________________
प्रभु ने जिस वटवृक्ष के नीचे केवलज्ञान पाया उसे श्री पुरिमताल तीर्थ
अक्षय वटवृक्ष कहने लगे व उस समय से नगरी का
नाम प्रयाग पड़ा । तीर्थाधिराज * श्री आदीश्वर भगवान, श्वेत इन्द्रादि देवों ने केवलज्ञान-कल्याणक अति ही वर्ण, पद्मासनस्थ, लगभग 60 सें. मी. । (श्वे.)
उल्लासपूर्वक मनाकर रत्नत्रयी सुन्दर समवसरण की मन्दिर)।
रचना की । श्री आदीश्वर भगवान (दि. मन्दिर) ।
__ अद्वितीय रत्नों से जड़ित स्वर्ण-आभूषणों से सुसज्जित तीर्थ स्थल * इलाहाबाद शहर में ।
गज पर आरूढ़ प्रभु की मातु श्री मरूदेवी माता ने प्राचीनता * इस तीर्थ का इतिहास युगादिदेव अतिशययुक्त तीर्थंकरों के समवसरण वैभव को देखा । श्री आदिनाथ भगवान से प्रारम्भ होता है । यह कौशल आनन्दाश्रु के प्रबल प्रवाह से माता की आँखों में छाये जनपद की अयोध्या नगरी का एक उपनगर था । हुए जाले साफ हो गये । तत्काल ही समकाल में पुराने जमाने में यह स्थल पुतिमताल व प्रयाग नाम अपूर्वकरण के क्रम से वे क्षपकश्रेणी में आरूढ़ हुई, से मशहूर था । प्राचीन ग्रन्थों में इस नगरी का घातिया कर्मों का नाश होने से उन्हें केवलज्ञान प्राप्त पुरिमतालपाड़ा के नाम से भी उल्लेख हैं ।
हुआ । वे अन्तःकृत केवली हुई । उसी समय उनकी __प्रथम तीर्थंकर श्री आदीश्वर भगवान ने यहाँ शकटमुख आयु आदि अघाति कर्म भी नाश हो गये । उनकी नामक उद्यान में वटवृक्ष के नीचे शुक्लध्यान में रहते आत्मा हाथी के हौदे में ही देह त्याग कर मोक्ष हुए फाल्गुन कृष्णा ग्यारस के शुभ दिन उत्तराषाढ़ा सिधारी । नक्षत्र में प्रातः केवलज्ञान प्राप्त किया था ।
उस वक्त प्रभु के पौत्र श्री ऋषभसेन यहाँ के राजा (दि. मान्यतानुसार प्रभु का दीक्षा-कल्याणक भी इसी थे व उक्त अवसर पर अनेकों राजाओं के साथ दर्शनार्थ नगरी में हुआ )
आये व प्रभावित होकर दीक्षा अंगीकार की जो बाद में प्रभु के प्रथम गणधर बने ।
श्री अदिनाथ प्रभु (श्वे.) मन्दिर - पुरिमताल