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________________ श्री राजगृही तीर्थ तीर्थाधिराज * विपुलाचल पर्वत :- श्री मुनिसुव्रतस्वामी भगवान, श्याम वर्ण, लगभग 45 सें. मी. (श्वेताम्बर मन्दिर) । श्री चन्द्रप्रभ भगवान, श्वेत वर्ण, लगभग 83 सें. मी. दिगम्बर मन्दिर) । रत्नगिरि पर्वत :- श्री चन्द्रप्रभ भगवान, श्वेत वर्ण, पद्मासनस्थ (श्वेताम्बर मन्दिर) श्री मुनिसुव्रतस्वामी भगवान, श्याम वर्ण, पद्मासनस्थ (दिगम्बर मन्दिर) । उदयगिरि पर्वत :- श्री पार्श्वनाथ भगवान, चरण पादुका, (श्वेताम्बर मन्दिर) | श्री महावीर भगवान, खड्गासन मुद्रा में, बादामी वर्ण, (दिगम्बर मन्दिर)। स्वर्णगिरि पर्वत :- श्री आदिनाथ भगवान, चरण पादुका, (श्वेताम्बर मन्दिर) श्री शान्तिनाथ भगवान, श्याम वर्ण, पद्मासनस्थ, (दिगम्बर मन्दिर)। वैभारगिरि पर्वत :- श्री मुनिसुव्रत स्वामी भगवान, श्वेत वर्ण, पद्मासनस्थ, (श्वेताम्बर मन्दिर)। श्री महावीर भगवान, पद्मासनस्थ, (दिगम्बर मन्दिर)। तीर्थ स्थल * राजगिरि गाँव के निकट पाँच पर्वतों पर। प्राचीनता * यहाँ की प्राचीनता का इतिहास बीसवें तीर्थंकर श्री मुनिसुव्रतस्वामी भगवान के समय से प्रारम्भ होता हैं । प्राचीन काल में इस नगरी को चरणकपुर, ऋषभपुर, कुशाग्रपुर, बसुमति, गिरिब्रज, क्षितिप्रतिष्ठ, पंचशैल आदि नामों से भी संबोधित किया जाता था । किसी समय इस नगरी में हरिवंशी सुमित्र नाम के राजा राज्य करते थे । उनकी पट्टरानी का नाम पद्मावती था । शुभानुशुभ योग से श्रावण पूर्णिमा के दिन महारानी ने तीर्थंकर जन्म सूचक महा स्वप्न देखे। उसी क्षण स्वर्ग से सुरश्रेष्ठ का जीव अपनी देवायुष्य पूर्ण करके माता की कुक्षी में प्रविष्ट हुआ । गर्भकाल समाप्त होने पर ज्येष्ठ कृष्णा नवमी के शुभ दिन पुत्र रत्न का जन्म हुआ । गर्भ काल में माता, मुनियों की तरह सुव्रता रही थी । इससे पुत्र का नाम श्री मुनिसुव्रत रखा । राजकुमार के यौवनावस्था को प्राप्त होने पर पिता ने उनका प्रभावती आदि अनेकों-कन्याओं के साथ विवाह किया । प्रभावती ने सुव्रत नामक पुत्र रत्न को जन्म दिया । राजा सुमित्र ने दीक्षा अंगीकार की । मुनिसुव्रत को राज्य भार संभलाया गया । कई काल तक राज्य सुख भोगते हुए एक दिन संसार को असार समझकर लोकान्तिक देवों की प्रार्थना से अपने पुत्र सुव्रत को राज्य भार संभलाकर वर्षीदान देते हुए फाल्गुन शुक्ला 12 को यहाँ के नलिगुहा नामक उद्यान में एक हजार राजाओं के साथ दीक्षा ग्रहण की। चिरकाल तक विहार करते हुए पुनः उसी उद्यान में आये व चंपा वृक्ष के नीचे कायोत्सर्ग ध्यान में रहते हुए फाल्गुन कृष्णा 12 के दिन केवलज्ञान प्राप्त किया। (दिगम्बर मान्यतानुसार प्रभु का जन्म आसोज शुक्ला द्वादशी, दीक्षा वैशाख कृष्णा दशमी व केवलज्ञान फाल्गुन कृष्णा षष्टी के दिन हुआ माना जाता है) इस प्रकार श्री मुनिसुव्रतस्वामी भगवान के चार कल्याणकों से यह भूमि पावन बन चुकी थी । इसी हरिवंश के अनेक राजाओं के बाद बृहद्रथ राजा हुआ व उनका पुत्र जरासंध पराक्रमी राजा हुआ । जरासंघ ने मथुरा के राजा श्री कंस के साथ अपनी पुत्री जीवयशा का विवाह किया था । प्रजा पर किये गये अत्याचारों के कारण कंस श्री कृष्ण के हार्थों मारा गया (कंस श्री कृष्ण का मामा था) इस पर जरासंध यादवों से रुष्ट हुआ । मथुरा पर बार-बार आक्रमण करने लगा । इन आक्रमणों से हैरान होकर जिनालयों का दृश्य - विपुलाचल पर्वत (राजगृही) 56
SR No.002330
Book TitleTirth Darshan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Jain Kalyan Sangh Chennai
PublisherMahavir Jain Kalyan Sangh Chennai
Publication Year2002
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size45 MB
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