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________________ श्री मूडबिद्री तीर्थ तीर्थाधिराज * श्री पार्श्वनाथ भगवान, कायोत्सर्ग मुद्रा, श्याम वर्ण, लगभग 15 फुट (दि. मन्दिर) । तीर्थ स्थल * मडबिद्री ग्राम में जिसे गुरुवसदि (सिद्धांत मन्दिर) कहते हैं । प्राचीनता * प्रामाणिक इतिहास से पता चलता है कि ई. पू. 4 वीं शताब्दी में श्रुतकेवली श्री भद्रबाहु स्वामी ने मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त एवं 12000 शिष्यों के साथ दक्षिण में आकर श्रवणबेलगोला में निवास किया । तब इनमें से कई मुनियों ने तमिल, तेलुगु, कर्नाटक एवं तौलब देशों में जाकर धर्म का प्रचार किया था । उन्होंने इस मूडबिद्री में भी आकर द्वीपान्तर में व्यवसाय करते हुए श्रावकों को उपदेश देकर अनेकों जिन मन्दिर बनवाए थे । सदियों तक यहाँ जाहोजलाली रही व अनेक जैन राजाओं ने यहाँ शासन किया । कालक्रम से यह स्थल चारों तरफ पेड़ों से घिरकर घना जंगल बन गया । लगभग ई. की 8वीं शताब्दी में श्रवणबेलगोला से इधर आये हुए एक प्रकाण्ड विद्वान आचार्य महाराज ने यहाँ पर अन्योन्य स्नेह से खेलते हुए बाघ और गाय को देखा । इस अपूर्व दृश्य को देखकर मुनि श्री आश्चर्य चकित हुए व इस अतिशय स्थल में खोज प्रारम्भ की तब चारों तरफ पेड़ों से छाये घने जंगल के बीच मुनि श्री को श्री पार्श्वनाथ प्रभु की विशालकाय इस मनोज्ञ प्रतिमा के दर्शन हुए । उन्होंने उसी स्थान पर सुन्दर जिनालय का निर्माण करवाकर ई. सं. 714 में इस अपूर्व सुन्दर प्रभु प्रतिमा को प्रतिष्ठित कराया । __ इस पुण्यस्थल की खोज गुरु महाराज के द्वारा होने के कारण यह मन्दिर गुरु वसदि नाम से प्रसिद्ध हुआ। इस मन्दिर में धवल, जयधवल एवं महाधवल नाम के महानः सिद्धान्त ग्रन्थ होने के कारण इसे सिद्धान्त मन्दिर भी कहते हैं । विशिष्टता* प्रभु प्रतिमा अत्यन्त सुन्दर व अतिशयकारी है । इसके अपूर्व अतिशय का उल्लेख ऊपर प्राचीनता में हो चुका है । यहाँ पर नवरत्नों की 35 प्रतिमायें है । इन प्रतिमाओं के दर्शन को सिद्धान्त दर्शन कहते हैं । हर एक जैनी के लिए इन प्रतिमाओं का दर्शन करना महान पुण्य स्वरूप है, जो अन्यत्र असंभव है । कहा जाता है, किसी जमाने में द्वीपान्तर जाकर वाणिज्य करने में यहाँ के श्रावक विख्यात थे । देशान्तर जाते समय देव दर्शन निमित्त नव रत्नों की जिन प्रतिमाएं पास रखते थे । संभवतः ये प्रतिमाएं उन्ही के द्वारा गुरुवसदि में प्रदान की गयी होंगी । __अन्य मन्दिर * इस मन्दिर के अतिरिक्त यहाँ पर 17 और अन्य मन्दिर हैं । प्रायः सारे मन्दिर प्राचीन है । कला और सौन्दर्य * यहाँ पर मन्दिरों में विराजित प्रभु प्रतिमाओं की कला का जितना भी वर्णन करें कम है । तीर्थाधिराज श्री पार्श्वप्रभु की चमकती हुई प्रतिमा किस पाषाण से निर्मित है, उसका पता लगाना कठिन है । ऐसी चमकती हुई प्रतिमा का अन्यत्र दर्शन दुर्लभ है । यहाँ की नवरत्नों की प्रतिमाएँ विशिष्ट कलापूर्ण हैं । इसके निकट ही ई. सं. 1430 में निर्मित हजार स्तम्भोंवाला त्रिभुवन तिलक चूडामणि मन्दिर है । वहाँ पर भैरवराजा की पटरानी नागलदेवी द्वारा निर्माणित भैरादेवी मण्डप के निचले भाग में अनुपम कलापूर्ण अनेकों सुन्दर चित्र उत्कीर्ण हैं । यहाँ के मूलनायक श्री चन्द्रप्रभ भगवान की खड्गासन में पंचधातु में बनी प्रतिमा 9 फुट उन्नत है जो कि पंचधातु में निर्मित प्रतिमाओं में उच्चतम मानी जाती है । इसी मन्दिर में स्फटिक की अनेकों प्राचीन प्रतिमायें हैं। यहाँ पर चौटर वंशीय जैन राजा के जीर्ण शीर्ण राजसभा मण्डप में विशाल स्तम्भों पर खुदी हुई नवनारी कुंजर व पंचनारी तुरंग की शिल्पकला दर्शनीय है । मार्ग दर्शन * यहाँ से नजदीक का रेल्वे स्टेशन मेंगलूर 35 कि. मी. दूर है, जहाँ से बस व टेक्सी की सुविधा है । मेंगनूर-शिमोगा मार्ग में यह तीर्थ स्थित है । मन्दिर तक पक्की सड़क है । सुविधाएं * ठहरने के लिए गाँव में सुन्दर रार्मशाला व सर्वसुविधायुक्त काटेज, गेस्ट हाउस है । जहाँ पर पानी, बिजली, बर्तन की सुव्यवस्था है । पूर्व सुचना देने पर नास्ता व भोजन का प्रवन्ध भी कर दिया जाता है । पेढी * स्वस्ति श्री चारुकीर्ति स्वामीजी श्री जैन मठ, पोस्ट : मूडबिद्री-574227. जिला : दक्षिण केनरा, प्रान्त : कर्नाटक,फोन : 08258-60418 व 60318. 168
SR No.002330
Book TitleTirth Darshan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Jain Kalyan Sangh Chennai
PublisherMahavir Jain Kalyan Sangh Chennai
Publication Year2002
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size45 MB
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