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द्वारा भी इस मन्दिर के लिए जमीन आदि भेंट देने का उल्लेख है । ई. तेरहवीं सदी तक यहाँ खूब जाहोजलाली रही, ऐसा उल्लेख है ।
विशिष्टता * यह अनेकों मुनियों की तपोभूमि होने के कारण शास्त्रों में इसका नाम मुनिगिरि उल्लिखित है । पश्चात् करन्दे पड़ा । ___ अनेकों मुनियों की तपोभूमि होने के कारण यहाँ की महान विशेषता है । छठी शताब्दी में हुए आचार्य श्री अकलंक मुनि की यह विहार भूमि है । कहा जाता है कि आचार्य श्री अकलंक मुनि ने यहाँ से 6.5 कि. मी. दूर स्थित अरवलतांगी गाँव में बौद्ध मुनियों के साथ शास्त्रार्थ करके विजय पाई थी । एक और उल्लेखानुसार इसी मन्दिर में शास्त्रार्थ हुआ बताया जाता है । याद स्वरूप आचार्य श्री की मूर्ति इस मन्दिर के अहाते के अन्तर्गत श्री अम्बिका देवी के मन्दिर के मण्डप में अंकित है ।
प्रतिवर्ष फाल्गुन शुक्ला सप्तमी से चतुर्दशी तक मेला लगता है । वार्षिक मेले के उपरान्त तीन दिन तेप्पोत्सव होता है । उस समय तालाब में तेलके बड़े-बड़े खाली पीपों को जोड़कर बाँध देते हैं । उनपर तख्ते बिछाकर उसके ऊपर रथ के समान मचान बाँध कर उसको सज-धज के साथ अलंकृत करते हैं। उसके अन्दर धरणेन्द्र-पद्मावती को विराजमान कर बाजों-गाजों के साथ तालाब की परिक्रमा देते है । यहाँ का तोप्पोत्सव देखने योग्य है ।
श्री कुंथुनाथ भगवान-मुनिगिरि
श्री मुनिगिरि तीर्थ
तीर्थाधिराज * श्री कुंथुनाथ भगवान, अर्द्ध पद्मासनस्थ (दि. मन्दिर) ।
तीर्थ स्थल * तालाब के किनारे बसे करन्दे गाँव में ।
प्राचीनता * ई. की तीसरी शताब्दी से यह जैन मुनियों की तपोभूमि रहने का उल्लेख मिलता है । राजराज चोल, राजेन्द्र चोल आदि चोल राजवंश के शासकों द्वारा इस मन्दिर के लिए अनेकों भेंट दिये जाने का उल्लेख है । विजयनगर साम्राज्य के शासकों में श्री कृष्णादेवराय व रामदेव महाराय आदि नरेशों
श्री कुंथुनाथ जिनालय-मुनिगिरि
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