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________________ समाधान करते थे। बड़े ही उदार शासक थे । इनके समय में सर्वधर्मों के गुरुओं ने राजगृही को अपने प्रचार का केन्द्र बनाया था । राजा श्रेणिक के राज्यकाल में पुनः यह नगरी अत्यन्त जाहोजलालीपूर्ण बन चुकी थी । उस समय यहाँ हजारों जैन श्रावकों के घर थे। महाराजा श्रेणिक के अभयकुमार, वारिषेण, नन्दीषेण, मेघकुमार व अजातशत्रु (जिसे कुणिक भी कहते हैं) आदि पुत्र थे। अभयकुमार, नन्दीषेण व वारिषेण ने दीक्षा ग्रहण कर ली थी । अजातशत्रु किसी धर्म नेता द्वारा भड़काये जाने के कारण अपने पिता श्रेणिक को कैद करके कारावास में रख दिया था । एक दिन बात ही बातों में अपनी इस भूल के कारण अत्यन्त दुखी हुए व पिता को रिहा करने दौड़े। श्रेणिक ने इसे दौड़ते आते देखा व समझा कि मारने आ रहा है जिससे खुद अपना सिर पत्थरों से टकराते हुए मृत्यु को प्राप्त हुए। अजातशत्रु को पश्चात्ताप हुआ । दुख सहन न होने के कारण मगघ छोड़कर अंग देश में नई चम्पानगरी को अपनी नई राजधानी बसाकर वहाँ रहने लगे । राजा श्रेणिक धर्मनिष्ठ व दयावान होने से उनके द्वारा किये गये शुभ कार्यों के कारण अत्यन्त दुर्लभ तीर्थकर गोत्र का उपार्जन हुआ। अतः श्री श्रेणिक राजा का जीव अगली चौबीसी में श्री पद्मनाभ नाम का पहला तीर्थंकर होगा ऐसा शास्त्रों में उल्लेख है । 58 जिनालयों का दृश्य रत्नगिरि (राजगृही) अजातशत्रु भी भगवान के अनुयायी ये अजातशत्रु के बाद उनके पुत्र उदयन गद्दी पर आये । जिन्होंने पाटलीपुत्र बसाया । श्रेणिक व अजातशत्रु के समय भगवान महावीर ने अनेकों बार इन पर्वतों पर विहार किया, जिनमें गुणशील चैत्य, वैभारगिरि पर्वत व विपुल गिरि पर्वत पर प्रभु का अनेकों बार आवागमन होने का उल्लेख मिलता है । उदयन के बाद कलिंग नरेश खारवेल ने चढ़ाई करके इस नगरी को अपने अधीन किया- ऐसा उल्लेख है। से पश्चात् मध्य काल में बौद्ध धर्म को राजाश्रय मिलने खूब फला-फूला । वि. की नवमी शताब्दी में कन्नौज के राजा आम ने इस पर चढ़ाई की परन्तु विजयी न हो सके । अन्त में उनके पौत्र भोजराजा ने अपने अधीन किया पश्चात् पुनः इस नगरी का । पतन हुआ । सं. 1364 में जिनप्रभसूरीश्वरजी द्वारा रचित "विविध तीर्थ कल्प" में इसका वर्णन है। विपुलगिरि पर्वत पर श्री मण्डन के पुत्र देवराज व वच्छराज द्वारा श्री पार्श्वनाथ भगवान का मन्दिर बनवाये जाने का सं. 1412 के एक प्रशस्ति में उल्लेख है। सं. 1504 में श्री शुभशील गणिवर्य द्वारा यहाँ अनेक जिनबिम्बों की प्रतिष्ठा करवाये जाने का उल्लेख है । सं. 1524 में श्रीमाल वंशज श्री जीतमलजी द्वारा वैभारगिरि पर्वत पर धन्ना, शालिभद्र की प्रतिमाएँ व ग्यारह गणधरों के चरण प्रतिष्ठित कराये जाने का उल्लेख है । सं. 1657 में श्री जयकीर्तिसूरि, सं. 1746 में श्री शीलविजयजी व उन्नीसवीं सदी में अमृतधर्मगणिजी द्वारा रचित तीर्थ मालाओं में इस तीर्थ के महत्ता की व्याख्या है । इनके अतिरिक्त भी अनेकों श्वेताम्बर व दिगम्बर साहित्यों में इस महान तीर्थ का उल्लेख है । आज तक अनेकों यात्री संघों का भी आवागमन हुआ है व आज भी चालू है । लेकिन आज इन तीर्थ स्थलों के सिवाय जैन बस्ती बिलकुल नहीं है । वर्तमान में जनसाधारण की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए अनेक कठिनाईयों को झेलकर भी वस्तुतः इसी ऐतिहासिक दृष्टि के परिपेक्ष्य में यहाँ वैभारगिरि की तलहटी में वीरायतन की योजना बनाई गई है । स्थानकवासी सम्प्रदाय के मुनि कवि अमरमुनिजी
SR No.002330
Book TitleTirth Darshan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Jain Kalyan Sangh Chennai
PublisherMahavir Jain Kalyan Sangh Chennai
Publication Year2002
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size45 MB
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