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श्री संभवनाथ भगवान (दि.) श्रावस्ती
श्री श्रावस्ती तीर्थ
तीर्थाधिराज * 1. श्री सम्भवनाथ भगवान, श्वेत वर्ण, पद्मासनस्थ, लगभग 105 सें. मी. (दि. मन्दिर ) ।
2. श्री संभवनाथ भगवान, श्वेत वर्ण, पद्मासनस्थ, ( श्वे. मन्दिर ) ।
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तीर्थ स्थल * श्रावस्ती गाँव में मुख्य मार्ग पर प्राचीनता इस तीर्थ की प्राचीनता युगादिदेव श्री आदीश्वर प्रभु के काल से प्रारम्भ होती है । प्रभु ने देश को 52 जनपदों में विभाजित किया । उनमें एक कौशल जनपद भी था । उतरी कौशल जनपद की राजधानी का यह नगर था |
भगवान आदिनाथ के पश्चात् तीसरे तीर्थंकर श्री सम्भवनाथ भगवान के पिता राजा जितारी आदि अनेकों
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पराक्रमी जैनी राजा यहाँ हुए। भगवान महावीर के समय यहाँ के राजा प्रसेनजित थे जो जैन-धर्म के अनुयायी व प्रभु वीर के परम भक्त थे। प्रभु वीर के प्रमुख श्रोता मगध सम्राट श्रेणिक ने इनकी बहिन से शादी की थी। उस समय यह नगर अत्यन्त वैभवशाली था । इसे कुणाल नगरी चन्द्रिकापुरी भी कहते थे । यहाँ अनेकों जैन मंदिर व स्तूप थे । सम्राट अशोक व उनके पौत्र राजा संप्रति ने भी यहाँ मन्दिर व स्तूपों का निर्माण करवाया था ऐसा उल्लेख है। "बृहत्कल्प" में भी इस तीर्थ के वैभव का उल्लेख है ।
ई. सं. पाँचवी सदी में चीनी यात्री फाहियान ने यहाँ का उल्लेख किया है ।
सातवीं शताब्दी में चीनी प्रवासी हुएनसांग ने यहाँ का उल्लेख करते हुए यहाँ का नाम जेतवन मोनेस्ट्री बताया है। इसके बाद इसका नाम मनिकापुरी होने का उल्लेख है ।
ई. सं. 900 में यहाँ के राजा मयूरध्वज, सं. 925 में हँसध्वज, सं. 950 में मकरध्वज, सं. 975 में सुधवाध्वज व सं. 1000 में सुहृद्ध्वज हुए | ये सब भार वंशज जैनी राजा थे। डा. बेनेट व डा. विन्सेट स्मिथ ने भी इनको जैन वंशज बताया है। ये सब पराक्रमी व स्वाभिमानी राजा हुए ।
राजा सुहृद्ध्वज ने अपने पराक्रम से भारत में अनेक प्रान्तों पर विजय पताका फहराकर आते हुए मुसलमान आक्रमण-कारियों को बुरी तरह से पराजित कर हिन्दुओ का गौरव कायम करते हुए अपने देश व धर्मतीर्थ की रक्षा की, जो चिरस्मरणीय रहेगी ।
मोहम्मद गज़नी की सेना इस तरह से पराजित कहीं नहीं हुई थी ।
इसके पश्चात् इस नगरी का सहेतमहेत नाम कब पड़ा, यह शोध का विषय है।
विक्रम की चौदहवीं सदी में आचार्य जिनप्रभ सूरीश्वरजी द्वारा रचित 'विविध तीर्थ कल्प' में श्रावस्ती नगरी का नाम महिठ होने का उल्लेख है । उस समय यहाँ विशाल कोट से घिरा हुआ अनेकों प्रतिमाओं व देव कुलिकाओं सहित रत्न विभूषित जिन भवन रहने का उल्लेख है । पहले इस मन्दिर के दरवाजे श्री मणिभद्रयक्ष के प्रभाव से सूर्यास्त के समय आरती के बाद स्वयं बन्द हो जाते थे व प्रातः सूर्योदय के समय