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________________ तथा निश्चिय किया था कि भविष्य में विदेह में जनता का अपना राज्य हो । इस निश्चिय स्वरूप जनता ने इक्ष्वाकु वंशी, ज्ञातृवंशी, भोगवंशी, कोरवंशी, उग्रवंशी, लिच्छिवीवंशी तथा विदेहवंशी आदि अष्ट कुल राजाओं को लेकर वज्जी संघ की स्थापना की तथा शासन व्यवस्था, न्याय व्यवस्था आदि के लिये विधान बनाये। राजा चेटक को इस संघ का राजप्रमुख बनाया गया । यह घटना प्रभु वीर और बुद्ध के पूर्व काल की मानी जाती है । इस संघ के निकट ही मल्लगण संघ और काशीकोल गण संघ थे । इन तीनों में पारस्परिक मैत्री संधि हो चुकी थी । विशालभूति और रोहक क्रमशः कासीकोल संघ तथा मल्लगण के गणपति थे । वज्जीसंघ द्वारा बनाये गये विधान के अनुसार प्रजा पर किसी प्रकार का कर नहीं था। पुराने कर भी समाप्त कर दिये गये थे । उस समय वैशाली एक अत्यन्त समृद्ध नगरी थी। लिच्छिवी वंशियों का यहाँ विशेष प्रभाव था ये ज्ञात्वंशी क्षत्रिय माने जाते थे । ये लोग सुन्दर, स्वाभिमानी, उदार, विनयी, शौकिन, फेशन परस्त थे, तथा इन्हें चैत्य और उद्यान बनाने का विशेष शौक था। उनमें अपना अपराध स्वीकार करने का नैतिक साहस था । आपस में प्रेम व सहानुभुति थी । ये लोग भगवान महावीर के प्रति अटूट श्रद्धा रखते हुए भी बुद्ध, मक्खली पुत्र गोशल, संजवबेलाडि पुत्र आदि अन्य मतावलंबियों का भी समान आदर करते थे। बौद्ध ग्रन्थों के आधार पर इस वज्जीसंघ के गणराज्य का विस्तार लगभग 2300 वर्गमील में फैल चुका था । इस संघ की राजधानी यह वैशाली थी । इतिहास से पता चलता है कि मगध नरेश श्रेणिक को वैशाली गणराज्य से बुरी तरह पराजित होना पड़ा था । काल का चक्र बदला । श्रेणिक के पुत्र अजातशत्रु ने वैशाली संघ में फूट डालकर उस पर चढ़ाई की । लाखों व्यक्तियों का संहार हुआ तथा प्रतापी राजा चेटक भी रण क्षेत्र में मृत्यु को प्राप्त हुआ । इस प्रकार वैशाली का वैभव समाप्त हुआ । अजातशत्रु के पुत्र उदयन के राजगद्दी पर आने के बाद वैशाली पुनः स्वतंत्र हुई । उदयन के बाद मगध देश की राजसत्ता राजा महापद्मनन्द के पास गई। राजा महापद्मनन्द भी जैनी थे। इसके पश्चात् श्री महावीर भगवान वैशाली लिच्छिवियों की सहायता से चन्द्रगुप्त ने मगध का राज्य प्राप्त किया । चन्द्रगुप्त को लिच्छिवी कुल की कन्या कुमारदेवी ब्याही गई । चन्द्रगुप्त के बाद समुद्रगुप्त राजा हुआ । उसने अनेक राज्यों को पराजित कर चक्रवर्ती का विरुद धारण किया था । अपने पिता के नाम पर स्वर्ण मुद्राएँ चलाई जिनमें एक 71
SR No.002330
Book TitleTirth Darshan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Jain Kalyan Sangh Chennai
PublisherMahavir Jain Kalyan Sangh Chennai
Publication Year2002
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size45 MB
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