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श्री अयोध्या तीर्थ
तीर्थाधिराज * 1. श्री अजितनाथ भगवान, ताम्र वर्ण, पद्मासनस्थ, लगभग 30 सें. मी.(श्वे.मन्दिर)।
2. श्री आदीश्वर भगवान, कायोत्सर्ग मुद्रा में, श्वेत वर्ण, लगभग 885 सें. मी. (दि. मन्दिर)।
तीर्थ स्थल * सरयू व घाघरा नदी के तट पर बसे अयोध्या शहर के कटरा मोहल्ले में श्वेताम्बर मन्दिर व रायगंज मोहल्ले में दि. मन्दिर ।
प्राचीनता * इस तीर्थ के प्राचीन नाम ईक्ष्वाकुभूमि, कोशल, विनीता, अयोध्या, अवध्या, रामपुरी, साकेतपुरी आदि शास्त्रों में बताये गये हैं ।
तीसरे आरे के अंतिम काल में यहाँ विमलवाहन आदि 7 कुलकर हुए, जिनमें अन्तिमकुलकर श्री नाभिराज हुए । (दिगम्बर मान्यातानुसार नाभिराज चौदहवें कुलकर हुए इन्हें मनु नाभिराज बताया है) ।
नाभिराज की पत्नी का नाम मरुदेवी था । उस समय युगल जोड़ो का ही जन्म होता था । आपस में एक ही साथ रहकर एक ही साथ मरते थे । उस समय "हाकार", "माकार" व "धिक्कार" का दण्डविधान चालू था ।
मरुदेवी माता ने आषाढ़ कृष्णा चतुर्थी के दिन उत्तराषाढ़ा नक्षत्र चन्द्रयोग में चौदह महा-स्वप्न देखे (दि. मान्यतानुसार सोलह स्वप्न) । उसी क्षण वज्रनाभ का जीव बारह भव पूर्ण करके मरुदेवी माता की कुक्षी में प्रविष्ट हुआ । गर्भकाल पूर्ण होने पर चैत्र कृष्णा अष्टमी के दिन उत्तराषाढ़ा नक्षत्र चन्द्रयोग में ऋषभचिह्वयुक्त पुत्र का जन्म हुआ । प्रभु का नाम ऋषभ रखा गया । प्रभु के साथ जन्मी कन्या का नाम सुमंगला रखा गया । इन्द्र-इन्द्राणियों ने प्रभु का जन्म कल्याणक मनाया । भगवान की आयु एक वर्ष होने पर सौधर्मेन्द्र दर्शनार्थ आये । तब साथ में इक्षुयष्टि (गन्ना) लेकर आये थे । प्रभु ने गन्ने की तरफ हाथ बढ़ाया । तभी से “इक्ष्वाकु वंश की स्थापना हुई मानी जाती है । यह भी कहा जाता है कि प्रभु ने इक्षुरस से पारणा किया उस के बाद उनके वंशज इक्षुवंशी कहलाये ।
नाभिराज कुलकर के समय कोई युगल संतान को एक ताड़ वृक्ष के नीचे रखकर क्रीड़ाग्रह में गया । हवा
के झोंके से एक ताइफल बालक के मस्तक पर गिरने से बालक का देहान्त हो गया । बालिका अकेली रह गई ! माता पिता के देहान्त के बाद बालिका अकेली धूमने लगी । उस समय युगल जोड़े एक ही साथ जन्मते व मरते थे । इसलिये उस बालिका को अकेली देख सबको आश्चर्य हुआ व नाभिराज के पास ले गये । नाभिराज ने कहा कि यह ऋषभ की पत्नी बनेगी । उसका नाम सुनन्दा रखा गया । इस प्रकार ऋषभदेव भगवान सुमंगला व सुनन्दा के साथ बालक्रीड़ा करते हुए यौवन को प्राप्त हुए ।
सौधर्मेन्द्र ने प्रभु से लोक व्यवहार प्रारम्भ करने के लिए सुमंगला व सुनन्दा से विवाह करने का आग्रह किया । प्रभु ने सहमति देकर सुमंगला व सुनन्दा से शादी करके शादी की प्रथा को प्रारम्भ किया । ___ कालक्रम के प्रभाव से युगलियों में क्रोधादि कषाय बढ़ने लगे । इसलिए “हाकार", "माकार" और "धिक्कार" की दण्ड नीति निरूपयोगी हो गई । आपस में झगड़ा बढ़ने लगा । सब लोग नाभिकुलकर के पास गये । ऋषभ को राजा बनाने का निर्णय लेकर राजा बनाया गया । इस प्रकार अवसर्पिणीकाल में ऋषभदेव ही सबसे प्रथम राजा हुए । प्रभु ने राज-विधान बनाया । राजनैतिक व्यवस्था के लिए पुर, ग्राम, खेट नगर आदि की व्यवस्था करके राष्ट्र को 52 जनपदों में विभाजित किया । उस समय कल्प-वृक्षों का सर्वथा अभाव हो गया था । प्रभु ने यहीं पर सबसे पहले असि, मसि, कृषि, विद्या, शिल्प व वाणिज्य इन छह कर्मो का ज्ञान समाज को दिया था । अलग-अलग जातियाँ व कुल बनाये । पुरुषों को 72 कलाओं व स्त्रियों को 64 कलाओं का ज्ञान करवाया । ब्राह्मी को अठारह लिपियों का व सुन्दरी को गणित का ज्ञान समझाया । इस प्रकार उस समय से व्यवहारिक प्रथा प्रारम्भ हुई ।
वसन्त ऋतु में प्रभु को परिजनों के संग नंदनोद्यान में क्रीड़ा करते समय वैराग्य उत्पन्न हुआ । प्रभु ने अपने ज्येष्ठ पुत्र भरत व अन्य पुत्रों को राज्य भार संभलाया व वर्षीदान प्रारम्भ किया । प्रभु ने एक वर्ष में तीन सौ अठासी करोड़ अस्सी लाख स्वर्ण मुद्राएँ दान देकर चैत्र कृष्णा अष्टमी के दिन उत्तराषाढ़ा नक्षत्र में दीक्षा अंगीकार की । प्रभु का दीक्षा-महोत्सव इन्द्रादि टेलों त आम जनताले ति लास पक मनाया
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