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रघुनाथपुर गाँव से 4 मील जाने पर पहाड़ का चढ़ाव आता है ।
यह भी कहा जाता है कि पालगंज यहाँ की तलेटी थी । यात्रीगणों को प्रथम पालगंज जाकर वहाँ के राजा से मिलना पड़ता था । राजा के सिपाही यात्रियों के साथ रहकर दर्शन करवाते थे।
उस काल में पहाड़ पर क्या स्थिति थी उसका कोई खुला वर्णन नहीं मिल रहा हैं । __ वि. सं. 1805 में मुर्शिदाबाद के सेठ महताबरायजी को दिल्ली के बादशाह अहमदशाह द्वारा उनके कार्य से प्रसन्न होकर जगतसेठ की उपाधि से विभूषित करने व सं. 1809 में मधुबन कोठी, जयपार नाला, जलहरी कुण्ड, पारसनाथ तलहटी का 301 बीघा, 'पारसनाथ पहाड़' उन्हें उपहार देने का उल्लेख हैं ।
वि. सं. 1812 में बादशाह अबुअलीखान बहादुर ने पालगंज-पारसनाथ पहाड़ को करमुक्त घोषित किया था ।
उल्लेखानुसार पता लगता है कि जगतसेठ की प्रबल इच्छा थी कि, सम्मेतशिखर महातीर्थ के मन्दिरों का जीर्णोद्वार हो । उसी काल में तपागच्छीय पं. श्री देवविजयगणि यात्रार्थ पधारे व जगतसेठ ने महातीर्थ के उद्धार का संकल्प लिया व अपने सातों पुत्र व परिवार जनों को बुलाकर जीर्णोद्वार करवाने का निर्णय लिया गया । कार्य भार अपने चौथे पुत्र श्री सुगालचन्द व जैसलमेर गद्दी के मुनीम श्री मूलचन्दजी को संभलाया। उस बीच जगत्सेठ श्री महताबरायजी का देहान्त हो गया । वि. सं. 1822 में बादशाह आलम ने उनके ज्येष्ठ पुत्र श्री खुशालचन्द को जगत्सेठ की उपाधि से विभूषित किया ।
सम्मेतशिखर के उद्वार का कार्य पूर्ववत चल रहा था । खुशालचन्द सेठ का प्रयास था कि 20 तीर्थंकरों के निर्वाण स्थानों की प्रमाणिकता प्राप्त कर उन स्थानों पर चिन्हिकाएँ बनवाई जाएँ । इस इच्छा से वशीभूत जगतसेठ यदा-कदा हाथी पर बैठकर मुर्शिदाबाद से यहाँ आते रहते थे, परन्तु स्थलों का कोई निर्णय नहीं
वनयुक्त पहाड़ों के बीच जलमन्दिर का एक अपूर्व दृश्य - सम्मेतशिखर