उन सबकों मैं हार्दिक धन्यवाद देता हूँ । अन्त में मैं उन सभी आचार्य भगवन्तों, मुनि महाराजों व महानुभावों को आभार प्रदर्शन करते हुए हार्दिक धन्यवाद देता हूँ जिन्होंने प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से इस पुनित कार्य में अपना सहयोग प्रदान किया है । त्रुटियों के लिये क्षमा : इस ग्रंथ के लिये सामग्री जुटाने व प्रकाशन करने में जितना बन सका उतना यथासंभव कार्य किया गया है । परन्तु त्रुटियों का होना स्वाभाविक है अतः आचार्य भगवन्तों, मुनि महाराजों, विद्वानों, तीर्थों के व्यवस्थापकों, सहायकों व पाठकों से निवेदन है कि कृपया त्रुटियों के लिये क्षमा करें व अपने अमूल्य सुझावों के साथ उन्हें हमारे ध्यान में लावें । तीर्थ क्षेत्र व तीर्थ यात्रा : तीर्थ क्षेत्र अपना विशिष्ट महत्व रखते हैं । वहाँ के परमाणुओं में ऐसी अद्भुत शक्ति रहती है जो यात्रियों को भक्ति की तरफ सहज ही में खींच लेती है । जहाँ प्रभु के कल्याणक हुए हों, जहाँ प्रभु के चरण स्पर्श हुए हों, जहाँ सदियों से प्रभु-भक्ति व पूजा हो रही हों, जहाँ असंख्य मुनियों ने तपस्या की हों, वहाँ विशिष्ट प्रकार के शुद्ध परमाणु फैले बिना नहीं रहते । वे आँखों से ओझल रहते हुए भी प्राणी की आत्मा पर ऐसा असर करते हैं कि वह बाह्य कार्य-कलाप भूलकर प्रभु भक्ति में तल्लीन हो जाता है। जिस जगह के जैसे परमाणु होते हैं उसी ढंग का प्रभाव प्राणी की आत्मा पर पड़ता है । इसलिये परम्परा से हर धर्म में तीर्थ क्षेत्रों को महत्वपूर्ण स्थान दिया है । तीर्थ यात्रा करने वाला व्यक्ति भी उस दौरान एक अलग ही शान्ति का अनुभव करता है । यह शास्त्रासिद्ध तो है ही प्रत्यक्ष प्रमाण भी है, अनेकों ने अनुभव किया है व करते आ रहे हैं । तीर्थ यात्रा में भ्रमण करने वाले प्राणी प्रभु में खो जाते हैं व अपने कर्मों का क्षय करते हुए पुण्य का संचय करते हैं । अतः तीर्थ यात्रा पाप विनाशकारी, पुण्योपार्जनकारी, सर्वसुखकारी व आत्म हितकारी है जो मनुष्य के जीवन में अत्यन्त आवश्यक है । अंत में श्री जिनेश्वर व गुरु भगवन्तों को यह ग्रंथ समर्पण करते हुए प्रभु से प्रार्थना करता हूँ कि "तीर्थ-दर्शन" घर घर की ज्योति बने व सभी पाठकों को तीर्थ क्षेत्रों की यात्रा का सुअवसर प्राप्त हों । इसी अभिलाषा के साथ : नवम्बर 1980 । यू. पन्नालाल वैद मंत्री, श्री महावीर जैन कल्याण संघ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___"तीर्थ- दर्शन के बारे में विभिन्न आचार्य, मुनि भगवन्तों के पूर्व में आये हए अभिप्राय व आशीर्वाद पत्रों में से कुछ पत्रों का मुख्य अंश तीर्थ दर्शन देखकर असाधारण आनन्द हुआ । जैन इतिहास मां यह प्रकाशन सब दृष्टि में श्रेष्ठ, अत्युपयोगी और महत्वपूर्ण बना है । पालीताना-दि. 1-2-1981 ___-आचार्य यशोदेवसूरि तीर्थ दर्शन को जो भी एक बार पायेगा वह यह चाहेगा, मेरी चले तो हर घर में पहुंचाएं किन्तु उसके पास यदि एक से ज्यादा नकल न हुई तो वह हर किसको देने से मुकरने की कोशिश करेगा । बम्बई- दि. 16-5-1981 -आचार्य विशालसे नसूरि | મેં એ ગ્રંથ જોયો છે. બધા ચિત્રોં અને ઈતિહાસ બધું ચિત્ત ને આકર્ષતેવું છે. સમકિતની નિર્મળતાનું ઉત્તમ કારણ છે. એના દર્શન ભકિત વડેભવ્ય જીવો જીવન ધન્ય બનાવે એ શુભ ભાવના सीमनडी - १. १४.७.१९८१ - આચાર્ય માનતુંગસૂરિ | શ્રી તીર્થ દર્શન ભાગ - ૧-૨ નું પ્રકાશન કરી શ્રી જૈન શાસન ની મહાન સેવા કરી છે. શ્રી જૈન શાસનની અધિક સેવા કરવાની શકિત પ્રાપ્ત થાઓ એજ એક અંતરની શુભ આશીષ विजापुर - ६. १४-७-१८८१ - આચાર્ય સુબોધસાગરસૂરિ | શ્રી મહાવીર જૈન કલ્યાણ સંઘ તરફ થી પ્રકાશન કરવામાં આવેળા તીર્થ - દર્શન નામક ઉત્મય ગ્રંથોંએ, ભારતવર્ષીય વિઘવિઘ મહાન અને મંગલમય તીર્થોની ગૌરવાન્વિત ગાથાઓ છે. SIमला (लोर) - આચાર્ય વિજય ભુવનશેખરસૂરિ ચતુરવિધ શ્રી સંઘ દર હમેશા આ તીર્થ - દર્શન નો સદુપયોગ કરીને આત્મ દર્શન પામી વિસ્તાર પામે અમ્મર્થના सूरत -ह. १.८.१९८१ - આચાર્ય દેવેન્દ્રસાગરસૂરિ तीर्थ क्षेत्रों का ऐतिहासिक परिचय देकर पूर्वजों के गौरवपूर्ण समर्पण भावना-भक्ति का वर्णन आज के भौतिक युग के युवा मानस में भक्ति की चिनगारी प्रगट करेगा, ऐसी में आशा रखता है। मद्रास-दि. 4-8-1981 -आचार्य पद्मसागरसूरि ऐसा बढ़िया ऐतिहासिक-ग्रंथ प्रगट करने के लिये अभिनन्दन । दादर-मुम्बई-दि. 8-8-1981 -आचार्य कीर्तिसूरि આ ગ્રંથ જૈન સમાજની અણમોળ મિલકત બનશે, સાથ-સાથે તમારો પરિશ્રમ અને ભાવના તમારા પુણ્યનો સંચય કરશે અને અનેક જીવોં ને પુણ્યના ભાગીદાર બનાવશે એમ હૈંમાનું છું. भुम्ना - . १२-८-१९८१ - આચાર્ય વિજય સદગુણસૂરિ घर-घर में यह ग्रंथ रखने लायक है, यह ग्रंथ एक बार पढ़ने और दर्शन करने वाला तीर्थ यात्रा करने के लिये उत्साहित हुए बिना नहीं रहेगा । उदयपुर-दि. 18-8-1981 ___- आचार्य विजय देवसुरि, विजय हेमचन्द्रसूरि शुभ आशीर्वाद-आपने तीर्थ-दर्शन प्रगट करने की योजना बनाई और प्रगट करने का शुभारंभ किया उस बदल आपको धन्यवाद । गोधरा- दि. - आचार्य यशोभद्रसूरि _ "तीर्थ-दर्शन" ग्रंथ जैन शासन का शान बढ़ाने वाला अनमोल रत्न तैयार हुआ है । सूरत - दि. 4-9-1981 - आचार्य विजय भुवनभानुसूरि વિષમકાલના વિષમય વાતાવરણની અસર ધરાવતા આયુગમાં સમ્યક દર્શનની વિશુદ્ધિનું મુખ્ય કારણ તીર્થ છે. તીર્થ-દર્શન સર્વશ્રેષ્ઠ ગ્રંથ બહાર પાડી સમાજ સેવાનુ અદભુત અને અનુમોદનીય કાર્ય કર્યું છે. Bार - ह.४.९.१९८१ - આચાર્ય દર્શનસાગરસૂરિ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ તીર્થ - દર્શન ગ્રંથ સમ્યગ દર્શનની પ્રાપ્તિ શુદ્ધિ અને વૃદ્ધિ કરનાર છે, વૃદ્ધોને તથા બીમાર આત્માઓને તેનું દર્શન આલ્હાદકજનહીં કિન્તુ આત્મ શાન્તિ પ્રગટાવનાર છે એમ અમને લાગ્યુ છે. સાબરમતી महाजाह - हि. १५.८.१७८१ -આચાર્ય ભદ્રંકરસૂરિ आपने "तीर्थ दर्शन" के भाग दो प्रकाशित कर जो समाज की सेवा की है। यह सदा स्मरणीय रहेगी पुस्तकें देखकर अति प्रसन्नता हुई । शेष आनन्द । पालनपुर - दि. 22-9-1982 -आचार्य इन्द्रदिन्नसूरि यह ग्रंथ “घर बैठे गंगा" का कर्तव्य पूर्ण करने वाला सिद्ध होगा । कोयम्बतूर दि. 6-10-1981 -आचार्य विक्रमसूरि तीर्थ दर्शन ग्रंथ का दर्शन करते हुवे हृदय हर्ष से नाच उठा आपकी महेनत की भूरी भूरी अनुमोदना हैं । इन्दोर- दि. 12-10-1981 - आचार्य यशोभद्र विजय, विमलभद्र विजय આગ્રંથ ને જોતાં અનેરો આહલાદ અનુભવાય છે. જાણે સાક્ષાત એ ભવ્ય તીર્થોના દર્શન કરતાં કર્મ -નિર્જરા કરતા હોઈએ. मुम्जा हि. २४-११-१७८१ -આચાર્ય ગુણસાગરસૂરિ तीर्थ दर्शन के लिये जितना लिखे उतना कम ही है आपका श्रम भी सराहनीय है ऐसे और भी प्रकाशन आपके द्वारा अधिक हो ऐसा हमारा आशीर्वाद है । पाटण - दि. - - आचार्य अशोकचन्द्रसूरि 18-5-1983 "तीर्थ-दर्शन" को देखकर और दर्शन करते आत्मा को खूब आनन्द हुआ और प्रतिमा सबका यहाँ बैठे यात्रा हुवे ऐसा भाव प्रगट हुवे आनन्द । भावनगर - दि. 18-10-1983 - आचार्य विजय मोतिप्रभसूरि તમારી સંસ્થાઓ આવું મહાન તીર્થ દર્શન પુસ્તક માહીતી સાભર છપાઈ છે અને એજ કારણે ઘેર બેઠા પણ તીર્થ - દર્શન પુસ્તક હાથમાં હોયતો વાંચવાથી યાત્રા નો લાભ થાય. सभी हि. २८-१०-१९८३ ग्रंथ खोलकर अन्दर के तीर्थ और मूल प्रतिमा का फोटु दर्शन कर भक्ति से भाव सम्यगदर्शन माफक ग्रंथ प्रकाशित करके जैन शासन की शोभा और वृद्धि करो यही भव्य पालीताना दि. 15-11-1983 -આચાર્ય પ્રસન્નચન્દ્રસૂરિ विभोर हो गया- ऐसे और भावना । -आचार्य विजयरामरत्नसूरि घर बैठे हमेशा देवदर्शन का लाभ मिलेगा और उस सबका सम्यग दर्शन की शुद्धि भी होगी और मिथ्यात्वी आत्मा समकित भी प्रायः पावेगा यह मेरा अभिप्राय है। - आचार्य भद्रसेनसूरि दि. 28-11-1983 इसको हाथ में लेने के बाद छोड़ने का ही मन नहीं होता है । सैकड़ो ही नहीं अपितु हजारों भव्यात्मा इस ग्रंथ के अवलोकन मात्र से ही चित में तल्लीनता व मन ऐकाय बनाकर कर्म की निर्जरा कर सकेंगे। મુનિ હેમચન્દ્રસાગર तीर्थ दर्शन में सामान्य में निगूढ़तम वैशिष्ट्य का अनुसंधान किया है। प्रकाशन प्रसारण का भविष्य प्रांजल एवं समुज्वल रहे यही दादा गुरुदेव से प्रार्थना दि. बम्बई - दि. 17-2-1981 - मुनि श्री नयरत्न विजय, जयरत्न विजय આ ગ્રંથ એક જૈન સંઘની અમૂલી દૈન હૈ જોતાંજ મન-મોર નાચી ઉઠે અને એના એક-એક પાના દર્શન - મોહનીય કર્મનો ચૂરો બોલાવી સમ્યગ દર્શનની શુદ્ધિ કરાવી આપે, એવો સમર્થ આં ગ્રંથ કોણ ભલો ન ઈચ્છે. जलात हि. 3१७-१८८१ - - 5-12-1981 - मुनि श्री महिमाप्रभसागर तीर्थ दर्शन भक्ति धारा को प्रवाहित करने की दिशा में धार्मिक साथ ही ऐतिहासिक दृष्टि से एक महत्वपूर्ण एवं अद्भुत उपयोगी साहित्यिक अनुष्ठान है। वीरायतन- राजगृह- दि. 9-6-1983 - उपाध्याय अमरमुनि 15 Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवकार महामंत्र परमेष्ठी नमस्कार सर्व मंगलों में प्रधान, विश्व प्रेम का प्रतीक व सर्व धर्मों का मूल है । इस महामंत्र में विश्व के तमाम अरिहंतादि देवों को नमस्कार किया है । इनके आलम्बन से राग द्वेष एवं मोह का क्षय होकर शुभ भाव प्रकट होते हैं । यह महामंत्र सभी पापों का नाशक है व सभी मंगलों का उत्पादक है । यह मंत्र दुष्कृत का क्षय करता है व पुण्य का संचार करता है । चौदह पूर्वी भी अन्त समय में इस महामंत्र का स्मरण करते हैं । इसीलिये इसको चौदह पूर्व का सार बताया है । श्री पंचपरमेष्ठी नवकार महामंत्र अचिन्त्य महिमा से मंडित है । इस महामंत्र से रोग निवारण मंत्र, लक्ष्मी-प्राप्ति मंत्र सर्वसिद्धिमंत्र अचिन्त्य फलप्रदायक मंत्र, पापभक्षिणी विद्यारूप मंत्र, रक्षा मंत्र, अग्नि निवारक मंत्र, महामृत्युंजय मंत्र, विवेक प्राप्ति मंत्र, सर्वकार्य साधक मंत्र, सर्व शान्ति-दायक मंत्र, व्यन्तर बाधा विनाशक मंत्र, आदि अनेक मंत्रों की उत्पत्ति हुई है, जिसकी कई आराधकों ने आराधना करके विस्तार पूर्वक वर्णन किया है । इसके स्मरण मात्र से शान्ति, तुष्टि व पुष्टि की प्राप्ति होती है । शास्त्रों में भी इस महामंत्र की आराधना को विश्व सुख का अद्वितीय कारण माना है । जैनागमों का प्रथम सूत्र श्री पंचमंगल याने नमस्कार सूत्र है । ऐसे महामंत्र का श्रद्धापूर्वक स्मरण कर देवाधिदेव तीर्थाधिराजों को भावपूर्वक वन्दन करें Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आयरियाणं, णमो उबज्झायाण, णमो लोए सव्वसाहूणं। एसो पंच नमुक्कारो, सव्व पाव प्पणासणो, मंगलाणं च सवेसिं, पढम हवइ मंगलं । Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " ती 'दर्शन" पावन ग्रंथ का उपयोग एवं प्रतिफल इस पावन अंध में सभी तीधाधिराज जिनेश्वर भगवंतों की अंजनशलाका युक्त प्रतिष्ठित प्रतिमाओं के मूल फोटु रहने के कारण यह ग्रंथ शुभ दैविक परमाणुओं की उर्जा से ओतप्रोत है। जिसे हमेशा, र सभय ध्यान में रखते हुए निम्न प्रकार उपयोग में लें। 1.. उस पावन ग्रंथ को जिनेश्वर देवों का स्वरूप ही. समझकर अच्छे से अच्छे उच्च, शुद्ध, साफ क पवित्र स्थान में ही रखें जिससे वहां के परमाणुओं में शुहता व निर्मलता अवश्य रहेगी व शांति की अनुभूति होगी। २. पुति दिन अगर बन सके तो सामाणिक ग्रहण करके कम से कम 48 मिनर दर्शनार्थ उपयोग में हमें जिससे सामायिक लाभ के साथ चिन्न प्रभु में एकाग्र होने के कारण पुन्योपार्जन व निर्जग का लाभ निरंतर मिलता रहेगा) 3. प्रतिदिन कम से कम एक तीर्थ का इतिहष अवश्य पटें व दूसरों को पढ़ने की प्रेरणा देवे जिससे सबको यात्रार्थ जाने की भावना जागृत होगी व वहां जाने से विषेश आनंद की अनुभुति होगी जो पुन्यो पार्जन का साधन होगा। 4. कृष्या झूठे मुंह, गये तयों व चप्पल आदी पहनकर इस पावन वेध का उपयोग न करें और नहीं इसे अवित्र जगह रखें ताकि पाप कर्म आशातना से बच सकें। 5. हमेशा दर्शन स्वाध्याय करने से शन: शनै: देविक परमाणुओं में वृट्टी होथी जो सुख समृद्धि को कारण बनेगा। यह तीर्थ दर्शन ग्रंथ है जिसके माध्यम से हमें घर ? ही मानस यात्रा - भाव यात्रा करने का लाभ प्राप्त होता है। मूर्तिकी तरह चित्र भी शुभ भाव जगाने में कामयाब होने हैं। इस दृष्टि से उस ग्रंथ का उपयोग आत्मा के लिये हितकर रहेगा। परमात्मा के प्रति जो भक्ति भाव हमारे हृदय में प्रदिप्त होंगे वह हमें आत्मिक वसन्ता एवं आतिभक उन्नति की और ले जायेंगे, यह निशिचत बात है। लिभरिकाल 18 Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुमानित श्री अष्टापद तीर्थ (विवरण पृष्ठ 240 पर) 10. Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाग - 1 बिहार 1. क्षत्रियकुण्ड 2. ऋजुबालुका 3. सम्मेतशिखर 4. गुणायाजी 5. पावापुरी 6. कुण्डलपुर 7. राजगृही 8. काकन्दी 9. पाटलीपुत्र 10. वैशाली 11. चम्पापुरी 12. मन्दारगिरि Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ BIHAR & JHARKHAND Dararaj Hardi MUZAFFARPUR Parsa Dighwara Sonpur MUZAFFARPU Turk Bakhra 10 Vaishali Kurhani Daundnagar Lalganj Goraul Toata inganj ia an apur agaul PATNA Raghopur npun Shahkund nbhuganj HAJIPUR Dhatub Doranda 10 Bhagwanpur Patepur VAISHALI Kun Bazid Mahuwa Jandah HAGALPUR Banka Mandar Hill12 Bausi 21 Vilnia Dhanwar Barari Sabaur Akbarnagar BHAGALPUR 11 Ghog Jagdishpur Sonahula Barki Saria ar Birni Kowar Boch Silaut Desri Bidupur Ba Amarpur Rajaun Mahag Dhuraiya Patha Barahat Chirki Dumn Nimiaghat Kharagdiha Manakdiha GIRIDIH Srirampur Parasnath Gopalpur Pi DI Jamua GIRIDIH Bengabad Pirtanr Ba Ma Maheshmunda o GO 32 GO Ka Gande Palganjo Topchanchi Ralabbited Tundi UTTAR PRADESH SASARAM MADHYA PRADESH Sonpur Nadaul Kako Ghosi ulasganj arabar Faves akand bur BETTIAH DALTONGANJ GOPALGANJ SIWAN Mohana ARA AURANGABAD ORISSA Desti pur Bidupur gaul PATNA Raghopur pun Phatuha Wazirgani CHHAPRA ●MOTIHARI ●SITMARHI Khizr Sarai Atri PATNA NEPAL ATNA Bakhtiyarpu Bar Daniawah GAYA MUZAFFARPUR HAJIPUR Silao Rajgir 7 100 Harnaut Hilsa Chandi JAIN PILGRIM CENTRES • RANCHI BIHARSHARIF NAWADA HAZARIBAGH SAMASTIPUR DARBHANGA MADHUBHANI CHAIBASA Giriak BEGUSARA GIRIDIH Pawapuri/ Kalyanpur Mahnar JAIN PILGRIM CENTRES STATE CAPITAL DISTRICT HEADQUARTERS DISTRICT BOUNDARIES SAHARSA MUNGER DHANBAD NALANDA 6 Sarmerar Ekangar Sarai Asthanwan BIHAR SHARIF 5 Nalanda Islampur WEST BENGAL Dalsingh Sarai Cheria Bariarpu Bazidpur Bachwara Bakhri Mohiuddinnagar Teghra Majhaul Barauni Barh Amalgola BEGUSARAI BEGUSARAI Matihani Ganga Mokama Bar Bigha Shaikhpura PURINA KATIHAR DUMKA Barhiya Kiuf Sahibpu Luckeesarai MUN Bh •Ariari Waris Aliganj La /Halsi Pakri Barawan Darkha Sikandra Mate Worhanpurd Baghi Bardiha Qadirgan NAWADA NAWADA Gobindpur Jamui Nardigani Hisua Khaira re Kauakol Korwatan Chewara Suraj 21 Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री क्षत्रियकुण्ड तीर्थ तीर्थाधिराज * श्री महावीर भगवान, पद्मासनस्थ, श्यामवर्ण, लगभग 60 सें. मी. (श्वे. मन्दिर) । तीर्थ स्थल * क्षत्रियकण्ड की तलेटी कण्डघाट से लगभग 5 कि. मी. दूर वनयुक्त पहाड़ी पर । प्राचीनता * इस तीर्थ का इतिहास चरम तीर्थकर भगवान श्री महावीर के पूर्व से प्रारम्भ होता हैं। भगवान महावीर के पिता ज्ञात वंशीय राजा सिद्धार्थ थे। यह क्षत्रियकुण्ड उनकी राजधानी थी । राजा सिद्धार्थ की शादी वैशाली गणतन्त्र के गणाधीस राजा चेटक की बहिन त्रिशला से हुई थी । (दिगम्बर मान्यतानुसार त्रिशला को राजा चेटक की पुत्री बताया जाता है) राजा चेटक श्री पार्श्वनाथ भगवान के अनुयायी थे । राजा चेटक की यह प्रतिज्ञा थी कि उनकी पुत्रियों का विवाह भी जैनी राजाओं से ही किया जायेगा । कितनी धर्म श्रद्धा थी उनमें । राजा सिद्धार्थ अति ही शांत, धर्म प्रेमी व जन-प्रिय राजा थे । क्षत्रियकुण्ड के निकट ही ब्राह्मणकुण्ड नाम का शहर था । वहाँ ऋषभदत्त नाम का ब्राह्मण रहता था । उनकी धर्म पत्नी का नाम देवानन्दा था । आषाढ़ शुक्ला छठ के दिन उतराषाढ़ा नक्षत्र में माता देवानन्दा ने महा स्वप्न देखे । उसी क्षण प्रभु का जीव अपने पूर्व के 26 भव पूर्ण करके माता की कुक्षी में प्रविष्ट हुआ । स्वप्नों का फल समझकर माता-पिता को अत्यन्त हर्ष हुआ । गर्भकाल में उनके घर में धन-धान्य की वृद्धि हुई ।। परन्तु जैन मतानुसार तीर्थकर पद प्राप्त करने वाली महान आत्माओं के लिये क्षत्रियकुल में जन्म लेना आवश्यक समझा जाता है । परन्तु मरीचि के भव में किये कुलाभिमान के कारण उन्हें देवानन्दा की कुक्षी में जाना पड़ा,-ऐसी मान्यता है । श्री सौधर्मेन्द्र देव ने देवानन्दा माता के गर्भ को क्षत्रिय-कुल के ज्ञात वंशीय राजा सिद्धार्थ की रानी त्रिशला की कुक्षी में स्थानान्तर करने का हरिण्यगमेषी देव को आदेश दिया । इन्द्र के आज्ञानुसार देव ने सविनय भक्ति भाव पूर्वक आश्विन कृष्ण तेरस के शुभ दिन उतराषाढ़ा नक्षत्र में गर्भ का स्थानांतर किया, उसी क्षण विदेही पुत्री माता श्री त्रिशला ने तीर्थकर जन्म सूचक महा-स्वप्न देखे । इस प्रकार भगवान का जीव माता त्रिशला की कुक्षी में प्रवेश भगवान महावीर जन्म स्थान मन्दिर का बाह्य दृश्य- क्षत्रियकुण्ड Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 대전고리 고고고고 महरानी चरम तीर्थंकर श्री महावीर भगवान क्षत्रियकुण्ड ㄗㄗ 23 Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हुआ । (दि.मान्यतानुसार गर्भ का स्थानान्तर नहीं हुआ ही झटके से अलग कर दिया । वही देव बालक बनकर माना जाता है) गर्भ काल के दिन पूर्ण होने पर माता इनके खेल क्रीड़ा में शामिल हुआ हारने पर उसे घोड़ा त्रिशला ने वि. सं. के 543 वर्ष पूर्व चैत्र शुक्ला बनना पड़ा । उसपर ज्यों ही प्रभु असवार हुए कि त्रयोदशी को अर्द्ध रात्री के समय सिंह लक्षण वाले पुत्र विराट व भयानक रूप करके वायुवेग से दौड़ने को जन्म दिया । इन्द्रादि देवों ने प्रभु को मेरू पर्वत लगा । प्रभु का मुष्टि प्रहार होते ही वह शान्त हो पर ले जाकर जन्माभिषेक महोत्सव अति ही आनन्द गया। देवने विनयपूर्वक वन्दन करते हुए प्रभु को वीर व उल्लास पूर्वक मनाया । राज दरबार में भी बधाइयाँ नाम से संबोधित किया इस कारण प्रभु महावीर भी बंटने लगी । कैदियों को रिहा किया गया । जन कहलाए । प्रभु निडर व वीर तो थे ही विद्या में भी साधारण में खुशी की लहर लहराने लगी । प्रभु का निपुण व ज्ञानवान थे । जिसका वर्णन देव द्वारा माता त्रिशला की गर्भ में प्रविष्ट होने के पश्चात् समस्त पाठशाला में उनके उपाध्याय के सन्मुख पूछे गये प्रश्नों क्षत्रियकुण्ड राज्य में धन-धान्यादि की वृद्धि होकर चारों आदि में मिलता है । तरफ राज्य में सुख शान्ति बढ़ी जिस कारण जन्म से प्रभु की इच्छा शादी करने की न होने पर भी उनके बारहवें दिन प्रभु का नाम वर्द्धमान रखा । (दि. माता-पिता की प्रसन्नता के लिये राजा समरवीर की मान्यतानुसार प्रभु का जन्म वैशाली के अन्तर्गत पुत्री श्री यशोदा देवी के साथ उनका विवाह सम्पन्न वासुकुण्ड में या नालन्दा के निकट कुण्डलपुर में हुआ। हुआ । (दि. मान्यता में शादी नहीं हुई मानी जाती है) बताया जाता है । श्री यशोदा देवी की कुक्षी से प्रियदर्शना नाम की कन्या श्री वर्द्धमान बचपन से ही वीर व निडर थे । एक का जन्म हुआ, जिसका विवाह श्री जमाली नामक बार प्रभु अपने मित्रों के साथ आमलकी क्रीड़ा कर रहे राजकुमार के साथ हुआ । जमाली प्रभु की बहिन थे । तब एक देव सर्प का रूप धारण कर झाड़ से सुदर्शना के पुत्र थे । प्रभु 28 वर्ष के हुए तब लिपट गया । प्रभु ने निडरता से सर्प को पकड़कर एक उनके माता-पिता का देहान्त हुआ एवं प्रभु के भ्राता लछवाड मन्दिर का दृश्य - क्षत्रियकुण्ड Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री महावीर भगवान-लछवाड़ श्री नन्दीवर्धन ने राज्य भार संभाला । प्रभु का दिल ___सबुद्धिराजजी, हेमतिलकगणी, पुण्य कीर्तिगणी आदि श्री संसारिक कार्यों में नहीं लग रहा था जिससे वे हर बड़गाँव (नालन्दा) में विचरे थे तब वहाँ के ठाकुर वक्त व्याकुल रहते थे । भ्राता नन्दीवर्धन से बार-बार आग्रह करने पर उन्होंने दीक्षा के लिये अनुमति प्रदान रत्नपाल आदि श्रावकों ने सपरिवार क्षत्रियकुण्ड ग्राम की । प्रभु ने राज्य सुख त्यागकर प्रसन्नचित्त वर्षीदान आदि तीर्थ स्थानों की यात्रा की थी जिसका वर्णन देते हुए “ज्ञात खण्ड” उपवन में जाकर वस्त्राभूषण प्रधानाचार्य गुर्वावली में आता है । त्याग करके पंच-मुष्टि लोचकर वि. सं. के 513 वर्ष पन्द्रहवीं शताब्दी में आचार्य श्री लोकहिताचार्यसूरिजी पूर्व मार्गशीर्ष कृष्णा दशमी के शुभ दिन अति कठोर क्षत्रियकुण्ड आदि की यात्रार्थ पधारने का उल्लेख दीक्षा अंगीकार की । उसी वक्त प्रभु को मनः पर्यव श्री जिनोदयसूरिजी प्रेषित विज्ञप्ति महालेख में मिलता ज्ञान उत्पन्न हुआ । उस समय प्रभु की उम्र 30 वर्ष की है। सं. 1467 में श्री जिनवर्धनसूरिजी द्वारा रचित थी । जब प्रभु ने वस्त्राभुषणों का त्याग किया तब इन्द्र ने देवदुश्य अपर्ण किया । इस प्रकार प्रभु के तीन पूर्वदश चैत्य परिपाटी में क्षत्रियकुण्ड का वर्णन है । कल्याणक इस पावन भूमि में हुए । दीक्षा के पश्चात् सोलहवीं सदी में विद्वान श्री जयसागरोपाध्यायजी द्वारा प्रभु को अनेकों उपसर्ग सहने पड़े । प्रभु ने निडरता, यहाँ की यात्रा करने का वर्णन दशवेकालिकवृति में धर्मवीरता, सहनशीलता, मानवता, निर्भयता व दयालुता मिलता है । मुनि जिनप्रभसूरिजी ने भी अपनी तीर्थ दिखाकर विश्व में मानव धर्म के लिये एक नई ताजगी माला में क्षत्रियकुण्ड का वर्णन किया है । कवि प्रदान की । हंससोमविजयजी द्वारा सं. 1565 में रचित तीर्थमाला कल्प-सूत्र में भी प्रभुवीर की जन्म-भूमि क्षत्रियकुण्ड में भी इसका वर्णन है- अठारहवीं सदी में श्री का वर्णन विस्तार पूर्वक किया गया है । सं. 1352 शीलविजयजी ने इस तीर्थ की बड़े ही सुन्दर ढंग से में श्री जिनचन्द्रसूरिजी के उपदेश से वाचक राजशेखरजी, Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्या की है । सं. 1750 में सौभाग्यविजयजी ने भी अपनी तीर्थ माला में यहाँ का वर्णन किया है। इस प्रकार यहाँ का वर्णन जगह-जगह पाया जाता है। वर्तमान में पहाड़ी पर यही एक मन्दिर है जिसे जन्मस्थान कहते हैं । निकट ही अनेकों प्राचीन खण्डहर पड़े हैं जो कुमारग्राम, माहणकुण्डग्राम, ब्राह्मणकुण्डग्राम, मोराक आदि प्राचीन स्थलों की याद दिलाते हैं । तलहटी में दो मन्दिर हैं, जिन्हें च्यवन व दीक्षा कल्याणक स्थलों के नाम से संबोधित किया जाता है। विशिष्टता * इस पवित्र भूमि में वर्तमान चौबीसी के चरम तीर्थंकर श्री महावीर भगवान के च्यवन जन्म व दीक्षा आदि तीन कल्याणक होने के कारण यहाँ की महान विशेषता है । प्रभु ने अपने जीवनकाल के तीस वर्ष इस पवित्र भूमि में व्यतीत किये । अतः इस स्थान की महत्ता का किन शब्दों में वर्णन किया जाय । यहाँ के जन्म स्थान का मन्दिर ही नहीं अपितु इस पवित्र भूमि का कण-कण पवित्र व वन्दनीय है । आज भी यहाँ का शान्त व शीतल वातावरण मानव के हृदय में भक्ति का स्रोत बहाता है । यहाँ पहुँचते ही मनुष्य सारी सांसारिक व व्यवहारिक वातावरण भूलकर प्रभु भक्ति में लीन हो जाता है । इसी पवित्र भूमि में प्रभु की, आत्म कल्याण व विश्व कल्याण की भावना प्रबलता से उत्तेजित हुई थी । कहा जाता है उस समय जगह-जगह यवनों आदि का जोर वढ़ता आ रहा था । धर्म के नाम पर निर्दोषी जीवों की बलि दी जाती थी। नारी को दासी के स्वरूप माना जाता था । दास-दासियों की प्रथा का जोर बढ़ता आ रहा था, निर्बल नर-नारियों को दास-दासियों के तौर पर आम बाजार में बेचा जा रहा था । जिनके पास ज्यादा दास-दासियाँ रहती थीं उन्हे पुण्यशाली समझा जाता था । प्रभु ने आत्म कल्याण एवं विश्व कल्याण के लिये उत्तेजित हुई भावना को साकार रूप देने का निश्चय करके राजसुख को त्यागा व दीक्षा लेकर आत्मध्यान में लीन हो गये । अनेकों प्रकार के अति कठिन उपसर्ग सहन करके प्रभु ने केवलज्ञान प्राप्त किया । प्रभु ने अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, व अपरिग्रह को महान धर्म ही नहीं परन्तु मानव धर्म बताया जिनके अनुकरण मात्र से ही आत्मा को शांति मिल सकती है । आज के युग में भी मानव समाज इन तत्वों के अनुसरण की आवश्यकता महसूस कर रहा है । प्रभु ने नारी को भी धर्म प्रचार करने का अधिकार दिया । प्रभु ने जाति भेद का तिरस्कार किया व विश्व के हर जीव-जन्तु के प्रति करुणा का उपदेश दिया । यह सब श्रेय इसी पवित्र भूमि को है जहाँ हमारे देवाधिदेव प्रभु का जन्म हुआ व उनकी असीम कृपा के कारण आज जैन धर्म विश्व का एक महान धर्म बना हुआ है व उसके सिद्धान्तों के अनुकरण की विश्व आज भी आवश्यकता महसूस कर रहा है । भगवान महावीर की वाणी आज भी हर मानव, पशु, पक्षी आदि के लिये कल्याणकारी है व हमेशा के लिये कल्याणकारी रहेगी । अन्य मन्दिर * वर्तमान में क्षत्रियकुण्ड पहाड़ पर यही एक मन्दिर है । यहाँ की तलहटी कुण्डघाट में दो छोटे मन्दिर हैं जहाँ वीर प्रभु की प्रतिमाएँ विराजित हैं । इन स्थानों को च्यवन व दिक्षा कल्याणक स्थानों के नाम से संबोधित किया जाता है । लछवाड़ में एक मन्दिर हैं । ये सारे श्वेताम्बर मन्दिर हैं । कला और सौन्दर्य के यहाँ प्रभु वीर की प्राचीन प्रसन्नचित्त प्रतिमा अति ही कलात्मक व दर्शनीय है । प्रतिमा के दर्शन मात्र से मानव की आत्मा प्रफुल्लित हो उठती है । तलहटी से 5 कि. मी. पहाड़ पर का प्राकृतिक दृश्य अति ही मनोरंजक हैं । * नजदीक के रेल्वे स्टेशन लखीसराय, जमुई व कियुल ये तीनों लछवाड़ से लगभग 30-30 कि. मी. है । इन स्थानों से बस व टेक्सी की सुविधा है । सिकन्दरा से लछवाड़ लगभग 10 कि. मी. है, यहाँ पर भी बस व टेक्सी की सुविधा है । लछवाड़ से तलहटी (कुण्डघाट) 5 कि. मी. व तलहटी से क्षत्रियकुण्ड 5 कि. मी. है । लछवाड़ में धर्मशाला Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है, जहाँ तक पक्की सड़क है । आगे तलहटी तक भी सड़क है, कार व बस जा सकती है । तलहटी से 5 कि. मी. पहाड़ की चढ़ाई पैदल पार करनी पड़ती है । लछवाड़ से बस स्टेण्ड आधा कि. मी. हैं। सुविधाएँ * ठहरने के लिये लछवाड़ में बड़ी धर्मशाला है, जहाँ बिजली, पानी, जनरेटर, ओढ़ने-बिछाने के वस्त्र व भोजनशाला की सुविधा हैं । पहाड़ पर पानी की पूर्ण सुविधा है । पेढ़ी * श्री जैन श्वेताम्बर सोसायटी, पोस्ट : लछवाड़ - 811 315 जिला : जमुई, प्रान्त : बिहार, फोन : 06345-22361. प्रभु महावीर जन्म स्थान मन्दिर - क्षत्रियकुण्ड Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री ऋजुवालुका तीर्थाधिराज * श्री महावीर भगवान, चतुर्मुख चरण पादुकाएँ, श्वेत वर्ण, लगभग 15 सें. मी. । ( श्वे. मन्दिर ) । तीर्थ स्थल बराकर गाँव के पास बराकर नदी के तट पर । प्राचीनता आज की बराकर नदी को प्राचीन काल में ऋजुबालुका नदी कहते थे । श्वेताम्बर शास्त्रानुसार भगवान महावीर ने जंभीय गाँव के बाहर व्यावृत चैत्य के निकट ऋऋजुबालुका नदी के तट पर श्यामक किशान के खेत में शालवृक्ष के नीचे वैशाख शुक्ला 10 के दिन पिछली पोरसी के समय विजय मुहूर्त में केवलज्ञान प्राप्त किया। तत्काल इन्द्रादिदेवों ने समवसरण की रचना की । विरीत ग्रहणादि लाभ का अभाव जानते हुवे भी प्रभु ने कल्प आचार के पालन हेतु क्षणचर धर्मोपदेशना दी । यह प्रथम देशना निष्फल गई, जिसे आश्चर्यक (अछेरा) माना गया है। 28 आज जनक नाम का गाँव यहाँ से 4 कि. मी. है। वहाँ शाल वृक्षों युक्त घना जंगल भी है। जनक गाँव का असल नाम जंभीय गाँव भी कहा जाता है एक मतानुसार राजगृही से 56 कि. मी. की दूरी पर वर्तमान जमुई गाँव है वही जंभीय है व उसके पास की क्वील नदी ही ऋजुबालुका है । लेकिन अभी तक कोई प्रमाणिकता नहीं मिलती है। वि. की सोलहवीं सदी में पं. श्री हंससोमविजयजी, सत्रहवीं सदी में श्री विजयसागरविजयजी व श्री जय विजयजी, अठारहवीं सदी में श्री सौभाग्यविजयजी ने अपनी तीर्थ मालाओं में यहाँ का वर्णन किया है । इन तीर्थ मालाओं में गाँव के नाम आदि के नामों में कोई मतभेद नहीं है। सिर्फ दूरी एक-एक तीर्थ माला में अलग-अलग बताई है । सम्भवतः समय-समय पर पगडंडी या सड़क का रास्ता बदले जाने से दूरी में कुछ फर्क हुआ हो अतः इसी स्थान पर, जहाँ सदियों से मानते आ रहे हैं, भगवान को केवलज्ञान हुआ मानना ही उचित है । श्री महावीर भगवान केवलज्ञान स्थल ऋजुबालुका Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यहाँ का अन्तिम जीर्णोद्धार वि. सं. 1930 में होने का उल्लेख शिलालेखों में उत्कीर्ण है । विशिष्टता * चरम तीर्थंकर श्री महावीर भगवान के बारह वर्ष की घोर तपश्चर्या के कारण व केवलज्ञान प्राप्ति के कारण यहाँ के परमाणु अत्यन्त पवित्र बन चुके है । जिस स्थान पर भगवान की 12 वर्ष घोर तपश्चर्या होकर केवलज्ञान हुआ उस जगह की महानता अवर्णनीय है । अन्य मन्दिर * वर्तमान में इसके अतिरिक्त अन्य कोई मन्दिर नहीं है । कला और सौन्दर्य * नदी तट पर स्थित मन्दिर का दृश्य अतीव रोचक है । मन्दिर की निर्माण शैली भी अति सुन्दर है । इसी नदी में भगवान महावीर की एक प्राचीन प्रतिमा प्राप्त हुई थी, जिसकी कला अति सुन्दर है जो मन्दिर में विराजमान हैं । मार्ग दर्शन * नजदीक का रेल्वे स्टेशन गिरडिह 12 कि. मी. है । यह स्थल गिरडिह-मधुबन (सम्मेतशिखर) मार्ग पर स्थित है । गिरडिह से बस व टेक्सी की सुविधा है । मधुबन से यहाँ की दूरी 18 कि. मी. है। मन्दिर तक बस व कार जा सकती है । सुविधाएँ * ठहरने के लिये धर्मशाला है जहाँ पानी, बिजली का साधन है । पेढ़ी * श्री जैन श्वेताम्बर सोसायटी, बराकर पोस्ट : बन्दरकुपी - 825 108. जिला : गिरडिह, प्रान्त : बिहार, फोन : 08736-24351. TAM श्री महावीर भगवान चरण पादुकाएँ - ऋजुबालुका 29 Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सं. 1670 में आगरा निवासी ओशवाल श्रेष्ठी श्री सम्मेतशिखर तीर्थ श्री कुंवरपाल व सोनपाल लोढ़ा संघ सहित यहाँ यात्रार्थ आये जब जिनालयों का उद्वार करवाने का उल्लेख श्री तीर्थाधिराज * श्री शामलिया पार्श्वनाथ भगवान, जयकीर्तिजी ने “सम्मेतशिखर रास" में किया है । श्याम वर्ण, पद्मासनस्थ, लगभग 90 सें. मी., जल आज तक अनेकों आचार्य मुनिगण व श्रावक, श्राविकाएँ मन्दिर (श्वेताम्बर मन्दिर) । एवं संघ यहाँ यात्रार्थ पधारे हैं । तीर्थ स्थल * मधुबन के पास समुद्र की सतह से मुनिवरों ने सम्मेतशिखर तीर्थमाला, जैन तीर्थमाला, 4479 फुट ऊँचे सम्मेतशिखर पहाड़ पर, जिसे पार्श्वनाथ पूर्व देश तीर्थमाला, आदि अनेकों साहित्यों का सर्जन हिल भी कहते हैं । किया है जो आज भी गत सदियों की याद दिलाते है । प्राचीनता * यह सर्वोपरि तीर्थ सम्मैतशैल, सम्मैताचल, वि. सं. 1649 में बादशाह अकबर ने जगद्गुरु सम्मेतगिरि, सम्मेतशिखर, समाधिगिरि व समिधीगिरी आचार्य श्री हीरविजयसूरिजी को श्री सम्मेतशिखर क्षेत्र आदि नामों से भी संबोधित किया जाता है । वर्तमान भेंट देकर विज्ञप्ति जाहिर की थी । कहा जाता है कि में यह क्षेत्र सम्मेतशिखर व पारसनाथ पहाड़ के नाम उक्त फरमान पत्र की मूल प्रति अहमदाबाद में श्वेताम्बर से जाना जाता है । वर्तमान चौबीसी के बीस तीर्थंकर जैन श्री संघ की प्रतिनिधि संस्था सेठ आणन्दजी इस पावन भूमि में तपश्चर्या करते हुए अनेक कल्याणजी की पेढ़ी में सुरक्षित है । मनियों के साथ मोक्ष सिधारे हैं । पूर्व चौबीसियों के वि. सं. 1747 से 1763 के दरमियान श्री कई तीर्थंकर भी इस पावन भूमि से मोक्ष सिधारे सभाध्यविजयजी, पं. जयविजयसागरजी, हंससोमविजयगणिवर्य, हैं - ऐसी अनुश्रुति है । विजयसागरजी आदि मुनिवरों ने तीर्थमालाएँ रची हैं ___ यह परम्परागत मान्यता है कि तीर्थंकरों के निर्वाण जिनमें भी इस तीर्थ का विस्तार पूर्वक वर्णन स्थलों पर सौधर्मेन्द्र ने प्रतिमाएं स्थापित की थी । किया है । बीच के कई काल तक के इतिहास का पता नहीं । सं. 1770 तक पहाड़ पर जाने के तीन रास्ते थे। लगभग दूसरी शताब्दी में विद्यासिद्ध आचार्य श्री पश्चिम से आनेवाले यात्री पटना, नवादा व खडगदिहा पादलिप्तसूरिजी आकाशगामिनी विद्या द्वारा यहाँ यात्रार्थ होकर एवं दक्षिण-पूर्व तरफ से आने वाले मानपुर, आया करते थे-ऐसा उल्लेख है । उसी भांति प्रभावक जैपुर, नवागढ़, पालगंज होकर व तीसरा मधुबन होकर आचार्य श्री बप्पभट्टसूरिजी भी अपनी आकाशगामिनी आते थे । पं. जयविजयजी ने सत्रहवीं सदी में व पं. विद्या द्वारा यात्रार्थ आते थे । विक्रम की नवमी शताब्दी विजयसागरजी ने अठारहवीं सदी में अपने यात्रा में आचार्य श्री प्रद्युम्नसूरिजी सात बार यहाँ यात्रार्थ विवरण में कहा है कि यहाँ के लोग लंगोटी लगाते हैं । आये व उपदेश देकर जीर्णो द्वार का कार्य सिर पर कोई वस्त्र नहीं रखते । सिर में गुच्छेदार बाल करवाया था । है । स्त्रियाँ कद रूपी भयभीत लगती हैं । उनके सिर तेरहवीं सदी में आचार्य देवेन्द्रसूरिजी द्वारा रचित पर वस्त्र रखने व अंग पर कांचलियाँ पहिनने की प्रथा वन्दारुवृति में यहाँ के जिनालयों व प्रतिमाओं का नहीं है । कांचली नाम से गाली समझती हैं । किसी उल्लेख है । कुंभारियाजी तीर्थ में स्थित एक शिलालेख स्त्री को सिर ढंके व कांचली पहिने देखने से उनको में श्री शरणदेव के पुत्र वीरचन्द द्वारा अपने भाई, पुत्र आश्चर्य होता है । भील लोग धनुष बाण लिये घूमते प पौत्रों आदि परिवार के साथ आचार्य श्री परमानन्दसूरिजी हैं । जंगल में फल, फूल विभिन्न प्रकार की के हाथों सं. 1345 में यहाँ प्रतिष्ठा करवाने का औषधियाँ, जंगली जानवर व पानी के झरने हैं। उल्लेख हैं। कुछ तीर्थ मालाओं में बताया है कि झरिया गाँव में चम्पानगरी के निकटवर्ती अकबरपुर गाँव के महाराजा रधुनाथसिंह राजा राज्य करता है । उनका दीवान मानसिंहजी के मंत्री श्री नानू द्वारा यहाँ मन्दिरों के सोमदास है । जो भी यात्री यात्रार्थ आता है उससे निर्माण करवाने का उल्लेख सं. 1659 में भट्टारक आठ आना कर लिया जाता है । एक और वर्णन है ज्ञानकीर्तिजी द्वारा रचित "यशोधर चरित" में है । कि कतरास के राजा श्री कृष्णसिंह भी कर लेते हैं । 13 30 Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री पार्श्वनाथ भगवान - जल मन्दिर - सम्मेतशिखर 31 Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रघुनाथपुर गाँव से 4 मील जाने पर पहाड़ का चढ़ाव आता है । यह भी कहा जाता है कि पालगंज यहाँ की तलेटी थी । यात्रीगणों को प्रथम पालगंज जाकर वहाँ के राजा से मिलना पड़ता था । राजा के सिपाही यात्रियों के साथ रहकर दर्शन करवाते थे। उस काल में पहाड़ पर क्या स्थिति थी उसका कोई खुला वर्णन नहीं मिल रहा हैं । __ वि. सं. 1805 में मुर्शिदाबाद के सेठ महताबरायजी को दिल्ली के बादशाह अहमदशाह द्वारा उनके कार्य से प्रसन्न होकर जगतसेठ की उपाधि से विभूषित करने व सं. 1809 में मधुबन कोठी, जयपार नाला, जलहरी कुण्ड, पारसनाथ तलहटी का 301 बीघा, 'पारसनाथ पहाड़' उन्हें उपहार देने का उल्लेख हैं । वि. सं. 1812 में बादशाह अबुअलीखान बहादुर ने पालगंज-पारसनाथ पहाड़ को करमुक्त घोषित किया था । उल्लेखानुसार पता लगता है कि जगतसेठ की प्रबल इच्छा थी कि, सम्मेतशिखर महातीर्थ के मन्दिरों का जीर्णोद्वार हो । उसी काल में तपागच्छीय पं. श्री देवविजयगणि यात्रार्थ पधारे व जगतसेठ ने महातीर्थ के उद्धार का संकल्प लिया व अपने सातों पुत्र व परिवार जनों को बुलाकर जीर्णोद्वार करवाने का निर्णय लिया गया । कार्य भार अपने चौथे पुत्र श्री सुगालचन्द व जैसलमेर गद्दी के मुनीम श्री मूलचन्दजी को संभलाया। उस बीच जगत्सेठ श्री महताबरायजी का देहान्त हो गया । वि. सं. 1822 में बादशाह आलम ने उनके ज्येष्ठ पुत्र श्री खुशालचन्द को जगत्सेठ की उपाधि से विभूषित किया । सम्मेतशिखर के उद्वार का कार्य पूर्ववत चल रहा था । खुशालचन्द सेठ का प्रयास था कि 20 तीर्थंकरों के निर्वाण स्थानों की प्रमाणिकता प्राप्त कर उन स्थानों पर चिन्हिकाएँ बनवाई जाएँ । इस इच्छा से वशीभूत जगतसेठ यदा-कदा हाथी पर बैठकर मुर्शिदाबाद से यहाँ आते रहते थे, परन्तु स्थलों का कोई निर्णय नहीं वनयुक्त पहाड़ों के बीच जलमन्दिर का एक अपूर्व दृश्य - सम्मेतशिखर Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अजितनाथ भगवान निर्वाण स्थल ट्रॅक - सम्मेतशिखर हो सका । इससे पता चलता है कि पुराने मन्दिरों या ट्रॅकों के चिह्व काल की गति से स्थानांतरित हो गये होंगे या मिट चुके होंगे । __पं. देवविजयजी की प्रेरणा से जगत्सेठ ने अठ्ठमतप करके पद्मावती देवी की उपासना की । देवी ने स्वप्न में प्रत्यक्ष होकर कहा कि पहाड़ के ऊपर जहाँ-जहाँ केशर के स्वस्तिक चिह्न बने वे ही मूल स्थान माने जाएँ व स्वस्तिक सख्यानुसार तीर्थंकरों के निर्वाण स्थान समझकर चौतरे, स्तूप व चरण-पादुकाओं का निर्माण हों । उसी प्रकार दैविक शक्ति से 20 निर्वाण स्थान निश्चित हुए, जहाँ पर चबूतरे बनवाये गये व देरियाँ बनाकर स्तूप व चरणपादुकाएँ वि. सं. 1825 माघ शुक्ला वसंत पंचमी के शुभ दिन तपागच्छीय भट्टारक आचार्य श्री धर्मसूरिजी वरदहस्ते प्रतिष्ठित करवाये जाने का उल्लेख है । वर्तमान में स्थित चरण पादुकाओं पर वि. सं. 1825 माघ शुक्ला तृतीया विराणी गोत्र श्री खुशालचन्द नाम अंकित है । शायद जगत्सेठ की लग्न शीलता से जीर्णोद्धार सम्पन्न होकर श्री खुशालचन्दजी वीराणी के हस्ते प्रतिष्ठा हुई हो या जगतसेठ स्वयं विरांणी गौत्र के हों । माघ शुक्ला तृतीया को अंजनशलाका होकर माघ शुक्ला पंचमी को प्रतिष्ठा हुई हो । __इसी समय पहाड़ पर जलमन्दिर, मधुबन में सात मन्दिर, धर्मशाला व पहाड़ के क्षेत्रपाल श्री भोमियाजी का मन्दिर आदि बनवाये गये । इन मन्दिरों की भी इसी मुहूर्त में प्रतिष्ठा सम्पन्न होने का उल्लेख है । मन्दिर आदि का प्रबन्ध कार्यभार श्री श्वेताम्बर जैन संघ को सौंपा गया । इस प्रकार भाग्यवान जगत्सेठ श्री महताबचन्दजी की भावना सफल हुई । जगत्सेठ द्वारा किया गया यह महान कार्य जैन शासन में सदा अमर रहेगा । इस तीर्थ का यह इक्कीसवाँ जीर्णोद्धार माना जाता है । तदुपरान्त अनेक जैन संघ यात्रार्थ आने लगे । पहाड़ की चोटियों पर स्थित स्तूप, चबूतरे, चिन्हिकाएँ मुक्त आकाश के नीचे आच्छादनहीन होने से भयंकर आँधी, वर्षा, गर्मी, सर्दी व बन्दरों के शरारती कार्यों के कारण पुनः उद्धार की आवश्यकता हुई । अतः वि. सं. 1925 से 1933 के दरमियान उद्धार करवाकर विजयगच्छ के जिनशान्तिसागरसूरिजी, खरतरगच्छ के जिनहंससूरिजी व श्री जिनचन्द्रसूरिजी के हस्ते पुनः प्रतिष्ठा करवाई । श्री सम्भवनाथ भगवान निर्वाण स्थल ट्रॅक - सम्मेतशिखर Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अभिनन्दन भगवान निर्वाण स्थल ट्रॅक - सम्मेतशिखर यह बाईसवाँ उद्धार माना गया । इस उद्धार के समय भगवान आदिनाथ, श्री वासुपूज्य भगवान, श्री नेमीनाथ भगवान, श्री महावीर भगवान तथा शाश्वत जिनेश्वरदेव श्री ऋषभानन, चन्द्रानन, वारिषेण व वर्धमानन की नई देरियों का निर्माण हुआ। मधुबन में भी कुछ नये जिनालय बने । यह पहाड़ जगत्सेठ को भेंट स्वरूप मिला हुआ होने पर भी जगत्सेठ द्वारा दुर्लक्ष्य हो जाने से पालगंज राजाको दे दिया गया था । ई. सं. 1905-1910 के दरमियान पालगंज राजा को धन की आवश्यकता पड़ी । राजा ने पहाड़ बिक्री करने या रहन रखने का सोचा उसपर कलकत्ता के रायबहादुर सेठ श्री बद्रीदासजी जौहरी मुकीम एवं मुर्शीदाबाद निवासी महाराज बहादुरसिंहजी दुगड़ ने राजा की यह मनोभावना जानकर अहमदाबाद के सेठ आणन्दजी कल्याणजी पेढ़ी को यह पहाड़ खरीदने के लिये प्रेरणा दी व सक्रिय सहयोग देने का आश्वासन दिया । श्री आणन्दजी कल्याणजी पेढ़ी ने खरीदने की व्यवस्था करके प्राचीन फरमान आदि देखे सब अनुकूल पाने पर दिनांक 9-3-1918 को रुपये दो लाख बयालीस हजार राजा को देकर यह पारसनाथ पहाड़ खरीदा गया । जिससे पहाड़ पुनः जैन श्वेताम्बर संघ के अधीन आया । इस कार्य में इन महानुभावों का सहयोग सराहनीय है । उनकी प्रेरणा व सहयोग से ही यह कार्य सम्पन्न हो सका । _ वि. सं. 1980 में आगमोद्धारक पूज्य आचार्य श्री सागरानन्दसूरिजी यहाँ यात्रार्थ पधारे । तब उनकी इच्छा पुनः जीर्णोद्धार करवाने की हुई । उनके समुदाय की विदुषी बालब्रह्मचारिणी साध्वीजी श्री सुरप्रभाश्रीजी के प्रयास से वि. सं. 2012 में जीर्णोद्धार का कार्य प्रारम्भ होकर सं. 2017 में पूर्ण हुआ । यह तेईसवाँ उद्धार था । विशिष्टता * भूतकाल की चौबीसियों में भी अनेक तीर्थंकरों ने यहाँ पर मोक्षपद पाया-ऐसी अनुश्रुति है । वर्तमान चौबीसी के 20 तीर्थंकर यहाँ पर से मोक्ष सिधारे हैं । अन्य चार तीर्थंकरों में श्री आदिनाथ भगवान अष्टापद से, श्री वासुपूज्य भगवान चम्पापुरी से, श्री नेमिनाथ भगवान गिरनारजी से, श्री महावीर भगवान पावापुरी से मोक्ष को प्राप्त हुए है । इनके अतिरिक्त अनन्त मुनिगण यहाँ पर कठोर तपश्चर्या श्री सुमतिनाथ भगवान निर्वाण स्थल ट्रॅक - सम्मेतशिखर FUmstane.inharumakeSTRA Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री पद्मप्रभ भगवान निर्वाण स्थल ट्रॅक - सम्मेतशिखर श्री चन्द्रप्रभ भगवान निर्वाण स्थल ट्रॅक - सम्मेतशिखर श्री सुपार्श्वनाथ भगवान निर्वाण स्थल ट्रॅक - सम्मेतशिखर श्री सुविधिनाथ भगवान निर्वाण स्थल ट्रॅक - सम्मेतशिखर Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री शीतलनाथ भगवान निर्वाण स्थल ट्रॅक - सम्मेतशिखर श्री विमलनाथ भगवान निर्वाण स्थल ट्रॅक - सम्मेतशिखर श्री श्रेयांसनाथ भगवान निर्वाण स्थल टूक - सम्मेतशिखर । श्री अनन्तनाथ भगवान निर्वाण स्थल ट्रॅक - सम्मेतशिखर Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री धर्मनाथ भगवान निर्वाण स्थल ट्रॅक - सम्मेतशिखर करते हुए मोक्ष सिधारे हैं । अनेकों अनेक प्रकाण्ड विद्वान आचार्य भगवन्तों ने यहाँ पदार्पण किया है व अनेकों श्रद्धालु भक्तजनों का यहाँ आवागमन हुआ है एवं कई संघ आये है व आते रहते हैं । - यहाँ की महिमा का जितना वर्णन करें कम हैं । यहाँ की महिमा तो हर तीर्थमाला में व स्तवनों आदि में जन-जन में गाई जाती है । अनेक तीर्थंकरों, मुनिगणों की तपोभूमि व निर्वाणभूमि रहने के कारण उन्होंने अपने अन्त-समय में इस पहाड़ पर रहकर धर्मोपदेशना देते हुए इस भूमि के कण-कण को अपने चरणकमलों से स्पर्श किया है । अतः यहाँ का कण-कण महान पवित्र व पूजनीय है । इस भूमि के स्पर्श मात्र से मानव की आत्मा प्रफुल्लित होकर प्रभु के स्मरण में लीन हो जाती है । यहाँ की यात्रा मानव का संकट हरनारी, पुण्योपार्जनकारी व पापविनाशनकारी है । __ यहाँ की भूमि के कण-कण में निर्मलता तो है ही यहाँ के वायु-मण्डल के वातावरण में भी ऐसी अलौकिक शक्ति व गूंज है जिससे मानव अपने आपको प्रभु में खोकर अपने पापों का क्षय करके महान पुण्योपार्जन करता है । आइए हम भी आज प्रभु के निर्वाण स्थलों का स्मरण कर लें । प्रातः साढ़े चार-पाँच बजे यात्रा प्रारम्भ करना आवश्यक है । साथ में लकड़ी रखना सुविधाजनक है | भूख सहन न करने वालों के लिये खाने पीने की कुछ सामग्री साथ रखना भी सुविधाजनक होगा । क्योंकि लौटने तक लगभग सायं के चार बज जाते हैं । श्री भोमियाजी के मन्दिर से कुछ दूर जाते ही पहाड़ की चढ़ाई प्रारम्भ होती है । यात्रा प्रवास-6 मील चढ़ाव, 6 मील परिभ्रमण, व 6 मील उतराई कुल मिलाकर 18 मील का रास्ता पार करना पड़ता है । इसलिए पहिले श्री भोमियाजी बाबा के दर्शन कर श्रीफल चढ़ाकर आगे चलें ताकि हमारी यात्रा निर्विघ्न शान्तिपूर्वक सम्पन्न हो । भोमियाजी बाबा प्रत्यक्ष व चमत्कारिक हैं । श्रद्धालु भक्तजनों की मनोकामनाएँ पूर्ण करते है । यहाँ से लगभग 2 मील चलने पर गंधर्व नाला आता है । इस नाले में हर वक्त पानी रहता है । जल अति ही निर्मल व पाचक है । स्थान बहुत ही रमणीय है । यहाँ पर एक श्वेताम्बर श्री शान्तिनाथ भगवान निर्वाण स्थल ट्रॅक - सम्मेतशिखर Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मशाला है, जहाँ पीने के गरम व ठंडे पानी की सुविधा है । प्रत्येक यात्री को लौटते वक्त यहाँ पेढ़ी की तरफ से भाता दिया जाता है। यहाँ से चढ़ाई कुछ कठिन है । लेकिन घबराने की आवश्यकता नहीं । हिम्मत से चढ़िये । आप प्रफुल्लता के साथ वापस उतरेंगे । थोड़ी दूर आगे जाने पर दो रास्ते फंटते हैं। बायें हाथ का राह श्री गोतम स्वामीजी की ट्रंक होता हुआ जल मन्दिर जाता है व दायें हाथ का डाक बंगला होता हुआ श्री पार्श्वनाथ ट्रंक पहुँचाता है। ये दोनों मार्ग लम्बे हैं व कठिनाई में दोनों समान है । चढ़ते वक्त जल मन्दिर व लौटते वक्त पार्श्वनाथ ट्रंक होकर आना ही अनुकूल होता है । जलमन्दिर के मार्ग में आधा मील का रास्ता तय करने पर कल-कल मधुर संगीत की स्वर लहरी गाता हुआ सीता नाला मिलता है जो सदियों से इस भाँति स्वरलहरी गुंजरित करता रहा है। आगे चढ़ाव कुछ और भी कठिन है, जिसे सुगम बनाने के लिए 500 सीढ़ियाँ बनाई गई हैं। लगभग 2.5 मील आगे बढ़ते ही हमारे तीर्थकर भगवन्तों के निर्वाण स्थानों पर निर्मित ट्रॅको के दर्शन होते हैं। कुछ ट्रैके समतल में हैं तो कुछ टेकरियों पर । प्रथम ट्रॅक :- लब्धि के दातार भगवान महावीर के प्रथम गणधर श्री गोतमस्वामी की है । इनका निर्वाण स्थल तो राजगृही या गुणाया है परन्तु दर्शनार्थ यहाँ चरण स्थापित हैं। इनके नाम स्मरण मात्र से मनोवांछित कार्य सिद्ध होते हैं। आगे चलने पर दूसरी ट्रैक :- सत्रहवें तीर्थंकर श्री कुंथुनाथ भगवान की आती है । वैशाख कृष्णा प्रतिपदा को हजार मुनियों के साथ भगवान यहाँ से मोक्ष सिधारे हैं। आगे जा पर तीसरी ट्रैक :- श्री ऋषभानन शाश्वत जिन की ट्रॅक आती है । बाद में चौथी ट्रॅक :- श्री चन्द्रानन शाश्वत जिन की ट्रॅक आती है । पश्चात् पाँचवी टँक इक्कीसवें तीर्थंकर श्री नमिनाथ भगवान की ट्रॅक आती है। यहीं से भगवान वैशाख कृष्णा दशमी को पाँच सौ छत्तीस मुनियों के साथ मोक्ष सिधारे हैं । आगे चढ़ने पर छठी ट्रॅक :- अठारहवें तीर्थंकर श्री अर्हनाथ भगवान की आती है। यहीं से भगवान मार्गशीर्ष शुक्ला दशमी को एक हजार मुनियों के साथ मोक्ष सिधारे हैं । फिर सातवीं टँक :- उन्नीसवें तीर्थंकर श्री मल्लीनाथ भगवान की आती है। यहाँ से प्रभु फाल्गुन 38 श्री कुंथुनाथ भगवान निर्वाण स्थल टँक सम्मेतशिखर mamada en kena का श्री अरनाथ भगवान निर्वाण स्थल टँक - सम्मेतशिखर Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुक्ला बारस को पाँच सौ मुनियों के साथ मोक्ष सिधारे हैं। आठवी ट्रॅक - ग्यारहवें तीर्थंकर श्री श्रेयसनाथ भगवान की है। यहाँ से भगवान श्रावण कृष्णा तृतीया को एक हजार मुनियों के साथ मोक्ष सिधारे है । नवमी ट्रॅक :- नवमें तीर्थंकर श्री सुविधिनाथ भगवान की आती है। यहाँ से भगवान भाद्रवा शुक्ला नवमी को एक हजार मुनियों के साथ मोक्ष सिधारे हैं। दशवीं ट्रैक :- छठे तीर्थंकर श्री पद्मप्रभ भगवान की आती है। यहाँ से प्रभु मार्गशीर्ष कृष्णा ग्यारस को तीन सौ आठ मुनियों के साथ मोक्ष सिधारे हैं। आगे ग्यारहवीं ट्रैक :- बीसवें तीर्थंकर श्री मुनिसुव्रत स्वामी भगवान की है यहाँ से भगवान ज्येष्ठ कृष्णा नवमी को एक हजार मुनियों के साथ मोक्ष सिधारे हैं। अब हमें कठिन व ऊँची ट्रॅक जाना है । वह है बारहवीं ट्रैक :- आठवें तीर्थंकर श्री चन्द्रप्रभ भगवान की । यहीं से प्रभु भाद्रवा कृष्णा सप्तमी को एक हजार मुनियों के साथ मोक्ष सिधारे है । उतरकर आगे चलने पर तेरहवीं टँक :- श्री आदिनाथ भगवान की आती है। प्रभु तो अष्टापद से मोक्ष सिधारे हैं । इस पावन तीर्थ पर दर्शनार्थ प्रभु के चरण स्थापित हैं । चौदहवीं ट्रैक :- चौदहवें तीर्थंकर श्री अनन्तनाथ भगवान की है। चैत्र शुक्ला पंचमी को सात सौ मुनियों के साथ यहीं से प्रभु मोक्ष सिधारे हैं। पन्द्रहवीं ट्रैक दसवें तीर्थंकर श्री शीतलनाथ भगवान की है। यहाँ पर भगवान वैशाख कृष्णा द्वितीया को एक हजार मुनियों के साथ मोक्ष सिधारे हैं। सोलहवीं ट्रैक :- तीसरे तीर्थंकर श्री संभवनाथ भगवान की आती है । यहाँ से भगवान चैत्र शुक्ला पंचमी को एक हजार मुनिगणों के साथ मोक्ष सिधारे हैं । सत्रहवीं टँक :- बारहवें तीर्थंकर श्री वासुपूज्य भगवान की है । भगवान चम्पापुरी में मोक्ष सिधारे हैं यहाँ दर्शनार्थ उनके चरण स्थापित हैं । अठारहवीं ट्रॅक :- चौबे तीर्थंकर श्री अभिनन्दन भगवान की है। यहाँ से प्रभु वैशाख शुक्ला अष्टमी को एक हजार मुनिगणों के साथ मोक्ष सिधारे हैं। अब हम यहाँ की प्रमुख ट्रॅक पहुँच रहे हैं। यह है यहाँ की प्रमुख ट्रॅक, उन्नीसवीं टँक :- इस ट्रैक पर स्थित यहाँ के मुख्य जलमन्दिर का दर्शन होता है। यहाँ के मूलनायक श्री शामलिया पार्श्वनाथ भगवान हैं। कैसी सुन्दर व अलौकिक प्रतिमा है प्रभु की पवित्र पहाड़ों में हरे-भरे लहलहाते पेड़-पौधों के बीच मन्दिर भी कितना सुन्दर लगता है जैसे दिव्य-लोक में : श्री मल्लिनाथ भगवान निर्वाण स्थल टँक 1702015 0 श्री मुनिसुव्रतस्वामी भगवान निर्वाण स्थल टँक Canada Ges - सम्मेतशिखर सम्मेतशिखर 39 Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री नमिनाथ भगवान निर्वाण स्थल ट्रॅक - सम्मेतशिखर हैं । प्रभु तो पावापुरी से मोक्ष सिधारे हैं । पश्चात् सत्ताइसवीं टूकः- सातवें तीर्थंकर श्री सुपार्शनाथ भगवान की है । यहाँ से प्रभु फाल्गुन कृष्णा सप्तमी को पाँच सौ मुनियों के साथ मोक्ष सिधारे हैं । आगे अट्ठाइसवीं ट्रॅक :- तेरहवें तीर्थंकर श्री विमलनाथ भगवान की है । यहाँ से भगवान आषाढकृष्णा सप्तमी के दिन छ सौ मुनियों के साथ मोक्ष सिधारे हैं । आगे चलने पर उन्तीसवीं टूक :- द्वितीय तीर्थंकर श्री अजितनाथ भगवान की आती है । यहाँ से प्रभु चैत्र शुक्ला पंचमी को एक हजार मुनियों के साथ मोक्ष पधारे हैं । अब तीसवीं ढूँक :- श्री नेमिनाथ भगवान की आती है । प्रभु के चरण दर्शनार्थ स्थापित हैं । प्रभु तो गिरनार पर्वत पर मोक्ष सिधारे हैं । अब आगे जो दिखाई देती है वह है इस यात्रा की अन्तिम सर्वोच्च ट्रॅक जिसके शिखर का दर्शन 30-40 मील दूर से होता है वह है इकत्तीसवीं टूक :- तेईसवें तीर्थंकर श्री पार्श्वनाथ भगवान की । इसे मेघाडम्बर ट्रैक भी कहते हैं । इस ट्रैक पर दो मंजिल का शिखर युक्त मन्दिर बना हुआ है । नीचे की मंजिल में भगवान श्री पार्श्वनाथ के प्राचीन चरण स्थातिप हैं । श्री पार्श्वनाथ भगवान श्रावण द्वारा निर्मित किया गया हो । यहाँ नहाने -धोने, शुक्ला अष्टमी को तेत्तीस मुनियों के साथ यहीं से सेवा-पूजा की उत्तम व्यवस्था है । मन्दिर के पास दो मोक्ष सिधारे हैं । आखिर में पार्श्वनाथ भगवान यहाँ कुण्ड हैं । इन कुण्डों से जितना पानी निकाले तब भी से मोक्ष जाने के कारण इस पर्वत का नाम भी अक्षय नीर बहता ही रहता है । विश्राम के लिये दो जनसाधारण में पारसनाथ पहाड़ पड़ा । सरकारी छोटी श्वेताम्बर धर्मशालाएँ बनी हुई हैं । यहाँ पूजा दस्तावेजों आदि में भी पारसनाथ हिल हैं। सेवा करके साथ जो हो वह खा पीकर आगे चलने की इस ट्रैक पर से चारों ओर दृष्टि फेरने पर अति ही तैयारी करनी है यहाँ से आगे चलने पर बीसवीं मनोहर दृश्य दिखाई पड़ते हैं । आकाश अपने से बातें ट्रॅक :- श्री शुभ गणधरस्वामी की आती है । आगे करना चाहता है ऐसा प्रतीत होता है । बादलों के समूह इक्कीसवीं टूक :- पन्द्रहवें तीर्थंकर श्री धर्मनाथ भगवान अपनी रिमझिम गति से पर्वत से आलिंगित होते ही की है । प्रभु ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी को एक सौ आठ बरस पड़ते हैं । चमत्कारिक जड़ी-बूटियों और प्रभाविक मुनिवरों के साथ यहाँ से मोक्ष सिधारे हैं । पश्चात् वनस्पतियों का इस भूमि में भन्डार हैं । बाईसवीं ट्रॅक :- श्री वारिषेण शाश्वताजिन ट्रॅक आती है। पूर्व तीर्थंकर भगवन्तों की निर्वाण भूमि होने के आगे चलने पर तेईसवीं ट्रॅक :- श्री वर्धमानन शाश्वत कारण श्री पार्श्वनाथ भगवान इस पहाड़ को अति जिन ट्रॅक है । फिर चौबीसवीं ट्रॅक :- पाँचवें तीर्थंकर पवित्र, एकान्त, रमणीय, ध्यान के अनुकूल जानकर श्री सुमतिनाथ भगवान की आती है । यहाँ से प्रभु एक बार-बार आये । इस प्रदेश के लोगों में धर्मोपदेश करते हजार मुनियों के साथ चैत्र शुक्ला नवमी को मोक्ष विचरण किया व मोक्ष को प्राप्त हए । यहाँ के सिधारे हैं । बाद में पच्चीसवीं ट्रॅक :- सोलहवें तीर्थंकर ___ जनवासियों में आज भी उनके प्रति दृढ़ भक्ति है। लोग श्री शान्तिनाथ भगवान की आती है। यहाँ से भगवान उन्हें पारसनाथ महादेव, पारसनाथ बाबा कहकर स्मरण ज्येष्ठकृष्णा तेरस को नव सौ मुनियों के साथ मोक्ष करते हैं । आज भी भगवान के जन्म दिवस पौष सिधारे हैं । अब छब्बीसवीं ट्रॅक:- श्री महावीर भगवान कृष्ण दशमी को मेले के दिन जैनेतर भी विपुल मात्रा की आती है। यहाँ प्रभु के चरण दर्शनार्थ स्थापित में आते हैं । Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री पार्श्वनाथ भगवान ट्रॅक - सम्मेतशिखर अब हम इस सर्वोच्चतम ट्रॅक से हमारे तीर्थंकर भगवन्तों व मुनि महाराजों को भावयुक्त वन्दना करके वापस मधुबन लौट रहे हैं । थोड़ी ही दूर पर डाक बंगला है, जहाँ से बांई ओर निमियाघाट का रास्ता जाता है । दूसरा दांई ओर का रास्ता मधुबन जाता है। मधुबन उतरने पर पुनः भोमियाजी बाबा का दर्शन कर विश्राम करना है । वापस पहुँचने तक 3-4 बज जाते हैं । पहुँचने पर कुछ थकावट-सी जरूर महसूस होती है । क्योंकि कुल 18 मील पार करके आये हैं। परन्तु रात भर में थकावट मिट जाती है । इस प्रकार महान पवित्र सम्मेतशिखर पहाड़ की हमारी यात्रा संपूर्ण होती है । यहाँ प्रतिवर्ष पौषकृष्णा दशमी व फाल्गुन शुक्ला पूर्णिमा (होली के दिन) को मेला भरता है, जब जैन व जैनेतर विपुल संख्या में भाग लेकर प्रभु-भक्ति में लीन हो जाते हैं । __ अन्य मन्दिर * पहाड़ पर स्थित सारी वैंकों व मन्दिरों का वर्णन विशिष्टता में दे चुके हैं । इनके अतिरिक्त पहाड़ पर कोई मन्दिर या टूके नहीं हैं । पहाड़ की तलहटी मधुबन में आठ श्वेताम्बर मन्दिर दो दादावाड़ियाँ व एक भोमियाजी महाराज का मन्दिर है। इनके अतिरिक्त दिगम्बर बीसपंथी की कोठी में आठ श्री पार्श्वनाथ भगवान निर्वाण स्थल - सम्मेतशिखर Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुनीत पावन सम्मेतशिखर पहाड़ पर प्रभु के निर्वाण स्थलों का दुर्लभ दृश्य Page #47 --------------------------------------------------------------------------  Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मधुवन में मन्दिर समूहों का अलौकिक दृश्य जिनालय व दिगम्बर तेरापंथी कोठी में नौ जिनालय हैं। दिगम्बर बीसपंथी व तेरापंथी समुदायों की भी अलग- अलग पेढ़ियाँ हैं । कला और सौन्दर्य * पहाड़ पर के प्राकृतिक सौन्दर्य का वर्णन कर चुके हैं । पहाड़ पर से नीचे निहारते हैं तो मधुबन के सारे मन्दिरों की निर्माण शैली व कला अत्यन्त ही मनोरम लगती है । __ मार्ग दर्शन * मधुबन से नजदीक के रेल्वे स्टेशन गिरडिह 25 कि. मी., पार्श्वनाथ स्टेशन लगभग 15 कि. मी. है जहाँ से बस व टेक्सी की सुविधा है। मधुबन धर्मशालाओं तक बस व कार जा सकती है । मधुबन से पहाड़ की यात्रा पैदल करनी पड़ती है । परन्तु डोलियों का भी साधन है । गिरडिह व पार्श्वनाथ में भी स्टेशनों के निकट ही श्वेताम्बर मन्दिर व सुविधायुक्त धर्मशालाएँ हैं । सुविधाएँ * ठहरने के लिये मधुबन में श्वेताम्बर व दिगम्बर धर्मशालाएँ हैं । जिनमें पानी, बर्तन, बिजली व ओढ़ने-बिछाने के वस्त्रों की सुविधा है । श्वेताम्बर व दिगम्बर धर्मशाला में भोजनशाला भी है। पहाड़ पर पूजा-सेवा के लिये पानी की सुविधा है । पेढ़ी * श्री जैन श्वेताम्बर सोसायटी, गाँव : मधुबन, पोस्ट : शिखरजी - 825 329. जिला : गिरडिह, प्रान्त : बिहार, फोन : 06532-32226, 32224 व 32260 श्री भोमियाजी महाराज मन्दिर - मधुबन (सम्मे तशिखर) Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ONG UTTLE ASHRA READ: मनोवांछित फलदातार सम्मेतशिखर के अधिष्ठायक श्री भोमियाजी महाराज - मधुबन (सम्मेतशिखर) Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रिद्धि के दातार श्री गौतम स्वामीजी महाराज 46 - गुणायाजी श्री गुणायाजी तीर्थ तीर्थाधिराज * श्री गौतमस्वामी महाराज, पद्मासनस्थ श्वेतवर्ण, लगभग 30 से. मी. । ( श्वेताम्बर मन्दिर ) । तीर्थ स्थल * नवादा स्टेशन से 2 कि. मी. गुणायाजी गाँव में मुख्य मार्ग से 200 मीटर दूर सरोवर के मध्य । प्राचीनता * राजगृही के इतिहास में गुणशील चैत्य का वर्णन आता है । लेकिन एक मान्यतानुसार गुणशील का अपभ्रंश ही गुणायाजी नाम हुआ माना जाता है । जहाँ भगवान महावीर का अनेकों बार पदार्पण हुआ व समवसरण रचे गये थे । एक और मतानुसार प्रभु के प्रथम गणधर श्री गौतमस्वामीजी ने यहाँ केवलज्ञान प्राप्त किया । कुछ भी हो यह तीर्थ क्षेत्र भी भगवान महावीर के समय का है । विशिष्टता * गुणायाजी ही गुणशील चैत्य का अपभ्रंश माना जाने के कारण यहाँ की महान विशेषता हो जाती है । क्योंकि भगवान महावीर का अनेकों बार गुणशील चैत्य में ठहरने का उल्लेख आता है । श्री गौतमस्वामीजी को केवलज्ञान भी यहीं हुआ माना जाता है । रिधी के दातार श्री गौतम स्वामीजी म. सा. साक्षात् है । उनका प्रत्यक्ष परचा है । आने वाले दर्शनार्थियों की मनोकामना पूर्ण होती है । ऐसा भक्तों द्वारा अभिहित किया जाता है । अन्य मन्दिर * इसके अतिरिक्त एक दिगम्बर मन्दिर भी हैं । कला और सौन्दर्य * इस जल मन्दिर की निर्माण शैली देखते ही पावापुरी का जल मन्दिर स्मरण हो आता है । मन्दिर के सामने एक तोरण है, जिसकी कला दर्शनीय है । मार्ग दर्शन * नजदीक का स्टेशन नवादा 3 कि. मी. है। नवादा गाँव 2 कि. मी. है। नवादा से बस, आटो की सुविधा है । गुणियाजी छोटा गाँव है । पटना से रांची मुख्य मार्ग पर यह गाँव है । मन्दिर से मुख्य सड़क 1/4 कि. मी. है । मंदिर तक कार व बस जा सकती है । पावापुरी से यह स्थल 23 कि. मी. है । Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुविधाएँ * ठहरने के लिये श्वेताम्बर व दिगम्बर धर्मशालाएं हैं, जहाँ पानी व बिजली का साधन है । पेढी * श्री जैन श्वेताम्बर भन्डार, श्री गुणायाजी तीर्थ, पोस्ट : गोनवा - 805 110 जिला : नवादा, प्रान्त : बिहार फोन : 06324-24045. HTTER Candlod आकर्षक जल मन्दिर - गुणायाजी Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री पावापुरी तीर्थ तीर्थाधिराज * श्री महावीर भगवान, चरण पादुका, श्याम वर्ण, लगभग 18 सें. मी. । (श्वेताम्बर जल मन्दिर) । तीर्थ स्थल * पावापरी गाँव के बाहर सरोवर के मध्य । प्राचीनता * यह क्षेत्र प्राचीन काल में मगध देश के अन्तर्गत एक शहर था । इसे मध्यमा पावा व अपापापुरी कहते थे । भगवान महावीर के समय ही भगवान के परम भक्त मगध नरेश श्रेणिक राजा के पुत्र अजातशत्रु मगध देश के राजा बन चुके थे । आज से लगभग 2500 वर्ष पूर्व अजातशत्रु के राजत्व काल में यहाँ हस्तिपाल नाम का राजा राज्य करता था । सम्भवतः हस्तिपाल माण्डलिक मगधदेश के अन्तर्गत इस गाँव का राजा होगा । उस समय भगवान महावीर चम्पापुरी से विहार करके यहाँ पधारे व राजा हस्तिपाल की रज्जुगशाला में ठहरे । चातुर्मास में भगवान के दर्शनार्थ अनेकों राजागण, श्रेष्ठीगण आदि भक्त आते रहते थे । प्रभु ने प्रथम गणधर श्री गौतमस्वामी को निकटवर्ती गाँव में देवशर्मा ब्राह्मण को उपदेश देने भेजा । कार्तिक कृष्णा चतुर्दशी के प्रातः काल प्रभु की अन्तिम देशना प्रारम्भ हुई उस समय मल्लवंश के नौ राजा, लिच्छवी वंश के नौ राजा आदि अन्य भक्तगणों से सभा भरी हुई थी । सारे श्रोता प्रभु की अमृतमयी वाणी को अत्यन्त भाव व श्रद्धा पूर्वक सुन रहे थे । प्रभु ने निर्वाण का समय निकट जानकर अन्तिम उपदेश की अखण्ड धारा चालू रखी । इस प्रकार प्रभु 16 पहर "उत्तराध्यायन सूत्र" का निरूपण करते हुए अमावस्या की रात्रि के अन्तिम पहर, स्वाति नक्षत्र में निर्वाण को प्राप्त हुए । इन्द्रादि देवों ने निर्वाण कल्याणक मनाया व उपस्थित राजाओं व अन्य भक्तजनों ने प्रभु के वियोग से ज्ञान का दीपक बुझ जाने के कारण उस रात्रि में घी के प्रकाशमय रत्नदीप जलाये । उन असंख्यों दीपकों से अमावस्या की घोर रात्रि को प्रज्वलित किया गया । तब से दीपावली पर्व प्रारम्भ हुआ । आज भी उस दिन की PARERS REEREIDOE N DESH अन्तिम देशना व निर्वाण स्थल मन्दिर - पावापुरी Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Saty|सका श्रीजयोग गलाक्ष्य नमस्वामिनाeा सतापक्षनवाए बझाद भाबदार SIसेस नमत नामसारण जहनाया PERISCHER याएका ENERO OJA जनजदीलिपी वरनर. योमान्तर बनाना Hदन RRE करनतारा RTO कामराजर सहि शिपिसाहता श्री महावीर प्रभु, चरण पादुका - अन्तिम देशना व निर्वाण स्थल - पावापुरी यादगार में दीपावली के दिन सारे शहर व गाँव सहसों दीपकों की ज्योति से जगमगा उठते हैं । प्रभु के निर्वाण के समाचार चारों तरफ फैल चुके। लाखों देव व मानवो की भीड़ प्रभु के अन्तिम दर्शनार्थ उमड़ पड़ी । इन्द्रादि देवों व जन समुदाय ने विराट जुलूस के साथ प्रभु की देह को कुछ दूर ले जाकर विधान पूर्वक अन्तिम संस्कार किया । देवी देवतागण व अगणित मानव समुदाय ने प्रभु के देह की कल्याणकारी भस्म को ले जाकर अपने - अपने पूजा गृह में रखा । भस्म न मिलने पर उस भस्म में मिश्रित यहाँ की पवित्र मिट्टी को भी ले गये जिससे यहाँ गड्ढा हो गया । भगवान के ज्येष्ठ भ्राता नन्दीवर्धन ने अन्तिम देशना स्थल एवं अन्तिम संस्कार स्थल पर चौतरें बनाकर प्रभु के चरण स्थापित किये जो आज के गाँव मन्दिर व जल मन्दिर माने जाते हैं । जल मन्दिर में चरण पादुकाओं पर कोई लेख । उत्कीर्ण नहीं हैं । समय-समय पर इस मन्दिर का जीर्णोद्धार हुआ । पहले इसवेदी पर चरणों के पास सं. 1260 ज्येष्ठ शुक्ला 2 के दिन आचार्य नवीन सुन्दर समवसरण मन्दिर - पावापुरी श्री अभयदेवसूरीश्वरजी द्वारा प्रतिष्ठत महावीर भगवान की एक धातु प्रतिमा थी । वर्तमान में यह प्रतिमा गाँव मन्दिर में हैं । आज का गाँव मन्दिर ही हस्तिपाल की रज्जुगशाला व प्रभु की अन्तिम देशना स्थल माना जाता है । इसी स्थान पर दीपावली पर्व प्रारम्भ हुआ जो अभी भी सारे भारत वर्ष में मनाया जाता है । Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 7-72 Flour Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरम तीर्थंकर प्रभुवीर के अन्तिम संस्कार स्थल पर जल मन्दिर का अलौकिक दृश्य - पावापुरी S HD TATATHA REALHEATRE Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समय-समय पर कई बार जीर्णोद्धार हुए । गाँव मन्दिर नया समवसरण मन्दिर व दादावाड़ी है । इनके में वर्तमान चरण पादुकाओं पर सं. 1645 वैशाख अतिरिक्त जल मन्दिर के पास ही एक विशाल दिगम्बर शुक्ला 3 का लेख उत्कीर्ण है । हो सकता है, जीर्णोद्धार मन्दिर है । के समय नये चरण प्रतिष्ठित किये गये हों। आज तक कला और सौन्दर्य * जल मन्दिर की निर्माण यहाँ असंख्य मुनिगण व भक्तगण दर्शनार्थ आये हैं, शैली का जितना वर्णन करें कम है । कमल के फूलों जिनका विवरण सम्भव नहीं। प्रारम्भ से दीपावली के से लदालद भरे सरोवर के बीच इस मन्दिर का दृश्य अवसर पर प्रभु के निर्वाणोत्सव का मेला लगता है । देखने मात्र से भगवान महावीर का स्मरण हो आता पहिले यह मेला पाँच दिन का होता था। जिनप्रभसूरिजी। है । जल मन्दिर में प्रवेश करते ही मनुष्य सारे बाह्य ने अपने विविध तीर्थ कल्प में लिखा है कि चातुर्वाणिक वातावरण भलकर प्रभ भक्ति में अपने आपको भूल लोग यात्रा महोत्सव करते हैं । उसी एक रात्रि में जाता है - ऐसा शुद्ध व पवित्र वातावरण है यहाँ का। देवानुभाव से कुएँ से लाए जल से पूर्ण दीपक में तेल अन्य श्वेताम्बर व दिगम्बर मन्दिरों में प्राचीन के बिना दीपक प्रज्वलित होता है । श्वेताम्बर समुदाय कलात्मक प्रतिमाओं के दर्शन होते हैं । नवीन समवसरण का मेला कार्तिककृष्णा अमावस्या को होता है उसी रात्रि मन्दिर अती ही रचनात्मक ढंग से बना है जिसकी पूर्ण के अन्तिम पहर में लड्डु चढ़ाते हैं । रुप रेखा व योजना प. पू. गछाधिपति आचार्य भगवंत (दिगम्बर मान्यतानुसार प्रभु कार्तिककृष्णा चतुर्दशी श्रीमद् विजय रामचन्द्रसूरिजी की है । प्रतिष्ठा भी उन्ही के रात्रि के अन्तिम पहर में निर्वाण प्राप्त हुए । अतः । के पावन निश्रा में हुई थी । वे लोग उक्त रात्रि को लड्डु चढ़ाते हैं व उत्सव मार्ग दर्शन * यहाँ से रेल्वे स्टेशन पावापुरी रोड़ मनाते हैं)। 10 कि. मी. वख्तीयारपुर 44 कि. मी. व नवादा 23 विशिष्टता * त्रिशलानन्दन त्रैलोक्यनाथ चरम कि. मी. दूर हैं । सभी जगहों पर टेक्सी व तीर्थंकर श्री महावीर भगवान की निर्वाण भूमि रहने के बस की सुविधा है । नजदीक का बड़ा गाँव बिहार कारण इस पवित्र भूमि का प्रत्येक कण पूज्यनीय है सरीफ 15 कि. मी. है । बिहार सरीफ - राँची नेशनल हाईवे रोड़ पर यह तीर्थ स्थित है । मुख्य सड़क से प्रभु वीर की अन्तिम देशना इस पावन भूमि में हुई लगभग एक कि. मी. है । धर्मशाला तक व सारे थी । अतः यहाँ का शुद्ध वातावरण आत्मा को परम । मन्दिरों तक कार व बस जा सकती है । गाँव में शान्ति प्रदान करता है । बस व टेक्सी का साधन है । दीपावली त्योहार मनाने की प्रथा महावीर भगवान सुविधाएँ * ठहरने के लिये गाँव के मन्दिर व नये के निर्वाण दिवस से यहीं से प्रारम्भ हुई । समवसरण श्वेताम्बर मन्दिर में सर्व सुविधायुक्त कमरों __भगवान महावीर की प्रथम देशना भी यहीं पर हुई व जेनरेटर आदि की सुविधा है । गाँव के मन्दिर की मानी जाती है । उस स्थान पर नवीन सुन्दर धर्मशाला में भोजनशाला भी हैं । दिगम्बर मंदिर के समवसरण के मन्दिर का निर्माण हुआ है । यह भी __पास दिगम्बर धर्मशाला भी है, जहाँ भी भोजनशाला के मान्यता है कि इन्द्रभूति गौतम का प्रभु से यहीं प्रथम साथ सारी सुविधाएँ हैं । मिलाप हुआ था जिससे प्रभावित होकर प्रभु के पास पेढ़ी * 1. श्री जैन श्वेताम्बर भन्डार तीर्थ पावापुरी दीक्षा ली व प्रथम गणधर बने । कल्पसूत्र में भी पोस्ट : पावापुरी- 803 115. जिला : नालन्दा, इसका विस्तार पूर्वक वर्णन है । (दिगम्बर मान्यतानुसार प्रान्त : बिहार, फोन : 06112-74736. प्रथम देशना व इन्द्रभूति श्री गौतम स्वामी का मिलाप 2. श्री दिगम्बर तीर्थ कमीटी, पावापुरी राजगृही बताया है)। पोस्ट : पावापुरी - 803 115. अन्य मन्दिर * गाँव का मन्दिर व जल मन्दिर इन दो श्वेताम्बर मन्दिरों के अतिरिक्त वर्तमान में यहाँ पर पुराना समवसरण मन्दिर, महताब बीबी मन्दिर व Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरम तीर्थकर भगवान महावीर प्रभु की प्राचीन चरण पादुकाएँ - जल मन्दिर, पावापुरी । जल मन्दिर का निकट दृश्य - पावापुरी । Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणधर इन्द्रभूति गौतम अग्निभुति व वायुभुति का जन्म यहीं हुआ था । ये तीनों भाई थे । ई. सं. 410 में चीनी यात्री फाहियान यात्रार्थ आये तब इस स्थल को साधारण पाया था । उसके पश्चात् कुमारगुप्त ने ई. सं. 424-454 में बोद्ध साधुओं के लिए एक विशाल मठ बनवाया । पश्चात् नालन्दा में विश्वविद्यालय की स्थापना होने से बोद्ध विद्या का एक बड़ा केन्द्र बन गया । सातवीं सदी में आये चीनी यात्री हुएनसाँग ने इस विश्वविद्यालय की व्याख्या की है व विद्यालय में रहकर अभ्यास किया ऐसा बताया जाता है । लगभग तेरहवीं सदी तक इस विद्यालय के रहने का अनुमान है । पश्चात् बखत्यारखिलजी द्वारा इसका विनाश किये जाने का उल्लेख है । भगवान महावीर के समय व पश्चात् यहाँ जैन धर्म का अच्छा प्रभाव रहा है जिसका इतिहास साक्षी हैं । अगर खोद कार्य करके अनुसंधान किया जाय तो महत्वपूर्ण सामग्री के मिलने की सम्भावना हैं । भगवान महावीर से गोसाले का मिलाप यहीं हुआ था । चौदहवीं सदी में विरचित "विविध तीर्थ कल्प" में श्री जिनप्रभसूरिजी ने इस तीर्थ की व्याख्या की है । सं. 1565 में श्री हंससोमविजयजी ने यहाँ 16 मन्दिर रहने का उल्लेख किया है । सं. 1664 में पं. जयविजयजी ने यहाँ 17 मन्दिरों के होने का उल्लेख किया है । सं. 1750 में पं. सौभाग्यविजयजी ने एक मन्दिर एक स्तूप व बिना प्रतिमाओं के अन्य जीर्ण अवस्था में रहे कुछ मन्दिर होने का उल्लेख किया है । विशिष्टता * भगवान महावीर के ग्यारह गण रों में से तीन गणधरों की यह जन्मभमि होने के कारण यहाँ की महान विशेषता है । लब्धि के दातार प्रभु वीर के प्रथम गणधर श्री गौतमस्वामीजी के जन्म से यह भूमि पावन बनी है । भगवान महावीर का भी इस भूमि में अनेकों बार पदार्पण हुआ है व प्रभु के धर्मोपदेश से यहाँ पर अनेकों प्राणियों ने अपना जीवन सफल बनाया है । अतः इस भूमि की महानता अवर्णनीय है । अन्य मन्दिर * वर्तमान में इस मन्दिर के अतिरिक्त एक दिगम्बर मन्दिर हैं । कला और सौन्दर्य * श्वेताम्बर मन्दिर में प्राचीन प्रतिमाएँ अति ही कलात्मक सन्दर व दर्शनीय हैं । नालन्दा विश्व विद्यालय-संग्रहालय में प्राचीन जिन लब्धि के दातार श्री गौतम स्वामीजी महाराज-कुण्डलपुर श्री कुण्डलपुर तीर्थ तीर्थाधिराज * श्री गौतम स्वामीजी महाराज, चरणपादुका, श्याम वर्ण, लगभग 25 सें. मी. (श्वे. मन्दिर) । तीर्थ स्थल * नालन्दा से 3 कि. मी. दूर कुण्डलपुर गाँव में । । प्राचीनता * प्राचीन काल में इसे गुव्वरगाँव व बड़गाँव भी कहते थे । नालन्दा व कुण्डलपुर गाँव राजगृही के उपनगर थे । भगवान महावीर के तीन 54 Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री गौतम स्वामीजी महाराज, चरण पादुका प्रतिमाएँ, स्तूप आदि दर्शनीय हैं । मार्ग दर्शन * यहाँ का रेल्वे स्टेशन नालन्दा बख्तीयार राजगिर लाईन में लगभग 3 कि. मी. दूर है। नालन्दा स्टेशन से नालन्दा खण्डहर 2 कि. मी. व वहाँ से यह स्थल 36 कि. मी. है। राजगिर से नालन्दा होकर कुल 14 कि. मी. है। पावापुरी से बिहारसरीफ होते हुए कुल 26 कि. मी. व पटना से 85 कि. मी. है । सभी जगहों से आटो रिक्शों की सवारी का साधन है । सुविधाएँ * मन्दिर के निकट ही नवनिर्मित 10 कमरों की सर्वसुविधायुक्त धर्मशाला है । यात्रियों को भाता दिया जाता है । शिघ्र ही भोजनशाला भी चालू करने की योजना है । । पेड़ी * श्री जैन श्वेताम्बर भण्डार, श्री कुण्डलपुर तीर्थ नालन्दा, पोस्ट : नालन्दा- 303111 जिला प्रान्त : बिहार, फोन : 06112-81624. - कुण्डलपुर श्री गौतम स्वामीजी का जन्म स्थान मन्दिर कुण्डलपुर 55 Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री राजगृही तीर्थ तीर्थाधिराज * विपुलाचल पर्वत :- श्री मुनिसुव्रतस्वामी भगवान, श्याम वर्ण, लगभग 45 सें. मी. (श्वेताम्बर मन्दिर) । श्री चन्द्रप्रभ भगवान, श्वेत वर्ण, लगभग 83 सें. मी. दिगम्बर मन्दिर) । रत्नगिरि पर्वत :- श्री चन्द्रप्रभ भगवान, श्वेत वर्ण, पद्मासनस्थ (श्वेताम्बर मन्दिर) श्री मुनिसुव्रतस्वामी भगवान, श्याम वर्ण, पद्मासनस्थ (दिगम्बर मन्दिर) । उदयगिरि पर्वत :- श्री पार्श्वनाथ भगवान, चरण पादुका, (श्वेताम्बर मन्दिर) | श्री महावीर भगवान, खड्गासन मुद्रा में, बादामी वर्ण, (दिगम्बर मन्दिर)। स्वर्णगिरि पर्वत :- श्री आदिनाथ भगवान, चरण पादुका, (श्वेताम्बर मन्दिर) श्री शान्तिनाथ भगवान, श्याम वर्ण, पद्मासनस्थ, (दिगम्बर मन्दिर)। वैभारगिरि पर्वत :- श्री मुनिसुव्रत स्वामी भगवान, श्वेत वर्ण, पद्मासनस्थ, (श्वेताम्बर मन्दिर)। श्री महावीर भगवान, पद्मासनस्थ, (दिगम्बर मन्दिर)। तीर्थ स्थल * राजगिरि गाँव के निकट पाँच पर्वतों पर। प्राचीनता * यहाँ की प्राचीनता का इतिहास बीसवें तीर्थंकर श्री मुनिसुव्रतस्वामी भगवान के समय से प्रारम्भ होता हैं । प्राचीन काल में इस नगरी को चरणकपुर, ऋषभपुर, कुशाग्रपुर, बसुमति, गिरिब्रज, क्षितिप्रतिष्ठ, पंचशैल आदि नामों से भी संबोधित किया जाता था । किसी समय इस नगरी में हरिवंशी सुमित्र नाम के राजा राज्य करते थे । उनकी पट्टरानी का नाम पद्मावती था । शुभानुशुभ योग से श्रावण पूर्णिमा के दिन महारानी ने तीर्थंकर जन्म सूचक महा स्वप्न देखे। उसी क्षण स्वर्ग से सुरश्रेष्ठ का जीव अपनी देवायुष्य पूर्ण करके माता की कुक्षी में प्रविष्ट हुआ । गर्भकाल समाप्त होने पर ज्येष्ठ कृष्णा नवमी के शुभ दिन पुत्र रत्न का जन्म हुआ । गर्भ काल में माता, मुनियों की तरह सुव्रता रही थी । इससे पुत्र का नाम श्री मुनिसुव्रत रखा । राजकुमार के यौवनावस्था को प्राप्त होने पर पिता ने उनका प्रभावती आदि अनेकों-कन्याओं के साथ विवाह किया । प्रभावती ने सुव्रत नामक पुत्र रत्न को जन्म दिया । राजा सुमित्र ने दीक्षा अंगीकार की । मुनिसुव्रत को राज्य भार संभलाया गया । कई काल तक राज्य सुख भोगते हुए एक दिन संसार को असार समझकर लोकान्तिक देवों की प्रार्थना से अपने पुत्र सुव्रत को राज्य भार संभलाकर वर्षीदान देते हुए फाल्गुन शुक्ला 12 को यहाँ के नलिगुहा नामक उद्यान में एक हजार राजाओं के साथ दीक्षा ग्रहण की। चिरकाल तक विहार करते हुए पुनः उसी उद्यान में आये व चंपा वृक्ष के नीचे कायोत्सर्ग ध्यान में रहते हुए फाल्गुन कृष्णा 12 के दिन केवलज्ञान प्राप्त किया। (दिगम्बर मान्यतानुसार प्रभु का जन्म आसोज शुक्ला द्वादशी, दीक्षा वैशाख कृष्णा दशमी व केवलज्ञान फाल्गुन कृष्णा षष्टी के दिन हुआ माना जाता है) इस प्रकार श्री मुनिसुव्रतस्वामी भगवान के चार कल्याणकों से यह भूमि पावन बन चुकी थी । इसी हरिवंश के अनेक राजाओं के बाद बृहद्रथ राजा हुआ व उनका पुत्र जरासंध पराक्रमी राजा हुआ । जरासंघ ने मथुरा के राजा श्री कंस के साथ अपनी पुत्री जीवयशा का विवाह किया था । प्रजा पर किये गये अत्याचारों के कारण कंस श्री कृष्ण के हार्थों मारा गया (कंस श्री कृष्ण का मामा था) इस पर जरासंध यादवों से रुष्ट हुआ । मथुरा पर बार-बार आक्रमण करने लगा । इन आक्रमणों से हैरान होकर जिनालयों का दृश्य - विपुलाचल पर्वत (राजगृही) 56 Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री मुनिसुव्रतस्वामी भगवान - श्वेताम्बर मन्दिर, विपुलाचल (राजगृही) यादवगण पश्चिम दिशा में जाकर द्वारिका नगरी अधिकार हुआ | श्री कृष्ण ने जरासंघ के पुत्र सहदेव बसाकर वहाँ रहने लगे । यादवों का क्षेत्र भी काफी को गिरिब्रज का राज्य भार सौंपा लेकिन गिरिब्रज का बढ़ चुका था। वैभव घटता गया । जरासंध ने यादवों से उसकी अधीनता स्वीकारने या राजा श्रेणिक प्रारम्भ से बुद्ध धर्मावलम्बी थे परन्तु युद्ध के लिये तैयार होने लिये आह्वान किया । इस पर वैशाली गणतंत्र के गणाधीश राजा चेटक की पुत्री दोनों फौजों में भीषण युद्ध हुआ । इसी युद्ध के समय चेलना के साथ विवाह करने के बाद जैन धर्म के श्री शंखेश्वर पार्श्वप्रभु की प्रतिमा का न्हवण जल सेना उपासक बनकर जैन-धर्म-प्रचार व प्रसार के पर छिड़काया गया, जिससे उपद्रव शांत हुआ । अन्त लिये अपनी अमूल्य शक्ति का उपयोग किया था । राजा में जरासंध मारा गया । इस काल में इस नगरी को श्रेणिक भगवान महावीर के प्रमुख श्रोता थे, भगवान गिरिब्रज कहते थे । गिरिब्रज पर श्री कृष्ण का के हर समवसरण में भाग लेते थे व शंका का Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधान करते थे। बड़े ही उदार शासक थे । इनके समय में सर्वधर्मों के गुरुओं ने राजगृही को अपने प्रचार का केन्द्र बनाया था । राजा श्रेणिक के राज्यकाल में पुनः यह नगरी अत्यन्त जाहोजलालीपूर्ण बन चुकी थी । उस समय यहाँ हजारों जैन श्रावकों के घर थे। महाराजा श्रेणिक के अभयकुमार, वारिषेण, नन्दीषेण, मेघकुमार व अजातशत्रु (जिसे कुणिक भी कहते हैं) आदि पुत्र थे। अभयकुमार, नन्दीषेण व वारिषेण ने दीक्षा ग्रहण कर ली थी । अजातशत्रु किसी धर्म नेता द्वारा भड़काये जाने के कारण अपने पिता श्रेणिक को कैद करके कारावास में रख दिया था । एक दिन बात ही बातों में अपनी इस भूल के कारण अत्यन्त दुखी हुए व पिता को रिहा करने दौड़े। श्रेणिक ने इसे दौड़ते आते देखा व समझा कि मारने आ रहा है जिससे खुद अपना सिर पत्थरों से टकराते हुए मृत्यु को प्राप्त हुए। अजातशत्रु को पश्चात्ताप हुआ । दुख सहन न होने के कारण मगघ छोड़कर अंग देश में नई चम्पानगरी को अपनी नई राजधानी बसाकर वहाँ रहने लगे । राजा श्रेणिक धर्मनिष्ठ व दयावान होने से उनके द्वारा किये गये शुभ कार्यों के कारण अत्यन्त दुर्लभ तीर्थकर गोत्र का उपार्जन हुआ। अतः श्री श्रेणिक राजा का जीव अगली चौबीसी में श्री पद्मनाभ नाम का पहला तीर्थंकर होगा ऐसा शास्त्रों में उल्लेख है । 58 जिनालयों का दृश्य रत्नगिरि (राजगृही) अजातशत्रु भी भगवान के अनुयायी ये अजातशत्रु के बाद उनके पुत्र उदयन गद्दी पर आये । जिन्होंने पाटलीपुत्र बसाया । श्रेणिक व अजातशत्रु के समय भगवान महावीर ने अनेकों बार इन पर्वतों पर विहार किया, जिनमें गुणशील चैत्य, वैभारगिरि पर्वत व विपुल गिरि पर्वत पर प्रभु का अनेकों बार आवागमन होने का उल्लेख मिलता है । उदयन के बाद कलिंग नरेश खारवेल ने चढ़ाई करके इस नगरी को अपने अधीन किया- ऐसा उल्लेख है। से पश्चात् मध्य काल में बौद्ध धर्म को राजाश्रय मिलने खूब फला-फूला । वि. की नवमी शताब्दी में कन्नौज के राजा आम ने इस पर चढ़ाई की परन्तु विजयी न हो सके । अन्त में उनके पौत्र भोजराजा ने अपने अधीन किया पश्चात् पुनः इस नगरी का । पतन हुआ । सं. 1364 में जिनप्रभसूरीश्वरजी द्वारा रचित "विविध तीर्थ कल्प" में इसका वर्णन है। विपुलगिरि पर्वत पर श्री मण्डन के पुत्र देवराज व वच्छराज द्वारा श्री पार्श्वनाथ भगवान का मन्दिर बनवाये जाने का सं. 1412 के एक प्रशस्ति में उल्लेख है। सं. 1504 में श्री शुभशील गणिवर्य द्वारा यहाँ अनेक जिनबिम्बों की प्रतिष्ठा करवाये जाने का उल्लेख है । सं. 1524 में श्रीमाल वंशज श्री जीतमलजी द्वारा वैभारगिरि पर्वत पर धन्ना, शालिभद्र की प्रतिमाएँ व ग्यारह गणधरों के चरण प्रतिष्ठित कराये जाने का उल्लेख है । सं. 1657 में श्री जयकीर्तिसूरि, सं. 1746 में श्री शीलविजयजी व उन्नीसवीं सदी में अमृतधर्मगणिजी द्वारा रचित तीर्थ मालाओं में इस तीर्थ के महत्ता की व्याख्या है । इनके अतिरिक्त भी अनेकों श्वेताम्बर व दिगम्बर साहित्यों में इस महान तीर्थ का उल्लेख है । आज तक अनेकों यात्री संघों का भी आवागमन हुआ है व आज भी चालू है । लेकिन आज इन तीर्थ स्थलों के सिवाय जैन बस्ती बिलकुल नहीं है । वर्तमान में जनसाधारण की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए अनेक कठिनाईयों को झेलकर भी वस्तुतः इसी ऐतिहासिक दृष्टि के परिपेक्ष्य में यहाँ वैभारगिरि की तलहटी में वीरायतन की योजना बनाई गई है । स्थानकवासी सम्प्रदाय के मुनि कवि अमरमुनिजी Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वारा इस योजना को स्वरूप दिया गया । साध्वी श्री चन्दनाजी मुख्य कार्यवाहिका है । वीरायतन का उद्देश्य स्वस्थ एवं रचनात्मक जीवन के विकास की व्यवस्था है। आरोग्य केन्द्र, गोसदन, पुस्तकालय, पढ़ाई व उद्योग केन्द्र की रूपरेखा है । विशिष्टता * बीसवें तीर्थंकर श्री मुनिसुव्रत स्वामी भगवान के चार कल्याणक इस पावन भूमि में हुए । पराक्रमी, जग विख्यात, दयावान, धर्मनिष्ठ, भगवान महावीर के मुख्य श्रोता, मगधपति श्री श्रेणिक महाराजा यहाँ हुए जिन्होंने अपने शुभ कार्यों से तीर्थंकर गौत्र उपार्जन किया, जो भावी चौबीसी के प्रथम तीर्थंकर श्री पद्मनाभ स्वामी होंगे-ऐसा शास्त्रों में उल्लेख है । भगवान महावीर के ग्यारह गणधर भी यहीं वैभारगिरि से मोक्ष सिधारे । इनमें नव गणधर भगवान महावीर के समय ही मोक्ष सिधार चुके थे व गौतम स्वामीजी एवं सुधर्मास्वामीजी भगवान के निर्वाण के बाद मोक्ष सिधारे । दिगम्बर मान्यतानुसार भगवान महावीर ने केवलज्ञान के पश्चात् श्रावण कृष्णा प्रतिपदा के दिन प्रथम देशना यहीं विपुलगिरि पर्वत पर दी थी । इन्द्रभूति श्री गौतमस्वामी प्रथम देशना से प्रभावित होकर यहीं प्रथम गणधर बने । (श्वेताम्बर मान्यतानुसार पावापुरी में प्रथम देशना हुई थी)। ___ भगवान महावीर के चौदह चातुर्मास इस पावन भूमि में हुए । उस काल में प्रभु की अमृतमयी वाणी से अनेक भव्य आत्माओं का कल्याण हुआ जो अवर्णनीय है । __ श्री मेतार्य, अर्हभुता, धन्ना, शालिभद्र, श्री मेघकुमार, श्री चन्द्रप्रम भगवान - श्वेताम्बर मन्दिर, रत्नगिरि (राजगृही) श्री अभयकुमार, श्री नन्दीषेण, श्री अर्जुनमाली, श्री कयवन्नासेठ, श्री जम्बूस्वामी, श्री प्रभाष, श्री शय्यंभवसूरि, पुणिया श्रावक आदि महान पुण्य आत्माओं की भी यही जन्मभूमि है, जिनके कार्य की अमर गाथाएँ आज भी तलहटी की धर्मशाला से चलकर कुछ दूर जाने पर जन-जन में गाई जाती है । भगवान बुद्ध का भी यही । गर्म जल के कुण्ड आते हैं । यहाँ से कुछ आगे चलने खास स्थान रहा । यहाँ के वैभारगिरि की सप्तपर्णी पर प्रथम विपुलगिरि पर्वत की चढ़ाई प्रारम्भ होती है। गुफा में बौद्ध साधुओं का प्रथम सम्मेलन हुआ था लगभग 2/2 कि. मी. और चलने पर इस विपुलगिरि जिसे प्रथम संगीति कहते हैं। पर्वत की ट्रॅक आती है । दिगम्बर मान्यतानुसार इन कारणों से यहाँ के पाँचों पर्वतों का एक-एक भगवान महावीर की प्रथम देशना यहाँ हुई थी । इस कण महान पवित्र है । ऐसे पवित्र स्थान की कम से पर्वत पर श्वेताम्बर व दिगम्बर मन्दिर हैं । एक और कम जिन्दगी में एक बार यात्रा करने से वंछित न रहें। विशाल दिगम्बर मन्दिर भगवान महावीर की प्रथम आइये हम भी इस यात्रा का स्मरण कर लें । देशना स्मारक स्वरूप बना हुवा हैं । Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री पार्श्वनाथ भगवान, चरण पादुका - श्वेताम्बर मन्दिर - उदयगिरि (राजगृही) चढ़ाई कठिन व लगभग 1/2 कि. मी. है । सीढ़ियाँ बनी हुई हैं । यहाँ भी श्वेताम्बर व दिगम्बर मन्दिर बने हुए हैं । उसी मार्ग से वापस उतरना पड़ता है । उतरने पर जलपानगृह बने हुए हैं । बाई और पर्वत के चरणों को धोती हुई फल्गु नदी बहती है । यहाँ से धर्मशाला लगभग 17 कि. मी. हैं । धर्मशाला से चौथे पर्वत स्वर्णगिरि की तलेटी (श्रमणगिरि भी कहते हैं) लगभग 5 कि. मी. है । चढ़ाई लगभग 2 कि. मी. है । सीढ़ियाँ बनी हुई हैं । इस पर्वत पर भी श्वेताम्बर व दिगम्बर मन्दिर बने हुए हैं । यहाँ से लगभग 2 कि. मी. दूर जरासंध का अखाडा है । आगे बढ़ने पर पाँचवें पर्वत वैभारगिरि की चढ़ाई प्रारम्भ होती है । कुल सीढ़िया 565 हैं । पर्वत पर श्वेताम्बर व दिगम्बर मन्दिर हैं । बांची और कुछ दूर श्री शालिभद्र का मन्दिर है । भगवान महावीर के ग्यारह गणधर यही से मोक्ष सिधारे थे । इस मन्दिर के एक तरफ एक भग्न जैन मन्दिर हैं। इसमें अनेक प्राचीन तथा अति कलात्मक प्रतिमाएँ है। यह मन्दिर आठवीं सदी का माना जाता है । आगे जाने पर सप्तपर्णी गुफा है । कहा जाता है बौद्ध भिक्षुओं का प्रथम सम्मेलन यहाँ हुआ था । पहाड़ की पूर्वी टलान पर एक पत्थर का मकान है जो जरासंध की बैठक माना जाता है । इस पर्वत के दक्षिणी ढलान पर दो गुफाएँ हैं । एक पश्चिम की ओर व दूसरी पूर्व की ओर । पश्चिम गुफा में दिवार पर प्राचीन शिलालेख उत्कीर्ण हैं जो तीसरी चौथी शताब्दी के बताये जाते हैं। पहले इस गुफा में एक चतुर्मुखी प्रतिमा थी। इस गुफा के संबध में एक जिनालयों का दृश्य - उदयगिरि (राजगृही) इस प्रथम पर्वत से लगभग 1/2 कि. मी. उतरने व 1/2 कि. मी. पुनः चढ़ने पर द्वितीय रत्नगिरि पर्वत आता है । पहले पर्वत से दूसरे पर्वत का रास्ता इतना सुलभ नहीं है । इस रत्नगिरि पर्वत पर भी श्वेताम्बर व दिगम्बर मन्दिर बने हुए हैं । इस रत्नगिरि के सामने गृध्रकूट पर्वत पर बुद्ध भगवान का विशाल मन्दिर है । कहा जाता है भगवान बुद्ध अनेकों बार इस पर्वत पर आये थे व उनकी देशना हुई । इस रत्नगिरि पर्वत से 2 कि. मी. पर गया-पटना रोड़ मिलती है । फिर एक कि. मी. जाने पर तीसरे उदयगिरि पर्वत की चढ़ाई प्रारम्भ होती है। 60 Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आदिनाथ भगवान, चरण पादुका, श्वेताम्बर मन्दिर - स्वर्णगिरि (राजगृही) किंवदन्ति यह भी है कि गुफा में राजा श्रेणिक का स्वर्णकोष छिपा हुआ है । इसलिए इस गुफा का नाम स्वर्णभन्डार चला आ रहा है। दूसरी पूर्व की गुफा में दीवारों पर प्रतिमाएँ अंकित हैं। ये गुफाएँ तीसरी शताब्दी की मानी जाती हैं। पर्वत से उतरने पर गरम जल के कुण्ड है, जिन्हें ब्रह्मकुण्ड कहते हैं । यहाँ से धर्मशाला लगभग 3 कि. मी. दूर है। अन्य मन्दिर * पर्वतों की तलहटी राजगिर गाँव में श्वेताम्बर व दिगम्बर मन्दिर हैं । पाँचों पहाड़ों पर ऊपर वर्णित मन्दिर हैं । पाँचवें पर्वत वैभारगिरि पर एक भग्न मन्दिर है जिसमें अनेक प्राचीन कलात्मक जिन प्रतिमाएँ हैं । भग्न मन्दिर की सारी प्रतिमाएँ वर्तमान में अपूजित हैं व पुरातत्व विभाग के अधीन है। यह मन्दिर आठवीं सदी का माना जाता है । कला और सौन्दर्य *तलहटी में स्थित श्वेताम्बर व दिगम्बर मन्दिरों में प्राचीन प्रतिमाओं की कला अति दर्शनीय है । प्रायः पहाड़ पर की प्राचीन प्रतिमाएँ यहाँ लाकर स्थापित की गई है । पाँचवें पहाड़ पर भग्न मन्दिर की प्रतिमाओं की कला अति ही दर्शनीय है । इनके अतिरिक्त मणियार मठ है (जिसे निर्माल्य कुप भी कहते हैं) कहा जाता है ऋद्धि-संपन्न श्रेष्ठी श्री शालिभद्रजी के पितामह देवलोक से हमेशा पुत्र व बत्तीस पुत्र वध गुओ के लिए भोजन, वस्त्र व अलंकार की तेंतीस-तेंतीस पेटियाँ भेजते थे । जिन्हें हमेशा उनयोग करके इस कुप में फेंक दिया जाता था । श्रेणिक (बिम्बसार) बन्दीगृह, जो मणियार मठ से एक कि. मी. है वहाँ अजातशत्रु ने अपने पिता श्रेणिक को बन्दी बनाकर रखा था । गर्म जल के कुण्ड अति प्राचीन हैं जिनका वर्णन कर दिया गया है । जरासंध की बैठक सप्तपर्णी गुफा आदि देखने योग्य है। मार्ग दर्शन यहाँ का रेलवे स्टेशन राजगिर तलहटी धर्मशालाओं से 2 कि. मी. है । यहाँ का बस स्टेण्ड तलहटी धर्मशालाओं से सिर्फ 7 कि. मी. है। गाँव में टेक्शी व आटो रिक्शों का साधन है । पटना से सड़क तथा रेल द्वारा 100 कि. मी. गया से सड़क द्वारा 65 कि. मी. व बख्तियारपुर से सड़क तथा रेल द्वारा 50 कि. मी दूर हैं । सुविधाएँ * ठहरने के लिये तलहटी में श्वेताम्बर व दिगम्बर सर्वसुविधायुक्त विशाल धर्मशालाएँ है । जिनालयों का दृश्य - स्वर्णगिरि (राजगृही) Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री मुनिसुव्रत स्वामी भगवान - वैभारगिरि श्वेताम्बर मन्दिर (राजगृही) जिनालयों का दृश्य - वैभारगिरि पर्वत (राजगृही) पहाड़ों पर मन्दिरों में पानी की सुविधा है । पाँचों पर्वतोंकी यात्रा दो दिनों में करना सुविधाजनक हैं । पहाड़ो की यात्रा प्रातः शीध्र प्रारम्भ करना आवश्यक है। अन्यथा तकलीफ महसूस होगी । पेढ़ी *1. श्री जैन श्वेताम्बर भण्डार, पोस्ट : राजगिरी-830116. जिला : नालन्दा, प्रान्त : बिहार, फोन : 06112 - 55220. 2. श्री दिगम्बर जैन सिद्धक्षेत्र, पोस्ट : राजगिरी-830 116. फोन : 06112-55235. GOOD Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सुविधिनाथ भगवान प्राचीन चरण (श्वे.) - काकन्दी श्री काकन्दी तीर्थ तीर्थाधिराज * श्री सुविधिनाथ भगवान, चरण पादुका श्यामवर्ण, लगभग 18 सें. मी. (प्राचीन चरण) श्री सुविधिनाथ भगवान, श्वेत वर्ण, पद्मासनस्थ वर्तमान मूलनायक (श्वे. मन्दिर) । तीर्थ स्थल काकन्दी गाँव के मध्य । प्राचीनता * यहाँ की प्राचीनता का इतिहास नवमें तीर्थंकर श्री सुविधिनाथ भगवान से प्रारम्भ होता है । श्वेताम्बर मान्यतानुसार भगवान श्री सुविधिनाथ के चार कल्याणक (च्यवन, जन्म, दीक्षा व केवलज्ञान) इस पावन भूमि मे हुए । सुविधिनाथ भगवान को पुष्पदन्त भी कहते हैं । एक समय राजा सुग्रीव यहाँ राज्य करते थे । उनकी रानी का नाम रामा देवी था । पुण्य योग से रानी ने फाल्गुन कृष्णा 9 के दिन मूला नक्षत्र में तीर्थंकर जन्म सूचक महा स्वप्न देखे । उसी क्षण श्री महापद्म का जीव अपने पूर्व के दो भव पूर्ण करके रानी की कुक्षी में प्रविष्ट हुआ । क्रमशः गर्भ का समय पूर्ण होने पर मार्गशीर्ष कृष्णा 5 के शुभ दिन मूला नक्षत्र में मगर चिह्वयुक्त पुत्र रत्न का जन्म हुआ। गर्भ समय में माता सब विधियों मे कुशल हुई थी श्री सुविधिनाथ जिनालय (श्वे.) - काकन्दी Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री पार्श्वनाथ भगवान - काकन्दी इसलिए उनका नाम सुविधिनाथ एवँ गर्भ समय मे माता को पुष्प का दोहला हुआ था इससे उनका नाम पुष्पदन्त भी रखा गया । इन्द्रादिदेवों व ग्रामवासियों ने कल्याणक दिवस अति ही आनन्दपूर्वक मनाये । राज दरबार में भी बधाइयाँ बँटने लगीं । | यूवा होने पर पिता के आग्रह से प्रभु ने राज्यकन्याओं के साथ विवाह किये कई वर्ष तक प्रभु ने राज्य भार संभाला । इनके राज्य काल में जनता आनन्द विभोर थी । एक दिन प्रभु ने संसार को असार समझकर लोकान्तिक देवों की विनती से वर्षीदान देते हुए सहसाम्र वन में एक हजार अन्य राजाओं के संग मार्गशीर्ष कृष्णा 6 के दिन दीक्षा अंगीकार की । प्रभु विहार करते हुए चार माह पश्चात् उसी उद्यान में पुनः आये व मालूर वृक्ष के नीचे कायोत्सर्ग मे रहते हुए कार्तिक शुक्ला 3 मूला नक्षत्र में केवलज्ञान पाया । (एक और मतानुसार नोनसार स्टेशन से 3 कि. मी. 64 दूर स्थित खुखुन्दग्राम ही काकन्दी है जहाँ प्रभु के कल्याणक हुए) । विशिष्टता * वर्तमान चौबीसी के नवमें तीर्थंकर श्री सुविधिनाथ भगवान (पुष्पदन्त) के चार कल्याणक (च्यवन, जन्म, दीक्षा, केवलज्ञान) होने का सौभाग्य इस पावन भूमि को मिलने के कारण यहाँ का कण-कण पवित्र व वन्दनीय है । जहाँ प्रभु ने जन्म से लेकर दीक्षा तक अपने जीवन का अमूल्य समय बिताया हो, जहाँ प्रभु ने केवलज्ञान पाकर प्रथम देशना दी हो, जहाँ प्रभु के मुखारबिन्द से अमृत रूपी वाणी सुनकर अनेकों भव्य आत्माओं ने अपना अमूल्य मानव भव सफल बनाया हो ऐसी पूण्य व पावन भूमि का किन शब्दों में वर्णन किया जाय। आज भी वे शुद्ध व निर्मल परमाणु यात्रिओं को भाव विभोर कर देते हैं जिससे यात्रीगण प्रभु की भक्ति में लीन होकर महा पुण्योपार्जन कर अपने को धन्य समझते हैं । अन्य मन्दिर • वर्तमान में इसके अतिरिक्त कोई मन्दिर नहीं हैं । इसी मन्दिर में श्री पार्श्वनाथ भगवान की प्राचीन श्याम वर्ण प्रतिमा मूलनायक स्थान पर चरण पादुका के पास विराजमान हैं । कला और सौन्दर्य मन्दिर के जीर्णोद्धार का कार्य पूरा हो चुका है। इस कार्य में कलकत्ता निवासी श्री कनैयालालजी वैद की निःस्वार्थ सेवा सराहनीय है। मन्दिर में स्थित पार्श्वप्रभु की प्राचीन प्रतिमा अति ही कलात्मक है । मार्ग दर्शन * नजदीक के रेलवे स्टेशन कियूल 19 कि. मी., जमुई 19 कि. मी., लखीसराय 20 कि. मी. व पटना लगभग 125 कि. मी. है। इन स्थानों से बस व टेक्सी का साधन है । गाँव का बस स्टेशन 11⁄2 कि. मी. दूर है। कार व छोटी बस मन्दिर तक जा सकती है । रास्ता तंग होने के कारण बड़ी बस को लगभग 14 कि. मी. दूर ठहराना पड़ता है। सुविधाएँ * ठहरने के लिए मन्दिर के अहाते में ही धर्मशाला है, जहाँ बिजली, पानी की सुविधा है। पेढ़ी * श्री जैन श्वेताम्बर सोसायटी, तीर्थ का पोस्ट : दण्ढ - 811311. व्हाया : लखीसराय, जिला: मूंगेर, प्रान्त: बिहार, Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ મા સધાઇ રહીયો છે માતાના મટીલિયર્નીિય નેતન ધાગા કરનાર * નાઈરોનિક શા. ધીમમાં જનમ નરમશd કયા કમાઇના દો કાનાણીને પ્રાધામ શામીન સમિતિ નામ છે પરિવાર વિનાસિ વ પંડૅિવી- સુલ શ્વક રાવનારાજ (બિનમીમની કિંમ નં- ૨ષ - ક્રિશ્ન મહીશ્વર ધારિયાધેિ મને મારી વિનયશયનીમ્પલ છે. રામ નાં પિન પરીક્ષ.પક્ષે ગામમિને સાક્ત મનમાં ને મને ૬ ને રાતના બાકી જ સીમા : હિ શકુમ श्री सुविधिनाथ भगवान - काकन्दी Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री पाटलीपुत्र तीर्थ तीर्थाधिराज * श्री विशालनाथ स्वामी, पद्मासनस्थ, श्वेत वर्ण लगभग 60 सें. मी. बीसविहरमान । भगवान में (श्वे. मन्दिर ) | तीर्थ स्थल प्राचीनता पटना शहर के मध्य बाडा गली में। आज का पटना शहर प्राचीन काल में आदि नाम से प्रचलित था। राजा कुसुमपुर, पुष्पपुर श्रेणिक के पौत्र श्री उदयन ने अपने पिता श्री (कुणिक) अजातशत्रु के स्वर्गवासी होने के पश्चात् वि. सं. पूर्व 444 वर्ष के लगभग यह शहर बसाया था ऐसा उल्लेख है। (एक और मत यह भी है कि यह नगरी मर्यादा पुरुषोतम रामचन्द्रजी के काल के पूर्व ही बस चुकी थी) राजा उदयन जैन धर्म के अनुयायी ये । यह मगध देश की राजधानी थी । राजा उदयन ने यहाँ जिन मन्दिर, गजशाला, अश्वशाला, औषधशाला पौशधशाला, सत्रशाला आदि का निर्माण करवाया था । यह एक विराट नगरी बन चुकी थी । उदयन को अजय, उदासी, उदायी आदि नामों से भी संबोधित किया जाता था । राजा उदयन के पश्चात् यहाँ की राज्यसत्ता राजा महापद्मनन्द के हाथ आई । राजा महापद्मनन्द भी जैन धर्मावलम्बी थे । इनके काल में यहाँ जैन धर्म का खूब विकास हुआ । राजा महापद्मनन्द कलिंग पर चढ़ाई करके जो जिन प्रतिमा यहाँ लेकर आये थे वह कई वर्षों तक यहाँ रही । पश्चात् राजा श्री खारवेल मगध को पराजित कर वह प्रतिमा पुनः कलिंग लेकर गये जिसका वर्णन खण्डगिरि उदयगिरि की हाथी - गुफा के शिलालेख में उत्कीर्ण है । राजा महापद्मनन्द के काल में अन्तिम केवली श्री जंबुस्वामी के शिष्य श्री यशोभद्रसूरीश्वरजी हुए जिनका जन्म यहीं हुआ था। उनके शिष्य श्री संभूतिविजयजी व श्री भद्रबाहुस्वामी भी यहीं हुए । राजा महापद्मनन्द के मंत्री शकटाल व वररुची ये मंत्री शकटाल के पुत्र स्युलिभद्र व श्रीयक थे । स्यूलिभद्र में विनयादि गुण तो थे ही साथ ही उनकी बुद्धि बड़ी तीक्ष्ण थी । परन्तु इनका मन विषय वासना में लगा रहता था। वे इसी शहर में राज्य - नर्तकी I 66 कोशी के वहाँ प्रायः रहा करते थे। एक दिन संसार को असार समझकर मुनि श्री संभूतिविजयजी के पास दीक्षा ग्रहण की परम्परा अनुसार सब साधुओं ने आचार्य भगवंत से चातुर्मास बिताने के लिए विभिन्न जगह जाने की अनुमति मांगी मुनि श्री स्थूलिभद्रजी ने राज्य नर्तकी कौशी वेश्या के वहाँ चातुर्मास करने की अनुमति मांगी । उसी भाँति अनुमति दी गई । स्युलिभद्रमुनि यहाँ पर स्थित गुलजारबाग के निकट कौशी वेश्या के चित्रशाला में चातुर्मास तक रहने के लिये गये । कौशी वेश्या इन्हें देखकर अत्यन्त खुश हुई, परन्तु श्री स्थूलिभद्रमुनि की यह शर्त थी कि हर वक्त वह तीन हाथ दूर रहेगी । कौशी ने सहर्ष मंजूरी दी व इस काल में अनेकों प्रकार के हावभाव से डिगाना चाहा । लेकिन मुनिवर किंचित मात्र भी न डिग पाये । यह थी इनकी धर्मवीरता । कितना था आत्मबल इनमें ! कौशी शर्मिन्दा हुई । पश्चात् श्राविका बनकर ब्रह्मचर्य आदि बारह व्रत धारण किये । चातुर्मास व्यतीत कर सब मुनिगण आचार्य श्री के पास गये। आचार्य श्री ने सब मुनियों के आगमन पर आशन पर बैठे-बैठे ही उनका स्वागत किया परन्तु मुनि स्थूलभद्रजी के आने पर प्रफुल्लता के साथ उठकर गले लगाया व कहा कि महा दुष्कर कार्य किया है । उन्होंने और भी अनेकों कार्य किये जो चिरस्मरणीय हैं । राजा महापद्मनन्द के पश्चात् यहाँ की सत्ता मर्य वंश के हाथ गई व चन्द्रगुप्त राजा बने । कहा जाता है कि जब 12 वर्ष का भयंकर दुष्काल पड़ा तब भद्रबाहु स्वामी आदि हजारों मुनिगणों ने दक्षिण की तरफ जाकर श्रवणबेलगोला में चन्द्रगिरि पर्वत पर निवास किया था। उस समय पाटलीपुत्र के तत्कालीन राजा चन्द्रगुप्त भी साथ थे । आर्य श्री स्थूलिभद्रजी ने भी भद्रबाहुस्वामीजी के पास रहकर दस पूर्वज्ञान का अभ्यास किया था । यहाँ पड़े 12 वर्ष दुष्काल के समय जैन आगमों को कंठस्थ रखने की परम्परा विच्छिन्न होती आ रही थी । उस समय श्रुतधर आर्य श्री स्थूलिभद्रजी ने जैन श्रमण संघ को यहाँ इकठ्ठा कर आगमों की वाचना एकत्रित करके व्यारह अंग सुव्यवस्थित किये यह पहली आगम वाचना मानी जाती है । (दिगम्बर मान्यता है कि भद्रबाहु स्वामी ने अकाल के समय 12000 साधुओं के साथ दक्षिण प्रान्त में चन्द्रगिरि पर्वत पर विश्राम Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवा श्री आगरावासबाउसबानेजातीय । लोगालावरुषलवासलातुर PRAश्रा करपालनमानसाविापसतसःस्थ राजसण्रुपचदचाउननसचनपालादयुतिश्रीमदत्तल OalualishalAaunu सागर मदेशनावानबाविसालजिन श्री विशालनाथ स्वामी भगवान जनश्वेताम्बर मन्दिर श्री विशालनाथ स्वामी मन्दिर दृश्य Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साNe विसरमा सन् लतमा हेकासचिव लान्यासका अश्वनी तासा नालि व्यरिणादेव ततेपी रितःपति तधनवाव भी यहाँ कायम है । यह भी मत है कि सेठ सुदर्शन को यहीं सूली पर चढ़ाया था जो महामंत्र नवकार के प्रभाव से सिंहासन हो गया था । चम्पापुरी व राजगृही के बाद मगधदेश की राजधानी यहाँ रही । श्रुतधारी आर्य स्थूलिभद्रजी का जन्म व स्वर्गवास इस पावनभूमि में हुआ । आर्य श्री का कौशी वैश्या के वहाँ हुआ चातुर्मास उल्लेखनीय है । आज भी उस जगह स्मारक बने हुए हैं जो उनके आत्मबल की याद दिलाते हैं । ____ आर्यरक्षितसूरिजी ने यहाँ रहकर जैन साहित्य को कथानुयोग, चरणकरणानुयोगा द्रव्यानुयोग व गणितानुयोग इस प्रकार चार अनुयोगों में विभाजन किया था । वाचकवर्य श्री उमास्वातिजी ने यहीं पर 'तत्वार्थसूत्र' की रचना की थी । आचार्य श्री पादलिप्तसूरिजी ने राजा मुरुण्ड के शिर के रोग को दूर करके जैन धर्मावलम्बी आर्य स्थूलभद्र स्वामीजी चरण - गुलजारबाग किया था । अंत तक वहीं रहे थे । उनका यह भी मत है कि आर्य स्थूलिभद्रस्वामीजी के समय से ही श्वेताम्बर व दिगम्बर दो भेद हुए जो बाद में अलग संप्रदाय बने) आर्य स्थूलिभद्रस्वामी ई. सं. पूर्व 311 में यहीं पर स्वर्ग सिधारे । तत्पश्चात् मौर्यकाल में सम्राट श्री संप्रति प्रतिबोधक आर्य श्री सुहस्तिसूरिजी, विक्रम की पहली सदी में आचार्य श्री वजस्वामी, आर्य श्री रक्षितसूरि, आचार्य श्री उमास्वाती, दूसरी शताब्दी में पादलिप्तसूरि आदि प्रकाण्ड आचार्यगणों ने भी यहाँ पदार्पण करके धर्म प्रभावना के अनेकों कार्य किये है । ___ पता चलता है कि लगभग सातवीं सदी तक यहाँ जैनों की अच्छी जाहोजलाली रही । बाद में यह शहर छोटे से गाँव में परिवर्तित हो गया था । विक्रम की सत्रहवीं सदी में आगरा से कुंवरपाल व सोनपाल बंधुगण संघ लेकर यहाँ आये उस समय यहाँ महतीहण जाति के जैन रहते थे । अठारहवीं सदी में बादशाह जहाँगीर के जवेरी हीराचन्द यहाँ रहते थे । जिन्होंने एक मन्दिर व दादावाड़ी का निर्माण करवाया था । उस प्राचीन नगर को आज पुनः बिहार की राजधानी रहने का सौभाग्य मिला है । विशिष्टता * इस नगर की स्थापना राजा उदयन ने की थी पश्चात् महापद्मनन्द, चन्द्रगुप्त आदि पराक्रमी राजा हुए । ये सारे राजा जैन धर्मावलम्बी थे । सेठ सुदर्शन यहीं पर स्वर्ग सिधारे । इनका स्मारक अभी साधनास्थल HUICHUIGIGT मंगलम् स्थलिभद्राधा, जैन धोक्ताला आर्य स्थुलिभद्र स्वामी मन्दिर - गुलजारबाग 68 Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बनाया था । श्रुतधारी आर्य श्री स्थूलिभद्रजी ने यहीं जैन आगमों की वाचना करवाकर ग्यारह अंगों में सुव्यवस्थित किया था । यह पहली वाचना मानी जाती है । अन्य मन्दिर * वर्तमान में इस मन्दिर के अतिरिक्त एक श्वेताम्बर मन्दिर, पाँच दिगम्बर मन्दिर एक दादावाड़ी व गुलजारबाग तालाब के किनारे सुदर्शन सेठ स्मारक व आर्य स्थूलिभद्रजी के स्मारक बने हुए हैं । जो दर्शनीय है । कला और सौन्दर्य * इसी मन्दिर में श्री पार्श्वनाथ भगवान की एक प्राचीन प्रतिमा अति ही मनोरम है । दिगम्बर मन्दिर में भी प्रतिमाएँ अति ही सुन्दर दर्शनीय यहाँ के स्टेट म्यूजियम, जालान संग्रहालय व कानोडिया संग्रहालय में अनेक प्राचीन जिन प्रतिमाएँ दर्शनीय हैं । मार्ग दर्शन * पटना सिटी रेलवे स्टेशन से यह मन्दिर 12 कि. मी. हैं । मन्दिर से 14 कि. मी. दूरी तक कार व बस जा सकती है । गाँव में टेक्सी व आटों का साधन है । गुलजारबाग में स्थित सुदर्शन सेठ सुदर्शन के चरण - गुलजार बाग सेठ व स्थूलिभद्रजी की प्राचीन स्मारिकाएँ पटना सिटी से लगभग 172 कि. मी. दूर हैं । सुविधाएँ * वर्तमान में यहाँ ठहरने के लिए मन्दिर के प्रांगण में धर्मशाला है जहाँ, बिजली पानी की सविधा है। पेढ़ी * श्री पटना ग्रुप आफ जैन श्वेताम्बर टेम्पल कमेटी । बाडा गली, झाऊगंज । पोस्ट : पटनासिटी - 800008. प्रान्त : बिहार, फोन : 0612-645777. Vी . कमजोर पास निकट सेठ सुदर्शन स्वर्गस्थल - गुलजारबाग Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री वैशाली तीर्थ तीर्थाधिराज * श्री महावीर भगवान, श्याम वर्ण, पद्मासनस्थ, लगभग 38 सें. मी. (दि. मन्दिर)। तीर्थ स्थल * वैशाली गाँव के बाहर लगभग 172 कि. मी. दूर । प्राचीनता * कहा जाता है कि वैशाली की स्थापना इक्ष्वाकु और अलम्बुषा के पुत्र विशाल राजा ने की थी । यह भी मत है कि कई गाँवों को सम्मिलित करके इसे विशाल रूप दिया गया जिससे इसका नाम वैशाली पड़ा । आजकल यह स्थान बसाढ़ नामक गाँव से भी पहिचाना जाता है । यहाँ की प्राचीनता का इतिहास अति ही प्रभावशाली एवं गौरवशाली तो है ही, भगवान महावीर से सम्बन्धित होने के कारण और भी पवित्र हो गया है। सिद्धार्थ था । यहाँ के राजा चेटक श्वेताम्बर मान्यतानुसार त्रिशला माता के भाई थे व दिगम्बर मान्यतानुसार पिता थे । राजा चेटक जैन धर्मावलम्बी थे और श्री पार्श्वनाथ भगवान के अनुयायी थे । श्वेताम्बर मान्यतानुसार राजा चेटक के सात पुत्रियाँ थीं । पहली पुत्री प्रभावती सौवीर के जैन राजा उदयन के साथ ब्याही गयी थी । द्वितीय पुत्री पद्मावती अंग नरेश दधिवाहन के साथ, तीसरी शिवदेवी अवन्ति नरेश चण्डप्रद्योत के साथ, और ज्येष्ठ श्री महावीर के भ्राता श्री नन्दीवर्धन के साथ ब्याही थी, चेल्लना मगध के राजा श्री श्रेणिक की पटरानी थी तथा सुज्येष्ठा अपरिणित रही । मृगावती कौशाम्बी के राजा शतानीक के साथ ब्याही थी । ये सारे राजा जैनी थे । श्रेणिक राजा बौद्ध धर्म का अनुयायी था परन्तु चेल्लना से प्रेरणा पाकर वह भी जैन धर्म का अनुयायी बन चुका था । दिगम्बर मान्यतानसार चेटक की सात पत्रियाँ और दस पुत्र बताये गये हैं । पुत्रियों के नामों में भी कुछ भिन्नता है । कहा जाता है कि जनकवंश के अन्तिम राजा कलार को जनता ने उसके दुराचार के कारण मार डाला था दिगम्बरों की एक मान्यतानुसार प्रभ महावीर के तीन कल्याणक-च्यवन, जन्म व दीक्षा यहाँ हए । प्रभु की माता का नाम त्रिशला व पिता का नाम राजा श्री महावीर भगवान जिनालय - वैशाली 70 Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तथा निश्चिय किया था कि भविष्य में विदेह में जनता का अपना राज्य हो । इस निश्चिय स्वरूप जनता ने इक्ष्वाकु वंशी, ज्ञातृवंशी, भोगवंशी, कोरवंशी, उग्रवंशी, लिच्छिवीवंशी तथा विदेहवंशी आदि अष्ट कुल राजाओं को लेकर वज्जी संघ की स्थापना की तथा शासन व्यवस्था, न्याय व्यवस्था आदि के लिये विधान बनाये। राजा चेटक को इस संघ का राजप्रमुख बनाया गया । यह घटना प्रभु वीर और बुद्ध के पूर्व काल की मानी जाती है । इस संघ के निकट ही मल्लगण संघ और काशीकोल गण संघ थे । इन तीनों में पारस्परिक मैत्री संधि हो चुकी थी । विशालभूति और रोहक क्रमशः कासीकोल संघ तथा मल्लगण के गणपति थे । वज्जीसंघ द्वारा बनाये गये विधान के अनुसार प्रजा पर किसी प्रकार का कर नहीं था। पुराने कर भी समाप्त कर दिये गये थे । उस समय वैशाली एक अत्यन्त समृद्ध नगरी थी। लिच्छिवी वंशियों का यहाँ विशेष प्रभाव था ये ज्ञात्वंशी क्षत्रिय माने जाते थे । ये लोग सुन्दर, स्वाभिमानी, उदार, विनयी, शौकिन, फेशन परस्त थे, तथा इन्हें चैत्य और उद्यान बनाने का विशेष शौक था। उनमें अपना अपराध स्वीकार करने का नैतिक साहस था । आपस में प्रेम व सहानुभुति थी । ये लोग भगवान महावीर के प्रति अटूट श्रद्धा रखते हुए भी बुद्ध, मक्खली पुत्र गोशल, संजवबेलाडि पुत्र आदि अन्य मतावलंबियों का भी समान आदर करते थे। बौद्ध ग्रन्थों के आधार पर इस वज्जीसंघ के गणराज्य का विस्तार लगभग 2300 वर्गमील में फैल चुका था । इस संघ की राजधानी यह वैशाली थी । इतिहास से पता चलता है कि मगध नरेश श्रेणिक को वैशाली गणराज्य से बुरी तरह पराजित होना पड़ा था । काल का चक्र बदला । श्रेणिक के पुत्र अजातशत्रु ने वैशाली संघ में फूट डालकर उस पर चढ़ाई की । लाखों व्यक्तियों का संहार हुआ तथा प्रतापी राजा चेटक भी रण क्षेत्र में मृत्यु को प्राप्त हुआ । इस प्रकार वैशाली का वैभव समाप्त हुआ । अजातशत्रु के पुत्र उदयन के राजगद्दी पर आने के बाद वैशाली पुनः स्वतंत्र हुई । उदयन के बाद मगध देश की राजसत्ता राजा महापद्मनन्द के पास गई। राजा महापद्मनन्द भी जैनी थे। इसके पश्चात् श्री महावीर भगवान वैशाली लिच्छिवियों की सहायता से चन्द्रगुप्त ने मगध का राज्य प्राप्त किया । चन्द्रगुप्त को लिच्छिवी कुल की कन्या कुमारदेवी ब्याही गई । चन्द्रगुप्त के बाद समुद्रगुप्त राजा हुआ । उसने अनेक राज्यों को पराजित कर चक्रवर्ती का विरुद धारण किया था । अपने पिता के नाम पर स्वर्ण मुद्राएँ चलाई जिनमें एक 71 Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और चन्द्रगुप्त व कुमारदेवी की दूसरी ओर लक्ष्मी की मूर्ति अंकित की गई थी । आज भी अनेक ऐसे प्राचीन सिक्के मिलते हैं जो गुप्त कालीन माने जाते है । समुद्रगुप्त ने भी वैशाली को बरबाद कर दिया । वह खण्डहर और मलवे का ढेर बन गई जो आज तक पुनः आबाद न हो पाई । आज भी अनेक प्राचीन खण्डहर पाये जाते है । वर्तमान में इस मन्दिर की मूलनायक प्रतिमा मन्दिर से सटे दक्षिण स्थित बौना तालाब में से प्राप्त हुई थी । यह प्रतिमा दो हजार वर्षों से भी प्राचीन मानी जाती है । विशिष्टता * यहाँ का महत्वपूर्ण प्राचीन हतिहास संक्षेप में ऊपर दिया जा चुका है । दिगम्बर मान्यतानुसार इस स्थान की मुख्य विशेषता यह है कि यह प्रभु वीर की जन्म भूमि मानी जाती है । प्रभु का ननिहाल यहाँ था । महाप्रतापी और धर्म प्रभावी राजा श्री चेटक यहाँ हए । यहाँ जो गणराज्य की स्थापना हुई थी तथा उसके विधान बनाये गये थे वे भारत के इतिहास में उल्लेखनीय हैं । भारत में गणराज्य की प्रथा आदिकाल से चली आ रही है । इस' स्थान के पास बिहार सरकार ने प्राकृत जैन-शास्त्र और अहिंसा संस्थान की स्थापना की है जिसका मुख्य भवन साहु श्री शान्तिप्रसाद जैन के द्वारा बनवाया गया है । इस संस्थान में प्राकृत एवं तलताया गाया है । इस संस्थान में पाक जैन-शास्त्र विषय में एम. ए. की पढ़ाई होती है तथा साईनोली तथा पी. एच. डी. एवं डी लिट्. की उपाधियों के लिए शोधकार्य कराया जाता है । इसके अतिरिक्त प्रकाशन भी यहाँ से होते हैं । यह संस्था बिहार विश्वविद्यालय से सम्बंधित है । यहाँ प्राकृत एवं जैनशास्त्र विषयक अध्ययन के लिये देश के भिन्न-भिन्न राज्यों के अतिरिक्त दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों के विदेशी विद्यार्थी भी आते हैं । प्राकृत और जैनशास्त्र के उच्च अध्ययन, शोध और प्रकाशन के लिए स्थापित यह संस्थान समस्त भारतवर्ष में अपने ढंग का अकेला है । इस संस्थान से वैशाली की गौरव-वृद्धि हुई हैं । अन्य मन्दिर * वर्तमान में इसके अतिरिक्त और कोई जैन मन्दिर नहीं हे । एक और विशाल दि. मन्दिर के निर्माण का कार्य अभी तक चल रहा है । जैन बिहार से लगभग 5 कि. मी. दूर बासुकुण्ड (कुण्डपुर) ग्राम में भगवान महावीर की जन्मभूमि मानी जाती है । कहा जाता है कि इस स्थान पर महाराजा सिद्धार्थ का महल था । ऐसी मान्यता है कि भगवान महावीर ने यहीं जन्म लिया था । यहाँ की जथरिया जाति भगवान को अपना पूर्वज मानती है । लगभग दो एकड़ जमीन छोड़ रखी गई है तथा अत्यन्त प्राचीन काल से आज तक उस पर हल नहीं जोता गया है । आस-पास के ग्रामीणों का कहना है कि भगवान का यहाँ जन्म हुआ था । प्रतिवर्ष भगवान महावीर के जन्म दिवस पर गाँव के लोग इस स्थान पर पूजा करते थे । अब यह जमीन सरकार के अधीन कर दी गई हैं । तथा पिछले कई वर्षों से दिगम्बर जैन समाज की ओर से अत्यन्त धूमधाम से यहाँ पूजा होती है । कला और सौन्दर्य * प्रभु प्रतिमा की कला तो विशिष्ट है ही, यहाँ अनेक प्राचीन खण्डहर दर्शनीय हैं। जिनका वर्णन करना सम्भव नहीं । यहाँ पर भारत सरकार के पुरातत्व विभाग का एक म्युजियम (संग्रहालय) भी है जहाँ प्राचीन प्रतिमाएँ व अवशेष सुरक्षित हैं । प्रसिद्ध अशोक स्तम्भ भी यहाँ है । यहाँ जैन विहार के पीछे एक टीला है जो राजा विशाल के गढ़ के नाम से विख्यात है । यह प्राचीन लिच्छिवियों की राजधानी वैशाली में स्थित अमेघ दुर्ग तथा महलों के भग्नावशेष का द्योतक है । मार्ग दर्शन * नजदीक के रेल्वे स्टेशन मुजफुरपुर और हाजीपुर 35 कि. मी. व पटना 55 कि. मी. दूर है । जहाँ से बस व टेक्सी की सुविधा है । मन्दिर से बस स्टेण्ड 12 कि. मी. दूर है । बसे जैन विहार के सामने ठहरती हैं । मन्दिर तक बस व कार जा सकती हैं । बंधाएँ * बिहार सरकार के पर्यटन विभाग के अधीन एक टूरीस्ट बंगला है जहाँ यात्री ठहर सकते हैं। इसके अतिरिक्त एक जैन विहार धर्मशाला है, जहाँ बिजली, पानी की सुविधा उपलब्ध हैं । पेढ़ी * श्री वैशाली कुण्डपुर तीर्थ क्षेत्र कमेटी, पोस्ट : वैशाली - 844 128. जिला : वैशाली, प्रान्त : बिहार, फोन : 06225-29520. Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री चम्पापुरी तीर्थ तीर्थाधिराज * 1. श्री वासुपूज्य भगवान, पद्मासनस्थ, श्वेत वर्ण लगभग 45 सें. मी. (श्वेताम्बर मन्दिर ) । 2. श्री वासुपूज्य भगवान, पद्मासनस्थ, मुँगावर्ण, लगभग 97 सें. मी. (दिगम्बर मन्दिर ) । तीर्थ स्थल भागलपुर स्टेशन के निकट गंगा नदी किनारे चम्पा नाला के पास जिसे चम्पानगर (चम्पापुरी) कहते हैं । प्राचीनता * भगवान श्री आदिनाथ ने देश को 52 जनपदों में विभाजित किया था, उनमें अंग जनपद भी एक था । चम्पा अंग जनपद की राजधानी थी । वर्तमान चौबीसी के बारहवें तीर्थंकर श्री वासुपूज्य भगवान के पाँचों कल्याणक इस पावन भूमि में हुए किसी समय यह नगर मीलों तक फैला हुआ अत्यन्त वैभवसम्पन्न था । एक समय राजा श्री वासुपूज्यजी यहाँ राज्य करते थे । उनकी रानी का नाम जयादेवी था । ज्येष्ठ शुक्ला नवमी के दिन रानी जयादेवी ने तीर्थंकर जन्मसूचक महास्वप्न देखे, उसी क्षण पद्मोतर का जीव पूर्व के दो भव पूर्ण करके माता जयादेवी की कुक्षी में प्रवेश हुआ। गर्भकाल पूर्ण होने पर फाल्गुन कृष्णा चतुर्दशी के दिन महिष लक्षण युक्त पुत्र का जन्म हुआ। बालक का नाम वासुपूज्य रखा गया । इन्द्रादिदेवों ने जन्म कल्याणक महोत्सव मनाया । राज्य दरबार में बधाइयाँ बॅटने लगीं । यौवनावस्था को प्राप्त होने पर माता-पिता द्वारा विवाह करने के लिये काफी समझाया गया परन्तु प्रभु ने मंजुरी नहीं दी व संसार को असार समझकर वर्षीदान देते हुए छट्ट तप सहित दीक्षा ग्रहण की । प्रभु विहार करते हुए पुनः यहाँ के उद्यान में पधारे व पाटल वृक्ष के नीचे ध्यानावस्था में रहते हुए केवलज्ञान प्राप्त किया । प्रभु धर्मोपदेश देते हुए आषाढ़ शुक्ला चतुर्दशी के दिन उतराषाढ़ा नक्षत्र में छः सौ मुनियों के साथ अनशन व्रत में यहीं पर मुक्ति पद को प्राप्त हुए (दिगम्बर मान्यतानुसार भगवान का जन्म फाल्गुन माया लाम श्री वासुपूज्य भगवान (श्वे.) चम्पापुरी शुक्ला चतुर्दशी, व मोक्ष फाल्गुन कृष्णा पंचमी को हुआ बताया जाता है ।) भगवान श्री पार्श्वनाथ व श्री महावीर भगवान का भी यहाँ पदार्पण हुआ था । पश्चात् प्रभु महावीर के पट्टधर श्री सुधर्मास्वामी व श्री जम्बुस्वामी ने भी यहाँ पदार्पण किया था । मगध नरेश श्री श्रेणिक, बिम्बसार) के पुत्र कुणिक 73 Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (अजातशत्रु) के राज्य काल में यह अति ही सुन्दर व समृद्धिशाली नगरी थी । विशिष्टता * युगादिदेव श्री आदिनाथ भगवान ने इस पवित्र भूमि को अपने चरणों से स्पर्श करके पवित्र बनाया है । श्री वासुपूज्य भगवान के च्यवन, जन्म, दीक्षा, केवलज्ञान व मोक्ष-पाँचों कल्याणक होने का सौभाग्य इस पावन भूमि को प्राप्त हुआ हैं । यही एक तीर्थ क्षेत्र है, जहाँ प्रभु के पांचो कल्याणक हुवे हैं। यह महान विशेषता हैं । श्री पार्श्वनाथ भगवान का भी धर्मदेशना हेतु इस पवित्र भूमि में पदार्पण हुआ था । श्री महावीर भगवान का यहाँ अनेकों बार पदार्पण हुआ । प्रभु का यहाँ समवसरण भी रचा गया था । भगवान महावीर के परम भक्त श्रावक कामदेव यहीं के थे । श्री सुदर्शन सेठ, महाराजा श्रीपाल, सती श्री चन्दनबाला की भी यह जन्म भूमि है । सती सुभद्रा भी यहीं पर हुई । (दिगम्बर मान्यतानुसार सती चन्दनबाला वैशाली के राजा चेटक की लड़की थी)। ___ दानवीर कर्ण, दधिवाहन, राजा करकुण्ड, श्रेणिक (बिम्बसार) के पुत्र अजातशत्रु आदि की भी यह राजधानी थी । इतिहास प्रसिद्ध सेठ सुदर्शन को यहीं सूली पर चढ़ाया था । महामंत्र नवकार के प्रभाव से सूली सिंहासन हो गया था । सेठ सुदर्शन वृषभदत्त के पुत्र थे । पश्चात् सेठ सुदर्शन ने भी दीक्षा ग्रहण की व पाटलीपुत्र (गुलजार बाग) में स्वर्ग सिधारे । इस प्रकार अनेकों शूरवीर जैन नरेश, मुनिगण व श्रेष्ठीगण भी हुए जिन्होंने धर्म प्रभावना के जो कार्य किये वे स्वर्णाक्षरों में अंकित रहेंगे । प्रभु के निर्वाण दिवस असाढ़ शुक्ला चतुर्दशी के दिन लड्डु चढ़ाया जाता है एवं मेले का आयोजन होता है । उस अवसर पर हजारों भक्तगण इकट्ठे होकर प्रभु भक्ति का लाभ लेते हैं । अन्य मन्दिर * इसी मन्दिर में प्रभु के कल्याणकों के याद स्वरूप अलग-अलग जगह पर प्रतिमाएँ विराजमान हैं । इनके अतिरिक्त नाथनगर व भागलपुर में श्वे. व दि. मन्दिर एवं मंदारगिरि पर्वत पर दि.मन्दिर हैं। कला और सौन्दर्य * यह नगरी इतनी प्रभावशाली व प्राचीन होते हुए भी प्राचीन कला कम नजर आती MUDDA FOUT _ _ श्री वासुपूज्य जिनालय (श्वे.) - चम्पापुरी Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है । हो सकता है कालक्रम से रद्दोबदल हुआ हो । यह मन्दिर प्राचीन है। अनेकों बार यहाँ का जीर्णोद्वार हुआ प्रतीत होता है । मार्ग दर्शन * भागलपुर स्टेशन से श्वेताम्बर मन्दिर लगभग 6 कि. मी. व दिगम्बर मन्दिर लगभग 311⁄2 कि. मी. दूर है । मन्दिरों तक कार व बस जा सकती है । सुविधाएँ * ठहरने के लिए मन्दिर के निकट ह श्वेताम्बर व दिगम्बर सर्वसुविधायुक्त धर्मशालाएँ हैं । जहाँ पर भोजनशाला की भी सुविधा है । पेढ़ी * 1. श्री जैन श्वेताम्बर सोसायटी, चम्पापुरी तीर्थ, पोस्ट : चम्पानगर 812004 जिला भागलपुर, बिहार, फोन : 0641-500205. प्रान्त : 2. श्री चम्पापुर दिगम्बर जैन सिद्ध क्षेत्र, पोस्ट : नाथनगर 812006. जिला प्रान्त : बिहार, फोन : 0641-500522. भागलपुर, श्री वासुपूज्य भगवान (दि.) श्री वासुपूज्य जिनालय (दि.) - चम्पापुरी - चम्पापुरी 75 Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तप कल्याणक ज्ञान कल्याणक श्री वासुपूज्य भगवान (दि.) - मन्दारगिरि तीर्थ स्थल * मन्दारगिरी पर्वत पर । प्राचीनता * इस तीर्थ की प्राचीनता श्री वासुपूज्य भगवान के समय से ही मानी जाती है । प्राचीनकाल में अंग देश की राजधानी चम्पा थी व उसी चम्पा का विस्तार इस मन्दारगिरी तक था । चम्पा को मालिनी भी कहते थे, जिसका महाभारत में भी उल्लेख आता है । जो पश्चात् चम्पानगरी के नाम विख्यात हुई । किसी समय यह एक विराट, समृद्धिशाली व चम्पक वृक्षों से सुशोभित अतीव सुन्दर नगरी थी । आज के भागलपुर, नाथनगर, चम्पानाला आदि इसके अंग रहने का उल्लेख है । ___ श्री वासुपूज्य भगवान के पांचों कल्याणक होने का सौभाग्य इसी पावन नगरी को प्राप्त हुवा था । इसी नगरी के इस पवित्र मन्दारगिरि पर्वत के उद्यान में प्रभु ने अपने अंत समय में धर्मोपदेशना देते हुवे ध्यान मग्न होकर छः सौ मुनिगणों के साथ निर्वाणपद प्राप्त किया था अतः प्रभु का मोक्ष कल्याणक भी इस पावन पर्वत पर हुवा है । दिगम्बर मान्यतानुसार प्रभु को केवलज्ञान भी यहीं पर हुवा अतः तप, केवलज्ञान व मोक्ष कल्याणक इसी पर्वत पर होने की मान्यता है । प्रभु के उक्त कल्याणकों के पश्चात् भी इस पावन भूमि पर अनेकों जिनालयों का निर्माण अवश्य हुवा होगा । परन्तु कालक्रम से अनेकों बार इस नगरी को भी अवश्य क्षति पहुँची होगी । अतः अनेकों बार उत्थान-पतन हुवा होगा । भगवान महावीर के पूर्व व पश्चात् भी इस नगरी का उत्थान-पतन होने के संकेत मिलते है । राजा कुणिक द्वारा भी यहाँ नगरी बसाने का उल्लेख आता है ।। ___ विक्रम की सतरहवीं सदी में मुनि श्री सौभाग्यविजयजी यात्रार्थ यहाँ पधारे तब भी इस मन्दारगिरी पावन पर्वत पर श्री वासुपूज्य भगवान के चरण चिन्हों के साथ दो जिनालय रहने का उल्लेख है । आज उन प्राचीन जिनालयों का पता लगाना कठिन है । वर्तमान में चम्पापुरी, नाथनगर, भागलपुर आदि स्थानों में कुछ जिनालय है उनका विवरण श्री चम्पापुरी तीर्थ में दिया गया है । जहाँ प्रभु के जन्म कल्याणक आदि हुवे हैं । मन्दारगिरि पर यही एक मात्र दिगम्बर मन्दिर है मोक्ष कल्याणक श्री मन्दारगिरी तीर्थ तीर्थाधिराज * श्री वासुपूज्य भगवान, श्वेत वर्ण, खड्गासन, सवा सात फुट (लगभग 220 सें. मी) एवं तप केवलज्ञान व मोक्ष कल्याणक के प्रतीक चरण (दिगम्बर जैन मन्दिर) । Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जहाँ प्रभु के प्राचीन चरणचिन्ह व प्रतिमा प्रतिष्ठित हैं। उद्यान परिसर में मानस्तंभ व चौवीसीटोंक की रचना विशिष्टता * इस पावन पवित्र मन्दारगिरी है। सभी दिगम्बर मन्दिर है। श्री वासुपूज्य भगवान की कल्याणक भूमी होने के कला और सौन्दर्य * प्राचीन पावन पवित्र पर्वतका कारण यहाँ की महान विशेषता है । प्राकृतिक सौन्दर्य व वहाँ के विशुिद्ध परमाणु भाव-विभोर प्रभु अपने अंत समय में धर्मोपदेशना देते हवे करते हैं । यहाँ की जलवायु भी अतीव उत्तम है । ध्यानावस्था में छ: सौ अन्य मुनिजनों के साथ इसी मार्ग दर्शन * यहाँ तलहटी के गाँव का नाम पर्वत के उद्यान से मोक्ष सिधारे, अतः यहाँ के बौंसी है । रेल्वे स्टेशन का नाम मन्दारपर्वत रेल्वे परमाणुओं में ऐसी उर्जा है जिससे यात्रिगण भाव-विभोर स्टेशन है जो तलहटी धर्मशाला के निकट ही है । होकर प्रभु भक्ति में लयलीन हो जाते हैं व तलहटी से पर्वत की चढाई मन्दिर तक लगभग 3 पुण्यानुबंधी पुण्य का उपार्जन करते हैं । कि. मी. है । पहाड़ पर पैदल चढ़ना पड़ता है । डोली ___वर्तमान में विज्ञानियों ने भी अनुसंधान कर यह का भी साधन है । कार व बस तलहटी तक जा सिद्ध किया है कि जहाँ कहीं भी ऋिषि मुनिगणों ने सकती है । हजारों वर्ष पूर्व भी ध्यान किया है, आराधना की है या यह स्थल भागलपुर से 55 कि. मी. दूरी पर है । विचरे हैं, उनके वे परमाणु आज भी वहाँ मौजुद हैं व नजदीक का हवाई अड्डा पटना 220 कि. मी. व वहाँ जाने वाले यात्रियों के मनोभावों में स्पर्श करते हैं कोलकाता 410 कि. मी. दूर है । जिसे यात्री स्वतः महसूस करते हैं । जिससे उनके सुविधाएँ * वर्तमान में ठहरने के लिये पहाड़ भावों में परिवर्तन स्वतः आजाता है । श्रद्धालु यात्रिगण की तलहटी में रेल्वे स्टेशन के निकट ही सर्वसुविधायुक्त ऐसे पुनीत-पावन कल्याणक स्थलों की यात्रा करने का धर्मशाला है, बिजली हेतु जनरेटर भी है । भोजनशाला अवसर न चूकें । प्रारंभ होने वाली हैं । अन्य मन्दिर * वर्तमान में इसके अतिरिक्त पेढी * श्री मन्दारगिरि दिगम्बर जैन सिद्ध क्षेत्र यहाँ की तलहटी धर्मशाला में एक मन्दिर है व तलहटी पोस्ट : बौंसी - 813 105. जिला : बांका, से पर्वत रास्ते में मनोहर उद्यान में भी एक मन्दिर व प्रान्त : बिहार, फोन : 06424-37712. मन्दारगिरि पर्वत पर श्री वासुपूज्य जिनालय (दिगम्बर) Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंगाल 1. जियागंज 2. अजीमगंज 3. कठगोला 4. महिमापुर 5. कलकत्ता उड़ीसा 1. खण्डगिरि-उदयगिरि Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ WEST BENGAL & ORISSA JAIN PILGRIM CENTRES JAIN PILGRIM CENTRES BHUTAN JAIN PILGRIM CENTRES NEPAL STATE CARTAL DISTRICT HEADQUARTERS DISTRICT BOUNDARIES Puma un NVBARASAT Khardah Deganga HAORAN, ) Dum Dum hkrait CALCUTTA KOCH BIHAR ASSAM Ba киранит BANGLADESH BIHAR BAHARANPUR ALIPUR Bhangar 24-PA o Baj Baj Sonarpur Ne Champahan 7 KRISHANAGAR BARDOMAMAN PUAULIYA BANKURA OYUNCA PHOTO MEDIN PUR AUPUN curs Calgola . ORISSA Bhagwangola JAIN PILGRIM CENTRES STATE CAPITAL DISTRICT HEADQUARTERS DISTRICT BOUNDARIES WEST BENGALI Sagardight 1 Ajimgan Jiaganj 3 Debi albag Murshidabad MURSHAD ABAD Domkal BAHARAMPUR Khargram Hariharpara BIHAR Khagraghat Rdo Gokarna MADHYA PRADESH GUITACK Parang BAY OF BENGAL Brahman Maravinyak O Barriacha ANDHRA PRADESH Saptasajya 2 Parjang 200 Bhuban. Hatibari JAJPUR Jenapur PAN DHENKANA Joranda Madhupurg na Hindola Road Bangursingar Dharms Deogan Kapilas Chandikhola Dhanmand DHENKANAL y Chheta Hindola Tangible Udaya Ustapal A T V Choudwar Mahanga Lali Athagarh CUTTACK dagatpur Kanpu asinghapur Tigiria Dhavaleshwar Bahugram Salepur Naraja Barhamba, Bhattarika Baranga Mahanadi Nandenkana ago BankiChandaka Sankalaras Fatehgarh 01 SI HUBANESHWAR Khandagin 1 0 aparha KHORDHA Begunia Atri Janlà phaulia Balipatna Bolagarh. KHORDHA Khordha Road ) Niali Surekhate n aipadar Baruna Sanakanti Pipiting Raia Ranabur bois Macaoag CUTTACI Gopinatt Jhanka So 8 JA Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संभवनाथ भगवान - जियागंज श्री जियागंज तीर्थ तीर्थाधिराज * श्री सम्भवनाथ भगवान, श्वेत वर्ण, पद्मासनस्थ, लगभग 38 सें. मी. (श्वे. मन्दिर) । तीर्थ स्थल * जियागंज गाँव में मुख्य मार्ग पर महाजन पट्टी में । प्राचीनता * इस मन्दिर का निर्माण लगभग 150 वर्ष पूर्व हुआ प्रतीत होता है । लेकिन प्रतिमा प्राचीन है । विशिष्टता * बंगाल की पंचतीर्थी का यह भी एक तीर्थ स्थान है। मुर्शीदाबाद से यहाँ भी अनेकों जैन श्रेष्ठीगण आकर बसे थे जिससे यह नगर भी जन धन से सम्पन्न हुआ । उन श्रेष्ठीगणों ने विभिन्न प्रकार के धार्मिक व जन कल्याण के कार्यों में भाग लिया था। अन्य मन्दिर * वर्तमान में इस मन्दिर के अतिरिक्त तीन और मन्दिर व एक दादावाड़ी हैं। कला और सौन्दर्य * मन्दिर की निर्माण शैली व प्रभु-प्रतिमा की कला दर्शनीय है । इसके निकट ही श्री विमलनाथ भगवान के मन्दिर में हाथ के बने प्राचीन चित्र अति ही सुन्दर हैं । मार्ग दर्शन * कलकता से रेल व सड़क मार्ग से जियागंज लगभग 200 कि. मी. दूर है । मन्दिर से जियागंज रेल्वे स्टेशन लगभग 1 कि. मी. है । यहाँ 80 Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से मुर्शीदाबाद करीब 7 कि. मी., बरहमपुर लगभग 14 कि. मी. व कठगोला 4 कि. मी. है । यहाँ ठहरकर अजीमगंज व कढ़गोला मन्दिरों के दर्शनार्थ जाना -सुविधाजनक है, जहाँ आने जाने का मार्ग यहाँ से सिर्फ 10 कि. मी. है । जियागंज को बालूचर भी कहते हैं । मन्दिर तक कार व बस जा सकती हैं । यहाँ का बस स्टेण्ड फुलतल्ला लगभग 2 कि. मी. है। गाँव में भी टेक्सी व आटो रिक्शों की सवारी का साधन है सुविधाएँ * ठहरने के लिए बाजु में श्री विमलनाथ भगवान के मंदिर के अहाते में धर्मशाला है, जहाँ पानी, बिजली, भोजनशाला व आयम्बलशाला की सुविधा है । भाता भी दिया जाता है । पेढ़ी * श्री संभवनाथ भगवान जैन मन्दिर, महाजन पट्टी, पोस्ट : जियागंज - 742 123. जिला : मुर्शीदाबाद, प्रान्त : पश्चिम बंगाल, फोन : 03483-55715 व 55512 पी.पी. (श्री विमलनाथ भगवान मंदिर व आयम्बलशाला) विमलनाथ भगवान-जियागंज श्री संभवनाथ जिनालय - जियागंज Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वयाLECaeमदायरामात श्री चिन्तामणि पार्श्वनाथ भगवान-अजीमगंज 82 Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कला और सौन्दर्य * भागीरथी गंगा नदी के श्री अजीमगंज तीर्थ किनारे बसे इस स्थल का दृश्य अति ही सुन्दर है । विशाल प्राचीन इमारतें यहाँ के पूर्व प्रतिभा की याद तीर्थाधिराज * श्री चिन्तामणि पार्श्वनाथ भगवान, दिलाती हैं । पद्मासनस्थ, 39 सें. मी. (श्वे. मन्दिर) । रत्नों की 30 प्रतिमाएँ अति ही सुन्दर व दर्शनीय तीर्थ स्थल * अजीमगंज गाँव के मध्यस्थ । हैं। इस मन्दिर में कसौटी पत्थर में बना बारसाख अति प्राचीनता * वि. की अठारहवीं सदी में मुर्शीदाबाद ही कलात्मक व सुन्दर है । यहाँ के अन्य मन्दिरों की से कई जैन श्रेष्ठीगण यहाँ आकर बसे जिससे यह कलाकृति व प्रतिमाएँ भी अति ही सुन्दर हैं । स्थान भी जन-धन से सम्पन्न बना । श्रेष्ठीगणों द्वारा मार्ग दर्शन * यहाँ का रेल्वे स्टेशन अजीमगंज अनेकों जन उपयोगी कार्य का निर्माण हुआ व अनेकों सिटी है । भागीरथी नदी के तटपर दोनों तरफ मन्दिर व धर्मशालाएँ आदि बनीं । सं. 1750 में पं. आमने-सामने जियागंज व अजीमगंज नगर बसे हुए श्री सौभाग्यविजयजी ने भी अपने स्तवन में यहाँ का वर्णन करते हुए यहाँ के श्रेष्ठीगणों को सुखी व दानी है । जियागंज से नदी पार करके यहाँ आना पड़ता है, लेकिन सुविधाजनक साधन है । सारे मन्दिर लगभग बताया है । यहाँ के श्रेष्ठीगणों द्वारा अन्य तीर्थ स्थानों पर भी मन्दिर निर्माण, जीर्णोद्धार व धर्मशालाएँ-निर्माण 2 कि. मी. में ही है । आदि कार्यों में भी भाग लेने के उल्लेख अनेकों जगह सुविधाएँ * यहाँ पर पंचायती मंदिर में ठहरने मिलते हैं । यहाँ के श्रेष्ठीगण प्रायः जागीरदार थे व की व्यवस्था है । अग्रिम सूचना के आधार पर भोजन बाबू के नाम से सम्बोधित किये जाते थे । आदि का बंदोबस्त किया जा सकता है, परन्तु जियागंज इस मन्दिर का निर्माण लगभग 125 वर्ष पूर्व हआ धर्मशाला में ठहरकर यहाँ आना ज्यादा सुविधाजनक बताया जाता है । है। दिन में ही आना सुविधाजनक है, क्योंकि नाँव द्वारा _ विशिष्टता * बंगाल की पंचतीर्थी का यह भी । नदी पार करनी पड़ती है । मन्दिरों में बिजली व एक मुख्य तीर्थ स्थान है । इस मन्दिर में नवरत्नों की पानी की सुविधा है । प्रतिमाएँ अति ही दर्शनीय हैं । __ पेढ़ी * श्री चिन्तामणि पार्श्वनाथ जैन मन्दिर, अन्य मन्दिर * वर्तमान में इसके अतिरिक्त सात पोस्ट : अजीमगंज- 742 122. जिला : मुर्शीदाबाद, और मन्दिर हैं। प्रान्त : पश्चिम बंगाल, फोन : 03483-53312. JI मन्दिर-समूह का दृश्य-अजीमगंज Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री कठगोला तीर्थ तीर्थाधिराज * श्री आदीश्वर भगवान, पद्मासनस्थ श्वेत-वर्ण, लगभग 90 सें. मी. (श्वे. मन्दिर) । तीर्थ स्थल * जियागंज स्टेशन से लगभग 3 कि. मी. दूर बरहमपुर मार्ग पर नसीपुर गाँव में लगभग 30 एकड़ विशाल व सुन्दर बगीचे के मध्य। प्राचीनता * वि. सं. 1933 में बाबू लक्ष्मीपतसिंह ने अपनी मातु श्री महेताब कुंवर से प्रेरणा पाकर विशाल उद्यान के बीच इस भव्य मन्दिर का निर्माण करवाया था । प्रतिमा अति ही प्राचीन, सुन्दर व प्रभाव शाली है । विशिष्टता * बंगाल की पंचतीर्थी का यह भी एक तीर्थ स्थान है। इस मन्दिर की निर्माण शैली अति ही रोचक है । इस दो मील विस्तार वाले मनोरम उद्यान में हर वस्तु की निर्माण शैली अति ही सुन्दर व दर्शनीय है। अन्य मन्दिर * वर्तमान में इसके अतिरिक्त कोई मन्दिर नहीं हैं। श्री आदिनाथ जिनालय-कठगोला आदिनाथ जिनालय प्रवेश द्वार-कठगोला 84 Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कला और सौन्दर्य * यह कला व सौन्दर्य का साधन है । मन्दिर तक कार व बस जा सकती है । संगम स्थल है । सुन्दर सरोवर के सन्मुख स्थित इस धाएँ * जियागंज धर्मशाला में ठहरकर यहाँ मन्दिर में विभिन्न प्रकार की कलात्मक चीजें नजर आती दर्शनार्थ आना ही सविधाजनक है । हैं । मूलगुम्बारे के प्रवेश द्वार के दोनों तरफ खड़े पेढ़ी * श्री आदिनाथ भगवान जैन मन्दिर कठगोला द्वारपाल सजीवसे नजर आते हैं । पाषाण में निर्मित पोस्ट : नसीपुर राजबाटि - 742 160. कला का यह अद्वितीय नमूना है । जब द्वारपालों की जिला : मुर्शीदाबाद, प्रान्त : पश्चिम बंगाल, कला ही इस प्रकार अनोखी है तो प्रभु-प्रतिमा का तो फोन : 03483-55715. श्री विमलनाथ मन्दिर किन शब्दों में वर्णन किया जाय । आयम्बलशाला, जियागंज । मार्ग दर्शन * नजदीक का रेल्वे स्टेशन जियागंज लगभग 3 कि. मी. है, जहाँ आटो की सवारी का श्री आदिनाथ भगवान-कठगोला Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री पार्श्वनाथ भगवान महिमापुर श्री महिमापुर तीर्थ तीर्थाधिराज * श्री पार्श्वनाथ भगवान, श्याम वर्ण, पद्मासनस्थ (श्वे. मन्दिर ) । तीर्थ स्थल जियागंज स्टेशन से 4 कि. मी. दूर महिमापुर गाँव में प्राचीनता * किसी समय यह स्थल मुर्शीदाबाद का एक अंग था । वि. की अठारहवीं सदी के प्रारम्भ में मुर्शीद कुलीखान ने इसे बसाया था । तत्पश्चात् इनके जमाई सूजाखान ने राज्य किया । मारवाड़ से यहाँ आये श्रेष्ठ श्री महताबरायजी व उनके पूर्वजों ने जन-कल्याण के अनेकों कार्य किये । अतः वि. सं. 86 * 1805 में सेठ महताबरायजी को जगत्सेठ की पदवी से विभूषित किया गया । जगतसेठ ने विदेशी कसौटी के पाषण से भव्य मन्दिर का निर्माण गंगा नदी के किनारे करवाया था। नदी में बाढ़ आ जाने के कारण मन्दिर को स्थानान्तर किया गया व उन्हीं पाषाणों से वि. सं. 1975 में उनके वंशज श्री सोभाग्यमलजी द्वारा मन्दिर का निर्माण करावाकर वही प्राचीन प्रतिमा इस मन्दिर में पुनः प्रतिष्ठित करवाई गई । विशिष्टता * बंगाल की पंचतीथीं का यह भी एक मुख्य स्थान है । यह क्षेत्र विक्रम की अठारहवीं सदी के प्रारम्भ में बसा तब से ही जाहोजलालीपूर्ण रहा । श्रेष्ठी श्री महताबरायजी को जगत्सेठ की पदवी से यहीं पर अलंकृत किया गया था । जगत्सेठ की क्षाति देश-परदेश में फैली हुई थी । इन्होंने अपनी बुद्धि व लक्ष्मीका सदुपयोग करके राज्य उत्थान, जन-कल्याण, व धर्म-प्रभावना के जो कार्य किये वे उल्लेखनीय हैं । जिनमें सम्मेतशिखर तीर्थ के जीर्णोद्धार का कार्य अति ही प्रशंसनीय व सराहनीय है । तत्कालीन यतिवर्य श्री निहालचन्दजी द्वारा रचित "बंगाल देश की गजल” में आँखों देखा हाल बताते हुए कहा है कि जगत्सेठ के यहाँ हमेशा याचकों रहती है व इनके द्वार से कोई भी निराश होकर नहीं लौटता । राज्य दरबार में इनका पूर्ण सम्मान था । अन्य मन्दिर * वर्तमान में इसके अतिरिक्त कोई मन्दिर नहीं हैं । जमघट कला और सौन्दर्य * कसौटी पाषाण में निर्मित प्रभु - प्रतिमा व पबासन आदि अति ही सौम्य हैं । नोट : मन्दिर यहाँ से उत्थापन हो चुका है । मेटर सिर्फ याद स्वरूप व फोटु सिर्फ दर्शनार्थ "तीर्थदर्शन" में पुनः छापा है । पार्श्वनाथ जिनालय स्थल-महिमापुर Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ LabladaHEETEREST WHICH HEDUCAM MAHAGRAT NAINA ABORNERNMEner HowTAMAND DESHBOURNA Raba rhannoncont - 18 प्रसियसmamirmanandHINoniouslim MAITRIBAI ToroccootnocodonenODOOGIOamondersonal FedeohindiRRRRRRRRRRRfavo A DMILARKshirsana Jew e cansparNTERT377 DHAMAKAcharginnineKHINICH Aamanacominsansations नराशा miniminichiNCES Mea MARRORRRRRRRRRRR R AWAwaryaywwww n inigradataHARID WARAN wwwwwVAHWARIWNIOARRIORRowwwwwwwwwwwviram श्री शीतलनाथ भगवान-कलकत्ता श्री कलकत्ता तीर्थ श्री बद्रीदास टेम्पल) तीर्थाधिराज * श्री शीतलनाथ भगवान, श्वेत । वर्ण, पद्मासनस्थ, लगभग 70 सें. मी. (श्वे. मन्दिर)। तीर्थ स्थल * कलकत्ता शहर में शाम बाजार के माणकतले में । इसे बद्रीदास टेम्पल व पार्श्वनाथ मन्दिर कहते हैं । प्राचीनता * लगभग 300 वर्ष पूर्व यहाँ का जंगल, व्यापार के मुख्य केन्द्र में परिवर्तित हुआ । वर्तमान का हुगली विदेशी व्यापार का मुख्य केन्द्र था, जो सप्तग्राम के नाम से पहिचाना जाता था । यह स्थान समुद्र से दूर होने के कारण व सरस्वती नदी के सूख जाने पर जहाजों के आने-जाने में दिक्कत होने के कारण वहाँ का व्यापार सूतानूटी, गोविन्दपुर व कालिकाता आया । सूतानूटी आज का बड़ा बाजार, 87 Page #92 --------------------------------------------------------------------------  Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ JUNE 華情車 श्री शीतलनाथ जिनालय (बद्रीदास टेम्पल) का कलात्मक मनोहर दृश्य कलकत्ता) 414 *SITE Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोविन्दपुर आज का डलहौसी स्क्वायर, हेस्टिंग और गवर्नर बनाया था । सन् 1880 में घोड़ों से खींची फोर्ट विलियम हैं । कालिकाता आज का कालीघाट व जानेवाली प्रथम ट्राम गाड़ी यहीं से प्रारम्भ हुई । और भवानीपुर है । इन तीनों ग्रामों को मिलाकर जोब भी आधुनिक सुविधा वाले कई कार्य यहाँ से प्रारम्भ चारनक नामक अंग्रेज ने कलकत्ता शहर की नींव डाली हुए । जो अल्प समय में ही आधुनिक सुविधा संपन्न नगर अन्य मन्दिर * इसके अतिरिक्त शहर में कुल 8 बना । इस शहर का कलकत्ता नाम कब व कैसे पड़ा। श्वेताम्बर मन्दिर हैं, जिनमें यहाँ का सबसे प्राचीन इसके बारे में अलग-अलग मत हैं । इस नगर को श्री जैन श्वे. पंचायती मन्दिर है जो बड़ा मन्दिर के नाम सुसम्पन्न बनाने व व्यापार का मुख्य केन्द्र बनाने में विख्यात है व 3 दिगम्बर मन्दिर हैं। इनके अलावा एक जैन श्रेष्ठियों का मुख्य हाथ रहा है । उन्होंने जन भव्य दादावाड़ी व कुछ घर देरासर भी हैं। कल्याण के भी कार्यों में हर वक्त भाग कला और सौन्दर्य * इस मन्दिर में कोई भी लिया है । ऐसी जगह नहीं जहाँ कारीगर ने कला का दिग्दर्शन यह कलात्मक मन्दिर लाला कालकादासजी के पुत्र नहीं करवाया हो । इस मन्दिर की शिल्पकला का रायबहादुर बद्रीदासजी ने अपनी मातु श्री खुशालकुंवर वर्णन करने के लिए कोई उपयुक्त शब्द नहीं, जिसमें वर्णित किया जा सके । मन्दिर निर्माता ने इस से प्रेरणा पाकर बनाना प्रारम्भ किया । कलात्मक मन्दिर का निर्माण करके जैन धर्म का ही अब वे ऐसी प्रतिमा की खोज में थे जो प्राचीन, नहीं, बंगाल का गौरव बढ़ाया है । सर्वांग सुन्दर, व अपने आपमें अनूठी हो । उनपर प्रभु मार्ग दर्शन * कलकत्ता के हावड़ा स्टेशन से इस की कृपा हुई । एक महात्मा ने एक अद्भुत प्रतिमा मन्दिर की दूरी 5 कि. मी. है । मन्दिर तक बस व आगरा के रोशन मोहल्ले के मन्दिर के भूमि गृह में कार जा सकती है । रहने का संकेत दिया व महात्मा अदृश्य हो गये । सुविधाएँ * ठहरने के लिये सर्वसुविधायुक्त निम्न संकेतिक स्थान से यह प्रतिमा प्राप्त हुई जो संघवी जैन धर्मशालाएँ है । बड़ा शहर होने के कारण चन्द्रपाल द्वारा सतरहवीं सदी में प्रतिष्ठित थीं। इस आवागमन ज्यादा रहता है । अतः जाने वालों के लिये प्रतिमा को यहाँ लाकर बड़े ही उल्लास व हर्ष पूर्वक पहले से इन्तजाम करके जाना सुविधाजनक होगा । ई. सं. 1867 में आचार्य श्री कल्याण सूरीश्वरजी के 1. यहाँ का सबसे प्राचीन श्वे. मन्दिर श्री जैन श्वे. सुहस्ते प्रतिष्ठित की गई । अभी भी इसकी देखभाल पंचायती मन्दिर जो बड़ा मन्दिर के नाम से विख्यात इनके कुटुम्बी करते हैं । है । इसके संलग्न में एक विश्राम गृह 5 कमरों का विशिष्टता * इस भव्य मन्दिर की निर्माण शैली है जिसमें ठरहने की व्यवस्था है । अद्भुत व अति ही कलात्मक है जो यहाँ की मुख्य 139, काटन स्ट्रीट, कलकत्ता - 700 007. विशेषता है । विभिन्न वेत्ताओं ने यहाँ की कला के बारे फोन : 033-2395949. में अलग-अलग ढंग से व्याख्या की है । इसको बंगाल 2. इस शीतलनाथ मन्दिर के पास 20 कमरे 2 की सुन्दरता के नाम से भी संबोधित किया है। हॉल व एक बड़े हॉल के साथ सर्वसुविधायुक्त धर्मशाला प्रतिवर्ष कार्तिक पूर्णिमा को तुलापट्टी के बड़े मन्दिर है । भोजनशाला प्रारंभ होने वाली है, परन्तु पूर्व से वरघोडा प्रारम्भ होकर यहाँ विसर्जन होता है, जो सूचना पर अभी भी इंतजाम हो सकता है । पता अति ही रोचक व दर्शनीय रहता है । इस दिन का श्री जैन जौहरी संस्थान 63/10, गौरी बाड़ी लेन, वरघोड़ा भारत भर में सर्वोत्तम माना जाता है । सरकार कलकत्ता- 700004. फोन : 033-5554187. की तरफ से भी सारी सुविधाएँ प्रदान की जाती है । 3. श्री दिगम्बर जैन भवन, 10-A चितपुर स्पार, इस मन्दिर के सामने स्थित दादावाड़ी में स्वामिवात्सल्य कलकत्ता - 700007. का आयोजन किया जाता है । पेढ़ी * श्री बद्रीदास जैन श्वेताम्बर मन्दिर पेढ़ी, ____ कलकत्ता शहर भी अपने आपमें कुछ विशिष्टता 36, बद्रीदास टेम्पल स्ट्रीट, माणकतला (शामबाजार) रखता है, जैसे ईस्ट इंडिया कम्पनी ने सन् 1767 में पोस्ट : कलकत्ता - 700 004. सर क्लाइव को इसी शहर में अंग्रेज राज्य का प्रथम प्रान्त : पश्चिम बंगाल, 90 Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैदिक लोग इसे अनार्थ देश कहते थे । प्राचीन काल श्री खण्डगिरि - उदयगिरि तीर्थ में ये खण्डगिरि, उदयगिरि पर्वत, कुमारगिरि व कुमारीगिरि नाम से प्रसिद्ध थे । तीर्थाधिराज * श्री आदीश्वर भगवान, श्वेत वर्ण श्री पार्श्वनाथ भगवान के काल के पश्चात् यहाँ के (दि. मन्दिर) । राजा करकुण्ड रहे जो कट्टर जैन-धर्म के अनुयायी थे। तीर्थ स्थल * भुवनेश्वर से 6 कि. मी. दूर 37 इनका राज्य समस्त अंग, बंग, कलिंग, चेर, चोल, मीटर ऊँचे खण्डगिरि पहाड़ पर । पाण्ड्य, आन्ध्र आदि देशों में फैला हुआ था । चेर, प्राचीनता * यहाँ का इतिहास श्री आदीश्वर चाल, पाण्ड्य राजाआ का इन्ह चोल, पाण्ड्य राजाओं को इन्होंने अपनी साहसिकता से भगवान के समय से प्रारम्भ होता है । आदीश्वर झुकाया था । परन्तु जब उन्हें पता लगा कि इन भगवान ने भारत भमि को 52 जनपदों में विभाजित राजाओं के मुकुट में जिनेन्द्र भगवान का चिह्व लगा है किया। उनमें यह भी एक था । यह कलिंग देश तो तुरन्त ही गले से लगाया था । स्वधर्मी के प्रति कहलाता था । भगवान श्री ऋषभदेव, श्री पार्श्वनाथ कितनी उदारता थी उनमें ! भगवान व श्री महावीर भगवान का यहाँ अनेकों बार _ "उत्तराध्ययनसूत्र" में पंचाल के राजा द्विमुख, विदेह विहार हुआ था । भगवान श्री पार्श्वनाथ का तो इस के राजा नेमि, गांधार के शासक नग्नजित व कलिंग देश में अत्यन्त प्रभाव रहा । वैदिक यज्ञयागादि में के सम्राट करकण्डु का उल्लेख है । सम्राट करकण्डु विश्वास रखनेवालों को यहाँ जाने तक का निषेध था। भगवान पार्श्वनाथ के शिष्य भी माने जाते हैं। श्री आदीश्वर भगवान मन्दिर-खण्डगिरि Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारनि-up-6-२..-सम्भारोप विसरणागबनाकारण दिसम्माननादा गनलालजसूजपासालदसतेस्त्रकारितामा म.मवाल्मलनीसनेप्रतिकापासापितमिरणिय ऊपीयवालेन्द्रशस्वय वाम्हान्सने प्रतिपाचार्यकातीरोमानिविभूषिता लोककल्यामचक्तः श्री आदीश्वर भगवान-खण्डगिरि कलिंग के कोने-कोने को जैन धर्म की ज्योति से भगवान महावीर ने प्रकाशमान कर दिया था । भगवान महावीर का कुमारी पर्वत पर भी समवसरण रचा गया था-ऐसा उल्लेख है । इस प्रकार भगवान श्री पार्श्वनाथ के काल में जैन-धर्म का यहाँ विशेष प्रचार हुआ व भगवान महावीर के काल में यहाँ के जन-जन का धर्म हो गया था । महाराज श्रेणिक (बिंबसार) द्वारा इस कुमारी-पर्वत पर मन्दिर बनवाकर, श्री आदीश्वर भगवान की स्वर्णमयी प्रतिमा गणधर श्री सुधर्मा-स्वामी के सुहस्ते प्रतिष्ठित करवाने का एवं साधु साध्वियों के लिए अनेकों गुफाएँ बनवाने का उल्लेख है । श्री श्रेणिक महाराजा के पुत्र श्री कुणिक द्वारा भी। इनपर्वतों पर पाँच गुफाएँ निर्मित करवाने का उल्लेख है । भगवान महावीर के 60 वर्षों के पश्चात् नरेश महापद्मनन्द ने इस प्रदेश पर आक्रमण किया व विजय पाकर आदीश्वर भगवान की स्वर्णमयी प्रतिमा को अपनी राजधानी पाटलीपुत्र ले गया । यह जिन प्रतिमा कलिंग में राष्ट्रीय प्रतिमा के रूप में मान्य थी । इसलिए प्रतिमा यहाँ से जाने के कारण कलिंग की जनता के दिल में भारी आघात पहुँचा । कुछ समय बाद कलिंग को पुनः स्वतंत्रता प्राप्त हुई। भगवान महावीर के निर्माण के 244 वर्षों पश्चात् मगध सम्राट अशोक ने कलिंग पर पुनः आक्रमण किया, जिसमें लाखों मनुष्यों का संहार हुआ। युद्ध लगभग दो वर्षों तक जारी रहा । युद्ध में सम्राट अशोक की जीत हुई । लेकिन इस युद्ध में हुए नरसंहार व बरबादी के कारण उसे ग्लानि हो गयी व प्रायश्चित् स्वरूप जनकल्याण के अनेकों कार्य किये । 92 Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीर के लगभग 350 वर्ष पश्चात् राजा स्थित शिलालेखों आदि के सम्बन्ध में अनुसन्धान की खारवेल ने मगध पर आक्रमण करके कलिंग को मुक्त काफी गुंजाइश है । करवाके पाटलीपुत्र से जिन प्रतिमा पुनः यहाँ पर लाये। अन्य मन्दिर * इस मन्दिर के निकट 4 और कलिंगवासियों ने अपने आराध्यदेवता के पुनः कलिंग में मन्दिर हैं । इस खण्डगिरि पर्वत के सम्मख ही आगमन पर राष्ट्रीय स्तर पर स्वागत किया व राष्ट्रीय उदयगिरि पर्वत है । इन दोनों पर्वत पर गुफाओं में उत्सव मनाया जो जैन-धर्म के प्रति कलिंगवासियों की प्राचीन प्रतिमाओं के दर्शन होते हैं। अगाध श्रद्धा का प्रतीक था । __ कला और सौन्दर्य * यहाँ गुफाओं में उत्कीर्ण इस कुमारी पर्वत पर जहाँ भगवान महावीर ने अनेकों प्राचीन कलात्मक प्रतिमाएँ अत्यन्त ही दर्शनीय धर्मो पदेश दिया था, वहाँ खारवेल ने जैन साधुओं के हैं । प्राचीन कलात्मक ऐसी प्रतिमाओं के दर्शन अन्यत्र ध्यानादि के लिए गुफाएँ, जिन-मन्दिर आदि बनवाये। दुर्लभ हैं । यहाँ का हाथी-गुफा का शिलालेख पुरातत्व इनके परिवार के सभी लोग जैन धर्मावलम्बी थे । उक्त की दृष्टी से विशेष महत्वपूर्ण है, जो लगभग 2200 व्रतान्त यहाँ की हाथी-गुफा के शिलालेख में उत्कीर्ण हैं। वर्ष प्राचीन माना जाता है । राजा खारवेल ने सातवाहन, वहसतिमित्र आदि अनेकों मार्ग दर्शन * नजदीक का रेल्वे स्टेशन भुवनेश्वर प्रतापी राजाओं को भी हराकर पूरे भारत में विजय यहाँ से लगभग 10 कि. मी. है । जहाँ से बस व पताका फहराई थी । राजा खारवेल वीर योद्धा तो थे टेक्सी की सुविधा है । तलहटी से खण्डगिरि की ऊँचाई ही साथ में धर्मनिष्ठ राजा होने के कारण जनता के 37 मीटर व उदयगिरि की ऊँचाई 33 मीटर है । कर्णाधार बन गये थे । रास्ता सुलभ है । कार व बस तलहटी तक जा सकती खारवेल राजा चेदिवंशज के होने का व इनके पूर्वजों है । बस स्टेण्ड लगभग 12 कि. मी. दूर है। के जैन-धर्मावलम्बी होने का भी उल्लेख मिलता है । सविधाएँ * ठहरने के लिये पहाड़ी की तलहटी में सम्राट खारवेल के पश्चात् उस जिन प्रतिमा का क्या धर्मशाला है, जहाँ पानी, बिजली, बर्तन व बिस्तरों की हुआ, इसके अनुसन्धान की आवश्यकता है । विभिन्न सुविधा है । स्थानों पर भू-उत्खनन से प्राप्त प्राचीन मुद्राओं व पेढ़ी * श्री खण्डगिरि उदयगिरि जैन दिगम्बर सिद्ध खारवेल कालीन शिलालेख यहाँ की प्राचीनता के क्षेत्र कार्यालय इतिहास की साक्षी देते हैं । पोस्ट : खण्डगिरि - 751 030. जिला : भुवनेश्वर, यहाँ के प्राचीन मूलनायक श्री पार्श्वनाथ भगवान प्रान्त : उड़ीसा, फोन : 0674-470784. थे-ऐसा उल्लेख है । समय-समय पर यहाँ का अनेकों बार उद्धार हुआ होगा, ऐसा प्रतीत होता हैं । विशिष्टता * भगवान श्री आदिनाथ द्वारा निर्वाचित कलिंग जनपद जैन-धर्म का प्रारम्भ से ही मुख्य केन्द्र रहा है । यहाँ अनेकों वीर प्रतापी जैन राजा हुए । यहाँ TAITIN की प्रजा जैन धर्मावलम्बी तो थी ही साथ में उनके दिल में धर्म के प्रति अटूट श्रद्धा व भक्ति थी। कलिंग देश की जनता व राजाओं का सम्बन्ध दक्षिण के सारे राज्यों के साथ अच्छा था । ___ भगवान श्री पार्श्वनाथ का इस देश में अनेकों बार पदार्पण होने का व भगवान महावीर का इस पर्वत पर भी समवसरण रचा जाने का उल्लेख है । यहाँ पर स्थित हाथी-गुफा का शिलालेख उपलब्ध शिलालेखों में प्राचीनतम माना जाता है । यहाँ पर Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 94 उत्तर प्रदेश 1. चन्द्रपुरी 2. सिंहपुरी 3. भदैनी 4. भेलुपुर 5. प्रभाषगिरि 6. कौशाम्बी 7. पुरिमताल 8. रत्नपुरी 9. अयोध्या 10. श्रावस्ती 11. देवगढ़ 12. कम्पिलाजी 13. अहिच्छत्र 14. हस्तिनापुर 15. इन्द्रपुर 16. सौरीपुर 17. आगरा 96 99 103 105 110 112 114 117 119 124 128 130 132 134 138 140 144 Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ UTTAR PRADESH ' JAIN PILGRIM CENTRES Sadaro HIMACHAL PRADESH CHINA TIBET JAIN PILGRIM CENTRES STATE CAPITAL DISTRICT HEADQUARTERS DISTRICT BOUNDARIES A Zafarabad Nehnapur Birnon Kerakat Chad Ratrahl) Bhitri GHAZIPUR Trilochan Saidpur Phulpur Sindhora Babatpur Balua Zamanis aragaon VARANAS! Dhanapur Dild VARANAAL Sarnath Shakaldina 04 Shivapur24 Mirza Murad CHANDAULI._ Ramnagar Mughal Sarat CHANDAULI HARYANA NEPAL RAJASTHAN da Shahabad Morgan Shahi Lim Sarauli . Phagari Diyoraniyam Vijauriya Khamar Bhojpura Sethalo Nawabganj teesia Orithanra (ов BAREILLY Sherga Gaini BAREILLY Umedphur 24 Bhutah Faridpur-> YTJ ALAM BIHAR Gosain Aonla OBhamora MADHYA PRADESH Chilwana Kala 5 Karani Chall Sran und Sakharpur) SRAVASTI BALRAMPUR Nurguirkol Y BALRAMPUR Bisheshwargane. ( Khargupur Utraula liathok Kaisargany Bangain alle Chartrupur hammadpur na29 rammene KAUSHAMBI Sura Muh SALLAHABAD Sarai Akil Rajabu KAUSHAMBI Pahari Na Sadaba Bar, Karchana sirsa CHITRAKUT Mau ALLAHABAD bur Mual Karvi Raipura Babuto Lşhankargar Tons Khonda Meja Panasa CHITRAKUT Chhibuna US khatauli Miranpur Mata ulhaira Tanda ha Bauma Phalavda Hastinapur Daurala Mawana Ba Gokulugan Hod MEERUT Sathia Akankarkhera Jani MEERUT Parichhatpath of Farah Barhan kunde Paitan Phachte 2 ponory Aundhultangani Puncan Muhammadabel lustatabad MAINPURI Ahongaon Madaripur Ras Ka Nagia Sikandra Rao Beswan Madu tursan Mad ETAH using van play Musan Hathras Road She Mirzapu. Noor Kanda OHATHRAS Sinur a pur Khas THURA MAHAMAYA NAGAR NU ETAH Rampung K aimganj MATHURA pesar Busundh Jalesar Besudha Dhumi B.Aligan t umsabwe Maanan Sarunaway Sadabad lie, wajah Buildeoscomet FARRUKHAE ogoni -Kurawa hawabganj Farry Sous Umar Pere Akbarpur Sara FATEHGAR Mustafabad (MAINPUR® on Sikandao AGRA_Efmadpur Muhardaba Aina M a nene FIROZABAD FIROZABAD e Jasrana canine /FIROZABA Bewe Va purgo AGRA t ap finca ar Bre aslapagar Fatehpur Sikri Makahanpur Shikohabad MAINPURI Rua Bithun Sirsaga Fatehabad shamsabad Kurtaran Khairagarh Karhat kishi Sad Alu Cladnagar Amroodpan Brady I S K ANN sajakhera Pignat a rolo Baratokpur Bah Kachnika Augs Paharli ha april ETAWAH Kucak ETAWAH Ambah Maskhanpur Shiko Kegarauf anandal Modinagar Garhmuktesar HAZIABAD Baksar hua Hanura C Dardevgam Kelgawan Derware LALITPUR OTIKAMGARH fudauti Rau 9 Na p ringar Kelwara Banpur OLALITPUR VY Haralya BASISKHALILA FAIZABAD Ayodhya Ha 2 BASTI SA Mahson w Sohawa Rani Bazar Qubaulia КА Bilharghala Amanigan Bhadarsa FAIZABAD Maya Bhikha Mahul Bikapur Wiltifalgan Tandar Hinwar Khajurhat Halden AMBEDKAR NAGAR Kalwari NA Govind Sagar Milkipur Birdha Jakhlau 11 Deogan Palio Chararay Mahroni Patnao kuphen Sojna! en M Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री चन्द्रपुरी तीर्थ तीर्थाधिराज * 1. श्री चन्द्रप्रभ भगवान, श्वेत वर्ण, पद्मासनस्थ, लगभग 45 सें. मी.। (श्वेताम्बर मन्दिर) । 2. श्री चन्द्रप्रभ भगवान, श्वेत वर्ण, पद्मासनस्थ, लगभग 45 सें. मी.। (दिगम्बर मन्दिर) । ____ तीर्थ स्थल * चन्द्रावती गाँव के पास गंगा नदी के तट पर । (इसे चन्द्रोटी भी कहते हैं) । प्राचीनता * इस पावन तीर्थ का इतिहास आठवें तीर्थंकर श्री चन्द्रप्रभ भगवान से प्रारम्भ होता है । किसी समय श्री महासेन नाम के प्रतापी राजा यहाँ राज्य करते थे । उनके भाग्योदय से रानी लक्ष्मीमती ने एक दिन तीर्थंकर-जन्म-सूचक महास्वप्न देखे । उसी क्षण पद्मनाभ का जीव पूर्व के दो भव पूर्ण करके माता की कुक्षि में प्रविष्ट हुआ । गर्भ के दिन पूर्ण होने पर पौष कृष्ण ग्यारस अनुराधा नक्षत्र में पुत्र-रत्न का जन्म हुआ । माता को गर्भ काल में चन्द्र-पान की इच्छा हुई थी इससे प्रभु का नाम चन्द्रप्रभ रखा गया । इन्द्रादिदेवों ने जन्म कल्याणक महोत्सव अति ही उल्लासपूर्वक मनाया । यौवनावस्था पाने पर शादी हुई व कई वर्षों तक राज्य सुख भोगते हुए एक वक्त प्रभु ने दीक्षा लेने का निर्णय लिया । अतः प्रभु ने वर्षीदान देकर पौष कृष्णा तेरस अनुराधा नक्षत्र में सहसाम्रवन में एक हजार राजाओं के साथ दीक्षा ग्रहण की । प्रभु विहार करते हुए तीन माह पश्चात् पुनः यहाँ सहसाम्रवन में पधारे। यहाँ के पुन्नाग वृक्ष के नीचे कायोत्सर्ग ध्यान में रहकर फाल्गुन कृष्ण सप्तमी के दिन अनुराधा नक्षत्र में केवलज्ञान प्राप्त किया । इन्द्रादिदेवों द्वारा समवसरण की रचना की गई । श्री चन्द्रप्रभ भगवान (श्वे.) - चन्द्रपुरी Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Partime इस प्रकार श्री चन्द्रप्रभ भगवान के चार कल्याणक च्यवन, जन्म, दीक्षा व केवलज्ञान यहाँ हुए, जिनकी उपरोक्त तिथियाँ श्वे. मान्यतानुसार हैं । __ इस तीर्थ की व्याख्या शास्त्रों में, तीर्थ मालाओं आदि में हुई हैं । चौदहवीं शताब्दी में आचार्य श्री जिनप्रभसूरीश्वरजी द्वारा रचित 'विविध तीर्थ-कल्प' में भी इस तीर्थ का उल्लेख है । इसके निकट अनेकों प्राचीन टीले व टेकरियाँ हैं अगर शोध-कार्य किया जाय तो यहाँ अनेकों प्रागैतिहासिक अवशेष व सामग्री के मिलने की सम्भावना है । विशिष्टता * आठवें तीर्थंकर श्री चन्द्रप्रभ भगवान के चार कल्याणक (च्यवन, जन्म, दीक्षा व केवलज्ञान) होने का सौभाग्य इस पवित्र भूमि को प्राप्त होने के कारण यहाँ का कण-कण वन्दनीय हैं । ___ जहाँ प्रभु ने जन्म से केवलज्ञान तक अपने जीवन काल के अमूल्य दिन व्यतीत कियें हों उस जगह की महत्ता अवर्णनीय है । प्रभु के काल में तो अनेकों भव्य आत्माओं ने अपना जीवन सार्थक बनाया ही होगा । परन्तु अभी भी यहाँ के शुद्ध परमाणुओं से यात्रीगण अपनी आत्मा में विशेष शान्ति का अनुभव करते हैं व यहाँ आते ही बाह्य वातावरण भूलकर स्वतः प्रभु स्मरण में लीन होकर अपना मानव भव सफल बनाते हैं । अन्य मन्दिर * वर्तमान में इनके अतिरिक्त और कोई मन्दिर नहीं हैं । ___ कला और सौन्दर्य * यहाँ की प्राचीन कला संभवतः टीलों के गर्भ में है, खुदाई करने पर प्राप्त हो सकती हैं । गंगा नदी के तट पर स्थित इस पावन तीर्थ का प्राकृतिक सौन्दर्य अति ही मनोहर है । मार्ग दर्शन * नजदीक के रेल्वे स्टेशन कादीपुर 5 कि. मी. व बनारस 23 कि. मी. हैं । वहाँ से टेक्सी व बस की सुविधा है । बनारस ठहरकर आना सविधाजनक हैं । बस बनारस-गाजीपुर मुख्य सड़क i Sansaapaedododchauroperfasgull mage/MAHAGAINS TAJIAN/ABADMINATANGARH चन्द्रजभू भगव श्री चन्द्रप्रभ भगवान (दि.) - चन्द्रपुरी Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्ग पर ठहरती है, जहाँ से तीर्थस्थल लगभग एक कि. मी. दूर है । कार व बस धर्मशाला तक जा सकती है । धर्मशाला से मन्दिर / कि. मी. दूर है। सुविधाएँ * ठहरने के लिये श्वेताम्बर व दिगम्बर धर्मशालाएँ हैं, जहाँ पानी, बिजली व बर्तनों की सुविधा है । पेढ़ी * 1. श्री जैन श्वेताम्बर तीर्थ सोसायटी (भेलुपुर) चन्द्रपुरी तीर्थ, पोस्ट : चन्द्रावती - 221 104. जिला : वाराणासी. प्रान्त : उत्तर प्रदेश, फोन : 0542-615316. 2. श्री दिगम्बर जैन मन्दिर, चन्द्रपुरी तीर्थ । पोस्ट : चन्द्रावती - 221 104. (उत्तर प्रदेश), फोन : 0542-615289 व 615331 पी.पी. श्री चन्द्रप्रभ जिनालय (दि.) - चन्द्रपुरी पीचन्द्रावती तीर्थ tilteenivevie Mirmirma श्री चन्द्रप्रभ जिनालय (श्वे.) - चन्द्रपुरी 98 Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सिहपुरी तीर्थ तीर्थाधिराज * 1. श्री श्रेयांसनाथ भगवान, श्वेत वर्ण, पद्मासनस्थ, लगभग 30 सें. मी.। (श्वेताम्बर मन्दिर) । 2. श्री श्रेयांसनाथ भगवान, श्वेत वर्ण, पद्मासनस्थ, लगभग 75 सें. मी.। (दिगम्बर मन्दिर)। तीर्थ स्थल * हीरावणपुर गाँव में श्वेताम्बर मन्दिर व सारनाथ चौराहे पर दिगम्बर मन्दिर । प्राचीनता * इस क्षेत्र का इतिहास वर्तमान चौबीसी के ग्यारहवें तीर्थंकर श्री श्रेयांसनाथ भगवान के समय से प्रारम्भ होता है । प्रागैतिहासिक काल में, प्रबल योग से जब नलिनगुल्म का जीव पूर्व के दो भव पूर्ण करके यहाँ के तात्कालिन राजा विष्णु की रानी, विष्णुदेवी की कुक्षि में प्रविष्ट हुआ उसी समय रानी विष्णु देवी ने तीर्थंकर जन्म-सूचक महा स्वप्न देखे । गर्भ काल की अवधि पूर्ण होने पर विष्णुमाता की कुक्षि से गेण्डे के चिन्हयुक्त पुत्र-रत्न का जन्म हुआ । दि. मान्यतानुसार माता का नाम वेणुदेवी था ।) इन्द्रादिदेवों ने जन्मकल्याणक महोत्सव उल्लासपूर्वक मनाया । राज-दरबार में भी बधाइयाँ बँटने लगी । पुत्र का नाम श्रेयांसकुमार रखा था । __यौवनावस्था पाने पर शादी की गई व राज्य भार संभाला । वर्षों पश्चात् एक दिन प्रभु ने दीक्षा लेने का निर्णय लिया व वर्षीदान देकर यहाँ के सहसाम्रवन में दीक्षा ग्रहण की । विहार करते हुए एक माह पश्चात् प्रभु पुनः इसी वन में आकर तंदुक वृक्ष के नीचे ध्यानावस्था में रहे । घातिया कर्मों का नाश करके माघ कृष्णा तीज के दिन प्रभु ने केवलज्ञान प्राप्त किया। (दि. मान्यतानुसार माघ शुक्ला पूर्णिमा को केवलज्ञान हुआ ।) इस प्रकार प्रभु के चार कल्याणक होने का सौभाग्य इस पावन भूमि को प्राप्त हुआ | आज यह स्थान सारनाथ के नाम से प्रसिद्ध है । श्रेयांसनाथ का अपभ्रंश नाम ही सारनाथ होने का अनुमान लगाया जाता है । क्योंकि सारनाथ नाम कैसे पड़ा इसका कोई इतिहास उपलब्ध नहीं । यहाँ पर 103 फुट उत्तुंग प्राचीन कलात्मक अष्टकोण श्री श्रेयांसनाथ भगवान (श्वे.) - सिंहपुरी स्तूप हैं, जो लगभग 2200 वर्ष प्राचीन माना जाता है। यह स्तूप देवानां प्रिय, प्रियदर्शी राजा द्वारा निर्माणित हुआ बताया जाता है । जैन मान्यता के अनुसार सम्राट अशोक के पौत्र श्री सम्प्रति राजा द्वारा श्री श्रेयांसनाथ भगवान की कल्याणक भूमि पर उनकी स्मृति में निर्माणित हुआ है । क्योंकि राजा सम्प्रति ने अपने लिए प्रियदर्शी शब्द का सर्वत्र प्रयोग किया है । कहीं-कहीं Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवानांप्रिय भी किया है । देवानाँप्रिय जैन परम्परा का शब्द है । वर्तमान में यह स्तूप पुरातत्व विभाग की देखरेख में है व संभवतः अशोक सम्राट द्वारा निर्माणित हुआ होगा ऐसा लिखा है । इस संभावना पर संशोधन आवश्यक है ताकि प्रमाणिकता का पता लग सके । __यहाँ भूगर्भ से प्राप्त शिलालेखों में भी जैन धर्म सम्बन्धी अनेकों लेख उत्कीर्ण हैं । यहाँ के मग उद्यान की प्राचीनता के विषय में भी खोज की जाय तो कुछ इतिहास प्रकट में आ सकता है । पाँचवीं शताब्दी में चीनी यात्री फाहियान ने इस स्थान का वर्णन किया है । सातवीं शताब्दी में चीनी यात्री हुएनसाँग ने भी वर्णन किया है । ग्यारहवीं सदी में यह स्थान मोहमद गज़नी के आधीन आया । तत्पश्चात् कन्नौज के राजा गोविन्दचन्द्र की रानी कुमारदेवी ने यहाँ एक धर्मचक्र जिन विहार बनाया था । सं. 1194 में शहाबुद्दीन गौरी के सेनापति कुतुबुद्दीन ने यहाँ के मन्दिरों को क्षति पहुँचाई तब दो विशाल स्तूपें बची थीं ऐसा उल्लेख है । अभी यहाँ सिर्फ एक श्वेताम्बर मन्दिर, एक दिगम्बर मन्दिर, एक स्तूप व एक बौद्ध मन्दिर हैं । विशिष्टता * वर्तमान चौबीसी के ग्यारहवें तीर्थंकर श्री श्रेयांसनाथ भगवान के च्यवन, जन्म, दीक्षा व केवलज्ञान कल्याणक होने का सौभाग्य इस पावन भूमि को प्राप्त हुआ है । यहाँ का विशाल व विचित्र प्राचीन कलात्मक स्तूप दर्शनीय है । भारत सरकार ने इस स्तंभ की सिंहत्रयी को राज्यचिह्न के रूप में मान्य करके व धर्मचक्र को राष्ट्र ध्वज पर अंकित करके यहाँ का ही नहीं श्रमण संस्कृति का गौरव बढ़ाया है । बौद्ध मान्यतानुसार बुद्ध भगवान ने सर्व प्रथम अपने पंचवर्गीय शिष्यों को यहीं पर उपदेश दिया था। बौद्ध ग्रन्थों में इसका नाम ऋषिपतन और मृगादान आता है । अन्य मन्दिर * वर्तमान में इनके अतिरिक्त अन्य कोई मन्दिर नहीं हैं । स्तूप की विचित्र कला का जितना वर्णन करें, कम हैं। मार्ग दर्शन * बनारस छावनी स्टेशन से यह स्थान 8 कि. मी. है, जहाँ से बस, टेक्सी की सुविध ॥ है । सारनाथ चौराहे के पास दिगम्बर मन्दिर है। श्वेताम्बर मन्दिर सारनाथ से 12 कि. मी. दूर श्री श्रेयांसनाथ जिनालय (श्वे.) - सिंहपुरी 100 Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हीरावणपुर में है। कार व बस मन्दिरों तक जा सकती है । सुविधाएँ * श्वेताम्बर मंदिर के पास ही सर्वसुविधायुक्त धर्मशाला है। संघ वालों के लिये बड़ा हाल व रसोड़ा भी है । भाते की भी व्यवस्था हैं । मन्दिर के चारों और बगीचा है, जहाँ 20 बसें ठहर सकती हैं । दिगम्बर मन्दिर के निकट भी धर्मशाला है, जहाँ पानी, बिजली, बर्तन व बिस्तरों की सुविधा है । पेढ़ी * 1. श्री चिन्तामणी पार्श्वनाथ जैन श्वेताम्बर पंचायती बड़ा मन्दिर एवम् तीर्थ महासभा । : : गाँव हीरावणपुर पोस्ट सारनाथ 221007. जिला वाराणासी प्रान्त उत्तर प्रदेश, : फोन : 0542-585017. मुख्य कार्यालय : 401346. 2. श्री दिगम्बर जैन श्रेयांसनाथ मंदिर, सिंहपुरी ( संचालक : श्री दि. जैन समाज, काशी) - 221 007. पोस्ट : सारनाथ जिला : वाराणासी, प्रान्त उत्तर प्रदेश | Watt sed श्रीनाथ भग सिंहपुरी श्री श्रेयांसनाथ जिनालय (दि.) - सिंहपुरी श्री श्रेयांसनाथ भगवान (दि.) - सिंहपुरी wwww श्री 101 Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सुपार्श्वनाथ भगवान (श्वे.) - भदैनी 102 Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री भदैनी तीर्थ कल्याणक होने का सौभाग्य इस पावन भूमि को प्राप्त हुआ है । इसलिए इस स्थान की अपूर्व महानता है। भक्तगण अपने दुर्लभ मानव भव में इस पावन स्थल को स्पर्श करने का अमूल्य अवसर न चूकें । ऐसे पुण्य स्थलों के स्पर्श मात्र से आत्मा को शान्ति का अनुभव होता है । तीर्थाधिराज * 1. श्री सुपार्श्वनाथ भगवान, श्वेत वर्ण, पद्मासनस्थ, लगभग 68 सें. मी.। (श्वेताम्बर मन्दिर) । 2. श्री सुपार्श्वनाथ भगवान, श्वेत वर्ण, पद्मासनस्थ, लगभग 46 सें. मी.। (दिगम्बर मन्दिर)। तीर्थ स्थल * भेलपुर (वाराणसी) से 1.5 कि. मी. दूर गंगा नदी तट पर, जिसे जैन घाट कहते हैं । प्राचीनता * यह स्थल वाराणसी का एक अंग है। वाराणसी को प्राचीन काल से काशी भी कहते हैं। इस नगरी का इतिहास श्री ऋषभदेव भगवान के काल से प्रारम्भ हो जाता है । उस समय का कुछ इतिहास भेलपुर तीर्थ में दिया जा चुका है । प्रबल पुण्य योग से जब नन्दिषेण का जीव पूर्व के दो भवपूर्ण करके भाद्रवा कृष्णाअष्टमी के शुभ दिन अनुराधा नक्षत्र में यहाँ के इक्ष्वाकु वंशी राजा प्रतिष्ठा की रानी पृथ्वी की कुक्षि में प्रविष्ट हुआ तब उसी क्षण पृथ्वी रानी ने तीर्थंकर जन्म सूचक महा-स्वप्न देखे । गर्भ काल पूर्ण होने पर पृथ्वी देवी ने स्वस्तिक लक्षण युक्त पुत्र को जन्म दिया । इन्द्रादि देवों ने प्रभु का जन्म कल्याणक मनाया । बाल्यावस्था पूर्ण होने पर शादी की गई व राज्य भार संभाला । राज्य कार्य करते हुए एक दिन दीक्षा लेने की भावना जाग्रत हुई । प्रभु ने वर्षीदान देकर यहाँ के सहसाम्रवन में एक हजार राजाओं के साथ दीक्षा ग्रहण की । नव मास तक बिहार करते हुए इसी वन में पुनः आकर सरीस वृक्ष के नीचे ध्यानावस्था में रहे व ज्ञानावरणादि कर्मों का क्षय होने पर उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हुआ । इन्द्रादिदेवों द्वारा समवसरण की रचना की गई । __ इस प्रकार वर्तमान चौबीसी के सातवें तीर्थकर श्री सुपार्श्वनाथ भगवान के चार कल्याणक होने का सौभाग्य इस भूमि को प्राप्त हुआ है । प्रभु की कल्याणक भूमि होने के कारण यहाँ अनेकों मन्दिरों का निर्माण हुआ होगा । आज यहाँ सिर्फ ये ही दो मन्दिर हैं जो पूर्व इतिहास की याद दिलाते हैं । विशिष्टता * वर्तमान चौबीसी के सातवें तीर्थंकर श्री सुपार्श्वनाथ भगवान के च्यवन, जन्म, दीक्षा व केवलज्ञान श्री सुपार्श्वनाथ जिनालय (वे.) - भदैनी अन्य मन्दिर * इन मन्दिरों के अतिरिक्त वर्तमान में यहाँ कोई मन्दिर नहीं हैं । कला और सौन्दर्य * गंगा नदी के तट पर इन मन्दिरों का दृश्य अति ही शोभायमान लगता है । अति ही शांत वातावरण में कल-कल बहती हुई नदी भी अपनी मन्द मधुर आवाज से मानों प्रभु का नाम निरन्तर स्मरण कर रही हो-ऐसा प्रतीत होता है । मार्ग दर्शन * वाराणासी रेल्वे स्टेशन यहाँ से लगभग 4 कि. मी. है, जहाँ से टेक्सी व रिक्शों की सुविधा है । मन्दिरों से लगभग 100 मीटर दूरी तक कार व बस जा सकती है । 103 Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 104 श्री सुपार्श्वनाथ भगवान (दि.) भदैनी सुविधाएँ ठहरने के लिए यहाँ श्वेताम्बर व दिगम्बर धर्मशालाएँ है। लेकिन भेलुपूर (बनारस) में ठहरकर ही यहाँ दर्शनार्थ आना सुविधाजनक है, जो यहाँ से सिर्फ 1 कि. मी. पर ही है। जहाँ पर सभी प्रकार की सुविधाएँ उपलब्ध है । पेड़ी * श्री सुपार्श्वनाथ भगवान जैन श्वेताम्बर मन्दिर, भदैनी घाट । पोस्ट : बनारस 221 010. जिला : बनारस, प्रान्त उत्तर प्रदेश, मुख्य कार्यालय भेलुपुर, फोन : 0542-275407. : 2. श्री सुपार्श्वनाथ भगवान जैन दिगम्बर मन्दिर, भदैनी घाट । पोस्ट : बनारस 221 010. श्री सुपार्श्वनाथ जिनालय (दि.) - भदैनी - जिला मुख्य कार्यालय भेलुपुर, फोन 0542-275892. : : बनारस, प्रान्त उत्तर प्रदेश । Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री भेलुपुर तीर्थ तीर्थाधिराज * 1. श्री पार्श्वनाथ भगवान, श्वेत वर्ण, लगभग 60 सें. मी.। (श्वेताम्बर मन्दिर) प्राचीन मूलनायक । 2. श्री पार्श्वनाथ भगवान, पद्मासनस्थ, श्याम वर्ण, लगभग 75 सें. मी.। (दिगम्बर मन्दिर)। तीर्थ स्थल * बनारस शहर के भेलूपुर मोहल्ले में विजयनगरम पेलेस के पास। प्राचीनता * इस नगरी के वाराणसी व काशी नाम प्राचीन काल से आज तक जन साधारण में प्रचलित हैं । यहाँ का इतिहास युगादिदेव श्री आदिनाथ भगवान के समय से प्रारम्भ हो जाता है । काशी के नरेश अकम्पन की पुत्री सुलोचना का यहीं पर स्वयंवर रचा गया था । सुलोचना ने भरत चक्रवर्ती के प्रधान सेनापति जयकुमार (बाहुबली के पौत्र) को स्वयंवर के समय गले में वरमाला डालकर पति के रूप में स्वीकार किया था । इस नगरी के इक्षवाकु वंशीय राजा अश्वसेन की रानी वामादेवी ने चैत्र कृष्ण चतुर्थी की रात्री में तीर्थंकर-जन्म-सूचक महा-स्वप्न देखे । उसी क्षण भरुभूति का जीव पिछले नव भव पूर्ण करके वामा माता की कुक्षि में प्रविष्ट हुआ । गर्भ काल पूर्ण होने पर पौष कृष्णा दशमी के दिन अनुराधा नक्षत्र में सर्प-लक्षण वाले पुत्र को वामा माता ने जन्म दिया । इन्द्रादि देवों ने प्रभु का जन्म कल्याणक अति उल्लासपूर्वक मनाया। राज दरबार में भी बधाइयाँ बँटने लगीं । प्रभु का नाम पार्श्वकुमार रखा गया । बाल्यावस्था पूर्ण होने पर राजा प्रसेनजित की पुत्री प्रभावती के साथ उनकी शादी हुई । राजकुमार पार्श्व ने एक दिन एक तपस्वी को धूनी लगाकर पंचाग्नि तप करते देखा । राजकुमार पार्श्व को अवधिज्ञान से मालूम पड़ा कि जलते लकड़े में सर्प-सर्पिणी तड़प रहे हैं । तुरन्त लकड़े को चीरकर सर्प-सर्पिणी को निकाला व नवकार महामंत्र सुनाया । वे मरकर नवकार मंत्र के प्रभाव से धरणेन्द्र, पद्मावती नाम के देव हुए । श्री पार्श्वनाथ जिनालयों का दृश्य भेलुपुर-बनारस 105 Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री पार्श्वनाथ भगवान प्राचीन मूलनायक (श्वे.) 106 Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक दिन पार्श्वकुमार को दीक्षा लेने की भावना जाग्रत हुई । प्रभु ने वर्षीदान देकर यहाँ आश्रमपद नामक उद्यान में पौष कृष्णा ग्यारस के दिन अनुराधा नक्षत्र में तीन सौ राजाओं के साथ दीक्षा अंगीकार की। विहार करते हुए प्रभु पुनः यहाँ आये व उसी आश्रमपद उद्यानमें धातकी वृक्ष के नीचे कायोत्सर्ग ध्यान में रहें। दीक्षा के 84 दिनों के पश्चात् घातिया कर्मों का नाश होने पर चैत्र कृष्णा चतुर्थी के दिन विशाखा नक्षत्र में प्रभु को केवलज्ञान प्राप्त हुआ । इन्द्रादिदेवों द्वारा समवसरण की रचना की गई । उस समय हस्तिनापुर के राजा स्वयंभू समवसरण में उपस्थित थे, उन्होंने प्रभु के पास दीक्षा ग्रहण की व बाद में वे प्रभु के प्रथम गणधर बनकर आर्यदत्त नाम से प्रचलित हुए । प्रभु के माता पिता व भार्या ने भी दीक्षा ग्रहण की ।। इस प्रकार पार्श्वप्रभु के चार कल्याणक इस पावन भूमि में हुए हैं । (दिगम्बर मान्यतानुसार प्रभु का च्यवन वैशाख कृष्णा द्वितीया को, जन्म पौष कृष्णा ग्यारस को हुआ बताया है एवं कन्नोज के नरेश रविकीर्ति की पुत्री प्रभवाती के साथ विवाह के लिए पार्श्व कुमार से निवेदन किया गया था परन्तु विवाह नहीं हुआ ऐसा मत है । रविकीर्ति पार्श्वकुमार के मामा बताये जाते हैं)। भगवान महावीर के समय यह मल्लजाति के राजाओं की राजधानी थी । महाराज श्रेणिक को यह शहर दहेज में दिया गया था ऐसा उल्लेख है । भगवान बुद्ध यहाँ आये तब पार्श्वनाथ भगवान के अनेकों शिष्यों श्री पार्श्वनाथ भगवान वर्तमान मूलनायक (श्वे.) से उनकी यहाँ भेंट हुई थी-ऐसा उल्लेख है । प्रागैतिहासिक काल से यहाँ अनेकों मन्दिर बने । परन्तु कालक्रम से अनेकों बार जीर्ण हुए व पुनः बने। भावात्मक है । यही प्रतिमा प्राचीन मूलनायक बताई स्थानीय भारतीय कलाभवन में पुरातत्व सम्बधी बहुमूल्य जाती है । हाल ही में पुनः जीर्णोद्धार होकर वि. सं. सामग्री संग्रहीत हैं, जो यहाँ की प्राचीनता को प्रमाणित 2057 में प. पू आचार्य भगवंत श्री राजयशसूरीश्वरजी करती है । चौदहवीं सदी में आचार्य जिनप्रभसूरीश्वरजी म. सा. के सुहस्ते पुनः प्रतिष्ठा सम्पन्न हुई । उक्त द्वारा रचित विविध तीर्थ कल्प में यहाँ पार्श्वनाथ मन्दिर उल्लेखित प्राचीन मूलनायक प्रभु प्रतिमा पुनः यहीं के पास तालाब रहने का उल्लेख किसा है । सम्भवतः सभा मण्डप में विराजमान करवाई गई । वह मन्दिर यह भेलुपुर का मन्दिर ही हो । जीर्णोद्धार विशिष्टता वर्तमान काल के प्रकट प्रभावी, के समय श्वेताम्बर मन्दिर में प्राचीन प्रतिमा के स्थान साक्षात्कार, भक्तों के संकट हरनार तेईसवें तीर्थंकर श्री पर दूसरी प्रतिमा प्रतिष्ठत की गई होगी । प्राचीन __पार्श्वनाथ भगवान के चार कल्याणक च्यवन, जन्म, प्रतिमा भी इसी मन्दिर की भमती में विराजमान दीक्षा व केवलज्ञान से यह भूमि पावन बनी है । जिस करवाई गई है जो अति ही सुन्दर, कलात्मक व भूमि को प्रभु के जन्म से लेकर केवलज्ञान तक होने 107 Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ H arrerandir RELATESTEERTANT FIGINLSELHI श्री पार्श्वनाथ भगवान (दि.) - भेलुपुर-बनारस का सौभाग्य मिला हो, उस स्थान का वर्णन किन शब्दों में किया जाय । कितनी ही महान भाग्यशाली आत्माओ ने प्रभु वाणी का यहाँ अमृतपान पिया होगा, ऐसी पवित्र पुण्य स्थली का कण-कण वन्दनीय है । पार्श्वनाथ भगवान ने यहीं पर जलती हुई आग से तड़फते हुए नाग, नागिन को निकालकर मरणासन्न अवस्था में परम नवकार महामंत्र का पाठ सुनाया था। जिससे अगले भव में धरणेन्द्र व पद्मावती हुए, जो प्रभु के शासन में शासनदेव व शासनदेवी बने, जिन्हें अधिष्ठायक व अधिष्ठात्री भी कहते हैं । वे आज भी जैन शासन की प्रभावना के कार्यों में साक्षात्कार हैं । इनके स्मरण मात्र से श्रद्धालु भक्त जनों की मनोकामनाएँ पूर्ण होती हैं । प्रायः हर साधना में इनके नाम का स्मरण किया जाता है जिससे सारे कार्य निर्विघ्न सुख-शान्ति पूर्वक पूर्ण होते हैं । आज भी जगह-जगह चमत्कारिक घटनाओं के घटने के वृतान्त भक्तजनों द्वारा अभिहित किये जाते हैं। ऐसे प्रकट प्रभावी शासनदेव व शासनदेवी भी इसी पावन भूमि में हुए । ऐसी पावन 108 Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमि का जितना वर्णन करें कम हैं । काशी-विश्वनाथ मार्ग दर्शन यहाँ का वाराणसी (केंट) रेल्वे भगवान का विशाल मन्दिर यहाँ होने के कारण हिन्दुओं स्टेशन 3 कि. मी. है, जहाँ से टेक्सी व आटो की का भी यह बड़ा तीर्थ धाम हैं । एक समय यह नगरी सुविधा है। मन्दिर तक कार व बस जा सकती है । निम्न चार भागों में बसी हुई थी । सुविधाएँ मन्दिरों के निकट ही श्वेताम्बर व 1. देव वाराणसी जहाँ विश्वनाथ का मन्दिर है । दिगम्बर सर्वसुविधायुक्त विशाल धर्मशालाएँ व हाल 2. विजय वाराणसी जहाँ भेलूपुर का मन्दिर है । आदि हैं, यहाँ भोजनशाला की सुविधा भी उपलब्ध है। 3. मदन वाराणसी जो आज मदनपुरा नाम से पेढ़ी श्री जैन श्वेताम्बर तीर्थ सोसायटी, भेलुपुर पहचानी जाती हैं । पोस्ट : वाराणसी - 221 010. प्रान्त : उत्तर प्रदेश, 4. राजधानी वाराणसी जहाँ मुसलमानों की अधिक फोन : 0542-275407. फेक्स : 310935. बस्ती थी । 2. श्री पार्श्वनाथ दिगम्बर जैन तीर्थ क्षेत्र, अन्य मन्दिर इन मन्दिरों के अतिरिक्त 12 संचालक : श्री दिगम्बर जैन समाज (काशी), श्वेताम्बर व 11 दिगम्बर मन्दिर हैं । कुल पोस्ट : वाराणसी - 221 010. (उत्तर प्रदेश), 23 मन्दिर हैं । फोन : 0542-275892 व 275357. कला और सौन्दर्य यहाँ राजघाट व अन्य स्थानों पर खुदाई के समय जो पुरातत्व सामग्री प्राप्त हुई है वह स्थानीय कलाभवन में सुरक्षित हैं । इनमें पाषाण व धातु की अनेक कलात्मक प्राचीन जैन प्रतिमाएँ भी हैं। श्री पार्श्वनाथ मन्दिर (दि.) - भेलुपुर 109 Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री प्रभाषगिरि तीर्थ तीर्थाधिराज * श्री पद्मप्रभ भगवान, बादामी वर्ण, पद्मासनस्थ लगभग 75 सें. मी. (प्राचीन मूलनायक) (दि. मन्दिर)। तीर्थ स्थल * यमुना नदी के तट पर बसे छोटे से पभोषा गाँव में एक पहाड़ी पर । प्राचीनता * दिगम्बर मान्यतानुसार छठे तीर्थंकर श्री पद्मप्रभ भगवान की दीक्षा व केवलज्ञान कल्याणक इस पावन भूमि में हुए हैं । किसी समय यह स्थल कौशाम्बी नगरी का एक उद्यान था । ई. सं. पूर्व के शिलालेख यहाँ प्राप्त हुए हैं । प्रतिमा भी ई. पूर्व शताब्दी की मानी जाती हैं । कहा जाता है एक वक्त कौशाम्बी के पुजारी को स्वप्न में संकेत मिला कि पास के कुएँ में पद्मप्रभ भगवान की अतिशयकारी प्राचीन प्रतिमा है, इसे निकालकर उचित स्थान पर मन्दिर में विराजमान किया जाय । स्वप्न के आधार पर अनुसंधान करने से प्रतिमा प्राप्त हुई, जिसे इस मन्दिर में विराजमान करवाया गया । __पहाड़ के एक हिस्से के गिर जाने से मन्दिर को क्षति पहुँची थी, लेकिन प्रतिमाओं को कोई क्षति नहीं पहुँची । वही प्राचीन अलौकिक प्रतिमा अभी भी विद्यमान हैं । हाल ही में मन्दिर का जीर्णोद्धार हुवा तब नवीन प्रभु प्रतिमा प्रतिष्ठित करवाई गई । विशिष्टता * दिगम्बर मान्यतानुसार श्री पद्मप्रभ भगवान ने यहाँ के उद्यान में दीक्षा ग्रहण करके तपश्चर्या करते हुए केवलज्ञान प्राप्त किया था । अतः जिस भूमि में प्रभु ने दीक्षा ग्रहण करके वहीं तपश्चर्या करते हुए केवलज्ञान पाया हो उस पवित्र भूमि की महानता अवर्णनीय हैं । यह भी एक किवदन्ति है कि द्वारका नगरी भस्म होने पर श्री कृष्ण व बलराम भ्रातागण इस उद्यान में आये थे । एक समय श्री कृष्ण पहाड़ पर इस उद्यान में पेड़ के नीचे विश्राम कर रहे थे । उस समय जरत्कुमार द्वारा चलाया गया बाण अचानक श्री कृष्ण के पैर में लगने के कारण श्री कृष्ण यहीं पर स्वर्ग सिध गरे थे । एक किंवदन्ती के अनुसार यह घटना महाराष्ट्र में मांगी-तुंगी पहाड़ पर घटकर वहाँ स्वर्ग सिधारें थे ऐसा कहा जाता है । श्री पद्मप्रभ भगवान प्राचीन मूलनायक (दि.)-प्रभोषा 110 Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पभोषा अतिशय स्थल भी माना जाता है। प्रभु प्रतिमा का वर्ण सुबह से शाम तक बदलता रहता है । कभी-कभी रात में केशरिया बून्दों की वर्षा होती है कहा जाता है चैत्री पूर्णिमा व कार्तिक शुक्ला 13 को ज्यादा मात्रा में केशरी वर्षा होती है । । प्रतिवर्ष चैत्री पूर्णिमा को मेला भरता है तब जगह-जगह से यात्री इकट्ठे होकर प्रभु-भक्ति का लाभ लेते हैं । अन्य मन्दिर * वर्तमान में यहाँ इसके अतिरिक्त पहाड़ी के ऊपरी भाग में दो दिगम्बर मन्दिर व एक मान स्थंभ है, वहाँ जाने हेतु 100 पगयिये बने हुवे हैं निकट ही प्राचीन मन्दिरों के खण्डहर पड़े हैं । कला और सौन्दर्य * श्री पद्मप्रभ भगवान के प्रतिमा की कला का जितना वर्णन करे कम हैं। यहाँ आसपास में जैन पुरातत्व संबंधी सामग्री व मूर्तियाँ मिलती रहती हैं। यहाँ की प्राचीन प्रतिमाएँ प्रायः थुंग और मित्तवंशी राजाओं के काल की मालूम पड़ती हैं। यमुना नदी के किनारे बसा यह पावन क्षेत्र अतीव रमणिक है । मार्ग दर्शन * नजदीक का रेल्वे स्टेशन अलाहाबाद 65 कि. मी. है, जहाँ से मनोरी, मंजनपुर टेबा होते हुए भी बस व कार द्वारा आया जा सकता है । नजदीक का गाँव गिराजु 3 कि. मी. है । कौशाम्बी से पाली होते हुए 8 कि. मी. है, लेकिन यह रास्ता फिलहाल कच्चा है । तलहटी तक बस व कार जा सकती है। पहाड़ी चढ़ने के लिए 175 सीढ़ियाँ है । जो बहुत सुलभ है । सुविधाएँ * निकट ही सर्वसुविधायुक्त विशाल धर्मशाला व एक हॉल है । जहाँ भोजनशाला की सुविधा भी उपलब्ध है। कहने पर या पूर्व सूचना पर भोजन का इंतजाम कर दिया जाता है । पेढ़ी * श्री पद्मप्रभु दिगम्बर जैन अतिशय तीर्थ क्षेत्र, प्रभाषगिरी (पभोषा) पोस्ट : जिला: फोन : 05331-66144. गिराजु - 212 214. तहसील: मंजनपूर, कौशाम्बी, प्रान्त उत्तर प्रदेश, 品 श्री पद्मप्रभ भगवान वर्तमान मूलनायक (दि.) - प्रभोषा श्री पद्मप्रभ भगवान (दि.) मन्दिर पभोषा 111 Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री पद्मप्रभ भगवान (श्वे.) कौशाम्बी श्री कौशाम्बी तीर्थ तीर्थाधिराज * श्री पद्मप्रभ भगवान, श्वेत वर्ण, पद्मासनस्य लगभग 30 सें. मी. (श्वे मन्दिर) । श्री पद्मप्रभ भगवान (दि. मन्दिर ) । तीर्थ स्थल * यमुना तट पर बसे गढ़वा कोशल इनाम गाँव से एक कि. मी. दूर । प्राचीनता इस तीर्थ की प्राचीनता का इतिहास श्री पद्मप्रभ भगवान के समय से प्रारम्भ होता है । श्री पद्मप्रभ भगवान का च्यवन, जन्म, दीक्षा व केवलज्ञान कल्याणक होने का सौभाग्य इस पावन भूमि को प्राप्त हुआ। प्रभु के प्रथम समवसरण की रचना देवकुबेर द्वारा यहीं की गई । (दिगम्बर मान्यतानुसार प्रभु की दीक्षा व केवलज्ञान कल्याणक यहाँ की उपनगरी पभोषा के मनोहर उद्यान में हुआ माना जाता है ।) गंगा नदी में भारी बाढ़ आने के कारण जब हस्तिनापुर नगरी का प्रलय हुआ, उस समय राजा परीक्षित् के उत्तराधिकारियों ने कौशाम्बी को अपनी राजधानी बनाया था । वत्सदेश की राजधानी बनने का इसको सौभाग्य मिला था । आवश्यक सूत्र में कौशाम्बी नगरी यमुना नदी के किनारे रहने का उल्लेख है । 112 आर्य सुहस्तिसूरीश्वरजी और आर्य महागिरिसूरीश्वरजी आदि अनेकों प्रकाण्ड आचार्यगण इस तीर्थ में दर्शनार्थ पधारे। उस समय यहाँ अनेकों मन्दिर रहे होंगे । पाँचवीं सदी में चीनी यात्री फाहियान ने भी अपनी नोंध में इस नगरी का वर्णन किया है । श्री हेमचन्द्राचार्य ने भी "त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरित्र" में यहाँ का वर्णन किया है। चौदहवीं शताब्दी में आचार्य श्री जिनप्रभसूरीश्वरजी द्वारा रचित "विविध तीर्थ कल्प" में इस तीर्थ का उल्लेख है । वि. सं. 1556 में पं. हंससोम विजयजी यहाँ आये तब यहाँ के मन्दिर में 64 प्रतिमाएँ रहने का उल्लेख हैं। सं. 1661 में विजयसागरजी व सं. 1664 में श्री जयविजयगणी आये तब दो मन्दिर रहने का उल्लेख हैं। सं. 1747 में पं. सौभाग्यविजयजी ने यहाँ एक जीर्ण मन्दिर रहने का उल्लेख किया है । यहाँ भूगर्भ से अनेकों प्राचीन अवशेष प्राप्त हुए हैं, जो प्रयाग म्यूजियम में रखे हुए हैं । किसी समय की विराट नगरी कालक्रम से आज एक छोटे से गाँव में परिवर्तित हो गई। राजा शतानिक की महारानी सती मृगावती द्वारा बनाया हुआ किला ध्वंस हुआ पड़ा है, जो प्राचीनता की याद दिलाता है । कहा जाता है इस किले का घेराव चार मील का या व 32 दरवाजे थे, जिसकी 30-35 फुट ऊँची दीवारे ध्वस्त हुई दिखाई देती हैं । इस मन्दिर का अन्तिम जीर्णोद्धार कुछ वर्षों पूर्व हुवा था । प्राचीन प्रतिमा को कोई क्षति पहुँचने के कारण या और कोई कारणवश नई प्रतिमा प्रतिष्ठित करवाई गई जो अभी मूलनायक रूप में विधमान है । विशिष्टता * श्री पद्मप्रभ भगवान का व्यवन, जन्म, दीक्षा व केवलज्ञान कल्याणक होने का सौभाग्य इस पवित्र भूमि को मिला है। अतः यहाँ की मुख्य विशेषता है । भगवान महावीर का भी इस नगरी के साथ घनिष्ट संबंध रहा है । भगवान महावीर केवलज्ञान प्राप्ति के पूर्व भी इस नगरी में विचरे हैं । यहाँ का राजा शतानीक प्रभु का परम भक्त था । शतानीक की रानी सती मृगावती (वैशाली के राजा चेटक की पुत्री) ने अपने पुत्र उदयन को राज्यभार संभलाकर प्रभुवीर के पास दीक्षा ग्रहण की थी । Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री पद्मप्रभ भगवान (दि.)-कौशाम्बी प्रभुवीर ने एक बार कठिन अभिग्रह लिया था कि वे उसी के हाथों आहार लेंगे जिसका सिर मुंड़ा हुआ हो, पैरों में बेड़ियाँ हों, एक पैर दरवाजे के बाहर व एक पैर अन्दर हो, आँखों में अश्रु-धारा बह रही हो, राजकुमारी हो व छाजड़े में बाकले लिये बहराने के लिए खड़ी हो । इस अभिग्रह के पूर्ण हेतु प्रभु विचरते रहे । प्रभु द्वारा आहार न लेने के कारण भक्तजन अति व्याकुल थे । सती चन्दनबाला का भाग्योदय होने वाला था । उसे सेठानी द्वारा कठिन दण्ड देकर खाने के लिए बाकले दिये गये । किसी महात्मा को आहार देकर खाने के लिये उक्त प्रकार खड़ी राह देख रही थी कि प्रभु को आते देख फूली न समाई । प्रभु की दृष्टि भी इस अबला पर पडी, परंतु अश्रु-धारा न रहने के कारण प्रभु का अभिग्रह पूर्ण न हो रहा था । अतः ज्यों ही जाने लगे, सती चन्दनबाला की आँखों से अश्रु-धारा बहने लगी । प्रभु ने अपना अभिग्रह पूर्ण हुआ देखकर आहार ग्रहण किया । प्रभु का अभिग्रह पूर्ण होते ही देव दुंदुभियाँ बजने लगी व इन्द्रादि देवों ने रत्नों व पुष्पों की वर्षा की । सती की बेड़ियाँ टूटी, सिर पर बालों के साथ देव मुकुट धारण हुआ । शरीर नाना प्रकार के आभूषणों से सजा पाया । सती चन्दन बाला ने भी प्रभु के पास यही दीक्षा ग्रहण की व प्रभु की प्रथम शिष्या बनने का सौभाग्य उसे प्राप्त हुआ । प्रभु के केवलज्ञान पश्चात यहाँ भी समवसरण रचे गये । मुनि श्री कपिल केवली की भी यह जन्म भूमि हैं । इस प्रकार इस पावन भूमि का इतिहास अत्यन्त ही गौरवशाली है । अन्य मन्दिर * वर्तमान में इन मन्दिरों के अतिरिक्त दो और मन्दिर हैं । नजदिक के गाँव गढ़वा जो यहाँ से 3 कि. मी. दूर हैं, वहाँ एक दि. मन्दिर है। कला और सौन्दर्य * यहाँ प्राचीन नगर के भग्नावशेष मीलों में बिखरे पड़े हैं । एक प्राचीन स्तम्भ है, जिसे श्री संप्रतिराजा द्वारा निर्मित बताया जाता है। मार्ग दर्शन * नजदीक का रेल्वे स्टेशन अलाहाबाद 60 कि. मी. है, जहाँ पर बस व टेक्सी की सुविधा उपलब्ध है । अलाहाबाद से सड़क मार्ग द्वारा सरायअकिल होकर भी रास्ता है जो यहाँ से 18 कि.मी. है । बस व कार मन्दिर तक जा सकती है । विधाएँ * श्वे. मन्दिर के निकट ही एक छोटी श्वेताम्बर धर्मशाला व हॉल है एवं कुछ दूरी पर एक और बड़ी श्वे. धर्मशाला है जिसमें 32 कमरें हैं । भोजनशाला का हाल भी बन चुका है, जहाँ पर शीघ्र ही भोजनशाला चालु होने वाली है । बिजली, पानी जनरेटर की सुविधा है । दि. मन्दिर के निकट भी एक दिगम्बर धर्मशाला है जहाँ बिजली, पानी की सुविधा है । पेढ़ी *1. श्री जैन श्वेताम्बर मन्दिर, पोस्ट : कौशाम्बी-212 214. जिला : कौशाम्बी, प्रान्त : उत्तर प्रदेश । 2. श्री जैन दिगम्बर मन्दिर, पोस्ट : कौशाम्बी - 212 214. जिला : कौशाम्बी, प्रान्त : उत्तर प्रदेश । श्री पद्मप्रभ (श्वे.) मन्दिर - कौशाम्बी 113 Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रभु ने जिस वटवृक्ष के नीचे केवलज्ञान पाया उसे श्री पुरिमताल तीर्थ अक्षय वटवृक्ष कहने लगे व उस समय से नगरी का नाम प्रयाग पड़ा । तीर्थाधिराज * श्री आदीश्वर भगवान, श्वेत इन्द्रादि देवों ने केवलज्ञान-कल्याणक अति ही वर्ण, पद्मासनस्थ, लगभग 60 सें. मी. । (श्वे.) उल्लासपूर्वक मनाकर रत्नत्रयी सुन्दर समवसरण की मन्दिर)। रचना की । श्री आदीश्वर भगवान (दि. मन्दिर) । __ अद्वितीय रत्नों से जड़ित स्वर्ण-आभूषणों से सुसज्जित तीर्थ स्थल * इलाहाबाद शहर में । गज पर आरूढ़ प्रभु की मातु श्री मरूदेवी माता ने प्राचीनता * इस तीर्थ का इतिहास युगादिदेव अतिशययुक्त तीर्थंकरों के समवसरण वैभव को देखा । श्री आदिनाथ भगवान से प्रारम्भ होता है । यह कौशल आनन्दाश्रु के प्रबल प्रवाह से माता की आँखों में छाये जनपद की अयोध्या नगरी का एक उपनगर था । हुए जाले साफ हो गये । तत्काल ही समकाल में पुराने जमाने में यह स्थल पुतिमताल व प्रयाग नाम अपूर्वकरण के क्रम से वे क्षपकश्रेणी में आरूढ़ हुई, से मशहूर था । प्राचीन ग्रन्थों में इस नगरी का घातिया कर्मों का नाश होने से उन्हें केवलज्ञान प्राप्त पुरिमतालपाड़ा के नाम से भी उल्लेख हैं । हुआ । वे अन्तःकृत केवली हुई । उसी समय उनकी __प्रथम तीर्थंकर श्री आदीश्वर भगवान ने यहाँ शकटमुख आयु आदि अघाति कर्म भी नाश हो गये । उनकी नामक उद्यान में वटवृक्ष के नीचे शुक्लध्यान में रहते आत्मा हाथी के हौदे में ही देह त्याग कर मोक्ष हुए फाल्गुन कृष्णा ग्यारस के शुभ दिन उत्तराषाढ़ा सिधारी । नक्षत्र में प्रातः केवलज्ञान प्राप्त किया था । उस वक्त प्रभु के पौत्र श्री ऋषभसेन यहाँ के राजा (दि. मान्यतानुसार प्रभु का दीक्षा-कल्याणक भी इसी थे व उक्त अवसर पर अनेकों राजाओं के साथ दर्शनार्थ नगरी में हुआ ) आये व प्रभावित होकर दीक्षा अंगीकार की जो बाद में प्रभु के प्रथम गणधर बने । श्री अदिनाथ प्रभु (श्वे.) मन्दिर - पुरिमताल Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (दि. मान्यतानुसार श्री ऋषभसेन को प्रभु का पुत्र बताया है) । श्री आदीश्वर भगवान के बाद अन्य तीर्थंकरों का भी यहाँ पदार्पण हुआ । चरम तीर्थंकर श्री महावीर भगवान भी यहाँ शकटमुख उद्यान में ध्यानावस्थित रहे वे उस समय यहाँ के राजा महाबल थे। प्रभु वीर का भी यहाँ समवसरण रचा गया था । जिस वटवृक्ष के नीचे श्री आदीश्वर भगवान को केवलज्ञान हुआ था, वहाँ पर प्रभु की चरण पादुकाओं के रहने का व वि. सं. 1556 में पं. हँससोमविजयजी द्वारा दर्शनार्थ वहाँ जाने का तीर्थ माला में उल्लेख है। चौदहवीं सदी में आचार्य श्री जिनप्रभसूरीश्वरजी द्वारा रचित "विविध तीर्थ कल्प" में यहाँ श्री शीतलनाथ भगवान का मन्दिर रहने का भी उल्लेख है । बादशाह अकबर के समय इस नगरी का नाम इलाहाबाद में परिवर्तित हुआ होगा । आज यहाँ एक श्वेताम्बर व एक दिगम्बर मन्दिर हैं। त्रिवेणी संगम के निकट किले में एक वटवृक्ष है । कहा जाता है कि यही उस प्राचीन वटवृक्ष का अंश है, जहाँ प्रभु ने केवलज्ञान प्राप्त किया था । इस वृक्ष के नीचे प्रभु की चरण पादुकाएँ स्थापित थीं, जो अब नहीं हैं । विशिष्टता इस तीर्थ की विशेषता का तो जितना वर्णन करें कम है । हमारे युगादिदेव प्रथम तीर्थंकर श्री आदीश्वर भगवान को केवलज्ञान यहीं प्राप्त हुआ । अतः इस युग में केवलज्ञानोत्पत्ति का प्रथम स्थान होने का सौभाग्य इसी पावन भूमि को प्राप्त हुआ । इन्द्रादि देवों द्वारा प्रथम समवसरण की रचना होने का सौभाग्य भी इसी पुण्यस्थली को मिला । माता मरुदेवी भी इसी स्थान पर केवलज्ञान प्राप्त कर मोक्ष सिधारी । इस अवसर्पिणीकाल में श्री मरूदेवी माता ने इसी पवित्र भूमि में मुक्ति पाकर सर्व प्रथम मोक्ष द्वार खोला । श्री आदीश्वर भगवान ने प्रथम देशनाँ, चतुर्विध संघ की स्थापना, गणधरपद प्रदान, द्वादशगी रचना, जैनधर्म सिद्धान्त, नियम-संयम, व्रत- महाव्रत आदि का मंगलाचरण इसी परम पवित्र भूमि में किया । इस श्री आदिनाथ भगवान (श्वे.) - पुरिमताल प्रकार तीर्थ की स्थापना होने पर प्रभु के पास रहने वाले "गोमुख" नाम के यक्ष अधिष्ठायक व प्रतिचक्रा नाम की देवी शासनदेवी बनी, जिसे चक्रेश्वरी देवी कहते हैं । श्री आदीश्वर भगवान के पश्चात् कई तीर्थंकरों का यहाँ पदार्पण हुआ । चरम तीर्थकर श्री महावीर भगवान का भी यहाँ समवसरण रचा गया था । भारत की पवित्र नदियों में गंगा, यमुना व सरस्वती का यहीं पर संगम होता है, जिसे त्रिवेणी संगम कहते हैं। इस तीर्थ स्थल का कण-कण वन्दनीय है । महाभारत व रामायण में भी इस प्रयाग नगरी का वर्णन आता है । भरद्वाज मुनि का यहाँ आश्रम था । मय नाम के शिल्पी ने पाण्डवों को मारने के लिये लाक्ष- गृह का निर्माण यहीं किया था । 115 Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्ग दर्शन * अलाहाबाद रेल्वे स्टेशन से श्वेताम्बर व दिगम्बर मन्दिर 3 कि. मी दूर हैं, जहाँ पर टेक्सी, आटो रिक्शों की सुविधा है । मन्दिर तक कार व बस जा सकती है । यहाँ से कौशाम्बी तीर्थ 60 कि. मी. व अयोध्या तीर्थ 72 कि. मी. दूर है । सुविधाएँ * ठहरने के लिए श्वेताम्बर व दिगम्बर धर्मशालाएँ मन्दिरों के पास ही हैं, जहाँ पानी व बिजली की सुविधा है । __ पेढ़ी * 1. श्री ऋषभदेवस्वामी जैन श्वेताम्बर मन्दिर 120, बाई का बाग, ग्वालियर स्टेट ट्रस्ट के सामने, पोस्ट : अलाहाबाद - 211003. प्रान्त : उत्तर प्रदेश, फोन : 0532-652838, 460064 पी.पी. 2. श्री दिगम्बर जैन पंचायत बड़ा मन्दिर, चाहचन्द मोहल्ला । पोस्ट : अलाहाबाद -211003. प्रान्त : उत्तर प्रदेश, फोन : 0532-400263. श्री आदिनाथ भगवान (दि.)-पुरिमताल हिन्दू लोग भी इसे तीर्थ-धाम मानते हैं । बारह वर्षों में एक बार कुंभ मेला भरता है । उस अवसर पर लाखों यात्रीगण यहाँ त्रिवेणी में नहाकर अपने को कृतार्थ मानते हैं । अन्य मन्दिर * इनके अतिरिक्त दिगम्बर समाज का एक पंचायती मन्दिर है । जहाँ प्राचीन कलात्मक प्रतिमाएँ दर्शनीय हैं । यहाँ से लगभग 13 कि. मी. दूर पर श्री आदिनाथ भगवान का तपस्थली स्वरूप विशाल दि. मन्दिर का निर्माण हुवा हैं । कला और सौन्दर्य * श्वेताम्बर व दिगम्बर मन्दिरों में कलात्मक प्राचीन प्रतिमाओं आदि के दर्शन होते हैं । यहाँ नगरपालिका द्वारा संचालित म्यूजियम है, जिसमें जैन पुरातन कलाकृतियों का सुन्दर संग्रह है, जो अत्यन्त दर्शनीय हैं । यहाँ के किले में एक स्तम्भ है जिसका निर्माण सम्राट संप्रति ने करवाया था जिसपर प्रियदर्शी (राजा संप्रति की उपाधि) व उनकी रानी आदि के लेख उत्कीर्ण हैं । इसे सम्राट अशोक द्वारा निर्मित भी बताया जाता है । श्री आदिनाथ मन्दिर (दि.)-पुरिमताल 116 Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री रत्नपुरी तीर्थ तीर्थाधिराज * श्री धर्मनाथ भगवान, चरणपादुकाएँ, श्याम वर्ण, (श्वे. मन्दिर ) । 2. श्री धर्मनाथ भगवान, श्वेत वर्ण, पद्मासनस्थ, लगभग 90 सें. मी. (दि. मन्दिर) । तीर्थ स्थल * रोनाही गाँव में । प्राचीनता इस तीर्थ की प्राचीनता श्री धर्मनाथ भगवान से प्रारम्भ होती है। प्रभु के च्यवन, जन्म, दीक्षा व केवलज्ञान कल्याणक यहाँ हुए । आज का रोनाही गाँव उस समय रत्नपुर नाम का विराट नगर था । पुष्य नक्षत्र वैशाख शुक्ला सप्तमी के शुभ रात्रि को में श्री दृढ़रथ का जीव यहाँ के राजा भानु की रानी सुव्रता की कुक्षी में प्रविष्ट हुआ उसी क्षण माता ने तीर्थंकर - जन्म - सूचक महा स्वप्न देखे । इन्द्रादि देवों ने प्रभु का च्यवन कल्याणक मनाया । गर्भकाल पूर्ण होने पर माघ शुक्ला तीज पुष्य नक्षत्र में वज्र लक्षणयुक्त पुत्र का जन्म हुआ । प्रभु गर्भ में वें तब रानी को धर्म करने का दोहला हुआ था । इसलिए प्रभु का नाम धर्मनाथ रखा । इन्द्रादि देवों व जन साधारण द्वारा जन्म कल्याणक उल्लासपूर्वक मनाया गया । (दिगम्बर मान्यतानुसार जन्म माघ शुक्ला तेरस को हुआ माना जाता हैं ।) युवावस्था पाने पर पाणिग्रहण किया व पाँच हजार वर्ष राज्य करके एक दिन दीक्षा लेने का निर्णय लिया। प्रभु ने वर्षीदान देकर प्रकांचन उद्यान में जाकर एक हजार राजाओं के साथ माघ शुक्ला तेरस के दिन पुष्य नक्षत्र में दीक्षा ग्रहण की । विहार करते हुए दो वर्ष पश्चात् पुनः उसी उद्यान में पधारे। दधिपर्ण वृक्ष के नीचे ध्यानावस्था में पौष शुक्ला पूर्णीमा के दिन पुष्य नक्षत्र में प्रभु को केवलज्ञान प्राप्त हुआ । इसमें कोई सन्देह नहीं कि धर्मनाथ भगवान की कल्याणक भूमि होने के कारण प्राचीन काल से यहाँ अनेकों मन्दिर बने होंगे व कालक्रम से अनेकों बार उत्थान-पतन हुआ होगा । वि की चौदहवीं सदी में आचार्य श्री जिनप्रभसूरीश्वरजी ने विविध तीर्थ' कल्प में इस तीर्थ का रत्नपुर नाम से उल्लेख किया है । श्री धर्मनाथ भगवान (श्वे. ) - रत्नपुरि CODOOOOOO श्री धर्मनाथ प्रभु चरण (श्वे.) रत्नपुरी आज श्वेताम्बर व दिगम्बर समाज के दो-दो मन्दिर नजर आते हैं । मन्दिर प्राचीन हैं । इस श्वे. मन्दिर का हाल ही पुनः जीर्णोद्धार होकर आचार्य भगवंत श्रीमद् विजय नित्यानन्दसुरिजी के करकमलों से पुनः प्रतिष्ठा सम्पन्न हुई । विशिष्टता श्री धर्मनाथ भगवान का च्यवन, जन्म, दीक्षा व केवलज्ञान कल्याणक होने का सौभाग्य इस पावन भूमि को प्राप्त हुआ है। अतः इस पुण्य भूमि का कण-कण पवित्र है । 117 Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री धर्मनाथ भगवान (दि.) - रत्नपुरी यहाँ के ग्रामीण लोग भगवान को धर्मराज नाम से पुकारते हैं व अभिषेक करते हैं, जिससे उनकी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं - ऐसा अभिहित है। दि. मन्दिर में माघ शुक्ला तेरस को जन्मोत्सव मनाया जाता है । अन्य मन्दिर * इनके अतिरिक्त एक श्वेताबर व एक दिगम्बर मन्दिर हैं । __ कला और सौन्दर्य * आज यहाँ कहीं प्राचीन कला के नमूने नज़र नहीं आते । हो सकता है जीर्णोद्धार के समय परिवर्तित किये गये हों । मागे दशेन * यहाँ से नजदीक का रेल्वे स्टेशन सोहावल 2 कि. मी. है, जहाँ पर आटों, टेक्शी की सवारी का साधन है । मन्दिरों तक पक्की सड़क है । लखनऊ से यह तीर्थ 110 कि. मी. फैजाबाद से 18 कि. मी. व अयोध्या से बाराबंकी मार्ग पर 24 कि. मी. दूर है । सुविधाएँ * ठहरने के लिए मन्दिरों के निकट ही श्वेताम्बर व दिगम्बर सर्वसुविधायुक्त नव-निर्मित धर्मशालाएँ हैं । __ पेढ़ी * 1. श्री अयोध्या तथा श्री रत्नपुरी जैन श्वेताम्बर तीर्थ ट्रस्ट, पोस्ट : रोनाही - 224 182. स्टेशन : सोहावल, जिला : फैजाबाद, प्रान्त : उत्तर प्रेदश । __2. श्री धर्मनाथ दिगम्बर जैन तीर्थ क्षेत्र, रत्नपुरी पोस्ट : रोनाही - 224 182. स्टेशन : सोहावल, जिला : फैजाबाद, प्रान्त : उत्तर प्रेदश । श्री धर्मनाथ भगवान प्राचीन चरण (दि.) श्री धर्मनाथ भगवान (श्वे.) - मन्दिर रत्नपुरी 118 Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अयोध्या तीर्थ तीर्थाधिराज * 1. श्री अजितनाथ भगवान, ताम्र वर्ण, पद्मासनस्थ, लगभग 30 सें. मी.(श्वे.मन्दिर)। 2. श्री आदीश्वर भगवान, कायोत्सर्ग मुद्रा में, श्वेत वर्ण, लगभग 885 सें. मी. (दि. मन्दिर)। तीर्थ स्थल * सरयू व घाघरा नदी के तट पर बसे अयोध्या शहर के कटरा मोहल्ले में श्वेताम्बर मन्दिर व रायगंज मोहल्ले में दि. मन्दिर । प्राचीनता * इस तीर्थ के प्राचीन नाम ईक्ष्वाकुभूमि, कोशल, विनीता, अयोध्या, अवध्या, रामपुरी, साकेतपुरी आदि शास्त्रों में बताये गये हैं । तीसरे आरे के अंतिम काल में यहाँ विमलवाहन आदि 7 कुलकर हुए, जिनमें अन्तिमकुलकर श्री नाभिराज हुए । (दिगम्बर मान्यातानुसार नाभिराज चौदहवें कुलकर हुए इन्हें मनु नाभिराज बताया है) । नाभिराज की पत्नी का नाम मरुदेवी था । उस समय युगल जोड़ो का ही जन्म होता था । आपस में एक ही साथ रहकर एक ही साथ मरते थे । उस समय "हाकार", "माकार" व "धिक्कार" का दण्डविधान चालू था । मरुदेवी माता ने आषाढ़ कृष्णा चतुर्थी के दिन उत्तराषाढ़ा नक्षत्र चन्द्रयोग में चौदह महा-स्वप्न देखे (दि. मान्यतानुसार सोलह स्वप्न) । उसी क्षण वज्रनाभ का जीव बारह भव पूर्ण करके मरुदेवी माता की कुक्षी में प्रविष्ट हुआ । गर्भकाल पूर्ण होने पर चैत्र कृष्णा अष्टमी के दिन उत्तराषाढ़ा नक्षत्र चन्द्रयोग में ऋषभचिह्वयुक्त पुत्र का जन्म हुआ । प्रभु का नाम ऋषभ रखा गया । प्रभु के साथ जन्मी कन्या का नाम सुमंगला रखा गया । इन्द्र-इन्द्राणियों ने प्रभु का जन्म कल्याणक मनाया । भगवान की आयु एक वर्ष होने पर सौधर्मेन्द्र दर्शनार्थ आये । तब साथ में इक्षुयष्टि (गन्ना) लेकर आये थे । प्रभु ने गन्ने की तरफ हाथ बढ़ाया । तभी से “इक्ष्वाकु वंश की स्थापना हुई मानी जाती है । यह भी कहा जाता है कि प्रभु ने इक्षुरस से पारणा किया उस के बाद उनके वंशज इक्षुवंशी कहलाये । नाभिराज कुलकर के समय कोई युगल संतान को एक ताड़ वृक्ष के नीचे रखकर क्रीड़ाग्रह में गया । हवा के झोंके से एक ताइफल बालक के मस्तक पर गिरने से बालक का देहान्त हो गया । बालिका अकेली रह गई ! माता पिता के देहान्त के बाद बालिका अकेली धूमने लगी । उस समय युगल जोड़े एक ही साथ जन्मते व मरते थे । इसलिये उस बालिका को अकेली देख सबको आश्चर्य हुआ व नाभिराज के पास ले गये । नाभिराज ने कहा कि यह ऋषभ की पत्नी बनेगी । उसका नाम सुनन्दा रखा गया । इस प्रकार ऋषभदेव भगवान सुमंगला व सुनन्दा के साथ बालक्रीड़ा करते हुए यौवन को प्राप्त हुए । सौधर्मेन्द्र ने प्रभु से लोक व्यवहार प्रारम्भ करने के लिए सुमंगला व सुनन्दा से विवाह करने का आग्रह किया । प्रभु ने सहमति देकर सुमंगला व सुनन्दा से शादी करके शादी की प्रथा को प्रारम्भ किया । ___ कालक्रम के प्रभाव से युगलियों में क्रोधादि कषाय बढ़ने लगे । इसलिए “हाकार", "माकार" और "धिक्कार" की दण्ड नीति निरूपयोगी हो गई । आपस में झगड़ा बढ़ने लगा । सब लोग नाभिकुलकर के पास गये । ऋषभ को राजा बनाने का निर्णय लेकर राजा बनाया गया । इस प्रकार अवसर्पिणीकाल में ऋषभदेव ही सबसे प्रथम राजा हुए । प्रभु ने राज-विधान बनाया । राजनैतिक व्यवस्था के लिए पुर, ग्राम, खेट नगर आदि की व्यवस्था करके राष्ट्र को 52 जनपदों में विभाजित किया । उस समय कल्प-वृक्षों का सर्वथा अभाव हो गया था । प्रभु ने यहीं पर सबसे पहले असि, मसि, कृषि, विद्या, शिल्प व वाणिज्य इन छह कर्मो का ज्ञान समाज को दिया था । अलग-अलग जातियाँ व कुल बनाये । पुरुषों को 72 कलाओं व स्त्रियों को 64 कलाओं का ज्ञान करवाया । ब्राह्मी को अठारह लिपियों का व सुन्दरी को गणित का ज्ञान समझाया । इस प्रकार उस समय से व्यवहारिक प्रथा प्रारम्भ हुई । वसन्त ऋतु में प्रभु को परिजनों के संग नंदनोद्यान में क्रीड़ा करते समय वैराग्य उत्पन्न हुआ । प्रभु ने अपने ज्येष्ठ पुत्र भरत व अन्य पुत्रों को राज्य भार संभलाया व वर्षीदान प्रारम्भ किया । प्रभु ने एक वर्ष में तीन सौ अठासी करोड़ अस्सी लाख स्वर्ण मुद्राएँ दान देकर चैत्र कृष्णा अष्टमी के दिन उत्तराषाढ़ा नक्षत्र में दीक्षा अंगीकार की । प्रभु का दीक्षा-महोत्सव इन्द्रादि टेलों त आम जनताले ति लास पक मनाया 119 Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रभु के साथ कच्छ महाकच्छ आदि राजाओं ने भी दीक्षा उक्त समय यहाँ घाघरा व सरयू नदी के तट पर अंगीकार की । दीक्षा के बाद प्रभु का अनेकों बार यहाँ "स्वर्गद्वार" रहने व उस स्थान पर जिन मन्दिर में पदार्पण हुआ व समवसरण भी रचा गया । (दिगम्बर रत्नों से निर्मित गोखलों में चक्रेश्वरी देवी व गोमुख मान्यतानुसार श्री ऋषभ देव भगवान का जन्म-कल्याणक यक्ष की प्रतिमाएँ रहने का उल्लेख किया है । इसके चैत्र कृष्णा नवमी को उत्तराषाढ़ा नक्षत्र में यहाँ हुआ अतिरिक्त यहाँ श्री नाभिराज मन्दिर, पार्श्व वाटिका एवं माना जाता है व दीक्षा चैत्र कृष्णा नवमी को उत्तराषाढ़ा सीताकुण्ड आदि भी थे-ऐसा उल्लेख है । नक्षत्र में पुरिमताल (प्रयाग) में हुई मानी जाती है । बारहवीं सदी में यहाँ से तीन प्रतिमाएँ शेरीशा ले इनके पश्चात् श्री अजितनाथ भगवान, श्री अभिनन्दन जाये जाने का उल्लेख है । भगवान, श्री सुमतिनाथ भगवान, श्री अनन्तनाथ भगवान वर्तमान में स्थित दिगम्बर व श्वेताम्बर जिनालयों में के भी च्यवन, जन्म, दीक्षा व केवलज्ञान कल्याणक भी प्रतिमाएँ ग्यारहवीं सदी के बाद की नजर आती हैं। यहाँ हुए । मन्दिरों का अनेकों बार जीर्णोद्धार हुआ प्रतीत होता है। भरत चक्रवर्ती द्वारा यहाँ चौबीस तीर्थंकरों की हाल ही में इस श्वे. मन्दिर का पुनः जीर्णोद्धार होकर प्रतिमाएँ व स्तूप चारों दिशाओं में निर्मित करवाने का आचार्य भगवंत श्रीमद् विजय नित्यानन्दसुरिजी की उल्लेख आता है । उसके पश्चात् भी अनेकों मन्दिर बने ___निश्रा में पुनः प्रतिष्ठा सम्पन्न हुई । होगें । भगवान महावीर ने भी इस पावन भूमि में विशिष्टता * युगादिदेव श्री आदीश्वर भगवान विहार किया था । चौदहवीं शताब्दी में आचार्य श्री का च्यवन, जन्म, दीक्षा एवं श्री अजितनाथ भगवान, जिनप्रभसूरीश्वरजी द्वारा रचित "विविध तीर्थ कल्प" में श्री अभिनन्दन भगवान, श्री सुमतिनाथ भगवान व श्री श्री अजितनाथ भगवान (श्वे.) - मन्दिर अयोध्या 120 Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ KAYAL VIE श्री अजितनाथ भगवान (श्वे.) - अयोध्या Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनन्तनाथ भगवान का च्यवन, जन्म, दीक्षा और श्री बाहुबली, ब्राह्मी, सुन्दरी, राजा दशरथ, केवलज्ञान कल्याणक होने का सौभाग्य इस पावन भूमि मर्यादा-पुरुषोत्तम श्री रामचन्द्रजी, श्री महावीर भगवान को मिला है। के नवें गणधर श्री अचलभ्राता, विक्रम की तीसरी सदी ___ सामाजिक, राजनैतिक, व व्यवहारिक प्रथा प्रारम्भ __ में हुए आचार्य श्री पादलिप्तसूरीश्वरजी, सत्यवादी राजा होने का व असि, मसि, कृषि, विद्या, शिल्प व वाणिज्य ___ हरिश्चन्द्र आदि की भी यह जन्मभूमि है । का ज्ञान समाज को मिलना प्रारम्भ होने का अवसर पानी में डूबती हुई अयोध्या को सती सीताजी ने भी इसी तीर्थ भूमि को प्राप्त हुआ । अपने शील के प्रभाव से यहीं रहकर बचाया था । ___ भरत चक्रवर्ती ने यहीं रहकर संपूर्ण भारत खण्ड पर अयोध्या का रामराज्य जन-प्रचलित है । रघुकुलपति विजय प्राप्त करके सार्वभौम साम्राज्य की स्थापना की। श्री रामचन्द्रजी के राज्यकाल में जनता सुखी व साम्राज्य का केन्द्र अयोध्या बनाकर भरत-क्षेत्र के प्रथम समृद्धिशाली थी जिसे आज भी लोग याद करते हैं । चक्रवर्ती हए । तब से हमारे देश का नाम भारतवर्ष इनके अतिरिक्त यहाँ अनेकों धर्मनिष्ठ राजा, मंत्री व पड़ा । महात्मा हुए, जिन्होंने अनेकों प्रकार के धार्मिक कार्य भगवान महावीर व गौतम बुद्ध का भी यहाँ पदार्पण करके जैन-धर्म का ही नहीं अपितु भारतवर्ष का भी हुआ था । भगवान महावीर ने यहाँ के राजा चिताल गौरव बढ़ाया है । हिन्दू भी इसे अपना तीर्थ धाम को दीक्षा दी थी । मानते हैं। हिन्दुओं के लिए रामचन्द्रजी का जन्म स्थान श्री आदीश्वर भगवान (दि.) - मन्दिर-अयोध्या 122 Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व सती सीताजी का महल मुख्य दर्शनीय स्थल हैं । अन्य मन्दिर * वर्तमान में इन दो मन्दिरों के अतिरिक्त एक प्राचीन दिगम्बर मन्दिर व पाँच वैंकें हैं। __कला और सौन्दर्य * इतना प्राचीन स्थल होते हुए भी प्राचीन कला के नमूने कम नजर आते हैं । मन्दिरों में नवीन कला के नमूने दिखाई देते हैं । हाल ही में कटरा स्कूल के पास खुदाई के समय खण्डित जिन-प्रतिमा प्राप्त हुई, जो मौर्य-कालीन मथुरा-कला की बताई जाती है । मार्ग दर्शन * अहमदाबाद, लखनऊ व दिल्ली से यहाँ के लिए सीधी ट्रेन की सविधा उपलब्ध है । यहाँ से श्रावस्ती तीर्थ लगभग 110 कि. मी बनारस 200 कि. मी., रत्नपुरी तीर्थ 24 कि. मी. लखनऊ 135 कि. मी. व फैजाबाद 5 कि. मी दूर है । अयोध्या रेल्वे स्टेशन से कटरा मोहल्ला का श्वेताम्बर मन्दिर लगभग 2 कि.मी. व रायगंज का दिगम्बर मन्दिर लगभग 172 कि. मी. दूर है जहाँ पर टैक्शी व आटो का साधन है। मन्दिरों के निकट तक कार व बस जा सकती है । सुविधाएँ * दोनों मन्दिरों के निकट में ही सर्वसुविधायुक्त धर्मशालाएँ हैं, जहाँ पर भोजनशाला की भी सुन्दर व्यवस्था हैं । पेढ़ी * 1. श्री अयोध्या तथा श्री रत्नपुरी जैन श्वेताम्बर तीर्थ ट्रस्ट, कटरा मोहल्ला, पोस्ट : अयोध्या - 224 123. जिला : फैजाबाद, प्रान्त : उत्तर प्रेदश, फोन : 05278-32113. 2. श्री दिगम्बर जैन अयोध्या तीर्थ क्षेत्र कमेटी, रायगंज मोहल्ला, पोस्ट : अयोध्या - 224 123. जिला : फैजाबाद, प्रान्त : उत्तर प्रेदश, फोन : 05278-32308. श्री आदीश्वर भगवान (दि.) - अयोध्या 123 Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संभवनाथ भगवान (दि.) श्रावस्ती श्री श्रावस्ती तीर्थ तीर्थाधिराज * 1. श्री सम्भवनाथ भगवान, श्वेत वर्ण, पद्मासनस्थ, लगभग 105 सें. मी. (दि. मन्दिर ) । 2. श्री संभवनाथ भगवान, श्वेत वर्ण, पद्मासनस्थ, ( श्वे. मन्दिर ) । । तीर्थ स्थल * श्रावस्ती गाँव में मुख्य मार्ग पर प्राचीनता इस तीर्थ की प्राचीनता युगादिदेव श्री आदीश्वर प्रभु के काल से प्रारम्भ होती है । प्रभु ने देश को 52 जनपदों में विभाजित किया । उनमें एक कौशल जनपद भी था । उतरी कौशल जनपद की राजधानी का यह नगर था | भगवान आदिनाथ के पश्चात् तीसरे तीर्थंकर श्री सम्भवनाथ भगवान के पिता राजा जितारी आदि अनेकों 124 ', पराक्रमी जैनी राजा यहाँ हुए। भगवान महावीर के समय यहाँ के राजा प्रसेनजित थे जो जैन-धर्म के अनुयायी व प्रभु वीर के परम भक्त थे। प्रभु वीर के प्रमुख श्रोता मगध सम्राट श्रेणिक ने इनकी बहिन से शादी की थी। उस समय यह नगर अत्यन्त वैभवशाली था । इसे कुणाल नगरी चन्द्रिकापुरी भी कहते थे । यहाँ अनेकों जैन मंदिर व स्तूप थे । सम्राट अशोक व उनके पौत्र राजा संप्रति ने भी यहाँ मन्दिर व स्तूपों का निर्माण करवाया था ऐसा उल्लेख है। "बृहत्कल्प" में भी इस तीर्थ के वैभव का उल्लेख है । ई. सं. पाँचवी सदी में चीनी यात्री फाहियान ने यहाँ का उल्लेख किया है । सातवीं शताब्दी में चीनी प्रवासी हुएनसांग ने यहाँ का उल्लेख करते हुए यहाँ का नाम जेतवन मोनेस्ट्री बताया है। इसके बाद इसका नाम मनिकापुरी होने का उल्लेख है । ई. सं. 900 में यहाँ के राजा मयूरध्वज, सं. 925 में हँसध्वज, सं. 950 में मकरध्वज, सं. 975 में सुधवाध्वज व सं. 1000 में सुहृद्ध्वज हुए | ये सब भार वंशज जैनी राजा थे। डा. बेनेट व डा. विन्सेट स्मिथ ने भी इनको जैन वंशज बताया है। ये सब पराक्रमी व स्वाभिमानी राजा हुए । राजा सुहृद्ध्वज ने अपने पराक्रम से भारत में अनेक प्रान्तों पर विजय पताका फहराकर आते हुए मुसलमान आक्रमण-कारियों को बुरी तरह से पराजित कर हिन्दुओ का गौरव कायम करते हुए अपने देश व धर्मतीर्थ की रक्षा की, जो चिरस्मरणीय रहेगी । मोहम्मद गज़नी की सेना इस तरह से पराजित कहीं नहीं हुई थी । इसके पश्चात् इस नगरी का सहेतमहेत नाम कब पड़ा, यह शोध का विषय है। विक्रम की चौदहवीं सदी में आचार्य जिनप्रभ सूरीश्वरजी द्वारा रचित 'विविध तीर्थ कल्प' में श्रावस्ती नगरी का नाम महिठ होने का उल्लेख है । उस समय यहाँ विशाल कोट से घिरा हुआ अनेकों प्रतिमाओं व देव कुलिकाओं सहित रत्न विभूषित जिन भवन रहने का उल्लेख है । पहले इस मन्दिर के दरवाजे श्री मणिभद्रयक्ष के प्रभाव से सूर्यास्त के समय आरती के बाद स्वयं बन्द हो जाते थे व प्रातः सूर्योदय के समय Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वतः खुल जाते थे । वार्षिक मेले के दिन एक बाघ यहाँ आकर बैठता था व आरती के पश्चात् पुनः चला जाता था-ऐसा 'विविध तीर्थ-कल्प' में उल्लेख है । अल्लाउद्दीन खिलजी के समय इस मन्दिर को भी क्षति पहुंची थी । अठारहवीं सदी में पं. विजयसागरजी व श्री सौभाग्यविजयजी ने यहाँ का उल्लेख किया है। __ वर्तमान श्रावस्ती गाँव के निकट सहेतमहेत में खुदाई करते वक्त अनेकों प्राचीन प्रतिमाएँ व शिलालेख प्राप्त हुए हैं, जो लखनऊ व मथुरा म्यूजियम में रखे गये हैं । महेत किले के निकट एक प्राचीन मन्दिर है, जो पुरातत्व-विभाग के अधीनस्थ है । इस स्थान को भगवान श्री संभवनाथ का जन्मस्थान बताया जाता है। सहेतमहेत के पुराने खण्डहर आज भी प्राचीनता की याद दिलाते हैं । आज तो यहाँ सिर्फ ये दो मन्दिर विद्यमान है । विशिष्टता * वर्तमान चौबीसी के तीसरे तीर्थंकर श्री सम्भवनाथ भगवान के च्यवन, जन्म, दीक्षा व केवलज्ञान कल्याणकों से यह भूमि पावन बनी है। श्री शान्तिनाथ भगवान का भी यहाँ पदार्पण हुआ था। भगवान श्री महावीर ने अनेकों बार इस भूमि में विचरण किया व चातुर्मास किये । प्रभु के कई बार समवसरण यहाँ रचे गये, जिससे अनेक भव्य आत्माओं ने अपनी आत्मा को पवित्र बनाया । श्री पार्श्वनाथ भगवान के संतानीय श्री केशीमुनि व प्रभुवीर के प्रथम गणधर श्री गोतम स्वामीजी का प्रथम मिलन यहीं हुआ था । प्रभुवीर के जमाई (भाणेज) श्री जमाली यहीं के थे, यहीं पर प्रभु के पास दीक्षा ग्रहण की थी । अन्त में यहाँ के कोष्टक उद्यान में रहकर विपरीत प्रचार प्रारम्भ किया था । गोशाले ने यहीं पर प्रभु के ऊपर तेजोलेश्या छोड़ी थी । मुनि श्री कपिल भी यहीं से मोक्ष सिधारे है । पराक्रमी जैन राजा प्रसेनजित, सुहृद्ध्वज आदि यहाँ हुए जिन्होंने धर्म-प्रभावना के अनेकों कार्य किये, जो उल्लेखनीय हैं । इस प्रकार इस पावन भूमि का कण-कण प्रभु के चरण स्पर्श से पवित्र बना है, जो वन्दनीय है । श्री संभवनाथ जिनालय (दि.) श्रावस्ती 125 Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्य मन्दिर * वर्तमान में इनके अतिरिक्त एक है, जो गोन्डा-गोरखपुर रेलमार्ग पर स्थित है । सभी और दिगम्बर मन्दिर हैं । पुराना अर्धभग्न एक मन्दिर जगहों से बस व टेक्सी की सुविधा है । मन्दिरों तक श्री सम्भवनाथ भगवान के जन्म स्थान के नाम से बस व कार जा सकती हैं । प्रचलित है, जिसमें प्रतिमाजी नहीं हैं । सुविधाएँ * ठहरने के लिए श्वेताम्बर व दिगम्बर __ कला और सौन्दर्य * यहाँ अनेक प्रतिमाएँ वि.सं. मन्दिरों के निकट ही सर्वसुविधायुक्त धर्मशालाएँ व हाल पूर्व की व पश्चात् की भूगर्भ से प्राप्त हुई जो लखनऊ है, जहाँ पर भोजन की व्यवस्था भी की जाती है । व मथुरा के म्यूजियम में रखी हुई हैं । उनकी पूर्व सूचना पर संघ वालों के लिए भी भोजन की शिल्पकला दर्शनीय है । यहाँ मीलों के विस्तार में व्यवस्था हो सकती है । प्राचीन खण्डहर दिखाई देते हैं, जो सहेतमहेत के नाम पेढ़ी * 1. श्री दिगम्बर जैन तीर्थ क्षेत्र, श्रावस्ती से विख्यात हैं । भगवान श्री सम्भवनाथ के जन्म पोस्ट : श्रावस्ती - 271 845. स्थान के नाम से विख्यात प्राचीन मन्दिर व उसके । जिला : श्रावस्ती, प्रान्त : उत्तर प्रेदश, सामने अनेकों खण्डहर दिखाई देते हैं । फोन : 05252-65295. मार्ग दर्शन * यह स्थल बलरामपुर-बहराइच सड़क 2. श्री श्रावस्ती जैन श्वेताम्बर तीर्थ कमेटी, मार्ग में अयोध्या से 109 कि. मी. दूर है । अयोध्या पोस्ट : श्रावस्ती - 271 845. से गोन्डा, बलरामपुर होकर भी रास्ता है । बलरामपुर जिला : श्रावस्ती, प्रान्त : उत्तर प्रेदश, से 17 कि. मी. गोन्डा से 56 कि. मी. व लखनऊ फोन : 05252-65215. से 172 कि. मी. दूर है । बलरामपुर रेल्वे स्टेशन भी श्री संभवनाथ जिनालय (श्वे.)-श्रावस्ती 126 Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HISTORY श्री संभवनाथ भगवान (श्वे.)-श्रावस्ती 127 Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री देवगढ़ तीर्थ तीर्थाधिराज * श्री शान्तिनाथ भगवान, कायोत्सर्ग मुद्रा में लगभग 375 सें. मी. (दि. मन्दिर)। तीर्थ स्थल बेतवा नदी के किनारे देवगढ़ गाँव से 27 कि. मी. दूर पहाड़ी पर । प्राचीनता * कहा जाता है हजारो वर्ष पहले यहाँ शवर जाति का अधिपत्य था । पश्चात् पान्डवों, सहरी गोन्ड, गुप्तवंश, देववंश, चन्देलवंश, मुगल, बुन्देल वंश, तत्पश्चात् सिन्धिया नरेश व अन्त में अंग्रेजों का राज्य रहा । गुर्जर नरेश भोजदेव के शासनकालीन विक्रम सं. 919 के शिलालेख से पता चलता है कि पहले इस स्थान का नाम लुअच्छगिरि था । बारहवीं सदी में चन्देलवंशी राजा कीर्तिवर्मा के मंत्री वत्सराज ने इस स्थान पर एक नवीन दुर्ग का निर्माण करवाया व अपने स्वामी के नाम पर यहाँ का नाम कीर्तिगिरि रखा । तत्पश्चात् संभवतः 12 वीं या 13 वीं शताब्दी में इस स्थान का नाम देवगढ़ पड़ा होगा । यह नाम पड़ने के अनेकों कारण बताये जाते हैं । उनमें यह भी एक कारण बताया जाता है कि इस स्थान की रचना देवों ने की थी, इसलिए देवगढ़ पड़ा । यहाँ असंख्य विभिन्न कलापूर्ण देव मूर्तियाँ हैं । अतः देवगढ़ नाम पड़ने का प्रचलित कारण यह भी हो सकता है । यहाँ शिलालेखों, स्तम्भों आदि पर आठवीं सदी से पन्द्रहवीं सदी तक के लेख उत्कीर्ण हैं । परन्तु कलाकृतियों के अवलोकन से यहाँ की कुछ प्रतिमाएँ गुप्त-काल से भी पुरानी प्रतीत होती है । विशिष्टता * यह तीर्थ-क्षेत्र प्राचीन तो है ही, मुख्यतः इसकी विशेषता विभिन्न शैली की प्राचीन मूर्ति-कला है। जिन प्रतिमाओं, यक्ष यक्षिणियों, मण्डपों, स्तम्भों, शिलापट्टों में उत्कीर्ण भारतीय शिल्पकला का उत्कृष्ट नमूना यहाँ प्रस्तुत है । पहाड़ पर 31 बड़े मन्दिर हैं जिनमें विशिष्ठ कला के नमूने नजर आते हैं। इस मन्दिर में एक ज्ञानशिलालेख है, जो 18 लिपियों में उत्कीर्ण हैं । भगवान आदिनाथ की पुत्री ब्राह्मी ने जिन 18 लिपियों का ज्ञान पाया था, वे सभी लिपियाँ इसमें हैं। श्री शान्तिनाथ भगवान (दि.) - देवगढ़ 128 Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसमें ब्राह्मी, द्राविड़ी भाषाएँ भी हैं । यह बारहवाँ स्तम्भों आदि में उत्कीर्ण कला के दर्शन कर दर्शनार्थी मन्दिर है । अपने को कृतार्थ समझता है । बुन्देलखण्ड कला के मन्दिर नं. 6 में पार्श्वनाथ भगवान की प्रतिमा पर लिए मशहूर है ही । लेकिन यहाँ की कला अपना फण नहीं है । प्रतिमा के दोनों बाजू विशाल सर्प बने । अलग ही स्थान रखती है । देवगढ़ में एक म्यूजियम हुए हैं । भी है, जिसमें विशेष कलात्मक प्रतिमाएँ दर्शनीय हैं । मन्दिर नं. 11 में बाहुबलजी भगवान की मूर्ति अति मार्ग दर्शन * नजदीक का रेल्वे स्टेशन ललितपुर आकर्षक है । यह प्रतिमा ग्यारहवीं सदी की है। यहाँ से 31 कि. मी. है, जहाँ पर बस व टेक्सी की मन्दिर नं. 13 में प्रतिमाओं में उत्कीर्ण केश-कला सुविधा है । मन्दिर तक डामर सड़क है । कार व बस की 18 प्रकार की विभिन्न शैलियाँ दर्शनीय हैं । ऊपर पहाड़ पर जा सकती है । लेकिन यात्रियों को पहाड़ की तलहटी में स्थित देवगढ़ धर्मशाला में ठहरकर इस प्रकार प्रायः हर मन्दिर में आपको अद्वितीय जाना सुविधाजनक है, क्योंकि 22 कि. मी. जंगल अद्भुत कलात्मक नमूनों के दर्शन होंगे । मूर्तिकला पहाड़ी रास्ता है अतः धर्मशाला से सहथियार आदमी यहाँ की मुख्य विशेषता है । साथ आता है । अन्य मन्दिर * इस मन्दिर के अतिरिक्त पहाड़ पर सुविधाएँ * ठहरने के लिए पहाड़ की तलहटी में छोटे-बड़े कुल 39 मन्दिर हैं । बड़ी धर्मशाला है, जहाँ पानी बिस्तर बर्तन की __कला और सौन्दर्य * यहाँ की विचित्र कला का कुछ सुविधा है । वर्णन विशिष्टता में दिया गया है । यहाँ की कला का पेढ़ी *1.श्री देवगढ़ मेनेजिंग दिगम्बर जैन कमेटी, वर्णन करना अत्यन्त कठिन है । यहाँ की मूति-कला गाँव : देवगढ, के दर्शन अन्यत्र दुर्लभ हैं । हजारों प्रतिमाएँ विभिन्न __ पोस्ट : जाखलोन - 284 407. जिला : ललितपुर, शैली में निर्मित हैं । यहाँ की प्रतिमाओं, शिलापट्टों, प्रान्त : उत्तर प्रेदश, फोन : 05176-82533. श्री शान्तिनाथ भगवान जिनालय (दि.) - देवगढ़ 129 Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री विमलनाथ भगवान (श्वे ) - कम्पिलाजी श्री कम्पिलाजी तीर्थ तीर्थाधिराज * 1. श्री विमलनाथ भगवान, पद्मासनस्थ, श्वेत वर्ण, लगभग 45 45 सें. मी. ( श्वे. मन्दिर ) । 2. श्री विमलनाथ भगवान, पद्मासनस्थ, श्याम वर्ण, लगभग 60 सें. मी. (दि. मन्दिर) । तीर्थ स्थल * कम्पिलपुर गाँव में । प्राचीनता इस नगरी के प्राचीन नाम काम्पिल्य, भोगपुर, माकन्दी आदि बताये जाते हैं । भगवान श्री आदिनाथ द्वारा विभाजित 52 जनपदों में पाँचाल जनपद का यह एक मुख्य शहर था । देवाधिदेव तेरहवें तीर्थंकर श्री विमलनाथ भगवान के च्यवन, जन्म, दीक्षा व केवलज्ञान इन चार कल्याणकों से यह भूमि पावन बनी है। कम्पिला में एक अघातिया टीला है। यहीं भगवान ने घाति कर्मों का नाश करके केवलज्ञान प्राप्त किया था ऐसी मान्यता है । बीसवें तीर्थंकर श्री मुनिसुव्रतस्वामी भगवान के काल में यहाँ के राजा इक्ष्वाकु वंशी श्री पद्मनाभ हुए, जिन्होंने दीक्षा ग्रहण करके केवलज्ञान प्राप्त किया था। प्रतापी व धर्मनिष्ठ दसवें चक्रवर्ती श्री हरिषेण भी यहीं हुए । 130 बाईसवे तीर्थंकर श्री नेमिनाथ भगवान के काल में राजा द्रुपद की यह राजधानी थी । राजा द्रुपद की पुत्री द्रोपदी का विवाह पाण्डु पुत्रों के साथ हुआ था। सती श्री द्रौपदी अंत समय में दीक्षा ग्रहण कर श्री शंत्रुजय तीर्थ पर देवगति को प्राप्त हुई थी । किसी समय दक्षिण पांचाल देश की यह एक समृद्ध व विराट नगरी थी व इसका घेराव लगभग बीस मील का था । अठारहवीं सदी में श्री सौभाग्यविजयजी ने इस शहर को पिटियारी नाम से भी संबोधित किया है। यहाँ भूगर्भ से प्राप्त प्राचीन अवशेषों से ज्ञात होता है कि यहाँ अनेकों जिन मन्दिर थे परन्तु यह नगरी छोटे से गाँव में परिवर्तित होकर आज यहाँ एक श्वेताम्बर व एक दिगम्बर मन्दिर हैं। इस श्वे. मन्दिर का जीर्णोद्धार होकर पुनः प्रतिष्ठा वि. सं. 1904 में हुई थी । दि. मन्दिर वि. सं. 549 में निर्मित हुआ बताया जाता है। इटली के पुरातत्व वाले दो वर्षों से यहाँ पर उत्खन्न कार्य कर रहे हैं । ईसा के 2000 वर्ष पहिले की मूर्तियाँ व मृद भाण्ड मिले हैं ऐसा उल्लेख है । श्वे. मन्दिर के पुनः जीर्णोद्धार का कार्य जल्दी ही प्रारंभ होने वाला है । श्री विमलनाथ भगवान (श्वे ) - मन्दिर कम्पिलाजी - Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशिष्टता * वर्तमान चोबीसी के तेरहवें तीर्थंकर श्री विमलनाथ भगवान के च्यवन, जन्म, दीक्षा केवलज्ञान ऐसे चार कल्याणक होने का सौभाग्य इसी भूमि को प्राप्त हुआ । अतः यहाँ के कण-कण से प्रभु के चरण स्पर्श होने से यहाँ का हर स्थान वन्दनीय है । राजा श्री हरिषेण जैसे महान धर्मनिष्ठ दसवें चक्रवर्ती को जन्म देने का सौभाग्य भी इसी भूमि को प्राप्त है, जिन्होंने अपने राज्य को जिनप्रतिमाओं से अलंकृत कर दिया था-ऐसा उल्लेख दिगम्बराचार्य श्री रविसेणजी ने किया है । सोलह सतियों में स्थान पाने वाली सती द्रौपदी का भी यह जन्म एवं स्वयंवर स्थान है । सती द्रोपदी के सतीत्व की गाथा जैनों में ही नहीं जैनेतरों में भी गाई जाती है । इस नगरी को श्री आदिनाथ भगवान, श्री पार्श्वनाथ भगवान एवं श्री महावीर भगवान के पदार्पण का सौभाग्य भी प्राप्त हुवा है । ऐसे महान पावन पवित्र भूमि का जितना वर्णन करें कम हैं । यहाँ की विशेषता तो यहाँ के कण-कण में भरी है । श्री विमलनाथ भगवान (दि.)-कम्पिलाजी प्रतिवर्ष श्वेताम्बर मन्दिर में पौष शुक्ला 6 को व दिगम्बर मन्दिर में चैत्र कृष्णा अमावस्या से चैत्र शुक्ला तृतीया तक एवं आसोज कृष्णा द्वितीया को मेलों का आयोजन होता है । अन्य मन्दिर * वर्तमान में इन दो मन्दिरों के अतिरिक्त और कोई मन्दिर नहीं हैं । कला और सौन्दर्य * यहाँ मन्दिरों में कुषाण व गुप्तकालीन प्रतिमाओं के दर्शन होते हैं । प्रतिमाएँ अति ही सुन्दर व भावात्मक हैं । मार्ग दर्शन * सड़क मार्ग द्वारा दिल्ली से लगभग 300 कि. मी., कानपुर से 180 कि. मी., आगरा से 150 कि. मी. व सौरीपुर से 160 कि. मी. दूरी पर है । नजदीक का रेल्वे स्टेशन कायमगंज लगभग 10 कि. मी. दूर है, जहाँ पर बस, आटो की सुविधा है । मन्दिरों तक कार व बस जा सकती है। सुविधाएँ * ठहरने के लिए श्वेताम्बर व दिगम्बर सर्वसुविधायुक्त धर्मशालाएँ हैं । जहाँ भोजनशाला की सुविधा भी उपलब्ध है । पेढ़ी * 1. श्री जैन श्वेताम्बर महासभा - श्री विमलनाथ स्वामी जैन श्वेताम्बर मन्दिर पेढ़ी, पोस्ट : कम्पिल -207505. जिला : फरूखाबाद, प्रान्त : उत्तर प्रेदश, फोन : 05690-71289. 2. श्री विमलनाथ दिगम्बर जैन तीर्थ क्षेत्र कमेटी, पोस्ट : कम्पिल - 207 505. जिला : फरूखाबाद, प्रान्त : उत्तर प्रेदश, फोन : 05690-71230. । श्री विमलनाथ भगवान मन्दिर (दि.)-कम्पिलाजी 131 Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जा की जाय तो महत्वपूर्ण प्राचीन अवशेष व अन्य वस्तुओं श्री अहिच्छत्रा तीर्थ के प्राप्त होने की पूर्ण सम्भावना है । ____यह दि. मन्दिर भी अति प्राचीन है । प्रभु-प्रतिमा तीर्थाधिराज *1. श्री पार्श्वनाथ भगवान, पद्मासनस्थ के अवलोकन मात्र से इसकी प्राचीनता का अनुमान हो (दि. मन्दिर) । जाता है । श्वे. मन्दिर का निर्माण कार्य चालू हैं। पूर्व तीर्थ स्थल * रामनगर किला गाँव के निकट । उल्लेखित मन्दिरों का पता नहीं संभवतः कालक्रम से प्राचीनता * इस तीर्थ की प्राचीनता युगादिदेव श्री किसी कारण भूमीगत हो गये हो । आदिनाथ भगवान के काल की मानी जाती है । विशिष्टता * युगादिदेव श्री आदिनाथ भगवान के दिगम्बर मान्यतानुसार भगवान आदिनाथ के बाद हुए पश्चात् के तीर्थंकरों की भी यह विहार-भूमि व ग्यारह तीर्थंकरों की भी इसे विहार-भूमि बताया है । चक्रवर्तियो की अधिकार-भूमि होने का सौभाग्य इस इस नगरी के प्राचीन नाम शंखावती, अधिचक्रा, पवित्र स्थल को प्राप्त हुआ है । परिचक्रा, छत्रावती व अहिक्षेत्र आदि बताये जाते है । संकट हरनार तेईसवें तीर्थंकर श्री पार्श्वनाथ भगवान किसी समय यह वैभव संपन्न विराट नगरी थी । की तपोभूमि होने के कारण यहाँ की मुख्य इस नगरी का घेराव 48 मील का था । अनेकों मन्दिर, देवालय, बाजार व बड़ी-बड़ी इमारतों से विक्रम से आठवीं सदी पूर्व जब भगवान पार्श्वनाथ सुशोभित थी । आज के आँवला, वजीरगंज व सम्पनी विहार करते हुए इस महानगरी के वन में पधारे तब आदि गाँव इस शहर के अंग थे । महाभारत काल में एक वट-वृक्ष के नीचे ध्यानारूढ़ रहे थे । उस समय यह श्री द्रोणाचार्य की राजधानी थी । भगवान पार्श्वनाथ व्यंतरदेव (मेघमाली कमठ) ने पूर्व भव के बैर का के पूर्व यह नगरी नागराजाओं की राजधानी रहकर स्मरण कर आकाश मार्ग से जाते हुए अपना विमान जैन धर्म का बड़ा केन्द्र बनी हुई थी । भगवान रोका और ध्यानमग्न प्रभु पर भंयकर आँधी के साथ पार्श्वनाथ विहार करते हुए इस नगरी में पधारे, तब मूसलधार पानी व ओले वर्षा कर घोर उपसर्ग करने यहाँ के वन में ध्यानावस्था में रहते वक्त मेघमाली लगा । प्रभु इस रोमांचकारी उपसर्ग से तनिक भी (कमठ) द्वारा उपसर्ग हुआ था । विचलित न होकर ध्यान में मग्न रहे । पूर्व भव के विक्रम की छठी शताब्दी में यहाँ के गुप्तवंशी राजा नाग, नागिनी जिन्हें मरणासन्न अवस्था मे भगवान हरिगुप्त ने दीक्षा अंगीकार की थी-ऐसा आचार्य श्री पार्श्वनाथ ने सर्व विघ्नहारी नवकार महामंत्र सुनाया उद्योतनसूरीश्वरजी द्वारा रचित "कुवलयमाला" में । ___ था, जिसके प्रभाव से नाग-नागिन मरकर स्वर्ग में वर्णन है । धरणेन्द्रदेव व पद्मावती देवी बने थे, उन्होंने स्वर्ग से कलिकाल सर्वज्ञ हेमचन्द्रचार्य ने अहिच्छत्र का उल्लेख तत्काल आकर पूर्वभव के उपकारी प्रभु के शीशपर करते हुए इसका दूसरा नाम “प्रत्यग्रथ" भी बताया है। विशाल फण मण्डप की रचना करके कमठ के उपसर्ग को विफल किया । मेघमाली अपनी भूलपर पश्चात्ताप विक्रम की चौदहवीं सदी में आचार्य श्री करता हुआ प्रभु के चरणों में आकर क्षमा मांगने लगा। जिनप्रभसूरीश्वरजी ने यहाँ श्री पार्श्वनाथ भगवान के दे क्षमावान प्रभु का तो किसी के प्रति बैर था ही मन्दिर, किले के निकट श्री नेमिनाथ भगवान की नहीं । प्रभु तो अपने ध्यान में मग्न थे । अधिष्ठायिका श्री अम्बादेवी की प्रतिमा व विभिन्न प्रकार (दि. मान्यतानुसार प्रभु को उसी समय केवलज्ञान प्राप्त की औषधियों युक्त वन, उपवन आदि रहने का हुवा । श्वे. मान्यतानुसार केवलज्ञान बनारस में हुआ "विविध तीर्थ कल्प" में उल्लेख किया है । बताया जाता है।) भूगर्भ से कुषाणकालीन व गुप्तकालीन अनेकों प्रभु पर श्री धरणेन्द्र देव व श्री पद्मावतीदेवी द्वारा प्राचीन स्तूप, प्रतिमाएँ, स्तम्भ आदि प्राप्त हुए है, जो यहाँ फण मण्डप की रचना होने के कारण इस नगरी यहाँ की प्राचीनता को प्रमाणित करते हैं । यहाँ के का नाम अहिच्छत्र पड़ा माना जाता है । टीलों व खण्डहरों की, जो मीलों में फैले हुए हैं, खुदाई 132 Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्री पात्रकेशरी ने अपने 500 शिष्यों के साथ यहाँ पर जैन-धर्म अंगीकार किया था । यहाँ दि. मन्दिर में तिखाल वाले बाबा की हरित वर्ण प्राचीन प्रतिमा दर्शनीय है । कहा जाता है कि इस वेदी की दीवार का निर्माण रातों-रात किसी अदृश्य शक्ति द्वारा हुआ था । इस प्रकार यह अतिशय क्षेत्र भी माना जाता है । श्रद्धालु भक्तजनों की मनोकामनाएँ आज भी बाबा पूर्ण करते हैं । दि. मन्दिर के निकट यहाँ एक कुआँ व एक बावड़ी है जिनके जल के उपयोग से रोग निवारण होना बताया जाता है। दि. मन्दिर में प्रतिवर्ष चैत्र कृष्णा अष्टमी से त्रयोदशी तक मेला भरता है । __ अन्य मन्दिर * वर्तमान में इनके अतिरिक्त गाँव में एक और मन्दिर हैं । __ कला और सौन्दर्य * दि. मन्दिर में प्रभु-प्रतिमा की कला अद्भुत व मनमोहक है । ऐसी कलात्मक प्राचीन प्रतिमा के दर्शन अन्यत्र दुर्लभ है । भूगर्भ से प्राप्त कुषाणकालीन व गुप्तकालीन कलात्मक प्रतिमाओं व अन्य अवशेषों की कला दर्शनीय है, जो सरकारी म्यूजियम में सुरक्षित हैं । प्राचीन विशाल नगरी के भग्नावशेष इस गाँव के चारों और मीलों में बिखरे नजर आते हैं । यहाँ पुरातत्व प्रेमी यात्री आते रहते हैं । श्री पार्श्वनाथ भगवान (दि.)-अहिच्छत्र मार्ग दर्शन * यहाँ से नजदीक का रेल्वे स्टेशन आँवला 13 कि. मी. हैं, जहाँ पर टेक्सी, आटो की सुविधा है । यह स्थल बरेली जिले के आँवला-शाहाबाद सड़क मार्ग पर स्थित है । बरेली यहाँ से लगभग 50 कि. मी. दूर है । मन्दिर तक कार व बस जा सकती है। सविधाएँ * 1. दिगम्बर मन्दिर के अहाते में ही विशाल दिगम्बर धर्मशाला है, जहाँ बिजली, पानी, बिस्तर व भोजनशाला की सुविधा है । पेढ़ी * 1. श्री अहिच्छत्र पार्श्वनाथ अतिशय तीर्थ क्षेत्र, दिगम्बर जैन मन्दिर, पोस्ट : रामपुरकिला - 243 30 3. जिला : बरेली, व्हाया-आँवला, प्रान्त : उत्तर प्रेदश, फोन : 05823-36418, 36618. श्री पार्श्वप्रभु जिनालय (दि.)-अहिच्छत्र 133 Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री हस्तिनापुर तीर्थ तीर्थाधिराज * 1. श्री शान्तिनाथ भगवान, पद्मासनस्थ, गुलाबी वर्ण, लगभग 90 सें. मी. (श्वे. मन्दिर) । 2. श्री शान्तिनाथ भगवान, पद्मासनस्थ, श्वेत वर्ण (दि. मन्दिर) । तीर्थ स्थल * हस्तिनापुर गाँव में । प्राचीनता * इस तीर्थ की प्राचीनता यगादिदेव श्री आदीश्वर भगवान से प्रारम्भ होती है । शास्त्रों में इसके नाम गजपुर, हस्तिनापुर, नागपुर, आसन्दीवत, ब्रह्मस्थल, शान्तिनगर कुंजरपुर आदि भी आते हैं । भगवान आदिनाथ ने अपने पुत्र बाहुबलीजी को पोदनापुर व हस्तिनापुर राज्य दिये थे । पोदनापुर में बाहुबलीजी व हस्तिनापुर में उनके पुत्र श्री सोमयश राज्य करते थे । सोमयश के लघु भ्राता श्री श्रेयांसकुमार ने भगवान श्री आदिनाथ को यहीं पर इक्षु रस से पारणा करवाया था । उस स्मृति में श्री श्रेयांसकुमार द्वारा यहाँ पर एक रत्नमयी स्तूप का निर्माण करवाकर श्री आदिनाथ प्रभु की चरण-पादुकाएँ स्थापित कराने का उल्लेख है । श्री आदिनाथ भगवान के पश्चात् श्री शान्तिनाथ भगवान, श्री कुंथुनाथ भगवान व श्री अर्हनाथ भगवान के च्यवन, जन्म, दीक्षा व केवलज्ञान कल्याणक यहाँ हुए । उनकी स्मृति में तीन स्तूप निर्मित होने का उल्लेख है । उन प्राचीन स्तूपों व मन्दिरों का आज पता नहीं, क्योंकि इस नगरी का अनेकों बार उत्थान-पतन हुवा है । जगह-जगह पर अन भूगर्भ से अनेकों प्राचीन अवशेष प्राप्त हुए हैं, जो प्राचीनता की याद दिलाते हैं। भगवान महावीर से उपदेश पाकर यहाँ के राजा शिवराज ने जैन धर्म का अनुयायी बनकर दीक्षा अंगीकार की । उसने भगवान की स्मृति में एक स्तूप का भी निर्माण करवाया था । सम्राट अशोक के पौत्र राजा संप्रति द्वारा यहाँ अनेकों मन्दिर बनवाने का उल्लेख है । वि. सं. 386 वर्ष पूर्व आचार्य श्री यक्षदेवसूरिजी, 247 वर्ष पूर्व आचार्य श्री सिद्धसूरिजी, वि. सं. 199 में श्री रत्नप्रभसूरिजी (चतुर्थ), वि. सं. 235 के लगभग आचार्य कक्कसूरिजी (चतुर्थ) आदि अनेकों प्रकाण्ड विद्वान आचार्यगण संघ सहित यहाँ यात्रार्थ पधारे थे । ___ "विविध तीर्थ-कल्प” के रचयिता आचार्य श्री जिनप्रभसूरिजी वि. सं. 1335 के लगभग दिल्ली से विशाल जन समुदाय सहित संघ के साथ यहाँ यात्रार्थ पधारे। उस समय यहाँ श्री शान्तिनाथ भगवान, श्री कुंथुनाथ भगवान, श्री अर्हनाथ भगवान व श्री मल्लिनाथ भगवान इन चार तीर्थंकरों के चार मन्दिर व एक श्री अम्बीका देवी का मन्दिर होने का उल्लेख किया है । उस समय हस्तिनापुर शहर गंगा नदी के तट पर था । विक्रम की सतरहवीं सदी में श्री विजयसागरजी यात्रार्थ पधारे तब 5 स्तूप व 5 जिन प्रतिमाएँ होने का उल्लेख है । वि. सं. 1627 में खरतरगच्छाचार्य श्री जिनचन्द्रसूरिजी यात्रार्थ पधारे, तब यहाँ 4 स्तूपों का वर्णन किया है । प्राचीन काल से समय-समय पर अनेकों प्रकाण्ड विद्वान दिगम्बर आचार्यगण भी यहाँ यात्रार्थ पधारने का उल्लेख है । इस श्वेताम्बर मन्दिर का हाल में पुनः जीर्णोद्धार होकर वि. सं. 2021 मिगसर शुक्ला 10 को आचार्य भगवंत श्रीमद् विजय समुद्रसुरिजी की निश्रा में प्रतिष्ठा सम्पन्न हुई थी । इस दिगम्बर मन्दिर की प्रतिष्ठा वि. सं. 1863 में होने का उल्लेख है । श्री शान्तिनाथ प्रभु जिनालय (श्वे.)-हस्तिनापुर 134 Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री शान्तिनाथ भगवान (श्वे.)-हस्तिनापुर 135 Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आदिनाथ प्रभु के प्राचीन चरण चिन्ह (श्वे.) - हस्तिनापुर विशिष्टता * युगादिदेव श्री आदीश्वर भगवान दीक्षा पश्चात् निर्जल व निराहार विचरते हुए 400 दिनों के बाद वैशाख शुक्ला तृतीया के शुभ दिन यहाँ पधारे । भोली-भाली जनता दर्शनार्थ उमड़ पड़ी । राजकुमार श्री श्रेयांसकुमार को अपने प्रपितामह के दर्शन पाते ही जाति-स्मरण-ज्ञान हुआ, जिससे आहार देने की विधि को जानकर इक्षु रस ग्रहण करने के लिए भक्ति भावपूर्वक प्रभु से आग्रह करने लगा । प्रभु ने कल्पिक आहार समझकर श्री श्रेयांसकुमार के हाथों पारणा किया । देवदुंदुभियाँ बजने लगी, जनता में हर्ष का पार न रहा । उसी दिन यहाँ से वर्षीतप के पारणे की प्रथा प्रारंभ हुई । कहा जाता है कि भगवान का इक्षु रस से पारणा होने के कारण उस दिन को (इक्षु) अक्षय तृतीया कहने लगे । श्री शान्तिनाथ भगवान, श्री कुंथुनाथ भगवान व श्री अर्हनाथ भगवान के च्यवन, जन्म, दीक्षा व केवलज्ञान ऐसे बारह कल्याणक होने का सौभाग्य इस पवित्र भूमि को प्राप्त है । __ श्री मल्लिनाथ भगवान के समवसरण की रचना यहाँ पर भी हुई थी । प्रभु ने यहाँ 6 राजाओं को प्रतिबोध देकर जैन-धर्म का अनुयायी बनाया था । ___ श्री मुनिसुव्रतस्वामी, श्री पार्श्वनाथ व चरम तीर्थंकर श्री महावीर भगवान का भी यहाँ पदार्पण हुआ था । श्री पार्श्वप्रभु ने यहाँ के राजा श्री स्वयंभु को प्रतिबोध देकर जैन धर्म का अनुयायी बनाया जो दीक्षा अंगीकार करके प्रभु के प्रथम गणधर बने । श्री भरत चक्रवर्ती से लेकर कुल 12 चक्रवर्ती हुए, जिनमें 6 चक्रवर्तियों ने इस पावन भूमि में जन्म लिया। रामायण-काल के श्री परशुरामजी का जन्म भी यहीं हुआ था । पाण्डवों-कौरवों की राजधानी थी । ___ भगवान श्री महावीर के पश्चात् भी अनेकों प्रकाण्ड विद्वान आचार्यगण यहाँ यात्रार्थ पधारे । अनेकों संघों का यहाँ आवागमन हुआ । ___ अतः ऐसे महान आत्माओं के जन्म व पदार्पण से पवित्र हुई भूमि की महानता का किन शब्दों में वर्णन किया जाय । इस पावन भूमि में पहुंचते ही हमारे कृपालु तीर्थंकरों आदि का स्मरण हो आता है । प्रतिवर्ष कार्तिक पूर्णिमा, फाल्गुन पूर्णिमा व वैशाख शुक्ला तृतीया को श्वेताम्बर मन्दिर में व कार्तिक शुक्ला अष्टमी से पूर्णिमा तक दिगम्बर मन्दिर में मेलों का आयोजन होता है । __ अन्य मन्दिर इन मन्दिरों के अतिरिक्त एक दि. मन्दिर है । यहाँ से लगभग 2 कि. मी. दूर श्वे. व दि. समाज की अलग-अलग स्थानों पर चार-चार देरियाँ बनी हुई हैं । तीन तीर्थंकरों के कल्याणक स्थलों के स्मरणार्थ व मल्लिनाथ भगवान के समवसरण स्थल के स्मरणार्थ श्वे. देरियों में प्रभु के चरण व दि. देरिया में स्वस्तिक स्थापित हैं । यहीं पर एक श्वे. प्राचीन स्तूप (जिसके ऊपर लघु मन्दिर का निर्माण हुवा हैं) में श्री आदिनाथ प्रभु के चरण स्थापित है। यह स्थान श्री आदिनाथ प्रभु पारणास्थल (श्वे.)-हस्तिनापुर 136 Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री शान्तिनाथ भगवान (दि.)-हस्तिनापुर श्री शान्तिनाथ भगवान जिनालय (दि.)-हस्तिनापुर कला और सौन्दर्य * यह स्थान अति ही प्राचीन रहने के कारण यहाँ अनेकों प्राचीन प्रतिमाएँ, सिक्के, शिलालेख व खण्डहर अवशेष आदि भूगर्भ से प्राप्त हुए हैं । मन्दिरों में प्राचीन प्रतिमाएँ दर्शनीय हैं। मार्ग दर्शन * यहाँ से नजदीक का रेल्वे स्टेशन मेरठ 40 कि. मी. है, जहाँ से बस व टेक्सी का साधन है । दिल्ली से मेरठ होते हुए हस्तिनापुर 110 कि. मी. है । दिल्ली से हस्तिनापुर सीधी बस सेवा उपलब्ध है । कार व बस मन्दिरों तक जा सकती है। निकट ही बस स्टेण्ड हैं । सुविधाएँ * ठहरने के लिए सर्वसुविधायुक्त दिगम्बर व श्वेताम्बर विशाल धर्मशालाएँ (400 कमरे) हैं, जहाँ भोजनशाला की भी सुव्यवस्था है । पेढ़ी * 1. श्री हस्तिनापुर जैन श्वेताम्बर तीर्थ समिति, श्री जैन श्वेताम्बर मन्दिर, पोस्ट : हस्तिनापुर - 250 404. जिला : मेरठ, प्रान्त : उत्तर प्रेदश, फोन : 01233-80140. 2. श्री दिगम्बर जैन तीर्थ क्षेत्र कमेटी, पोस्ट : हस्तिनापुर -250 404. जिला : मेरठ, प्रान्त : उत्तर प्रेदश, फोन : 01233-80133. श्री आदिनाथ भगवान का पारणा स्थल माना जाता है। अतः श्वेताम्बर समुदाय का अक्षय तृतीया का जुलुस यहाँ आता है । एक और अष्टापद तीर्थ स्वरूप श्वे. मन्दिर का निर्माण कार्य चालू है, कहा जाता है इसकी ऊँचाई 151 फीट होगी। 137 Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जम्बुस्वामी भगवान चरण चौरासी (इन्द्रपुर) श्री इन्द्रपुर तीर्थ श्री जम्बुस्वामी भगवान (दि.)-मन्दिर-चौरासी (इन्द्रपुर) तीर्थाधिराज * 1. भगवान श्री महावीर के द्वितीय पट्टधर अन्तिम केवली श्री जम्बूस्वामीजी, चरणपादुकाएँ, लगभग 30 सें. मी. (दि. मन्दिर) । 2. श्री पार्श्वनाथ भगवान, (श्वे. मन्दिर) ।। तीर्थ स्थल * मथुरा से लगभग 4 कि. मी. दूर चौरासी में (दि. मन्दिर) । मथुरा शहर (धीयामंडी में श्वे. मन्दिर) । प्राचीनता * यह तीर्थ-क्षेत्र सातवें तीर्थंकर श्री सुपार्श्वनाथ भगवान के समय का माना जाता है । प्राचीन काल मे यह शहर मधुपुरी, मधुरा, मधुलिका, इन्द्रपुर आदि नामों से संबोधित किया जाता था । यहाँ पर देवों द्वारा निर्मित श्री सुपार्श्वनाथ भगवान का रत्नोंजड़ित स्वर्णिम विशाल स्तूप था । भगवान श्री पार्श्वनाथ के काल में इसे ईटों से ढंके जाने व पास ही में एक मन्दिर निर्माण करवाने का उल्लेख 'बृहत कल्पसूत्र' में मिलता है । राजा श्री उग्रसेन की यह राजधानी थी । अन्तिम केवली श्री जम्बूस्वामीजी अन्तिम धर्मदेशना देते हुए यही से मोक्ष सिधारे थे । विक्रम की आठवीं सदी में आचार्य श्री बप्पभट्टसूरीश्वरजी द्वारा यहाँ देव निर्मित स्तूप के जीर्णोद्धार करवाने का उल्लेख हैं । चौदहवीं सदी में श्री जिनप्रभसूरीश्वरजी द्वारा रचित 'विविध तीर्थ कल्प' में इस नगरी को बारह योजन लम्बी व नव योजन चौड़ी बताई है । यहाँ अनेकों जिनालय वाव, कुएँ, देवालय व बाजार आदि रहने का उल्लेख किया है। आचार्य श्री हीरविजयसूरीश्वरजी यहाँ संघ सहित पधारे तब यहाँ श्री सुपार्श्वनाथ भगवान व श्री पार्श्वनाथ भगवान के मन्दिरों व श्री जम्बूस्वामी, प्रभस्वामी आदि 527 साधु-साध्वियों के स्तूप रहने का उल्लेख है । अन्तिम केवली श्री जम्बूस्वामीजी के समय यहाँ 84 वन थे । श्री जम्बूस्वामीजी यहाँ के जम्बूवन में तपश्चर्या करते हुए मोक्ष सिधारे थे । दि. मन्दिर में प्रतिष्ठित श्री जम्बूस्वामी महाराज की प्राचीन चरण-पादुकाएँ भरतपुर के एक श्रावक को आये स्वप्न के आधार पर खोज करने से इस स्थान पर भूगर्भ से प्राप्त हुई थी । 138 Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशिष्टता * सातवें तीर्थंकर श्री सुपार्श्वनाथ भगवान के समय में धर्मरुचि व धर्मघोष नामक दो मुनि थे । वे विहार करके मथुरा आकर भूतरमण उपवन में कठोर तपश्चर्या करने लगे । तपस्या से प्रभावित होकर उस वन की अधिष्ठात्री देवी कुबेरा चरणों में आकर वरदान माँगने के लिए अरदास करने लगी । मुनियों को किसी प्रकार की आकांक्षा नहीं थी। देवी ने स्वप्तः सोने और रत्नों से जड़ित, तोरणमाला से अलंकृत, शिखर पर तीन छत्रों से सुशोभित एक स्तूप का निर्माण किया । उसके चारों दिशाओं में पंचवर्ण-रत्नों की मूर्तियाँ विराजमान कीं, जिनमें मूलनायक प्रतिमा श्री सुपार्श्वनाथ भगवान की थी. इसी स्तूप को श्री पार्श्वनाथ भगवान के समय देवताओं के कहने पर ईटों से ढका गया क्योंकि दुषमा-काल आनेवाला था । इसे देवनिर्मित स्तूप कहने लगे । कुषाणकाल में इसे बोध स्तूप भी कहते थे । यहाँ पर अन्य सैकड़ों स्तूप होने का उल्लेख है । अन्यत्र इतने स्तूपों के होने का इतिहास नहीं है । यादव वंशी श्री उग्रसेन राजा की यह राजधानी थी। भावी तीर्थंकर श्री कृष्ण का जन्म यहीं पर कारागार में श्री पार्श्वनाथ भगवान (श्वे.)-इन्द्रपुर हुआ था । सती राजुलमती की भी यह जन्मभूमि है। श्री कृष्ण मार्गदर्शन * यहाँ का मथुरा-जन्कशन स्टेशन ने कंस को मल्लयुद्ध में यहीं पछाड़ा था । दिगम्बर मन्दिर से लगभग 4 कि. मी. व श्वेताम्बर श्री पार्श्वनाथ भगवान व श्री महावीर भगवान ने मन्दिर से 2 कि. मी. दूर है । जहाँ पर बस, टेक्सी , यहाँ पदार्पण करके इस भूमि को पावन बनाया था । आटो की सुविधा है । यह स्थान दिल्ली-आगरा सड़क __ यहाँ पर कँकाली टीले में प्राचीन जिन प्रतिमाएँ, मार्ग पर दिल्ली से 145 कि. मी. व आगरा से 54 अवशेष, स्तूप, ताम्रपत्र व अनेकों प्रकार की अमूल्य कि. मी. है । कार व बस मन्दिरों तक जा सकती है। सामग्री प्राप्त हुई है, जिनके अवलोकन मात्र से यहाँ सुविधाएँ * ठहरने के लिए दिगम्बर मन्दिर के की प्राचीनता व महत्ता महसूस हो जाती है । भूगर्भ निकट सुन्दर धर्मशाला हैं, जहाँ भोजनशाला की भी से निकला हुआ इतना बड़ा खजाना अन्यत्र नहीं है। व्यवस्था हैं । श्वे. मन्दिर के निकट श्वे. धर्मशाला है अनेकों प्रतिमाएँ आदि लखनऊ म्यूजियम में रखी हुई। परन्तु फिलहाल खास सुविधा नहीं है । हैं । पुरातत्व संबंधी शोधकों के लिए यह महत्वपूर्ण पेढी * 1. अन्तिम केवली श्री 1008 जम्बूस्वामी स्थान है । दिगम्बर जैन सिद्ध क्षेत्र, चौरासी अन्य मन्दिर * इन मन्दिरों के अतिरिक्त मथुरा में पोस्ट : मथुरा -281 004. जिला : मथुरा, प्रान्त : उत्तर प्रेदश, फोन : 0565-420983. चार और दिगम्बर मन्दिर हैं । ___ कला और सौन्दर्य * यहाँ प्राचीन जैन कला का 2. श्री पार्श्वनाथ भगवान श्वेताम्बर जैन मन्दिर पेढ़ी, घीया मण्डी । विपुल भन्डार है । कँकाली टीले जैसे कई टीले मौजूद पोस्ट : मथुरा - 281 001. हैं, लेकिन अन्वेषण की आवश्यकता है । इन टीलों के जिला : मथुरा, प्रान्त : उत्तर प्रेदश । अवलोकन मात्र से पूर्व इतिहास का स्मरण हो फोन : पी.पी 0562-254559 (आगरा) आता हैं । 139 Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री समुद्रविजयजी की पटराणी शिवादेवी ने कार्तिक श्री सौरीपर तीर्थ कृष्णा 12 के रात्रि के अंतिम पहर में तीर्थंकर जन्म सूचक महास्वप्न देखे । उसी समय शंख का जीव तीर्थाधिराज * 1. श्री नेमीनाथ भगवान, श्याम आठवाँ भव पूर्ण करके शिवादेवी की कुक्षी में प्रविष्ट वर्ण, पद्मासनस्थ, लगभग 75 सें. मी. (श्वे. मन्दिर)। हुआ । इस शुभ अवसर पर इन्द्रादि देवों द्वारा च्यवन 2. श्री नेमिनाथ भगवान, श्याम वर्ण, पद्मासनस्थ, कल्याणक दिवस धूमधाम से मनाया गया । लगभग 105 सें. मी. (दि. मन्दिर) । क्रम से नव महीने व आठ दिन पूर्ण होने पर श्रावण तीर्थ स्थल * यमुना नदी किनारे बसे बटेश्वर से शुक्ला पंचमी के शुभ दिन चित्रा नक्षत्र में शिवादेवी ने पहाड़ी रास्ते 1.5 कि. मी दूर प्राचीन गाँव सौरीपुर में। श्याम वर्ण और शंख लक्षण वाले पुत्र रत्न को जन्म प्राचीनता * श्वेताम्बर शास्त्रानुसार हरिवंश में यदु दिया । छप्पन दिक्कुमारियाँ व इन्द्र इन्द्राणियों द्वारा नाम का प्रतापी राजा हुआ । राजा यदु से यादव वंश प्रभु का जन्म कल्याणक मनाया गया। राजा समुद्रविजयजी चला । राजा यदु के पौत्र सोरी व वीर नामक दो ने भी पुत्र-जन्म की खुशी में राज्य दरबार में बंधुओं ने अपने नाम पर सौरीपुर व सोवीर नगर । जन्मोत्सव का आयोजन किया । शिवादेवी ने गर्भकाल बसाये । सोरी के पुत्र अधंक वृष्णि हुए, जिनकी में अरिष्टरत्नमयी चक्रधारा देखी थी । इसलिए पुत्र का पट्टरानी भाद्रा की कुक्षी से समुद्रविजय, वसुदेव, वगैरह नाम “अरिष्ट नेमि" रखा गया । दस पुत्र व कुन्ती, भाद्री नाम की दो कन्याएँ हुई । वर्तमान चौवीसी के बाईसवें तीर्थंकर श्री अरिष्ट नेमि वीर के पुत्र भोजकवृष्णुि हुए । भोजकवृष्णि के पुत्र । भगवान हुए, जिन्हें श्री नेमिनाथ भगवान भी कहते उग्रसेन व उनके पुत्र बंधु, सुबंधु व कंस वगैरह 7 भाई हैं । प्रभु की च्यवन व जन्म कल्याणक भूमि रहने के एवं देवकी व राजुलमती दो पुत्रियाँ हुई । समुद्रविजय सौरीपुर में व उग्रसेन मथुरा में राज्य करते थे । कारण यह पावन तीर्थ-धाम बना । समुद्रविजयजी के भाई वसुदेवजी के दो पुत्र श्री कृष्ण पुराने जमाने में यह एक विराट नगरी थी । इनके व बलराम हुए । अन्य नाम सोरियपुर व सूर्यपुर भी शास्त्रों में आते श्री नेमिनाथ जिनालय (श्वे.) सौरीपुर 140 Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RAMERIHANI श्री नेमिनाथ भगवान (श्वे.मन्दिर) सौरीपुर 141 Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हैं । वर्तमान बटेश्वर भी इसी नगरी का अंग था। जब महावीर यहाँ पधारे तब यहाँ सोर्यदत्त नाम का राजा राज्य करता था-ऐसा उल्लेख है । आचार्य श्री बप्पभट्टसूरीश्वरजी द्वारा मथुरा में उद्धार करवाते वक्त सौरीपुर में भी उद्धार करवाने का उल्लेख है । आचार्य श्री विमलचन्द्रसूरीश्वरजी, श्री उद्योतनसूरिजी, श्री नेमिचन्द्रसूरिजी, श्री देवेन्द्रसूरिजी आदि अनेकों प्रकाण्ड आचार्यगण यहाँ यात्रार्थ पधारे थे । चौदहवीं सदी में आचार्य श्री जिनप्रभसूरीश्वरजी द्वारा रचित "विविध तीर्थ कल्प" में यहाँ शंख राजा द्वारा उद्धार कराये गये जिनालय में श्री नेमिनाथ भगवान की प्रतिमा रहने का उल्लेख है । श्री हीरसौभाग्य' महाकाव्य के रचनाकार श्री सिंहविमलगणी के पिता संघवी श्री सेहिल द्वारा सतरहवीं शताब्दी में श्री नेमिनाथ प्रभु की प्रतिमा भरवाने का उल्लेख है, जिसकी अंजनशलाका व प्रतिष्ठा विक्रम सं. 1640 में आचार्य श्री विजयहीरसूरीश्वरजी के सुहस्ते हुई । सं. 1662 में आचार्य श्री विजयसूरीश्वरजी के शिष्य उपाध्याय कल्याणविजयजी व उनके शिष्य श्री जयविजयजी यात्रार्थ पधारें । तब यहाँ 7 श्वेताम्बर मन्दिर रहेने का उल्लेख है । उसके पश्चात् भी अनेकों आचार्यों व मुनि महाराजों का यहाँ पदार्पण हुआ व अनेकों संघ यात्रार्थ आये । दिगम्बर मान्यतानुसार भी भगवान नेमिनाथ के च्यवन व जन्म कल्याणक यहाँ हुए, परन्तु भगवान का जन्म वैशाख शुक्ला 13 के दिन चित्रा नक्षत्र में हुआ माना जाता है । यादवकुलतिलक भगवान श्री नेमिनाथ के इन दो कल्याणकों के अतिरिक्त यहाँ पर कई अन्य मुनियों को केवलज्ञान व निर्वाण हुआ माना जाने के कारण यह परम पवित्र पावन तीर्थ है । विशिष्टता * वर्तमान चौवीसी के बाईसवें तीर्थंकर श्री नेमिनाथ भगवान के च्यवन व जन्म कल्याणक इस पवित्र पावन भूमि में होने के कारण यहाँ की महान विशेषता है ।। चरम तीर्थंकर भगवान महावीर का भी यहाँ पदार्पण हुआ था । कहा जाता है यहाँ सौर्यावंतसक उद्यान में भगवान महावीर ने एक माछीमार को उसके पूर्व जन्म का वृत्तान्त बताकर प्रतिबोधित किया था । दिगम्बर शास्त्रानुसार श्री आदीश्वर भगवान, श्री पार्श्वनाथ भगवान व श्री महावीर भगवान के पावन विहार से भी यह भूमि पावन बनी है । श्री सुप्रतिष्ट, श्री धान्यकुमार, श्री अलसतकुमार आदि महामुनियों की यह तपोभूमि व निर्वाण-भूमि है। भगवान महावीर के समय यम नामक एक अन्तः कृत केवली यहीं से मोक्ष सिधारे । दिगम्बर विद्वान आचार्य श्री प्रभाचन्द्रजी के गुरु आचार्य श्री लोकचन्द्रजी यहीं हुए । आचार्य श्री प्रभाचन्द्रजी ने सुप्रसिद्ध ग्रन्थ “प्रमेयकमलमार्तण्ड' की रचना यहीं की थी । दानी कर्ण की भी यह जन्म भूमि है । अन्य मन्दिर * वर्तमान में इन दिगम्बर व श्वेताम्बर दो मन्दिरों के अतिरिक्त कोई मन्दिर नहीं है। बटेश्वर में एक दिगम्बर मन्दिर है । कला और सौन्दर्य * यहाँ ध्वंसावशेषों में से अनेकों प्राचीन वस्तुएँ प्राप्त हुई है । सर कनिंगहम् ने यहाँ टेकरियों में अनेक प्राचीन अवशेष, खण्डहर मन्दिर आदि होने का संकेत किया है । यहाँ से अनेक प्राचीन शिलालेख, प्रतिमाएँ, ताम्र-सिक्के आदि वि. सं. 1870 में आगरा ले जाने का उल्लेख है। अगर शोध-कार्य किया जाय तो अभी भी इन श्री नेमिनाथ जिनालय (दि.) सौरीपुर 142 Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ oodmaranevaala-RINCredadiahbinaराप्रति Hivaratarulaiमाशापामनाया 1ोपमोजमुना प्रसादामन की बारमासकेसनमुत्या पदणरचंट TA निवासास तीर्थ लगाधारी दीरिया मोल्पियामि मारावादावापना वीसाररागमनानासपाजाविशयदर्शकजा श्री नेमिनाथ भगवान (दि.) सौरीपुर टीलों में अनेकों प्राचीन सामग्री प्राप्त होने की दिगम्बर धर्मशाला में भोजनशाला की भी सुविधा है । सम्भावना हैं । बड़े हॉल भी है । मार्गदर्शन * यहाँ से नजदीक का बड़ा रेल्वे पेढी *1. श्री सौरीपुर जैन श्वेताम्बर तीर्थ कमेटी, स्टेशन आगरा फोर्ट 75 कि. मी. दूर है । नजदीक के गाँव : सौरीपुर, रेल्वे स्टेशन शिकोहाबाद से 25 कि. मी. वाह के रास्ते पोस्ट : बटेश्वर - 283 104. तालुक : बाह, बटेश्वर होकर आना पड़ता है । बटेश्वर से 5 कि. मी. जिला : आगरा, प्रान्त : उत्तर प्रेदश । व वाह से 8 कि. मी. यह स्थल दूर है । आगरा व 2. श्री सौरीपुर बटेश्वर दिगम्बर जैन सिद्ध क्षेत्र, शिकोहाबाद से बस व टेक्सी की सुविधा है । मन्दिरों सौरीपुर । तक बस व कार जा सकती है । पोस्ट : बटेश्वर - 283 104. तालुक : बाह, सुविधाएँ * ठहरने के लिए मन्दिर के निकट जिला : आगरा, प्रान्त : उत्तर प्रेदश । सर्वसुविधायुक्त श्वेताम्बर व दिगम्बर धर्मशालाएँ हैं। फोन : 05614-34717. 143 Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री शीतलनाथ भगवान (श्वे.)-आगरा श्री आगरा तीर्थ प्रतिष्ठा होने के उल्लेख तीर्थ-मालाओं में मिलते हैं । __ चिन्तामाणि पार्श्वनाथ भगवान की यशब नामक कीमती पाषण से निर्मित इस अलौकिक प्रतिमा की प्रतिष्ठा राज्य-सम्मान प्राप्त श्रेष्ठी श्री मानसिंहजी द्वारा परमपूज्य जगतगुरु आचार्य श्री हीरविजयसूरीश्वरजी के सुहस्ते वि. सं. 1639 में विराट महोत्सव के साथ सम्पन्न हुई थी । पास ही चौक में सभामण्डप के बीच श्री शीतलनाथ भगवान की श्यामवर्णी चमत्कारिक भव्य प्राचीन प्रतिमा विराजमान हैं, जो यहाँ के एक मस्जिद में से प्राप्त हुई थी जिसे श्वेताम्बराचार्य के सुहस्ते प्रतिष्ठित करवाया गया । विशिष्टता * अकबर बादशाह ने तपस्विनी श्राविका श्री चंपा के मुख से जैनाचार्य श्री हीरविजयसूरीश्वरजी की विद्वता के बारे में सुना तो बादशाह को सूरिजी के दर्शन की तीव्र अभिलाषा हुई । तुरन्त ही बादशाह ने आचार्य श्री को फतेहपुर सीकरी पधारने के लिए अपने अहमदाबाद के सूबेदार मार्फत आमंत्रण भेजा । उस समय आचार्य श्री गंधार विराजते थे । आचार्य श्री ने धर्म प्रभावना के अनेकों कार्य होने की सम्भावना समझकर श्री संघ की अनुमति से मंजूरी प्रदान की व अपने शिष्ट मण्डल सहित विहार करके फतेहपुर-सीकरी होते हुए बादशाह के अति आग्रह से वि. सं. 1639 के ज्येष्ठ माह में आगरा पहुँचे । तब इसी मन्दिर के उपाश्रय में ठहरे थे । कहा जाता है कि बादशाह अकबर आचार्य श्री से मिलने यहीं पर आया करते थे। अकबर बादशाह ने आचार्य श्री के उपदेश से जैन तत्त्व से प्रभावित होकर जीव-हिंसा बन्द करने आदि अनेकों विषयों पर फरमान जारी किये थे, जो अभी भी उपलब्ध हैं । आचार्य श्री को यहीं पर राज दरबार में ससम्मान जगतगुरु पद से विभूषित किया था । बादशाह अकबर के पास स्थित अमूल्य ग्रन्थ-भंडार आचार्य श्री को भेंट प्रदान किया था, जो इस उपाश्रय में विद्यमान है । अकबर के दरबार में सम्मान प्राप्त श्रेष्ठी श्री मानसिंह, संघवी चन्द्रपाल श्री हीरानन्द, थानसिंह, दुर्जनशल्य आदि श्रावकों ने अनेकों मन्दिर बनवाये थे, जिनकी प्रतिष्ठा आचार्य विजयहीरसूरीश्वरजी के सहस्ते सम्पन्न हुई थी । जहाँगीर के मंत्री कुँवरपाल व तीर्थाधिराज * श्री चिन्तामणि पार्श्वनाथ भगवान, श्वेत वर्ण, पद्मासनस्थ (श्वे. मन्दिर) । तीर्थ स्थल * यमुना नदी के तटपर स्थित आगरा शहर के रोशन मोहल्ले में । प्राचीनता * इस शहर का इतिहास प्राचीन है । शिलालेखों में उग्रसेनपुर, अर्गलपुर आदि नामों का उल्लेख है । वि. सं. पूर्व 206 से 166 तक यह नगर सम्राट अशोक के अधिकार में रहने का उल्लेख मिलता है । परन्तु इतने प्राचीन कलात्मक अवशेष आज यहाँ उपलब्ध नहीं हैं । संभवतः कालक्रम से भूकंप या किसी कारणवंश यह क्षेत्र ध्वस्त हुआ होगा। वि. की पन्द्रहवीं सदी में विध्वंस हुए स्थान पर बहलोल लोदी ने पुनः नगर बसाना प्रारंभ किया व उनके पुत्र सिकन्दर लोदी ने इसको भारत का पाटनगर बनाया । तब इस क्षेत्र का पुनः रूप बदला । सम्राट अकबर के समय आचार्य श्री हीरविजयसरीश्वरजी का वि. सं. 1639 में यहाँ पदार्पण हआ । उस समय यहाँ अनेकों जैन मन्दिरों की आचार्य श्री के सहस्ते 144 Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री चिन्तामणि पार्श्वनाथ भगवान (श्वे.) - आगरा सोनपाल ने भी यहाँ श्री श्रेयासंनाथ भगवान का विशाल मन्दिर बनवाकर अंचलगच्छीय आचार्य श्री के हार्थों प्रतिष्ठा करवाई थी । इन्होंने ओर भी अनेकों प्रशंसनीय कार्य किये जो वि. सं. 1671 के शिलालेख में उत्कीर्ण हैं । यह शिलालेख आज भी उपाश्रय में मौजूद है । ___ बादशाह अकबर के पुत्र जहाँगीर व पौत्र शाहजहाँ ने भी आचार्य श्री हीरविजयसूरीश्वरजी के शिष्य-प्रशिष्यों को अपने दरबार में धर्मगुरु माना था । उपरोक्त वर्णनों से सिद्ध होता है कि यहाँ धर्म-प्रभावना के अनेकों कार्य हुए, जो उल्लेखनीय हैं। अन्य मन्दिर * वर्तमान में इसके अतिरिक्त यहाँ 12 श्वेताम्बर मन्दिर व कई दिगम्बर मन्दिर हैं। शहर के बाहर एक विशाल दादावाड़ी है, जिसे श्री हीरविजयसूरीश्वरजी की दादावाड़ी कहते हैं । __ कला और सौन्दर्य * विशिष्ट पाषाण में निर्मित श्री चिन्तामणि पार्श्व प्रभु की प्रतिमा अति ही सुन्दर व प्रभावशाली है । श्री शीतलनाथ भगवान की प्रतिमा की कला भी अति ही मनमोहक है, लगता है जैसे प्रभु साक्षात विराजमान हैं । यहाँ का मण्डप भी कला में अपना विशिष्ट स्थान रखता है । मार्ग दर्शन * आगरा फोर्ट रेल्वे स्टेशन से यह मन्दिर लगभग एक कि. मी. है । स्टेशन पर टेक्सी व आटो की सुविधा है । मन्दिर तक कार व बस जा सकती हैं । ___ सुविधाएँ * ठहरने के लिए गाँव में श्वेताम्बर व दिगम्बर धर्मशालाएँ हैं, जहाँ बिजली, पानी की सुविधा उपलब्ध हैं । गाँव में हीरविजयसूरीश्वरजी श्वे. जैन दादावाड़ी में भी ठहरने की सुव्यवस्था है । जहाँ भोजनशाला की भी सुविधा है । कार व बस भी अन्दर ठहर सकती हैं । पेढी * श्री चिन्तामणि पार्श्वनाथ भगवान श्वेताम्बर जैन मन्दिर, पेढ़ी, आचार्य श्री हीरविजयसूरीश्वरजी का उपाश्रय, रोशन मोहल्ला । पोस्ट : आगरा - 282 003. प्रान्त : उत्तर प्रेदश, फोन : 0562-254559. 145 Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आन्ध्र प्रदेश 1. कुलपाकी 148 2. गुड़िवाड़ा 152 3. पेदमीरम् 154 4. अमरावती 156 5. गुम्मीलेरु 158 146 Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ANDHRA PRADESH OPIST nnelli Minajipet Markur Medchal Bolarum Maula Ali Ambarpet aepalle Bomgakally HYDERABAD apeta Penuganchiprolu vyapeta Krosuru alle Amaravat 4 Wasalmari Yadagiri Guttao hgipuram Satuluru saraopet varu D digama Raghavapuram Chandralapadu Krishna Bibinagar Gempalogudem Madhira Rajapet Outukuru Tiguvuru Prattinadu Shahpuram Raghunadapallio Raipalli Motkur Valigonda Pochampalli Musi Ammanbole Aler Jidkal Raigir oMotakodur Bhongir Chebroluo Ippad Jangoon Kanch Kybart Newsbo Kanchikacherla Partiala Konduru Kondapalle Pedda Avutapalle Gollapalle Gundalo Agtripalle Viravalli Kolkuro Aler Vardha Telaprolu Mangalagiri Kankipadu Vijayawada Gannavaram KRISHNA Pedda kurapadu Ventrapragada Motoru Tadikonda Gudivada Bandarupalle Pedda Vadlapudi Vuyyuru R Kolakalur Kollipers Valluru Pamarru Rapileswarapuram Tenali Kuchipud GUNTUR Nidumolu Pe Boirampatemo Chintalapudi Kamavarapukota Kolleru MAHARASHTRA ADILABAD NIZAMABAD SANGAREDOI ANANTAPUR KURNOOL HYDERABAD ឃ NALGONDA MAHABUBNAGAR KARIMNAGAR CUDDAPAH Jenaruanavaram Dwaraka Tirumala Kambhampadu Vissannapeta Briogolu WEST GODAVARI Nidadavole Ramanakkapeta Tadikalapudi Pubacherla Tadepallegudem Dharmajigudem E Nuzvid S Hanumadol o Perpad Pentapadu Mailavaram bendulur Gundugolanu Gmapavaram, PELURU Kolleru Lake JAIN PILGRIM CENTRES CHITTOOR WARANGAL Metichill Undi Pedana Manginapudi Beach Gilduru MACHILIPATNAM Bandar Fort ONGOLE Lakkavaram Gopalapuram Potavaram Kovvur Chigaliu GUNTUR. NELLORE TAMIL NADU Madhayaram Bhimavaram KHAMMAM MADHYA PRADESH ELURU MACHILIPATNAM BAY OF BENGAL Rajahmundry Dwarapudi Duvva Piphara Tanuku Velpuru Kottapeta Attilig Relang Penugonda Ainavarli Gummaturu Peddapuram Pallevada KaikalurAkividu Mandavalli Mudinepalle Narasapur Pallepalem Mogalturul Antorvedipalem Bantumillio Krudivennu Kavutaram KAKINADA A JAIN PILGRIM CENTRES STATE CAPITAL DISTRICT HEADQUARTERS DISTRICT BOUNDARIES Kadiyam 5 Karapa Dulla Mandapeta AchantaGannavaram Maruteru Viravasaram Antarvedi VISAKHAPATNAM Atreyapuram Ramachandrapura Alamuru Draksharama Kapileswarapuram Katipalle SRIKAKULAM Peddapudi Samalkot Palakoll Nagaraun Razole Banuamurlanka KAK (PC Polavara Mummidivare 24 Kandikup Amalapuram Bodasakurru Tallare 147 Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाह्य सुन्दर दृश्य-कुलपाक श्री कुलपाकजी तीर्थ तीर्थाधिराज * श्री आदीश्वर भगवान, अर्द्ध पद्मासनस्थ, श्याम वर्ण, लगभग 105 सें. मी. (श्वे. मन्दिर) । तीर्थ स्थल * आलेर से लगभग 6 कि. मी. दूर कुलपाक गांव के बाहर विशाल परकोटे के बीच । प्राचीनता * श्री आदीश्वर प्रभु की प्रतिमा श्री माणिक्यस्वामी के नाम से प्रख्यात है । प्रतिमा अति ही प्राचीन है । एक किंवदन्ति है कि श्री आदिनाथ प्रभु के पुत्र श्री भरत चक्रवर्तीजी ने अष्टापद पर्वत पर चौबीस भगवान की प्रतिमाएँ प्रतिष्ठित करवाई थी उस समय एक प्रतिमा अपने अंगूठी में जड़े नीलम से भी बनवाई थी वही यह प्रतिमा है । कहा जाता है राजा रावण को दैविक आराधना से यह प्रतिमा प्राप्त हई थी जिसे उसने अपनी पट्टरानी मन्दोदरी को दी थी । कई 148 काल तक यह प्रतिमा लंका में रही व लंका का पतन होने पर यह प्रतिमा अधिष्ठायक देव ने समुद्र में सुरक्षित की । श्री अधिष्ठायक देव की आराधना करने पर विक्रम सं. 680 में श्री शंकर-राजा को यह प्रतिमा प्राप्त हुई जिसे मन्दिर का निर्माण करवाकर प्रतिष्ठित करवाया गया । यहाँ पर सं. 1333 का एक शिलालेख है जिसमें इस तीर्थ का व माणिक्यस्वामी की प्रतिमा का उल्लेख है । सं. 1481 के उपलब्ध शिलालेख में तपागच्छाधिराज भट्टारक श्री रत्नसिंहसूरिजी के सान्निध्य में श्री जैन श्वेताम्बर संघ द्वारा जीर्णोद्धार हुए का उल्लेख है । सं. 1665 के शिलालेख में आचार्य श्री विजयसेनसूरीश्वरजी का नाम उत्कीर्ण है । सं. 1767 चैत्र शुक्ला 10 के दिन पंडित श्री केशरकुशलगणीजी के सान्निध्य में श्री हैदराबाद के श्रावकों द्वारा जीर्णोद्धार हुए का उल्लेख है । उक्त समय दिल्ली के बादशाह Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आदिनाथ भगवान (माणिक्यस्वामी)-कुलपाक Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयवाड़ा-हैदराबाद मार्ग में आलेर लगभग 6 कि. मी. है, जहाँ पर आटो, तांगो की सवारी का साधन उपलब्ध है । आलेर स्टेशन के सामने भी धर्मशाला है, जहाँ पर पानी, बिजली की सुविधा है । यहाँ से हैदराबाद लगभग 80 कि. मी. है । यहाँ का बस स्टेण्ड लगभग 400 मीटर दूर है । मन्दिर तक पक्की सड़क है । आखिर तक कार व बस जा सकती है । सुविधाएँ * ठहरने के लिए मन्दिर के अहाते में ही सर्वसुविधायुक्त विशाल धर्मशाला है, जहाँ पर भोजनशाला व नास्ते की भी सुविधाएँ उपलब्ध है । इसी परकोटे में 82 कमरों की सर्वसुविधायुक्त एक और विशाल धर्मशाला का निर्माण हुवा है । पेढ़ी * श्री श्वेताम्बर जैन तीर्थ कुलपाक, पोस्ट : कोलनपाक - 508 102. व्हाया : आलेर रेल्वे स्टेशन, जिला : नलगोन्डा, प्रान्त : आन्ध्रप्रदेश, फोन : 08685-81696. औरंगजेब के पुत्र बहादुरशाह के सुबेदार मोहम्मद युसुफखां के सहयोग के कारण जीर्णोद्धार का कार्य सुन्दर ढंग से सम्पन्न हुआ व बड़ा परकोटा भी बनाया गया । वि. सं. 2034 में पुनः जीर्णोद्धार हुवे का उल्लेख है । कहा जाता है पहिले यहाँ के शिखर की ऊंचाई 69 फीट थी जो उक्त जीर्णोद्धार के पश्चात् शिखर की ऊंचाई 89 फीट हुई जो अभी विद्यमान है। वर्तमान में पुनः सभा मण्डप का जीर्णोद्धार हुवा है । विशिष्टता * श्री माणिक्यस्वामी प्रतिमा श्री आदीश्वर भगवान के ज्येष्ठ पुत्र श्री भरत चक्रवर्तीजी द्वारा अष्टापद गिरी पर प्रतिष्ठित प्रतिमा होने की मानी जाने के कारण यहाँ की महान विशेषता है । यह प्रतिमा अष्टापद पर्वत पर पूजी जाने के बाद राजा रावण द्वारा पूजी गई । उसके हजारों वर्षों पश्चात् अधिष्ठायक देव की आराधना से दक्षिण के राजा शंकर को प्राप्त हुई । ऐसी प्रतिमा के दर्शन अन्यत्र अति दुर्लभ है । इसके अतिरिक्त यहां पर प्रभु वीर की फिरोजे नग की बनी हंसमुख प्राचीन अद्वितीय प्रतिमा के दर्शन भी होते हैं । प्रतिवर्ष चैत्र शुक्ला 13 से पूर्णिमा तक मेला भरता है तब हजारों भक्तगण भाग लेकर प्रभु भक्ति का लाभ लेते हैं । यहाँ के अधिष्ठायक देव चमत्कारिक है । कहा जाता है कभी कभी मन्दिर में घुघरू बजने की आवाज आती है । अन्य मन्दिर * वर्तमान में इसके अतिरिक्त अन्य कोई मन्दिर नहीं हैं । कला और सौन्दर्य * यहाँ प्रभु प्रतिमाओं की कला अत्यन्त निराले ढंग की है । यहाँ कुल 15 प्राचीन प्रतिमाएँ हैं सारी प्रतिमाएं कला में अपना विशेष महत्व रखती है । माणिक्यस्वामी की प्रतिमा व फिरोजे नगीने की बनी महावीर भगवान की प्रतिमा का तो जितना वर्णन करें कम है । प्रभु वीर की फिरोजे नग में इस आकार की बनी प्रतिमा विश्व की प्रतिमाओं में अपना अलग स्थान रखती है जो विश्व का अद्वितीय नमूना URID यहाँ के शिखर की कला भी निराले ढंग की है । यहाँ, खण्डहरों में भी अति आकर्षक कला के नमूने नजर आते हैं । मार्ग दर्शन * यहाँ का नजदीक का रेल्वे स्टेशन 150 Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरम तीर्थंकर भगवान महावीर-कुलपाक 151 Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री गुड़िवाड़ा तीर्थ तीर्थाधिराज * श्री पार्श्वनाथ भगवान, श्याम वर्ण, अर्द्ध-पद्मासनस्थ (श्वे. मन्दिर) । तीर्थ स्थल * गुड़िवाड़ा गाँव के मध्य । प्राचीनता * प्रभु-प्रतिमा की कलाकृति के अवलोकन मात्र से यहाँ की प्राचीनता का अनुमान हो जाता है । प्रतिमा लगभग वि. के आठवीं सदी की मानी जाती है । प्रतिमा की प्राचीनता से यह सिद्ध होता है विशिष्ट कलात्मक पार्श्वप्रभु प्रतिमा अन्य मन्दिर * वर्तमान में इसके अतिरिक्त कोई मन्दिर नहीं हैं । __ कला और सौन्दर्य * प्रभु-प्रतिमा की कला अति ही सुन्दर निराले ढंग की है । प्रतिमा के दर्शन करते ही ऐसा लगता है मानों श्री धरणेन्द्र देव साक्षात प्रकट होकर प्रभु पर अपने फण फैलाकर छत्र कर रहे हैं । कलाकार ने अपनी पूरी शक्ति इस प्रतिमा के निर्माण में लगाकर विशिष्ट कला का नमूना प्रस्तुत किया बाह्य दृश्य-गुडिवाड़ा है । इसी मन्दिर में एक और श्री पार्श्व-प्रभु की प्राचीन प्रतिमा है, जिसकी कला भी विशिष्ट है । मार्ग दर्शन 8 यहाँ का रेल्वे स्टेशन गुड़िवाड़ा कि किसी जमाने में यहाँ जैन धर्म अत्यन्त जाहोजलालीपूर्ण लगभग 12 कि. मी. है । विजयवाड़ा -मसूलिपटनम रहा होगा व सुसंपन्न श्रावकों के अनेकों परिवार यहाँ मार्ग में यह तीर्थ स्थित है । यहाँ से विजयवाड़ा रहते होंगे । पहिले यह प्रतिमा दूसरे स्थान पर थी, लगभग 40 कि. मी. दूर है । जिसे इस नवीन मन्दिर का निर्माण करवाकर यहाँ पुनः एँ * ठहरने के लिए धर्मशाला व हाल है। प्रतिष्ठित करवाया गया । जहाँ पर बिजली, पानी, बर्तन व ओढ़ने-बिछाने के विशिष्टता इस प्रतिमा की कलात्मकता व प्राचीनता वस्त्रों की सुविधाएँ उपलब्ध है । ही यहाँ की विशिष्टता है । प्रतिवर्ष पौष कृष्णा 10 के पेढ़ी * श्री पार्श्वनाथ जैन श्वेताम्बर संघ, दिन मेला भरता है । यहाँ के प्रतिमाओं की कला देखते जैन टेम्पल स्ट्रीट, पोस्ट : गुड़िवाड़ा - 521 301. ही कुलपाकजी, अंतरिक्षजी, भान्दकजी, दर्भावती आदि जिला : कृष्णा, प्रान्त : आन्ध्रप्रदेश, का स्मरण हो आता है । फोन : पी.पी. 08674-44291,44266,42701 152 तिm सावद Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ COSITIISSSSSISTOODOO000000000000000 oooooooooooooooo beoooooooooooo o oooo000000OOOOOOOOOOO. श्री पार्श्वनाथ भगवान-गुड़िवाड़ा 153 Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्षों पश्चात् आजू-बाजू में रहने वाले जैन बंधुवों को प्राचीन जैन प्रतिमा यहाँ रहने का पता चला । कुछ घर भी बसे । भीमावरम आदि आजू-बाजू के गांव वाले प्रतिमा अपने वहाँ ले जाकर मन्दिर बनवाना चाहते थे । परन्तु ग्राम वासियों की प्रबल इच्छानुसार यहीं मन्दिर बनवाने का निर्णय लिया व मन्दिर का नव निर्माण करवाकर विक्रम सं. 2021 माघ शुक्ला 8 के शुभ दिन परम-पूज्य मुनि श्री नन्दनविजयजी महाराज के सान्निध्य में हर्षोल्लास पूर्वक प्रतिष्ठित करवाई गई । प्रतिमा पर कोई लंछन नहीं रहने के कारण भगवान विमलनाथ नाम सम्बोधित किया गया जो पूर्व प्रकाशित तीर्थ-दर्शन में दर्शाया है । पश्चात् यात्रिओं का आवागमन भी काफी बढ़ा जैन परिवार भी कुछ बसे । वि. सं. 2036 में पन्यास प्रवर श्री भद्रानन्दजी गणीवर्य का यहाँ चातुर्मास हुवा । इस चातुर्मास में भीमावरम संघ ने पूर्ण भाग लिया । यात्रियों का आवागमन बढ़ने के कारण पुनः जीर्णोद्धार की आवश्यकता मन्दिर का बाह्य दृश्य-पेदमीरम् महशूश होने लगी अतः भव्य रुप से पुनः जीर्णोद्धार करवाकर वि. सं. 2037 में पन्यास प्रवर श्री भद्रानन्दजी गणीवर्य की सानिध्यता में पुनः प्रतिष्ठा सम्पन्न हुई । प्रभु प्रतिमा जटायुक्त रहने के कारण सभी को महसूस हो रहा था कि यह प्राचीन प्रतिमा श्री आदिनाथ भगवान की ही है, अतः प्रतिष्ठा के पूर्व ही विजया तीर्थाधिराज * श्री आदिनाथ भगवान, श्याम दशमी के शुभ दिन शुभ मुहुर्त में नाम करण विधि के वर्ण, पद्मासनस्थ, लगभग 118 सें. मी. (श्वे. मन्दिर)। साथ तीर्थाधिराज भगवंत को हर्षोल्लासपूर्वक श्री आदिनाथ तीर्थ स्थल * पेदमीरम गाँव के मध्य । भगवान सम्बोधित किया जो अभी विद्यमान है । प्राचीनता * प्रभु प्रतिमा के प्राचीनता का पता विशिष्टता * इतनी प्राचीन प्रतिमा यहाँ के भूगर्भ लगाना कठिन है । प्रतिमा की कलाकृति से लगभग से प्राप्त होना प्रमाणित करता है कि किसी समय यह दो हजार वर्षों से ज्यादा प्राचीन मानी जाती है। एक विराट नगरी रही होगी व वैभव सम्पन्न जैनियों का संभवतः वजस्वामीजी द्वारा पूर्व प्रतिष्ठित हो । यह यहाँ निवास रहा होगा । इसके अन्वेशण की आवश्यकता भव्य प्रतिमा लगभग 80 वर्ष पूर्व जमीन खोदती वक्त है । भूगर्भ से प्रतिमा प्रकट होने के पश्चात् अभी तक यहाँ के ग्रामवासियों को भूगर्भ से प्राप्त हुई थी उस अनेकों प्रकार की चमत्कारिक घटनाएं घटते आने का वक्त यहाँ जैनियों का कोई घर नहीं था । ग्राम उल्लेख है । वासियों ने प्रतिमा की महिमा नहीं समझकर प्रभु प्रति वर्ष कार्तिक पूर्णिमा को मेला भरता है तब प्रतिमा को इधर-उधर रखा व गाँव में अशांती फैलने हजारों यात्रीगण इकट्ठे होकर प्रभु भक्ति का लगी । ग्राम वासियों को महसूस होते ही प्रभु प्रतिमा लाभ लेते हैं । को बाजों गाजों के साथ अच्छी जगह विराजमान कर अन्य मन्दिर * वर्तमान में इसके अतिरिक्त कोई निरन्तर पूजा-अर्चना अपने ढंग से करने लगे जिससे मन्दिर नहीं हैं । पुनः गांव में शांती का वातावरण छाया व निरन्तर उन्नति कला और सौन्दर्य * प्रभु प्रतिमा की कला होने लगी । विशेष आकर्षक है । 154 श्री पेदमीरम् तीर्थ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पपूमाचार्यदेवश्रीम श्रीमतीसबरीदेवी JANRSS वरचटनी श्या श्री आदिनाथ भगवान-पेदमीरम् मार्ग दर्शन * यहाँ से निकट का रेल्वे स्टेशन सुविधाएँ * ठहरने के लिए सर्वसुविधायुक्त भीमावरम टाऊन लगभग 5 कि. मी. दूर है । जहाँ ___ धर्मशाला हैं, जहाँ पर भोजनशालायुक्त सारी सुविधाएँ से बस, टेक्सी, व आटो की सुविधा उपलब्ध है । उपलब्ध है । विजयवाड़ा-गुड़िवाड़ा मार्ग से अथवा राजमहेन्द्री से पेढ़ी * श्री आदिनाथ जैन श्वेताम्बर तीर्थ पेढ़ी, वाया निडदवोल मार्ग से रेल व बस द्वारा भीमावरम पोस्ट : पेदमीरम् - 534 204. टाऊन आया जा सकता है । मन्दिर तक पक्की सड़क जिला : पश्चिम गोदावरी, प्रान्त : आन्ध्रप्रदेश, है । यहाँ से विजयवाड़ा लगभग 115 कि. मी. व फोन : 08816-23632. राजमहेन्द्री 72 कि. मी. दूर है । 155 Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्य मन्दिर * वर्तमान में इसके अतिरिक्त कोई श्री अमरावती तीर्थ मन्दिर नहीं हैं । कला और सौन्दर्य प्रभु प्रतिमा की कला सुन्दर व तीर्थाधिराज * श्री चिन्तामणि पार्श्वनाथ भगवान, निराले ढंग की है । नदी तट पर स्थित इस तीर्थ का श्याम वर्ण, लगभग 120 सें. मी. (श्वे. मन्दिर) । प्राकृतिक दृश्य दिव्य लोक सा प्रतीत होता है। तीर्थ स्थल * अमरावती गाँव के बाहर कृष्णा नदी मार्ग दर्शन * यहाँ से नजदीक का रेल्वे स्टेशन के तट पर । गुन्टुर 35 कि. मी. है, जहाँ से बस व टेक्सी की प्राचीनता * यहाँ की प्राचीनता का पता लगाना सुविधा है । यहाँ का बस स्टेण्ड / कि. मी. दूर है, कठिन है । प्रतिमाजी की कलाकृति, जगह का जहाँ से आटो व साईकिल रिक्शों का साधन वातावरण व आन्ध्र प्रदेश के अन्य तीर्थों की प्राचीनता उपलब्ध है । मन्दिर तक कार व बस जा देखने मात्र से ही यहाँ की प्राचीनता का अनुमान हो सकती है। जाता है । संभवतः यह स्थान लगभग एक हजार वर्षों सुविधाएँ * मन्दिर के अहाते में ही कुछ कमरे है, से पूर्व का होगा । अन्तिम उद्धार सं. 2031 में हुआ जहाँ पानी व बिजली की सुविधा है । परन्तु फिलहाल था । अभी पुनः जीर्णोद्धार की आवश्यकता है । ठहरने के लिए खास सुविधा नहीं है । विशिष्टता * यह प्राचीन तीर्थ कृष्णा नदी के तट पर पेढ़ी * श्री चिन्तामणि पार्श्वनाथ जैन श्वेताम्बर शान्त वातावरण में रमणीय स्थान पर होने के कारण मन्दिर पेढ़ी, भक्ति व ध्यान के लिए उपयुक्त है। सामने कलकल पोस्ट : अमरावती - 522 020. जिला : गुन्टुर, बहती कृष्णा नदी की मधुर मन्द आवाज भक्तों की प्रान्त : आन्ध्रप्रदेश, आत्मा को परम शान्ति प्रदान करती है । आन्ध्र प्रदेश फोन : 0863-214834 पी.पी. गुन्टुर । में नदी तट पर बसा प्राचीन तीर्थ यही मात्र है । प्रतिवर्ष पोष कृष्णा दशमी को मेला भरता है । मनमोहक दृश्य-अमरावती तीर्थ 156 Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री चिन्तामणि पार्श्वनाथ भगवान अमरावती 157 Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री गुम्मिलेरु तीर्थ तीर्थाधिराज * श्री चिंतामणी पार्श्वनाथ भगवान, अर्ध पद्मासनस्थ, श्याम वर्ण (श्वे. मन्दिर) । तीर्थ स्थल * छोटे से गम्मिलेरु गाँव के बाहर। प्राचीनता * यह प्रभु प्रतिमा यहीं पर सड़क के नव निर्माण के समय लगभग 30 वर्ष पूर्व भूगर्भ से प्राप्त हुई, तब यहाँ के स्थानीय भक्तजनों ने छोटे से कमरे का निर्माण करवाकर वि. सं. 2030 में प. पूज्य नन्दनविजयजी म. सा. की पावन निश्रा में विराजमान करवाया था । मन्दिर स्थापना के पश्चात् भक्तजनों का आवागमन बढ़ा । भक्ति भाव से आनेवालों की मनोकामनाएं भी पूर्ण होने लगी जिससे मन्दिर के विशालता की आवश्यकता महसूस होने लगी । अतः जीर्णोद्धार स्वरुप विशाल परकोटे के अन्दर भव्य रुप में विधिवत मन्दिर निर्माण का कार्य प्रारंभ किया गया जो अभी तक चल रहा है व लगभग एक वर्ष में सम्पूर्ण होने की संभावना है । यहाँ पर और भी जगह-जगह प्राचीन प्रतिमाएं मिलने के उल्लेख मिलते है । अतः पता लगता है किसी समय यहाँ कई जैन मन्दिर रहे होंगे व अनेकों जैन परिवारों का यहाँ निवास रहा होगा । प्रतिमा की कलाकृति से महसूस होता है कि यहाँ का इतिहास लगभग दो हजार वर्ष पूर्व का है । संभवतः यह प्रतिमा श्री भद्रबाहुजी के समय की हो । प्रभु प्रतिमा के दोनों बाजू शेरों की आकृति रहने के कारण पुरातत्ववाले इसे अशोककालीन बताते हैं । विशिष्टता * यहाँ की प्राचीनता व प्राचीन प्रभु प्रतिमा की अद्वितीय कलाकृति ही यहाँ की मुख्य विशेषता है । प्रभु प्रतिमा अतीव भावात्मक है । लगता है जैसे प्रभु साक्षात् विराजमान है व कुछ कहने वाले हैं । प्रतिवर्ष प्रभु के जन्म कल्याणक दिवस पोष कृष्णा दशमी को भव्य रुप से मेले का आयोजन होता है । तब आस-पास के गांवों से भी हजारों भक्तगण भाग . लेकर अपनी मनोकामनाएं पूर्ण करते है । अन्य मन्दिर * वर्तमान में यहाँ इसके अतिरिक्त कोई मन्दिर नहीं हैं ।। कला और सौन्दर्य * प्रभु प्रतिमा की प्राचीन कला अद्वितीय है । ऐसी कलात्मक प्राचीन प्रतिमा भारत में प्रथम है अतः बेजोड़ है ।। मार्ग दर्शन * यहाँ से नजदीक का रेल्वे स्टेशन द्वारपुड़ी 10 कि. मी. हैजहाँ से टेक्सी आटो, की सुविधा है । यहाँ से मेडापेटा 5 कि. मी. रावल पालेम 13 कि. मी. रामचन्द्रपुरम 15 कि. मी. राजमहेन्द्री 40 कि. मी. व विजयवाडा लगभग 200 कि. मी. दूर है । यह स्थान राउलपालने से काकीनाडा मार्ग पर है। मन्दिर तक कार व बस जा सकती है । __ सुविधाएँ * ठहरने हेतु सर्वसुविधायुक्त धर्मशाला हैं, जहाँ भोजनशाला की भी सुविधा है । पेढ़ी * श्री चिंतामणी पार्श्वनाथ जैन टेम्पल तीर्थ, नेशनल हाईवे न. 5, पोस्ट : गुम्मिलेरु-533 232. मेडापेटा के निकट, तालुक : अलमुरु, प्रान्त : आन्ध्रप्रदेश, जिला : पूर्वगोदावरी, फोन : पी.पी. 08855-34037. श्री चिन्तामणी पार्श्वनाथ मन्दिर-गुम्मीलेरु 158 Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13 लाश श्री चिन्तामणी पार्श्वनाथ भगवान-गुम्मीलेरु निजी अस 159 Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्नाटका 1. हुम्बज 162 2. वारंग 3. कारकल 4. मूडबिद्री 5. श्रवणबेलगोला 6. धर्मस्थल 7. हेमकूट-रत्नकूट 164 166 168 170 172 174 160 Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ KARNATAKA JAIN PILGRIM CENTRES Holahir Ayanure Hole Honur GULBARGA Harnahal Riponpet Hosanagara SHIMOGA Gajanuro * Humachadakatte Nagar Tuផ្លូវ Hulikal Umblebailu Mandagadde Tirthahalli Bhadra BELLA ANDHRA PRADESH DHARWAR Sringeri Jayapur KARWAR BELLARS Malpe okallianpur UDUPI Manipal Perdur ARABIAN SEA JAIN PILGRIM CENTRES STATE CAPITAL DISTRICT HEADQUARTERS DISTRICT BOUNDARIES Balehonnuro Kerekatte Kalasa Maileshvara TRADUR Kapo SHIMOGA 1 Karkal Belmanna *Kudremukh CHIKMAGALUR TUMKUR Padubidrio Mulkio MANGALORE A HASSAN BANGALOREZ KOLAR MERCA MANOYA Mudbidri Venur Charmadio Suratakalo Beltangadi Panamburu Punjalkatte Dharmasta Padavu Bantval DAKSHI MANGALORE Alpe Net Uppinangadi Ullald Peramunnur Okotekara KERALA TAMIL NADU S S AN HASSAN 48 Dandiganahalli Hirisave 43. Nelligere Mara Channarayapatna Shravanabelagola bruro * Hole Narsipur 5 Nagamangala algud Kikkeri koppa Gangawati Hlas Ginigera Sirigerio Emmiganuru Kampli Kurugodu KOPPAL Munirabad Hampi Kamalapuram Amaravati Hospeluayanagar 61 Hosaderoji ngabhadra Sunda Torangallu Road Candur Kudatini BELLARY 161 Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री हुम्बज तीर्थ तीर्थाधिराज * श्री पार्श्वनाथ भगवान, श्याम वर्ण, अर्द्ध पद्मासनस्थ, लगभग 120 सें. मी. (दि. मन्दिर ) । तीर्थ स्थल * हुम्बज गाँव के मध्य । श्री पार्श्वनाथ भगवान - हुम्बज प्राचीनता * इस तीर्थ की स्थापना विक्रम की सातवीं शताब्दी में सांतर राजवंश के संस्थापक श्री जिनदत्तराय के द्वारा हुई जो मथुरा के राजा श्री साकार के सुपुत्र थे I * विशिष्टता राजकुमार जिनदत्तराव मथुरा से श्री पद्मावती देवी की प्रतिमा घोड़े पर लेकर आते समय, 162 यहाँ स्थित लक्की वृक्ष के नीचे विश्राम कर रहे थे, जो आज भी मौजूद है। तब स्वप्न में यहीं पर उन्हें अपनी राजधानी बसाने की अदृश्य प्रेरणा मिली। पद्मावती देवी के चरणों से स्पर्श होने पर लोहा भी सोना बन जाने का संकेत उन्हें मिला था । अस्तु उन्होंने यहीं पर अपनी नयी राजधानी बसाकर मन्दिर बनवाया था । यहाँ पर स्थित मठ में नवरत्नों की प्रतिमाएँ भी अति दर्शनीय हैं। स्वस्ती श्री देवेन्द्र कीर्ति भट्टाचार्य जी की गादी यहाँ है जहाँ पर स्वामीजी विराजते हैं । श्री पद्मावती देवी का स्योत्सव प्रति वर्ष मार्च महीने में "मूला नक्षत्र" के दिन होता है। इस अवसर पर भारत के कोने-कोने से हजारों यात्री आते है। यहाँ देदीप्यमान पद्मावती देवी की आरती हर भक्त के हृदय में भक्ति का श्रोत बहाती है। पद्मावती देवी का मन्दिर इतना जाहोजलाली पूर्ण अन्यत्र नहीं है । देवी के दर्शन मात्र से श्रद्धालु भक्तजनों की मनोकामनाएं पूर्ण हो जाती है। अनेकों भक्तगण यहाँ आते रहते हैं, जिससे यहाँ सदैव ही मेला-सा लगा रहता है । अन्य मन्दिर * श्री भगवान पार्श्वनाथ मन्दिर व श्री पद्मावती देवी के मन्दिरों के अतिरिक्त तीन मन्दिर व पहाड़ी पर 7 मन्दिर और हैं जिनमें पार्श्वनाथ भगवान की 21 फीट उतंग प्रतिमा अतीव दर्शनीय है। कला और सौन्दर्य * सभी मन्दिरों में कई प्राचीन प्रतिमाएँ हैं जिनकी कला दर्शनीय है । यहीं पर एक लक्की वृक्ष - हुम्बज Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकट प्रभावी श्री पद्मावती देवी-हुम्बज मोती तालाब है, जिसका निर्माण एक हजार तीन सौ सुविधाएँ * मन्दिर के निकट ही सर्वसुविधायुक्त वर्ष पूर्व हुआ था । इसके सम्बन्ध में ऐसा कहा विशाल धर्मशाला व गेस्ट हाउस है, जहाँ पर चाय, जाता है कि यह तालाब अकाल में भी नहीं सूखता । नास्ता व भोजनशाला की भी सुविधाएं उपलब्ध हैं । मार्ग दर्शन * यहाँ से निकट का रेल्वे स्टेशन पेढ़ी * श्री होंबुज हुमचा) अतिशय जैन तीर्थ क्षेत्र, अरसालु 25 कि. मी. दूर है, जो शिमोगा जिले में है। स्वस्ति श्री देवेन्द्र कीर्ति स्वामीजी, श्री होम्बुज जैन मठ जहाँ से बस व टेक्सी की सुविधा उपलब्ध है ।। पोस्ट : हुमचा - 577 436. जिला : शिमोगा, तीर्थहल्ली गाँव से हुम्बज 29 कि. मी. है । तीर्थ स्थल प्रान्त : कर्नाटक, फोन : 08185-62722 पिढ़ी), तक पक्की सड़क है । यहाँ से शीमोगा 60 कि. मी. 08185-62721 (स्वामीजी) । व बेंगलूर से शीमोगा होकर 340 कि. मी. है । 163 Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कला और सौन्दर्य मन्दिर का शिखर अत्यन्त श्री वारंग तीर्थ निराले ढंग से निर्मित हैं । प्राकृतिक सौन्दर्य और शान्ति के बीच प्राचीन कला का यह सुन्दर नमूना है। तीर्थाधिराज * श्री पार्श्वनाथ भगवान, खड्गासन मार्ग दर्शन * यह स्थल मेंगलोर-शिमोगा मार्ग में की मुद्रा में (दि. मन्दिर) । मेंगलोर से 68 कि. मी. और कारकल से 16 कि. मी. तीर्थ स्थल * वनयुक्त पहाड़ी की तलहटी में, गाँव की दूरी पर है । यहाँ के बस स्टेण्ड से मन्दिर लगभग के बाहर, सरोवर के मध्यस्थ । कि. मी. है । मन्दिर तक पक्की सड़क है। यहाँ प्राचीनता * मनि श्री शीलविजयजी ने विक्रम सं. से मुडबिद्री 39 कि. मी. धर्मस्थल 92 कि. मी. वेणुर 1710-11 में यात्रार्थ भ्रमण किया तब यहाँ भी 65 कि. मी. बेलुर-हलेबीड 271 कि. मी. व श्रवणबेलगोला पधारे थे । उस समय यहाँ 60 जिन मन्दिर विद्यमान 351 कि. मी. दूर है । थे, ऐसा उल्लेख मिलता है । कहा जाता है यह सुविधाएँ फिलहाल यहाँ पर ठहरने के लिए विशेष कर्नाटक का प्राचीन तीर्थ है । कोई समय यह स्थल । सुविधाएँ नहीं है । अनिवार्यता होने पर मठ के हॉल जाहोजलालीपूर्ण था । में करीब 25 व्यक्तियों के लिए ठहरने की सुविधा विशिष्टता * यह मन्दिर दक्षिण प्रान्त के जल है । मुख्य कार्यालय हुमचा है। मन्दिर के नाम से विख्यात है । हर शुक्रवार को यहाँ पेढ़ी श्री वारंग अतिशय महाक्षेत्र, सैकड़ों दर्शनार्थी आकर पूजा में तल्लीन रहते हैं । स्वस्ति श्री देवेन्द्र कीर्ति स्वामीजी वारंग जैन मठ, उनके कथनानुसार यहाँ आने से उनकी मनोकामनाएं पोस्ट : वारंग - 574 104. तहसील : कारकल, पूर्ण होती है । जिला : दक्षिण केनरा, प्रान्त : कर्नाटक, अन्य मन्दिर * इस जल मन्दिर के अतिरिक्त फोन : 08253-59408 व 59431 पी.पी. इसके निकट में ही 2 और मन्दिर विद्यमान है । जल मन्दिर-वारंग 164 Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 06606660Ꮆ0ᎧᎧ900000000ᎧᎧᎧ ᎤᎧ ᎧᎧᎧᎾᎾᎾ ᎾᎾᎾᎾᎾ ᎤᎧᎧᎧ . श्री पार्श्वनाथ भगवान-वारंग 15 Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री कारकल तीर्थ तीर्थाधिराज * श्री नेमिनाथ भगवान, श्याम वर्ण, अर्द्ध पद्मासन की मुद्रा में - लगभग 137 सें. मी. (साढ़े चार फुट) (दि. मन्दिर) ।। तीर्थ स्थल * कारकल गाँव के निकट । प्राचीनता * विक्रम संवत् 1514 में राजा अभिनव पाण्डिय देवा ने इस मन्दिर के लिए धनराशि भेंट दी थी ऐसा उल्लेख मिलता है । इसलिए यह सिद्ध होता है कि यह तीर्थ उससे प्राचीन है । विशिष्टता * मन्दिर के सामने 1798 सें. मी. (59 फुट) ऊँचा एक 'मान स्तम्भ' है, जो एक ही पत्थर का बना हुआ है । ऐसा अन्यत्र देखना दुर्लभ है । देव मूर्तियों के निर्माण कार्य के लिए यहाँ का पत्थर मजबूत और उत्तम माना जाता है। यहाँ आज भी मूर्तिकारों की कला और उनकी बनायी मूर्तियाँ लोगों के पूजा घरों में और मन्दिरों में स्थान पाती हैं। यह यहाँ की प्रसिद्धि है । अन्य मन्दिर * गाँव के निकट पहाड़ी पर श्री बाहुबली भगवान की 41 फुट (1250 सें. मी.) ऊंची मूर्ति की प्रतिष्ठा जैन राजा श्री वीर पाण्डिय भेरे ने विक्रम संवत् 1525 दिनांक 16.2.1468 के शुभ दिन करवायी थी । उस समय, विजयनगर के जैन राजा देवराणा भी उपस्थित थे । पहाड़ी पर एक और श्री आदीश्वर भगवान का मन्दिर है, जिसमें चौमुखी प्रतिमा है । हीरे अगड़ी में 8 और मन्दिर है । कला और सौन्दर्य * यहाँ की मूर्ति कला प्रसिद्ध है । यहाँ अनेकों कलापूर्ण प्रभु प्रतिमाओं के दर्शन होते हैं । मार्ग दर्शन * नजदीक का रेल्वे स्टेशन मेंगलूर 51 कि. मी. है । कारकल गाँव से मन्दिर 12 कि. मी. की दूरी पर है । यह तीर्थ स्थल मेंगलूर-शिमोगा रोड़ पर स्थित है । मन्दिर तक पक्की सड़क है । यहाँ पर टेक्सी आटो की सुविधा उपलब्ध है । यहाँ से वारंग 22 कि. मी., उड़िपी 38 कि. मी. मूडबिद्री 17 कि. मी. दूर है । सुविधाएँ * ठहरने के लिए मन्दिर के निकट ही सर्वसुविधायुक्त धर्मशाला है । पूर्व सुचना देने पर भोजन की व्यवस्था भी हो सकती है । पेढ़ी * श्री कारकल जैन मठ, (श्री नेमिनाथ भगवान दिगम्बर जैन मन्दिर) । स्वस्ति श्री ललित कीर्ति स्वामीजी, पोस्ट : कारकल - 574 104. तहसील : कारकल, जिला : उड़िपी, प्रान्त : कर्नाटक, फोन : 08258-23977. प्रसिद्ध मानस्थंभ-कारकल 166 Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री नेमिनाथ भगवान-कारकल Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री मूडबिद्री तीर्थ तीर्थाधिराज * श्री पार्श्वनाथ भगवान, कायोत्सर्ग मुद्रा, श्याम वर्ण, लगभग 15 फुट (दि. मन्दिर) । तीर्थ स्थल * मडबिद्री ग्राम में जिसे गुरुवसदि (सिद्धांत मन्दिर) कहते हैं । प्राचीनता * प्रामाणिक इतिहास से पता चलता है कि ई. पू. 4 वीं शताब्दी में श्रुतकेवली श्री भद्रबाहु स्वामी ने मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त एवं 12000 शिष्यों के साथ दक्षिण में आकर श्रवणबेलगोला में निवास किया । तब इनमें से कई मुनियों ने तमिल, तेलुगु, कर्नाटक एवं तौलब देशों में जाकर धर्म का प्रचार किया था । उन्होंने इस मूडबिद्री में भी आकर द्वीपान्तर में व्यवसाय करते हुए श्रावकों को उपदेश देकर अनेकों जिन मन्दिर बनवाए थे । सदियों तक यहाँ जाहोजलाली रही व अनेक जैन राजाओं ने यहाँ शासन किया । कालक्रम से यह स्थल चारों तरफ पेड़ों से घिरकर घना जंगल बन गया । लगभग ई. की 8वीं शताब्दी में श्रवणबेलगोला से इधर आये हुए एक प्रकाण्ड विद्वान आचार्य महाराज ने यहाँ पर अन्योन्य स्नेह से खेलते हुए बाघ और गाय को देखा । इस अपूर्व दृश्य को देखकर मुनि श्री आश्चर्य चकित हुए व इस अतिशय स्थल में खोज प्रारम्भ की तब चारों तरफ पेड़ों से छाये घने जंगल के बीच मुनि श्री को श्री पार्श्वनाथ प्रभु की विशालकाय इस मनोज्ञ प्रतिमा के दर्शन हुए । उन्होंने उसी स्थान पर सुन्दर जिनालय का निर्माण करवाकर ई. सं. 714 में इस अपूर्व सुन्दर प्रभु प्रतिमा को प्रतिष्ठित कराया । __ इस पुण्यस्थल की खोज गुरु महाराज के द्वारा होने के कारण यह मन्दिर गुरु वसदि नाम से प्रसिद्ध हुआ। इस मन्दिर में धवल, जयधवल एवं महाधवल नाम के महानः सिद्धान्त ग्रन्थ होने के कारण इसे सिद्धान्त मन्दिर भी कहते हैं । विशिष्टता* प्रभु प्रतिमा अत्यन्त सुन्दर व अतिशयकारी है । इसके अपूर्व अतिशय का उल्लेख ऊपर प्राचीनता में हो चुका है । यहाँ पर नवरत्नों की 35 प्रतिमायें है । इन प्रतिमाओं के दर्शन को सिद्धान्त दर्शन कहते हैं । हर एक जैनी के लिए इन प्रतिमाओं का दर्शन करना महान पुण्य स्वरूप है, जो अन्यत्र असंभव है । कहा जाता है, किसी जमाने में द्वीपान्तर जाकर वाणिज्य करने में यहाँ के श्रावक विख्यात थे । देशान्तर जाते समय देव दर्शन निमित्त नव रत्नों की जिन प्रतिमाएं पास रखते थे । संभवतः ये प्रतिमाएं उन्ही के द्वारा गुरुवसदि में प्रदान की गयी होंगी । __अन्य मन्दिर * इस मन्दिर के अतिरिक्त यहाँ पर 17 और अन्य मन्दिर हैं । प्रायः सारे मन्दिर प्राचीन है । कला और सौन्दर्य * यहाँ पर मन्दिरों में विराजित प्रभु प्रतिमाओं की कला का जितना भी वर्णन करें कम है । तीर्थाधिराज श्री पार्श्वप्रभु की चमकती हुई प्रतिमा किस पाषाण से निर्मित है, उसका पता लगाना कठिन है । ऐसी चमकती हुई प्रतिमा का अन्यत्र दर्शन दुर्लभ है । यहाँ की नवरत्नों की प्रतिमाएँ विशिष्ट कलापूर्ण हैं । इसके निकट ही ई. सं. 1430 में निर्मित हजार स्तम्भोंवाला त्रिभुवन तिलक चूडामणि मन्दिर है । वहाँ पर भैरवराजा की पटरानी नागलदेवी द्वारा निर्माणित भैरादेवी मण्डप के निचले भाग में अनुपम कलापूर्ण अनेकों सुन्दर चित्र उत्कीर्ण हैं । यहाँ के मूलनायक श्री चन्द्रप्रभ भगवान की खड्गासन में पंचधातु में बनी प्रतिमा 9 फुट उन्नत है जो कि पंचधातु में निर्मित प्रतिमाओं में उच्चतम मानी जाती है । इसी मन्दिर में स्फटिक की अनेकों प्राचीन प्रतिमायें हैं। यहाँ पर चौटर वंशीय जैन राजा के जीर्ण शीर्ण राजसभा मण्डप में विशाल स्तम्भों पर खुदी हुई नवनारी कुंजर व पंचनारी तुरंग की शिल्पकला दर्शनीय है । मार्ग दर्शन * यहाँ से नजदीक का रेल्वे स्टेशन मेंगलूर 35 कि. मी. दूर है, जहाँ से बस व टेक्सी की सुविधा है । मेंगनूर-शिमोगा मार्ग में यह तीर्थ स्थित है । मन्दिर तक पक्की सड़क है । सुविधाएं * ठहरने के लिए गाँव में सुन्दर रार्मशाला व सर्वसुविधायुक्त काटेज, गेस्ट हाउस है । जहाँ पर पानी, बिजली, बर्तन की सुव्यवस्था है । पूर्व सुचना देने पर नास्ता व भोजन का प्रवन्ध भी कर दिया जाता है । पेढी * स्वस्ति श्री चारुकीर्ति स्वामीजी श्री जैन मठ, पोस्ट : मूडबिद्री-574227. जिला : दक्षिण केनरा, प्रान्त : कर्नाटक,फोन : 08258-60418 व 60318. 168 Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री पार्श्व प्रभु की अतिशयोक्त अलौकिक प्रतिमा-मूडबिद्री Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री श्रवणबेलगोला तीर्थ तीर्थाधिराज * श्री आदीश्वरप्रभु के पुत्र श्री बाहुबली भगवान, कायोत्सर्ग मुद्रा, भूरा वर्ण 17.38 मीटर (57 फीट) (दि. मन्दिर) । तीर्थ स्थल * श्रवणबेलगोला गाँव के पास तलेटी से 178.42 मीटर (585 फुट) ऊंचे पर्वत पर, जिसे विन्ध्यगिरि पर्वत कहते है । प्राचीनता * श्री गंगरस राजा के प्रधान श्री चामुण्डराय की माता विक्रम संवत् 1037 में श्री बाहुबली भगवान के दर्शन के लिए पोदनापुर जा रही श्री भरत चक्रवर्ती-चन्द्रगिरि पर्वत थीं । उन्होंने विन्ध्यगिरि पर्वत के सम्मुख स्थित चन्द्रगिरि पर्वत पर विश्राम लिया । यहीं उन्हें स्वप्न में कला और सौन्दर्य * श्री बाहुबली भगवान की अदृश्य रूप से विन्ध्यगिरि पर्वत पर, श्री बाहुबली इतनी प्राचीन मूर्ति होते हुए भी ऐसा लगता है जैसे भगवान की मूर्ति स्थापित करने की प्रेरणा मिली । अभी-अभी बनकर तैयार हुई हो । इस भव्य प्रतिमा तुरन्त ही प्रधान ने निर्णय लेकर उत्साह-पूर्वक अपनी का सौम्य, शान्त, गंभीर रूप बरबस मन को भक्तिभाव अमूल्य धन राशि का सदुपयोग कर इस तीर्थ की की ओर खींच लेता है । कला की दृष्टि से भारतीय स्थापना की जिसे हजार वर्ष से ज्यादा हुवे है । शिल्प कला का एक सर्वोत्कृष्ठ उदाहरण हैं । मन्दिर के निकट का दृश्य अत्यन्त मनोहर है । विन्ध्यगिरि व विशिष्टता * यहाँ महामस्तकाभिषेक पूजा बारह । चन्द्रगिरि पर्वतों के बीच विशाल जलकुण्ड की अपनी वर्षों में एक बार होती है । इस अवसर पर सारे भारत से लाखों यात्री यहाँ आते हैं । विमान द्वारा पुष्पवृष्टि मार्ग दर्शन * श्रवणबेलगोला के नजदीक के रेल्वे की जाती है । कुछ वर्षों पूर्व तक मैसूर महाराजा के स्टेशन में अरसीकरे 64 कि. मी., हासन 51 कि. मी. हाथों प्रथम पूजा होती थी । लगभग दो हजार वर्ष पूर्व और मन्दगिरि 16 कि. मी. की दूरी पर है । निकट उत्तर भारत में बारह वर्षीय अकाल पड़ा । तब आचार्य का गाँव चन्नरायपट्टणम लगभग 13 कि. मी. दूर है । भद्रबाहु स्वामी अनेक मुनियों के साथ आकर इन स्थानों से बस व टेक्सी की व्यवस्था है । बेंगलोर विन्ध्यगिरि के सम्मुख पर्वत पर ठहरे थे । उनके साथ । से बस द्वारा करीब 150 कि. मी. तथा मैसूर से 80 सम्राट चन्द्रगुप्त भी थे । सम्राट तपस्या करते हुए यहीं कि. मी. दूर है । तलहटी तक पक्की सड़क है। इसी पर स्वर्ग सिधारे, इसलिए इस पर्वत का नाम चन्द्रगिरि पहाड़ के पत्थर को काटकर, सुन्दर सीढ़ियाँ बनवायी पड़ा, ऐसी किंवदन्ति है । गयी है । तलहटी से ऊपर मन्दिर तक लगभग 650 __ अन्य मन्दिर * विन्ध्यगिरि पर्वत पर सात मन्दिर सादर सीढ़ियाँ है । तलहटी गाँव के निकट ही है । हैं । सामने चन्द्रगिरि पर्वत पर चौदह मन्दिर हैं, जिनमें सुविधाएँ * ठहरने के लिए तलहटी में धर्मशाला, श्री आदीश्वर भगवान का मन्दिर सबसे पुरातन हैं, यहाँ अतिथीगृह व हाल हैं, जहाँ पर पानी, बिजली, बर्तन, भद्रवाहु स्वामी की चरणपादुकाएँ हैं । चन्द्रगिरि पर्वत ओढ़ने-बिछाने के वस्त्र व भोजनशाला की भी सुविधाएँ पर स्थित जमीन में आधी गढी मूर्ति को श्री आदीश्वर उपलब्ध हैं । भगवान के पुत्र भरत चक्रवर्ती का बताया जाता है । पेढ़ी * एस. डी. जे. एम. ऐ. मेनेजिंग कमेटी, श्रवणबेलगोला गांव में सात मन्दिरों में से एक मन्दिर श्री श्रवणबेलगोला तीर्थ । में 'जैन मठ' स्थापित हैं । श्रीचारुकीर्ति स्वामीजी पोस्ट : श्रवणबेलगोला - 573 135. जिला : हासन, भट्टाचार्य यहाँ विराजते हैं तथा नवरत्नों की सत्रह प्रान्त : कर्नाटक, फोन : 08176-57226, 57235, प्रतिमाओं का दिव्य दर्शन कराया जाता है । 57258 व 57224. 170 Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री बाहुबली भगवान-श्रवणबेलगोला 171 Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री धर्मस्थल तीर्थ तीर्थाधिराज * श्री चन्द्रप्रभ भगवान, पद्मासनस्थ, लाल वर्ण, लगभग 36 सें. मी. (14 इंच) (दि.मन्दिर)। तीर्थ स्थल * धर्मस्थल गाँव के पास छोटी टेकरी पर, जिसे चन्द्रनाथ स्वामी बसदी कहते हैं । प्राचीनता * इसका प्राचीन नाम 'कडमा' था । कन्नड़ भाषा में कुडुमा का अर्थ 'धर्म का स्थल' है। कहा जाता है कि यह मन्दिर लगभग एक हजार वर्ष से भी अधिक प्राचीन है । दानी जैन परिवार के श्री बिरमना हेगड़े और उनकी पत्नी अमूदेवी बालालती के पूर्वजों ने इस मन्दिर का निर्माण करवाया था । हेगड़े परिवार के सदस्य निःस्वार्थ भाव से आज भी इस तीर्थ की देख-रेख करते हैं । वर्तमान धर्माधिकारी श्री वीरेन्द्र हेगड़े हैं । विशिष्टता * यहाँ जैन एवं जैनेतर हजारों व्यक्तियों को भोजन एवं ठहरने की सुविधा निःशुल्क दी जाती हैं, जो अत्यन्त प्रशंसनीय है । हर वक्त मेला सा लगा रहता है । हेगड़े परिवार के द्वारा स्थापित धर्मस्थल संस्था अनेक कोलेजों, स्कूलों, अस्पतालों एवं धर्मशालाओं हर वर्ष पाँच सौ से भी अधिक सामूहिक विवाह, यहाँ इस संस्था के प्रबन्ध से होते हैं । प्रति वर्ष कार्तिक महीने में श्री मंजुनाथ स्वामी के लक्षदीपोत्सव के शुभ अवसर पर सर्वधर्म और साहित्य सम्मेलन होते हैं । अन्य मन्दिर * इसके अतिरिक्त हेगड़े भवन में दो जिन मन्दिर हैं । गाँव के निकट की एक पहाड़ी पर श्री बाहुबली भगवान का मन्दिर है । एक मंजुनाथ स्वामी (शिव) देवालय भी हैं । कला और सौन्दर्य * प्राकृतिक सौन्दर्य के लिए धर्मस्थल प्रसिद्ध है । मन्दिर की शिल्पकला और सौन्दर्य दर्शनीय है । मार्ग दर्शन * दक्षिण कन्नड़ जिले में बेलतंगाड़ी तालुका में मेंगलूर से 65 कि. मी. व चारमाड़ी से उजीरे होते हुए मूडगिरि-मेंगलूर मार्ग में लगभग 40 कि. मी. है । सुविधाएँ * नेत्रावती और वैशाली धर्मशालाएँ है, जहाँ यात्रियों को ठहराया जाता है। ऐसी सर्वसधिायक्त स्वच्छ एवं सुन्दर धर्मशालाएँ बहुत ही कम है । गाँव में और भी अनेकों धर्मशालाएँ हैं, जहाँ पर भोजनशाला की भी सुन्दर व्यवस्था है । पेढ़ी * श्री धर्मस्थल संस्था, डॉ. श्री वीरेन्द्र हेगड़े, धर्माधिकारी पोस्ट : धर्मस्थल - 574 216. जिला : दक्षिण केनरा, प्रान्त : कर्नाटक, फोन : 08256-77121, 77141 व 77144. मंजुनाथ स्वामी) हैं । पुजारी वैष्णव संप्रदाय के हैं । धर्माधिकारी जैन संप्रदाय के हैं । भक्त लोग विविध मत । धर्म के हैं । यह एक सर्वधर्म समन्वय का केन्द्र है । । श्री चन्द्रप्रभु मन्दिर (दि.)-धर्मस्थल 172 Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री चन्द्रप्रभ भगवान-धर्मस्थल Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हेमकूट, चक्रकूट, रत्नकूट, हम्पी आदि प्राचीन काल श्री हेमकूट-रत्नकूट तीर्थ से तीर्थ क्षेत्र रहे हैं । आज भी हेमकूट, चक्रकूट व रत्नकूट के मन्दिर व भग्नावशेष पुरातत्व विभाग के तीथोधिराज * श्री अमीझरण चन्द्रप्रभ भगवान आधीन है । (श्वे. मन्दिर) । यहाँ पर अनेकों गुफाएं भी हैं, जो पूर्व काल में तीर्थ स्थल * होसपेट से लगभग 12 कि. मी.दूर अनेकों मुनि भगवन्तों की तपोभूमी रही होगी । हेमकूट के पूर्व दिशा में रत्नकूट की पहाड़ी पर । वर्तमान में योगिराज गुरुदेव भगवंत श्री प्राचीनता * इस क्षेत्र की प्राचीनता का इतिहास सहजानन्दधनजी म.सा. यहीं की गुफा में अन्तिम श्री मुनिसुव्रतस्वामी भगवान के समकालीन माना साधना व ध्यानावस्था में रहते हुवे दिव्य लोक सिधारे जाता है । थे। गुरुदेव ने राजस्थान के जालोर जिले में मोकलसर ___कहा जाता है कि प्रभु के परम भक्त विद्याधरों में पहाड़ पर भी गुफाओं में कई वर्षों तक साधना की थी । विद्यासिद्ध राजा बाली-सुग्रीव की राजधानी किष्किन्धा नगरी यहीं थी । परन्तु उस काल का पूर्ण विवरण प्रभु प्रतिमा अति चमत्कारिक है । यहाँ पर कई मिलना कठिन है व न उस समय के मन्दिरों आदि का प्रकार की चमत्कारिक घटनाएँ घटने व अभी भी घटते कोई पता भी । रहने का उल्लेख है । प्रभु प्रतिमा पर भी अनेकों बार ___ वि. सं. 1336 में यहाँ विजयनगर के निर्माण अमी झरती है, इसलिये भक्तगण प्रभु को अमीझरा प्रारंभ होने का उल्लेख है । परन्तु उसके पूर्व भी यहाँ चन्द्रप्रभ भगवान कहते है । हेमकूट व चक्रकूट, नाम के दो प्रसिद्ध प्राचीन जैन कहा जाता है जब योगीराज श्रीमद तीर्थ स्थलों के होने का उल्लेख आता है । सहजानन्दधनजी म.सा. गुफा में ध्यानास्थ रहते थे तब आज भी सैकड़ों मन्दिरों, कोट-किलों आदि के एक सर्प प्रायः आता रहता था, जिसे मणिधारी सर्प ध्वंसावशेष यहाँ की पहाड़ियों व समतल के विस्तार में कहते थे । गुफा में कई बार दिव्य सुगन्ध भी महसूस होती थी, परन्तु कहाँ से आती थी उसका पत्ता नहीं लग बिखरे हुवे नजर आते हैं, जो पूर्वकाल की गौरवगरिमा । सका। कहा जाता है सब देव लीला का ही कारण था । की याद दिलाते हैं । श्वे. व दि. द्वारा मान्य “सदभकत्या" नाम की योगिराज ने श्री महावीर जैन कल्याण संघ द्वारा प्राचीन “तीर्थ माला" में भी इस तीर्थ का वर्णन है । संचालित गुरु श्री शांतिविजय जैन विद्यालय के नामकरण उद्घाटन हेतु भी मद्रास में पदापर्ण करके अपने वर्तमान में हेमकूट के पूर्व में सड़क किनारे रत्नकूट आर्शीवचन से कृतार्थ किया था । नाम के छोटे पर्वत पर स्थित श्रीमद् राजचन्द्र आश्रम की विशाल जगह पर एक गुफा में यही एक मात्र आज उनका कोई भी दिक्षित शिष्य न होने पर भी पूजित जिन मन्दिर विद्यमान है, जिसकी स्थापना उनके अनुयायी भक्तगण भारत में जगह-जगह पर हैं। वि. सं. 2017 में योगिराज श्रीमद् सहजानन्दधनजी अन्य मन्दिर * वर्तमान में अन्य कोई जैन मन्दिर म.सा. (जिन्हें भद्रमुनिजी भी कहते थे) के सुहस्ते हुई यहाँ नहीं हैं परन्तु प्राचीन जैन मन्दिरों के भग्नावशेष थी। इस गुफा मन्दिर को भव्यता देने की योजना आज भी जगह-जगह विद्यमान हैं । इनके अतिरिक्त विचाराधीन है । एक दादावाड़ी, एक गुरु मन्दिर, एक माताजी का __ यह स्थान पूर्व काल से हम्पी के नाम से भी मन्दिर हैं । विख्यात है । कला और सौन्दर्य * यहाँ पर प्राचीन जिन मन्दिरों विशिष्टता * यह पावन क्षेत्र भगवान श्री । के कलात्मक भग्नावशेष विस्तार भूमि में नजर आते हैं । मुनिसुव्रतस्वामी के समकालीन माने जाने के कारण व यह क्षेत्र विद्याधरों में विद्यासिद्ध राजा बाली-सुग्रीव की यहाँ की पहाड़ी का वातावरण बहुत शांत है, दिव्य राजधानी किष्किन्धानगरी रहने की मान्यता के कारण लोकसा प्रतीत होता है, जिससे आत्म शांती की मुख्य विशेषता का है । अनुभुति होती है । 174 Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wwwwww श्री अमीझरण चन्द्रप्रभ भगवान हेमकूट- रत्नकूट मार्ग दर्शन यहाँ के नजदीक का रेल्वे स्टेशन होसपेट 12 कि. मी. दूर है जहाँ से आटो व टेक्सी का साधन है । मन्दिर तक कार व बस जा सकती है। यहाँ का हम्पी बस स्टेण्ड लगभग एक कि. मी. है जहाँ से आटो का साधन है । सुविधाएँ * वर्तमान में ठहरने के लिये कमरे बने हुवे हैं जहाँ भोजनशाला की भी सुविधा है । पेढ़ी * श्रीमद् राजचंद्र आश्रम, श्री हम्पी पोस्ट : हम्पी 583 239 जिला : बेल्लारी, प्रान्त : कर्नाटक, फोन : 08394-41252. - 175 Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तमिलनाडु 180 1. जिनगिरि 178 2. विजयमंगलम 3. पोन्नूरमलै 182 4. मुनिगिरि 5. तिरुमलै 6. जिनकांची 7. मनारगुड़ी 190 8. पुड़ल (केशरवाड़ी) 192 184 186 188 HALALENTERTAINMULAL केरला 1. कलिकुण्ड 2. पालुकुन्नू 196 199 100 KERALA AJAIN PILGRIM CENTRES Ouapa ovaya Mahe Nadapuram Kuttyadi Panamaram Kaniyambetta Paleri° WAYANAD Tariyod KALPETTIALA 16 Sultan Chundele Kottappadi Mennanyam Vayitting Kallanod KOZHIKODE Puduppadi Meppadi sayyon elakkadi Thamarassery (Kedatur) Pandalayini a Naduvannur QULANDI williyeri oBalu Chemancheri Elattur Pannur Pucha Chaliyar Talekkod West Hill Kunnamangalam TKappodph M avro KOZHIKODE Kallaiolo Vazhakkad Nilambus ON Ot o Kiluparamba Vadapur Aska O Edavanna 176 Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TAMIL NADU AJAIN PILGRIM CENTRES Neyveli ovadalur ANDHRA PRADESH Veller Tittagudy Thor VELLORE KANCHIPURAM Srimushnam CUDDALOR SOKurinjipadi Veppur Puduchch Mangalam Karunguli Vriddhachalam Parang Karmapuram Settiya Bhuvanagiri Wellin Thopeo Keerappalayamo Bien 70 Palaiyamkottai Chidambaram! Viranim Andimadamo En Komarakshi, Anaikkaran m Veppler MBALUR Kallattur "L. Kolidam NAG Mannargudi Sirkazhi Mang Sendurai Ponparappi o Meenjsurutti Jayamkondacholapuram Manamedu. Vaithisva Udalyarpalaiyam GangaikondaKallakurichi cholapuram Tiruvengady cerita para pudi KARNATAKA Tiraraiyur 0 9 dikkaran PONDICHERRY SALEM Thir Iruvennad TIRUCHIRAPALLI THANIAVUR PUDUKKOTTAI BAY OF BENGAL anjcheri Sugar Poondi Puzhal Lake Red Tiruvottri TIRUVALLURQ_205 Thirumullaivoval som Hille O Avadro Sembiyantu firuvalangadu Tondial Kadambattur Ambathur o Thiruverkadu CHENN Kolam Kizhcheri Poonamallee Saidapet -Mangad St. Thomas Mount 29 Guindy Kunnathuro... a Tiruvanmiy Pallavaram Sriperumbudur Tiruneermalai TIRUNELVELI JAIN PILGRIM CENTRES STATE CAPITAL DISTRICT HEADQUARTERS DISTRICT BOUNDARIES INDIAN OCEAN Ronai Pallipalaiyar 0 Rennaiseen am Iraiyur Panrutin Tiyagai Tirunamanallurolo Purgam Elavanasur Thiruvamur 0 Ulundurpettai Kadampuliyur asur Puliyampatti Kolappalur Chitlodu mugai 209 Nambiyur Siruvalur *ERODE laiyam Sevur KunnatturPerundurai Permanallur Vijayapur 2 Modakkurichi EROD E Elumathur vilpalaiyam Uthukuzhi Avinashi Malayampalaiyamd Chennimalai arumattampatti Arachakur Somanud Nathakadayur Tiruppur Asanur Manik Kulla Novit Palu OVELLORE Ovaj Visharam Arcot O Nagavedu BU Katpadi Tiruvallam Walaja Ammur Nemili Road nchipuram Ranipetta Walajapet Panapakkam Kaveripakkam ir Anaikattu 6 Vedal ELLORE 5 Vilapakkam Palar Musarayakkam KANCHIPURAM Kanniyambadio Kavanur Thimiri W Athur Vallam Vembakkam Kalavai Kannamangalam Mamandur Mag Arani Thiruvathur hindapparai Pushpagiri Mambakkam attiyur Arani Road Aliyabad Vio Vakkadai. Anakkavut Uttiramerur Vedantar RUVANNAMALAI Peranamallur Virambakkam Vandavasi Kodungalur Siruvallur 21 Marutada Cheyyar Polur cheyy Devikapuram Malaiyur, O 177 Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जिनगिरि तीर्थ तीर्थाधिराज * श्री पार्श्वनाथ भगवान, खड्गासन मुद्रा में (दि. मन्दिर ) । तीर्थ स्थल * तिरुनरुकोण्डै गाँव के पास एक पहाड़ी पर । प्राचीनता * यहाँ प्राचीन गुफाएँ हैं, जिनमें शय्याएँ बनी हुई हैं । पुरातत्त्ववेत्ताओं के अनुसार ये शय्याएँ तीसरी से पाँचवी शताब्दी तक की है । ये गुफाएँ जैन मुनियों के आवास-स्थान व तपस्या के लिये बनी प्रतीत होती है । पश्चात् विभिन्न नरेशों द्वारा यहाँ जैन मन्दिरों का निर्माण किये जाने का उल्लेख है । शास्त्रों में इस क्षेत्र के प्राचीन नाम जिनगिरि, उच्चन्दवालमलै, वडपालि, वडतिरुमलै, तिरुमेट्रिसै, नापत्तिरन्डु-पेरुमपल्लि आदि बताये गयें हैं । ई. की नवमीं शताब्दी से सोलहवीं शताब्दी तक के अभिलेख अभी भी यहाँ उपलब्ध हैं । इस क्षेत्र की अभिवृद्धि में राजराजचोल प्रथम, राजेन्द्रचोल प्रथम, कुलोत्तुंगचोल प्रथम, पाण्डिय व विजयनगर नरेशों के वंशजों द्वारा भाग लेने का उल्लेख शिलालेखों में मिलता है । चोल नरेश की बहिन 178 राजकुमारी कुन्दवै ने इसके समीप एक जलाशय का निर्माण कराया था । जो आज भी कुन्दवै जलाशय के नाम से प्रचलित है । पार्श्वनाथ भगवान को वर्तमान में स्थानीय लोग अप्पाण्ड - नादर के नाम से पुकराते हैं । विशिष्टता * यह अनेक मुनियों की तपोभूमि होने के कारण यहाँ की महान विशिष्टता है । जहाँ पहाड़ चढ़ने के लिए सीढ़ियाँ प्रारम्भ होती हैं वहाँ एक चबूतरे पर श्री क्षेत्रपाल की मूर्ति विराजमान है । भक्तगण पहाड़ पर चढ़ने के पूर्व क्षेत्रपाल की पूजा करके बाद में सीढ़ियाँ चढ़ते हैं । यह पद्धति प्राचीन काल से चली आ रही है । इस क्षेत्र की उन्नति में यहाँ के विभिन्न जैन राजाओं ने भाग लिया है । अनेक मुनि संघों का यहाँ आवास रहा है । नंदि संघ के महागुरु श्री वीरनन्दि आचार्य के संघ का यहाँ आवास था । मुनियों को यहाँ से अन्यान्य प्रदेशों में धर्म प्रचारार्थ भेजा जाता था । कन्याकुमारी जिले के तिरुनन्दिक्करै स्थान पर यहाँ के संघस्थ मुनि पुंगव के उपदेश से जिनालय का निर्माण हुआ था । तिरुचारण पर्वत पर जैन विश्व विद्यालय की स्थापना करके जैन शिक्षा का प्रचार करने के लिए जिन मुनियोंकी अमूल्य सेवा का उल्लेख आता है, उन मुनियों का आगमन यहाँ पर स्थित वीर संघ से ही हुआ था । श्री पार्श्वनाथ मन्दिर, - जिनगिरि Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चूलामणि निगण्डु नामक तमिल ग्रन्थ के रचयिता वीर मण्डलपुरुष के गुरु श्री गुणभद्राचार्य ने यहीं पर संघ की स्थापना की थी व यह संघ तमिलनाडु में धर्म-प्रचार के लिए यत्र-तत्र भ्रमण करने में अनुबद्ध था । उन्हें वीरसंघ प्रतिष्ठाचार्य की उपाधि से अलंकृत किया गया था । उपरोक्त वर्णन यहाँ पर स्थित सोलहवीं सदी के शिलालेख में उल्लिखित हैं । प्रति वर्ष वैशाख शुक्ला दशमी से पूर्णिमा तक मेला लगता है । उस अवसर पर अन्यान्य भागों के जैन-जैनेतर भाग लेते हैं । यह अतिशय क्षेत्र भी माना जाता है । यहाँ आने पर उनकी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं-ऐसा भक्त-जनों द्वारा अभिहित किया जाता है । लगभग 10 वर्षों पूर्व कुछ जीर्णोद्धार का कार्य हुवा है । अन्य मन्दिर * वर्तमान में इसके अतिरिक्त और कोई मन्दिर नहीं है । कला और सौन्दर्य * इस त्रिशिखरीय मन्दिर का दृश्य चार मील की दूरी से भी अत्यन्त शोभायमान लगता है । ये तीनों शिखर चोल राजवंशीय कला के नमूने, आदर्श व अत्युत्तम प्रतीक के रूप में स्थित हैं। इसी मन्दिर में श्री चन्द्रप्रभ भगवान की प्रतिमा भी अत्यन्त प्रभावशाली है । शिखरों पर मण्डित अनेक देव-दिव्यांगनाओं के मूर्तियों की कला आकर्षक है । ___ मार्ग दर्शन * यहाँ से नजदीक का रेल्वे स्टेशन उलन्दूरपेट, मद्रास-तिरूच्चि रेल व सड़क मार्ग पर स्थित है । जहाँ से इस क्षेत्र की दूरी लगभग 16 कि. मी. है । उलुन्दूरपेट से तिरूवेण्णैनल्लूर मार्ग पर पिल्लैयार कुप्पम गाँव से लगभग 5 कि. मी. है । उलुन्दूरपेट में बस व टेक्सी की सुविधा है । चेन्नई से इस तीर्थ की दूरी लगभग 200 कि. मी. है । छोटी सी पहाड़ी चढ़ने के लिए पगथिये बने हुए है । सुविधाएँ * ठहरने के लिए तलहटी में धर्मशाला हैं, जहाँ पर पानी, बिजली की सुविधा हैं । पेढ़ी * श्री पार्श्वनाथ भगवान दिगम्बर जैन मन्दिर, श्री जिनगिरि तीर्थ, पोस्ट : तिरुनरुंकोण्डै -606 102. तालुका : उलुन्दूरपेट, व्हाया : कलमरुतुर, जिला : साउथ आरकाट, प्रान्त : तमिलनाडु, श्री पार्श्वनाथ भगवान-जिनगिरि 179 Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री विजयमंगलम तीर्थ तीर्थाधिराज * श्री चन्द्रप्रभ भगवान, श्याम वर्ण, अर्द्ध, पद्मासनस्थ, लगभग 30 सें. मी. (दि. मन्दिर)। तीर्थ स्थल * विजयमंगलम गाँव के उत्तरी भाग के वस्तिपुरम (मोटैकोपुरम) में विशाल परकोटे के बीच । प्राचीनता * छठी सदी में यह प्रदेश कोंगुनाडु के चौबीसी नगरों में मुख्य नगर था । कोंगुनाडु की राजधानी यहीं पर थी । यहाँ के राजा कोंगुवेलिर थे, जिन्होंने इस विशाल व कलात्मक मन्दिर का निर्माण करवाया था - ऐसा उल्लेख है । यह करुम्बुनाडु नाम से भी प्रचलित था । प्राचीन काल में यह मन्दिर वीरसंघातपेरुंपल्लि नाम से प्रचलित था-ऐसा उल्लेख है। आज मन्दिर का कार्यभार पुरातत्व-विभाग की देख-रेख में है । लेकिन जैन विधि पूर्वक आज भी पूजा होती है । मन्दिर के जीर्णोद्धार की अतीव आवश्यकता है । विशिष्टता * ई. की छठी शताब्दी में तमिल कोविदों का यहाँ संघ था । उन पाँच कौविदों की मूर्तियाँ भी यहाँ पर स्थित हैं । पेरुंकदै नामक प्राचीन तमिल प्रमुख ग्रन्थ की रचना यहीं पर हुई थी । ___कोंगुनाडु के राजा श्री कोंगुवेलिर ने इस मन्दिर का निर्माण करवाया था, जो आज भी उनके धर्मभावना की याद दिलाता है । वर्तमान में स्थानीय लोग इसे अमनेश्वर मन्दिर कहते हैं । अन्य मन्दिर * वर्तमान में इसके अतिरिक्त और कोई मन्दिर नहीं है । लगभग 13 कि. मी. दूर चितांपुरम में एक मन्दिर व सिंगलूर में एक मन्दिर है। ___ कला और सौन्दर्य * मन्दिर की निर्माण कला अति सुन्दर हैं । द्वार के ऊपर का उत्तुंग शिखर दूर से श्री चन्द्रप्रभु जिनालय-विजयमंगलम 180 Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ही यहाँ के गौरव-गाथा की याद दिलाता नजर आता है । मन्दिर के स्तम्भों, छत्तों में भगवान के पंचकल्याणक वैभव व चौबीस तीर्थंकर भगवानों की मूर्तियाँ अंकित हैं । इसी मन्दिर में श्री आदिनाथ भगवान की व भगवती अम्बिका देवी की कलात्मक प्राचीन प्रतिमाएँ अति ही दर्शनीय हैं । मार्ग दर्शन * विजयमंगलम रेल्वे स्टेशन यहाँ से लगभग 5 कि. मी. दूर है । यह स्थल ईरोड़ तिरूपूर सड़क मार्ग पर ईरोड़ से 25 कि. मी. दूर है । विजयमंगलम बस स्टेण्ड से सिर्फ एक कि. मी. दूर वस्तीपुरम (मोटैकोपुरम) में है । आखिर तक बस व कार जा सकती है । सुविधाएँ * वर्तमान में यहाँ ठहरने आदि की खास सुविधा नहीं है । पूर्व सुचना पर सुविधा हो सकती है । परन्तु ईरोड़ या कोयम्बतूर में ठहरकर यहाँ आना ज्यादा सुविधाजनक रहेगा । श्री चन्द्रप्रभु भगवान-विजयमंगलम पेढ़ी * श्री चन्द्रप्रभु दिगम्बर जैन मन्दिर, बस्तीपुरम, (मोटैकोपुरम) । पोस्ट : विजयमंगलम - 638056. तालुका : पेरन्दुरै, जिला : ईरोड़, प्रान्त : तमिलनाडु, फोन : पी.पी. 04294-42970. भगवती श्री अम्बिकाद देवी-विजयमंगलम 181 Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री महावीर भगवान -पोनूरमलै श्री पोन्नूरमलै तीर्थ तीर्थाधिराज * श्री महावीर भगवान, पद्मासनस्थ, श्वेत वर्ण, लगभग 75 सें. मी. (दि. मन्दिर ) । तीर्थ स्थल * वन्दवासी चेतपेट मार्ग में स्थित पोनूरमलै की तलेटी में । प्राचीनता * इस तीर्थ की प्राचीनता ई. प्रथम शताब्दी के प्रारम्भ से होने का उल्लेख मिलता है । उस समय प्रसिद्ध आचार्य कल्प श्री कुन्दकुन्द आचार्य जैसे 182 प्रकाण्ड विद्वान आचार्य ने इसे अपनी तपोभूमि बनाया, तो हो सकता है कि उसके पूर्व भी यहाँ कई मुनियों ने निवास किया हो । वर्तमान में यहाँ पोन्नूरमलै की तलेटी में यही एक मन्दिर है व पहाड़ पर श्री कुन्दकुन्दाचार्य के चरण चिन्ह स्थापित हैं । विशिष्टता * दिगम्बर मान्यतानुसार श्रुतधर आचार्य की परम्परा में श्री कुन्दकुन्दाचार्य का नाम महत्वपूर्ण है । इनकी गणना ऐसे युग संस्थापक आचार्यों के रूप में की गई जिससे भविष्य में आनेवाली परम्परा कुन्दकुन्द आम्नाय के नाम से प्रसिद्ध हुई । किसी भी मंगलमय कार्य को प्रारम्भ करते समय इनका स्मरण किया जाता है । मंगल स्तवन का प्रसिद्ध श्लोक इस प्रकार है : मंगलम् भगवान वीरो, मंगलम् गौतमो गणी । मंगलम् कुन्दकुन्दार्यों, जैनधर्मोस्तु मंगलम् ।। इस प्रकार आचार्य भगवन्त श्री कुन्दकुन्दाचार्य की यह तपोभूमि होने के कारण यहाँ की महान विशेषता है । ये द्राविड़ संघ के एक महान मुनिपुंगव थे । शास्त्रों में इनका नाम ऐलाचार्य भी बताया है । इनका जन्म आन्ध्र प्रदेश के गुण्टकल नगर के निकटस्थ कोण्डकोण्डा नामक गाँव में हुआ था । भगवन्त ने इस भूमि को अपनी तपोभूमि बना कर यहाँ का ही नहीं अपितु तमिलनाडु का भी गौरव बढ़ाया है । यह भी कहा जाता है कि तमिल साहित्य के जन प्रचलित प्रमुख "तिरुक्कुरल ग्रन्थ की रचना भी इन्होंने ही की थी । ऐसे प्रतिभाशाली, अध्यात्मिक आचार्य भगवन्त ने इसे अपनी तपोभूमि बनाकर यहाँ के वायुमण्डल को पवित्र बनाने के साथ-साथ यहाँ के कण-कण को पूजनीय बनाया है । शास्त्रों में इनके अन्य नाम वक्रग्रीव, ऐलाचार्य, गृद्धपिच्छ, पद्मानन्दी भी बताये जाते हैं । शास्त्रों में इस प्रदेश को मलयप्रदेश, पर्वत को नीलगिरि व पोन्नूर गाँव को हेमग्राम नाम से संबोधित किया है । वर्तमान में पूर्वतटीय पर्वतमालाओं से वेष्ठित दक्षिण आर्काडु और उत्तर आर्काडु जिले के विशालतम भूभाग को मलयप्रदेश, नीलगिरि पर्वत को पोन्नूरमलै व हेमग्राम को पोन्नूर गाँव बताया जाता है। आचार्य Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवन्त के प्राचीन चरण चिन्ह आज भी पर्वत पर मौजूद है । प्रतिवर्ष पोष शुक्ला दशमी को मेला लगता है । अन्य मन्दिर * वर्तमान में इस मन्दिर के अतिरिक्त 4 और मन्दिर व पोन्नूरमलै पर श्री कुन्दकुन्दाचार्य के चरण चिन्ह दर्शनीय हैं । ___ कला और सौन्दर्य * पहाड़ पर के प्राकृतिक, सुन्दर व शान्त वातावरण से मन मुग्ध हो जाता है । यहाँ के शुद्ध व निर्मल परमाणुओं से आत्मा को परम शान्ति का अनुभव होता है । मार्ग दर्शन * यहाँ के नजदीक का रेल्वे स्टेशन दिण्डिवनम 40 कि. मी. है, जहाँ से बस और टेक्सी की सुविधा है । चेन्नई सिटी से लगभग 130 कि. मी. व वन्दवासी से चेतपेट रास्ते 10 कि. मी. है । वन्दवासी से भी टेक्सी व बस की सुविधा है । तलहटी तक कार व बस जा सकती है । तलहटी से पहाड़ तक 330 पगथिये हैं । पोन्नूर गाँव से यह स्थान 3 कि. मी. है । चेन्नई से यहाँ सीधी बस सेवा उपलब्ध है । सुविधाएँ * पोन्नूरमलै की तलेटी में ठहरने के लिए धर्मशाला व गेस्ट हाऊस हैं, जहाँ पानी, बिजली व भोजनशाला की सुविधा है । पहाड़ पर जाने हेतु डोली की भी सुविधा है । पेढ़ी * आचार्य कुन्दकुन्द जैन संस्कृति सेन्टर, पोन्नूरमलै, कुन्दकुन्दनगर । श्री कुन्दकुन्दाचार्य चरण चिन्ह-पोन्नूरमले पोस्ट : वडवणक्कम वाडी - 604505. तहसील : वन्दवासी, जिला : उत्तर आरकाट, प्रान्त : तमिलनाडु, फोन : 04183-25033. கலைநமகக்கதக்காதிருவடி AntarnaPINNUMIDEO நிலை ஆசாரியர் தந்த தந்தர் திருவடி पावन तीर्थ क्षेत्र-पोन्नूरमलै 183 Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वारा भी इस मन्दिर के लिए जमीन आदि भेंट देने का उल्लेख है । ई. तेरहवीं सदी तक यहाँ खूब जाहोजलाली रही, ऐसा उल्लेख है । विशिष्टता * यह अनेकों मुनियों की तपोभूमि होने के कारण शास्त्रों में इसका नाम मुनिगिरि उल्लिखित है । पश्चात् करन्दे पड़ा । ___ अनेकों मुनियों की तपोभूमि होने के कारण यहाँ की महान विशेषता है । छठी शताब्दी में हुए आचार्य श्री अकलंक मुनि की यह विहार भूमि है । कहा जाता है कि आचार्य श्री अकलंक मुनि ने यहाँ से 6.5 कि. मी. दूर स्थित अरवलतांगी गाँव में बौद्ध मुनियों के साथ शास्त्रार्थ करके विजय पाई थी । एक और उल्लेखानुसार इसी मन्दिर में शास्त्रार्थ हुआ बताया जाता है । याद स्वरूप आचार्य श्री की मूर्ति इस मन्दिर के अहाते के अन्तर्गत श्री अम्बिका देवी के मन्दिर के मण्डप में अंकित है । प्रतिवर्ष फाल्गुन शुक्ला सप्तमी से चतुर्दशी तक मेला लगता है । वार्षिक मेले के उपरान्त तीन दिन तेप्पोत्सव होता है । उस समय तालाब में तेलके बड़े-बड़े खाली पीपों को जोड़कर बाँध देते हैं । उनपर तख्ते बिछाकर उसके ऊपर रथ के समान मचान बाँध कर उसको सज-धज के साथ अलंकृत करते हैं। उसके अन्दर धरणेन्द्र-पद्मावती को विराजमान कर बाजों-गाजों के साथ तालाब की परिक्रमा देते है । यहाँ का तोप्पोत्सव देखने योग्य है । श्री कुंथुनाथ भगवान-मुनिगिरि श्री मुनिगिरि तीर्थ तीर्थाधिराज * श्री कुंथुनाथ भगवान, अर्द्ध पद्मासनस्थ (दि. मन्दिर) । तीर्थ स्थल * तालाब के किनारे बसे करन्दे गाँव में । प्राचीनता * ई. की तीसरी शताब्दी से यह जैन मुनियों की तपोभूमि रहने का उल्लेख मिलता है । राजराज चोल, राजेन्द्र चोल आदि चोल राजवंश के शासकों द्वारा इस मन्दिर के लिए अनेकों भेंट दिये जाने का उल्लेख है । विजयनगर साम्राज्य के शासकों में श्री कृष्णादेवराय व रामदेव महाराय आदि नरेशों श्री कुंथुनाथ जिनालय-मुनिगिरि 184 Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1000 श्री अम्बिका देवी-मुनिगिरि अन्य मन्दिर * वर्तमान में इसी मन्दिर के अहाते में श्री महावीर भगवान, पार्श्वनाथ भगवान, आदिनाथ भगवान व श्री अम्बिका देवी के मन्दिर हैं । तालाब के दूसरी तरफ स्थित तिरुप्पणमूर गाँव में भी एक मन्दिर है । उस मन्दिर में श्री धर्मसागर ग्रन्थागार है जिसमें विभिन्न भाषाओं में लिखित हजारों ग्रन्थ सुरक्षित है । ताड़पत्रों पर लिखे अनेकों ग्रन्थ भी उपलब्ध हैं । __ कला और सौन्दर्य * यहाँ प्रभु-प्रतिमाओं की कला विशिष्ट आकर्षक है । श्री कुंथुनाथ भगवान की ऐसी कलात्मक प्रतिमा के दर्शन अन्यत्र दुर्लभ हैं । मार्ग दर्शन * नजदीक का रेल्वे स्टेशन कांचीपुरम है । जहाँ से कलवै सड़क मार्ग पर 20 कि. मी. दूर यह क्षेत्र स्थित है । तालाब के एक और तिरूप्पणमूर व दूसरी ओर यह क्षेत्र स्थित है । बस व कार मन्दिर तक जा सकती है । सड़क मार्ग द्वारा चेन्नई से यह स्थल लगभग 96 कि. मी. दूर है । सुविधाएँ * मन्दिर के निकट ही धर्मशाला हैं, जहाँ पानी, बिजली की सुविधा है । पेढ़ी * श्री कुंथुनाथ भगवान जैन मन्दिर, गाँव : करन्दे, पोस्ट : बेम्बाक्कम - 604410. जिला : उत्तर आरकाट, प्रान्त : तमिलनाडु, 185 Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तिरुमलै तीर्थ तीर्थाधिराज * श्री नेमिनाथ भगवान, श्याम वर्ण, कायोत्सर्ग मुद्रा, लगभग 5 मीटर (दि. मन्दिर ) । तीर्थ स्थल * तिरुमलै गाँव के पास 300 फुट ऊँची पहाड़ी पर समुद्र की सतह से लगभग एक हजार फुट ऊँचाई में । प्राचीनता * शास्त्रों में इसके प्राचीन नाम वैगै, वैगाऊर, श्रीशैलम, श्रीपुरम, पलकुण्ड्रैकोडम, चन्द्रगिरि, चारणगिरि, वेल्लीमलै आदि पाये जाते है । भगवान श्री नेमिनाथ का यहाँ भी समवसरण रचा गया था ऐसी जनश्रुति है। कहा जाता है पाण्डवों का जब इस भूमि में आगमन हुआ तब उन्होंने दर्शन हेतु इस प्रतिमा का निर्माण करवाया था । आठ हजार श्रमण मुनियों का यहाँ विहार हुआ माना जाता है । चोल व पल्लव शासकों के शासनकाल में यह क्षेत्र अत्यन्त जाहोजलाली पूर्ण रहा । प्रथम चोल राजा की बहन राजकुमारी कुन्दवै ने भी यहाँ 186 मन्दिर का निर्माण करवाकर श्री नेमिनाथ भगवान की प्रतिमा को प्रतिष्ठित करवाया था, जो आज भी यहाँ विद्यमान है व कुन्दवै जिनालय के नाम से प्रचलित है। चोल व पल्लवकालीन पचास से भी अधिक शिलालेख अभी भी यहाँ उपलब्ध हैं, जिनमें एक शिलालेख में पल्लव नरेश की रानी सिन्नवई द्वारा दीपदान का निर्देश है । दूसरे एक शिलालेख में कुन्दवै जिनालय के लिये भेंट देने का उल्लेख है । ये शिलालेख ई. सं. 1023-24 के बताये जाते हैं । इन शिलालेखों से यह सिद्ध होता है कि यह क्षेत्र उससे पूर्वकाल का है। वर्तमान में यह क्षेत्र पुरातत्व विभाग की देख-भाल में है, लेकिन जैन-विधि पूर्वक पूजा होती है । विशिष्टता * श्री नेमिनाथ भगवान का यहाँ भी समवसरण रचा गया माना जाने के कारण यहाँ की मुख्यतः विशेषता है । यह प्रतिमा पाण्डवों द्वारा निर्मित बताई जाती है । चोल व पल्लव जैन राजाओं के शासन काल में यह प्रमुख जाहोजलाली पूर्ण क्षेत्र रहा है, जिनके अनेकों (ई. सं. 910) व प्रथम राजेन्द्रचोल (ई. सं. 984-1014) श्री नेमिनाथ जिनालय (दि.) तिरुमलै Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के राजत्वकाल में यहाँ जैनियों की संख्या विपुल मात्रा में थी व यह क्षेत्र अत्यन्त जाहोजलाली पूर्ण था, जिसके उल्लेख मिलते है । श्री ऋषभसेन, समन्तभद्र, वरदत्त, वादिराज, गजकेसरी आदि आचार्यों की यह तपो भूमि है । तमिल भाषा के अनेकों साहित्य-ग्रंथों में इस क्षेत्र का उल्लेख है । नेमिनाथम-ग्रंथ की रचना गुणवीर पण्डिदर ने यहीं पर की थी । वच्चनन्दिमलै नामक ग्रंथ की रचना भी यहीं पर हुई मानी जाती है । ___ यह क्षेत्र तमिलनाडु की जैनबद्री (श्रवणबेलगोला) कहलाता है । कहा जाता है 75 वर्ष पूर्व तक कर्नाटक में स्थित श्रवणबेलगोला भट्टारक गद्दी के लिए इसी क्षेत्र से विद्वान पण्डित को चुनकर लिया जाता था। इससे यह प्रतीत होता है कि कर्नाटक के श्रवणबेलगोला व तमिलनाडु के तिरुमलै क्षेत्र का अति निकट संबंध था । लगभग 75 वर्ष पूर्व यहाँ श्री शिखामणि शास्त्री नामक विद्वान रहते थे जिन्होंने भी इस क्षेत्र की महिमा का व श्री नेमिनाथ भगवान की प्रतिमा का वर्णन किया है । यहाँ के ग्रामीण लोग इस प्रतिमा को शिखामणिनाथ के नाम से भी पुकारते हैं । प्रतिवर्ष श्रावण शुक्ला छठ एवं मकर संक्रान्ति के तृतीय दिवस पौष शुक्ला तृतीया को मेलों का आयोजन होता है । तब हजारों जैन व जैनेतर लोग इकट्ठे होकर अत्यधिक उमंग के साथ प्रभु-भक्ति में लीन होते हैं । अन्य मन्दिर * इसी पहाड़ पर श्री पार्श्वनाथ श्री नेमिनाथ भगवान-तिरुमलै भगवान का एक और मन्दिर है । पहाड़ की चोटी पर श्री ऋषभसेन, समन्तभद्र, वरदत्त आचार्यों की चरणपादुकाएँ हैं । स्टेशन से 5 कि. मी. दूर है, कार व बस आखिर तलेटी पर्वत की तलहटी में पल्लव राजवंशों द्वारा निर्मित तक जा सकती है । यह स्थल आरणी से 14 कि. मी. दो जिनालय हैं । वेलूर से 45 कि. मी. व चेन्नई से लगभग 120 कि. __कला और सौन्दय * यहाँ तलहटी में व पहाड़ पर मी. दूर है । सभी जगहों से बस व टेक्सी का साधन है । स्थित मन्दिरों में प्राचीन कलात्मक प्रतिमाओं के दर्शन होते हैं । अनेकों धातु-प्रतिमाएँ भी दर्शनीय हैं। पहाड़ सुविधाएँ * वर्तमान में यहाँ ठहरने के लिए कोई पर कई जलकुण्ड व गुफाएँ हैं । इन गुफाओं में मुनि सुविधा नहीं हैं । लोग तपस्या करते थे । एक गुफा में रंग बिरंगे प्राचीन पेढ़ी * श्री जैन मन्दिर, कलात्मक चित्र उत्कीर्ण हैं । गाँव : तिरुमलै, मार्ग दर्शन * यह क्षेत्र तमिलनाड के उत्तर आर्काड पोस्ट : वडमादिमंगलम् -606907. तहसील: आरणी, जिले के आरणी-पोलूर मार्ग में वडमादिमंगलम रेल्वे जिला : उत्तर आरकाट, प्रान्त : तमिलनाडु, 187 Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जिनकांची तीर्थ तीर्थाधिराज * श्री महावीर भगवान, अर्द्ध पद्मासनस्थ, लगभग 5 फुट (दि. मन्दिर ) । तीर्थ स्थल * कांचीपुरम शहर से लगभग 3.5 कि. मी. दूर तिरुप्पतिकुण्ड्रम गाँव में विशाल परकोटे के बीच । प्राचीनता * इस मन्दिर का निर्माण पल्लव नरेशों के काल में ई. सातवीं सदी में हुआ माना जाता है। ई. सन् 640 में चीनी प्रवासी हुएनसांग ने अपनी प्रवास - स्मृति में उस समय यहाँ लगभग 80 जैन मन्दिरों व विपुल मात्रा में जैनियों की बस्ती होने का उल्लेख किया है । नरेश महेन्द्र वर्मा द्वारा सातवीं सदी में इस मन्दिर के निर्माण के लिए अधिक योगदान देने का उल्लेख है । इसके पश्चात् के नरेशों ने मन्दिर में विभिन्न भागों को बनवाया था । राजा कुलोत्तुंग चोल प्रथम ने ई. 1116 में इस मन्दिर के लिए कई एकड़ भूमि भेंट देकर इसका नाम पल्लिचन्दम रखा था । वर्तमान नाम भी उसी समय का माना जाता हैं । 188 इस मन्दिर के निकट ही श्री चन्द्रप्रभ भगवान का इससे भी प्राचीन मन्दिर अभी भी स्थित है, जो यहाँ के इसके पूर्व के मन्दिरों की याद दिलाता है । लगभग 600 वर्ष पूर्व विजयनगर साम्राज्य के नायक हरिहर के अमात्य इरुगप्प दण्डनायक द्वारा यहाँ बीस स्थंभ वाला महामण्डप बनवाये जाने का उल्लेख है । चीनी यात्री हुएनसांग द्वारा उल्लिखित मन्दिरों का वर्तमान में पता नहीं है । लेकिन आज यही एक मन्दिर स्थित है, जहाँ जैन विधि, पूर्वक पूजा होती है। बाजू के मन्दिर की प्रतिमा खंडित होने के कारण पूजा नहीं होती । यहाँ का कार्यभार पुरातत्व विभाग की देखरेख में है । विशिष्टता पल्लव शासनकाल में यहाँ जैनियों की संख्या विपुल मात्रा में होने व अनेकों जिन मन्दिरों से यह नगर सुशोभित होने के उल्लेख मिलते है । पल्लव नरेशों के गुरु श्री वामन आचार्य की यह तपोभूमि है। मन्दिर के परिक्रमा में पीछे के भाग में प्राचीन कोरा नाम का वृक्ष है। कहा जाता है कि वामन आचार्य ने यहाँ तपस्या की थी । (मल्लिसेन आचार्य का अपरनाम वामन आचार्य बताया जाता है) 132222 श्री महावीर जिनालय जिनकांची Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री महावीर भगवान-जिनकांची निकट ही वामन आचार्य के शिष्य पुष्पसेन के चरण चिन्ह अंकित हैं व शिला पर प्राचीन श्लोक अंकित है। ई. सं. 1199 में चन्द्रकीर्ति गुरु का वास-स्थान यहाँ होने का उल्लेख है । उनके समय में यहाँ के नरेश द्वारा इस मन्दिर से संम्बधित भूमि को करमुक्त किये जाने का उल्लेख हैं । भट्टारक श्री लक्ष्मीसेन स्वामीजी की गद्दी यहीं पर थी । यह गद्दी तिण्डिवनम से 30 कि. मी. दूर मेलचित्तामर में स्थानान्तर की गई, जो आज भी जिनकांची जैन-मठ के नाम से प्रचलित है । इस मन्दिर को त्रैलोक्यनाथ भगवान का मन्दिर भी कहते हैं । आज भी सरकारी दस्तावेजों में यही नाम प्रचलित है । अन्य मन्दिर * इस मन्दिर के अतिरिक्त उक्त उल्लिखित एक और मन्दिर श्री चन्द्रप्रभ भगवान का है। ___ कला और सौन्दर्य * इस मन्दिर के संगीत मण्डप में छत्त पर रंग-रंगीले प्राचीन चित्र अंकित हैं। श्री आदिनाथ भगवान के पाँच कल्याणक, समवसरण की रचना, श्री महावीर भगवान का जीवन कृत व श्री नेमिनाथ भगवान के पूर्व-भवों के वृत्तांत मनमोहक वर्गों में चित्रित किये गये हैं, जो बहुत ही आकर्षक लगते हैं । मार्ग दर्शन * यहाँ का कांचीपुरम रेल्वे स्टेशन मन्दिर से लगभग 5 कि. मी. दूर है । जहाँ से टेक्सी व आटो की सुविधा है । चेन्नई से यह स्थान लगभग 80 कि. मी. दूर है । मन्दिर तक कार व बस जा सकती है । सुविधाएँ * वर्तमान में यहाँ ठहरने के लिए सुविधा नहीं हैं । पेढ़ी * श्री त्रैलोक्यनाथ स्वामी जैन मन्दिर, तिरुपतिकुन्ड्रम, पोस्ट : सेविलिमेडु - 631 501. जिला : कांचीपुरम, प्रान्त : तमिलनाडु, 189 Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री मन्नारगुड़ी तीर्थ तीर्थाधिराज * श्री मल्लिनाथ भगवान, अर्द्ध पद्मासनस्थ (दि. मन्दिर) । तीर्थ स्थल * पमनी नदी के निकट बसे मन्नारगुड़ी के हरिद्रानदी गाँव में । प्राचीनता * पहले इसे राजमन्नारगुड़ी के नाम से सम्बोधित किया जाता था । यह मन्दिर बारहवीं सदी में चौलन राजा के राज्यकाल में निर्मित हुआ माना जाता है । विशिष्टता * तमिलनाडु के प्रसिद्ध प्राचीन तीर्थों में यह तीर्थ भी स्थान पाता है । इस मन्दिर में श्री सरस्वती देवी, श्री पद्मावती देवी, श्री धर्मदवी, श्री ज्वाला मालिनी आदि देवियों की प्रतिमाएँ अति ही प्रभावशाली हैं । प्रतिवर्ष वैशाख शुक्ला दशमी को ब्रह्म-महोत्सव का आयोजन होता है । उस अवसर पर अनेकों यात्रीगण इकट्ठे होकर प्रभु-भक्ति का लाभ लेते हैं । मन्दिर के शिध्रातिशिध्र जीर्णोद्धार की आवश्यकता है। अन्य मन्दिर * वर्तमान में इसके अतिरिक्त अन्य कोई मन्दिर नहीं है । ____कला और सौन्दर्य * प्रभु-प्रतिमा अति ही सुन्दर व आकर्षक है । मन्दिर के दक्षिण भाग में सुन्दर व विशाल बगीचा हैं । मार्ग दर्शन * यहाँ से नजदीक के रेल्वे स्टेशन नीडामंगलम् 12 कि. मी., तंजाऊर 34 कि. मी. व कुंभकोणम् 34 कि. मी. है । इन जगहों से टेक्सी व बसों का साधन है । यहाँ का मन्नारगुड़ी बस स्टेण्ड मन्दिर से लगभग 2 कि. मी. दूर है । गाँव में टेक्सी व आटो का साधन है । कार व बस मन्दिर तक जा सकती हैं । सुविधाएँ * फिलहाल ठहरने के लिए कोई अलग स्थान नहीं है । परन्तु मन्दिर के निकट अहाते में ठहरा श्री मल्लिनाथ जिनालय-मन्नारगुड़ी 190 Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री मल्लिनाथ भगवान-मन्नारगुड़ी जा सकता है । जहाँ पर बिजली, पानी, बर्तनों की सुविधा हैं । पेढ़ी * श्री मल्लिनाथ भगवान जैन टेम्पल, राजमन्नारगुड़ी । पोस्ट : हरिद्रानदि - 614 012. जिला: तंजाऊर, प्रान्त : तमिलनाडु, ECEOXONS माता श्री पद्मावती देवी 191 Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री पुड़ल तीर्थ (केशरवाड़ी) तीर्थाधिराज * श्री आदीश्वर भगवान, श्यामवर्ण, अर्द्ध पद्मासनस्थ, लगभग 120 सें. मी. । तीर्थ स्थल * मदास-कलकत्ता मुख्य सड़क मार्ग पर । मद्रास से लगभग 15 कि. मी. दूर पोलाल गाँव में विशाल परकोटे के बीच । प्राचीनता * यह तीर्थ स्थल लगभग 2500 वर्ष प्राचीन माना जाता है । पुरातत्व-वेत्ता इसे लगभग 1500 वर्ष प्राचीन होने का अनुमान लगाते हैं । भूसर्वेक्षणवेत्ता कर्नल मेकंजी ने अपने शोध में बताया है कि यहाँ के शासक, चोल वंशीय राजा । कुरुम्बर ने इस मन्दिर का निर्माण कराया और कुरुम्बर के वंशज जैन-धर्म के कट्टर अनुयायी थे । कहा जाता है कि किसी समय जैन-शासकों का यह पाट नगर था । इसे “पुड़ल कोटालम" कहते थे। प्रतिमा की कलाकृति से भी तीर्थ की प्राचीनता सिद्ध हो जाती है । विशिष्टता * यह तमिलनाडु का प्राचीन तीर्थ-स्थल है । प्रतिमा श्री केशरियानाथजी के समान सन्दर व प्रभाविक होने के कारण यह स्थल केशरवाड़ी के नाम से भी प्रचलित है । आत्मानुरागी स्वामीजी श्री ऋषभदासजी ने भी अपना अन्तिम जीवन साधना व साहित्य-प्रचार में यहीं पर बिताया था । इस तीर्थ की वर्तमान जाहोजलाली का मुख्य श्रेय उन्हीं को है । उन्होंने अपनी साधना के साथ-साथ अपने पूर्ण प्रयास से इस तीर्थ का जीर्णोद्धार करवाकर यहाँ सर्वसुविधाएँ जुटाईं, जिससे यात्रियों का आवागमन विपुल मात्रा में बढ़ा । श्री ऋषभदेव जिनालय-पुड़ल तीर्थ 192 Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णणण श्री ऋषभदेव भगवान पुड़ल तीर्थ 193 Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यहाँ श्री पद्मावती देवी की प्राचीन प्रतिमा अत्यन्त प्रभावशाली है । पद्मावती देवी जागरूप व साक्षात् हैं। भावना मानने वाले श्रद्धालु भक्तजनों की मनोकामनाएँ पूर्ण होती हैं, ऐसा अनेकों भक्तों द्वारा अभिहित किया जाता है । प्रतिवर्ष कार्तिक पूर्णिमा, चैत्री पूर्णिमा व वैशाख शुक्ला तृतीया को भक्तजन हजारों की संख्या में इकटे होकर प्रभु-भक्ति का लाभ लेते है । बाहर गाँव से अनेकों संघ भी दर्शनार्थ आते रहते हैं । प्रतिवर्ष माघ शुक्ला दशमी को ध्वजा चढ़ाई जाती है । अन्य मन्दिर * वर्तमान में इसके अतिरिक्त एक दादावाड़ी, श्रीमद् राजचन्द्रगुरु मन्दिर हैं एवं श्री पार्श्वप्रभु, भक्तामर मन्दिर, श्री महाविदेह धाम व एक गुरु मन्दिर निर्माणाधीन है । कला और सौन्दर्य * प्रभु-प्रतिमा प्राचीन कला की दृष्टि से अति सुन्दर व प्रभावशाली है । प्रतिमाजी के ऊपर एक ही पाषाण पर खुदे हुए त्रिछत्र, दोनों तरफ खड़े हुए चँवरधारी इन्द्र, भावमण्डल, बेलबूटे, अशोक वृक्ष आदि अत्यन्त मनोरम हैं । ऐसी कलात्मक प्रतिमा जो दर्शन-मात्र से दर्शक को मुग्ध कर देती है, अन्यत्र दुर्लभ है । मन्दिर के ऊपरी भाग के शिखर में विराजित श्री पार्श्वनाथ भगवान की प्रतिमा भी इसी भाँति अत्यन्त हँसमुख व भावपूर्ण हैं । इसके निकट ही विशाल सरोवर है । जहाँ का पानी मद्रासशहर के लिये पीने के उपयोग में लाया जाता है। आजू बाजू लाल मिट्टी की छोटी-बड़ी डुंगरियाँ हैं, जिनके कारण इसके निकट के गाँव को रेडहिल्स कहते हैं । मार्ग दर्शन * यहाँ से नजदीक का रेल्वे स्टेशन चेन्नई 13 कि. मी. हैं, जहाँ से बस, टेक्सी व आटो आदि का साधन उपलब्ध है । नजदीक का बड़ा गाँव रेडहिल्स सिर्फ 2 कि. मी. है । तीर्थ स्थल चेन्नई-कलकत्ता मुख्य सड़क मार्ग पर सिर्फ 200 मीटर अन्दर है । मन्दिर तक बस व कार जा सकती है । मन्दिर के निकट ही बसें ठहराने की सुविधा है । सुविधाएँ * ठहरने के लिए मन्दिर के अहाते में ही पुरानी धर्मशाला व बाहर कम्पाऊन्ड में भोजनशाला एवम् सर्वसुविधायुक्त विशाल धर्मशाला है । जिसमें लगभग 800 यात्रियों के लिए ठहरने की सुन्दर व्यवस्था है । संघ वालों के लिए अलग से भोजन बनाने की व्यवस्था भी है । प्रभु पूजा-सेवा हेतु यहाँ रहने वाले वृद्धजनों के लिए शांती निकेतन की स्थापना की गई हैं । पेढ़ी * श्री पुड़ल जैन तीर्थ, श्री आदीश्वर जैन श्वेताम्बर मन्दिर ट्रस्ट, 37, गांधी रोड़, पोस्ट : पुड़ल, चेन्नई -600066. प्रान्त : तमिलनाडु, फोन : 044-6418577 व 6418292. भगवती श्री पद्मावती देवी-पड़ल तीर्थ 194 Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनमोजीयन A श्री पार्श्वनाथ भगवान-पुड़ल तीर्थ 195 Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 51869 श्री आदिनाथ भगवान (श्वे.) कलिकुण्ड श्री कलिकुण्ड तीर्थ तीर्थाधिराज * श्री कलिकुण्ड पार्श्वनाथ भगवान, पद्मासनस्थ, श्वेत वर्ण, लगभग 35 सें. मी. ( श्वे. मन्दिर ) । तीर्थ स्थल * कलिकट शहर के मध्य । प्राचीनता यह मन्दिर लगभग पाचं सोह वर्ष से पूर्व का माना जाता है, परन्तु इसकी प्राचीनता का पता लगाना कठिन है, क्योंकि कहीं भी कोई लेख उत्कीर्ण नहीं है । प्रभु प्रतिमा तो बहुत ही प्राचीन प्रतीत होती है । प्रतिमाजी पर भी कोई लेख उत्कीर्ण नहीं है। प्रभु को भक्तगण प्रारंभ से श्री कलिकुण्ड पार्श्वनाथ संबोधित करते आ रहे है । आजका कलिकट पूर्व में कोजीकोड, कोलीकोड़ आदि नामों से विख्यात था, अब पुनः कोलीकोड कहते है । भारत में जगह-जगह कलिकुण्ड पार्श्वनाथ नाम का उल्लेख आता है कहा जाता है कि श्री पार्श्वनाथ भगवान कलि नाम के पहाड़ व कुण्ड नाम के सरोवर के निकट ध्यानस्थ रहे थे, उस जगह राजा दधिवाहन ने मन्दिर का निर्माण करवाकर उसका नाम कलिकुण्ड 196 रखा था । परन्तु अभी तक सही जगह व इतिहास का पता नहीं लग रहा है । यह जरूर है कि प्रायः चमत्कारिक घटनाओं के कारण उस उस गाँव के नाम पर प्रभु को उसी नाम से संबोधित करते आ रहे है या प्रभु के नाम पर ही गांव का नाम रख दिया जाता है। प्रभु प्रतिमा की प्राचीनता व वर्षों से इसी नाम से संबोधित किये जाने के कारण व नाम में लगभग समानता रहने के कारण संभवतः यही कलिकुण्ड पार्श्वनाथ का मूल स्थान हो यह अनुशंधान का विषय है । लगभग 85 वर्ष पूर्व इसी मन्दिर के परकोटे में यहाँ पर एक अन्य नये मन्दिर की नींव खोदती वक्त 34 प्राचीन जिन प्रतिमाऐं भूगर्भ से प्राप्त हुई थी जो अभी भी यहाँ श्री आदीश्वर भगवान के मन्दिर में विराजित है। श्री आदीश्वर प्रभु की प्रतिमा सम्प्रति कालीन मानी जाती है । अन्य प्रतिमाएँ भी अति प्राचीन हैं । किन्हीं पर कोई लेख उत्कीर्ण नहीं है । इससे यह सिद्ध होता है कि यहाँ अन्य प्राचीन मन्दिर भी रहे हैं । दक्षिण प्रांतों में भी जगह-जगह प्राचीन जिन प्रतिमाएँ भूगर्भ से प्राप्त होती है। इस केरला प्रांत में भी जगह-जगह अनेकों जिन प्रतिमाएँ भूगर्भ से प्राप्त होने का उल्लेख है । परन्तु दक्षिण प्रांत में सम्प्रतिराजा कालीन प्रतिमा भूगर्भ से प्राप्त होने का यह प्रथम अवसर है । एक उल्लेखानुसार जब बिहार प्रांत में बारह वर्षीय भीषण अकाल पड़ा तब आर्य भद्रबाहु स्वामी ने अपने 12000 शिष्य मुनिगणों के साथ दक्षिण में आकर श्रवणबेलगोला में निवास किया था। उनके मुनिगण कर्नाटक, आंध्रप्रदेश, तमिलनाडु, केरल में धर्मप्रचारार्थ जाकर रहे थे, जिन्होंने धर्म प्रभावना के अनेकों कार्य किये । यहाँ की भाषाओं के उत्थान में भी अपना योगदान दिया । कई ग्रंथों की स्थानीय भाषाओं में रचनाएँ की जो आज भी मौजूद है व उच्च स्तर की प्राचीनतम मानी जाती है । परन्तु साथ में यह भी कहा जाता है कि उनके यहाँ आने के पूर्व भी यहाँ श्रमण संस्कृति विद्यमान थी व श्रमण समुदाय के लोग यहाँ रहते थे । कलिंग देश के राजा करकण्डु का सामराज्य लगभग पूरे दक्षिण भारत तक रहने व राजा करकण्डु श्री पार्श्वप्रभु का परम भक्त रहने के कारण हो सकता Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री कलिकुण्ड पार्श्वनाथ (श्वे.)-कलिकुण्ड है पार्श्व प्रभु का इस क्षेत्र में भी पदार्पण हुवा हो व उनकी अमृतमयी वाणी से यहाँ की जनता लाभान्वित हुई हो । जैसा प्रभु का गुजरात, मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश आदि तरफ विहार होने का उल्लेख आता है । यह भी कहा जाता है कि श्री पार्श्व प्रभु अपने विहार में एक समय एक पहाड़ी के पास कुण्ड के निकट ध्यानावस्थ रहे थे, पश्चात् उस स्थान पर राजा दाधिवाहन ने मन्दिर का निर्माण करवाकर उसका नाम कलिकुण्ड रखा था । उस समय वहाँ के जंगल का एक हाथी प्रभु की सेवा में रहा था । इस क्षेत्र में आज भी अनेक पहाड़ियाँ, कुण्ड व हाथी पाये जाते हैं जितने अन्यत्र सायद नहीं है । उक्त विषय पूरा संशोधन का है लेकिन कुछ भी हो यहाँ का इतिहास लगभग दो हजार वर्ष पूर्व का अवश्य है । विशिष्टता * समुद्र के किनारे मलैयागिरि के पहाड़ 197 Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर बसे इस प्रांत में कई जगह प्राचीन जिन प्रतिमाएं भूगर्भ से प्राप्त होने के कारण पता लगता है कभी यह शहर ही नहीं अपितु पूरा प्रांत जैन श्रेष्ठीगणों की अच्छी आबादी के साथ व्यापार का बड़ा केन्द्र भी रहा होगा । यहाँ पर प्रायः सभी जगह समुद्र या पहाड़ी रास्ते से ही आना-जाना होता था जिनमें एक पहाड़ी रास्ता कर्नाटक होता हुवा महाराष्ट्र तरफ बम्बई तक, दूसरा कर्नाटक होता हुवा तमिलनाडु तरफ व तीसरा कर्नाटक होता हुवा आन्ध्रा तरफ । अतः हो सकता है सैकड़ो वर्ष पूर्व कभी भीषण बाढ, ज्वारा या भूकंम्प के कारण यह स्थान विच्छेद हो गया हो व भक्तजनों द्वारा इस स्थान के विच्छेद हो जाने के कारण इसी नाम की कुछ प्रतिमाएं भराई हो जिनमें एक प्रतिमा अभी भी धोलका तीर्थ पर विराजित है । परन्तु नाम में प्रायः समानता रहने के कारण यह संभव है कि कलिकुण्ड पार्श्वनाथ का मूल स्थान यही हो । यह यहाँ की मुख्य विशेषता है । परन्तु संशोधन की आवश्यकता है। अन्य मन्दिर * वर्तमान में इसके अतिरिक्त अन्य एक और श्वेताम्बर मन्दिर हैं । कला और सौन्दर्य * श्री कलिकुण्ड पार्श्वप्रभु की प्रतिमा अतीव सौम्य व प्रभावशाली है । यहाँ के आदीश्वर भगवान के मन्दिर में विराजित संम्प्रति कालीन प्राचीन प्रतिमाएं भी अतीव कलात्मक व दर्शनीय है । मन्दिर की निर्माण शैली भिन्न व अनौखी है । केरला में प्रायः सभी मन्दिर इसी शैली के है । मार्ग दर्शन * मन्दिर से यहाँ का कलिकट रेल्वे स्टेशन लगभग 12 कि. मी. व बस स्टेण्ड लगभग एक कि. मी. दूर है । स्टेशन पर व गांव में आटो व टेक्सी का साधन है । मन्दिर से लगभग 30 मीटर दूर बस व 15 मीटर दूर तक कार जा सकती है । लेकिन मन्दिर तक पक्की सड़क है । यहाँ से बडगरा 50 कि. मी मेंगलूर 200 कि. मी. सोरनूर 100 कि. मी. व कोचीन लगभग 200 कि. मी. दूर है । सविधाएँ * ठहरने हेतु महाजनवाडी है जहाँ ओढ़ने बिछाने के वस्त्र, बिजली, पानी व बर्तन का साधन है । लगभग 200 यात्री ठहर सकते है । वर्तमान में भोजनशाला नहीं है परन्तु पूर्व सूचना पर इंतजाम हो सकता है । पेढी * शेठ आनन्दजी कल्याणजी जैन टेम्पल ट्रस्ट, त्रिकोविल लेन । पोस्ट : कलिकट -673 001. प्रान्त : केरला, फोन : 0495-704293. श्री कलिकुण्ड पार्श्वनाथ जिनालय (श्वे.)-कलिकुण्ड 198 Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री पालुकुन्नू पार्श्वनाथ तीर्थ तीर्थाधिराज * श्री पालुकुन्नू पार्श्वनाथ भगवान, पद्मासनस्थ, श्वेत वर्ण, (दि. मन्दिर) । तीर्थ स्थल * छोटे से पालुकुन्नू गांव में । प्राचीनता * यह स्थल वायनाडु जिले का प्राचीनतम तीर्थ है जो कम से कम एक हजार वर्ष पूर्व का अवश्य है, परन्तु सही प्राचीनता का पता लगाना कठिन है। कहा जाता है कि उत्तरी भारत के बिहार प्रांत में जब बारह वर्ष का भीषण अकाल पड़ा तब आर्य भद्र बाहुस्वामीजी ने अपने 12000 शिष्य समुदाय व राजा चन्द्रगुप्त मौर्य के साथ कर्नाटक के श्रवणबेलगोला में चन्द्रगिरि पर्वत पर निवास किया था । उस समय दक्षिण के सभी प्रांतों में धर्म प्रचारार्थ मुनिगणों का विचरण हुवा । उन मुनिगणों ने समस्त दक्षिण भारत में जगह-जगह ध्यान-साधना हेतु गुफाओं का निर्माण करवाया, जगह-जगह मन्दिरों का निर्माण हुवा, उत्थान हेतु संघों की स्थापना हुई । स्थानीय भाषाओं में अनेकों ग्रंथों की रचनाएँ हुई जो आज भी जगह-जगह जिनालय का भीतरी दृश्य-पालुकुन्नू उपलब्ध है । उनमें यह केरल प्रांत भी शामिल था, संभवतः उस समय यह स्थल मलाबार या मलयागिरि के नाम प्रचलित होगा । जाहोजलाली रही होगी व अनेकों जैन मन्दिरों का निर्माण हुवा होगा । यह भी कहा जाता है कि आर्य भद्रबाहुस्वामी का यहाँ आगमन हुवा उसके पूर्व भी यहाँ जैन धर्म की काल के प्रभाव से प्रायः सभी स्थानों पर मन्दिरों व अत्यन्त जाहोजलाली थी व अनेकों जैन धर्मावलम्बि प्रतिमाओं को क्षति पहुँची या परिवर्तित हुए । उसी रहते थे जिन्हें श्रमणर नाम से सम्बोधित किया जाता भांति यहाँ भी हुवा होगा ऐसा महसूस हो रहा है । था । संभवतः इसी के कारण आर्य भद्रबाहुस्वामी अपने आज इस जिले में आठ दिगम्बर जैन मन्दिर है, शिष्य समुदाय के साथ दक्षिण में पधारे हों । यह जिनमें चार मन्दिर एक हजार वर्ष पूर्व के हैं लेकिन अनुसंधान का विषय है । प्राचीन प्रतिमा के साथ प्राचीन मन्दिर यही है । अन्य इस केरल प्रांत के हर जिले में जैन मन्दिरों के रहने मन्दिरों में क्षति पहुँचने के कारण, कहीं-कहीं मन्दिरों का स्थान परिवर्तित हुवा तो कहीं प्रतिमा बदली का प्रमाण मिलता है । यहाँ के एक महाशय ने बताया गई है। था कि जब वे "बुधिजम इन केरल" पर थीसिस लिख रहे थे तब जगह-जगह से लोग आकर कहते थे आज इस जिले में लगभग 1500 जैन बंधुगण कि बुद्ध भगवान की प्रतिमा भूगर्भ से प्राप्त हुई है। रहते हैं । यहाँ के ज्यादातर मन्दिरों की व्यवस्था यहाँ परन्तु जब वे खुद जाकर देखते थे तो पता लगता था के स्थानीय गवडर जैन बंधुगण करते आ रहे हैं जैसे कि प्रतिमा जैन तीर्थंकर भगवान की है। यह घटना कर्नाटक में सेट्टी व तमिलनाडु में नैनार बंधुगण जैन जगह-जगह प्रायः हर जिले में घटती थी । इससे सिद्ध ____ धर्मावलम्बी हैं व व्यवस्था करते आ रहे हैं । यहाँ के होता है कि पूर्वकाल में यहाँ जैन धर्म की अच्छी प्राचीन मन्दिर ज्यादातर दिगम्बर आम्नाय के हैं, परन्तु यहाँ के निकटतम कलीकट जिले के मुख्य शहर 199 Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलीकट में श्री कलिकुण्ड पार्श्वनाथ भगवान का प्राचीन श्वेताम्बर मन्दिर भी है । इसी मन्दिर के अहाते में लगभग 85 वर्ष पूर्व एक और मन्दिर हेतु नींव रखोदती वक्त 34 जैन प्रतिमायें सम्प्रतिकालीन भूगर्भ से प्राप्त हुई थी जो अभी भी वहाँ मन्दिर में विद्यमान है । इससे यह प्रतीत होता है कि यहाँ श्वेताम्बर आम्नाय के बंधुगण भी पूर्व काल में रहे हों। आज भी श्वे. आम्नाय के कई बंधुओं का केरल में निवास है । परन्तु बहुत कम है । प्रायः वे सभी राजस्थान या गुजरात विशिष्टता * यहाँ की प्राचीनता ही यहाँ की मुख्य विशेषता है क्योंकि केरल प्रांत में पूर्वकाल में जगह-जगह जैन मन्दिर होने का व वर्तमान में भी प्राचीन पूजित मन्दिरों के रहने का बहुत ही कम बंधुओं के ध्यान में है । इस मन्दिर के पुनः निर्माण हेतु कमेटी का गठन भी किया हुवा है । श्रवणबेलगोला व मूड़बद्री के भट्टारक स्वामीजी के व भारत वर्षीय दिगम्बर जैन तीर्थ क्षेत्र कमेटी के निर्देशन में इस स्थान को सुविख्यात तीर्थ का रुप देने की योजना है । श्री चन्द्रप्रभ भगवान के मोक्ष कल्याणक के पावन दिन अभी भी प्रतिवर्ष पहाडी पर बने मण्डप में पूजन का आयोजन होता है । इसी पहाडी पर कुछ प्राचीन जैन गुफाएं भी हैं । अन्य मन्दिर * वर्तमान में इस गांव में यही मन्दिर है । इस जिले के विभिन्न गांवों में निम्न सात और मन्दिर है । निकट के पालघाट जिले में भी एक प्राचीन मन्दिर है । 1. श्री आदीश्वर भगवान मन्दिर - मनन्थावाड़ी गांव से एक कि. मी. दूर । 2. श्री आनन्दपुरम श्री आदीश्वर भगवान - पुडियारडम गांव में मनन्थावाडी से आठ कि. मी. दूर । 3. श्री अनन्तनाथ भगवान मन्दिर - अनन्तकृष्णपुरम, कलपटा से 5 कि. मी. दूर । हजार वर्ष प्राचीन । 4. श्री अनन्तनाथ भगवान मन्दिर - वरडूर गांव 5. श्री पार्श्वनाथ भगवान मन्दिर - अंजकन्नू गांव कलपटा से 3 कि. मी. दूर कुछ मन्दिर खण्डहर हालत में भी विद्यमान है । सुलतान बल्तेरी का एक जैन मन्दिर पुरातत्व विभाग के देखभाल में है जहाँ अभी प्रतिमा नहीं है । कलपट्टा से लगभग तीन कि. मी. दूर चन्द्रगिरि पहाडी के ऊपर श्री चन्द्रप्रभ भगवान का एक अतीव प्राचीन मन्दिर है जो लगभग 1400 वर्ष पूर्व का था। इस मन्दिर को व श्री चन्द्रप्रभ भगवान की प्रतिमा को भारी क्षति पहुँची परन्तु प्रतिमा का मुखमण्डल अभी भी श्री पालुकुन्नू पार्श्वनाथ मन्दिर (दि.)-पालुकुन्न 200 Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री पालुकुन्न पार्श्वनाथ (दि.)-पालुकुन्नू 6. श्री शांतिनाथ भगवान मन्दिर - वेन्नियोड गांव कम्बलकाड से 8 कि. मी. दूर प्राचीन मन्दिर । 7. श्री चन्द्रप्रभ भगवान मन्दिर - पुलनांगडी गांव में मार्ग दर्शन * यहाँ से नजदीक का रेल्वे स्टेशन कलीकट 110 कि. मी. व मैसूर 150 कि. मी. दर है । नजदीक का बड़ा गांव अंजकन्नू 6 कि. मी. व पानामरम 10 कि. मी. दूर है । सभी स्थानों पर बस व टेक्सी का साधन है । कार व बस मन्दिर तक जा सकती है । नजदीक का हवाई अड्डा कलीकट 110 कि. मी. व बेंगलूर 290 कि. मी. दूर है । सुविधाएँ * ठहरने हेतु वर्तमान में पेढ़ी की तरफ से कोई सुविधा नहीं है । नजदीक के अंजकन्नू गांव में ठहरने हेतु होटल की सुविधा है । पेढ़ी * श्री पालुकुन्नू पार्श्वनाथ स्वामी जैन टेम्पल गांव : पालुकुन्नू, पोस्ट : अंजुकुन्नु, जिला : वायनाडु, प्रान्त : केरल, फोन : पी. पी. 0493-520262. 201 Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 202 HE महाराष्ट्र 1. रामटेक 2. भद्रावती 3. अंतरिक्ष पार्श्वनाथ 4. बलसाणा 5. मांगी तुंगी 6. गजपंथा 7. पद्मपुर 8. अगासी 9. कोंकण 10. दहीगांव 11. कुंभोज गरि 12. बाहुबली 204 206 209 212 214 216 218 220 222 224 226 228 Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MAHARASHTRA JAIN PILGRIM CENTRES MADHYA PRADESH GUJARAT Chicholl Jamb Ramton Yound Tun DHULE Y JALGAON B ULDANA oBhingarh кһара Mansar Parseonio 3 Adasa ODumn Kalmeshwar Kamthi AGPUR NAGPUR Pardi paon Maunda Raipur od khapri Titur pn Guimgaon Kuhi AM AMRAVATI NAGPUR AKANDARA NAGPUR AKOLA WARDHI YAVATMALA CHANDRAPUR AURANGABAD HADNAGAR Dighoria PARBHANI THANA WOMBAY ALIPAG PUNE reg . BIR ANDHRA PRADESH ABAD SATARA SOLAPUR ARABIAN SEA RATNAGIRI SANGU ROLHAPURA JAIN PILGRIM CENTRES STATE CAPITAL DISTRICT HEADQUARTERS DISTRICT BOUNDARIES Nawargaon Buzurgo Wadkia adheri She Tadoba Warora Chandankhera Sindewahi Mardia U CHANDRAPUR AL 2 Mohari Karang N2 Bhandak Maroli Pandharkawada w ani Durgapur Chichal KARNATAKA Rapu 8 Ghonsa xiz Şirpur CHANDRAPUR Ghugs Babupet Kayar Le Yogeshwari Algaong Akiol Padghe Karanja TH Yana Lake Dahisar Agosto Amala Mandvi Mandi Umberpada Bhuigaon Vasai Manor Beach ** Khadaoli Bhiwandi Tutvala Bhayandano Eksh xanhe Dombivli Kalyan Marve Beach B 9 Ulhasnagar Malado THANE ®Kalva Amamath Andheri Mulund umbra Patra ATER MUMBAN Trombay Panvel Matheral Pator Poghat Juhu Beach Bhandup Shelu WASHIM Mangrul Pir Malegaon Ghatkoper MUMBAIL Jasa Ulve More Enime Chalk Shivpuri Mora Chimner Bemala Karje Chandas osirpur Manoras "Pardi Takmor WASHIM ng Wakad Rithad Chimthana Songadh thalambi Chhadvely Indvo Wavapur visarvan. Brahmanvelo 4 Nizampur TW Bhamero Borribir Sakri, DHULE A dgaon Malegaon Lambkanco Boris Nimbgaon Ketki adgaon line Pimpainer Kap Nyal DHUI Kusumbe Nero Mulher Taharabad Jikhedan Laling Wagtai YAHWA Phaltan 57 Narsingpura Dharmpuri Baurao Dudhabhawi 10 Nateputa Malsiras Akluj Shingapur Velapur 57 IR A Mardi Gairao Nampur khakurdi Vaygaeno Ravalgaon Satana. Brahmangaon Bhaitana Surgana Margarh Desran Saptashring Vani Islampur Point Kanas Thangode. Arai Chandlepur Malegaon Ranas. Rahre Sargo Abhongo Kalvane Lohoner Saundene Umbrane Vehelynor Chandvad NA SH©L K Nandgaon Waghad Vadnero Manmade Dindori Pimpalgaon Baswan Ankai Tanks Rasegaon, Paked yasalgaon Vinchur Nagarsul Gortano angapuro Chamberlenor Niphad Yeolat NASHIK Oroken Chandori Andarso Trimbak Anjini Deotah Cantt Kopargaon wa Pethi • Valva Tasgảon Manera Kavath Shirala Shirala Kamieri Audumbaro Bhilavdi Bhose Ashtao Kavathe Piran une Gundewa Bogne Durthgaon . nhala. Wadgaon Alta kumbhoj. Miraj. Ajo Kotoli Håtkalangda Shiral KOLHAPUR Rükadi Narsoba Vadim po shedbal ale Ichalkaranjio Kurandad tiba Hillo Durthgaon 124 Rodol Wadow Harsu! Bhudgaon Gundewa SANGLI Malgaon Ramser. Ojhar Sinna Patron Kodali Kurandad 203 Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री रामटेक तीर्थ तीर्थाधिराज * श्री शान्तिनाथ भगवान, सुनहला वर्ण, कायोत्सर्ग मुद्रा, 304 सें. मी. (10 फुट) (दि. मन्दिर)। तीर्थ स्थल * रामटेक, गाँव से बाहर, लगभग डेढ़ किलोमीटर (एक मील) दूर । प्राचीनता * इस क्षेत्र का इतिहास अत्यन्त प्राचीन काल तक अथवा प्रागेतिहासिक काल तक पहुँचता है । जैन पुराणों के अनुसार रामटेक क्षेत्र का इतिहास बीसवें तीर्थंकर भगवान मुनिसुव्रत स्वामी के काल का है । आचार्य रविषेण ने पद्मपुराण में रामचन्द्रजी द्वारा वंशगिरि में हजारों जिन मन्दिरों के निर्माण का उल्लेख करते हुए यह भी सूचित किया है कि इस वंशगिरि का ही नाम रामगिरि हो गया । विशिष्टता * सोलहवीं शताब्दी के अन्तिम चरण में हुए भट्टारक ज्ञानसागरजी ने अपनी रचना सर्वतीर्थवंदना के दो छप्पयों नं. 95-96 में रामटेक स्थित भगवान शांतिनाथ की महिमा की बड़ी प्रशंसा की है, तथा उन्हें मनवांछित फल को पूर्ण करनेवाले बताया है। प्रतिवर्ष कार्तिक पूर्णीमा को ध्वजा चढ़ाई जाती है व मेले का आयोजन होता है । अन्य मन्दिर * वर्तमान में इस मन्दिर के अतिरिक्त इसके आस-पास और आठ मन्दिर है एवं एक भव्य मानस्तम्भ भी है । कला और सौन्दर्य * यहाँ पर दिव्य मन्दिरों के शिखरों की वास्तु कला अत्यधिक प्राचीन, अनुपम एवं निराले ढंग की है जो कि अत्यन्त सुन्दर एवं दर्शनीय है। मार्ग दर्शन * यहाँ का रेल्व स्टेशन रामटेक जो तीर्थ स्थल से लगभग 5 कि. मी. दूर है । जहाँ आटो, टेक्सी की सुविधा है । नागपुर से लगभग 48 कि. मी. दूर है । श्री शान्तिनाथ भगवान-रामटेक 204 Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुविधाएँ * मन्दिर के परकोटे में ही एक विशाल धर्मशाला है, जहाँ पर पानी, बिजली, बर्तन व ओढ़ने बिछाने के वस्त्रों की सुविधाएँ उपलब्ध है । भोजनशाला प्रारंभ होने वाली है । पेढ़ी * श्री शान्तिनाथ दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र, पोस्ट : रामटेक - 441 106. जिला : नागपुर, प्रान्त : महाराष्ट्र, फोन : 07114-55117. कलात्मक मन्डोवर दृश्य (दि.)-रामटेक मन्दिर समुह दृश्य (दि.)-रामटेक 205 Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 206 दुर दृश्य भद्रावती श्री भद्रावती तीर्थ तीर्थाधिराज * स्वप्नदेव श्री केशरिया पार्श्वनाथ भगवान, श्याम वर्ण, अर्ध पद्मासनस्थ, लगभग 152 सें. मी. (पाँच फुट) ( श्वे. मन्दिर ) । भद्रावती गाँव के निकट विशाल तीर्थ स्थल बगीचे के मध्य | प्राचीनता * इस तीर्थ की प्राचीनता का पता लगाना कठिन है । पुरातन अवशेषों से पता चलता है। कि यह तीर्थ अति प्राचीन है जिसे भारतीय पुरातत्व विभाग ने 'रक्षित स्मारक' घोषित किया था । गत शताब्दी तक प्रतिमा का आधा भाग मिट्टी में गड़ा हुआ 9.SHWANATHA.TEMPLE BHAND सुन्दर दृश्य-भद्रावती तीर्थ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री केशरिया पार्श्वनाथ भगवान-भद्रावती 207 Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ था जिसे ग्रामीण लोग केशरिया बाबा कहते थे व भक्ति से सिन्दूर' चढ़ाया करते थे । चांदा, वर्धा, तथा हिंगनघाट आदि स्थानों के श्वेताम्बर जैन संघों के अनुरोध पर सरकार ने ई. सं. 1912 में इस तीर्थ स्थान को पट्टा सहित संघ को सुपुर्द किया। मध्य प्रदेश के तत्कालीन राज्यपाल सर फ्रयांक स्लाय ने केशरिया बाबा के दर्शन से प्रभावित होकर इस तीर्थ स्थान के लिए 142 एकड़ जमीन पट्टा बनवाकर सरकार की ओर से भेंट स्वरूप प्रदान की । तत्पश्चात् श्रीसंघ ने इस तीर्थ का पुनः जीर्णोद्धार कराया जो अभी विद्यमान है । अभी पुनः भव्य जीर्णोद्धार का काम चालू है । विशिष्टता विक्रम संवत् 1966 माघ शुक्ला पंचमी के दिन श्री अन्तरिक्ष तीर्थ के मेनेजर श्री चतुर्भुज भाई ने एक स्वप्न देखा कि वे भांडुक के आसपास के घने जंगलों में घूम रहे हैं। अचानक एक नागदेव का दर्शन होता है व नागदेव एक महान तीर्थ का दर्शन कराते हुए संकेत करते हैं कि इस भद्रावती नगरी में श्री केशरिया पार्श्वनाथ भगवान का एक बड़ा तीर्थ है, इसका उद्धार कर । आदेश देने के बाद नागदेव अदृश्य हो जाते हैं। स्वप्न के आधार पर माघ शुक्ला 9 को श्री चतुर्भुज भाई खोज करने निकले। घूमते-घूमते उन्हें उसी तीर्थ स्थान के दर्शन हुए । उन्होंने सारा वृत्तांत चांदा के श्रीसंघ को सुनाया। संघ ने तुरन्त ही उचित कार्यवाही कर, सरकार से उक्त तीर्थ का कार्यभार अपने हस्ते लिया । तभी से भक्तगण प्रभु को स्वप्नदेव श्री केशरिया पार्श्वनाथ भगवान कहने लगे । यहाँ आजकल भी अनेक चमत्कारिक घटनाएँ घटती रहती हैं। प्रति वर्ष पौष कृष्णा 10 को यहाँ मेला लगता है जब दूर दूर के श्रद्धालू भक्तगण हजारों की संख्या में दर्शनार्थ आते है प्रतिवर्ष फाल्गुन शुक्ला 3 को ध्वजा चढ़ाई जाती है । I अन्य मन्दिर * इसके अतिरिक्त श्री आदीश्वर भगवान का मन्दिर, गुरु मन्दिर व श्री पद्मावती देवी का मन्दिर भी इसी बगीचे में स्थित हैं । कला और सौन्दर्य * यहाँ भूगर्भ से प्राप्त अनेकों प्राचीन प्रतिमाएँ है । खण्डहर के अनेक अवशेष भी पाये जाते हैं जिनकी विशिष्ट कलात्मकता दर्शनीय हैं। मन्दिर के ऊपर के भाग में चौमुखी प्रतिमा है। यह प्रतिमा अति प्राचीन है। इस चौमुखी प्रतिमा में 208 भगवान श्री पार्श्वप्रभु श्री चन्द्रप्रभु श्री आदिनाथ प्रभु के प्रतिबिम्ब है, जो इस प्रतिमा की विशेषता है । मार्ग दर्शन * तीर्थ स्थल से 111⁄2 कि. मी. दूरी पर निकटतम रेल्वे स्टेशन भांदक है, जहाँ से रिक्शा, टेक्सी की सुविधाएँ उपलब्ध है । चांदा (चन्द्रपुर ) यहाँ से 32 कि. मी है । भांदक, देहली-चेन्नई ग्रांड ट्रंक रूट पर नागपुर - बलहारशा चन्द्रपुर लाईन में है। भद्रावती गाँव के बस स्टेण्ड से तीर्थ स्थल 100 मीटर की दूरी पर है । तीर्थ स्थल तक पक्की सड़क है । सुविधाएँ * बगीचे के अहाते में ही सर्वसुविधायुक्त 3 धर्मशालाएँ है, जहाँ पर भोजनशाला की भी सुविधाएँ उपलब्ध है। नवीन उपाश्रय का भी निर्माण हुआ है । पेढ़ी * श्री जैन श्वेताम्बर मंडल, पोस्ट : भद्रावती 442 902. जिला चन्द्रपुर, प्रान्त महाराष्ट्र, फोन : 07175-66030. प्राचीन चौमुखी प्रभु प्रतिमाएँ भद्रावती Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अंतरिक्ष पार्श्वनाथ तीर्थ जा सकता है । शंका करना नहीं व न पीछे मुड़कर देखना । उक्त दृष्टांत पर राजा द्वारा अन्वेषण करवाने पर तीर्थाधिराज * श्री पार्श्वनाथ भगवान, श्याम प्रतिमा प्राप्त हुई । राजा ने प्रतिमाजी को विशाल वर्ण, अर्द्ध पद्मासनस्थ, लगभग 107 सें. मी. । जनसमूह के बीच धूमधाम के साथ वैसे ही वाहन पर तीर्थ स्थल * शिरपुर गाँव के एक छोर पर । रखकर उसे एलिचपुर ले जाने का उपक्रम किया, वाहन प्राचीनता * इस भव्य चमत्कारी प्रतिमा का के साथ प्रतिमा चली । पर बीच में राजा के मन में इतिहास बहुत ही प्राचीन है । श्वेताम्बर मान्यतानुसार शंका हुई कि इतनी बड़ी प्रतिमा गाड़ी के साथ आती कहा जाता है, राजा रावण के बहनोई पाताल लंका के है या नहीं । इसलिए उसने शांत हृदय से पीछे मुड़कर राजा खरदूषण के सेवक माली व सुमाली ने पूजा देखा तो प्रतिमाजी उसी जगह पर एक पेड़ के नीचे निमित्त इस प्रतिमा का निर्माण बालू व गोबर से आकाश में अधर स्थिर हो गई । कहा जाता है उस किया था । जाते समय प्रतिमाजी को नजदीक के समय इस प्रतिमाजी के नीचे से घुड़सवार निकल जलकुण्ड में विसर्जित किया था । शताब्दियों तक जाय इतनी ऊँची अधर थी । प्रतिमा जलकुण्ड में अदृश्य रही जो कि विक्रम सं. राजा इस चमत्कारिक घटना से प्रभावित हुआ । 1142 में चमत्कारिक घटनाओं के साथ पुनः प्रकट वहीं पर एक भव्य मन्दिर का निर्माण करवाया व उस हुई । सं. 1142 माघ शुक्ला 5 के दिन नवांगी मन्दिर में प्रभु को प्रतिष्ठित करवाना चाहा । प्रतिष्ठा टीकाकार आचार्य श्री अभयदेवसूरीश्वरजी के सुहस्ते के समय राजा के मन में अहंकार आने के कारण, नवनिर्माणित संघ मन्दिर में प्रतिष्ठित करवाया गया । लाख कोशिश करने पर भी प्रतिमा अपने स्थान से नहीं तत्पश्चात् श्री भावविजयजी गणि के सदुपदेश से हिली । मन्दिर सूना का सूना ही रहा । जो आज भी मन्दिर का जीर्णोद्धार करवाकर उन्हीं के सुहस्ते विक्रम ‘पावली मन्दिर' के नाम से प्रसिद्ध है । जिस पेड़ के सं. 1715 चैत्र शुक्ला 5 के दिन शुभ मुहूर्त में प्रतिष्ठा । नीचे प्रतिमा स्थिर हुई थी वह भी मन्दिर के नजदीक पुनः सम्पन्न हुई । ही स्थित है । प्रतिष्ठा के समय उपस्थित आचार्य श्री विशिष्टता * श्वेताम्बर मान्यतानुसार कहा जाता है कि राजा रावण के बहनोई पाताल लंका के राजा खरदूषण एक बार इस प्रदेश पर से विमान द्वारा गमन कर रहे थे । पूजा व भोजन का समय होने से नीचे उतरे । राजसेवक माली और सुमाली अनवधान से पूजा के लिए प्रतिमा लाना भूल गये थे, इसलिए पूजा के निमित्त यहाँ पर इस प्रतिमा का बालू व गोबर से निर्माण किया और इस स्थान से वापिस जाते समय नजदीक के जलकुण्ड में विसर्जित किया था । प्रतिमा शताब्दियों तक जलकुण्ड में अदृश्य रही। समयान्तर में इस कुण्ड के जल का उपयोग करने पर एलिचपुर के राजा श्रीपाल का कुष्टरोग निवारण हुआ। इस आश्चर्यमयी घटना पर विचार विमग्न चिन्तन करते समय राजरानी को स्वप्न में दृष्टान्त हुआ कि इस जलकुण्ड में श्री पार्श्वप्रभु की प्राचीन व चमत्कारिक प्रतिमा विराजमान है । और राजा टोटे की गाड़ी में सात दिन के बछड़ों को जोतकर उसपर प्रतिमाजी को विराजमान करके बाह्य दृश्य-अंतरिक्षजी खुद सारथि बनकर मन चाहे वहाँ निशंक मन से ले 209 Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अंतरिक्ष पार्श्वनाथ भगवान 210 Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभयदेवसूरीश्वरजी के उपदेश से श्री संघ ने गांव के बीच एक दूसरा विशाल संघ मन्दिर बनवाया और राजा के सान्निध्य में संघ मन्दिर में प्रतिष्ठा करवाने का निर्णय लेने पर प्रतिमाजी का संघ मन्दिर में आगमन हुआ और बड़े उत्साह व मंगलध्वनी के साथ प्रतिष्ठा सम्पन्न हुई । प्रतिष्ठा के समय प्रतिमा जमीन से 6 अंगुल अधर में रही। उसके बाद भी अनेकों चमत्कार होते रहे जिनमें श्री अभयदेवसूरीश्वरजी को धरणेन्द्र देव द्वारा हुए अनेकों चमत्कार विख्यात हैं । वि. सं. 1715 में श्री भावविजयगणिजी को प्रभु दर्शन की अभिलाषा होने पर अंतरिक्षजी आये व भाव से प्रभु दर्शन करने पर आंखों की गई रोशनी फिर से आई, अंधापा दूर हुवा। उन्होंने यहाँ रहकर जीर्णोद्धार करवाया व सं. 1715 चैत्र शुक्ला 5 को पुनः प्रतिष्ठा करवाई उस समय प्रतिमाजी जमीन से एक अंगुल प्रमाण अधर रही, जो अभी भी यथावत है । लेकिन वर्तमान में काल के प्रभाव से बायें घुटने के अग्रभाग के नीचे तथा पीछे के बायें किनारे पर नहिंवत बिन्दुमात्र भाग का स्पर्श हुआ नजर आता है । अभी भी अनेकों चमत्कार होते रहते हैं । प्रति वर्ष फाल्गुन शुक्ला 3 और पोष कृष्णा 10 को वार्षिक मेले होते हैं । श्वेताम्बर व दिगम्बर बंधुगण अपनी अपनी विधिपूर्वक बनाये हुए समय पत्रक के अनुसार हमेशा पूजा करते हैं। अन्य मन्दिर * इसके निकट ही श्री विघ्नहरा पार्श्वनाथ भगवान का सुन्दर कलात्मक शिखरबन्ध श्वेताम्बर मन्दिर है । कला और सौन्दर्य * श्री अंतरिक्ष पार्श्वनाथ भगवान का मन्दिर भोयरें में है । भोयरे के अन्दर स्थित प्राचीनतम तीर्थ यही है । प्राचीन प्रतिमा होने के कारण इसकी कलात्मकता दर्शनीय है । मार्ग दर्शन * तीर्थ स्थल से 19 कि. मी. दूरी पर नजदीक का रेल्वे स्टेशन वासिम है, आकोला से यह स्थल रेल व सड़क मार्ग द्वारा 72 कि. मी. दूर है । नजदीक का बड़ा गाँव मालेगाँव जो कि हिंगोली - बालापुर के रास्ते में शिरपुर से 11 कि. मी. दूरी पर है । इन जगहों से टेक्सी बसों की सुविधाएँ है । मन्दिर तक पक्की सड़क है । कार व बस मन्दिर तक जा सकती है । 136/ R श्री अंतरिक्ष पार्श्वनाथ भगवान सुविधाएँ * मन्दिर के निकट ही श्वेताम्बर धर्मशालाएँ है, जहाँ बर्तन, पानी, बिजली, ओढ़ने-बिछाने के वस्त्र व भोजनशाला की सुविधा उपलब्ध है। पास में ही दिगम्बर धर्मशाला भी है । पेढ़ी * श्री अंतरिक्ष पार्श्वनाथ महाराज संस्थान, पोस्ट : शिरपुर 444504. जिला वासिम प्रान्त महाराष्ट्र, फोन : 07254-34005. 211 Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बंधुओं को मालुम पड़ने पर दर्शनार्थ आने वालों श्री बलसाणा तीर्थ की संख्या निरन्तर बढ़ने लगी । यह प्रतिमा प्रभु श्री विमलनाथ भगवान की अतीव सुन्दर व प्रभावशाली तीर्थाधिराज * श्री विमलनाथ भगवान, श्याम है । प्रतिमा प्रकट होने के पश्चात् पटेल के परिवार में वर्ण, पद्मासनस्थ, लगभग 77 सें. मी. (श्वे. मन्दिर)। ही नही अपितु सारे गांव में शांती व उन्नतिका तीर्थ स्थल * बलसाणा गाँव में । वातावरण फैलने लगा । यहाँ के निकट गाँव के जैन प्राचीनता * आज का छोटासा बलसाणा गांव समाज वाले पटेल परिवार से प्रतिमा प्रदान करने हेतु किसी समय खानदेश के इस सप्तपुड़ा पहाड़ी इलाके अनुरोध कर रहे थे परन्तु पटेल परिवार नहीं देना में नदियाँ से घिरा एक विराट नगर रहने का चाहता था । उल्लेख है । प्रतिमा की शिल्पकला से प्रतीत होता है कि यह आज भी यहाँ-तहाँ स्थित प्राचीन मन्दिरों आदि के प्रतिमा कम से कम 1500 वर्ष प्राचीन तो अवश्य है कलात्मक भग्नावशेष यहाँ के गौरव पूर्ण गरिमामयी अतः यहाँ 1500 वर्ष पूर्व मन्दिर अवश्य था इसमें प्राचीनता की याद दिलाते हैं । कोई सन्देह नहीं । संभवतः उस वैभवपूर्ण समय में यहाँ कई जैन । कोई दैविक संकेत से निकट गांव में चातुर्मासार्थ मन्दिर भी अवश्य रहें होंगे जैसे हर प्राचीन स्थलों पर विराजित वर्धमान तपोनिधि प. पू आचार्य भगवंत श्रीमद् पाये जाते हैं । विजयभुवनभानुसूरीश्वरजी म. साहब के प्रशिष्य प. पु. गणीवर्य श्री विधानन्दविजयजी म.सा. को यहाँ दर्शनार्थ भाग्योदय से एक पटेल परिवार को यहाँ अपने घर आने की भावना हुई व यहाँ पधारे । इनके उपदेश से के निकट की एक टेकरी में से प्रभु प्रतिमा प्राप्त हुई। प्रभावित होकर पटेल परिवार व गांव वालों ने प्रतिमा पटेल परिवार अतीव हर्षोल्लासपूर्वक अपने घर में देने की सहर्ष मंजूरी प्रदान की परन्तु उनकी शर्त थी विराजमान करवाकर अपने ढंग से भावपूर्वक पूजा-अर्चना कि मन्दिर यहीं पर बने । करता रहा । यहाँ से प्रकट हुवे प्रभु को भी संभवतः यहीं पुनः विमलनाथ जिनालय दुर दृश्य-बलसाणा 212 Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिष्ठित होना था अतः सभी की भावना देखकर गुरु भगवंत की भी भावना हुई कि जहाँ प्रतिमा प्रकट हुई उसी स्थान पर पुनः मन्दिर बनवाकर प्रभु को प्रतिष्ठित करना श्रेयकर रहेगा । गुरु भगवंत द्वारा जय ध्वनी के साथ मंजूरी की घोषणा होते ही उपस्थित सभी महानुभावों के चहेरों पर अतीव आनन्दमय खुशी छा गई जो दृश्य देखने योग्य था I मन्दिर का यहीं पर निर्माण करवाकर वि. सं. 2044 मार्गशीर्ष शुक्ला दशमी के शुभ दिन प. पूज्य आचार्य भगवंत श्री राजेन्द्रसूरिजी एवं इस तीर्थ के उद्वारक श्री प. पू. श्री विधानन्दविजयजी (वर्तमान में श्री विधानन्दसूरीश्वरजी) की पावन निश्रा में उसी प्रतिमा की पुनः प्रतिष्ठा सुसम्पन्न हुई । विशिष्टता प्रतिमा प्रकट होते ही गांव में छाया शांती का वातावरण व पुनः प्रतिष्ठाके पश्चात् भी निरन्तर घटती आ रही चमत्कारिक घटनाएँ यहाँ की मुख्य विशेषता है । जैन - जैनेतर सभी दर्शनार्थ आते रहते हैं । खानदेश क्षेत्र का यह भी एक प्राचीनतम वैभवशाली तीर्थ माना जाता है । इसे यहाँ की पंचतीर्थी का एक मुख्य तीर्थ भी कहते हैं । प्रतिवर्ष माग सुदी 10 को ध्वजा चढ़ाई जाती है। अन्य मन्दिर * वर्तमान में इसके अतिरिक्त एक दादावाड़ी हैं । कला और सौन्दर्य * प्रभु प्रतिमा अतीव प्रभावि व सौम्य है । प्राचीन कला के भग्नावशेष इधर-उधर नजर आते हैं, जो अजंता अलोरा कलाकृति की याद दिलाते हैं । मार्ग दर्शन * नजदीक का रेल्वे स्टेशन दोन्डायचा 30 कि. मी. व नन्दुरबार 27 कि. मी. दूर है, जहाँ पर आटो, बस व टेक्सी की सुविधा है । यहाँ से धुलिया 60 कि. मी., नेर 55 कि. मी., दूर है । सभी स्थानों से बस व टेक्सी की सुविधा है । यह स्थान सूरत-नागपूर हाईवे पर साक्री से फांटा तदुपरान्त 4 कि. मी. पर चीमढ़ाना फान्टा से 25 कि. मी. दोन्डायचा रोड़ पर स्थित है। कार व बस मन्दिर तक जा सकती है । सुविधाएँ * ठहरने के लिये मन्दिर के निकट सर्वसुविधायुक्त धर्मशाला हैं, जहाँ भोजनशाला विमलनाथ भगवान-बलसाणा सुविधा भी उपलब्ध है । पेढ़ी * श्री विमलनाथ स्वामी जैन श्वे. पेढ़ी, ( संचालक : श्री शीतलनाथ भगवान संस्थान, धूलिया) पोस्ट : बलसाणा - 424304. तालुका : साक्री, जिला : धूलिया (महाराष्ट्र), फोन: 02568-78214. धूलिया पेढ़ी : 02562-38091. 臨 213 Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A DAM श्री आदिनाथ भगवान-मांगीतुंगी श्री मांगी तुंगी तीर्थ जल कर भस्म हुई तब भावी तीर्थंकर श्री कृष्ण एवं श्री बलराम यहाँ आये थे और इसी गहन जंगल में जरद् कुमार द्वारा चलाये बाण लगने के कारण तीर्थाधिराज * श्री आदीश्वर भगवान, श्वेत श्री कृष्ण का देहान्त हुआ था । इन्हीं पर्वतों के वर्ण, पद्मासनस्थ, लगभग 1.37 मीटर (दि. मन्दिर)। मध्य उनके भ्राता श्री बलरामजी ने श्री कृष्ण का अन्तिम संस्कार किया था जहाँ पर उनका स्मारक अभी तीर्थ स्थल * जंगल में एक ऊँचे पहाड़ पर जिसे भी मौजूद है । बाद में बलरामजी इस संसार को गालना पहाड़ कहते है । समुद्र की सतह से 1371 असार समझकर, इसी घोर जंगल में तपश्चर्या करते मीटर (4500 फुट) की ऊँचाई पर यह तीर्थ हुए पंचम स्वर्ग सिधारे । स्थित है । ___जंगल से घिरे पहाड़ पर जो दो शिखर दिखायी देते प्राचीनता * इस तीर्थ की प्राचीनता एवं काल का हैं वे 'मांगी' और 'तुंगी' नाम से प्रसिद्ध हैं । मार्ग पता लगाना कठिन है । इस पहाड़ पर स्थित मूर्तियों, __ बहुत ही भयानक है । पहाड़ पर अनेकों गुफाएँ हैं गुफाओं, जलकुण्ड, एवं अर्ध मागधी लिपि में लिखे जिनमें अनेकों कलापूर्ण जिन प्रतिमाएँ हैं । गुफाओं में लेखों से यह प्रतीत होता है कि यह तीर्थ हजारों वर्ष एक गुफा 'डोंगरिया देव' नाम से प्रसिद्ध है । प्राचीन है । आदिवासी लोग भी यहाँ की यात्रा कर, अपने को विशिष्टता * कहा जाता है कि यहीं से मर्यादा कृतार्थ समझते हैं । यहाँ के निकट कंचनपुर का किला, पुरुपोत्तम श्री रामचन्द्रजी पवनसुत श्री हनुमानजी तथा मुल्हरे का किला व गाँव ऐतिहासिक है । विक्रम सं. श्री सुग्रीवजी एवं अनेकों मुनिगण मोक्ष को प्राप्त हुए 1822 तक मुल्हरें नगर में सैकड़ों जैन श्रावकों के घर ये । एक किंवदन्ति के अनुसार जब द्वारका नगरी थे व स्थल जाहोजलालीपूर्ण था । कहा जाता है, किसी 214 Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वक्त यहाँ के राजा व तमाम प्रजा जैन थीं । प्रतिवर्ष कार्तिक शुक्ला 13 से पूर्णीमा तक मेला भरता हैं । उसमें हजारों जैन-जैनेतर भाग लेते है । अन्य मन्दिर तलहटी में श्री पार्श्वनाथ भगवान के दो और आदिनाथ भगवान का एक कुल तीन मन्दिर हैं । कला और सौन्दर्य भारत में ऐसे पहाड़ कम होंगे जिनमें गुफाएँ, प्रतिमाएँ तथा जल कुण्डों की भरमार हो । पुरातन कला का भण्डार, इस स्थान का जितना भी वर्णन किया जाय, वह कम है । गुफाओं में प्राचीन कलात्मक जिन प्रतिमाओं के साथ-साथ मुनियों की प्राचीन प्रतिमाएँ एवं नृत्य की मुद्रा में दर्शनीय देवियों की मूर्तियाँ अन्यत्र दुर्लभ है । स्थान-स्थान पर संस्कृत एवं अर्द्ध मागधी भाषा के 'शिला-लेख दिखायी देते है । मार्ग दर्शन * यहाँ से नवापुरा रेल्वे स्टेशन 80 कि. मी. और मनमाड़ 97 कि. मी. दूर है । समीप का बड़ा गाँव ताहराबाद है, जहाँ से तलहटी लगभग 10 कि. मी. है । इन स्थानों से टेक्सी और बस इत्यादि की सुविधाएँ है । तलहटी में स्थित गाँव का नाम भीलवाड़ है । तलहटी मन्दिर से पहाड़ पर स्थित मन्दिर की दूरी लगभग 7 कि. मी. है । गिरिराज की चढ़ाई लगभग 1/2 कि. मी. है, कुल 3260 सीढ़ियाँ है । यहाँ से धुलियाँ लगभग 105 कि. मी. व नासिक 122 कि. मी. दूर है । सुविधाएँ * ठहरने के लिए तलहटी में सर्वसुविधायुक्त धर्मशाला है, जहाँ पर भोजनशाला सहित सारी सुविधाएं उपलब्ध है । पहाड़ पर चढ़ने के लिए डोलियाँ भी उपलब्ध है । पेढी * श्री दिगम्बर जैन सिद्ध क्षेत्र मांगी तुंगीजी पोस्ट : मांगी तुंगी - 423 302. तालुका : सटाणा जिला : नासिक, प्रान्त : महाराष्ट्र, फोन : 02555-38275. मांगी-तुंगी टेकरिओं का दृश्य 215 Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री पार्श्वनाथ भगवान-गजपंथा श्री गजपन्था तीर्थ तीर्थाधिराज * श्री पार्श्वनाथ भगवान, श्याम वर्ण, पद्मासनस्थ, लगभग 1/2 मीटर (दि. मन्दिर)। तीर्थ स्थल * नासिक शहर के पास मसरुल गाँव की एक टेकरी पर । प्राचीनता * जैन शास्त्रों के अनुसार यह एक प्राचीन तीर्थ माना जाता है । इसका उद्धार मैसूर नरेश चामराज उडैयार द्वारा विक्रमी संवत् की नौवीं शताब्दी में करवाये जाने का उल्लेख मिलता है । विशिष्टता * कहा जाता है कि यहाँ से सात बल भद्र मुनि तथा अनेकों यादव वंशी मुनि 'मोक्ष' सिधारे, 216 जिसमें गजसुकुमार मुनि भी थे । इसी लिए इस स्थान का नाम 'गजपन्था' पड़ा । श्री चामराज उडैयार ने जब से इसका उद्धार करवाया तब से लोग इसे 'चामरलेणी' कहने लगे । अन्य मन्दिर * इसके अतिरिक्त यहाँ और कोई मन्दिर वर्तमान में नहीं हैं । कला और सौन्दर्य * छोटे गाँव के जंगल में एक टेकरी पर स्थित इस मन्दिर का दृश्य अत्यधिक मनोरम प्रतीत होता है । मूर्ति भी शान्त, सौम्य और गंभीर मुद्रा में है । मार्ग दर्शन * निकट का रेल्वे स्टेशन नासिक रोड़ 20 कि. मी. की दूरी पर स्थित है । नासिक सिटी से इस तीर्थ की तलहटी 6/2 कि. मी. की दूरी पर है। Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन जगहों से तीर्थ स्थल तक पहुँचने के लिए बस और टेक्सी की सुविधाएँ उपलब्ध है । तलहटी से टेकरी की चढ़ाई 14 कि. मी. है । चढ़ने के लिए सीढ़ियाँ बनी हुई है तथा तलहटी तक पक्की सड़क है। सुविधाएँ * ठहरने के लिए तलहटी में धर्मशाला है, जहाँ पर पानी, बिजली, बर्तन, ओढ़ने-बिछाने के वस्त्र व भोजनशाला की भी सुविधाएँ उपलब्ध है । पेढी *श्री दिगम्बर जैन सिद्ध क्षेत्र गजपन्था संस्थान, पोस्ट : म्हसरूल - 422 004. जिला : नासिक, प्रान्त : महाराष्ट्र, फोन : 0253-530215. पुरातन तीर्थ-गजपंथा 217 Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री चिन्तामणि पार्श्वनाथ जिनालय-पद्मपुर श्री पद्मपुर तीर्थ इस शहर के निकट की प्रायः सभी पहाड़ियों पर अनेकों जैन गुफाएं है जहाँ तीर्थंकर भगवंतो व देव-देवियों आदि की प्रतिमाएं उत्कीर्ण है अतः संभवतः पूर्व काल में इस शहर का घेराव 50-60 मील में अवश्य रहा होगा व ये सारी पहाड़ियाँ व आस-पास के गाँव इसी शहर के अंतर्गत रहे होंगे । जगह-जगह अनेकों मन्दिरों का भी निर्माण हुवा होगा, परन्तु आज स्थित श्वे. मन्दिरों में यह श्री चिन्तामणी पार्श्वनाथ भगवान का मन्दिर प्राचीनतम माना जाता है, जिसकी प्रतिष्ठा 512 वर्ष पूर्व होने का उल्लेख है। संभवतः उस समय जीर्णोद्धार होकर पुनः प्रतिष्ठा हुई हो । प्रभु प्रतिमा प्राचीन हरित वर्ण की अतीव भावात्मक है परन्तु प्रतिमा प्राचीन होने के कारण मोती का विलेपन किया हुवा है अतः सफेद है। विशिष्टता * श्री पद्मप्रभ भगवान के नाम पर यह नगरी बसने के कारण का पता नहीं परन्तु कुछ न कुछ सम्बंध अवश्य ही होगा जो यहाँ की विशेषता है। श्री पार्श्वनाथ भगवान की यह भी विहार भूमी रहने व यहाँ की प्रायः सभी पहाड़ियों पर अनेकों जैन गुफाएँ रहने व उनमें जिन प्रतिमाएं आदि उत्कीर्ण रहने के कारण भी यहाँ की मुख्य विशेषता है । नासिक से 10 कि. मी. दूर चामरलेनी नामक जैन गुफाएं है जिनमें कई प्रतिमाएं है उनमें ग्यारहवीं गुफा में स्थित श्री आदिनाथ प्रभु की पद्मासनस्थ लगभग 67 सें. मी. प्रतिमा अत्यन्त मनोरम हैं । नासिक से 22 कि. मी. पर अंजनेरी पहाड़ पर भी छोटी-बड़ी कई गुफाएं है, जहाँ अनेकों जिन प्रतिमाएं दर्शनीय है । पहाड़ के नीचे भी एक मन्दिर का ध्वंशेष है । इतनी ही दूरी पर चान्दोड गांव के निकट पहाड़ जो समुद्र की सतह से लगभग 4000 फीट ऊंचा है, वहाँ पर भी तीर्थंकर भगवंतों की अनेकों प्रतिमाएं उत्कीर्ण हुई है । यहाँ मनमाड़ से लगभग 10 कि. मी. पर अनकाई-टनकाई की गुफाएं मशहूर है । कुछ ध्वस्त भी हो चुकी है । लगभग 4 गुफाओं में जिन प्रतिमाएँ, यक्ष-यक्षणी की प्रतिमाएँ, कलात्मक स्तंभ, तोरण, गंधर्व-किन्नर, विद्याधरों आदि की प्रतिमाएं व अन्य कलात्मक अवशेष अतीव दर्शनीय हैं । उक्त विवरणों से पता चलता है कि पूर्वकाल में यह तीर्थाधिराज * श्री चिन्तामणि पार्श्वनाथ भगवान, पद्मासनस्थ, श्वेत वर्ण, लगभग 65 सें. मी. (श्वे. मन्दिर) । तीर्थ स्थल * नासिक शहर की पुरानी ताम्बटलेन में जिसे श्री पार्श्वनाथ गली भी कहते हैं । प्राचीनता * आज का नासिक शहर पूर्वकाल में पद्मपुर, कुंभकारकृत, नासिक्यपुर आदि नामों से विख्यात था । उल्लेखों से प्रतीत होता है कि श्री पद्मप्रभ भगवान के नाम पर ही इस नगरी का नाम पद्मपुर पड़ा था व श्री पद्मप्रभु जैन तीर्थ रुप में विख्यात था परन्तु उसके कारण का पता नहीं । संभवतः श्री पद्मप्रभ भगवान का यहाँ पदार्पण हुवा हो या श्री पद्मप्रभु भगवान का कोई विशाल मन्दिर रहा हो या बना हो ___ श्री निशीथचूर्णी ग्रंथ में यहाँ की कथाओं का भी समावेश है । श्री पार्श्वनाथ भगवान की यह भी विहार भूमि रहने का उल्लेख है । कहा जाता है कि आर्य कालकाचार्य ने यहाँ रहकर निमित्त शास्त्र का अभ्यास किया था । 218 Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0102010 श्री चिन्तामणि पार्श्वनाथ-पद्मपुर एक विराट नगरी रही होगी व अनेकों मुनिवरों की विहार व तपोभूमी भी अवश्य रही होगी । ___ अन्य मन्दिर* वर्तमान में इसके अतिरिक्त 6 और श्वे. मन्दिर व 2 दिगम्बर मन्दिर हैं । कला और सौन्दर्य * प्रभु प्रतिमा अतीव कलात्मक व भावात्मक है । मोती का विलेपन किया। हुवा है । मार्ग दर्शन * यहाँ का रेल्वे स्टेशन नासिक रोड़ 8 कि. मी. दूर है । जहाँ पर सभी तरह की सवारी का साधन है । बस स्टेण्ड एक कि. मी. दूर है । मन्दिर तक कार व बस जा सकती है। सुविधाएँ * ठहरने हेतु सर्वसुविधायुक्त धर्मशाला हैं, जहाँ भोजनशाला की सुविधा भी उपलब्ध हैं । पेढ़ी * श्री चिन्तामणि पार्श्वनाथ महाराज जैन श्वे. मन्दिर तथा मूर्तिपूजक संघ, जैन मन्दिर, पुरानी ताम्बट लेन । श्री पार्श्वनाथ मन्दिर गली । पोस्ट : नासिक - 422 001. प्रान्त : महाराष्ट्र, फोन : 0253-502901 व 501061. 219 Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शादी की थी । किसी समय यह स्थल अत्यन्त श्री अगाशी तीर्थ जाहोजलाली पूर्ण रहा होगा । तीर्थाधिराज श्री मुनिसुव्रत स्वामी भगवान की प्रतिमा बहुत ही प्राचीन है जो कि तीर्थाधिराज * श्री मुनिसुव्रत स्वामी भगवान, यहाँ के नालासुपारा के सरोवर में से प्रकट हुई थी पद्मासनस्थ, नील वर्ण, करीब 17 मीटर (श्वे. मन्दिर)। जिसे विक्रम सं. 1892 फाल्गुन कृष्णा 2 के शुभ दिन तीर्थ स्थल * अगासी गाँव के चालपेठ में । इस नवनिर्मित जिनालय में पुनः प्रतिष्ठित करवाया गया । प्राचीनता * इस तीर्थ की प्राचीनता का इतिहास नवपद आराधक राजा श्रीपाल के समय से प्रारम्भ हुआ विशिष्टता * कहा जाता है कि जब मोतीसा सेठ माना जाता है । किसी समय यह स्थल सोपारक नगर का जहाज समुद्र के बीच भारी तूफानों में फंस गया का अंग रहा होगा । सोपारक नगर पश्चात् नालासुपारा था, उस समय उन्होंने प्रतिज्ञा ली कि जिस स्थान पर के नाम से प्रचलित हुआ होगा । सोपारक नगर के यह जहाज बचकर निकलेगा, उसी जगह जिन मन्दिर राजा गुणवन्त की इकलौती शोभावन्त पुत्री तिलकसुन्दरी बनवाऊँगा । दैवयोग से जहाज निर्विघ्न बचकर को सर्प के डसने पर राजा श्रीपालजी ने नवपद की निकला उसी स्थान पर मोतीसा सेठ ने निर्णयानुसार आराधना के प्रभाव से मृत्यु से बचाकर यहीं पर उससे इस भव्य जिन मन्दिर का निर्माण करवाकर यहाँ के निकट 'नाला सुपारा' सरोवर में से प्रकट उक्त भव्य प्रतिमाजी को इस नवनिर्मित मन्दिर में उल्लास व विधिपूर्वक प्रतिष्ठित करवाया । अन्य मन्दिर * वर्तमान में यहाँ पर एक और मन्दिर है । इस मन्दिर में श्री सुपार्श्वनाथ और श्री नेमिनाथ भगवान की दो प्राचीन प्रतिमाएँ भी हैं । __कला और सौन्दर्य * मन्दिर में विराजित प्रतिमाएँ अपनी प्राचीनता एवं कलात्मकता के कारण दर्शनीय हैं । साथ ही नाला सुपारा का तालाब पुरातत्व की दृष्टि से अपना विशेष महत्व रखता है । मार्ग दर्शन * यह तीर्थ स्थल थाना जिले में वसही तालुका के विरार गाँव से लगभग 6 कि. मी. की दूरी पर है । विरार रेल्वे स्टेशन से आटो टेक्सी की सुविधा उपलब्ध है । मुम्बई से विरार के लिये लोकल ट्रेन की सुविधा है । यहाँ से मुम्बई 65 कि. मी. थाना 42 कि. मी. व सूरत लगभग 210 कि. मी. दूर है। सुविधाएँ * ठहरने के लिए मन्दिर के निकट ही धर्मशाला है, जहाँ पर पानी, बिजली, बर्तन, ओढ़ने-बिछाने के वस्त्र, भोजनशाला एवम् भाते की भी सुविधाएँ उपलब्ध है। पेढी * श्री अगासी जैन देरासर एण्ड चैरिटेबल ट्रस्ट, चालपेठ, पोस्ट : अगासी - 401 301. मार्ग : विरार, जिला : थाना, प्रान्त : महाराष्ट्र, श्री अगाशी तीर्थ फोन : 0250-587183. 220 Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HARA श्री मुनिसुव्रत स्वामी भगवान अगाशी 221 Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवेश द्वार कोंकण तीर्थ श्री कोंकण तीर्थ तीर्थाधिराज श्री मुनिसुव्रत स्वामी भगवान, * पद्मासनस्थ (श्वे. मन्दिर ) | तीर्थ स्थल * बम्बई के निकट थाणा गाँव में टेंभीनाका के बीच जिसे कोंकण शत्रुंजय नव पद जिनालय कहते हैं । 222 - प्राचीनता * जनजन में प्रचलित नवपद आराधक राजा श्रीपालजी का इस नगरी से मुख्य सम्बन्ध रहा है । श्रीपालजी ने मदन मंजरी के साथ यहीं पर शादी की थी । यह स्थान प्रागेतिहासिक होने के कारण किसी समय यहाँ पर अनेकों मन्दिर रहे होंगे, ऐसा माना जाता है। इस मन्दिर की प्रतिष्ठा विक्रमी संवत् 2005 के माघ शुक्ला 5 को हुई थी । विशिष्टता * कौशाम्बी नगर के धनिष्ट श्री धवलसेठ द्वारा श्रीपालजी को समुद्र में गिराये जाने के बाद मगरमच्छ ने उन्हें यहीं पर दरिया किनारे छोड़ा था । श्रीपालजी नवपद के कट्टर आराधक थे । नवपद जी के प्रभाव से यहाँ के तत्कालीन राजा वसुपाल ने अपने राज्य के विद्वान ज्योतिषाचार्यों की सलाह से श्रीपालजी को सम्मान पूर्वक राज दरबार में बुलाकर अपनी प्रिय पुत्री मदनमंजरी का विवाह उनके साथ करके अपने को भाग्यवान समझने लगा । श्रीपालजी चंपापुरी नरेश श्री सिंहस्थ के पुत्र ये व सिर्फ पाँच ही वर्ष की अल्प आयु में पिता के देहान्त के पश्चात् उनके चाचे श्री अजितसेन को आये कुविचारों के कारण दुर्भाग्यवश उनकों अपनी माता राणी कमलप्रभा के साथ शहर छोड़ना पड़ा था । मनुष्य अपने कर्म से ही सब कुछ बनता है उसको प्रमाणित करने वाली दृढ़ निश्चयी, जैन धर्म में श्रद्धालु, नवपद की कट्टर आराधिका, उज्जैन के राजा श्री प्रतिपाल की पुत्री श्री मैना सुन्दरी का विवाह कुष्ट रोग से पीड़ित श्रीपाल के साथ हुआ था । परन्तु नवपद की आराधना के प्रभाव से राजा श्रीपाल का कुष्ट रोग निवाराण होकर अत्यन्त रिद्धि-सिद्धि को प्राप्त करके वीरता के साथ जगह-जगह ख्याती पाते हुअ नव राणियों के साथ चम्पापुरी जाकर अपने साहस व बल से पुनः राज्य प्राप्त किया था इन्हीं राजा श्रीपाल व मैनासुन्दरी का रास आज भी जनकल्याण हेतु जन जन में गाया जाता है । प्रतिवर्ष माघ शुक्ला 5 को ध्वजा चढ़ाई जाती है। अन्य मन्दिर * इसके सामने ही श्री आ भगवान का मन्दिर है 1943 में हुई थी । जिसकी प्रतिष्ठा विक्रम संवत् कला और सौन्दर्य * मन्दिर में श्रीपाल राजा, श्री विक्रमादित्य राजा तथा सम्प्रति राजा इत्यादि के जीवन की महत्वपूर्ण घटनाओं के बने भव्य एवं सुन्दर रंग-बिरंगें पट बने हुए हैं, जो बहुत ही आकर्षक है । मार्ग दर्शन यह तीर्थ मुम्बई-पुणे मार्ग पर, मुम्बई से 24 कि. मी. की दूरी पर स्थित है । रेल्वे स्टेशन, तीर्थ स्थल से 111⁄2 कि. मी. की दूरी पर Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2000 श्री मुनिसुव्रतस्वामी भगवान-कोंकण तीर्थ हैं, जहाँ से आटो, टेक्सी व बस की सुविधाएँ पेढ़ी *श्री कोंकण शत्रुजय भगवान मुनिसुव्रत उपलब्ध है । मन्दिर तक पक्की सड़क है । स्वामी नवपद जिनालय, सविधाएँ * मन्दिर के पास ही धर्मशाला है, श्री ऋषभदेवजी महाराज जैन धर्म टेम्पल एण्ड ज्ञाती जहाँ पर पानी, बिजली, बर्तन, ओढ़ने-बिछाने के वस्त्र ट्रस्ट, जैन मन्दिर मार्ग, टेंभी नाका । व भोजनशाला आदि की पुर्ण सुविधाएँ है । यहाँ पर पोस्ट : थाणा - 400601. आयम्बिलशाला, राजस्थान पंचायत भवन व उपाश्रय भी। जिला : थाणा, प्रान्त : महाराष्ट्र, है । हर शनि एवं रविवार को यात्रियों के लिए भाते फोन : 022-5472389 व 5475811. की व्यवस्था है । Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से किया हुआ है । यहाँ पर कई दिगम्बर आचार्यों के श्री दहीगाँव तीर्थ तैल चित्र लगे हुए हैं, जो दर्शनीय हैं ।। ___ मार्ग दर्शन * यहाँ से नजदीक का रेल्वे स्टेशन तीर्थाधिराज * श्री भगवान महावीर, पद्मासनस्थ, पण्डरपुर है जो 64 कि. मी. की दूरी पर स्थित है । श्याम वर्ण, 2.44 मी. (आठ फुट) (दि. मन्दिर) । यहाँ से लोणन्द 70 कि. मी. की दूरी पर है । सड़क तीर्थ स्थल * दहीगांव के मध्य । मार्ग द्वारा सतारा से 129 कि. मी. बरामती से 28 प्राचीनता * इस तीर्थ का पुनः निर्माण होकर विक्रम । कि. मी. व सोलापुर से 140 कि. मी. है । तीर्थ स्थल संवत् 1910 में पण्डितजी गुणचन्द्रजी के द्वारा प्रतिष्ठापना पहुँचने के लिए नातापोता होकर आना पड़ता है, जो संपन्न हुई थी। लगभग 5 कि. मी. की दूरी पर है । विशिष्टता * यहाँ पर परमपूज्य महतीसागर जी सुविधाएँ * ठहरने के लिए धर्मशाला है, जहाँ महाराज की चरणपादुकाएँ हैं जिनकी प्रतिष्ठा विक्रम बिजली, पानी, बर्तन, की सुविधा है । पूर्व सुचना पर संवत् 1889 कार्तिक कृष्णा 2 को हुई थी । कहा भोजन की भी व्यवस्था हो सकती है । जाता है यह चमत्कारी स्थल है व यहाँ पर ध्यान पेढ़ी * श्री महावीर स्वामी दिगम्बर जैन अतिशय धरने से भक्तगणों के मानसिक एवं शारीरिक क्लेश दूर क्षेत्र, होते हैं । पोस्ट : दहीगाँव - 413 122. तालुका : मालसिरस, अन्य मन्दिर * वर्तमान में इसके अतिरिक्त यहाँ पर जिला : सोलापुर, प्रान्त : महाराष्ट्र, और कोई मन्दिर नहीं है । फोन : 02185-77282. कला और सौन्दर्य * मन्दिर की दीवारों पर प्राचीन चित्रकारी का काम प्रभावकारी एवं सुन्दर ढंग मन्दिर का दूर दृश्य-दहीगाँव 224 Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Signose मा only fat is the MAAMIRNEHATIONATERRIGHरकामदारक मानसीANTHI सीमasalilianit श्री महावीर भगवान-दहीगाँव 225 Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ...... कला और सौन्दर्य * यह स्थान जंगल में स्थित पहाड़ी पर अत्यधिक सुन्दर एवं भव्य प्रतीत होता है । यहाँ के पहाड़ी पर से जंगल और छोटे छोटे गाँवों में हरे-भरे लहलहाते खेतों का दृश्य सुन्दर और आकर्षक लगता है । मार्ग दर्शन * यहाँ से नजदीक का रेल्वे स्टेशन हाथकणंगडे है, जो कोल्हापूर से मिरज रोड़ में स्थित है । वहाँ से तीर्थ स्थल की दूरी 8 कि. मी. है । जहाँ से बस, टेक्सी व आटो की सुविधाएँ है । कोल्हापूर, सांगली व मिरज से तीर्थ स्थल की दूरी लगभग 30 कि. मी. है, जो कोल्हापूर-मिरज मार्ग में स्थित है । तीर्थ स्थल के समीप तक पक्की सड़क है । पहाड़ पर चढ़ने के लिए 360 सीढ़ियाँ बनी हुई है, सिर्फ 15 मिनट का रास्ता है । सुविधाएँ * पहाड़ की तलहटी में सर्वसुविधायुक्त विशाल धर्मशाला है, जहाँ पर भोजनशाला की भी सुविधा उपलब्ध है । पहाड़ पर भी मन्दिर के पास ही पहाड़ पर मन्दिर का दृश्य-कुंभोजगिरि धर्मशाला है, जहाँ पर पानी, बिजली की सुविधा है । भाता भी दिया जाता है । यहाँ पर तलहटी के पास साधु-साध्वीजी के लिए अलग उपाश्रय व आराधना हाल है । संघ वालों के लिए अलग से रसोडे की भी सुविधाएँ उपलब्ध है । श्री कुम्भोजगिरि तीर्थ पेढी *श्री जगवल्लभ पार्श्वनाथ जैन श्वेताम्बर मन्दिर ट्रस्ट, कुम्भोजगिरि तीर्थ, तीर्थाधिराज * श्री जगवल्लभ पार्श्वनाथ भगवान, पोस्ट : बाहुबली - 416 113. तालुका : हाथकणंगडे, श्वेत वर्ण, पद्मासनस्थ, लगभग एक मीटर (श्वे. मन्दिर)। जिला : कोल्हापुर, प्रान्त : महाराष्ट्र, तीर्थ स्थल * छोटी पहाडी के ऊपर जंगल में । फोन : 0230-584445. प्राचीनता * यहाँ की सही प्राचीनता का पता 0230-584456 (पहाड़ पर) | लगाना मुश्किल है, इस मन्दिर का पुनः उद्धार होकर प्रतिष्ठा विक्रम संवत् 1926 माघ शुक्ला 7 को हुए का उल्लेख है । विशिष्टता * श्वेताम्बर समुदाय इसे दक्षिण महाराष्ट्र का शत्रुजय मानते हैं । कार्तिक पूर्णिमा, चैत्र पूर्णिमा व पोष कृष्णा 10 को यहाँ पर मेला लगता है । उन अवसरों पर हजारों भक्तगण भाग लेकर प्रभु भक्ति का लाभ लेते हैं । अन्य मन्दिर * वर्तमान में इसके अतिरिक्त एक और दिगम्बर मन्दिर हैं । व तलहटी में एक श्वेताम्बर मन्दिर है । 226 Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जगवल्लभ पार्श्वनाथ भगवान-कुंभोजगिरि Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री बाहुबली तीर्थ तीर्थाधिराज * श्री बाहुबली भगवान, खड्गासन मुद्रा में, श्वेत वर्ण, लगभग 8.5 मीटर (28 फुट)। तीर्थ स्थल * छोटी सी पहाड़ी की ओट में । प्राचीनता * कहा जाता है लगभग साढ़े तीन सौ वर्ष पूर्व एक प्रकाण्ड दिगम्बर आचार्य ने यहाँ पर घोर तपश्चर्या की थी । पहाड़ पर कुछ प्राचीन मन्दिर भी हैं । इस नूतन मन्दिर की प्रतिष्ठापना परम पूज्य 108 आचार्य श्री समन्तभद्रजी महाराज की निश्रा में दिनांक 8.2.1963 को सम्पन्न हुई थी । विशिष्टता * कहा जाता है यह अनेकों मनियों की तपोभूमि है । दिगम्बर मान्यतानुसार यह अतिशय क्षेत्र माना जाता है । प्रतिवर्ष माघ शुक्ला 7 को ध्वजा दिवस समारोह होता है । अन्य मन्दिर * इस मन्दिर के अहाते में ही विभिन्न सिद्ध क्षेत्रों की प्रतिकृतियाँ व समवसरण बड़े ही सुन्दर व कलात्मक ढंग से आकर्षक बने हुए है । पहाड़ पर श्वेताम्बर व दिगम्बर मन्दिर हैं । कला और सौन्दर्य * यह स्थान जंगल में स्थित पहाड़ी की ओट में अत्यधिक सुन्दर व मनोरम प्रतीत होता है । श्री बाहुबली भगवान की शान्त, सुन्दर और मनोहर मूर्ति पहाड़ी की ओट में रहने के कारण यहाँ का दृश्य देखने में बड़ा ही रोचक लगता है । समवसरण की रचना कलात्मक व भावात्मक ढंग से की गयी है । मार्ग दर्शन * यहाँ से नजदीक का रेल्वे स्टेशन हाथकणंगडे है, जो कोल्हापूर-मिरज मार्ग में स्थित है, वहाँ से तीर्थ स्थल की दूरी 8 कि. मी. है । वहाँ से कलात्मक समवसरण-बाहुबली 228 Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TE CEF mat MAHATilkinitelliliane श्री बाहुबली भगवान-बाहुबली बस, टेक्सी व आटो की सुविधाएँ उपलब्ध है । कोल्हापूर से तीर्थ स्थल की दूरी लगभग 30 कि. मी. है, कोल्हापूर-मिरज रोड़ मार्ग में स्थित है । तीर्थ स्थल के समीप तक पक्की सड़क है । सविधाएँ * मन्दिर के निकट ही धर्मशाला है, जहाँ पर बिजली, पानी, बर्तन, ओढ़ने-बिछाने के वस्त्र व भोजनशाला इत्यादि की सुविधाएँ उपलब्ध है ।। पेढ़ी * श्री बाहुबली विद्यापीठ (अतिशय क्षेत्र श्री बाहुबली) पोस्ट : बाहुबली - 416 113. तालुका : हाथकणंगडे, जिला : कोल्हापुर, प्रान्त : महाराष्ट्र, फोन : 0230-584422. 229 Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर भगवन्तों सम्बन्धी आवश्यक नाम माता का नाम पिता का नाम जन्म-कुल च्यवन तिथी च्यवन व जन्मस्थान जन्म तिथी श्री आदिनाथ भगवान मरुदेवी नाभिकुलकर इक्ष्वाकुवंश अयोध्या चैत्र कृष्णा 8 श्री अजितनाथ भगवान विजया राणी राजा जितशत्रु वैशाख शुक्ला 13 अयोध्या माघ शुक्ला 8 श्री संभवनाथ भगवान सेना राणी राजा जितारि फाल्गुन शुक्ला 8 श्रावस्ती मिगसर शुक्ला 14 श्री अभिनंदनस्वामी भगवान सिद्धार्था देवी राजा संवर वैशाख शुक्ला 4 अयोध्या माघ शुक्ला 2 श्री सुमतिनाथ भगवान मंगला देवी राजा मेघ श्रावण शुक्ला 2 अयोध्या वैशाख शुक्ला 8 श्री पद्मप्रभ भगवान सुसीमा देवी राजा श्रीधर माघ कृष्णण 6 कौशाम्बी कार्तिक कृष्णा 12 श्री सुपार्श्वनाथ भगवान पृथ्वी देवी राजा प्रतिष्ठ भाद्रवा कृष्णा भदेनी (बनारस) ज्येष्ठ शुक्ला 12 श्री चन्द्रप्रभ भगवान लक्ष्मणा देवी राजा महासेन चैत्र कृष्णा 5 चन्द्रपुरी पौष कृष्णा 12 श्री सुविधिनाथ भगवान रामा राणी राजा सुग्रीव फाल्गुन कृष्णा १ काकंदी मिगसर कृष्णा 5 श्री शीतलनाथ भगवान नंदा राणी राजा दृढ़रथ वैशाख कृष्णा 6 भद्दिलपुर माघ कृष्णा 12 श्री श्रेयांसनाथ भगवान विष्णुदेवी राजा विष्णु ज्येष्ठ कृष्णा 6 सिंहपुरी फाल्गुन कृष्णा 12 श्री वासुपूज्य भगवान जया देवी राजा वासुपूज्य ज्येष्ठ शुक्ला चंपापुरी फाल्गुन कृष्णा 14 श्री विमलनाथ भगवान श्यामा देवी राजा कृतवर्म वैशाख शुक्ला 12 कम्पिलाजी माघ शुक्ला 3 श्री अनन्तनाथ भगवान । सुयशा राणी राजा सिंहसेन श्रावण कृष्णा 7 अयोध्या वैशाख कृष्णा 13 श्री धर्मनाथ भगवान सुव्रता राणी राजा भानु वैशाख शुक्ला 7 रत्नपुरी माघ शुक्ला 3 श्री शान्तिनाथ भगवान अचिरा राणी राजा विश्वसेन भादवा कृष्णा 7 हस्तिनापुर ज्येष्ठ कृष्णा 13 श्री कुंथुनाथ भगवान श्रीराणी श्रावण कृष्णा 9 हस्तिनापुर वैशाख कृष्णा 14 राजा शूरसेन राजा सुदर्शन श्री अरनाथ भगवान देवी राणी फाल्गुन शुक्ला 2 हस्तिनापुर मिगसर कृष्णा 10 श्री मल्लिनाथ भगवान प्रभावती राणी राजा कुंभ फाल्गुन शुक्ला 4 मिथिला मिगसर शुक्ला 11 श्री मुनिसुव्रतस्वामी भगवान प्रद्मावती राणी राजा सुमित्र हरि वंश श्रावण पूर्णिमा राजगृही ज्येष्ठ कृष्णा 8 श्री नमिनाथ भगवान विप्रा राणी राजा विजय इक्ष्वाकुवंश आसोज पूर्णिमा मिथिला श्रावण कृष्णा 8 श्री नेमिनाथ भगवान शिवादेवी राजा समुद्रविजय हरिवंश कार्तिक कृष्णा 12 सौरीपुर श्रावण शुक्ला 5 श्री पार्श्वनाथ भगवान वामा देवी राजा अश्वेसन इक्ष्वाकुवंश ___चैत्र कृष्णा 4 भेलुपुर (बनारस) पौष कृष्णा 10 श्री महावीर भगवान त्रिशला देवी राजा सिद्धार्थ इक्ष्वाकुवंश आषाढ़ शुक्ला 6 क्षत्रियकुण्ड चैत्र शुक्ला 13 230 Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जानकारी (श्वेताम्बर मान्यतानुसार) जन्म नक्षत्र लक्षण शरीर प्रमाण शरीर वर्ण विवाहित/अविवाहित दीक्षा स्थान दीक्षा तिथी उत्तराषाढ़ा 500 धनुष सुवर्ण विवाहित अयोध्या चैत्र कृष्णा 8 वृषभ हस्ती रोहिणी 450 धनुष अयोध्या माघ शुक्ला १ मृगशिर अश्व 400 धनुष श्रावस्ती मिगसर पूर्णिमा पुनर्वसु वानर 350 धनुष अयोध्या माघ शुक्ला 12 मघा कौंच पक्षी 300 धनुष अयोध्या वैशाख शुक्ला चित्रा पद्म 250 धनुष लाल कौशाम्बी कार्तिक कृष्णा 13 विशाखा स्वस्तिक 200 धनुष सुवर्ण भदैनी (बनारस) ज्येष्ठ शुक्ला 13 अनुराधा चन्द्र 150 धनुष श्वेत चन्द्रपुरी पौष कृष्णा 13 मूला मगर 100 धनुष काकंदी मिगसर कृष्णा 6 पूर्वाषाढ़ा श्रीवत्स 90 धनुष सुवर्ण भदिलपुर माघ कृष्णा 12 श्रवण गैंडा 80 धनुष सिंहपुरी फाल्गुन कृष्णा 13 शतभिषाखा महिष 70 धनुष लाल अविवाहित चंपापुरी फाल्गुन अमावश्या उत्तराभाद्रपद वराह 60 धनुष सुवर्ण विवाहित कम्पिलाजी माघ शुक्ला 4 रेवती बाज पक्षी 50 धनुष अयोध्या वैशाख कृष्णा 14 पुष्य बज 45 धनुष रत्नपुरी माघ शुक्ला 13 भरणी 40 धनुष हस्तिनापुर ज्येष्ठ कृष्णा 14 कृत्तिका छाग 35 धुनष हस्तिनापुर वैशाख कृष्णा 5 रेवती नंदावर्त 30 धनुष हस्तिनापुर मिगसर शुक्ला 11 अश्विनी कलश 25 धनुष नीला अविवाहित मिथिला मिगसर शुक्ला 11 श्रवण कच्छप 20 धनुष श्याम विवाहित राजगृही फाल्गुन शुक्ला 12 अश्विनी कमल 15 धनुष सुवर्ण मिथिला आषाढ़ कृष्णा १ चित्रा शंख 10 धनुष श्याम अविवाहित सौरीपुर श्रावण शुक्ला 6 अनुराधा सर्प १हाथ नीला विवाहित भेलुपुर (बनारस) पौष कृष्णा 11 उत्तरा फाल्गुनी सिंह 7 हाथ सुवर्ण क्षत्रियकुण्ड मिगसर कृष्णा 10 231 Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकर भगवन्तो सम्बन्धी आवश्यक वृक्ष-जिसके नीचे केवल ज्ञान तिथी गणघरों की संख्य केवल ज्ञान हुआ दीक्षा पश्चात् प्रथम पारणा नाम छदास्त काल केवलज्ञान स्थान श्री आदिनाथ भगवान एक हजार वर्ष पुरिमताल 400 दिन बाद गन्ने के रस से फाल्गुन कृष्णा 11 वट वृक्ष श्री अजितनाथ भगवान 12 वर्ष अयोध्या 2 दिन बाद खीर से (परमान्न) पौष शुक्ला 11 साल वृक्ष श्री संभवनाथ भगवान 14 वर्ष श्रावस्ती कार्तिक कृष्णा 5 प्रियाल वृक्ष श्री अभिनंदनस्वामी भगवान " 18 वर्ष अयोध्या पौष शुक्ला 14 प्रियंगु वृक्ष श्री सुमतिनाथ भगवान 20 वर्ष अयोध्या चैत्र शुक्ला 11 साल वृक्ष श्री पद्मप्रभ भगवान 6 महीने कौशाम्बी चैत्री पूर्णिमा छत्र वृक्ष श्री सुपार्श्वनाथ भगवान श्री चन्द्रप्रभ भगवान 9 महीने 3 महीने भदैनी (बनारस) फाल्गुन कृष्णा 6 चन्द्रपुरी फाल्गुन कृष्णा 7 काकंदी कार्तिक शुक्ला 3 सिरीस वृक्ष पुन्नाग वृक्ष श्री सुविधिनाथ भगवान 4 महीने मालूर वृक्ष श्री शीतलनाथ भगवान 3 महीने भद्दिलपुर पौष कृष्णा 14 प्रियंगु वृक्ष श्री श्रेयांसनाथ भगवान 2 महीने सिंहपुरी माघ कृष्णा 3 तंदुक वृक्ष श्री वासुपूज्य भगवान 1 महीना चंपापुरी माघ शुक्ला 2 पाटल वृक्ष श्री विमलनाथ भगवान 2 महीने कम्पिलाजी पौष शुक्ला 6 जंबू वृक्ष श्री अनन्तनाथ भगवान 3 वर्ष अयोध्या वैशाख कृष्णा 14 अशोक वृक्ष श्री धर्मनाथ भगवान 2 वर्ष रत्नपुरी पौष पूर्णिमा दधिपर्ण वृक्ष श्री शान्तिनाथ भगवान 1 वर्ष हस्तिनापुर पौष शुक्ला १ नंदी वृक्ष श्री कुंथुनाथ भगवान 16 वर्ष हस्तिनापुर चैत्र शुक्ला 3 भीलक वृक्ष श्री अरनाथ भगवान 3 वर्ष हस्तिनापुर कार्तिक शुक्ला 12 आम वृक्ष श्री मल्लिनाथ भगवान 1 दिन-रात मिथिला मिगसर शुक्ला 11 अशोक वृक्ष श्री मुनिसुव्रतस्वामी भगवान 11 महीने राजगृही फाल्गुन कृष्णा 12 चंपक वृक्ष श्री नमिनाथ भगवान 9 महीने मिथिला मिगसर शुक्ला 11 बकुल वृक्ष श्री नेमिनाथ भगवान 54 दिन गिरनार आसोज अमावस्या वेडस वृक्ष श्री पार्श्वनाथ भगवान 84 दिन घातकी वृक्ष श्री महावीर भगवान 12 वर्षे 6.5 महीने भेलुपुर (बनारस) चैत्र कृष्णा 4 ऋजुबालुका नदी वैशाख शुक्ला 10 के किनारे साल वृक्ष 232 Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जानकारी (श्वेताम्बर मान्यतानुसार ) प्रथम आर्य प्रथम गणधर पुंडरीक सिंहसेन चारु वज्रनाभ चरम प्रद्योतन विदर्भ दिन बराहक नंद कच्छप सुभूम मंदर जस अरिष्ट चक्रयुध सांब कुंभ F अभीक्षक मल्लि शुभ वरदत्त आर्यदत्त गौतम ब्राह्मी फाल्गु श्यामा अजिता काश्यपि रति सोमा सुमना वारुणी सुयशा धारणी धरणी धरा पदमा आर्य शिवा सुची दामिनी रक्षिता घुमती पुष्यमती अनिला यक्षदिन्ना पुष्पचूहा चंदनबाला यक्ष का नाम गोमुख महा यक्ष त्रिमुख यक्षनायक तुम्बरु कुसुम मातंग विजय अजित ब्रह्मा यक्षराज कुमार षण्मुख पाताल किन्नर गरुड़ गंधर्व यक्षराज कुबेर वरुण भृकुटी गोमेध पार्श्व ब्रह्मशान्ति यक्षिणी का नाम चक्रेश्वरी अजितबाला दुरितारि काली महाकाली श्यामा शांता भृकुटी सुतारका अशोका मानवी चण्डा विदिता अंकुश कंदर्पा निर्वाणी बला धारिणी धरणप्रिया नरदत्ता गांधारी अम्बिका पद्मावती सिद्धायिका मोक्ष तिथी प्रभु के संग को प्राप्त साधु माघ कृष्णा 13 चैत्र शुक्ला 5 चैत्र शुक्ला 5 वैशाख शुक्ला 8 चैत्र शुक्ला 9 मिगसर कृष्णा 11 फाल्गुन कृष्णा 7 भाद्रवा कृष्णा 7 भाद्रवा शुक्ला 9 वैशाख कृष्णा 2 श्रावण कृष्णा 3 आषाढ शुक्ला 14 आषाढ कृष्णा 7 चैत्र शुक्ला 5 ज्येष्ठ शुक्ला 5 ज्येष्ठ कृष्णा 13 वैशाख कृष्णा मिगसर शुक्ला 10 फाल्गुन शुक्ला 12 ज्येष्ठ कृष्णा 9 वैशाख कृष्णा 10 आषाढ़ शुक्ला 8 श्रावण शुक्ला 8 कार्तिक अमावस्या अकेले दस हजार एक हजार एक हजार एक हजार एक हजार 308 500 एक हजार एक हजार एक हजार एक हजार 600 600 700 108 900 एक हजार एक हजार 500 एक हजार एक हजार 536 33 साधु मोक्ष स्थान अष्टापद सम्मेतशिखर चम्पापुरी सम्मेतशिखर गिरनार सम्मेतशिखर पावापुरी 233 Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "तीर्थाधिराज-तीर्थस्थल'' श्री आदिनाथ भगवान * कठगोला, खण्डगिरि-उदयगिरि, श्री कुंथुनाथ भगवान * हस्तिनापुर, सम्मेतशिखर, पुरिमताल, कांगड़ा, सरहिन्द, नागौर, अमरसागर, चित्रकूट, मुनिगिरि, केशरियाजी, आयड, डुंगरपुर, राजनगर, देवकुलपाटक, नाइलाई, श्री अरनाथ भगवान * हस्तिनापुर, सम्मेतशिखर, राणकपुर, वेलार, कोलरगढ़, सिरोही, लोटाणा, झाड़ोली, श्री मल्लिनाथ भगवान * भोयणी, मन्नारगुड़ी, लाज, ओर, अचलगढ़ आबुदेलवाड़ा, मान्डलगढ़, पुनाली, सम्मेतशिखर, मिथिला 8 हंडाउद्रा, जूनाडीसा, थराद, मेत्राणा, ऊना, कदम्बगिरि, श्री मनिसव्रतस्वामी भगवान * भरूच, अगाशी, हस्तगिरि, शत्रुजयगिरि, वल्लभीपुर, उपरियाला, वामज, कावी, कोंकण, विदिशा, राजगृही, सम्मेतशिखर । झगड़िया, आनन्दपुर, दांतपाटक, तालनपुर, बावनगजाजी, श्री नमिनाथ भगवान * सम्मेतशिखर, मिथिला में मोहनखेड़ा, बिम्बडौद, परासली, बदनावर, युवौनजी, पपोराजी, द्रोणगिरि, धारानगरी, मांगी-तुंगी, कुलपाकजी, पुड़ल (केशरवाड़ी), श्री नेमिनाथ भगवान * सौरीपुर, नाड़लाई, कुण्डलपुर (मध्य प्रदेश), अष्टापद 8 कुम्भारियाजी, भोरोल, वालम, गिरनार, पारोली, नवानगर, श्री अजितनाथ भगवान * अयोध्या, वाव, तारंगा, रत्नावली, इंगलपथ, कारकल, तिरुमलै, सम्मेतशिखर, श्री पार्श्वनाथ भगवान * सम्मेतशिखर, अजीमगंज, श्री संभवनाथ भगवान * जियागंज, श्रावस्ती, महिमापुर, भेलुपुर, अहिच्छत्र, आगरा, इन्द्रपुर, इन्द्रप्रस्त, फलवृद्धि पार्श्वनाथ, कापरड़ा, गांगाणी, जैसलमेर, लोद्रवपुर, कोजरा डेरणा, अजयमेरु, सम्मेतशिखर, ब्रह्मसर, पोकरण, नाकोड़ा, नागेश्वर, वटपद्र, करेड़ा, वरकाणा, श्री अभिनंदस्वामी भगवान * अयोध्या, सम्मेतशिखर, बाली, पाली, सेसली, उथमण, गोहिली, मीरपुर, नीतोड़ा, श्री सुमतिनाथ भगवान * तालध्वजगिरि, मातर, काछोली, भिनमाल, किंवरली, जीरावला, कुकुटश्वर, रावण अयोध्या, सम्मेतशिखर, इन्द्रप्रस्त पार्श्वनाथ, चंवलेश्वर, मान्डव्यपुर, प्रहलादनपुर, ढीमा, पाटण, श्री पद्मप्रभ भगवान * कौशाम्बी, नाड़ोल, महुडी, वड़ाली, मोटापोसीना, मोढ़ेरा, गांभू कम्बोई, चाणश्मा, चारुप, लक्ष्मणी, पद्मप्रभुजी, पभोषा, सम्मेतशिखर, भीलड़ियाजी, तेरा, सुथरी, दीव, अजाहरा, देलवाड़ा (गुजरात), श्री सुपार्श्वनाथ भगवान * भदैनी, माण्डवगढ, घोघा, धोलका, शखेश्वर, शेरीशा, खंभात, पावागढ़, दर्भावती, सम्मेतशिखर, देवपत्तन, अमीझरा, अवन्ती पार्श्वनाथ, उन्हेल, अलौकिक श्री चन्द्रप्रभ भगवान * चन्द्रपुरी, जमणपुर, नलिया, पार्श्वनाथ, भलवाड़ा, वही पार्श्वनाथ, दशपुर, नैनागिरि, भद्रावती, अंतरिक्ष पार्श्वनाथ, मक्षी, गजपंथा, कुम्भोजगिरि, प्रभाष पाटण, सोनगिर, धर्मस्थल, हेमकूट-रत्नकूट, पद्मपुर, गुड़िवाड़ा, अमरावती, गुम्मीलेरु, हुम्बज, वारंग, सम्मेतशिखर, विजयमंगलम्, मुड़बिद्री, जिनगिरि, कलिकुण्ड, पालकुन्नू । श्री सविधिनाथ भगवान * काकन्दी, सम्मेतशिखर, श्री महावीरस्वामी भगवान * क्षत्रियकुण्ड, ऋजुबालुका, सियाणा । पावापुरी, वैशाली, महावीरजी, खिंवसर, ओसियाँ, मुछाला श्री शीतलनाथ भगवान * वामस्थली, विदिशा, कलकत्ता, महावीरजी, हथुण्डी, कोस्टा, राइबर, वीरवाड़ा, बामनवाड़ा, सम्मेतशिखर, भद्दिलपुर 8 नान्दिया, अजारी, दियाणा, नाणा, पिण्डवाड़ा, भान्डवाजी, श्री श्रेयांसनाथ भगवान * सिंहपुरी, सम्मेतशिखर, स्वर्णगिरि (जालोर), सत्यपुर, देलदर, मुण्डस्थल, वरमाण, श्री वासुपूज्य भगवान * होशियारपुर, तिवरी, मण्डार, धवली, खेड़ब्रह्मा, जखौ, भद्रेश्वर, कटारिया, महुवा, मन्दारगिरि, चम्पापुरी । पानसर, बोड़ेली, सिद्धवरकूट, कुण्डलपुर (मध्य प्रदेश), दहीगाँव, जिनकांची, गंधार, पोन्नूरमलै ।। श्री विमलनाथ भगवान * बलसाणा, कम्पिलाजी, पेदमीरम्, सम्मेतशिखर, श्री बाहुवली भगवान * बाहुबली, श्रवणबेलगोला, श्री अनंतनाथ भगवान * अयोध्या, सम्मेतशिखर, श्री सीमंधरस्वामी भगवान * मेहसणा, दंताणी । श्री धर्मनाथ भगवान * रत्नपुरी, खुडाला, कर्णावती श्री गौतमस्वामीजी * गुणायाजी, कुण्डलपुर (बिहार) (अहमदाबाद), कावी, सम्मेतशिखर, श्री जम्बस्वामीजी * इन्द्रपुर . श्री शांतिनाथ भगवान * देवगढ़, हस्तिनापुर, नागहृद, श्री विशालनाथ स्वामी * पाटलीपुत्र जाखोड़ा, खिमेल, सेवाड़ी, सांडेराव, सिवेरा, धनारी, वाटेरा, ॐ ये स्थान अज्ञात हैं । कहा जाता है कि तिब्बत के पास कासीन्द्रा, आहोर, विजयपुरपत्तन, ईडर, शीयाणी, कोठारा, कैलाश ही अष्टापद है, मिथिला, नेपाल के निकट है व दाठा, भोपावर, अहारजी, खजुराहो, सेमलिया, पावागिरि, भद्दिलपुर गया के निकट है । विदिशा (म.प्र.) को भी रामटेक, सम्मेतशिखर, भद्दिलपुर बतातें है । 234 Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कम से कम १०८ ग्रंथों की अग्रीम बुकिंग करने व करवाने में सहयोग देनेवाले संस्थाओं व महानुभावों की नामावली । 108 - 108 - 108 * योगिराज विजय शांतीसूरीश्वरजी गुरु मन्दिर चिंतादरीपेट, चेन्नई - 600 002. - 201 * श्री आदिनाथ जैन श्वेताम्बर मन्दिर, (केशरवाड़ी) पुड़ल, चेन्नई - 600 066. - 131 श्री शांतीनाथजी जैन श्वेताम्बर मन्दिर पट्टालम, चेन्नई - 600 012. - 108 श्री चन्द्रप्रभुजी जैन श्वेताम्बर नया मन्दिर, साहुकारपेट, चेन्नई - 600 079. - 108 मुनिसुव्रतस्वामीजी जैन श्वेताम्बर मन्दिर, कलाडीपेट, चेन्नई - 600 019. - 108 राजेन्द्रसूरीश्वरजी जैन ट्रस्ट, साहुकारपेट, चेन्नई - 600 003. श्री मानकलालजी उदेराजजी वैद परिवार, चेन्नई - 600 007. केवलचंदजी जवाहरलालजी खटोड़ परिवार, चेन्नई - 600 010. * श्री मोहनलालजी भेरुलालजी कोठारी परिवार, सोलापुर (महाराष्ट्र) * श्री विमलचंदजी यशंवतकुमारजी झाबख परिवार, हैदराबाद (A.P.) - 108 * श्री छगनलालजी हीराचंदजी (रतन अलेक्ट्रीकल्स), चेन्नई - 600 079. केशरीमलजी सागरमलजी भन्डारी परिवार, चेन्नई - 600 007. * श्री सुमेरमलजी सुरेशकुमारजी लूणावत परिवार, चेन्नई - 600 079. * श्री यम. गौतमचंदजी हरीशचंदजी बेताला परिवार, मुम्बई - चेन्नई अमरचंदजी अशोकचंदजी छाजेड़ परिवार, चेन्नई - 600 002. श्री यस. अमरचंदजी अशोककुमारजी कोचर परिवार, ईरोड़ (तमि.) व दिल्ली - 108 - 108 -, 108 - 108 - 108 108 * श्री जैन संकल संघ वेलूर, (तमिलनाडु) - 108 - 108 * श्री जय जिनेन्द्र सेवा संघ, पूना (महाराष्ट्र) * संघवी श्री विमलचंदजी आनन्दराजजी वैदमूथा परिवार पूना (महाराष्ट्र) - 108 235 Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अंतरिक्ष पार्श्वनाथ श्री अजाहरा पार्श्वनाथ चरित्र अतिशय क्षेत्र यूवौन-परिचय श्री अतिशय क्षेत्र बाहुबली श्री अहिच्छत्र पार्श्वनाथ पूजन आबू के योगीराज ओसियाँ तीर्थ भाण्डवपुर जैन तीर्थ मण्डण भगवान महावीर का जन्म स्थान " सहायक ग्रन्थ व पुस्तकें " जैन संस्कृति और राजगृह श्री कांगड़ा जैन तीर्थ श्री कापरड़ाजी जैन तीर्थ का संक्षिप्त- शंखेश्वर महातीर्थ इतिहास कावी- गन्धार झगड़िया जैन तीर्थ भद्रावती जैन परंपरानों इतिहास जैन - रत्नासार श्री कलिकुण्ड पार्श्वनाथ कम्पिला तीर्थ नाथस्य वर्णन क्षत्रियकुण्ड भगवान महावीर निर्वाण महोत्सव ग्रन्थ स्मारिका कुण्डलपुर (म. प्र. ) कुण्डलपुर (नालन्दा) केसरियाजी तीर्थ का इतिहास श्री कोरटाजी तीर्थ का इतिहास भारत के दिगम्बर जैन तीर्थ भारतना तमाम गामोना (जैन)- कौशांबी तीर्थ का इतिहास दहेरासरोंनो इतिहास भक्ति और कला के संगम का तीर्थराजकपुर श्री भीलडियाजी पार्श्वनाथ जैन तीर्थ बोडेली तीर्थ दर्शन दादावाड़ी-दिग्दर्शन जैन आर्ट एण्ड आरकीटेक्चर जैन तीर्थ सर्व संग्रह जैन साहित्यनो संक्षिप्त इतिहास जैन तीर्थ श्री पुरिमताल जैन रत्न या चौबीस तीर्थकर चरित्र जैसलेमेर पंच तीर्थी का इतिहास जैसलमेरमा चमत्कार 236 देलवाड़ा जैन मन्दिर-आयु श्री फलवृद्धि पार्श्वनाथ तीर्थ (मेड़ता महातीर्थ पावापुरी रोड़) का इतिहास श्री घंटाकर्ण महावीर देव हस्तिकुण्ड तीर्थ का इतिहास श्री हस्तिनापुर महातीर्थ श्री होम्बुजा क्षेत्र जिनप्रभसूरिविरचित विविध तीर्थ कल्प जीरावल दर्शन श्री कुम्भोजगिरि तीर्थ शताब्दी महोत्सव प्रतिष्ठानो अहेवाल महामंत्र की अनुप्रेक्षा श्री मांडवगढ़ तीर्थ मातर तीर्थ मूडबिद्री मुंडस्थल महातीर्थ (मुंगथला) खजुराहो के जैन मन्दिर लक्ष्मणी तीर्थ परिचय लोगस्य महासूत्र याने जैन धर्मनो भक्तिवाद श्री यतिन्द्रविहार-दिग्दर्शन ( भाग 1 से 4 ) श्री मक्सी पार्श्वनाथ उपास्यपदे उपादेयता तथा श्रीमद्- राजचन्द्र मध्यप्रदेश का महान चमत्कारी आश्रम (हम्पी ) तीर्थ भोपावर मथुरा का जैन तीर्थ-कंकाली श्री नाकोडा पार्श्वनाथ जैन श्वेताम्बर तीर्थ परिचय पंच प्रतिक्रमण सूत्राणि पपोरा-दर्शन पावन पुण्य स्थलि मोहनखेड़ा पाटण तीर्थ दर्शन तथा उत्तर गुजरात पंचतीर्थी श्री पावापुरीजी पावागढ़ दि. जैन सिद्धक्षेत्र सिरोही दर्शन श्री सिद्धक्षेत्र सिद्धवरकूट पूजन श्री पुडल तीर्थ श्री सम्मेतशिखर श्री शान्तिचंद्र सेवा समाज रजत स्मारक ग्रंथ श्रावस्ती तीर्थ परिचय तीर्थराज आयु तीर्थंकर और उनका पावन जीवन श्री तीर्थाधिराज शत्रुंजय उपर बयेल सोनगिरि सुषमा सोनगिरि शतक मंगलमंत्र णमोकार - एक अनुचिन्तन कल्याणकों की पावन भूमि विदिशा पावागिरि, ऊन सचित्र इतिहास बलसाणा तीर्थ परिचय पुस्तिका चित्रमय तीर्थ रांतेज कलिकाल कल्पतरु श्री कलिकुण्ड तीर्थ श्री चवलेश्वर पार्श्वनाथ तीर्थ जामनगर ना जैन देरासरों नो इतिहास दंताणी तीर्थ जो प्राचीन इतिहास भक्ति गीत गंगा पुष्करणा संदेश फलोदी विशेषांक सोलंकी युग ना शिल्प स्थापत्यों श्री वडनगर महातीर्थनी ऐतिहासिकप्राचीनता भानपुरा तीर्थ इतिहास तिंवरी के मन्दिरों का संक्षिप्त इतिहास श्री सेमलियाजी तीर्थ का इतिहास जैसलमेर संघ पुस्तिका राजा सम्प्रति उत्तराध्यनसूत्र- अमरमुनिजी 卐 Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाग बिहार 1. क्षत्रियकुण्ड 2. ऋजुबालुका 3. सम्मेतशिखर 4. गुणायाजी 5. पावापुरी 6. कुण्डलपुर 7. राजगृही 8. काकन्दी 9. पाटलीपुत्र 10. वैशाली 11. चम्पापुरी 12. मन्दारगिरि बंगाल 1. जियागंज 2. अजीमगंज 3. कठगोला 4. महिमापुर 5. कलकत्ता उड़ीसा 1. खण्डगिरि -उदयगिरि उत्तर प्रदेश 1. चन्द्रपुरी 2. सिंहपुरी 3. भदैनी 4. भेलुपुर 5. प्रभाषगिरि 6. कौशाम्बी 7. पुरिमताल 8. रत्नपुरी 9. अयोध्या 10. श्रावस्ती 11. देवगढ़ 12. कम्पिलाजी 13. अहिच्छत्र 14. हस्तिनापुर 15. इन्द्रपुर 16. सौरीपुर 17. आगरा आन्ध्र प्रदेश 1. कुलपाकजी 2. गुडिवाड़ा 3. पेदमीरम् 4. अमरावती 5. गुम्मीलेरु कर्नाटका 1. हुम्बज 1 1 2 1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 2 N 1 1 2 1 2 2 2 1 1 1 1 1 1 1 1 1 2 1 2 1 2 2 2 2 2 2 2 2 1 2 1 1 3 2 3 3 3 3 3 2 3 3 3 2 3 4 4 4 4 4 4 5555 in 5 अनुक्रमणिका (नाम विशिष्टता पृष्ठ संख्या) 2. वारंग 3. कारकल 4. 5. श्रवणबेलगोला 6. धर्मस्थल 6 6 6 22 28 30 46 48 54 56 63 66 70 73 76 8888888 82 87 91 7. हेमकूट- रत्नकूट तमिलनाडु 1. जिनगिरि 2. विजयमंगलम 119 124 128 130 132 134 138 140 144 3. पोन्नूरमलै 4. मुनिगिरि 5. तिरुमलै 6. जिनकांची 7. मनारगुड़ी 8. पुड़ल (केशरवाड़ी) केरला 148 152 154 156 158 1. कलिकुण्ड 2. पालुकुन्नू महाराष्ट्र 1. रामटेक 2. भद्रावती 3. अंतरिक्ष पार्श्वनाथ 96 99 7. पद्मपुर 103 8. अगासी 105 9. कोंकण 4. बलसाणा 5. मांगी तुंगी 6. गजपंथा 110 10. दहीगांव 112 114 117 11. कुंभोजगिरि 12. बाहुबली भाग — राजस्थान 1. पद्मप्रभुजी 2. महावीरजी 3. रावण पार्श्वनाथ 4. अजयमेरु 5. माण्डलगढ़ 6. नागौर 7. खिंवसर 8. फलवृद्धि पार्श्वनाथ 9. कापरड़ा 10. मान्डव्यपुर 11. गांगाणी 12. ओसियाँ 13. तिंवरी 14. विजयपुरपतन 162 15. जैसलमेर 2 1 1 1 2 3 1 2 3 1 2 1 2 3 1 1 1 1 1 1 1 1 1 --- 1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 1 ----- 1 1 1 1 2 NNNNN 2 2 2 2 2 2 2 2 2 2 2 2 3 22222 2 2 3 3 3 3 3 3 3 3 3 3 3 3 3 2 3 2 3 3 3 3 3 3 3 666 6 6 ७७ 5 6 164 166 168 170 172 174 178 180 182 184 186 188 190 192 196 199 204 206 209 212 214 216 218 220 222 224 226 228 254 256 258 260 262 264 266 268 270 272 274 276 280 282 286 237 Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ non NNN 406 408 410 o 412 414 290 296 298 300 302 306 308 310 314 318 420 422 424 426 NA 322 324 326 328 NNNNNNN 428 430 433 436 330 ल 4 4 4 4 400 16. लोद्रवपुर 17. अमरसागर 18. ब्रह्मसर 19. पोकरण 20. नाकोड़ा 21. नागेश्वर 22. चंवलेश्वर 23. चित्रकूट 24. केशरियाजी 25. आयड़ 26. डुंगरपुर 27. पुनाली 28. वटपद्र 29. राजनगर 30. करेड़ा 31. नागहृद 32. देवकुलपाटक 33. नाड़लाई 34. मुछाला महावीर 35. राणकपुर 36. नाडोल 37. वरकाणा 38. हथुण्डि 39. बालि 40. जाखोड़ा 41. कोरटा 42. खीमेल 43. पाली 44. वेलार 45. खुडाला 46. सेवाड़ी 47. कोलरगढ़ 48. सेसली 49. राडबर 50. उथमण 51. सांडेराव 52. सिरोही 53. गोहिली 54. मीरपुर 55. वीरवाड़ा 56. बामनवाड़ा 57. नान्दिया 58. अजारी 59. नीतोड़ा 60. लोटाणा 61. दियाणा 62. सीवेरा 63. धनारी 64. वाटेरा 65. झाड़ोली 66. आहोर 67. सियाणा 68. लाज 69. नाणा 70. काछोली 71. कोजरा 72. पिण्डवाड़ा 73. हंडाऊद्रा 74. धवली 75. दंताणी 76. भाण्डवाजी 77. स्वर्णगिरि 78. भिनमाल 79. सत्यपुर 80. किंवरली 81. कासीन्द्रा 82. देलदर 83. डेरणा 84. मुण्डस्थल 85. जीरावला 86. वरमाण 87. मण्डार 88. ओर 89. अचलगढ़ 90. देलवाड़ा (आबू पंजाब 1. सरहिन्द 2. होशियारपुर हिमाचल प्रदेश 1. कांगडा दिल्ली 1. इन्द्रप्रस्थ 456 458 23 462 332 334 338 340 346 348 350 352 354 356 358 360 362 364 366 368 370 372 374 376 378 380 382 384 386 389 470 473 475 1 2 3 477 भाग - 3 N N N 392 गुजरात 1. कुंभारियाजी 2. प्रहलादनपुर 3. दांतपाटक 4. जूनाडीसा 5. थराद 6.ढीमा 7. वाव 8. भोरोल 9. जमणपुर 10. पाटण 11. मेत्राणा 12. तारंगा 13. खेड़ब्रह्मा 491 494 496 498 500 502 504 506 508 510 513 515 520 N N 394 396 398 400 402 404 N N 238 Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 522 و 524 526 646 649 652 528 به 654 530 532 بن 657 660 662 664 534 537 بن 540 نبه 542 544 546 548 به به 668 670 672 674 676 678 681 684 550 به به 552 555 558 به 686 به به ا 560 562 564 566 568 688 690 692 694 696 ن 63. पावागढ़ 64. कावी 65. गंधार 66. भरुच 67. झगड़ीया 68. दर्भावती 69. बोड़ेली 70. पारोली मध्य प्रदेश 1. लक्ष्मणी 2. तालनपुर 3. बावनगजाजी 4. पावागिरी 5. सिद्धवरकूट 6. माण्डवगढ़ 7. धारानगरी 8. मोहनखेड़ा 9. भोपावर 10. अमीझरा 11. इंगलपथ 12. बिबडौद 13. सेमलिया 14. परासली 15. दशपुर 16. वहीं पार्श्वनाथ 17. भलवाड़ा पार्श्वनाथ 18. कुंकुंटेश्वर पार्श्वनाथ 19. अवन्ती पार्श्वनाथ 20. उन्हेल 21. अलौकिक पार्श्वनाथ 22. बदनावर 23. मक्षी 24. विदिशा 25. सोनागिर 26. थुवौनजी 27. अहारजी 28. पपोराजी 29. नैनागिरि 30. द्रोणगिरि 31. खजुराहो 32. कुण्डलपुर تن 570 به ا ن 14. वड़ाली 15. ईडर 16. देवपत्तन 17. मोटा पोसीना 18. वालम 19. मेहसाणा 20. आनन्दपुर 21. रत्नावली 22. गांभु 23. मोढेरा 24. कम्बोई 25. चाणश्मा 26. शियाणी 27. चारुप 28. भीलड़ियाजी 29. भद्रेश्वर 30. तेरा 31. जखौ 32. नलिया 33. कोठारा 34. सुथरी 35. कटारिया 36. गिरनार 37. नवानगर 38. वामस्थली 39. चन्द्रप्रभाष पाटण 40. अजाहरा 41. दीव 42. देलवाड़ा (गुजरात) 43. ऊना 44. दाठा 45. महुवा 46. तालध्वजगिरि 47. घोघा 48. कदम्बगिरि 49. हस्तगिरि 50. शत्रुजय 51. वल्लभीपुर 52. घोलका 53. शंखेश्वर 54. उपरियाला 55. वामज 56. भोयणी 57. पानसर 58. महुड़ी 59. शेरीशा 60. कर्णावती 61. मातर 62. खंभात 577 698 700 702 ن تن ن 580 582 585 588 590 591 به تن به ن با 594 ته به 596 704 706 708 710 712 714 717 720 722 724 726 728 ن 599 د نه 602 بیا به بنا به بنا بیا تا س به به ن ن 730 731 734 626 بن ن 630 1 - ن ن ن 632 634 पुरातन क्षेत्र भोजनशाला की सुविधायुक्त चमत्कारीक क्षेत्र या मुनियों की तपोभुमि कल्याणक भूमि पंचतीर्थी कलात्मक ا د 636 638 642 644 ن 239 Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अष्टापद तीर्थ शास्त्रों में उल्लेखानुसार श्री ऋषभदेव भगवान, जिन्हें श्री आदिनाथ भगवान व आदीश्वर भगवान भी कहते हैं, अपने नवाणु पुत्रों व कई मुनिगणों के साथ माघ कृष्णा तृयोदशी के दिन इसी पर्वत पर से मोक्ष सिधारे थे । यह तीर्थ उस समय अयोध्या से 12 योजन (48 कोष) दूर व पर्वत की ऊँचाई आठ योजन होने का उल्लेख है । हो सकता है कालक्रम से दूरी कम-ज्यादा व पर्वत की ऊँचाई भी कम-ज्यादा हुई हो । कहा जाता है कि कैलाश पर्वत भी इसी को कहते थे । मान सरोवर इसके निकट था । कहा जाता है तीर्थ के सुरक्षार्थ श्री भरतचक्रवर्ती ने पर्वत को आठ खण्डों में विभक्त किया था अतः संभवतः इसी के कारण इसका नाम अष्टापद पड़ा हो ऐसा उल्लेख है । शिवपुराण में श्री ऋषभदेव भगवान कैलाश पर्वत पर से मोक्ष सिधारे थे ऐसा उल्लेख है । श्री ऋषभदेव भगवान मोक्ष सिधारे तब तीन स्तूपों के निर्माण करवाने का व पश्चात् श्री भरतचक्रवर्ती द्वारा यहाँ पर "सिंहनिषधा" नाम का भव्य, विशाल व रमणीय चौवीस जिन प्रासाद निर्माण करवाकर रत्नों की प्रतिमाएं प्रतिष्ठित करवाने का उल्लेख है । पश्चात् श्री भरतचक्रवर्ती भी यहीं से अनेकों मुनिगणों के साथ निर्वाण पद को प्राप्त होने का उल्लेख है । एक अन्य उल्लेखानुसार हस्तगिरि से मोक्ष सिधारे थे अतः यह संशोधनीय विषय है । तत्पश्चात् सगर चक्रवर्ती के पुत्रों द्वारा इस तीर्थ की रक्षार्थ पर्वत के आस पास खाई खुदवाकर गंगा के जल प्रवाह को उसमें ढालने का भी उल्लेख है । कालक्रम से खाई बहुत ही विशाल हो जाने के कारण साधारणतया आवागमन न हो सकने से तीर्थ अगम्य रहा । बर्फीली चट्टानों से पर्वत ढक जाने के कारण इसे धवलगिरि नाम सम्बोधित किये जाने का भी उल्लेख है । लंका नरेश राजा रावण ने इसी पर्वत पर चढ़ते समय गान नृत्य में प्रभु भक्ति में तल्लीन होकर तीर्थंकर नाम गौत्र का उपार्जन किया था । प्रभु वीर के प्रथम गणधर श्री गौतमस्वामीजी अपनी लब्धि से सूर्य की किरण के सहारे पहाड़ पर चढ़कर यहाँ की यात्रा करने व रास्ते में पांच सौ तापसों को अपनी लब्धि से पारणा करवाने का उल्लेख है । आज भी यह तीर्थ अगम्य है परन्तु आज कैलाश के नाम प्रचलित बर्फिली चट्टानों से ढका हुवा पर्वत तिब्बत के पास है जिसकी ऊँचाई समुद्र की सतह से 6714 मीटर (लगभग 20200 फीट) है मानसरोवर यहाँ से लगभग 22 कि. मी. है । मानसरोवर की ऊँचाई समुद्र की सतह से 4560 मीटर (लगभग 13725 फीट है।) इस स्थान को हिन्दू व बुद्ध आम्नाय के लोग भी अपना तीर्थ धाम मानते हैं । काठमन्डु होकर भी एक रास्ता है, स्थान चैना सरकार के अंतर्गत रहने पर भी भारत सरकार तिब्बत सरकार से मिलझुल कर इंतजाम करती है । आने जाने में लगभग एक माह लगता है ज्यादातर पैदल या खच्चर पर ही चढ़ना पड़ता है । परन्तु कैलाश पर्वत पर चढ़ना आज भी असंभव है । मानसरोवर के पहिले से ही कैलाश के दर्शन होते है । कैलाश की परिक्रमा 16 कोष (32 मील) की है । श्रद्धालु भक्तजन कैलाश व मानसरोवर की भी प्रदक्षिणा देते हैं व मानसरोवर में पूजा-पाठ कर अपना मनोरथ पूर्ण करते हैं । इस ग्रंथ के पृष्ठ 19 पर कैलाश व मानसरोवर के मूल फोटुओं के साथ अष्टापद का अनुमानित फोटु व आदिनाथ भगवान के बहुत प्राचीन प्रतिमा का फोटु भी भाव यात्रा हेतु छापा है । विशेष विवरण हेतु सम्पर्क करें । संभवतः स्थान तो यही हो सकता है जहाँ से प्रभु मोक्ष सिधारे थे । यह वर्णन व फोटु भाव यात्रा में अवश्य सहायक होंगे । दर्शनार्थी प्रभु को भाव वन्दन कर पुण्योपार्जन करे, इसी मंगलमय कामना के साथ । - सम्पादक 240 Page #245 --------------------------------------------------------------------------  Page #246 --------------------------------------------------------------------------  Page #247 --------------------------------------------------------------------------  Page #248 -------------------------------------------------------------------------- _