________________
सं. 1670 में आगरा निवासी ओशवाल श्रेष्ठी श्री सम्मेतशिखर तीर्थ
श्री कुंवरपाल व सोनपाल लोढ़ा संघ सहित यहाँ यात्रार्थ
आये जब जिनालयों का उद्वार करवाने का उल्लेख श्री तीर्थाधिराज * श्री शामलिया पार्श्वनाथ भगवान, जयकीर्तिजी ने “सम्मेतशिखर रास" में किया है । श्याम वर्ण, पद्मासनस्थ, लगभग 90 सें. मी., जल आज तक अनेकों आचार्य मुनिगण व श्रावक, श्राविकाएँ मन्दिर (श्वेताम्बर मन्दिर) ।
एवं संघ यहाँ यात्रार्थ पधारे हैं । तीर्थ स्थल * मधुबन के पास समुद्र की सतह से मुनिवरों ने सम्मेतशिखर तीर्थमाला, जैन तीर्थमाला, 4479 फुट ऊँचे सम्मेतशिखर पहाड़ पर, जिसे पार्श्वनाथ पूर्व देश तीर्थमाला, आदि अनेकों साहित्यों का सर्जन हिल भी कहते हैं ।
किया है जो आज भी गत सदियों की याद दिलाते है । प्राचीनता * यह सर्वोपरि तीर्थ सम्मैतशैल, सम्मैताचल, वि. सं. 1649 में बादशाह अकबर ने जगद्गुरु सम्मेतगिरि, सम्मेतशिखर, समाधिगिरि व समिधीगिरी आचार्य श्री हीरविजयसूरिजी को श्री सम्मेतशिखर क्षेत्र आदि नामों से भी संबोधित किया जाता है । वर्तमान भेंट देकर विज्ञप्ति जाहिर की थी । कहा जाता है कि में यह क्षेत्र सम्मेतशिखर व पारसनाथ पहाड़ के नाम उक्त फरमान पत्र की मूल प्रति अहमदाबाद में श्वेताम्बर से जाना जाता है । वर्तमान चौबीसी के बीस तीर्थंकर जैन श्री संघ की प्रतिनिधि संस्था सेठ आणन्दजी इस पावन भूमि में तपश्चर्या करते हुए अनेक कल्याणजी की पेढ़ी में सुरक्षित है । मनियों के साथ मोक्ष सिधारे हैं । पूर्व चौबीसियों के वि. सं. 1747 से 1763 के दरमियान श्री कई तीर्थंकर भी इस पावन भूमि से मोक्ष सिधारे सभाध्यविजयजी, पं. जयविजयसागरजी, हंससोमविजयगणिवर्य, हैं - ऐसी अनुश्रुति है ।
विजयसागरजी आदि मुनिवरों ने तीर्थमालाएँ रची हैं ___ यह परम्परागत मान्यता है कि तीर्थंकरों के निर्वाण जिनमें भी इस तीर्थ का विस्तार पूर्वक वर्णन स्थलों पर सौधर्मेन्द्र ने प्रतिमाएं स्थापित की थी । किया है ।
बीच के कई काल तक के इतिहास का पता नहीं । सं. 1770 तक पहाड़ पर जाने के तीन रास्ते थे। लगभग दूसरी शताब्दी में विद्यासिद्ध आचार्य श्री पश्चिम से आनेवाले यात्री पटना, नवादा व खडगदिहा पादलिप्तसूरिजी आकाशगामिनी विद्या द्वारा यहाँ यात्रार्थ होकर एवं दक्षिण-पूर्व तरफ से आने वाले मानपुर, आया करते थे-ऐसा उल्लेख है । उसी भांति प्रभावक जैपुर, नवागढ़, पालगंज होकर व तीसरा मधुबन होकर आचार्य श्री बप्पभट्टसूरिजी भी अपनी आकाशगामिनी आते थे । पं. जयविजयजी ने सत्रहवीं सदी में व पं. विद्या द्वारा यात्रार्थ आते थे । विक्रम की नवमी शताब्दी विजयसागरजी ने अठारहवीं सदी में अपने यात्रा में आचार्य श्री प्रद्युम्नसूरिजी सात बार यहाँ यात्रार्थ विवरण में कहा है कि यहाँ के लोग लंगोटी लगाते हैं । आये व उपदेश देकर जीर्णो द्वार का कार्य सिर पर कोई वस्त्र नहीं रखते । सिर में गुच्छेदार बाल करवाया था ।
है । स्त्रियाँ कद रूपी भयभीत लगती हैं । उनके सिर तेरहवीं सदी में आचार्य देवेन्द्रसूरिजी द्वारा रचित पर वस्त्र रखने व अंग पर कांचलियाँ पहिनने की प्रथा वन्दारुवृति में यहाँ के जिनालयों व प्रतिमाओं का नहीं है । कांचली नाम से गाली समझती हैं । किसी उल्लेख है । कुंभारियाजी तीर्थ में स्थित एक शिलालेख स्त्री को सिर ढंके व कांचली पहिने देखने से उनको में श्री शरणदेव के पुत्र वीरचन्द द्वारा अपने भाई, पुत्र आश्चर्य होता है । भील लोग धनुष बाण लिये घूमते प पौत्रों आदि परिवार के साथ आचार्य श्री परमानन्दसूरिजी
हैं । जंगल में फल, फूल विभिन्न प्रकार की के हाथों सं. 1345 में यहाँ प्रतिष्ठा करवाने का औषधियाँ, जंगली जानवर व पानी के झरने हैं। उल्लेख हैं।
कुछ तीर्थ मालाओं में बताया है कि झरिया गाँव में चम्पानगरी के निकटवर्ती अकबरपुर गाँव के महाराजा रधुनाथसिंह राजा राज्य करता है । उनका दीवान मानसिंहजी के मंत्री श्री नानू द्वारा यहाँ मन्दिरों के
सोमदास है । जो भी यात्री यात्रार्थ आता है उससे निर्माण करवाने का उल्लेख सं. 1659 में भट्टारक आठ आना कर लिया जाता है । एक और वर्णन है ज्ञानकीर्तिजी द्वारा रचित "यशोधर चरित" में है ।
कि कतरास के राजा श्री कृष्णसिंह भी कर लेते हैं ।
13
30