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श्री अजितनाथ भगवान निर्वाण स्थल ट्रॅक - सम्मेतशिखर
हो सका । इससे पता चलता है कि पुराने मन्दिरों या ट्रॅकों के चिह्व काल की गति से स्थानांतरित हो गये होंगे या मिट चुके होंगे । __पं. देवविजयजी की प्रेरणा से जगत्सेठ ने अठ्ठमतप करके पद्मावती देवी की उपासना की । देवी ने स्वप्न में प्रत्यक्ष होकर कहा कि पहाड़ के ऊपर जहाँ-जहाँ केशर के स्वस्तिक चिह्न बने वे ही मूल स्थान माने जाएँ व स्वस्तिक सख्यानुसार तीर्थंकरों के निर्वाण स्थान समझकर चौतरे, स्तूप व चरण-पादुकाओं का निर्माण हों ।
उसी प्रकार दैविक शक्ति से 20 निर्वाण स्थान निश्चित हुए, जहाँ पर चबूतरे बनवाये गये व देरियाँ बनाकर स्तूप व चरणपादुकाएँ वि. सं. 1825 माघ शुक्ला वसंत पंचमी के शुभ दिन तपागच्छीय भट्टारक आचार्य श्री धर्मसूरिजी वरदहस्ते प्रतिष्ठित करवाये जाने का उल्लेख है । वर्तमान में स्थित चरण पादुकाओं पर वि. सं. 1825 माघ शुक्ला तृतीया विराणी गोत्र श्री खुशालचन्द नाम अंकित है । शायद जगत्सेठ की लग्न शीलता से जीर्णोद्धार सम्पन्न होकर श्री खुशालचन्दजी वीराणी के हस्ते प्रतिष्ठा हुई हो या जगतसेठ स्वयं विरांणी गौत्र के हों । माघ शुक्ला तृतीया को अंजनशलाका होकर माघ शुक्ला पंचमी को प्रतिष्ठा हुई हो । __इसी समय पहाड़ पर जलमन्दिर, मधुबन में सात मन्दिर, धर्मशाला व पहाड़ के क्षेत्रपाल श्री भोमियाजी का मन्दिर आदि बनवाये गये । इन मन्दिरों की भी इसी मुहूर्त में प्रतिष्ठा सम्पन्न होने का उल्लेख है ।
मन्दिर आदि का प्रबन्ध कार्यभार श्री श्वेताम्बर जैन संघ को सौंपा गया । इस प्रकार भाग्यवान जगत्सेठ श्री महताबचन्दजी की भावना सफल हुई । जगत्सेठ द्वारा किया गया यह महान कार्य जैन शासन में सदा अमर रहेगा । इस तीर्थ का यह इक्कीसवाँ जीर्णोद्धार माना जाता है ।
तदुपरान्त अनेक जैन संघ यात्रार्थ आने लगे । पहाड़ की चोटियों पर स्थित स्तूप, चबूतरे, चिन्हिकाएँ मुक्त आकाश के नीचे आच्छादनहीन होने से भयंकर आँधी, वर्षा, गर्मी, सर्दी व बन्दरों के शरारती कार्यों के कारण पुनः उद्धार की आवश्यकता हुई । अतः वि. सं. 1925 से 1933 के दरमियान उद्धार करवाकर विजयगच्छ के जिनशान्तिसागरसूरिजी, खरतरगच्छ के जिनहंससूरिजी व श्री जिनचन्द्रसूरिजी के हस्ते पुनः प्रतिष्ठा करवाई ।
श्री सम्भवनाथ भगवान निर्वाण स्थल ट्रॅक - सम्मेतशिखर