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श्री पाटलीपुत्र तीर्थ
तीर्थाधिराज * श्री विशालनाथ स्वामी, पद्मासनस्थ, श्वेत वर्ण लगभग 60 सें. मी. बीसविहरमान । भगवान में (श्वे. मन्दिर ) |
तीर्थ स्थल
प्राचीनता
पटना शहर के मध्य बाडा गली में। आज का पटना शहर प्राचीन काल में आदि नाम से प्रचलित था। राजा कुसुमपुर, पुष्पपुर श्रेणिक के पौत्र श्री उदयन ने अपने पिता श्री (कुणिक) अजातशत्रु के स्वर्गवासी होने के पश्चात् वि. सं. पूर्व 444 वर्ष के लगभग यह शहर बसाया था ऐसा उल्लेख है। (एक और मत यह भी है कि यह नगरी मर्यादा पुरुषोतम रामचन्द्रजी के काल के पूर्व ही बस चुकी थी) राजा उदयन जैन धर्म के अनुयायी ये । यह मगध देश की राजधानी थी । राजा उदयन ने यहाँ जिन मन्दिर, गजशाला, अश्वशाला, औषधशाला पौशधशाला, सत्रशाला आदि का निर्माण करवाया था । यह एक विराट नगरी बन चुकी थी । उदयन को अजय, उदासी, उदायी आदि नामों से भी संबोधित किया जाता था ।
राजा उदयन के पश्चात् यहाँ की राज्यसत्ता राजा महापद्मनन्द के हाथ आई । राजा महापद्मनन्द भी जैन धर्मावलम्बी थे । इनके काल में यहाँ जैन धर्म का खूब विकास हुआ । राजा महापद्मनन्द कलिंग पर चढ़ाई करके जो जिन प्रतिमा यहाँ लेकर आये थे वह कई वर्षों तक यहाँ रही । पश्चात् राजा श्री खारवेल मगध को पराजित कर वह प्रतिमा पुनः कलिंग लेकर गये जिसका वर्णन खण्डगिरि उदयगिरि की हाथी - गुफा के शिलालेख में उत्कीर्ण है ।
राजा महापद्मनन्द के काल में अन्तिम केवली श्री जंबुस्वामी के शिष्य श्री यशोभद्रसूरीश्वरजी हुए जिनका जन्म यहीं हुआ था। उनके शिष्य श्री संभूतिविजयजी व श्री भद्रबाहुस्वामी भी यहीं हुए । राजा महापद्मनन्द के मंत्री शकटाल व वररुची ये मंत्री शकटाल के पुत्र स्युलिभद्र व श्रीयक थे । स्यूलिभद्र में विनयादि गुण तो थे ही साथ ही उनकी बुद्धि बड़ी तीक्ष्ण थी । परन्तु इनका मन विषय वासना में लगा रहता था। वे इसी शहर में राज्य - नर्तकी
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कोशी के वहाँ प्रायः रहा करते थे। एक दिन संसार को असार समझकर मुनि श्री संभूतिविजयजी के पास दीक्षा ग्रहण की परम्परा अनुसार सब साधुओं ने आचार्य भगवंत से चातुर्मास बिताने के लिए विभिन्न जगह जाने की अनुमति मांगी मुनि श्री स्थूलिभद्रजी ने राज्य नर्तकी कौशी वेश्या के वहाँ चातुर्मास करने की अनुमति मांगी । उसी भाँति अनुमति दी गई । स्युलिभद्रमुनि यहाँ पर स्थित गुलजारबाग के निकट कौशी वेश्या के चित्रशाला में चातुर्मास तक रहने के लिये गये । कौशी वेश्या इन्हें देखकर अत्यन्त खुश हुई, परन्तु श्री स्थूलिभद्रमुनि की यह शर्त थी कि हर वक्त वह तीन हाथ दूर रहेगी । कौशी ने सहर्ष मंजूरी दी व इस काल में अनेकों प्रकार के हावभाव से डिगाना चाहा । लेकिन मुनिवर किंचित मात्र भी न डिग पाये । यह थी इनकी धर्मवीरता । कितना था आत्मबल इनमें ! कौशी शर्मिन्दा हुई । पश्चात् श्राविका बनकर ब्रह्मचर्य आदि बारह व्रत धारण किये ।
चातुर्मास व्यतीत कर सब मुनिगण आचार्य श्री के पास गये। आचार्य श्री ने सब मुनियों के आगमन पर आशन पर बैठे-बैठे ही उनका स्वागत किया परन्तु मुनि स्थूलभद्रजी के आने पर प्रफुल्लता के साथ उठकर गले लगाया व कहा कि महा दुष्कर कार्य किया है । उन्होंने और भी अनेकों कार्य किये जो चिरस्मरणीय हैं । राजा महापद्मनन्द के पश्चात् यहाँ की सत्ता मर्य वंश के हाथ गई व चन्द्रगुप्त राजा बने । कहा जाता है कि जब 12 वर्ष का भयंकर दुष्काल पड़ा तब भद्रबाहु स्वामी आदि हजारों मुनिगणों ने दक्षिण की तरफ जाकर श्रवणबेलगोला में चन्द्रगिरि पर्वत पर निवास किया था। उस समय पाटलीपुत्र के तत्कालीन राजा चन्द्रगुप्त भी साथ थे ।
आर्य श्री स्थूलिभद्रजी ने भी भद्रबाहुस्वामीजी के पास रहकर दस पूर्वज्ञान का अभ्यास किया था । यहाँ पड़े 12 वर्ष दुष्काल के समय जैन आगमों को कंठस्थ रखने की परम्परा विच्छिन्न होती आ रही थी । उस समय श्रुतधर आर्य श्री स्थूलिभद्रजी ने जैन श्रमण संघ को यहाँ इकठ्ठा कर आगमों की वाचना एकत्रित करके व्यारह अंग सुव्यवस्थित किये यह पहली आगम वाचना मानी जाती है । (दिगम्बर मान्यता है कि भद्रबाहु स्वामी ने अकाल के समय 12000 साधुओं के साथ दक्षिण प्रान्त में चन्द्रगिरि पर्वत पर विश्राम