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लाललललल
धनपाल कृत
तिलक मम्जरी
(एक सांस्कृतिक अध्ययन )
पुष्पा गुप्ता
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तिलकमंजरी यद्यपि संस्कृत गद्यकाव्य की कथा विद्या का एक ग्रन्थ है जो जैन आगमों और पुराणों के सीद्धान्तों और रूढ़िगत अवधारणाओं को प्रतिबिम्बित करता है, तथापि यह दसवीं - ग्यारहवीं शती की संस्कृति का परिचायक प्रतिनिधि ग्रन्थ है । तिलकमंजरी का विस्तृत सांस्कृतिक अध्ययन, जिसमें तत्कालीन मनोरंजन के साधन वस्त्र तथा वेशभूषा, आभूषण, प्रसाधन, सामाजिक स्थिति आदि का समूचा ब्यौरा प्रस्तुत किया गया है, अब तक नहीं किया गया था । प्रस्तुत पुस्तक में तिलकमंजरी कालीन सांस्कृतिक समृद्धि को प्रकाश में लाने का प्रथम प्रयास किया गया है । मध्य-युगीन भारतीय संस्कृति के अध्येताओं एवं शोधार्थियों के लिए यह पुस्तक अत्यधिक उयादेय होगी ।
ISBN No. 81-85263-44-2
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धनपाल कृत
तिलक-मञ्जरी
( एक सांस्कृतिक अध्ययन )
पुष्पा गुप्ता व्याख्याता संस्कृत विभाग
राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, सिरोही
प्रकाशक
पब्लिकेशन स्कीम
जयपुर-इन्दौर
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ISBN 81-85263-44-2
© डॉ. पुष्पा गुप्ता 1988
प्रकाशक श्रीमती प्रेमलता नाटाणी पब्लिकेशन स्कीम 57, मिश्र राजाजी का रास्ता, जयपुर 302001 ब्रांच-पालदा नाका, इन्दौर (म.प्र.)
वितरक शरण बुक डिपो गल्ता रोड़, जयपुर 302003
मुद्रक सर्वेश्वर प्रिर्टस, मनिहारों का रास्ता, जयपुर एवं अनुज प्रिटस, 26, रामगली नं. 8 राजापार्क, जयपुर-302004
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विषय-सूची
4
समर्पण प्राक्कथन
S.
1-23
24-33
प्रथम अध्याय धनपाल का जीवन, समय तथा रचनाएँ
धनपाल का जीवन एवं व्यक्तित्व, धनपाल का समय, धनपाल की रचनाएं।
द्वितीय अध्याय तिलक मंजरी की कथावस्तु का विवेचनात्मक अध्ययन
तिलक मंजरी-कथा का सारांश, आधिकारिक तथा प्रासंगिक इतिवृत्त, तिलक मंजरी का वस्तु-विन्यास, तिलक मंजरी के कथानक की लोकप्रियता, तिलक मंजरी के टीकाकार ।
तृतीय अध्याय धनपाल का पांडित्य
वेद तथा वेदांग, पौराणिक कथाएं, दार्शनिक सिद्धान्त, अन्य शास्त्र-धर्मशास्त्र, आयुर्वेद, गणित, संगीत, चित्रकला, सामुद्रिकशास्त्र, साहित्यशास्त्र, अर्थशास्त्र, कामशास्त्र तथा नाट्य-शास्त्र ।
चतुर्थ अध्याय तिलक मंजरी का साहित्यिक अध्ययन
कथा तथा आख्यायिका, तिलक मंजरी : एक कथा, धनपाल की भाषा-शैली, अलंकार-योजना, रसाभिव्यक्ति ।
54-91
92-144
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( iv )
पंचम अध्याय
तिलक मंजरी का सांस्कृतिक अध्ययन
मनोरंजन के साधन, वस्त्र तथा वेशभूषा, आभूषण, प्रसाधनप्रसाधन सामग्री, केश विन्यास, पुष्प प्रसाधन, पशु-पक्षी वर्ग, वनस्पति-वर्ग, खान-पान सम्बन्धी सामग्री |
षष्ठ अध्याय तिलक मंजरी में वर्णित सामाजिक व धार्मिक स्थिति
वर्णाश्रम व्यवस्था, पारिवारिक जीवन एवं विवाह, मेले, त्यौंहार, उत्सवादि, कृषि तथा पशुपालन, व्यापार, समुद्री व्यापार सार्थवाह, कलान्तर, न्यासादि, लेखन कला तथा लेखन-सामग्री, शस्त्रास्त्र, वाद्य, बर्तन, मशीनें तथा अन्य गृहोपयोगी वस्तुएं, धार्मिक सम्प्रदाय, विभिन्न व्रत तथा तप धार्मिक व सामाजिक, मान्यताएं, श्रंघ - विश्वास, शकुनअपशकुन ।
उपसंहार सहायक-ग्रन्थ-सूची
145-202
203-245
246-247
249-254
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"पूज्य गुरुवर डॉ० रसिक विहारी जोशी, प्रोफेसर एवं अध्यक्ष दिल्ली विश्वविद्यालय
के चरण-कमलों में सादर समर्पित"
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प्राक्कथन प्रस्तुत पुस्तक 'तिलकमंजरी, एक सांस्कृतिक अध्ययन' मेरे शोध-प्रबन्ध धनपाल विरचित तिलकमंजरी का आलोचनात्मक अध्ययन पर प्राधारित है, जो सन् 1977 में जोधपुर विश्वविद्यालय द्वारा पी. एच. डी. उपाधि हेतु स्वीकृत किया गया था।
तिलकमंजरी संस्कृत गद्य-विद्या में लिखी गई एक अत्यधिक मनोरंजक, सांस्कृतिक तथा साहित्यिक दृष्टि से समृद्ध कथा है । सांस्कृतिक दृष्टि से इसका महत्व इसलिए और भी अधिक बढ़ गया है क्योंकि यह जैन धर्म एवं संस्कृति की पृष्ठ भूमि पर आधारित है। तिलकमंजरी पर कुछ शोध-कार्य पहले भी हुआ है लेकिन इसकी सांस्कृतिक समृद्धि पर आलोचकों ने समग्र ध्यान नहीं दिया। इसी प्रभाव को दृष्टिगत रखते हुए मेरे मन में प्रस्तुत पुस्तक के प्रकाशन का विचार स्फुरित हुआ जिसकी क्रियान्वति के फलस्वरूप यह पुस्तक प्रकाश में आयी। इसके लेखन में यद्यपि मैंने ग्रन्थकार के जीवन, पांडित्य, कथा का साहित्यिक मूल्यांकन प्रादि विषयों पर भी पर्याप्त प्रकाश डाला है तथापि मेरा प्रमुख प्रयास यही रहा है कि पाठकों और शोधकर्ताओं को दशम-एकादश शती की संस्कृति के परिचायक, इस प्रतिनिधि ग्रन्थ का पूर्ण विवरण प्राप्त हो सके । तत्कालीन राजाओं एवं जनसाधारण के मनोरंजन के साधन, वस्त्र एवं वेशभूषा, आभूषण, प्रसाधन सामग्री, केश-विन्यास आदि पर विस्तार से प्रकाश डालते हुए समकालीन अन्य ग्रन्थों के उद्धरणों से भी तुलनात्मक अध्ययन आधुनिक वैज्ञानिक शोध-पद्धति के आधार पर किया गया है।
तिलकमंजरी कथा के ग्रन्थकार गद्य कवि धनपाल दशम तथा एकादश शती के विद्वान् कवि हैं, जिनकी ख्याति इस एक ग्रन्थ से ही पूरे देश में फैल गई थी। धनपाल ने सीयक, सिन्धुराज, मुञ्ज एवं भोजराज जैसे यशस्वी एवं पराक्रमी परमार राजाओं का आश्रय प्राप्त कर 'सरस्वती' विरुद पाया था। अतः उनके प्रति कृतज्ञता प्रदर्शन हेतु उसने तिलकमंजरी की प्रस्तावना में 12 पद्य प्रशस्ति स्वरूप रचे हैं।
महाकविनय दण्डी, सुबन्धु एवं बाणभट्ट ने गद्य-साहित्य की जो अलोकिक ज्योति प्रज्वलित की थी, अनेक दशकों तक उसे पुनर्दीप्त करने का साहस परवर्ती कवियों को नहीं हुआ किंतु धनपाल ने वाणभट्ट को अपना आदर्श मानते हुए तिलकमंजरी की रचना से गद्य श्री को पुनः समृद्ध किया । उन्होने यह रचना
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(vii)
अत्यधिक सुबोध, अल्पसमासयुक्त एवं ललित तथा प्रान्जल भाषा में रची। उनका आदर्श गद्य 'नाति श्लेषधन' था ।
तिलकमंजरी राजकुमार हरिवाहन एवं विद्याधरी तिलकमंजरी की प्रेमकथा है, अतः ग्रन्थ का नामकरण नायिका के नाम के आधार पर है । इसकी कथा जैन धर्म के सिद्धान्त ग्रन्थों की प्राख्यायिकाओं पर आधारित है ।
प्रस्तुत पुस्तक छ: अध्यायों में विभक्त है । प्रथम अध्याय धनपाल के जीवन, काल निर्धारण तथा रचनाओं के उपलब्ध सामग्री के आधार पर विवेचन से सम्बद्ध है । धनपाल सर्वदेव का पुत्र एवं देवर्षि का पौत्र था इनके भ्राता शोभन ने श्री महेन्द्रसूरि से जैन धर्म में दीक्षा प्राप्त की थी तथा कालान्तर में भ्राता के प्रभाव से इन्होंने भी जैन धर्म स्वीकार कर लिया था । वे परमार नरेशों की राज सभा के सम्मान्य एवं अग्रणी कवि थे । बाह्य तथा अन्तः साक्ष्य के आधार पर उसका समय, 10वीं सदी का उत्तरार्ध तथा 11वीं सदी का पूर्वाधं निश्चित होता है । उसकी प्रसिद्धि प्रमुखतः तिलकमंजरी पर ही आधारित है । ऋषभपंचाशिका, पाइयलच्छीनाममाला, वीरस्तुति सत्यपुरीयमहावीरोत्साहादि उनकी अन्य रचनाएं हैं । द्वितीय अध्याय में तिलकमंजरी के कथानक प्रस्तुत किया गया है । सर्वप्रथम कथा का सारांश प्रासंगिक तथा आधिकारिक भेदों का निरूपण किया गया है । तत्पश्चात् वस्तुविन्यास की दृष्टि से तिलकमंजरी के कथानक का मूल्यांकन किया गया है, जिसमें प्रमुख कथा - मोड़ों का स्पष्टीकरण तथा उद्देश्य वर्णित किया गया है । तदनन्तर परवर्ती कवियों द्वारा तिलकमंजरी के तीन पद्य रूपान्तरों एवं तिलकमंजरी के टीकाकारों का विवरण दिया गया है ।
का विवेचनात्मक अध्ययन प्रस्तुत करके कथावस्तु
तृतीय अध्याय में व्युत्पत्ति की दृष्टि से धनपाल के पांडित्य को विवेचित करने वाली सामग्री का संकलन करके तिलकमंजरी का मूल्यांकन किया गया है । वेद-वेदांग, पौराणिक साहित्य, दार्शनिक साहित्य तथा धर्मशास्त्र, आयुर्वेद, गणित संगीत, चित्रकला, सामुद्रिक शास्त्र, साहित्य शास्त्र, अर्थ शास्त्रादि विभिन्न शास्त्रों से सम्बन्धित सामग्री का विवेचन इस अध्याय में किया गया है ।
चतुर्थ अध्याय में साहित्यिक विश्लेषण प्रस्तुत किया गया है, जिसमें कथा तथा आख्यायिका तिलकमंजरी : एक कथा, धनपाल की भाषा, शैली, तिलकमंजरी में अलंकारों का प्रयोग, रसाभिव्यक्ति आदि विषयों पर प्रकाश डाला गया है ।
पंचम एवं षष्ठ अध्याय में तिलक मंजरी कालीन सामाजिक एवं सास्कृतिक स्थिति का विशद एवं विस्तृत ब्यौरा दिया गया है । तत्कालीन मनोरंजन के
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साधन, वेषभूषा आभूषण, प्रसाधन, केश-विन्यास आदि का विवरण तुलनात्मक प्रध्ययन द्वारा दिया गया है इनके अतिरिक्त तिलक मंजरी में वर्णित पशु-पक्षी, वनस्पति-वर्ग, खान-पान से सम्बन्धित विविध सामग्री का अध्ययन भी प्रस्तुत किया गया है । तत्कालीन सामाजिक व धार्मिक जीवन जैसे वर्णाश्रम व्यवस्था पारिवारिक जीवन, स्त्री का स्थान, विवाह मेले त्योंहार, उत्सवादि का भी विस्तृत विश्लेषण किया गया है । इस प्रकार का शोध-एवं अध्ययन इससे पूर्व नहीं किया गया था।
___ अंत में, मैं इस पुस्तक की आधारभूत सामग्री के संकलन में मुझे जिन-जिन का सहयोग प्राप्त हुआ है उन्हें धन्यवाद ज्ञापन करना चाहुंगी। सर्वप्रथम मैं संस्कृत के लब्धप्रतिष्ठित, अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त, मूर्धन्य विद्वान् डॉ० रसिक विहारी जोशी, प्रोफेसर एवं अध्यक्ष, दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रति अपना हार्दिक आभार प्रकट करती हूँ जिन्होंने मुझे संस्कृत शोध की आधुनिक वैज्ञानिक पद्धति में दीक्षित किया और तिलकमंजरी के दुरूह स्थलों को समझने में मेरा मार्गनिर्देशन किया।
मैं राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान, दिल्ली एवं विश्वविद्यालय अनुदान आयोग, दिल्ली के प्रति भी कृतज्ञ हूँ, जिन्होंने मुझे शोध-कार्य हेतु आर्थिक सहयोग प्रदान किया।
मैं राजस्थान प्राच्य-विद्या-प्रतिष्ठान, जोधपुर, सुमेर पब्लिक लाइब्रेरी, जोधपुर, सेन्ट्रल लाइब्रेरी, जोधपुर विश्वविद्यालय के प्रति भी अपना आभार प्रकट करती हूँ जिन्होंने ग्रन्थ सोविध्य द्वारा मुझे सहायता प्रदान की।
__ मैं अपने उन सभी गुरुजनों, मित्रों और बन्धुओं को धन्यवाद ज्ञापित करती हूँ, जो परोक्ष और अपरोक्ष रूप में मेरे इस कार्य में प्रेरक रहे।
मेरे पति श्री अरुण कुमार गुप्ता को धन्यवाद देने के लिये मेरे पास कोई शब्द नहीं हैं, जिनके सहयोग के अभाव में इस कार्य के पूर्ण होने की कोई सम्भावना ही नहीं थी।
अत में, मैं प्रोप्राइटर पब्लिकेशन स्कीम के प्रति अपना हार्दिक आभार प्रदर्शित करती हैं, जिनके सहयोग से मैं अपनी कृति को विद्वानों के समक्ष प्रस्तुत कर सकी।
आशा करती हूं कि प्रस्तुत पुस्तक संस्कृति प्रेमी विद्वद्जनों एवं शोधार्थियों के ज्ञानवर्धन में सहायक होगी।
निवेदिका
- पुष्पा गुप्ता 6.7.88
वहित्रावास-सिरोही
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धनपाल का जीवन, समय तथा रचनायें
धनपाल का जीवन एवं व्यक्तित्व
अन्तरंग व बाह्य दोनों प्रमाणों से हमें धनपाल के जीवन से सम्बन्धित प्रचुर सामग्री प्राप्त होती है । धनपाल ने स्वयं अपनी रचनाओं में अपने विषय में निम्नलिखित जानकारी प्रदान की है ।
तिलक मंजरी की प्रस्तावना
इसमें धनपाल ने अपने पितामह, पिता तथा स्वयं अपने विषय में लिखा है | अपने पितामह देवर्षि के दान की महिमा का गान करते हुए वे कहते हैं“मध्यदेश के अत्यन्त समृद्ध नगर सांकाश्य में एक द्विज उत्पन्न हुआ, जो दानवर्षित्व से विभूषित होते हुए भी देवर्षि नाम से प्रसिद्ध हुआ । "1 इससे ज्ञात होता है कि धनपाल के पूर्वज मूलत: मध्यदेश के सांकाश्य नगर के निवासी थे । यह नगर वर्तमान समय में फर्रुखाबाद जिले में 'संकिसा' नाम से जाना जाता है । 2 इन्हीं देवर्षि के पुत्र सर्वदेव हुए, जो समस्त शास्त्रों के अध्येता, कर्मकाण्ड में निपुण, काव्य - निबन्धन और काव्य-अर्थ दोनों में समान रूप से कुशल होते हुए साक्षात् ब्रह्मा के समान थे ।
प्रथम अध्याय
इन्हीं विद्वान् ब्राह्मण का पुत्र था धनपाल, जिसे सकल विद्यासागर राजा मुंज ने अपनी सभा में 'सरस्वती' विरुद प्रदान किया था तथा जिसने
1.
2.
3.
1
आसीद्धिजन्माऽखिलमध्यदेश प्रकाशसांकाश्यनिवेशजन्मा । अलब्ध देवहिरिति प्रसिद्धि, यो दानवर्षित्वविभूषितोऽपि ॥
– तिलकमंजरी, 51, पृ. 7
(क) Indian Historical Quarterly, March, 1929, p. 142. (ख) प्रेमी, नाथूराम; जैन साहित्य और इतिहास, पृ. 409 शास्त्रेष्वधीती कुशलः क्रियासु, बन्धे च बोधे च गिरां प्रकृष्टः । तस्यात्मजन्मा समभून्महात्मा, देवः स्वयम्भूरवि सर्वदेवः ।।
- तिलकमंजरी, 52, पृ. 7
तिलक मंजरी, 53, पृ. 7
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तिलकमंजरी, एक सांस्कृतिक अध्ययन
राजा भोज के जिनागमोक्त कथाओं में कुतूहल होने पर उनके विनोद हेतु तिलक
मंजरी की रचना की थी ।
2
(2) इसके अतिरिक्त धनपाल ने अपने कनिष्ठ भ्राता शोभन का परिचय दिया है । शोभन ने 24 तीर्थंकरों की स्तुति में यमक अलंकारमण्डित स्तुतिचतुविशतिका' की रचना की थी । यह तीर्थेशस्तुति तथा शोभन -स्तुति के नाम से भी प्रसिद्ध हुई थी। इस स्तुति पर धनगल ने वृत्ति लिखी है । इस वृत्ति के प्रारम्भ के सात पद्यों में उसने अपने अनुज का परिचय दिया है जिसमें से प्रारम्भिक दो पद्य तिलक मंजरी में भी प्राप्त होते हैं 5
शोभन न केवल नाम से ही अपितु सुन्दर वर्णयुक्त शरीर से भी सुशोभित था । वह अपने गुणों से अत्यन्त पूज्य व प्रशंसनीय था । वह साहित्यसागर का पारगामी था । उसने कातन्त्र व चन्द्र व्याकरण का अध्ययन किया था । जैन-दर्शन में तो वह निष्णात था ही, बौद्ध दर्शन का भी उसने गहन अध्ययन किया था, अत: वह समस्त कवियों में आदर्श स्वरूप था । 6
इस टीका की रचना धनपाल ने शोभन की मृत्यु के पश्चात् की थी, जैसाकि उसने अपनी वृत्ति में कहा है । 7
(3) शोभन के अतिरिक्त धनपाल के एक छोटी बहिन सुन्दरी भी थी, जिसके लिए उसने वि. सं. 1029 में पाइयलच्छीनाममाला नामक प्राकृत कोष की रचना की थी 18
1.
2.
3.
4.
स्तुतिचतुर्विंशतिका - (स.) हीरालाल रसिकदास कापड़िया, आगमोदय समिति, बम्बई 1926, पृ. 1, 2
5.
तिलक मंजरी - प्रस्तावना, पद्य 51, 52
6. स्तुतिचतुर्विंशतिका, धनपाल कृत टीका, 3, 4
7.
एतां यथामति विमृश्य निजानुजस्य. तस्योज्ज्वलं कृति मलंकृतवान् स्ववृत्त्या । अभ्याfथतो विदघता त्रिदिवप्रयाणं, तेनैव साम्प्रतकविर्धनपालनामा ॥ :
पाइयलच्छीनाममाला, गाथा 276, 277
वही, 50, पृ. 7
स्तुतिचतुविशतिका, काव्यमाला (सप्तम गुच्छक. 1890
Velankar, H D. Jinaratna Kosa, Part I, B.O.R.I., 1944, p. 387
8.
. - स्तुतिचतुर्विंशतिका, पद्य 1
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धनपाल का जीवन, समय तथा रचनायें
धनपाल की रचनाओं से प्राप्त इन सूचनाओं के अतिरिक्त प्रभाचन्द्रसूरिक्त प्रभावकचरितगत (वि. सं. 1334) महेन्द्रसूरिप्रबन्ध, मेरुतुंग कृत प्रबन्ध चिन्तामणि (वि. सं. 1361), संघतिलकसूरिकृत सम्यकत्वसपृतिटीका (वि. सं. 1422), रत्नमंदिरगणिकृत भोजप्रबन्ध (वि. सं. 1517), इन्द्रहंसगणि कुत उपदेशकल्पवल्ली (वि. सं. 1555), हेमविजयगणि कृत कथारत्नाकार (वि. सं. 1657), जिनलाभसूरि कृत आत्मप्रबोध (वि. सं. 1804), विजयलक्ष्मीसूरि कृत उपदेशप्रसादादि (वि. सं. 1843) जैन ग्रन्थों से हमें धनपाल के जीवन से सम्बन्धित विस्तृत विवरण प्राप्त होता है। वस्तुतः प्रभावकचरित तथा प्रबन्धचिन्तामणि, ये दोनों जैन प्रबन्ध धनपाल के जीवन-चरित पर विशेष प्रकाश डालते हैं, शेष सभी ग्रन्थों में इन्हीं का अनुकरण किया गया है। अतः हमारा अध्ययन प्रमुखतः इन्हीं ग्रन्थों पर आधारित है ।
. प्रभावकचरित का रचनाकाल धनपाल के समय से लगभग 300 वर्ष पश्चात् का है, अत: इसमें ऐतिहासिक तथ्यों का दन्त कथाओं के साथ मिश्रित होना स्वाभाविक है।
धनपाल के पूर्वज मूलतः मध्यदेश के सांकाश्य नगर के निवासी थे, किन्तु आजीविका हेतु धारा नगरी में आकर बस गये थे। धनपाल के पितामह देवर्षि अत्यन्त दानी व पुण्यात्मा थे, उन्हें राजा से दक्षिणा के रूप में प्रचुर धन प्राप्त होता था। ये काश्यपगोत्रीय श्रेष्ठ ब्राह्मणों के कुल में उत्पन्न हुए थे तथा अंगों सहित चारों वेदों में पारंगत थे। धनपाल के पिता सर्वदेव स्वयं वेद-वेदांगों तथा शास्त्रों के प्रकाण्ड विद्वान् तथा काव्य निर्माता थे। सर्वदेव के दो पुत्र रत्न उत्पन्न हुए, ज्येष्ठ धनपाल तथा कनिष्ठ शोभन । शोभन प्रकृति से सरल और पितृभक्त था । धनपाल ने वेद, स्मृतियों तथा श्रुतियों का गहन अध्ययन किया था । इन्होंने अपनी विद्वता से भोज की सभा में सर्वोच्च स्थान प्राप्त कर लिया था । धनपाल मुंजराज के पुत्र समान थे तथा भोज के बाल मित्र थे। ये वैदिक
1. कापड़िया, हीरालाल रसिकदास; प्रस्तावना-ऋषभपंचाशिका अने वीर
स्तुतियुगलरूप कृतिक्लाप, देवचन्द लालभाई जैन पुस्तकोद्धार ग्रन्यांक
81, 1933 2. प्रभाचन्द्र, प्रभावकचरित-श्री महेन्द्रसूरि चरित-पृ. 138-151 3. मेख्तुंग, प्रबन्ध चिन्तामणि, भोज-भीम प्रबन्ध, पृ, 36-42 4. "प्रभावकचरित, पृ. 138-139
अभ्यस्तसमस्तविद्यास्थानेन धनपालेन श्रीभोजप्रसादसम्प्राप्तसमस्तपण्डित प्रष्ठप्रतिष्ठेन......।
-मेरुतुंग, प्रबन्ध चिंतामणि, पृ. 36 प्रभावकचरित, पृ. 139
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तिलकमंजरी, एक सांस्कृतिक अध्ययन
धर्म के अनुयायी और कट्टर ब्राह्मण थे, किन्तु बाद में अपने अनुज शोभन से प्रभावित होकर उन्होंने जैन-धर्म स्वीकार कर लिया था। इनके द्वारा जैन धर्म स्वीकार करने की कथा प्रभावकचरित में निम्न प्रकार दी गयी है-'धनपाल के पिता सर्वदेव चान्द्रगच्छ के महेन्द्रसूरि की प्रसिद्धि सुनकर उनके उपाश्रय में गये । सूरि के पूछने पर सर्वदेव ने कहा कि मेरे पिता देवर्षि राजमान्य थे तथा उन्होंने लाखों की दक्षिणा प्राप्त की थी, अतः मुझे अपने घर में गुप्त धन प्राप्त होने की आशा है। दूरदर्शी सूरि ने ज्ञात कर लिया कि सर्वदेव से उन्हें उत्तम शिष्य का लाभ हो सकता है । अतः उन्होंने आधा धन लेने का वचन ले लिया। शुभ दिन में मुनि के कथनानुसार भू-खनन से सर्वदेव को 40 लाख स्वर्ण मुद्रायें प्राप्त हुयीं, किन्तु धन के प्रति निःस्पृह सूरि अपने उपाश्रय में चले गये । सर्वदेव द्वारा पुनः पुनः आग्रह करने पर मुनि ने पुत्रद्वय में से एक पुत्र के शिष्य के रूप में प्रदान करने को कहा। इस पर प्रतिज्ञाबद्ध सर्वदेव किंकर्तव्यविमूढ़ से घर लौट आये तथा धनपाल को महेन्द्र सूरि का शिष्यत्व ग्रहण कर उनको इस ऋण से मुक्त करने के लिए कहा। यह सुनकर स्वाभिमानी धनपाल ने अत्यन्त क्रोध से कहा-'हम चारों वेदों के ज्ञाता तथा सांकाश्य के रहने वाले उत्तम ब्रह्मण हैं। श्री मुंजराज का मैं पुत्र सदृश तथा श्री भोजराज का बाल-मित्र हूँ । अतः पतित शूद्रों के समान श्वेत साधुओं से दीक्षा लेकर अपने पूर्वजों को नरक में नहीं डालूंगा तथा सज्जनों द्वारा निन्दित यह व्यवहार नहीं करूंगा।' इस प्रकार धनपाल द्वारा प्रताड़ित सर्वदेव अत्यन्त निराश हो गया किन्तु उसी समय शोभन ने उसे आकर आश्वस्त किया। उसने कहा कि धनपाल राजपूज्य है तथा कुटुम्ब का पालन करने में सक्षम है । बह वेद, स्मृति, श्रुति में पारंगत तथा पण्डितों में अग्रगण्य है। तब शोभन ने श्री महेन्द्रसूरि से जैन धर्म में दीक्षा लेना स्वीकार कर लिया। शुभ मुहूर्त में सूरि द्वारा शोभन को दीक्षित किया तथा वे उसे अपने साथ अणहिल्लपुर ले गये।
धनपाल पिता के इस कृत्य से रुष्ट होकर उससे अलग हो गया तथा राजा भोज की आज्ञा से द्वादश वर्ष पर्यन्त मालवा में श्वेताम्बर साधुओं के आवागमन पर रोक लगवा दी। अपने भ्राता के इस द्वेष को देखकर शोभन ने धनपाल का प्रतिबोधन करने का निश्चय किया तथा दो मुनियों को उसके घर गोचरी के लिए भेजा। उन्होंने धनपाल के घर जाकर धर्मलाभ कहा तो धनपाल की पत्नी ने उन्हें उषितान्न तथा तीन दिन का दही दिया। उनके यह पूछने पर कि यह दही कितने दिन का है, उसने क्रोध से कहा कि इसमें कीड़े हैं ? तब उन जैन साधुओं ने उसमें अलक्तक रस डालकर दही में तैरते कीड़े दिखाये । जैन धर्म में जीव-रक्षा की प्रधानता व जीवोत्पत्ति विषयक ज्ञान का वैशिष्ट्य जानकर धनपाल
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धनपाल का जीवन, समय तथा रचनायें
में जैन धर्म के प्रति श्रद्धा उत्पन्न हुई, और उसने महेन्द्रसूरि से जैन धर्म की दीक्षा ली।
इस कथा से निम्नलिखित तथ्यों का संग्रह किया जा सकता है
(1) पिता की आज्ञा से धनपाल के अनुज शोभन ने श्री महेन्द्रसूरि का शिष्यत्व ग्रहण कर जैन धर्म में दीक्षा ली थी।
(2) धनपाल ने अपने पिता के इस कृत्य से रुष्ट होकर द्वादश वर्ष पर्यन्त धारानगरी में श्वेताम्बर जैनों के आवागमन पर रोक लगवा दी।
(3) कालान्तर में अपने भ्राता के सौजन्य से एवं जैन धर्म के सिद्धान्तों से प्रभावित होकर उसने जैन धर्म स्वीकार कर लिया एवं श्री महेन्द्रसूरि से दीक्षा प्राप्त की। तिलकमंजरी की प्रस्तावना में धनपाल ने अपने गुरु को आदरपूर्वक नमस्कार किया है ।
प्रभावकचरित में धनपाल की पत्नी धनश्री का उल्लेख मिलता है । प्रबन्धचिंतामणी में उसके लिए केवल ब्राह्मणी शब्द का प्रयोग हुआ है।
धनपाल के विषय में एक और दन्तकथा अत्यधिक प्रचलित हुयी थी। जिसका सार यह है कि धनपाल ने जब तिलकमंजरी कथा की रचना की तो भोज ने उसमें कुछ परिवर्तन करने के लिए कहा कि अयोध्या के स्थान पर धारा, शक्रावतार के स्थान पर महाकाल मन्दिर, ऋषभ के स्थान पर शंकर तथा मेघवाहन के स्थान पर परिवर्तन कर स्वयं मेरा नाम लिख दो । इस पर स्वाभिमानी धनपाल ने कहा कि जिस प्रकार श्रोत्रिय के हाथ के दुग्धपात्र में मदिरा की एक बूंद भी गिर जाय तो वह अपवित्र हो जाता है, इसी प्रकार इम कथा में परिवर्तन करने पर यह भी अपवित्र हो जायेगी। धनपाल के कथन से क्रुद्ध होकर भोज ने तिलकमंजरी को अग्नि की भेंट कर दिया, किन्तु अपनी विदुषी पुत्री की सहायता से धनपाल ने इसकी पुनः रचना की। भोज के इस व्यवहार से अपमानित होकर धनपाल धारा नगरी छोड़कर मरुमण्डल के सत्यपुर नामक स्थान को चला गया।
1. प्रभावकचरित, पृ. 138-139; प्रबन्धचिंतामणि, 36-37 2. सूरिमहेन्द्र एवैको वैबुधाराधितक्रमः ।। यस्मामत्योचितप्रीढिकविविस्मयकृद्धचः ।।
-तिलकमंजरी, पद्य 34 3. प्रभावकचरित, पृ. 139 4. प्रबन्धचितामणि, पृ. 37 5. प्रभावकचरित, पृ. 145-146 .. .
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तिलकमंजरी, एक सांस्कृतिक अध्ययन
यद्यपि इस कथा को प्रमाणित करने वाला अन्य कोई साक्ष्य उपलब्ध नहीं है, किन्तु इसमें निहित कुछ तथ्य हमें प्राप्त होते हैं
(1) धनपाल की पुत्री अत्यन्त विदुषी थी, उसकी स्मरण शक्ति बहुत तीव्र थी।
(2) धनपाल अत्यन्त स्वाभिमानी थे व चाटुकारिता से दूर रहते थे।
(3) धनपाल धारा नगरी छोड़कर कुछ समय सत्यपुर नगर में रहे । धनपाल ने सत्यपुर के महावीर की स्तुति में अपभ्रंश भाषा में 30 पद्यों की रचना की है । इस रचना से भी इसकी पुष्टि होती है।
धनपाल ने भोज की सभा में कौल कवि धर्म के साथ वाद-विवाद कर उसे पराजित किया था। श्री मुंज ने धनपाल को अपनी सभा में 'कूर्चाल सरस्वती' बिरुद प्रदान किया था । धनपाल की तिलकमंजरी से भी इस तथ्य की पुष्टि होती है । धनपाल ने तिलकमंजरी की रचना करके अणहिल्लपुर के श्री शान्तिसूरि से भेंट की तथा जैन धर्म की दृष्टि से कोई दोष नहीं रह गया हो, इस प्रकार उसका संशोधन करवाया।
धनपाल श्वेताम्बर जैन थे। तिलकमंजरी की भूमिका में धनपाल ने सभी श्वेताम्बर जैन कवियों को नमस्कार किया है । प्रभावकचरित के अनुसार धनपाल ने अपने धन का सात क्षेत्रों में वितरण किया, जिनमें सर्वप्रथम चैत्यनिर्माण था। उसने नामिसुनू अर्थात् ऋषभदेव का चैत्य बनवाया तथा उसमें
1. जैन-साहित्य-संशोधक, खण्ड 3, अंक 3 2. प्रभावकचरित, पृ. 146-149 3. पुरा ज्यायान्महाराजस्त्वामुत्संगोपवेशितम् । प्राहेति बिरुदं तेऽस्तु श्री कूर्चालसरस्वती ।। 271।।
-वही, पृ 148 4. ""श्रीमुंजेन सरस्वतीति सदसि क्षोणीमृता व्याहृतः ।।
-तिलकमंजरी-पद्य 53 5. अथासौ गूर्जराधीश कोविदेशशिरोमणिः । .
वादिवेतालविशंद श्रीशान्त्याचार्यमाह्वयत् ।। 201॥ अशोधयदिमां चासावुत्सूत्रादिप्ररूपणात् । शब्दसाहित्यदोषास्तु सिद्धसारस्कोषुकिम् ।। 202।।
-प्रभावकचरित, पृ. 145 6. तिलकमंजरी, पद्य 24, 32, 34..
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धनपाल का जीवन, समय तथा रचनायें
अपने गुरु से ऋषभदेव की प्रतिमा की प्रतिष्ठा करवायी। उसी ऋषभदेव की स्तुति में उसने 'जय जंतु कप्प' यह पंचशतगाथामय स्तुति की रचना की।
धनपाल ने विभिन्न जैन तीर्थों का भ्रमण किया था इसका निर्देश उन्होंने अपनी रचना 'सत्यपुरीय-महावीर-उत्साह' में दिया है । वे कहते हैं
कोरिट, सिरिमाल, धार, आहाडु नराणड अणहिलवाडडं, विजयकोट्ट पुण पालित्ताणं । पिक्खिबि ताव बहुत्त ठाममणि चो छ पइसर
जं अज्जवि सच्चाउरिवीरू लोहणिहि न दोसइ । अर्थात् उन्होंने कोरटंक, श्रीमालदेश, धार, आहाड़, नराणा, अणहिलवाड़, पाटण, विजयकोट्ट तथा पालिताणा आदि जैन तीर्थों की यात्रा की थी।
इस प्रकार हमें धनपाल की रचनाओं तथा परवर्ती जैन प्रबन्धों से उसके जीवन के विषय में विस्तृत जानकारी प्राप्त होती है।
धनपाल का समय सौभाग्यवश धनपाल उन संस्कृत कवियों में है, जिनके समय के विषय में अधिक मतभेद नहीं है। इसका कारण यह है कि उन्होंने स्वयं अपने प्राकृत कोष पाइयलच्छीनाममाला के अन्त में उसके रचनाकाल का स्पष्ट निर्देश किया है । पाइयलच्छी के अन्त में उसने लिखा है-'विक्रम के 1029 वर्ष बीत जाने पर जब मालवनरेश ने मान्यखेट पर आक्रमण करके उसे लूटा, उस समय धारानगरी में निवास करने वाले कवि धनपाल ने अपनी कनिष्ठ भगिनी सुन्दरी के लिए इस कोष की रचना की।
इस उद्धरण में जिस मालवनरेश का उल्लेख किया गया है, वह परमार नरेश सीयक है, इसकी पुष्टि ऐतिहासिक प्रमाणों से होती है। जिस समय का उल्लेख किया गया है, उस समय मान्यखेट पर राष्ट्रकूट खोट्टिग राज्य करता था। उदेपुर प्रशस्ति में सीयक द्वारा खोट्टिग को हराये जाने का विवरण प्राप्त
1.
प्रभावकचरित, पद्य 191-193, पृ. 145 विक्कमकालस्स गए अउणत्तीसुत्तरे सहस्सम्मि । मालवनरिंदधाडीए लूडिए मन्नखेडम्मि ।। 276 ।। धारानयरीए परिठ्ठिएण मग्गे ठिाए अणवज्जे । कज्जे कणि?बहिणीए 'सुन्दरी' नामधिज्जाए ।। 277 ।।। -धनपाल, पाइयलच्छीनाममाला, (सं) बेचरदास जीवराज
दोशी, बम्बई, 1960 Bombay Gazette, Part II, p. 422
3.
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तिलकमंजरी, एक सांस्कृतिक अध्ययन
होता है । शिलालेखों से भी इसकी पुष्टि होती है । खोट्टिग का एक शिलालेख शक सं. 893 अर्थात् ई. स. 971 का प्राप्त हुआ है तथा उसके उत्तराधिकारी कर्कराज का एक ताम्रपत्र शक सं. 894 अर्थात् ई. स. 972 का मिला है। अतः खोट्टिग सीयक के साथ युद्ध करते हुए ई. स. 972 से पूर्व मारा गया। सीयक ने मालवा पर ई. स. 949-972 तक राज्य किया तथा इनकी राजधानी धारा नगरी थी। अतः यह अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है कि धनपाल ने अपना साहित्यिक जीवन सीयक के शासनकाल में प्रारम्भ किया तथा सीयक ही उसका प्रथम आश्रयदाता था। इसी सीयक अपरनाम श्री हर्षदेव की प्रशंसा करते हुए धनपाल तिलकमंजरी में लिखता है कि पंचेषु के समान श्रीसीयक के पौरूषगुण रूप सायकं किसके हृदय में नहीं लगे।
पाइयलच्छीनाममाला धनपाल की प्रथम रचना प्रतीत होती है । इसके मंगलाचरण में धनपाल ने ब्रह्मा को नमस्कार किया है। अपनी अन्य सभी रचनाओं में धनपाल ने 'जिन' का स्मरण किया है। अतः पाइयलच्छी की रचना तक धनपाल ने जैन धर्म अंगीकार नहीं किया था।
धनपाल के काल की प्रारम्भिक सीमा तिलकमंजरी की प्रस्तावना की सहायता से निर्धारित की जा सकती है। संस्कृत गद्य-कवियों की परम्परा का अनुसरण करते हुए धनपाल ने तिलकमंजरी में अपने पूर्ववर्ती कवियों एवं उनकी
1. तस्माद् अभूद् अरिनरेश्वरसंघपेवनागर्जद्गजेन्द्रखसुन्दरतूर्यनादः ।
श्रीहर्षदेव इति खोट्टिगदेवलक्ष्मी जग्राह यो युधि नगादसमप्रतापः ॥ Buhler, G :"Udepur Pra sasti of che Kings of Malva”,
Epigraphia Indica Vol. I, p. 237. 2. Epigraphia Indica, Vol. XII, p. 263. 3. Ganguli, D. C. : History of Paramara Dynasty, p. 37, 44
Dacca, 1933. तत्राभूद् वसतिः श्रियामपरया श्रीहर्ष इत्यारुपया, विख्यातश्चतुरम्बराशिरसनादाम्नः प्रशास्ता भुवः । भूपः खवितरिगर्वगरिमा श्रीसीयकः सायकाः पंचेषोरिवयस्य पौरुषगुणा: केषां न लग्ना हृदि ।
-तिलकमंजरी-प्रस्तावना, पद्य 41 5. नमिऊण परमपुरिसं पुरिसुत्तमनाभिसंभवं देवं । वुच्छं 'पाइयलच्छि' त्तिनाममालं निसामेह ।। 1॥
.. -पाइयलच्छीनाममाला, गाथा 1
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धनपाल का जीवन, समय तथा रचनायें
रचनाओं की प्रशंसा की है । 1 धनपाल ने निम्नलिखित संस्कृत, प्राकृत एवं जैन ग्रन्थकारों तथा ग्रन्थों का उल्लेख किया है - वाल्मीकि, व्यास, बृहत्कथा (गुणाढ्य ) सेतुबन्ध के कर्ता प्रवरसेन, तरंगवती ( पादलिप्तसूरि), प्राकृत भाषा के कवि जीवदेव, कालिदास (पंचम शती), कादम्बरी तथा हर्षचरित के कर्ता बाणभट्ट तथा उनका पुत्र पुलिन्द ( सप्तमशती), माघ (सप्तमशती), भारवि (634 ई.), समणदित्यकथा (हरिभद्रसूरि, 8वीं शती), नाटककार भवभूति (अष्टम शती का पूर्वाद्ध), गौडवह के रचियता वाक्पतिराज (अष्टम शती), तारागण नामक ग्रन्थ के रचियता श्वेताम्बर शिरोमणि भद्रकीर्ति अथवा बप्पभट्टि ( 743 – 838 ), यायावर कवि राजशेखर (940 ई.), शोभन एवं धनपाल के गुरु महेन्द्रसूरि, त्रैलोक्यसुन्दरी कथा के कर्ता रूद्र एवं उनका पुत्र कर्दमराज 12
9
धनपाल द्वारा किया गया पूर्ववर्ती कवियों का यह स्मरण ऐतिहासिक दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण है । इससे बृहत्कथा, 3 तरंगवती, 1 तारागण, त्रैलोक्य सुन्दरी जैसे महत्वपूर्ण ग्रन्थों का पता चला । ये ग्रन्थ कालान्तर में लुप्त हो गये तथा इन उल्लेखों द्वारा ही इनके अस्तित्व का पता चला । इसके अतिरिक्त जीवदेव, 7 पुलिन्द, भद्रकीर्ति, महेन्द्रसूरि, 10 रूद्र 11 एवं कर्दमराज 12 जैसे अज्ञात कवि प्रकाश में आए। ऐसा प्रतीत होता है कि धनपाल ने न केवल इनके ग्रन्थों का अध्ययन ही किया अपितु वह उनसे अत्यधिक प्रभावित भी हुआ । बाण तथा उनकी रचनाओं की प्रशंसा दो पद्यों में की गई है, जिससे बाण का उन पर विशेष प्रभाव स्पष्ट जान पड़ता है | 13
1. तिलकमंजरी - प्रस्तावना, पद्य 20-36 2. तिलकमंजरी, प्रस्तावना, पद्य 20-36
3. वही, पृ० 21
4. वही, पृ० 23
5. वही, पृ० 32
6. वही, पृ० 35
7. at, go 24
8. वही, पृ० 26
9. वही, पृ० 32
9
10. वही, पृ० 34 11. वही, पृ० 35
12. वही, पृ० 36
13. तिलकमंजरी, पद्य 26, 27
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तिलकमंजरी, एक सांस्कृतिक अध्ययन
धनपाल ने यायावर कवि (राजशेखर) की उक्ति को मुनिवृत्ति के समान बताया है। राजशेखर का समय नवम् शती का अंत तथा दशम शती का पूर्वाद्ध निश्चित है । अतः धनपाल का समय दशम शती के पूर्वार्द्ध के बाद का ही है । इस प्रकार धनपाल के समय की प्रारम्मिक सीमा दशम शती का उत्तरार्ध निश्चित हो जाती है।
सीयक के पश्चात् उसके उत्तराधिकारी वाक्पतिराज II अपरनाम मुंज ने धनपाल को न केवल राज्याश्रय ही प्रदान किया, अपितु उसे अपनी सभा में "सरस्वती" विरुद देकर सम्मानित भी किया। धनपाल ने तिलकमंजरी में मुंज की 'एकाधिज्यधनुजिताब्धिवलयावच्छिन्नभूः' तथा 'सर्वविधाब्धि" कहकर प्रशस्ति की है । मुंज का शासन काल वि० सं० 1031 अर्थात् 974 ई० से पूर्व का है, क्योंकि उसका प्रथम शिलालेख वि० सं० 1031 का पाया गया है ।
प्रबन्धचिन्तामणि के कर्ता मेरूतुंग ने मुंजराजप्रबन्ध में मुंज तथा तलपदेव के युद्ध का वर्णन किया है । यह तैलपदेव कल्याण का राजा चालुक्य द्वितीय था, जिसने मुंज को युद्ध में हराया एवं अंत में मरवा दिया 18
. अमितगति ने मुंज के शासन-काल में वि०सं० 1050 अर्थात् ई०सं० 993 में अपना सुभाषितरत्न संदोह नामक ग्रन्थ समाप्त किया था। तैलप की
1. समाधिगुणशालिन्यः प्रसन्नपरिपवित्रमाः । यायावरकवेर्वाचो मुनीनामिव वृत्तय : ।
-तिलकमंजरी, पद्य 33 उपाध्याय, बलदेव, संस्कृत साहित्य का इतिहास, पृ० 601, वाराणसी,
1968 .."अक्षुण्णोऽपि विविक्तसूक्तिरचने यः सर्वविधाब्धिना, श्रीमुंजेन सरस्वतीति सदसि क्षोणीभृता व्याहृतः ।।
___ -तिलकमंजरी, पद्य 53 4. तिलकमंजरी, पद्य 42 5. वही, पद्य 53 6. Buhler, G: Udepur Prasasti of the Kings of Malva,
Epigraphia Indica, Vol I.
मेरूतुंग; प्रबन्धचिन्तामणि, सिंधी-जैन-ग्रन्थमाला-1, पृ० 22-23 8. Tawney, C.H. (Ed. & Trans.) Introduction to Prabandha
cintamani p. 23. 9. , प्रेमी, नाथूराम; जैन साहित्य और इतिहास, पृ० 282
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धनपाल का जीवन, समय तथा रचनायें
मृत्यु शक० स० 919 अर्थात् 997-98 में हुई, अतः मुंज का देहान्त ई०स० 994-98 के मध्य किसी समय हुआ होगा ।1 मुंज ने धारा को छोड़कर उज्जैन को अपनी राजधानी बनाया था, क्योंकि उसका प्रथम दानपत्र, जो वि०स० 1031 का है, उज्जैन के राजदरबार से प्रसारित किया गया था । 2
मुंज अथवा वाक्पतिराज स्वयं विद्वान् कवि होते हुए भी अनेक कवियों का आश्रयदाता था । इस प्रकार मुंज का दरबारी कवि होने से धनपाल नवसाहसाकंचरित के प्रणेता पद्मगुप्त या परिमल, सुभाषितरत्नसंदोह के कर्ता अमितगति, दशरूपकावलोक टीका के कर्ता धनिक, पिंगल छन्दः सूत्र के टीकाकार हलायुध का समकालिक कवि था ।
धनपाल ने मुंज के अनुज तथा भोज के पिता सिन्धुल अथवा सिन्धुराज का आश्रय भी प्राप्त किया था । इन्हीं सिन्धुराज की आज्ञा से पद्मगुप्त ने नवसाहसांकचरित की रचना की थी 15
11
डा० न्हूलर व सी० एच० टाउनी का मत
डा० व्हूलर तथा सी० एच० टाउनी धनपाल को मुंज के समय तक ही मानते हैं तथा भोज की सभा में उसके अस्तित्व को स्वीकार नहीं करते ।" बहूलर के विचारों में परस्पर विरोध पाया जाता है । इन्हीं डा० बहूलर ने एक स्थान पर धनपाल को 'A protege of King Munja and Bhoja' कहा है ।" अन्तरंग एवं बाह्य प्रमाणों से भी यह सिद्ध होता है कि धनपाल ने सीयक, मुंज व सिन्धुराज के बाद भोज का भी आश्रय प्राप्त किया था ।
अन्तरंग प्रमाण
5.
6.
1.
शास्त्री, विश्वेश्वरनाथ; "मालवे के परमार' - सरस्वती, भग-14, 1913 2. Indian Antiquary, Vol. VI, p. 51-52.
3.
प्रेमी, नाथूराम, जैन साहित्य और इतिहास, पृ० 282
4.
Ganguly, D C.; History of Parmara Dynasty, p. 62-63.
7.
(1) तिलकमंजरी की प्रस्तावना में धनपाल ने स्पष्ट लिखा है कि
प्रेमी, नाथूराम; जैन साहित्य और इतिहास, पृ० 282,
(A) Buhler, G; Introduction to Paiyalacchi, p. 9. (B) Tawney. C. H. Introduction to Prabandhacintamani Buhler, G.; "The Author of the Paiyalacchi" Indian Antiquary, Vol, IV, p. 59.
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तिलकमंजरी, एक सांस्कृतिक अध्ययन
समस्त वाङ्गमयविद् होते हुए भी राजा भोज के जिनागमोक्त कथाओं में कुतूहल उत्पन्न होने पर, उनके विनोद हेतु अद्भुतरसयुक्त इस कथा की रचना की।1।
(2) धनपाल ने राजा भोज की प्रशंसा में, तिलकमंजरी की प्रस्तावना में 7 पद्यों की रचना की है।
(3) धनपाल ने मुंज के पश्चात् भोज को उसका उत्तराधिकारी बताया है, जिसका राज्याभिषेक अत्यधिक प्रीति होने से मुंज ने स्वयं किया था। बाह्य प्रमाण
(1) इसके अतिरिक्त बाह्य प्रमाणों से भी भोज के समय में धनपाल की स्थिति सिद्ध होती है । प्रभावकचरित तथा प्रबंधचिंतामणि ये दोनों जैन ग्रन्थ भोज की सभा में धनपाल के साहसिक कार्यों का वर्णन करते हैं। भोज एवं धनपाल की मित्रता इतनी प्रसिद्ध हुई कि इसने कई दन्तकथाओं तथा किंवदन्तियों को जन्म दिया, जिनका वर्णन इन दोनों ग्रन्थों में पाया जाता है ।
(2) डी० सी० गांगुली के अनुसार-"He gained the favourable notice of king Bhoja and rose to be one of his principal court poets. The Ain-i-Akabari relates that of the five hundred poets of Bhoja's Court, Barruj (Vararuci) was the foremost, and the next Dhanapala”.6
(3) अन्य इतिहासकारों ने भी धनपाल का चारों परमार राजाओं, सीयक, मुंज, सिन्धुराज तथा भोज के समय पर्यन्त जीवित होना माना है ।।
1. निःशेषवाड्मयविदोऽपि जिनागभोक्ताः श्रोतुं कथा: समुपजातकुतूहलस्य । तस्यातदातचरितस्य विनोदहेतो राज्ञः स्फुटाद्भुतग्सा रचिता कथेयम् ।।
-तिलकमंजरी, पद्य 50 2. तिलकमंजरी, पद्य 43-49 3. "प्रीत्या योग्य इति प्रतापवसतिः ख्यातेन मुंजाख्यया, यः स्वे वाक्पतिराजभूमिपतिना राज्येऽभिषिक्तः स्वयम् ।।
-वही, पद्यं 43 4. प्रभावकचरित, महेन्द्रसूरिचरित, पृ० 138-151 5 मेस्तुंग, प्रबन्धचिन्तामणि, भोज-भीम प्रबन्ध, पृ० 36-42 6. Ganguli, D. C., History of Paramara Dynasty, p 282-83 7. प्रेमी, नाथूराम, जैन साहित्य और इतिहास, पृ० 409
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धनपाल का जीवन, समय तथा रचनायें
(4) थारापद्रगच्छ के शान्तिसूरि धनपाल के समसामयिक कवि थे । 1
इन्होंने तिलकमंजरी में उत्सूत्रादि दोषों के प्ररूपण के लिये उसे संशोधित किया था । इनकी मृत्यु वि० सं० 1096 अर्थात् ई० 1039 में हुई ।
अतः यह प्रमाणित हो जाता है कि धनपाल ने राजा भोज की सभा को विभूषित किया था । भोज का राज्यकाल 1018 -1055 ई० के मध्य माना जाता है । अतः ग्यारहवीं शती के पूर्वार्द्ध में धनपाल की विद्यमानता सिद्ध हो जाती है ।
धनपाल के समय की अन्तिम सीमा निर्धारण करने के लिये हमें एक महत्वपूर्ण अन्तरंग प्रमाण प्राप्त होता है । धनपाल ने अपनश भाषा में " सत्यपुरीय - महावीर - उत्साह की रचना की थी । इसमें उसने महमूद गजनवी द्वारा सोमनाथ आदि तीर्थों के विनाश का स्पष्ट उल्लेख किया है 15: महमूद गजनवी ने ई० 1026 में सोमनाथ मंदिर का भंग किया था । " अतः यह रचना निश्चित रूप से 1026 ई० के बाद की है ।
निम्नलिखित परवर्ती कवियों के उद्धरणों से भी धनपाल के कालनिर्धारण में सहायता मिलती है
1.
2.
3.
4.
5.
13
6.
अणहिल्लपुरे श्रीमद् श्रभीमभूपाल संसदि 1 शांतिसूरिः कवीन्द्रोऽभूद्वादिचक्रीति विश्रुतः ||21|| अन्यदाऽवन्तिदेशीयः सिद्धसारस्वतः कविः । ख्यातोऽभूद् धनपाला ख्यः प्राचेतस इवापरः ।। 22।। - प्रभावकचरित,
पृ० 133
चासावुत्सूत्रादिप्ररूपणात् ।
अशोधयदिमां शब्दसाहित्यदोषास्तु सिद्धसारस्वतेषु किम् ॥ 2021 प्रेमी, नाथूराम: जैन साहित्य और इतिहास, पृ० 325,
वही, पृ० 145
मुनि जिनविजय (स०), जैन साहित्य संशोधक, खंड 3, अंक 3, पृ० 241
मंजेविणुसिरिमालदेसु अनुअणहिलवाडउं चड्डावलि सोरटु भग्गु पुणु देउलवाडउं । सोमेसरू सोतेहि मग्गु जणमणआणंद
मग्गु न सिरि सच्चउरिवीरू सिद्वत्थहनंदणुं ॥
- सत्यपुरीयं - महावीर - उत्माह, पद्य 3
Mabel, C. Duff, The Chronology of India, Westminister, 1899, p. 194.
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तिलकमंजरी, एक सांस्कृतिक अध्ययन
(1) तिलकमंजरी का सर्वप्रथम उल्लेख श्वेताम्बर जैन नमिसाधु ने रुद्रट के काव्यालंकार पर लिखी अपनी टीका में किया है । नमिसाधु ने इस टीका की रचना वि० सं० 1125 अर्थात् ई० 1068-69 में की थी। नमिसाधु के इस उल्लेख से धनपाल का ई० 1068 से पूर्व होना निश्चित हो जाता है।
(2) ताडपत्र पर लिखित तिलकमंजरी की एक हस्तलिखित प्रति जैसलमेर किले के जैन भंडार में सुरक्षित रखी हुई है, जिसका रचनाकाल वि०सं० 1130 अर्थात् ई० सं० 1072-73 है 3
(3) पूर्णतल्लगच्छ के शांतिसूरि ने तिलकमंजरी पर 1050 पद्य प्रमाण टिप्पण की रचना विक्रम की द्वादश शती के पूर्वार्ध में की थी।
(4) बारहवीं शती में रत्नसूरि ने "अममचरित" नामक ग्रन्थ में धनपाल की प्रशंसा की है।
(5) हेमचन्द्र (1088-1172) ने अपनी रचनाओं में घनपाल का उल्लेख किया है तथा उसके पद्यों को उद्धृत किया है । उसने अपने काव्यानुशासन में तिलकमंजरी के पद्य “प्राज्यप्रभाव-"को,वचन-श्लेष के उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया है तथा तिलकमंजरी के "शुष्क शिखरिणी--" पद्य को छन्दोनुशासन में मात्रा छंद के रूप में उद्धरित किया है। हेमचन्द्र ने अभिधानचिन्तामणि की स्वोपज्ञ वृत्ति में “व्युत्पत्तिर्धनपालतः" कहकर व्युत्पत्ति के विषय में धनपाल को प्रमाण माना है। .
1. रुद्रट, काव्यालंकार, काव्यमाला-2, 1928, अध्याय 16, पृ० 167 2. Kane, P. V., History of Sanskrit Poetics, p. 155. 3. (क) पन्यासदक्षविजयगणि, तिलकमंजरी-प्रस्तावना, पृ० 19
-विजयलावण्यसूरीश्वर ज्ञानमंदिर, बोटाद, (ख) कापड़िया, हीरालाल
रसिकदास, जैन संस्कृत साहित्यनो इतिहास, पृ० 218 4. पन्यासदक्षविजयगणि, तिलकमंजरी-प्रस्तावना, पृ० 19 5. चैत्रवद् धनपालो न कस्य राजप्रियः प्रियः। सकणांभरणं यस्माज्जज्ञे तिलकमंजरी ।।
-उद्धृत, देसाई, मोहनदास दलीचन्द, जैन साहित्यनो संक्षिप्त
इतिहास, पृ० 200 6. हेमचन्द्र, काव्यानुशासन, अध्याय 5, पृ० 276 7. हेमचन्द्र, छन्दोनुशासन, अध्याय 3, पृ० 177 8. हेमचन्द्र-अमिधानचिंतामणि, अध्याय 1, पृ. 1
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धनपाल का जीवन, समय तथा रचनायें
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(6) तिलकमंजरी के आधार पर रामन के पुत्र पल्लीपाल धनपाल ने वि०सं० 1261 अर्थात् 1205 ई० में 1200 पद्यों का तिलकमंजरीसार लिखा ।।
(7) सोमेश्वर कवि ने अपनी कीतिकोमुदी में धनपाल की प्रशंसा की है।
(8) संघतिलकसूरि ने तिलकाचार्य विरचित सम्यकत्व-सप्तति पर अपनी टीका में तिलकमंजरी कथा की प्रवरतरुणी से तुलना करते हुए उसे उत्तम कथा कहा है।
__परवर्ती कवियों के इन उद्धरणों से धनपाल का समय ग्यारहवीं शती के उत्तरार्ध से पूर्व सिद्ध हो जाता है । अतः धनपाल के काल की अतिम सीमा ग्यारहवीं शती का पूर्वार्ध है ।
धनपाल ने पाइयलच्छीनाममाला की रचना ई. 972 में की तथा श्री सत्यपुरीय-महावीर-उत्साह ई. स. 1026 के पश्चात् लिखा गया। यदि पाइयलच्छी की रचना के समय धनपाल की आयु 20 वर्ष मानी जाय, तो सत्यपुरीयमहावीर-उत्साह की रचना के समय उसकी आयु 75 वर्ष लगभग होगी। तिलकमंजरी की रचना भोज के समय में की गई, अतः यह लगभग 1020 ई. के लगभग लिखी गई, ऐसा अनुमान किया जा सकता है । इस प्रकार धनपाल का जीवन ई. 950-1030 के मध्य रहा होगा।
अन्त में यह कहा जा सकता है कि धनपाल वह भाग्यशाली कवि था, जिसने चार परमार राजाओं, सीयक, मुंज, सिन्धुराज तथा भोज के राज्याश्रय में एक लम्बे समय तक साहित्य-सृजन किया। अतः धनपाल का समय दशम् शती का उत्तरर्द्ध तथा ग्यारहवीं शती का पूर्वाद्धं निर्धारित हो जाता है ।
1. नमः श्रीधनपालाय येन विज्ञानगुम्फिता।
कं नालड्कुरुते कर्णस्थिता तिलकमंजरी ।।3।। Kansara, N.M., Tilakmanjarisara of Pallipala Dhanapala,
p. 1 Ahmedabad, 1969. 2. वचनं धनपालस्य, चन्दनं मलयस्य च । सरसं हृदि विन्यस्य कोऽभून्नाम न निव॑तः ।
- -कीति कोमुदी, 1116 सालंकारा लक्खण सुच्छंदया महरसा सुवन्नरूइ । कस्स न हारइ हिययं कहुत्तमा पवरतरुणीवव ॥ -उद्धृत, देसाई मोहनचन्द दलीचन्द, जैन साहित्यनो संक्षिप्त इतिहास, पृ० 201
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तिलकमंजरी, एक सांस्कृतिक अध्ययन
धनपाल की रचनायें धनपाल का न केवल संस्कृत भाषा पर ही अधिकार था, अपितु वे प्राकृत अपभ्रंश भाषाओं के भी समान रूप से विद्वान् थे । वे गद्य तथा पद्य, काव्य की इन दोनों विधाओं में पूर्ण रूप से निष्णात थे। उन्होंने संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश इन तीनों भाषाओं में अपनी रचनाओं को गुम्फित किया है। प्रो. हीरालाल रसिकदास कापड़िया के अनुसार धनपाल की नौ रचनायें हैं - 1. तिलकमंजरी
संस्कृत 2. पाइयलच्छीनाममाला
प्राकृत 3. ऋषभपंचाशिका
प्राकृत 4. श्रावकविधि प्रकरण
प्राकृत 5. शोभनस्तुति की वृत्ति
संस्कृत 6. वीरस्तुति (विरुद्ध वचनीय)
प्राकृत 7. वीरस्तुति
__ संस्कृत-प्राकृत मय 8. सत्यपुरीय-महावीर-उत्साह
अपभ्रंश 9. नाममाला .
संस्कृत 1. तिलकमंजरी
___ यह संस्कृत साहित्य का प्रसिद्ध गद्यकाव्य है जिसमें हरिवाहन और तिलकमंजरी की प्रणय-कथा वर्णित है। इस एक ग्रन्थ की रचना से ही धनपाल ने संस्कृत कवियों में अपना विशिष्ट स्थान बना लिया है। संस्कृत में धनपाल की प्रसिद्धि इसी एक ग्रन्थ पर आधारित है। प्रस्तुत अध्ययन में इसका विस्तार से विवेचन किया गया है। 2. पाइयलच्छीनाममाला
यह प्राकृत भाषा का प्राचीनतम कोष है। इसका प्राकृत में उतना ही महत्व है, जितना संस्कृत में अमरकोष का है। इस कोष की रचना धनपाल ने
1. . कापड़िया, हीगलाल रसिकदास : ऋषभपंचाशिका अने वीरस्तुति,
पृ. 16, सूरत, 1933 2. (क) काव्यमाला-85, निर्णयसागर प्रेस, बम्बई 1938, . (ख) विजयलावण्यसूरीश्वर ज्ञानमन्दिर, बोटाद, भाग 1, 2, 3 वि. सं.
2008, 10, 14 3. (क) Buhler, G. Bezz. Beitr. IV p. 70-166, Gottingen 1879
(ख) बी. बी..एण्ड कम्पनी, भावनगर, वि. सं. 1973 :(ग) केसरबाई जैन ज्ञानमन्दिर, पाटण, वि. सं. 2003 (घ) बेचरदास जीवराज दोषी (सं.) बम्बई, 1960
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धनपाल का जीवन, समय तथा रचनायें
अपनी बहन सुन्दरी के लिए वि. सं. 1029 में धारा नगरी में की थी, जैसाकि ग्रन्थ के अन्त में ग्रन्थाकार ने स्वयं सूचित किया हैं । 1
क्रमबद्धता नहीं है और न
इस कोष में 944 शब्दों के पर्यायवाची दिए गये हैं, जिनमें से 334 शब्द अर्थात् लगभग एक तिहाई शब्द देशी हैं तथा शेष तत्सम एवं तद्भव | 275 गाथाओं में शब्दों के पर्याय दिये गये हैं तथा अन्तिम चार गाथाओं में ग्रन्थकार ने ग्रन्थ-रचना का उद्देश्य, स्थान तथा अपना नाम निर्देश किया है । इसमें शब्दों के संकलन में किसी प्रकार की ही शब्दों का विभाजन किया गया है । प्रारम्भ में एक गाथा से सत्रह शब्दों के पर्यायवाची बताये गये हैं । बीसवीं गाथा से शब्दों के पर्याय गाथार्ध द्वारा सूचित किये गये हैं । 2 इसके पश्चात् गाथा के एक-एक चरण से शब्दों के पर्यायवाची दिये गये हैं । 3 पाइयलच्छीनाममाला, 4 इस नाम के विपरीत इस कोष में नाम के अतिरिक्त क्रियारूप, क्रिया-विशेषण तथा प्रत्यय भी दिये गये हैं ।
इस कोष की रचना जैन महाराष्ट्री प्राकृत में की गई है । इसका अपर नाम धनपालीय कोष भी पाया जाता है । धनपाल ने स्वयं अपने कोष के अन्त में इसे 'देशी' भी कहा है, अतः सम्भव है उसके समय में यह देशी कोष के रूप में प्रसिद्ध रहा हो ।7
इस कोष में कुछ शब्द ऐसे भी आए हैं, जिनका प्रयोग आज भी लोकभाषाओं में होता है । उदाहरणार्थं अलस के लिए मट्ट, पल्लव के लिए कुंपल, ये शब्द ब्रजभाषा, भोजपुरी तथा खड़ी बोली में प्रयुक्त होता है ।
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9.
विक्कमकालस्स गए अउणत्तीसुत्तरे सहस्सम्मि | मालवर्नारिदधाडीए लूडिए मन्नखेडम्मि | धारानयरीए परिट्ठिएण मग्गे ठिआए अणवज्जे । कज्जे कण्ठबहिणीए 'सुन्दरी' नामधिज्जाए ||
17
इत्ता गाद्धे हि वणिमो वस्तुपज्जाए
इत्तो नामग्गाम गाहाचलणेंसु चितेमि ।।
वुच्छं 'पाइयलच्छि' त्ति नाममालं निसामेह
कापड़िया, हीरालाल रसिकदास : प्राकृत भाषा अने साहित्य,
- पाइयलच्छी, गाथा 276, 77
- वही, गाथा 19
- वही, गाथा 1
वही, गाथा 1
Į 58, 1940
कापड़िया, हीरालाल रसिकदास : जैन संस्कृत साहित्य नो इतिहास,
भाग 1, पृ. 109
पाइयलच्छी नाममाला, गाथा 278 पाइयलच्छीनाममाला, गाथा, 15 वही, गाथा 54
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तिलकमंजरी, एक सांस्कृतिक अध्ययन
इस नाममाला के अन्त में धनपाल ने श्लेषोक्ति के द्वारा अपने नाम का निर्देश किया है । 'अन्ध जण किवा कुसल' इन शब्दों के अन्तिम-अन्तिम वर्ण से युक्त नाम वाले कवि ने इस देशी की रचना की।1
हेमचन्द्र ने धनपाल की पाइयलच्छी को आधार बनाकर अपने देशीनाममाला कोष की रचना की थी। इस कोष को सर्वप्रथम प्रकाश में लाने का श्रेय जर्मन विद्वान् डॉ० व्हूलर को है। उन्होंने ई. स. 1879 में इसका सम्पादन किया था।
3. ऋषमपंचाशिका
प्रभावकचरित के अनुसार धनपाल ने ऋषभदेव का एक मन्दिर बनवाया था, जिसमें ऋषभदेव की मूर्ति की प्रतिष्ठा धनपाल के गुरु श्री महेन्द्रसूरि ने की थी। उसी मन्दिर में बैठकर धनपाल ने 'जय जन्तुकप्प' से आरम्भ होने वाली 50 गाथाओं की यह प्राकृत स्तुति रची। प्रथम 20 गाथाओं में ऋषभदेव के जीवन की घटनाओं का उल्लेख है, किन्तु अन्तिम 30 पद्यों में अत्यन्त भाव पूर्ण स्तुति की गई है। इसकी शैली यद्यपि कृत्रिम व अलंकारिक है, तथापि उसमें सुन्दर कल्पना का समावेश है । उपमा एवं रूपक का प्रयोग अतीव सुन्दर है । उदाहरणार्थ-जन सिद्धान्त का
1. कइणो अंध जण किवा कुसलत्ति पयाणमंतिमा वण्णा । नामम्मि जस्स कमसो तेणेसा विरइया देसी ॥
-वही, गाथा 278 Pischel, R.: The Desi Namamala of Hemchandra, Bombay Sanskrit Series 17, 1938. Buhler, G : Introduction to Paiyalacchi, Bezz. Beitr, 4, p. 70-166. Indian Antiquary, Vol. II, IV. (क) काव्यमाला (सप्तम गुच्छक) 1890 (ख) जर्मन प्राच्य विधि समिति पत्रिका, खण्ड 33 (ग) देवचन्द लालभाई पुस्तकोद्धार ग्रन्थमाला 83, 1933 धनपालस्ततः सप्तक्षेत्रयां वित्तं व्ययेत् सुधीः । आदौ तेषां पुनश्चत्यं संसारोत्तारकारणम् ।। विमृश्येति प्रभो मिसूनोः प्रासादमातनोत् । बिम्बस्यात्र प्रतिष्ठां च श्री महेन्द्रप्रभुर्दघौ ।। सर्वज्ञपुरतस्तत्रोपविश्य स्तुतिमादधे । 'जय जंतुकप्पे' त्यादि गाथा पंचशतामिमाम् ।।
-प्रभावकचरित, महेन्द्रसूरिचरित, पृ. 145
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धनपाल का जीवन, समय तथा रचनायें
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अनुसरण न करने वाले की क्या गति होती है इसके लिए कवि कहता है"तुम्हारे सिद्धान्तरूपी सरोवर से भ्रष्ट, स्थान-स्थान से कर्मबन्धनों में बंधा हुआ जीव, विभिन्न वृक्षों की आलवालों से बंधे सारणि के जल के समान भ्रमित होता है ।"1
जिस प्रकार कूपारघट्ट के घड़े जल से भरे होने पर ऊपर की ओर तथा जल छोड़ने पर नीचे की ओर जाते हैं, उसी प्रकार तुम्हारे प्रवचन ग्रहण करने पर जीव ऊर्ध्वमुख होते हैं तथा विमुख होने पर नीचे की ओर जाते हैं । ऋषभपंचाशिका पर देवचन्द्र के शिष्य प्रभानन्द ने ललितोक्ति नामक वृत्ति, हेमचन्द्रगणि ने विवरण, धर्मशेखर ने संस्कृत-प्राकृत अवचूरि, नेमिचन्द्रगणि, चिरन्तनमुनि तथा पूर्वमुनि ने अवचूरित्रय रची हैं ।
हेमचन्द्र के समय (1088-1172) तक ऋषभपंचाशिका अत्यन्त लोकप्रिय हो गई थी। इसका प्रमाण जिनमंडनगणिकृत कुमारपालप्रबन्ध में मिलता है :
"अथ प्रदक्षिणावसरे सरसापूर्वस्तुति करणार्थमभ्यथिताः श्रीहेमसूरयः सकलजनप्रसितां 'जय जंतुकप्प' इति धनपालपंचाशिका पेठः । राजादयः प्राहुः-- भगवन् । भवन्तः कलिकालसर्वज्ञाः परकृतस्तुति कथं कथयन्ति ? गुरुमि रचेराजन् ! श्रीकुमारदेव ! एवंविधसद्भूत भक्तिगर्मा स्तुतिरस्मामिः कर्तुन शक्यते ।"
हेमचन्द्रसूरि सदृश प्रसिद्ध कवि तथा विद्वान् भी धनपाल रचित ऋषभपंचाशिका का ही पाठ करते थे। आज भी जैन धार्मिक जगत में ऋषभपंचाशिका का अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान है। जैन साधु इसका नियमित रूप से भक्तिपूर्वक पाठ करते हैं।
1. तुम समयसरन्भट्टा, भमंति सयलासु रुक्खजाईसु । सारणिजलं व जीवा, ठाणट्ठाणेसु बझंता ।।
-ऋषभपंचाशिका, गाथा 29 सलिलम्ब पवयणे तुह, गहिए उडं अहो विमुक्कम्मि । वच्चंति नाह ! कूवयथ रहट्टघडिसंनिहा जीवा ॥
-वही, गाथा 30 3. कापड़िया, हीरालाल रसिकदास : ऋषभपंचाशिका अने वीरस्तुति रूप
कृतिक्लाप, सूरत, 1933 4. जिनमण्डनगणि-कुमारपाल प्रबन्ध, आत्मानन्द ग्रंथमाला 34, भावनगर,
पृ. 101, वि. सं. 1971
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तिलकमंजरी, एक सांस्कृतिक अध्ययन
उपदेशरत्नाकर के कर्ता मुनिसुन्दरसूरि (1319) ने अपने ग्रन्थ में ऋषभ-पंचाशिका की 41वीं गाथा का उद्धरण दिया है। इसी प्रकार जिनेश्वरसूरि कृत पंचलिंगीप्रकरण की टीका में जिनपतिसूरि ने ऋषभपंचाशिका की गाथाओं को उद्धरित किया है।
ऋषभपंचाशिका के अंतिम पद्य में कवि ने अपना नाम निर्देश किया है।
4. श्रावकविधिप्रकरण (सावयविहि) वा श्रावकधर्म विधिप्रकरण
22 गाथाओं की इस प्राकृत रचना में श्रावक के धर्म का विवेचन किया गया है। इस पर संघप्रभसूरि के शिष्य धर्मचन्द्रगणि ने वृत्ति लिखी है। इसको आधार बनाकर गुणाकरसूरि ने वि.सं. 1371 में श्रावकविधिरास की रचना की थी।
5. शोभन स्तुति की संस्कृत टीका'
धनपाल के भ्राता शोभन मुनि ने 24 तीर्थंकरों की स्तुति में यमक अलंकारयुक्त 96 पद्यमय स्रोत्र की रचना की थी। प्रभावकचरित के अनुसार शोभन की ज्वर से मृत्यु हो जाने पर धनपाल ने भ्रातृ-प्रेम के कारण इस स्तुति
1. मुनिसुन्दरसूरि, उपदेशरत्नाकर, द्वितीय अंश, तरंग 15 2. जिनेश्वरसूरि, पंचलिंगीप्रकरण, जिनपति की टीका, पृ० 67 3. इअ झाणग्गिपलीविअकम्मि घण । बालबुद्धिणा विमए । भत्तया स्तुतो भवमयसमुद्रयानपात्र । बोधिफल ।
-ऋषभपंचाशिका, गाथा 50 4. मुक्तिकमल जैन मोहनमाला-17 में प्रकाशित, बड़ौदा वीर० स० 2447 5. Velankar, H. D., Jinaratnakosa Part I, B. O. R. I.,
p. 393, 1944 6. कापड़िया, हीरालाल रसिकदास-प्राकृत भाषा अने साहित्य,
पृ० 207, 1940 7. (क) काव्यमाला (सप्तम गुच्छक), 1890 पृ० 132
(ख) आगमोदयसमिति-52, बम्बई 1926 8. इतश्च शोभनो विद्वान् सर्वग्रन्थमहोदधिः । यमकान्विततीर्थेशस्तुतीश्चक्रे ऽतिभक्तितः ।।
-प्रभावकचरित, महेन्द्रसूरिचरित, पद्य 315
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धनपाल का जीवन, समय तथा रचनायें
की टीका रची थी । 1 धनपाल ने स्वयं अपनी टीका में अपने भ्राता शोभन का परिचय देते हुए टीका- रचना के उद्देश्य का वर्णन किया है ।
कवि धनपाल ने, स्वर्ग जाते हुए अपने अनुज की इस उज्जवल कृति की अपनी बुद्धि के अनुसार वृत्ति रचकर उसे अलंकृत किया | 2 6. वीरस्तुति (विरुद्धवचनीय) या वीरथुई
प्रभावकचरित के अनुसार भोज से अपमानित होकर धनपाल धारानगरी से पश्चिम दिशा की ओर चला तथा सत्यपुर (वर्तमान में सांचोर जिला) नामक नगर पहुंचा। वहां महावीर स्वामी के चैत्य को देखा तथा हर्षित होकर विरोधाभास अलंकार से मंडित "देव निम्मल" से प्रारम्भ होने वाली इस प्राकृत स्तुति की रचना की 14
विरोधाभास अलंकार धनपाल को इतना प्रिय था कि उन्होंने 30 पद्यों की यह पूर्ण स्तुति ही इस अलंकार में रच डाली । प्राकृत में इस प्रकार की यह
1.
2.
3.
4.
तदीयदृष्टिसंगेन तत्क्षणं शोभनो ज्वरात् ।
आससाद परं लोकं संघस्यामाग्यतः कृती ॥319।। तासां जिनस्तुतीनां च सिद्धसारस्वतः कविः टीकां चकार सौदर्यस्नेहं चित्ते वहन् दृढम् || 320|| - प्रभावकचरित, पृ० 150
एतां यथामति विमृश्य निजानुजस्य तस्योज्जवलं कृतिमलंकृतवान् स्ववृत्या । अभ्यर्थितो विदधता त्रिदिवप्रयाणं तेनैव साम्प्रतकविर्धन पालनामा ||
- स्तुतिचतुविशंतिका टीका पद्य 7,
पृ० 2
(क) जैन साहित्य संशोधक, अंक 3, खंड 3 (ख) देवचन्द लालभाई जैन पुस्तकोद्धार - 83, 1933
अथापमानपूर्णोऽयमुच्चाल ततः पुरः । मानाद्विनाकृताः सन्तः सन्तिष्ठन्ते न कर्हिचित् ॥ पश्चिमां दिशमाश्रित्थ परिस्पन्दं विनाचलत् । प्राप सत्यपुरं नाम पुरं पौश्जमोत्तरम् ॥ तत्र श्रीमन्महावीरचैत्ये नित्ये पदे इव । दृष्टे स परमानन्दमाससाद विदांवरः ।। नमस्कृत्य स्तुतिं तत्र विरोधामाससंस्कृताम् । चकार प्राकृतां "देव निम्मले" त्यादि साहित च ॥
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- प्रभावकचरित, महेन्द्रसूरिचरित,
To 146
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तिलकमंजरी, एक सांस्कृतिक अध्ययन
एक मात्र स्तुति है । इसका प्रारम्भ धनपाल ने इस प्रकार किया है -निर्मल नखों से युक्त होते हुए भी नखरहित ऐसे तीर्थंकरों के चरण-कमलों को प्रणाम करके अविरुद्धवचन वाले होते हुए भी विरुद्ध वचन वाले वीर प्रभु की स्तुति करता हूं।
विरोध का परिहार--तीर्थकरों के निर्मल नखों से युक्त, पवित्र चरण कमलों को प्रणाम करके अविरुद्ध वचन वाले वीर प्रभु की विरोधालंकार युक्त वचन द्वारा स्तुति करता हूं।
__इस स्तुति के अंतिम पद्य में भी धनपाल ने अपने नाम का निर्देश किया है । बृहटिप्पनिका नामकी प्राचीन जैन ग्रन्थ सूची में इसका नाम “वीरस्तव" दिया गया है तथा इस पर सूराचार्य द्वारा रचित वृत्ति की सूचना दी गई है। 7. सत्यपुरीय-महावीर-उत्साह (सच्चउरमंडण-महावीरोच्छाह) .
सत्यपुर के महावीर की स्तुति में धनपाल ने वीरस्तुति के अतिरिक्त एक और स्रोत्र की रचना की थी। सच्चउरमंडण-महावीरोच्छाह नामक यह स्रोत्र अपम्रश भाषा में लिखा गया है। 15 पद्यों की यह लघुकलेवरा स्तुति ऐतिहासिक दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण है। इसमें धनपाल ने तुर्क मुहम्मद गजनवी द्वारा किये गये अणहिलपुर, सोरठ, सोमनाथ, चन्द्रावती, श्रीमाल देश के तीर्थ तथा देलवाड़ा मंदिरों के भंग का उल्लेख किया है। इससे धनपाल के समय का स्पष्ट निर्देश मिलता है।
इस रचना में धनपाल ने दो पद्यों में "एवकजीह घणपालु भणइ (एकजिह्वः धनपालो भणति) तथा "तइ तुठइ धनपालु (त्वयि तुष्टे धनपाल:) 5 इस प्रकार अपना नाम स्पष्ट रूप से दिया है।
1. वीरस्तुति, पद्य 1 2. इस सयलसिरि निबंधण । पालय । पच्चल । तिलोअलोअस्स ।
भव मज्झ सया मज्झत्थ । गोअरे संथुइगिराणं । -वही, पद्य 30 3. (क) दोशी, बेचरदास, जैन साहित्य संशोधक, अंक 3, खंड 3, पृ० 241,
(ख) पारेख, प्रभुदास बेचरदास, तिलकमंजरीकथासारांश, श्री हेमचन्द्राचार्य ग्रन्थावली पाटण, 1919 वही, पृ० 39 मंजेविणु सिरिमालदेसु अनुअणहिलवाडउं चड्डावलि सौरट्ठ भग्गु पुणु देउलवाडउं सोमेसरू सोतेहि भग्गु जणमण आणंदणु भग्गु न सिरि सच्चउरिवीरू सिद्धत्थह नंदj
-सच्चउरमंडण-महावीरोच्छाह, पद्य 3 सच्चउरमंडण-महावीरोच्छाह, पद्य 14, 15
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धन पाल का जीवन, समय तथा रचनायें
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इस कृति की विक्रम संवत् 1350 अर्थात् ई० सं० 1293 में लिखी गयी एक हस्तलिखित प्रति पाटण के जैन भंडार में सुरक्षित रखी है ।1 8. संस्कृत नाममाला
यह नाममाला वर्तमान में उपलब्ध नहीं है, किन्तु इसका उल्लेख प्राप्त होता है। संस्कृत भाषा के व्याकरण, कोष, छंद, काव्य, अलंकारादि विषयक ग्रन्थों की एक प्राचीन हस्तलिखित सूची में कोष ग्रन्थ नं० 64 में "धनपालपंडितनाममाला" दिया गया है। यह नाममाला पाइयलच्छी से भिन्न प्रतीत होती है क्योंकि इसकी श्लोक संख्या 1800 है। अत: यह पाइयलच्छी से परिमाण में बहुत अधिक है। यह सूची केवल संस्कृत ग्रन्थों की है अतः यह नाममाला संस्कृत में लिखी गई होगी, यही संभावना है। धनपाल द्वारा किसी संस्कृत कोष के निर्माण की सम्भावना हेमचन्द्र के उल्लेख से भी होती है, जिसने अपने अभिधानचिंतामणि नामक संस्कृत कोश की स्वोपज्ञ टीका के प्रारम्भ में "व्युत्पत्तिर्धनपालत:" कहकर शब्दों की व्युत्पत्ति के सम्बन्ध में धनपाल के कोश को प्रमाणभूत माना है। इस कोश के लुप्त हो जाने से संस्कृत भाषा की अपूरणीय क्षति
इस प्रकार इस अध्याय में अन्तः तथा बाह्य दोनों प्रकार के प्रमाणों से उपलब्ध सामग्री के आधार पर धनपाल के जीवन, समय तथा रचनाओं का विवेचन किया गया। अंत में यह कहा जा सकता है कि धनपाल के विषय में प्रामाणिक सामग्री उपलब्ध होने के कारण, उनके समय का निर्धारण करने में, उनके जीवन की घटनाओं तथा उनकी रचनाओं के विषय में विद्वानों में अधिक मतभेद नहीं है।
1. (क) प्रभुदास, बेचरदास पारेख, तिलकमंजरीकथासारांश, पाटण, 1919,
(ख) दोशी, बेचरदास, पाइयलच्छीनाममाला, पृ० 31, 1960 2. मुनि जिन विजय, पुरातत्व, अंक 2, खंड 4, अहमदाबाद, 1924 3. हेमचन्द्र, अभिधानचिन्तामणि-टीका, अध्याय 1, पृ. 1
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द्वितीय अध्याय
तिलकमंजरी की कथावस्तु का
विवेचनात्मक अध्ययन
तिलकमंजरी कथा का सारांश उत्तरकौशल राज्य में सरयू नदी से परिगत अयोध्या नामक नगरी में राजा मेघवाहन राज्य करता था। उसने अपने राज्य में वर्ण, आश्रम और धर्म को यथाविधि स्थापित कर दिया था, अतएव वह यथार्थ प्रजापति था । उसने बाह्य और आन्तरिक दोनों शत्रुओं को जीत लिया था। उसका राजकार्य विश्वस्त मन्त्रियों के अधीन था, तथापि वह अपने शासन की त्रुटियों को जानने के उद्देश्य से, रात्रि में वेश बदलकर अपनी नगरी का निरीक्षण करता था। रूप तथा गुण दोनों में अद्वितीय मदिरावती नाम की उसकी प्रधान महिषी थी। यौवनोचित विविध भोग-विलासों का उपभोग करते हुए उसके कई वर्ष व्यतीत हो गये किन्तु उसे सन्तति-सुख की प्राप्ति नहीं हुई। अतः वह सन्तानाभाव की चिन्ता से अत्यन्त पीड़ित रहने लगा।
__एक दिन उसने अन्तरिक्ष में विचरण करते हुए एक अत्यन्त तेजस्वी तथा दिव्य प्रभा-मण्डल से युक्त विद्याधर मुनि को देखा। राजा ने उसका विधिवत् आतिथ्य सत्कार किया तथा अपने सिंहासन पर बैठाया । मुनि के पूछने पर राजा ने अपने दुःख का कारण निवेदन किया तथा वन में जाकर तप करने का अपना निश्चय प्रकट किया ।
यह सुनकर मुनि ने अपने योग-बल से राजा के भविष्य को जान लिया और उसे कहा- "हे राजन् ! अब तुम्हारा सन्तति प्रतिबन्धक अदृष्ट मुक्तप्राय है, अतः तुम वनवास का विचार त्याग दो। घर में ही रहकर, तुम मुनि-व्रत धारण कर, अपनी कुलदेवी राज्यलक्ष्मी की अहर्निश आराधना करो, वही प्रसन्न होकर तुम्हें अवश्य वर प्रदान करेगी।" इसके लिए मुनि ने उसे अपराजिता नामक जप विद्या प्रदान की तथा मदिरावती को भी उसके व्रत-पर्यन्त दूर से ही मर्तृजनोचित सेवा करने की अनुमति प्रदान की।
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तिलकमंजरी की कथावस्तु का विवेचनात्मक अध्ययन
मुनि के पुनः अन्तिरिक्ष में चले जाने पर, राजा अपने हर्म्यशिखर से उतरा और अपने गुरुजनों, बान्धवों और बुद्धि-सचिवों से इस विषय में परामर्श किया । तत्पश्चात् उनकी अनुमति प्राप्त कर, उसने प्रमदवन के मध्य क्रीडापर्वत के समीप देवता-गृह का निर्माण करवाया और शुभदिन में भगवती श्री की प्रतिमा प्रतिष्ठापित की तथा मुनि उपदिष्ट विधि से प्रतिदिन उसकी अर्चना करने लगा । एक दिन देवी की सायंकालिक पूजा से निवृत्त होकर राजा नगर के बाह्योद्यान स्थित शक्रावतार नामक सिद्धायतन में गया, जहां प्रवेश करते ही उसने एक दिव्य पुरुषक के दर्शन किए। उस वैमानिक की दिव्यायु समाप्त प्राय: थी । उसने राजा से कहा- "मैं सौधर्म नामक देवलोक का वासी ज्वलनप्रभ नामक वैमानिक हूं । भगवान् ऋषभदेव के दर्शन के लिये यहां आया हूं। मुझे नन्दीश्वर द्वीप की रतिविशाला नगरी में अपने मित्र सुमाली से मिलने जाना है ।' इस प्रकार अपना परिचय देने के पश्चात् उसने राजा को एक अनुपम दिव्य हार भेंट में दिया । वह हार ज्वलनप्रभ की पत्नी प्रियङ्ग सुन्दरी का था ।
25
ज्वलनप्रभ के चले जाने पर राजा ने उस हार को देवी श्री के चरणों में अर्पित कर दिया । उसी समय देवी की मूर्ति के निकट भीषण अट्टहास करते हुए एक वेताल प्रकट हुआ, जिसने अत्यन्त भीषण व वीभत्स रूप धारण किया हुआ था । वेताल ने कहा- संसार में प्रायः ऐसा व्यवहार देखा जाता है कि फलाभिलाषी सेवक पहले देवता के सेवकों की सेवा करके, उनके प्रसाद को प्राप्त करता है और उनके द्वारा स्वामी के प्रति अपनी भक्ति प्रदर्शित करता है । किन्तु आपकी सेवाविधि तो सर्वथा विपरीत है । आप वस्त्र, माल्य, अलंकारादि से इस देवी की तो निरन्तर अर्चना करते हैं, किन्तु मेरे जैसे सदा इसके साथ रहने वाले सेवकाग्रजन को आहार- दान के लिये भी निमन्त्रित नहीं करते । मुझ से मित्रता करने पर ही आपकी अभीष्ट सिद्धि हो सकती है । मैं तो निशाचर हूं, अतः फल- मूल से मुझे कोई प्रयोजन नहीं है । तुमने अनेक युद्ध किये हैं, और उनमें अनेक राजाओं का वध भी किया है, अतः मुझे ऐसे एक राजा का कपाल - कर्पर प्रदान करो, जो कभी युद्ध में न हारा हो, जिसने प्राण-संशय उत्पन्न होने पर भी शत्रु को प्रणाम न किया हो तथा जिसने किसी याचक को निराश न किया हो । उसके कपालकर्पूर के रक्त से मैं अपने पिता का तर्पण करूंगा ।"
यह सुनकर राजा ने स्वयं अपना सिर काटकर भेंट देने के लिये कृपाण को स्कन्ध पर रखा, किन्तु उसकी बाहु स्तम्भित हो गई । उसी समय अलौकिक देह-प्रभा से दशों दिशाओं को आलोकित करती हुई भगवती श्री प्रकट हुई । उसकी भक्ति प्रवणता तथा साहस से प्रसन्न होकर श्री ने कहा- हे राजन् ! मैं
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तिलकमंजरी, एक सांस्कृतिक अध्ययन
तुम्हारा क्या प्रिय करू : अपना अभीष्ट वर मांगो। वेताल के विषय में चिन्ता मत करो, क्योंकि वस्तुतः मेरे प्रतीहारों में अग्रगण्य महोदर नामक यक्ष ने ही तुम्हारे सत्व की परीक्षा करने के लिये अपना मायाजाल दिखाया था।
राजा ने अत्यन्त चतुरतापूर्वक मदिरावती के लिये पुत्र की याचना की। उसने कहा-'हे देवि ! वैसा ही करो, जिससे मैं अपने पूर्वजों में अंतिम न रहं तथा मदिरावती भी अद्वितीय वीर-पुत्रों को जन्म देने वाली हमारे पूर्वजों की महारानियों की महिमा का अनुसरण करे । लक्ष्मी ने प्रसन्न होकर न केवल वर ही प्रदान किया अपितु उसके संकटकाल में रक्षार्थ चन्द्रातप हार और बालातप नामक अंगुलीयक भी उपहार में दी।
अगले दिन राजा ने अपनी सभा में समस्त वृतान्त अपने सभासदों से कहा और प्रधान कोषाध्यक्ष महोदधि को बुलाकर उस दिव्य-हार को राज्य-कोश में रखने के लिये सौंप दिया । अंगुलीयक प्रधान सेनापति वज्रायुध के पास, रात्रियुद्ध में पहनने के लिये, उपसेनापति विजयवेग के साथ भिजवा दी। तत्पश्चात् राजा ने मुनिव्रत का त्याग कर दिया और राजकुल में प्रवेश किया, जहां उसके सन्तान-प्राप्ति हेतु विबिध अनुष्ठान किये जा रहे थे । वोर-वनिताओं ने मंगलगान से उसका स्वागत किया । तब ब्राह्मण-सभा में जाकर, वह हस्तिनी पर आरूढ़ होकर राजकुल से बाहर आया और शक्रावतार मंदिर में जाकर पूजा की। मध्याह्न समय तक अपनी नगरी में घूम-घूम कर प्रजाजनों से मिला । पुनः राजभवन में आकर आहार-मंडप में भोजन किया और सूर्यास्त तक दन्तवलमिका में संगीत का आनन्द लेते हुए विश्राम किया। तदनन्तर राजकीयजनों से भेंट करके आस्थान-मंडप में कुछ देर ठहर कर अन्तःपुर में मदिरावती के पास गया। व्रत-धारण करने से कृश मदिरावती के राजा ने स्वयं अपने हाथ से शृंगार किया ।
रात्रि के अंतिम प्रहर में राजा ने स्वप्न में देखा कि कैलास शिखर पर शुभ्रवस्त्र से सज्जित मदिरावती के स्तनों से ऐरावत दुग्ध-पान कर रहा है, मानो गणेश अपनी सूंड से पार्वती का स्तन-पान कर रहा हो । स्वप्न-दर्शन के अनन्तर कुछ दिनों में ही रानी मदिरावती ने गर्भ धारण किया तथा उचित समय पर अत्यन्त शुभ मुहूर्त में एक अत्यन्त तेजस्वी पुत्र को जन्म दिया। यह समाचार पाते ही अन्तःपुर सहित नगर की सभी स्त्रियां आनन्दमग्न होकर नृत्य करने लगीं। राजा नवजात शिशु को देखने प्रसूति-गृह में गया और उस बालक में चक्रवर्ती के समस्त लक्षणों को देखर अनिर्वचनीय सुख प्राप्त किया । दसवें दिन उसका नामकरण संस्कार कर "हरिवाहन" नाम रख दिया।
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पांच वर्ष तक हरिवाहन अन्तःपुर में अपनी बालकोचित क्रीड़ाओं द्वारा सभी को आनन्दित करता रहा । छठे वर्ष में राजा ने राजगृह में ही एक विद्यागृह का निर्माण करवाया तथा अखिल शास्त्र मर्मज्ञ, श्रेष्ठ एवं अनुभवी विद्यागुरुओं का संग्रह किया। तब शुभ दिन उसका उपनयन संस्कार कर उसे गुरुजनों को सौंप दिया।
कुमार हरिवाहन भी दस वर्ष की अवस्था में ही अपनी विलक्षण तीक्ष्ण बुद्धि के कारण सभी उपविधाओं सहित चौदह विद्याओं में पारंगत हो गया। उसने सभी कलाओं में विशेषकर चित्रकला और वीणावादन में विशेष कुशलता प्राप्त की। अपने सिंह-शावक सदृश व अद्भुत पराक्रम से उसने सभी को आश्चर्यचकित कर दिया । सोलह वर्ष की आयु प्राप्त हो जाने पर, सभी शास्त्रों में पारंगत, शस्त्र-विद्या में प्रवीण तथा नवयौवन से उपचित अंग शोभा वाले हरिवाहन को राजा ने अपने भवन में बुलवाया और नगर के बाह्य भाग में उसके लिये गज-तुरंग शालाओं से युक्त अत्यन्त रमणीय कुमार भवन का निर्माण करवाया।
तत्पश्चात् राजा मेघवाहन ने युवराज के अभिषेक की आकांक्षा से उसके राजकार्य में सहायक, प्रज्ञा, पराक्रम एवं गुणों में समान राजकुमार की खोज में अपने गुप्तचरों को चारों और भेजा।
__ एक दिन जब मेघवाहन आस्थान-मंडप में बैठा था, उसी समय प्रतीहारी ने आकर निवेदन किया-'हे राजन् ! दक्षिणापथ से आया हुआ प्रधान सेनापति वज्रायुध का प्रियपात्र विजयवेग आपके दर्शनों को उत्सुक है।' राजा ने अंगुलीयकप्रेषण वृत्तान्त का स्मरण करते हुए उसे तुरन्त बुलाया और पूछा कि उस अंगूठी ने युद्ध में कुछ उपकार किया या नहीं।
विजयवेग ने युद्ध का विस्तार से वर्णन करते हुए कहा-"जो किसी अन्य ने न किया वह इस अंगूठी ने कर दिखाया। शरद् ऋतु के आगमन पर सेनापति वज्रायुध सदलबल कुण्डिनपुर से कांची नरेश कुसुमशेखर के दर्प-दमन के लिये चले तथा क्रम से कांची देश पहुंचे । कुसुमशेखर ने भी युद्ध के लिये कांची नगरी में सभी तैयारियां प्रारम्भ कर दी। वज्रायुध ने कांची के प्रान्त भाग में शिविर की स्थापना की तथा दुर्ग-भंग के लिये अपने सामन्तों को भेजा, जिसका कुसुमशेखर की सेनाओं के साथ दुर्ग-द्वार पर बहुत दिन तक युद्ध होता रहा ।
एक दिन वसन्त ऋतु के आगमन पर रात्रि के अंतिम प्रहर में सेनापति कामदेवोत्सव मना रहे थे, उसी समय तीव्र कोलाहल सुनाई पड़ा । शत्रु के आक्रमण की आशंका से उन्होंने ढाल और कृपाण लेकर राजकुल से प्रयाण किया तभी
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तिलकमंजरी, एक सांस्कृतिक अध्ययन काचरात और काण्डरात नामक अश्वारोहियों ने समाचार दिया कि शत्रु की सेना कांची से शिविर की ओर आ रही है । सेनापति ने हर्षित होकर तुरन्त युद्धदुन्दुभि बजाने का आदेश दिया और सेना सहित रथारूढ़ होकर शिविर से निकल पड़ा । तदनन्तर व्यूह-रचना करके युद्ध हेतु सज्जित हो गया। तब दोनों सेनाएं आपस में गुत्थम-गुस्था हो गई। जब युद्ध-भूमि दोनों पक्षों के मृत वीरों से पट गई, तब प्रतिपक्ष की सेना से निकलकर एक अत्यन्त वीर योद्धा वज्रायुध के सामने आया और उसने वज्रायुध को धनुर्युद्ध के लिये ललकारा । तब उन दोनों में भीषण युद्ध छिड़ गया। वज्रायुध को पराजित होते देखकर विजयवेग को राजा द्वारा प्रेषित अंगूठी का स्मरण हो आया तथा उसने वह अंगूठी तुरन्त वायुध की अंगुली में डाल दी। उसके पहनते ही, उसके प्रभाव से समस्त शत्रु-सेना, नवीन सूर्य की किरणों के स्पर्श से कुमुद-कानन के समान उन्निद्रित सी हो गई। योद्धाओं के हाथ से तलवारें गिर कर छूट गई धनुर्धरों के बाण आधे मार्ग में ही गिर गये । रथारूढ़ों को जम्भाइयां आने लगी, अश्वारोही दीर्घ निःश्वास छोड़ने लगे। इस प्रकार प्रतिपक्ष की सेना के शिथिल हो जाने पर, हमारे सैनिकों में "मारो, मारो, पकड़ो, पकड़ो" का कोलाहल मच गया किन्तु उस राजकुमार के पराक्रम से अभिभूत वज्रायुध ने उन्हें रोका तथा उसकी चामरग्राहिणी से उसके विषय में पूछा । उसने बताया कि यह सिंहलेश्वर चन्द्र केतु का पुत्र समरकेतु है, जो अपने पिता की आज्ञा से राजा कुसुमशेखर की सहायता के लिए कांची आया है। आज प्रातः किसी अज्ञात कारण से शृंगार वेश धारण कर कामदेव मंदिर में गया था और नगर की स्त्रियों को देखते हुए पूरा दिन वहीं व्यतीत किया। कामदेव यात्रा की समाप्ति पर वहीं कमलपत्र की शय्या रचकर सो गया। अर्धरात्रि में अकस्मात् शिविर में आकर सेना को सज्जित किया और कांची से निकल पड़ा और यहां इस दशा को प्राप्त हुआ। इतने में ही प्रातःकाल हो गया। वज्रायुध ने प्रतिपक्ष की सेना के आश्वासनार्थ अभयप्रदान पटह बजवा दिया और समरकेतु को प्रेमपूर्वक अपने निवास स्थान में ले गया जहाँ सेवक के समान उसके व्रणों का उपचार किया तथा अंगुलीयक प्राप्ति का समस्त वृत्तान्त सुनाया। समरकेतु भी वज्रायुध के सौजन्य से अत्यधिक प्रभावित हुआ और आपसे मिलने की इच्छा प्रकट की, तब वज्रायुद्ध ने उसे मेरे साथ आपके पास भेज दिया।"
उपसेनापति बिजयवेग वणित इस वृतान्त से सभी राजगण अत्यन्त विस्मित हो गये। मेघवाहन ने भी अपने महाप्रतीहार हरदास को तुरन्त भेजकर समरकेतु को वहीं बुला लिया। राजा ने तरल-स्निग्ध दृष्टिपात करते हुए उसे अपने उत्संग में बैठा लिया और पार्श्वस्थित हरिवाहन से कहा कि अद्यपर्यन्त
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समरकेतु तुम्हारा परमविश्वसनीय सहचर बना दिया गया है। अतः तुम इसे सदा साथ रखना। राजकुमार हरिवाहन भी प्रेमपूर्वक समरकेतु का हाथ पकड़कर उसे अन्तःपुर में मदिरावती के पास ले गया।
__ अपरान्ह में राजा की आज्ञा से सुदृष्टि नामक अक्षपटलिक आया और उसने हरिवाहन को कश्मीरादि मण्डल सहित उत्तरापथ की भूमि तथा समरकेतु को अंगादि जनपद कुमार-मुक्ति के रूप में प्रदान किए ।
एक दिन हरिवाहन समरकेतु तथा अन्य विश्वस्त मित्रों के साथ मत्तकोकिल नामक बाह्योधान में भ्रमण हेतु गया। वहां वे सरयू तट पर निर्मित कामदेव मंदिर के समीप स्थित जल-मण्डप में एक पुष्प-शय्या पर बैठ गये । वहां सभी कलाओं में निपुण राजपुत्र उसकी सेवा में उपस्थित हुए। तब उनमें चित्रालंकार बहुल काव्य-गोष्ठी प्रारम्भ हुई । उसी समय मंजीर नामक बंदीपुत्र ताडपत्र पर लिखे एक प्रेमपत्र को लेकर आया । हरिवाहन ने उसका यह अर्थ किया कि यह पत्र किसी धनिक पुत्री द्वारा अपने प्रेमी को गुप्त-विवाह के लिये स्थान का निर्देश भी करता है तथा साथ ही पत्रहारिका दूती को वक्रोक्ति द्वारा वंचित भी करता है । इस प्रसंग से समरकेतु को अपने पूर्व-प्रेम का स्मरण हो आया जिससे वह व्याकुल हो उठा । उसके मित्र कलिंग देश के राजकुमार कमलगुप्त के पूछने पर उसने अपना पूर्व-वृत्तान्त सुनाया। समरकेतु का वृत्तान्त
__सिंहलद्वीप की राजधानी रंगशाला नामक नगरी में मेरे पिता चन्द्र केतु राज्य करते हैं। एक बार उन्होंने सुवेल पर्वत के दुष्ट सामन्तों के दमन हेतु, मुझे नौसेना का नायक बनाकर दक्षिणापथ की ओर भेजा । मैं सेना सहित नगर सीमा पार करके समुद्र तट पर आया, जहां मैंने एक पन्द्रह वर्षीय नाविक युवक को देखा । मेरे पूछने पर नौसेनाध्यक्ष ने इसका पूर्ववृत्तान्त सुनाया कि किस प्रकार मणिपुर में रहने वाले सायंत्रिकवणिक् वैश्रवण का यह पुत्र तारक यहां आकर नाविकों के अधिनायक जलकेतु की पुत्री प्रियदर्शना के प्रेमपाश में बंधकर, उससे विवाह करके यहीं बस गया और समस्त नाविकों का प्रमुख हो गया।
उसी समय तारक ने आकर सूचित किया कि नाव सज्जित हो गई है। हम सभी नावों में सवार होकर चल पड़े। समुद्र की बहुत लम्बी यात्रा करके उस प्रदेश में पहुंचे तथा लोगों के दुष्ट व्रणों के समान उन दुष्ट सामन्तों का यथायोग्य उपचार कर उन्हें पुनः प्रकृतिस्थ किया। तदनन्तर अनेक द्वीपों का भ्रमण करते हुए कुछ दिन सुवेल पर्वत पर बिताए। एक दिन भ्रमण करते हुए ही हम अतिरमणीय रत्नकूट पर्वत पर पहुंचे जहां हमें दिव्य मंगल ध्वनि सुनाई
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दी। उस ध्वनि का अनुसरण करते हुए हम अपने साथियों से बहुत दूर निकल गये और एक द्वीप पर पहुंचे किन्तु हमारे पहुंचते ही वह ध्वनि बंद हो गई। तब अत्यन्त निराश होकर वह रात्रि वहीं नाव पर ही व्यतीत की। प्रात:काल सहसा एक प्रकाशपुंज में से प्रकट होते हुए विद्याधर-समूह को देखा, तभी कुछ दूरी पर एक दिव्य-देवायतन दिखाई दिया। हम उसमें प्रवेश द्वार खोज ही रहे थे कि हमें मधुर नूपुरों की झंकार सुनाई पड़ी और हमने देवायतन की प्राकार-भित्ति पर अनेक कन्याओं के मध्य षोडषवर्षीय एक अत्यन्त सुन्दरी कन्या को देखा।"
___ यहीं प्रतीहारी के प्रवेश करने पर समरकेतु का वृत्तान्त बीच में ही अवरुद्ध हो जाता है। प्रतीहारी हरिवाहन को सूचित करती है कि गन्धर्वक नामक पन्द्रहवर्षीय युवक एक चित्र लेकर उपस्थित हुआ है । हरिवाहन उसे तुरन्त प्रवेश कराने की आज्ञा देता है । गन्धर्वक हरिवाहन को चित्र दिखाकर उसकी समीक्षा करने के लिये कहता है । हरिवाहन के यह कहने पर कि इस चित्र में एक मात्र दोष यही है कि इसमें एक भी पुरुष पात्र चित्रित नहीं है, गन्धर्वक चित्र का परिचय इस प्रकार देता है-"यह चित्र वैताढ्य पर्वत पर स्थित रथनुपूरचक्रवाल नगर के विद्याधर नरेश चक्रसेन की पुत्री तिलकमंजरी का है, जो किसी अज्ञात कारण से पुरुष सान्निध्य की अभिलाषा नहीं करती । उसकी ऐसी चित्तवृत्ति जानकर उसकी माता पत्रलेखा ने मेरी जननी चित्रलेखा को पृथ्वी के समस्त राजकुमारों के चित्र बनाने का आदेश दिया कि कदाचित् कोई राजकुमारी की दृष्टि में आ जाय । अतः मेरी माता चित्रलेखा ने चित्रकला में दक्ष अपनी दूतियों को चारों दिशाओं में भेजा । मुझे महारानी पत्रलेखा ने राज्यकार्य से अपने पिता विद्याधर नरेन्द्र विचित्रवीर्य के पास भेजा है और मेरी माता ने कांची में महारानी गन्धर्वदत्ता से मिलने के लिये कहा है, अतः मार्ग में कोई बाधा उपस्थित न होने पर, मैं शीघ्र ही लौटकर आऊंगा और एकाग्रमन से आपका चित्र अवश्य बनाउंगा, जो भर्तृ दारिका तिलकमंजरी के हृदय में प्रेम उत्पन्न करेगा।"
यह कहकर जब गन्धर्वक जाने लगा तो समरकेतु ने उसे कांची में कुसुमशेखर की पुत्री मलयसुन्दरी को देने के लिये एक लेख लिखकर दिया।
तिलकमंजरी के चित्र-दर्शन से ही हरिवाहन के हृदय में स्मर-विकार उत्पन्न हो गया और वह गन्धर्वक के आगमन की प्रतीक्षा करते हुए निरन्तर उस चित्र को देखने में समय-व्यतीत करने लगा । वर्षा ऋतु प्रारम्भ होने पर उसकी व्याकुलता दुःसह हो उठी । वर्षाकाल व्यतीत हो जाने पर भी जब गन्धर्वक लौट कर नहीं आया, तो निराश होकर उसने मनोरंजन हेतु अपने राज्य का भ्रमण करने का निश्चय किया तथा पिता की आज्ञा प्राप्त कर समरकेतु तथा कतिपय
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अन्य सुहृदजनों के साथ साकेतनगर से निकल पड़ा। कुछ दिन बाद वे सभी कामरूप देश में पहुंचे ।
__ एक दिन जब वे लौहित्य नदी के तट पर गीत-गोष्ठी कर रहे थे, वहां पुष्कर नामक हस्ती-पालक आया और मदगन्ध से विक्षिप्त हुए वैरियमदण्ड नामक प्रधान हाथी को वश में करने के लिये कहा । हरिवाहन ने अपनी वीणा बजाकर उसे सम्मोहित कर लिया और जैसे ही वह उस पर चढ़ा, अचानक वह हाथी उसे लेकर आकाश में उड़ गया। समरकेतु और अन्य राजपुत्रों ने तुरन्त उसका अनुसरण किया किन्तु उसका कोई पता नहीं चला। इस प्रकार उसके अपहरण से निराश हुए समरकेतु को दूसरे दिन दूतों ने हाथी के दिखाई देने का समाचार दिया, किन्तु हरिवाहन का कोई सूत्र नहीं मिला । अतः दुःखी होकर समरकेतु ने आत्महत्या का निश्चय किया, तभी कमल गुप्त का एक संदेशवाहक हरिवाहन का पत्र लेकर आया और उसने यह भी बताया कि किस प्रकार कमलगुप्त को अचानक यह पत्र मिला और उसका प्रतिलेख एक शुक के द्वारा ले जाया गया।
इस समाचार से किंचित आश्वस्त होकर, अगले दिन समरकेतु हरिवाहन की खोज में उत्तर दिशा की ओर चला, जहां मार्ग में उसकी मेंट कामरूप नरेश के अनुज मित्रधर से हुई । अनेक पर्वतों, खटवियों, नगरों, ग्रामों आदि को पार करते हुए निरन्तर यात्रा करते-करते उसके छः मास व्यतीत हो गये। तब एक अत्यन्त दीर्घ एवं दुष्कर यात्रा के पश्चात् वह एक शृग पर्वत पर पहुंचा वहां उसने अदृष्टपार नामक अद्भुत सरोवर देखा। उसने उसमें स्नान किया और समीपस्थ माधवीलतामंदिर के एक मणिशिलाफ्ट पर सो गया। स्वप्न में उसने एक पारिजात वृक्ष देखा तो उसे मित्र-समागम का निश्चय हो गया । तभी उसे अश्ववृन्द की हृषाध्वनि सुनाई पड़ी। उस ध्वनि का अनुसरण करते हुए वह एक अत्यन्त रमणीय उपवन में पहुंचा । उसकी अलौकिक शोभा से वह अत्यन्त विस्मित हुआ। उसी उपवन के भीतर उसने एक कल्पतरूवन देखा जिसके मध्य सुदर्शन नामक दिव्यायतन उद्भासित हो रहा था। उसमें प्रवेश करके उसने जिनकी चिन्तामणिमय प्रतिमा के दर्शन किये और उनकी स्तुति की।
तदनन्तर उसने मत्तवारण में स्फटिकशिलापट्ट पर टंकित एक प्रशस्ति देखी । वह उस आयतन के अद्भुत शिल्पसौन्दर्य के विषय में सोच ही रहा था, तभी उसके कानों में "हरिवाहन" शब्द युक्त श्लोक के पाठ की अस्पष्ट ध्वनि पड़ी, जिसका अनुसरण करते हुए वह एक मठ में पहुंचा। वहां उसने गन्धर्वक को देखा, जो हरिवाहन की प्रशंसा में एक द्विपदी गा रहा था। तब समरकेतु गन्धर्वक के साथ हरिवाहन को देखने गया, जो उसी समय वैताढ्यपर्वत के
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चण्डगह्वर शिखर पर विद्याघरों द्वारा राज्याभिषेक किये जाने के बाद उस दिव्य कानन में आया था। वन में कुछ दूर जाने पर उन्होंने एक अश्व-वृन्द देखा तथा दिव्य मंगल-गीत की ध्वनि सुनी । तब उन्होंने एक अत्यन्त रम्य रम्भागृह में कुरूविन्दमणिशिला पर एक अतीव लावण्यवती राजकन्या के साथ बैठे हुए हरिवाहन को देखा।
दोनों मित्रों ने मिलकर परमानन्द प्राप्त किया। तभी उनके नगर प्रवेश का समय हो गया। वताढ्य पर्वत की विशाल अटवी को पार करते हुए उन्होंने बड़े उत्सव के साथ नगर में प्रवेश किया और पौरजनों द्वारा अभिनन्दित होते हुए वे राजमहल में गये । वहां उन्होंने विद्याधर कुमारों के साथ भोजन किया । दूसरे दिन वे सभी वैताढय पर्वत पर पहुंचे और समरकेतु के पूछने पर हरिवाहन ने गज-अपहरण से लेकर यहां पहुंचने तक का सम्पूर्ण वृत्तान्त कहा । यहीं सारा कथा-स्त्र हरिवाहन के हाथ में आ जाता है और आगे की कथा सब उसी के द्वारा वर्णित है।
हरिवाहन ने कहा-वह मदान्ध हाथी मुझे अन्तरिक्ष में बहुत दूर तक उड़ा कर ले गया और एक शृग पर्वत पर पहुंचने पर उसे वश में करने के प्रयत्न में मैं स्वयं उसके सहित अदृष्टपार नामक सरोवर में गिर पड़ा। सरोवर से बाहर आकर मैंने बालू में कई पद-चिन्ह देखे, जिनमें एक युगल अत्यन्त सुन्दर था। उसका अनुसरण करते हुए मैं एक लतागृह में पहुंचा, जहां रक्ताशोक के नीचे एक अद्वितीय सुन्दरी कन्या खड़ी थी। मैंने उसे अपना परिचय दिया तथा उसके विषय में पूछा किन्तु वह बिना कोई उत्तर दिये ही वहां से चली गई। उसकी उपेक्षा से निराश होकर "यह चित्र में देखी हुई तिलकमंजरी ही है, “इस चिंता में वहीं सो गया।
प्रातः काल विचरण करते हुए मैंने एक पद्मरागशिलामय प्रासाद देखा, जहां मत्तवारण पर एक तापस कन्या बैठी थी। उसने जिन की पूजा करके, मेरा स्वागत किया और अपने त्रिभूमिक मठ में ले गयी। मेरे यह पूछने पर कि उसने यह तपस्वी-वेश क्यों धारण किया है, उसने सजल नेत्रों से अपना यह वृतान्त सुनाया। मलयसुन्दरी की कथा
कांची नगरी में राजा कुसुमशेखर राज्य करता था। उनकी महारानी गन्धर्वदत्ता ने एक पुत्री को जन्म दिया, जिसके विषय में त्रिकालज्ञ बसुरात ने यह भविष्यवाणी की थी कि इस कन्या से विवाह करने वाले व्यक्ति को विद्याधर चक्रवर्तित्व की प्राप्ति होगी। दसवें दिन मेरा मलयसुन्दरी यह नामकरण हुआ।
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जब मैं सोलह वर्ष की हुई तो रात्रि को शयन करते हुए एक दिन तीव्र ध्वनि से मेरी निद्रा भंग हो गई । आंख खोलने पर मैंने अपने आपको जैन मंदिर के एक कोने में अनेक राजकन्याओं से घिरा हुआ पाया। पूछने पर ज्ञात हुआ कि यह दक्षिण समुद्र में पंचर्शल द्वीप पर स्थित महावीर का मंदिर था, जिनके अभिषेकमंगल के लिये राजा विचित्रवीर्य के नेतृत्व में समस्त विद्याधर एकत्रित हुए थे, उसी अवसर पर नृत्य करने के लिये अनेक राजकन्याओं का अपहरण किया गया था। मेरे नृत्य-कौशल से राजा विचित्रवीर्य अत्यधिक प्रभावित हुए
और मुझ से वार्तालाप करने पर उन्हें ज्ञात हुआ कि उनकी पुत्री गन्धर्वदत्ता ही मेरी माता है, जो शैशवकाल में ही नगर विप्लव के समय अपने पिता से वियुक्त हो गई थी और त्रिकालदर्शी मुनि महायश ने यह भविष्यवाणी की थी कि उसकी कन्या को योग्य वर की प्राप्ति होने पर ही उसका अपने पिता से पुनः समागम होगा । विचित्रवीर्य ने तुरन्त गन्धर्वक की माता चित्रलेखा को इस संदेह की पुष्टि करने का कार्य सौंप दिया। प्रात:काल होने पर विचित्रवीर्य ने सुवेल पर्वत पर स्थित अपनी राजधानी को प्रस्थान किया।
इसके पश्चात् मैंने भगवान महावीर की मूर्ति के दर्शन किये तथा समुद्र की शोभा देखने के लिये प्राकार-भित्ति पर चढ़ी । वहीं मैंने नाव में बैठे हुए एक अष्टादश वर्षीय राजकुमार को देखा और देखते ही उस पर आसक्त हो गई। उसके मित्र तारक ने उसका परिचय देते हुए कहा कि यह सिंहलदेश के नरेश चन्द्रकेतु का पुत्र समरकेतु है. जो द्वीपान्तर-विजय के प्रसंग से यहां आया है। तारक ने अत्यन्त कुशलतापूर्वक मेरे अन्तःकरण के ही समान दुर्गम उस मंदिर का मार्ग पूछा । मैंने समरकेतु को कामात देखकर, उसे कुछ देर प्रतीक्षा करने के लिये कहा । तब तारक ने वक्रोक्ति द्वारा नाव के व्यपदेश से अपने मित्र समरकेतु की ओर से मुझ से प्रणय-निवेदन किया। उसी समय तपनवेग नामक सेवक ने आकर मुझे भगवान महावीर को अर्पित की गई पुष्पमाला और हरिचन्दन लाकर दिया तथा उसके साथ आये पुजारी बालक ने नृत्य के समय मेरी कांची में गिरे हुए पद्मराग मणि को ग्रहण करने के लिये कहा । मैंने कहा कि नायक (समरकेतु तथा मणि) को स्वीकार कर लिया गया है किन्तु उसके अपने स्थान कांची (रसना तथा नगरी) पहुंचने पर ही ग्रहण किया जायेगा । यह कहकर उसके हाथ से पुष्पमाला लेकर समुद्र-पूजा के व्यपदेस से उस राजकुमार के गले में डाल दी, किन्तु समरकेतु ने जैसे ही मेरे दिए हुए चन्दन का तिलक लगाया, उसके प्रभाव से सामने होते हुए भी मैं उसकी दृष्टि से ओझल हो गयी। वह इस आकस्मिक आघात को सहन नहीं कर सका और समुद्र में कूद गया। उसके शोक से विह्वल
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मैंने भी अपने आपको समुद्र को अर्पित कर दिया, किन्तु आंख खुलने पर मैंने अपने आपको अपनी शयनशाला में सोते हुए पाया, जहां मेरी सखी बन्धुसुन्दरी मेरे पार्श्व में खड़ी थी । बन्धुसुन्दरी को मैंने अपना समस्त वृतान्त कहा । इसके पश्चात् मेरे कुछ दिन बहुत शोक में बीते ।
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वसन्त के आगमन पर मदन त्रयोदशी के दिन चेटी ने आकर यह सूचना दी कि आपको कामदेव की पूजा करने हेतु कामदेव मन्दिर जाना है । अगले दिन अयोध्या के राजा मेघवाहन के सेनापति वज्रायुध के साथ आपकी सम्प्रदान-विधि है । शत्रु से सन्धि करने का एक मात्र उपाय यही है । इस समाचार से उद्विग्न मैंने मृत्यु का निश्चय कर लिया। अपने माता पिता से मिली और गृहोद्यान के अपने प्रिय सभी वृक्षों और पक्षियों से विदा लेकर अपने आवास में भाई | अस्वस्थता के बहाने से बन्धुसुन्दरी को भी घर भेज दिया, किन्तु बन्धुसुन्दरी मेरे इस विपरीत आचरण से शंकित होकर द्वार के पीछे ही छिप गई । तब प्रमदवन के पक्षद्वार से निकलकर मैं कामदेव मन्दिर में आई । यात्रोत्सव के कारण देख लिए जाने के भय से बाहर से ही प्रणाम कर उद्यान में आई और अशोक वृक्ष की शाखा पर अपने ही आवरण पट्ट से मृत्यु पाश बनाया । सभी लोकपालों को अपने प्रेम का साक्षी बनाकर, अगले जन्म में भी उसी राजकुमार से संगम हो, यह प्रार्थना करते हुए ग्रीवा में फंदा डाल दिया किन्तु तभी बन्धुसुन्दरी ने कामदेव मन्दिर में ठहरे हुए एक राजकुमार की सहायता से मुझे बचा लिया । चेतना आ पर मैंने देखा कि मेरी प्राण रक्षा करने वाला मेरा प्रेमी समरकेतु ही है । मेरे पूछने पर समर बताया कि किस प्रकार वे किमी अलौकिक शक्ति द्वारा समुद्र में डूबने से बचा लिए गए और किनारे पर लाये गये । तारक ने उसे मलयसुन्दरी को खोजने के लिए कांची चलने को कहा, किन्तु उसी समय पिता चन्द्रकेतु का एक दूत यह संदेश लेकर आया कि उसके पिता के मित्र कांची नरेश कुसुमशेखर की सहायता हेतु सेना का नेतृत्व करने के लिए उसे कांची प्रस्थान करना है । इस प्रकार कांची आकर, कामदेवोद्यान में चैत्र यात्रा में आने वाली प्रत्येक स्त्री का निरीक्षण करने पर भी मलयसुन्दरी के न मिलने पर निराश समरकेतु वहीं उद्यान में अकेला बैठ गया, तभी बन्धुसुन्दरी का आक्रन्दन सुना ।
यह सुनकर बन्धुसुन्दरी ने मेरा हाथ समरकेतु के हाथ में सौंप दिया और देखे जाने से पूर्व मेरा अपहरण कर ले जाने के लिए कहा । समरकेतु ने इसे अनुचित बताते हुए कहा कि उसे अपने पिता की आज्ञानुसार पहले कांची नरेश के शत्रु से लोहा लेना है । यह कह कर वह अपने शिविर में लौट गया ।
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तदनन्तर बन्धुसुन्दरी के साथ में पुन: अपने निवास स्थान में आ गई। बन्धुसुन्दरी ने विद्याधरों द्वारा मेरे अपहरण से लेकर मेरा समस्त वृतान्त मेरी माता गन्धवंदत्ता से कहा, जिसने पुन: मेरे पिता से कहा । मेरे पिता कुसुमशेखर ने एक योजना बनाई, जिसके अनुसार मुझे वृद्धा दासी तरंगलेखा के साथ कुलपति शांतातप के आश्रम में उसी रात भेज दिया गया। वहां मैं एक तपस्वी कन्या के रूप में रहने लगी।
एक दिन कांची से आये एक ब्राह्मण के मुख से मैंने युद्ध का वर्णन सुना, जिसमें शत्रु पक्ष ने स्वपक्ष के सभी वीरों को अज्ञात कारण से दीर्घ निद्रा में सुला दिया था । यह सुनते ही मैं अचेत हो गई । संज्ञा आने पर, मैं आत्महत्या के विचार से समुद्र की ओर चली, किन्तु तरंगलेखा द्वारा देख लिये जाने पर मैंने पार्श्वस्थित किंपाक वृक्ष का विषेला फल खा लिया, जिसे खाते ही मैं मूछित हो गई । मूर्छा टूटने पर मैंने अपने आपको समुद्र में बहते हुए दारु भवन में नलिनी-पत्र की शैय्या पर सोते हुए पाया। प्रिय-वियोग से दुःखी होकर मैंने पुनः मरने का निश्चय किया, किन्तु तभी मेरी दृष्टि ताड़पत्र पर लिखे एक पत्र पर पड़ी। यह पत्र समरकेतु का था, जिसमें उसने अपनी कुशलता का समाचार दिया था और मेरे साथ व्यतीत किये गये सुखमय क्षणों का स्मरण किया था। वह लेख पढ़कर मैं आनन्द मग्न हो गई तथा दारु-भवन से उतर कर उस दिव्य सरोवर में स्नान किया और वृक्ष के नीचे बैठ गई। उसी समय पुष्प चयन करती हुई चित्रलेखा
आ पहुंची, जिसने देखते ही मुझे पहचान लिया। चित्रलेखा ने मेरा परिचय विद्याधर नरेश चक्रसेन की महिषी पत्रलेखा को दिया और मेरी माता गन्धर्वदत्ता के विषय में बताया, कि किस प्रकार दस वर्ष की अवस्था में शत्रु सामन्त अजित शत्रु द्वारा वैजयन्ती नगर में लूटपाट मचाने पर मेरी माता गन्धर्वदत्ता को कुलपति के आश्रम में पहुंचा दिया गया तथा उनका कांची नरेश कुसुमशेखर के साथ विवाह सम्पन्न हुआ। पत्रलेखा ने मेरे विषय में जानकर अत्यन्त आत्मीयता से मेरा आलिंगन किया। तत्पश्चात् विद्याघरों से घिरी मैं इस जिनायतन में आई । पत्रलेखा ने मुझे अपने निवास स्थान चलने का आग्रह किया किन्तु मैंने उस अवस्था में मुनि-व्रत पालन करना ही उचित समझा तथा वहीं अदृष्टपार सरोवर के समीपस्थ भगवान महावीर की पूजा करते हुए एक त्रिभूमिक मठ की मध्य भूमिका में निवास करने लगी।
यही मलयसुन्दरी की कथा, जो उसने हरिवाहन को सुनाई, समाप्त होती है।
. पुनः हरिवाहन द्वारा वर्णित कथा, जो वह समरकेतु को सुनाता है, प्रारम्भ होती है । हरिवाहन कहता है-“मैंने मलयसुन्दरी की कथा सुनकर उसे
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तिलकमंजरी, एक सांस्कृतिक अध्ययन
आश्वस्त किया और कहा कि मैं समरकेतु के विषय में जानता हूँ और वह कुशलपूर्वक है, किन्तु उसे मैं अपनी कुशलता का समाचार किस प्रकार भेजूं । इतने में ही वहां एक शुक आया और मनुष्य की वाणी में इस कार्य को सम्पन्न करने की आज्ञा मांगी । मैंने एक लेख लिखकर उसे मेरे मित्र कमलगुप्त के पास शिविर में पहुँचाने के लिए दिया । शुक के उड़ जाने पर मैं मलयसुन्दरी के साथ उसके मठ में आया।
दूसरे दिन चतुरिका नाम की दासी तिलकमंजरी का संदेश लेकर आई, जिसमें उसकी अस्वस्थता का उल्लेख था । उसने यह भी सूचित किया कि जब से उसने वन में महावारण को जल में प्रवेश करते हुए देखा है, तभी से वह अस्वस्थ है और यह रोग प्रेम सम्बन्धी ही प्रतीत होता है। इस पर मलयसुन्दरी ने अपने यहां माननीय अतिथि हरिवाहन के आगमन के कारण तिलकमंजरी के पास जाने में असमर्थता प्रकट की।
इस समाचार से मेरे हृदय में पुनः आशा का संचार हो गया और वह रात्रि मुझे अतिदीर्घ प्रतीत हुई। प्रातःकाल होने पर तिलकमंजरी स्वयं दिव्यायतन में आई । मलयसुन्दरी ने मुझे उसका परिचय दिया और चित्रकला, संगीत नाट्यादि विषय पर परस्पर वार्तालाप करने का आग्रह किया। मैंने तिलकमंजरी की उदासीनता देखते हुए उससे बातचीत करना अनुचित समझा, किन्तु उसे अयोध्या भ्रमण करने का निमन्त्रण दिया। तिलकमंजरी इस बार भी प्रत्युत्तर नहीं दे सकी, केवल अपने हाथ से ताम्बूल ही दे सकी और अपने निवास स्थान पर चली गई। उसके कुछ कदम चलने पर ही उसकी प्रधान द्वारपाली मन्दुरा ने आकर मुझे और मलयसुन्दरी को रथनुपूरचक्रवाल नगर चलने के लिए आमन्त्रित किया। मलयसुन्दरी ने उसे तुरन्त स्वीकार कर लिया। तब हम विमान में आरुढ़ होकर विद्याधर राजधानी पहुंचे, जहां हमारा राजकीय सम्मान किया गया। तत्पश्चात् तिलकमंजरी के प्रासाद में हमारे लिए विशेष भोज का आयोजन किया गया । भोज की समाप्ति पर महाप्रतिहारी मन्दुरा ने एक शुक के आगमन का समाचार दिया। वह लौहित्य पर्वत पर स्थित शिविर से कमलगुप्त का प्रत्युत्तर लेकर आया था । मैंने उसे अपने उत्संग में बैठाया। उसी समय तिलकमंजरी की शयनपाली कुन्तला ने निशीथ नामक अद्भुत दिव्य वस्त्र लाकर दिया, जिसे धारण करने से अदृश्य होकर भी नगरी का भ्रमण किया जा सकता था । जैसे ही मैंने उस वस्त्र को धारण किया, मेरी गोद से एक नवयुवक उठा, जो गन्धर्वक ही था। इस आश्चर्यजनक समाचार को सुनकर तिलकमंजरी और मलयसुन्दरी भी वहां आ पहुंची। गन्धर्वक ने सभी को प्रणाम कर, अयोध्या प्रस्थान से लेकर अपनी कथा कही।
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गन्धर्वक की कथा
अयोध्या नगरी से निकलकर मैं त्रिकूट पर्वस्थ विद्याधर राजधानी को ओर चला, जहां मैं प्रदोष समय मे पहुंच गया। राजा विचित्रवीर्य से महारानी पत्रलेखा का संदेश कहा और हरिचन्दन विमान लेकर महारानी गन्धर्वदत्ता के दर्शनार्थ कांची की ओर प्रस्थान किया। मार्ग में प्रशान्त वैराश्रम के निकट मुझे अत्यन्त तीव्र आक्रन्दन सुनाई दिया। विमान से उतरकर मैंने देखा कि एक वृद्धा स्त्री सहायता के लिए पुकार रही थी और उसके पास ही विषले फल को खा लेने से मलयसुन्दरी अचेत पड़ी थी। मैंने उसे अपने विमान में नलिनीदल से शैय्या रचकर सुलाया और अपने सहचर चित्रमाय को उसकी देखरेख करने तथा साथ ही यदि मैं देववशात् शीघ्र न लौट सकू तो अनुकूल वेश धारण कर राजकुमार हरिवाहन को रथनुपूरचक्रवाल नगर पहुँचाने का आदेश दिया। मैं स्वयं दिव्य औषधि की खोज में दक्षिण दिशा की ओर विमान से चला किन्तु एक शंग पर्वत के समीप मेरा विमान एक यक्ष के द्वारा रोक दिया गया। मेरे बारबार कहने पर भी जब वह मार्ग से नहीं हटा तो मैंने उसे अपशब्द कहे जिससे क्रुद्ध होकर उसने मेरे विमान को इतने वेग से फैका कि वह सीधा अदृष्टभार सरोवर में जा गिरा । उस महोदर नामक यक्ष ने मुझे बताया कि किस प्रकार उसने मलयसुन्दरी और समरकेतु दोनों को समुद्र में डूबने से बचाया था। वह यक्ष भगवान आदिनाथ के मन्दिर की रक्षा हेतु स्वयं भगवती श्री द्वारा नियुक्त किया गया था । मैंने विमान को मन्दिर के शिखराग्र भाग से ले जाकर भगवान महावीर का अपमान किया था । अतः महोदर ने मुझे शुक हो जाने का श्राप दिया और अपनी इसी शुकावस्था में मैंने संदेश-प्रेषण का कार्य किया।
गन्धर्वक की इस कथा से सभी विस्मित हो गये। तब मैंने गन्धर्वक से लेकर कमलगुप्त का लेख पढ़ा। उसे पढ़ते ही मैं चित्रमाय को साथ लेकर अपने शिविर की ओर चला । वहां पहुंचने पर ज्ञात हुआ कि समरकेतु मुझे खोजने के लिए ही एक अर्धरात्रि को शिविर से गया था और आज तक लौटकर नहीं आया । कामरूप नरेश के अनुज से भी इतना ही ज्ञात हो सका कि वह घने जंगलों में उत्तर दिशा की ओर गया है । तब मैंने चित्रमाय को पुनः विद्याधर नगर भेज दिया और स्वयं समरकेतु की खोज में लग गया। चित्रमाय से समाचार पाकर तिलकमंजरी ने मेरी सहायतार्थ एक सहस्र विद्याधरों को भेजा। इस प्रकार समरकेतु की खोज में कई दिन व्यतीत हो गये ।
एक दिन शंखपाणि नामक रत्न कोषाध्यक्ष मेरे पास आया और मेरे पिता मेघवाहन द्वारा प्रेषित चन्द्रातप हार और बालारूण अंगुलीयक प्रदान की।
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मैंने उन्हें गन्धर्वक के साथ तिलकमंजरी और मलयसुन्दरी के लिए उपहार स्वरूप भेज दिया । दूसरे ही दिन चतुरिका ने आकर सूचना दी कि तिलकमंजरी ने जैसे ही उस हार का आलिंगन किया, आपके साथ समागम की उसकी सम्भावना समाप्त हो गई है, किन्तु उसका जीवन आपके ही अधीन है अतः आपके द्वारा वह विस्मरणीय नहीं है।
इस आकस्मिक दुःख के आघात को सहने में असमर्थ मैंने विजयार्घ गिरि के सार्वकामिक प्रपात शिखर से कूदने का निश्चय किया। मार्ग में मैंने एक अतिसुन्दर कन्या को एक नवयुवक के पैरों में गिरकर रोते हुए देखा। पूछने पर उस युवक ने बताया कि वह विद्याधर कुमार अनंगरति है, जो अपने बन्धुजनों द्वारा राज्य के छीन लिए जाने पर, अपने जीवन से विरक्त होकर मरना चाहता है, किन्तु उसकी पत्नी पहले स्वयं मरना चाहती है । मैंने अपना राज्य उसे भेंट में देने का वचन दिया, किन्तु उसने इसे अस्वीकार कर दिया। उसने मुझे दिव्य शक्ति प्राप्त करने के लिये मन्त्र-विद्या प्रदान की, जिससे उसे पुनः अपना ही राज्य प्राप्त हो सके । मैंने इसे स्वीकार कर लिया और छ: महीने तक मन्त्र साधना करते हुए कठोर तपस्या की तथा तपस्या भंग करने के सभी प्रयत्नों को विफल कर दिया । अन्ततः एक देवी प्रकट हुई, जिसने कहा कि तुम अपनी साधना से दिव्य शक्ति प्राप्त करने में सफल हुए हो, अतः तुम्हारे पराक्रम से विजित आठों देवता तुम्हारे अधीन हैं । मैंने उसे अनंगरति की सेवा करने के लिये कहा तब उसने यह रहस्योद्घाटन किया कि वस्तुतः अनंगरति ने प्रधान सचिव शाक्यबुद्धि के कहने पर, विजयागिरि के उत्तरी राज्य के उत्तराधिकारी के लिये उपयुक्त पात्र प्राप्त करने के लिये यह प्रपंच रचा था, क्योकि सम्राट विक्रमबाहु राज्य से विरक्त हो गये थे। अतः तुम विद्याधरचक्रवर्तित्व स्वीकार करो। यह कहकर वह देवी अदृश्य हो गई।
___ उसके जाते ही दिव्य भेरी रव सुनाई दिया, जिसे सुनकर सभी विद्याधर एकत्रित हो गए। वे सभी मुझे विमान में बैठाकर अपनी राजधानी ले गये, जहां विद्याधर चक्रवर्ती के रूप में मेरा अभिषेक किया गया किन्तु में तिलकमंजरी के विरह में व्याकुल, निरन्तर उसी का स्मरण करता रहा । तभी प्रधान द्वारपाल ने गन्धर्वक के आगमन की सूचना दी। गन्धर्वक ने तिलकमंजरी के विषय में विस्तार से वर्णन किया ।
उसने कहा-आपकी भेजी हुई दिव्य अंगुलीयक को धारण करते ही मलयसुन्दरी के नेत्रों से अश्रूधार बहने लगी। तिलकमंजरी भी दिव्यहार को पहनते ही म्लान पड़ गयी। जब मैंने दिव्य हार प्राप्ति की कथा सुनाई तो वह
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मूछित हो गई। दूसरे दिन वे दोनों बिना कोई कारण बताए तीर्थयात्रा के लिये निकल पड़ी। मार्ग में उन्हें एक त्रिकालदर्शी महर्षि के दर्शन हुए जिनका धार्मिक प्रवचन सुनने के लिए वे वहीं ठहर गई । एक विद्याधर कुमार द्वारा प्रश्न किये जाने पर उन्होंने उन दोनों के पूर्वजन्म का रहस्योद्घाटन किया।
महर्षि ने कहा-'सौधर्म नामक देवलोक में ज्वलनप्रभ नामक वैमानिक अपनी पत्नी प्रियंगुसुन्दरी के साथ निवास करता था। जब उसकी दिव्यायु क्षीण प्रायः हुई तो उसे स्वर्गीय वैभव से विरक्ति हो गई। तब वह जन्मान्तर के लिए बोधि-लाभ हेतु तीर्थयात्रा करने के लिए स्वर्ग से चला। मार्ग में उसकी भेंट शक्रावतार तीर्थ में राजा मेघवाहन से हुई, जिसे उसने अपनी पत्नी का हार उपहार में दे दिया। इसके पश्चात् वह अपने मित्र सुमाली के पास नन्दीश्वर द्वीप में आया और उसे भी जिनमतानुसार जीवादि तत्त्वों का भेद बताकर भगवान् जिन के पवित्र मार्ग से अवगत कराया। तत्पश्चात् संसार के सभी पवित्र स्थानों का भ्रमण करके अपनी देह का त्याग कर दिया। दूसरे जन्म में यही ज्वलनप्रभ राजा मेघवाहन का पुत्र हरिवाहन हुवा। दूसरी ओर पति के इस प्रकार विना सूचित किये चले जाने से दुःखी होकर प्रियंगुसुन्दरी उसे खोजने के लिये जम्बूद्वीप में आई । जहां उसकी भेंट प्रियम्वदा से हुई, जो स्वयं अपने प्रिय सुमाली के वियोग में व्याकुल थी। दोनों सखियां जयन्तस्वामि के पास पहुंची, जिसने उन्हें कहाकि उन दोनों का अपने-अपने प्रिय से एकशृग और रत्नकूट पर्वत पर समागम होगा और दिव्य आभूषण की प्राप्ति उसका कारण होगी।
यह सुनकर प्रियंगुसुन्दरी एक शृग पर्वत पर पहुंची और अपनी दिव्य शक्ति से जिनायतन का निर्माण करके पतिसमागम की प्रतीक्षा में दिन व्यतीत करने लगी। इसी प्रकार प्रियम्बदा भी रत्नकूट पर्वत पर जिनेन्द्रालय का निर्माण कर पति-आगमन का प्रति-पालन करने लगी।
एक दिन भगवती श्री प्रियंगुसुन्दरी के पास प्रियम्बदा का संदेश लेकर आई कि प्रियम्वदा अपना अंत समय निकट जानकर तथा प्रिय-समागम के प्रति निराश होकर, सर्वज्ञ के वचनों का विश्वास खो चुकी है, अत: उसने अपने दिव्यायतन की रक्षा का भार तुम्हें सौंप दिया है और यह दिव्य अंगुलीयक मुझे प्रदान कर दी है । भगवती श्री ने प्रियंगुसुन्दरी का भी अत समीप ही जानकर दोनों जिनायतनों की रक्षा का उत्तरदायित्व अपने यक्ष महोदर को सौंप दिया। इस प्रकार प्रियंगुसुन्दरी ने विद्याधर नरेश चक्रसेन की पुत्री तिलकमंजरी के रूप में जन्म लिया और प्रियम्वदा कांची नरेश कुसुमशेखर की पुत्री मलयसुन्दरी के
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रूप में जन्मी । दूसरी ओर सुमाली ने सिंहलाघिय चन्द्रकेतु के पुत्र समरकेतु के रूप में जन्म लिया।
महर्षि से अपने पूर्वजन्मों का वृत्तान्त सुनकर वे दोनों अपने पटमण्डप में लौट आई। तभी तिलकमंजरी की दाहिनी आंख किसी अनिष्ट की आशंका से फड़कने लगी। उसी समय चित्रमाय ने आकर सूचित किया कि सम्पूर्ण एकशग पर्वत का अन्वेषण करने पर भी कुमार हरिवाहन का पता नहीं चला । मलयसुन्दरी के कहने पर तिलकमंजरी स्वयं अपना मणि-विमान लेकर दिन-भर आपको खोजती रही और संध्या-समय निराश होकर अपने निवास स्थान को आ गई। प्रातः संदीपन नामक विद्याधर ने समाचार दिया कि निषादों द्वारा राजकुमार हरिवाहन को विजयार्धपर्वत के सार्वकामिक प्रपात शिखर पर चढ़ते हुए देखा गया, उसके बाद उसका कोई पता नहीं चला।
यह सुनते ही तिलकमंजरी मूर्छित हो गई। संज्ञा आने पर उसने भगवान् जिनकी विशेष पूजा की ओर जन्मान्तर में भी उनसे शरण देने की प्रार्थना की तथा अदृष्टपार सरोवर में प्रवेश करने की इच्छा से जाने लगी किन्तु उसी समय राजा चक्रसेन का महाप्रतीहार यह सूचित करने आया, कि नैमितिकों द्वारा हरिवाहन की कुशलता का आश्वासन दिया गया है तथा राजा के आदेश से विद्याधर सैनिक समस्त पृथ्वी पर कुमार का अन्वेषण कर रहे हैं अतः छः मास की अवधि पर्यन्त राजकुमारी यह विचार त्याग दे। तब से तिलकमंजरी ने वनवास ग्रहण कर लिया । जब अवधि समाप्त होने में एक दिन शेष रहा तो उसके देह त्याग का उपक्रम देखकर, स्वयं उससे पहले ही मरण का संकल्प करके में सार्वकामिक प्रपात की ओर आया किन्तु आपके विद्याधर-रक्षकों द्वारा पकड़कर आपके चरणों में उपस्थित कर दिया गया।"
गन्धर्वक द्वारा वणित हार-दर्शन प्रभृति तिलकमंजरी के इस वृत्तान्त को सुनकर मुझे अपने पूर्वजन्मानुभूत स्वर्ग-निवास के सुखों का स्मरण हो आया और उसी समय में अश्व पर आरूढ़ होकर एकशृग पर्वतस्थ जिनायतन में गया । पूजा करके मैंने गन्धर्वक को मलयसुन्दरी से अपना समस्त वृत्तान्त सुनाने के लिये नियुक्त किया तथा स्वयं शिशिरोपचार ग्रहण करती हुई तिलकमंजरी के पास जाकर उसे आश्वस्त किया । इतने में ही गन्धर्वक के पास तुम (समरकेतु) पहुंच गये । यहीं पर हरिवाहन वर्णित कथा समाप्त होती है।
हरिवहन के इस अद्भुत आत्मवृत्तान्त से सभी नभचर अत्यधिक आनन्दित हुए, केवल समरकेतु ही अपने पूर्व-जन्म का स्मरण कर शोक-विह्वल हो इसी विद्याधरपति विचित्रवीर्य का संदेशवाहक कल्याणक लेख लेकर आया । उसमें
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लिखित था, कि मलयसुन्दरी का समरकेतु के साथ विवाह निश्चित किया गया है। और गन्धर्वदत्ता तथा कुसुमशेखर अत्यधिक उत्कण्ठा से राजकुमार समरकेतु की प्रतीक्षा कर रहे हैं । मलयसुन्दरी भी समरकेतु के दर्शन से पहले वनवास-वेश का त्याग नहीं करेगी । अतः कल्याणक ने समरकेतु को शीघ्र सुवेल पर्वत पर ले जाने की अनुमति मांगी। हरिवाहन ने अत्यन्त आश्चर्य से पूछा कि द्वीपान्तरवासी विद्याधर नरेश को समरकेतु के आगमन का ज्ञान किस प्रकार हुआ । कल्याणक ने कहा कि जैसे ही समरकेतु हरिवाहन के प्रासाद में आया, मृगांकलेखा नामक तिलकमंजरी की प्रधानसहचरी ने यह समाचार राजमहिषी पत्रलेखा को सुनाया । पत्रलेखा ने चित्रलेखा को भेजकर एकशृंग पर्वत से मलयसुन्दरी को बुला लिया और विचित्रवीर्य को भी तुरन्त सूचित कर दिया गया ।
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हरिवाहन ने तुरन्त इस आग्रह को स्वीकार कर लिया और विद्याधरसैन्य सहित समरकेतु को सुवेल पर्वत पर भेज दिया। इधर हरिवाहन का विजयार्धगिरि के उत्तरी क्षेत्र के नृपति के पद पर अभिषेक किया गया । कुछ दिन पश्चात् वह दक्षिणी क्षेत्र के अधिपति चक्रसेन का अतिथि बनकर गया, जहां तिलकमंजरी के साथ उसका विवाह सम्पन्न हुआ, तदुपरान्त दोनों दम्पत्ति सैन्य सहित अपने निवास स्थान लौट आये । हरिवाहन ने अपने प्रधानपुरुषों को भेजकर मलयसुन्दरी सहित समरकेतु को आमन्त्रित किया तथा उसे अपने समस्त राज्य का अधिकारी बना दिया ।
राजा मेघवाहन ने भी राज्य से विरक्त होकर हरिवाहन को शुभ दिन राजसिंहासन पर शास्त्रोक्त विधि से बैठाया तथा स्वयं परलोक साधनोन्मुख हो गया । हरिवाहन भी अयोध्या पर सुखपूर्वक एकच्छत्र शासन करने लगा ।
अधिकारिक तथा प्रासंगिक इतिवृत
कथावस्तु दो प्रकार की कही गयी है – ( 1 ) अधिकारिक तथा ( 2 ) प्रासंगिक । इनमें प्रमुख कथावस्तु अधिकारिक कहलाती है तथा अंगरूप कथावस्तु प्रासंगिक कहलाती है। 1
अधिकारिक इतिवृत्त
कथा के प्रधान फल का स्वामी अधिकारी कहलाता है तथा उस फल या फल-भोक्ता के द्वारा फल प्राप्ति पर्यन्त निर्वाहित कथा आधिकारिक कहलाती
1. तत्राधिकारिकं मुख्यमङ्ग प्रासङ्गिकं विदुः ।
- धनंजय - दशरूपक, 1/11
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है।1 तिलकमंजरी कथा में नायक हरिवाहन तथा नायिका तिलकमंजरी की प्रेमकथा आधिकारिक इतिवृत्त है। अन्य सभी उपकथायें तथा अन्तर्कथायें इस प्रमुख कथा के विकास में सहयोग देती हैं। प्रासंगिक इतिवृत्त
जो कथा दूसरे (अर्थात् आधिकारिक कथा) के प्रयोजन के लिए होती है, किन्तु प्रसंगवश जिसका अपना फल भी सिद्ध हो जाता हो, वह प्रासंगिक कथावस्तु है। प्रासंगिक कथा भी दो प्रकार की है-पताका तथा प्रकरी ।
पताका
__ अनुबन्ध सहित तथा काव्य में दूर तक चलने वाली प्रासंगिक कथा पताका कहलाती है। यह मुख्य नायक के पताका चिन्ह की तरह मुख्य कथा तथा नायक की पोषक होती है। तिलकमंजरी में समरकेतु तथा मलयसुन्दरी की प्रेम-कथा प्रासगिक कथावस्तु के पताका भेद के अन्तर्गत आती है, क्योंकि यह कथा काव्य में दूर तक वणित की गई है तथा यह मुख्य कथा के विकास में सहायक है । इस कथा एवं मुख्य कथा के पात्र न केवल एक जन्म में अपितु दोनों जन्मों में परस्पर जुड़े हुए हैं। देवयोनि में ज्वलनप्रभ व सुमालि मित्र हैं तथा प्रियंगुसुन्दरी वं प्रियम्वदा सखियां हैं, इसी प्रकार मनुष्य योनि में हरिवाहन तथा समरकेतु परम मित्र हैं और तिलकमंजरी तथा मलयसुन्दरी सखियां हैं । इस कथा का नायक पताकानायक अथवा पीठमर्द कहलाता है। वह चतुर तथा बुद्धिमान होता है तथा प्रधान नायक का अनुचर एवं भक्त होता है। वह प्रधान नायक की अपेक्षा गुणों में कुछ कम होता है । समरकेतु इन समस्त गुणों से युक्त है। प्रकरी
. एक ही प्रदेश एक सीमित रहने वाली प्रासंगिक कथा प्रकरी कहलाती है । तिलकमंजरी में नाविक तारक नथा प्रियदर्शना की प्रेम-कथा इसी प्रकार
1. अधिकारः फलस्वाम्यमधिकारी च तत्प्रमुः । तन्निवृ त्तमभिव्यापि वृत्तं स्यादाधिकारिकम् ।।
- वही, 1/12 2. प्रासङ्गिकं परार्थस्य स्वार्थो यस्य प्रसङ्गनः ।
बही, 1/13 ___ सानुबन्धं पताकाख्यम् ........."। -धनंजय-दशरूपक, 1/13
पताकानायकस्तत्वन्यः पीठम? विचक्षणः । तस्यैवानुचरो भक्तः किंचिदूनश्च तद्गुणः ।।
-वही, 2/8 5.. ...""प्रकरी च प्रदेशभाक् ।
-वही, 1/13
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तिलकमंजरी की कथावस्तु का विवेचनात्मक अध्ययन
की है। इसके अतिरिक्त गन्धर्वक की कथा, मेघवाहन-मदिरावती, कुसुमशेखरगन्धर्वदत्ता, अनंगरति आदि छोटे-छोटे वृत्त प्रकरी प्रासंगिक कथा के भेद के अन्तर्गत आते हैं।
___ इस प्रकार तिलकमंजरी में कथावस्तु के आधिकारिक, पताका तथा प्रकरी तीनों भेद पाये जाते हैं । इन तीन भेदों के अतिरिक्त विषयवस्तु की दृष्टि से इतिवृत्त पुनः तीन प्रकार का कहा गया है-प्रख्यात, उत्पाद्य तथा मित्र ।। प्रख्यात इतिवृत्त इतिहास, पुराणादि पर आधारित होता है। उत्पाद्य कविकल्पित होता है तथा मित्र दोनों प्रकार का । तिलकमंजरी का इतिवृत्त स्वयं धनपाल की कल्पना से प्रसूत है, अतः यह उत्पाद्य श्रेणी का है।
.. तिलकमंजरी का वस्तु-विन्यास पुनर्जन्म का सिद्धान्त
तिलकमंजरी की कथावस्तु पुनर्जन्म के सिद्धान्त पर आधारित है। इस सिद्धान्त की विवेचना धनपाल ने प्रारम्भ में ही वैमानिक ज्वलनप्रभ के इस कथन में कर दी है, कि इस भवसागर में अपने-अपने कर्मों से बंधे हुए जीवों का जन्म-जन्मान्तर के सम्बन्धों से अपने बन्धुओं, मित्रों तथा भिन्न-भिन्न प्रकार की वस्तुओं से पुनः पुनः सम्बन्ध होता है। यही सिद्धान्त इस कथा का प्रमुख आधार है। इसमें हरिवाहन तथा तिलकमंजरी एवं समरकेतु और मलयसुन्दरी के दो जन्मों की कथा प्रस्तुत की गयी है। प्रथमतः दैवयोनि में जन्म लेने वाले ज्वलनप्रभ तथा सुमालि दोनों मित्र अपनी दैवायु समाप्त प्राय: जानकर, बोधिलाभ के लिए तीर्थ यात्रा पर निकलते हैं । ज्वलनप्रभ तथा सुमालि दोनों की पत्नियां, प्रियंगुसुन्दरी तथा प्रियम्बदा प्रियवियोग से दुःखी होकर जयन्तस्वामि सर्वज्ञ के आदेशानुसार स्वर्गलोक छोड़कर, भारतवर्ष के एकशृग और रत्नकूट पर्वतों पर एक-एक जिनायतन का निर्माण कर समागम की प्रतीक्षा करती है, किन्तु इस प्रकार प्रतीक्षा में ही उनकी दिव्यायु समाप्त हो जाती हैं और वे पृथ्वी पर तिलकमंजरी तथा मलयसुन्दरी के रूप में जन्म लेती हैं। इसी प्रकार ज्वलनप्रभ और सुमालि भी हरिवाहन और समरकेतु के रूप में जन्म लेते हैं और दिव्य 1. प्रख्यातोत्पाद्यमिश्रत्वभेदात्त्रेधापि तत्त्रिधा ।
प्रख्यातमितिहासादेरूत्पाधं कविकल्पितम् ।। -धनंजय, दशरूपक, 1/25 2. सम्भवन्ति च भवार्णवे विविधकर्मवशवर्तिनां जन्तूनामेकशो जन्मान्तरजातसंबन्धबन्धुमिः सुहृदिभरथश्च नानाविधः सार्धमबाधिताः पुनस्ते सम्बन्धाः ।
-तिलकमंजरी, पृ. 44
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तिलकमंजरी, एक सांस्कृतिक अध्ययन
आभूषणों - हार तथा अंगुलीयक से पूर्व जन्म स्मरण हो आने पर उनका एकशृंग व रत्नकूट पर्वतों पर पुनर्मिलन होता है ।
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लोककथाओं की पद्धति पर आधारित
के
दो जन्मों के इस कथानक को प्रस्तुत करने के लिए लोककथाओं की अन्तर्कथा-पद्धति को अपनाया गया है । इस पद्धति में प्रमुख समाविष्ट कथा में अन्य समाविष्ट कथा को रख दिया जाता है । जो घटना किसी पात्र पर घटित होती है, वह कथानक के अन्य पात्र के कहे जाने पर, उस अन्य पात्र मुख से पाठक तथा कथा के अन्य पात्रों तक पहुँचती है । इस प्रकार मुख्य कथा का पात्र अवान्तर कथा के पात्रों के वृत्तान्तों को अपने मुख से दुहराता है, जो उसे अवान्तर कथा के पात्रों ने स्वयं अपने मुख से कहे हैं । यथा मलयसुन्दरी ने अपनी जो कथा नायक हरिवाहन को पहले सुनायी थी, वही हरिवाहन के मुख से समरकेतु आदि अन्य पात्रों तथा पाठकों को कही गयी । कथाओं का यह गर्मीकरण लोककथाओं की विशिष्टता थी, जैसाकि पंचतन्त्र तथा हितोपदेश एवं गुणाढ्य की बृहत्कथा में पाया जाता है । अतः अन्तर्कथा की यह पद्धति लोक-कथाओं से ग्रहण की गयी है ।
विभिन्न कथा मोड़ों का स्पष्टीकरण तथा औचित्य
कहानी की घटनाओं का क्रमपूर्वक वर्णन न करके पूर्वोत्तर की घटनाओं को बीच-बीच में विभिन्न कथा - मोड़ों ( फ्लेश बैक ) में प्रस्तुत करके उसे रोचक बनाया जाता है । इस प्रकार के कथानक में रोचकता के साथ-साथ जटिलता का भी समावेश हो जाता है, जिसे पाठक अपनी बुद्धि से विभिन्न कथा मोड़ों के परस्पर सम्बन्ध को जोड़कर तथा घटनाओं के पूर्वानुक्रम को समझकर सुलझाता है । तिलकमंजरी कथा को पांच कथा-मोड़ों में प्रस्तुत किया गया है -
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प्रथम कथा मोड़
अयोध्या - वर्णन, मेघवाहन वर्णन, मेघवाहन की पुत्र चिन्ता, विद्याधर मुनि से भेंट, विद्याधर मुनि का जप - बिद्या प्रदान करना, वैमानिक ज्वलनप्रभ से भेंट, वेताल का प्रकट होना, लक्ष्मी द्वारा वर प्रदान, हरिवाहन का जन्म, यहां तक घटनाक्रम बिना किसी मोड़ के सीधा चलता है । प्रथम कथा - मोड़ है, विजयवेग द्वारा वज्रायुध तथा कांची नरेश कुसुमायुध के युद्ध का वर्णन 11 इस कथा मोड़ के द्वारा कथा में उपनायक समरकेतु का प्रवेश कराया गया है तथा मेघवाहन द्वारा नायक हरिवाहन के सखा के रूप में नियुक्त करने के लिए राजपुत्र
1. तिलकमंजरी, पृ. 82 - 100
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अन्वेषण रूप उद्देश्य की पूर्ति की गयी है । इसमें समरकेतु का परिचय मात्र दिया गया है, मलयसुन्दरी से उसके सम्बन्ध के विषय में कोई उल्लेख नहीं है, किन्तु इस वर्णन में कामदेवोत्सव के दिन समरकेतु द्वारा शृंगारवेष धारण करके कामदेव के मन्दिर में स्त्रियों का निरीक्षण करने का जो उल्लेख किया गया है, उसका सम्बन्ध आगे मलयसुन्दरी की कथा के अन्तर्गत समरकेतु के वृत्तान्त से जुड़ता हैं।1 द्वितीय कथा मोड़
हरिवाहन तथा समरकेतु परम मित्रों के समान परस्पर समय व्यतीत करते हैं, किन्तु एक दिन मत्तकोकिलोद्यान में मंजीर द्वारा प्राप्त एक प्रेम पत्र के श्रवण से समरकेतु को अपना पूर्व-वृत्तान्त स्मरण हो आता है तथा कमल गुप्तादि के पूछने पर वह अपना पूर्ववृत्तान्त वणित करता है। इस प्रकार कथा पुनः वर्तमान से भूत में चली जाती है । समरकेतु के दिग्विजय का वर्णन ही इसका प्रमुख उद्देश्य है। समुद्र-यात्रा तथा नौ-अभियान का विशद वर्णन इसकी विशिष्टता है । समुद्र यात्रा का ऐसा स्वाभाविक व विस्तृत वर्णन संस्कृत साहित्य में अन्यत्र दुर्लभ है । समरकेतु की कथा "एक अद्वितीय रूपवती कन्या को देखा", यहीं तक आकर अवच्छिन्न हो जाती है, इससे आगे की कथा मलयसुन्दरी के मुख से कही गयी है । समरकेतु के वृत्तान्त के अन्तर्गत तारक अवान्तर कथा भी आ जाती है । इसके पश्चात् कथा में पुनः नाटकीय मोड़ आता है । तृतीय कथा मोड़
समरकेतु के वृत्तान्त को अधूरा ही छोड़कर इस नाटकीय मोड़ के द्वारा नायिका तिलकमंजरी का प्रथम परिचय गन्धर्वक द्वारा उसके चित्र से दिया जाता है। यहां नायिका तिलकमंजरी प्रत्यक्ष रूप से नहीं आयी उसके चित्र से उसका परिचय दिया गया है तथा उसके पुरुष-द्वेष के विषय में सूचना दी गयी है। इस कथा-मोड़ का प्रमुख उद्देश्य नायिका के चित्र-दर्शन से नायक के हृदय में प्रेम का अंकुरण है। दूसरा उद्देश्य उपनायिका मलयसुन्दरी को समरकेतु द्वारा पत्र प्रेषित कर उसे आत्महत्या से बचाना है। समरकेतु गन्धर्वक को अपनी कुशलता का पत्र कांची नगरी में मलयसुन्दरी को देने के लिए कहता है । इस घटना का सम्बन्ध आगे वर्णित मलयसुन्दरी के इस वृत्तान्त से जुड़ता है, जिसमें वह वज्रायुध
1. तिलकमंजरी, पृ. 322-23 2. तिलकमंजरी, पृ. 114-161 3. वही, पृ. 259-345 4. वही पृ. 161, 167-171 5. तिलकमंजरी, पृ. 173
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के साथ युद्ध में समरकेतु के पराजित होकर दीर्घ निद्रा प्राप्त करने का समाचार सुनती है तथा जिसे सुनकर वह विषैला फल खा लेती है, 1 इसके पश्चात् की घटनायें गन्धर्वक से प्राप्त होती है । 2
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चतुर्थ कथा मोड़
गज द्वारा नायक हरिवाहन का अपहरण, यह कथा का महत्वपूर्ण चतुर्थ मोड़ है । इसका उद्देश्य हरिवाहन का प्रत्यक्ष रूप में तिलकमंजरी के विद्याधर प्रदेश में प्रवेश करना है । दूसरी ओर समरकेतु को हरिवाहन का अन्वेषण करते हुए छ: मास से भी अधिक व्यतीत हो जाते हैं । इस अवधि के मध्य हरिवाहन की कुशलता का समाचार भी मिल जाता है । खोजते खोजते वह एकशृंग पर्वत पहुँचता है, जहां अदृष्टसरोवर के निकट, एक दिव्यायतन देखता है । वहां उसकी भेंट गन्धर्वक से होती है । गन्धर्वक उसे हरिवाहन के पास ले जाता है । इस प्रकार इसी कथा मोड़ में दोनों मित्र हरिवाहन के गज अपहरण से विमुक्त भी हो जाते हैं और पुनः मिल भी जाते हैं, किन्तु इस वियोग और समायोग के बीच छ: मास से भी अधिक समय व्यतीत हो जाता है और हरिवाहन के जीवन में महत्वपूर्ण घटनायें घट जाती हैं। इसी अवधि में घटित घटनाओं का पूर्ण विवरण आगे हरिवाहन अपने मुख से देता है ।
पंचम कथा मोड़
कथा का यह अन्तिम तथा महत्वपूर्ण मोड़ है। इसमें गज- अपहरण से लेकर विद्याधर चक्रवर्तित्व प्राप्ति पर्यन्त का कथानक हरिवाहन अपने मुख से समरकेतु तथा अन्य मित्रों को सुनाता है । इस वर्णन में चार अन्तर्कथायें भी आ गयी हैं - ( 1 ) मलयसुन्दरी की कथा (2) गन्धर्वक की कथा (3) अनंगरति की कथा (4) तथा महर्षि द्वारा मुख्य पात्रों के पूर्व जन्म की कथा का उद्घाटन । यहां से सारी कथा भूतकाल में चली जाती है । यह सम्पूर्ण वृत्तान्त हरिवाहन द्वारा उत्तम पुरुष में वर्णित है ।
सर्वप्रथम तिलकमंजरी तथा हरिवाहन का प्रथम समागम होता है, किन्तु तिलकमंजरी मुग्धा नायिका होने से कोई उत्तर दिये बिना ही लौट जाती है । उसकी कामावस्था का वर्णन बाद में चारायण कंचुकी मलयसुन्दरी से करता है ।
1.
2.
3.
वही, पृ. 334
वही, पृ. 378 - 384
वही, पृ. 187
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इसके पश्चात् मलयसुन्दरी की कथा प्रारम्भ होती है । इस कथा में हम मलयसुन्दरी का प्रथम परिचय प्राप्त करते हैं। समरकेतु द्वारा वर्णित जो वृत्तान्त अधूरा छोड़ दिया गया था, वही समरकेतु तथा मलयसुन्दरी की प्रेम-कथा का अगला वृत्तान्त, मलयसुन्दरी के मुख से वर्णित किया गया। इस वृत्तान्त में कांची नगरी से अर्धरात्रि में विद्याधरों द्वारा उसके अपहरण से लेकर, समरकेतु से प्रथम समागम, उसका समरकेतु के गले में माला. डालना तथा अदृश्य हो जाना, समरकेतु द्वारा समुद्र में डूब जाना, उसे देखकर मलयसुन्दरी का भी अपने आपको समुद्र को अर्पित करना, मलयसुन्दरी का पुनः कांची आगमन, आत्महत्या का प्रयास, समरकेतु द्वारा त्राण, मलयसुन्दरी का प्रशान्तबैराश्रम में निवास, पुनः आत्महत्या का प्रयास, समरकेतु की कुशलता का समाचार मिलना तथा उसके मुनि-व्रत धारण करने तक की घटनाओं तक का वर्णन है ।
इस अन्तर्कथा के समाप्त होने पर पुनः मुख्य कया प्रकाश में आ जाती है । वस्तुतः अन्तर्कथा से मुख्य कथा विच्छिन्न नहीं होती, अपितु उसे आगे बढ़ाने में सहायक होती है, क्योंकि अन्तर्कथा तथा मुख्य कथा के पात्र परस्पर घनिष्ठ रूप से सम्बद्ध हैं।
इसके पश्चात् तिलकमंजरी मलयसुन्दरी से मिलने आती है। तिलकमंजरी यहां भी लज्जावश हरिवाहन को कुछ प्रत्युत्तर नहीं दे पाती, केवल उसे अपने हाथ से ताम्बूल प्रदान करती है। वह हरिवाहन तथा मलयसुन्दरी को अपने भवन में आने का निमन्त्रण देती है जहां, उनका उचित सत्कार किया जाता है। वहीं शुक के रूप में गन्धर्वक का आगमन होता है। दिव्य-वस्त्र के द्वारा पुनः पुरुष-योनि होने पर वह अयोध्या से समरकेतु का पत्र लेकर जाने से लेकर शुकावस्था प्राप्ति पर्यन्त का वृत्तान्त सुनाता है । इस वृत्तान्त में यक्ष महोदर द्वारा समुद्र में डूबे मलयसुन्दरी तथा समरकेतु के उद्धार का उल्लेख है । इसके अतिरिक्त गन्धर्वक द्वारा पत्रों का आदान-प्रदान इसका प्रमुख उद्देश्य है, जो उसकी शुकावस्था में ही सम्भव था।
__तीसरी अन्तर्कथा अनंगरति का वृत्तान्त है, इसका प्रमुख उद्देश्य हरिवाहन द्वारा छः मास पर्यन्त तपस्या करके विद्याधर चक्रवर्तित्व की प्राप्ति है।
___ इससे पूर्व हरिवाहन द्वारा तिलकमंजरी और मलयसुन्दरी को दिव्य हार तथा अंगुलियक प्रेषित किये जाते हैं, जिन्हें धारण करते ही वे अपने पूर्वजन्म के स्मरण से व्याकुल हो उठती हैं। तदनन्तर तीर्थयात्रा के प्रसंग में उन्हें एक
1. तिलकमंजरी, पृ. 259-345 .
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त्रिकालदर्शी मुनि से अपने पूर्वजन्मों का ज्ञान होता है । जो कथा प्रारम्भ में ज्वलनप्रभ ने राजा मेघवाहन से शक्रावतार आयतन में संकेतरूप में कही थी, वहीं यहां विस्तार से वर्णित की गई है । यहां आकर कथा की समस्त गुत्थियां सुलझ जाती हैं तथा कथानक का समस्त रूप स्पष्ट हो जाता है तथा वह अपने उद्देश्य के चरमोत्कर्ष पर पहुँच जाता है ।
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इस प्रकार चतुर शिल्पी धनपाल ने अत्यन्त कलात्मक ढंग से एक सीधे सादे कथानक को पांच सुन्दर नाटकीय मोड़ों में प्रस्तुत करके अत्यन्त रोचक बना दिया है ।
तिलक मंजरी के कथानक की लौकप्रियता
गद्यकाव्य के उत्कृष्ट निदर्शन तिलकमंजरी काव्य की संस्कृत साहित्य इतिहासकारों ने सर्वथा उपेक्षा की है। ए. बी. कीथ सदृश विद्वान् भी इस काव्य की गणना परवर्ती गद्यकाव्यों में करते हैं और वह भी केवल यह कहकर कि इसमें कादम्बरी के सदृश अधिकाधिक चित्र खींचकर उसकी नकल करने की कोशिश की गयी है । 1 इन्हीं पाश्चात्य विद्वान का अन्धानुकरण करते हुए भारतीय विद्वान् भी इस ग्रन्थ का अध्ययन किये बिना ही 'इसमें समरकेतु तथा तिलकमंजरी का प्रेम वर्णित किया गया है," इस भ्रमित कथन को दोहराते हैं तथा धनपाल को बाण का अनुकरणकर्त्ता मात्र कहकर उसके महत्व को नगण्य कर देते हैं । 2 भारतीय विद्वानों द्वारा पाश्चात्य विद्वानों का यह अन्धानुकरण तथा इतिहासकारों की परस्पर गतानुगतिकता अत्यन्त शोचनीय है । डॉ० कीथ, डॉ० डे तथा डॉ० कृष्णमाचार्य जैसे प्रसिद्ध विद्वान् एक ही भूल को निरन्तर दोहराते हैं ।
धनपाल ने बाण को अपना आदर्श मानकर, उनकी शैली की विशेषताओं को अवश्य अपनाया है, किन्तु उसकी नकल की है, यह कहना अनुचित है ।
1. Keith, A. B. ; (A) Classical Sanskrit Literature, p. 69, Calcutta, 1958.
2.
(B) A History of Sanskrit Literature, p. 331 London, 1961.
(A) De, S. K. & Dasgupta, S. N. :
A History of Classical Sanskrit Literature Vol. I, p. 431, 1947.
(B) Krishnamacharior, M: A History of Classical Sanskrit Literature, p. 475, Madras, 1937:
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तिलकमंजरी की कथावस्तु का विवेचनात्मक अध्ययन
धन बाण से प्रभावित थे, यह तिलकमंजरी की प्रस्तावना से स्पष्ट है, किन्तु धनपाल की मौलिक प्रतिभा में कोई संदेह नहीं किया जा सकता । उन्होंने तत्कालीन युग की प्रवृत्ति के अनुकूल होते हुए भी नितान्त भिन्न शैली व भिन्न पृष्ठभूमि में अपने ग्रन्थ को प्रस्तुत किया है । निःसन्देह तिलकमंजरी का गद्यकाव्यों में अपना विशिष्ट स्थान है । तिलकमंजरी ग्यारहवीं शताब्दी में ही अत्यन्त लोकप्रिय हो गयी थी, तथा बाण की कादम्बरी के समकक्ष रखी जाने लगी थी । 2 तिलकमंजरी का कथानक इतना लोकप्रिय हुआ, कि तीन-तीन परवर्ती कवियों ने इस कथानक को सुरक्षित रखने के लिए इसके आधार पर अपने काव्य लिखे | 3
तिलकमंजरीसार
ग्रन्थ के अंतिम सात पद्यों में कवि ने अपना परिचय दिया है । " पल्लीपाल धनपाल ने इसकी रचना वि. सं. 1261 अर्थात् ई० स० 1205 में की थी । यह अणहिल्लपुर के निवासी आमन कवि के पुत्र थे । इन्होंने अपने पिता की शिक्षा के अन्तर्गत इस ग्रन्थ की रचना की । इन्होंने अपने ग्रन्थ के प्रारम्भ में धनपाल को नमस्कार किया है ।" पल्लीपाल धनपाल ने तिलकमंजरी के मूल कथानक को ज्यों का त्यों गद्य से पद्य में उतार लिया है, इसलिए उसमें कुछ नवीनता का समावेश हो गया है । 8
1.
तिलक मंजरी - प्रस्तावना, पद्य 26, 27
2. रूद्रट, काव्यालंकार, 1613, नमि साधु की टीका
3.
() Velankar, H.D., Jinaratnakosa, Part I B. O. R. I, 1944, p. 159.
(ख) कापड़िया, हीरालाल रसिकदास, जैन संस्कृत साहित्य नो इतिहास, भाग 2, पृ० 221
Kansara, N.M., Pallipala Dhanapala's Tilakmanjarisara, Ahmedabad, 1969.
5. तिलकमंजरीसार, पद्य 1-7
6.
4.
7.
8.
धनपालोऽल्पतुश्चापि पितुरश्रान्त शिक्षया । सारं तिलकमंजर्याः कथायाः किंचिदग्रथत् ॥ नमः श्रीधनपालाय येन विज्ञानगुम्फिता । कं नालङ्कुरूते कर्णस्थिता तिलकमंजरी ॥
49
- तिलकमंजरीसार, पद्य 3
- वही, पद्य 5
कथागुम्फः स एवात्र प्रायेणार्थास्त एव हि । किचिन्नवीनमप्यस्ति रसौचित्येन वर्णनम् ॥
वही, पद्य 5
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तिलकमंजरी, एक सांस्कृतिक अध्ययन
तिलकमंजरीकथासार
यह पंडित लक्ष्मीधर द्वारा वि०सं० 1281 अर्थात् ई० स० 1225 में लिखा गया था। ग्रन्थ के प्रारम्भ में कवि कहता है कि तिलकमंजरी कथा को संग्रहित करना ही इसकी रचना का उद्देश्य है तथा किंचित् वर्णन के साथ उसका सार प्रस्तुत किया जाता है । इसमें अर्थ व शब्द भी वही है, केवल उनके गुम्फन की विभिन्नता से ही सज्जन सन्तुष्ट हों।3।। तिलकमंजरीकथोद्धार अथवा तिलकमंजरी-प्रबन्ध
यह ग्रन्थ अप्रकाशित है, किन्तु हस्तलिखित रूप में प्राप्त है । जिन रत्नकोश तथा हस्तलिखित प्रतियों में इसका नाम तिलकमंजरीप्रबन्ध है, किन्तु ग्रन्थ के प्रारम्भ में लेखक ने इसे तिलकमंजरी का कथोद्धार कहा है । इस ग्रन्थ के रचयिता के विषय में निश्चित मत नहीं है, न ही इसकी रचना का समय निश्चित है। इसका लेखक धर्मसागर के शिष्य पद्मसागर को बताया गया है, किन्तु उपलब्ध प्रमाण इसकी पुष्टि नहीं करते हैं, अत: यह सन्देहास्पद है ।'
___ इन तीन ग्रन्थों के अतिरिक्त अभिनव-बाण श्री कृष्णामाचार्य ने इस शताब्दी के प्रारम्भ में इस कथा का संग्रह कर “सहृदय" मासिक पत्र तथा पुस्तक रूप में भी प्रकाशित करके इस कथा को लोकप्रिय बनाया। इसके अतिरिक्त
1. लक्ष्मीधर, तिलकमंजरीकथासार, हेमचन्द्राचार्य ग्रन्थावली, 12, अहमदाबाद,
1919 2. वही 3. लक्ष्मीधर, तिलकमंजरीकथासार, पद्य 4, 5. 4. Velankar, H.D., Jinaratnakosa, Part I, B.O.R.I. 1944,
p. 159. 5. (क) इति श्रीतिलकमंजरीप्रबन्धः संपूर्णमगमत्-कान्तिविजयजी भण्डार
- हस्तलिखित ग्रन्थ सं० 1802, आत्माराम जैन ज्ञान मंदिर, बड़ौदा (ख) इति श्रीतिलकमंजरीप्रबन्धः संपूर्णः समाप्तानि-हस्तलिखित ग्रन्थ सं०
791, भंडारकर ओरियन्टल रिसर्च इन्स्टीट्यूट, पूना। 6. कुर्वे तिलकमंजर्याः कथोद्धारं प्रयत्नतः। -तिलकमंजरीकथोद्धार, पद्य 1 7. Kansara, N. M. (Ed), Tilakmanjarisara, Introduction,
p. 31-32. __ मद्रासासन्नतिश्रीरंगाख्यनगरे वास्तव्यः श्रीमदभिनवबाणोपाधिधारिभिः
कृष्णमाचार्यः सहृदयाख्ये स्वकीये मासिकपत्रे क्रमशः प्रसिद्धीकृत्तेयं कथा पृथगपि ग्रन्थाकारेण मुद्रापिता रूप्यकद्धयेन प्राप्यते ।।
-वीरचन्द्र, प्रभुदास (स.) भूमिका, पृ० 2, तिलकमंजरीकथासार, अहमदाबाद, 1919
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तिलकमंजरी की कथावस्तु का विवेचनात्मक अध्ययन
प्रभुदास बेचरदास पारेख ने इसका गुजराती भाषा में संक्षिप्तीकरण किया है । 1
इनसे प्रमाणित होता है कि तिलकमंजरी के कथानक ने तत्कालीन समय से लेकर इस शताब्दी पर्यन्त विद्वज्जनों के हृदय में अपना विशिष्ट स्थान बना लिया था ।
तिलक मंजरी के टीकाकार
तिलकमंजरी ग्रन्थ पर लिखित दो टीकाएं अब तक प्रकाश में आयी हैं(1) शान्तिसूरी का टिप्पण, (2) विजयलावण्यसूरि की पराग नामक टीका । शान्तिसूरि (बारहवीं शती)
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श्री शान्तिसूरि पूर्णतल्लगच्छ से सम्बन्धित थे । 2 इन्होंने तिलकमंजरी पर 1050 श्लोक प्रमाण टिप्पण की रचना की है । यह विजयलावण्यसूरीश्वरज्ञानमंदिर से तीन भागों में अपूर्ण रूप से प्रकाशित है । ये शांतिसूरी, श्री वर्धमानसूरि के शिष्य थे तथा इनका आविर्भाव विक्रम की बारहवीं शताब्दी का पूर्वार्ध माना जाता है । इन्होंने चन्द्रदूत, मेघाभ्युदय, वृन्दावनयमकम्, राक्षसमहाकाव्यम् घटखरकाव्यम्, इन पांच यमकमय काव्यों पर अपनी वृत्ति लिखी है । टिप्पण के प्रारम्भ में ये लिखते हैं
तिलकमं जरीनाम्न्याः कथायाः पवषद्धतिम् । श्लेषमंगादिवेषम्यं यथामति ||2||
बिवृणोमि
2.
1. प्रभुदास, बेचरदास पारेख (स०), तिलकमंजरीकथासारांश (गुजराती) हेमचन्द्राचार्य ग्रन्थावली नं० 8, पाटण श्री शान्तिसूरिरिह श्रीमति पूर्णतल्ले,
गच्छे वरो मतिमतां बहुशास्त्रवेत्ता । तेनाऽमलं विरचितं बहुधा विमृश्य,
संक्षेपतो वरमिदं बुध । टिप्पितं भोः ॥
- पाटण जैन भंडार कैटलाग, भाग 1, गायकवाड़ ओरियन्टल सीरीज नं० 76 में प्रकाशित, पृ० 87
कापड़िया, हीरालाल रसिकदास, जैन संस्कृत साहित्यनो इतिहास, भाग 2,
To 220
3.
- शान्तिसूरि विरचित टिप्पण
4. विजयलावण्य सूरीश्वरज्ञानमंदिर, बोटाद भाग 1, 2, 3 वि० सं० 2008,
2010, 2014
5. जैसलमेर भंडारग्रन्थ सूची, अप्रसिद्ध, पृ० 58, 59
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तिलकमंजरी, एक सांस्कृतिक अध्ययन
ये शांतिसूरि उत्तराध्ययन सूत्र के टीकाकार थारापद्र गच्छ के शांतिसूरि से भिन्न हैं । थारापद्र गच्छ के शांतिसूरि का जन्म राधनपुर के पास उण नामक गांव में हुआ था। इनके पिता का नाम धनदेव तथा माता का नाम धनश्री था। इन शांतिसूरि का बाल्यावस्था का नाम भीम था । थारापद्र गच्छ के भी विजयसिंहसूरि से दीक्षा ग्रहण करने के पश्चात् ये शांतिसूरि कहलाये। ये पाटण के राजा भीम की सभा में शांतिसूरी "कवीन्द्र" तथा "वादिचक्रवर्ती" के रूप में प्रसिद्ध थे ! भोज की सभा में 84 वादियों को परास्त कर “वादि वेताल" पद से विभूषित हुए। ये धनपाल के समकालीन थे तथा इन्होंने धनपाल की प्रार्थना पर तिलकमंजरी का संशोधन किया था। धनपाल के समकालीन होने से इनका समय विक्रम की ग्यारहवीं शती है अतः ये पूर्णतल्लगच्छ के शांतिसूरि अर्थात् तिलक. मंजरी के टिप्पणकार से सर्वथा भिन्न हैं।1 विनयलावग्यसूरि (बीसवीं सदी का पूर्वाध)
__ इनका जन्म सौराष्ट्र के बोटाद ग्राम में विक्रम सं० 1953 में हुआ था। इनके पिता का नाम जीवनलाल तथा माता का नाम अमृत था। इन्होंने श्री विजयनेमिसूरि से दीक्षा ग्रहण की थी तथा "मुनि श्री लावण्यविजय" नाम से प्रसिद्धि प्राप्त की। इन्होंने तिलकमंजरी पर 'पराग' नामक विशद व्याख्या लिखी है, जो इस ग्रन्थ को समझने में पूर्णरूप से सहायक है । यह भी तीन भागों में अंशतः प्रकाशित है। श्री पण्यास दक्षविजयगणि ने विजयलावण्यसूरिविरचित निम्नलिखित ग्रन्थों का उल्लेख किया है(1) धातुरत्नाकर, सात भाग, 4 लाख, 50 हजार श्लोक प्रमाण, इनमें
समस्त धातुरूपों की व्युत्पति आदि का विवेचन किया गया है। (2) हेमचन्द्र के शब्दानुशासन की स्वोपज्ञ वृत्ति 'न्यास' के त्रुटित स्थलों की
2000 श्लोक प्रमाण व्याख्या। (3) हेमचन्द्र के काव्यानुशासन पर वृति (4) तत्वार्थाधिगमसूत्र पर त्रिसूत्रिप्रकाशिका विवृत्ति (5) यशोविजयगणि के नयरहस्य पर "प्रमोद" नामक विवृत्ति (6) सप्तमंगी-नयप्रदीपप्रकरण पर बालावबोधिनी वृत्ति (7) जैनतर्कभाषा पर तत्वबोधिनी टीका
1. मेहता, मोहनलाल, जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भाग 3, पृ० 388-89,.
पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी 5, 1967 2. विजयलावण्यसूरीश्वरज्ञानमंदिर, बोटाद, भाग 1, 2, 3, वि. सं. 2008,
2010, 2014 3. वही, भाग 1, भूमिका, पृ० 21-22
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तिलकमंजरी की कथावस्तु का विवेचनात्मक अध्ययन
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(8) नयामृततरंगिणी ग्रन्थ पर तरंगिणीतरणि वृत्ति (9) हरिभद्रसूरि विरचित शास्त्रवार्तासमुच्चय ग्रन्थ पर 25000 प्रमाण
श्लोक वृत्ति (10) तिलकमंजरी पर पराग टीका
इस प्रकार यह ज्ञात होता है कि श्री विजयलावण्यसूरि जैन न्याय तथा व्याकरणशास्त्र के प्रकाण्ड विद्वान् थे।
इस अध्याय में तिलकमंजरी की कथावस्तु का विवेचन प्रस्तुत किया गया। हमने देखा कि किस प्रकार एक अत्यन्त सरल व सीधे-सादे कथानक को तत्कालीन युग में प्रचलित रूढ़ियों यथा, पुनर्जन्म, देवयोनि एवं मनुष्य योनि के व्यक्तियों का परस्पर मिलना, विद्याधर योनि तथा मनुष्य योनि के व्यक्तियों का समागम, श्राप, दिव्य आभूषण, आकाश में उड़ना, अपहरण आदि के आधार पर अत्यधिक रोचक व नाटकीय ढंग से प्रस्तुत किया गया। इन रूढ़ियों का इस कथानक को आगे बढ़ाने में महत्वपूर्ण स्थान है । यद्यपि इस कथा का मूल स्रोत ज्ञात नहीं हो सका, किन्तु धनपाल के "जिनागभोक्ताः" इस संकेत से अनुमान लगाया जा सकता है कि जन आगमों में कही गयी कथाओं में इस कथानक को ग्रहण किया गया है । इसकी पुष्टि इस बात से भी होती है कि तिलकमंजरी कथा जैन धर्म व उसके सिद्धान्तों की पृष्टभूमि पर लिखी गयी है।
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तृतीय अध्याय
धनपाल का पांडित्य
ईश्वर-प्रदत्त प्रतिभा से समन्वित, लोक व्यवहार जन्य अनुभव तथा शास्त्र अर्थात् वैदिक, पौराणिक, दार्शनिक साहित्य तथा व्याकरण, कोष, अर्थशास्त्र, धर्मशास्त्रादि के गूढ अध्ययन एवं पूर्ववर्ती कवियों के काव्यों का पर्यालोचन से उत्पन्न व्युत्पनि, काव्य की सृष्टि का कारण बनती है। मम्मट के अनुसार शक्ति, लोक, शास्त्र तथा काव्यादि के पर्यालोचन से उत्पन्न निपुणता और काव्य के ज्ञाता की शिक्षा के अनुसार पुन: पुनः अभ्यास, ये तीनों समष्टि रूप से काव्योत्पत्ति के कारण हैं।
प्रस्तुत अध्याय में व्युत्पत्ति की दृष्टि से धनपाल की तिलकमंजरी का मूल्यांकन किया गया है। यह अध्ययन (क) वेद-वेदांग, (ख) पौराणिक कथायें, (ग) दार्शनिक सिद्धान्त एवं (घ) अन्य शास्त्र नामक चार भागों में विभाजित किया गया है।
धनपाल उस युग के कवि हैं जिसमें राजाओं के दरबार में वैदग्ध्य तथा पाण्डित्य की सरणि बहा करती थी तथा कवि उस धारा में आकण्ठ निमग्न होकर अपनी काव्य कल्पनाओं को पल्लवित किया करते थे। उनकी रचनाओं में पांडित्यप्रदर्शन की होड़-सी मची रहती थी। धनपाल के काव्य में भी उनके वैदग्ध्य की झलक पद-पद पर प्राप्त होती है तथा उनके विविधतापूर्ण पाण्डित्य का परिचय मिलता है । मुंज ने उन्हें "सरस्वती" विरुद से सम्मानित किया था।
वेद तथा वेदांग वेद
वेद के लिए त्रयी शब्द का प्रयोग दो बार किया गया है । वेद के लिए
1. शक्तिनिपुणता लोकशास्त्र काव्याद्यवेक्षणात् । . काव्यज्ञशिक्षयाभ्यास इति हेतुस्तदुद्भवे । -मम्मट, काव्यप्रकाश, 1/3 2. (क) त्रयीमिव महामुनिसहस्रोपासित चरणाम्"" -तिलकमंजरी, पृ. 24
(ख) त्रयीभक्त नेव गाढांचितहिरण्यगर्भकेशवेशेन... -वही, पृ. 200
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धनपाल का पाण्डित्य
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श्रुति शब्द भी दिया गया है। सामवेद के सामस्वरों का उल्लेख आया है। ऋक् साम व यजुः इन्हें त्रयी के नाम से अभिहित किया जाता है। पाद से युक्त छन्दोबद्ध मन्त्रों को ऋक् या ऋचा कहते हैं । इन ऋचाओं के गायन को साम कहते हैं । इन दोनों से पृथक् गद्य-पद्यात्मक वाक्यों को यजुः कहते हैं।
सवन अर्थात् सोमरस का उल्लेख आया है। सोमरस की शोभा से युक्त, सामवेद के मन्त्रों के समान, वनावली सहित क्रीड़ा पर्वतों की प्रान्तभूमियां, द्विजों को आनन्दित करती थीं। अग्नि, इन्द्र तथा आदित्य, तीनों लोकों के देवताओं को प्रातः, मध्यान्ह एवं सायंकाल तीन बार सोमरस (सवन) दिया जाता है।
चरण तथा शाखा पद का उल्लेख आया है। चरण का अर्थ है शाखाध्येता, अर्थात् जो किसी एक शाखा का अध्ययन करता है। यज्ञ के लिए सप्ततन्तु शब्द का प्रयोग हुआ है। ऋग्वेद में भी यज्ञ के लिए सप्ततन्तु शब्द प्रयुक्त हुमा है।
अप्रतिरथ नामक मन्त्रों का उल्लेख किया गया है। समरकेतु के प्रयाण के समय पुरोहित द्वारा अप्रतिरथ मन्त्रों का पाठ किया जा रहा है । अप्रतिरथ ऋग्वेद का सूक्त है।
इन्द्र तथा वृत्रासुर के युद्ध का उल्लेख मिलता है। ऋग्वेद के इन्द्र सूक्त में इसका वर्णन किया गया है।
वरुण का पाश विमोचक के रूप में वर्णन किया गया है। मलयसुन्दरी द्वारा गले में पाश डालकर अशोक वृक्ष से लटककर आत्महत्या करने के प्रसंग में बन्धुसुन्दरी वरुण का आह्वान करती है । 10
1. वही, पृ. 21 2. सवनराजिभिः सामस्वरैरिव क्रीडापर्वतकपरिसररानन्दितद्विजा,
-वही, पृ. 11 3. वही, पृ. 11
त्रयीमिव महामुनिसहस्रोपासितचरणाम् ........ -तिलकमंजरी, पृ. 24 5. द्विजातिक्रियाणां शाखोद्धरणम्,
-वही, पृ. 15 6. असंख्यगुणशालिनापि सप्ततन्तुख्यातेन ........
-वही, पृ. 13 7. ऋग्वेद 10/52/4, 10/124 8. अप्रतिरथाध्ययनध्वनिमुखरेणपुरःसरपुगेधसा.......
___ -तिलकमंजरी, पृ. 115 9. वही, पृ. 122 10. अतो वरुणो भूत्वा सकरुणः कुरु विपाशाभिमाम् । पाशमोक्षणे तवैव वैचक्ष्यणम्"..."
तिलकमंजरी, पृ. 308
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तिलकमंजरी, एक सांस्कृति अध्ययन
वैदिक धर्म के अनुसार पुत्रहीन व्यक्ति पुत् नामक नरक में जाता है । 1 तिलकमंजरी में इसका उल्लेख किया गया है । 2
वेदांग
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शिक्षा
वेद का घ्राण शिक्षा को कहा गया है । इसमें वर्णों के उच्चारणादि के के सम्बन्ध में विवेचन किया गया है । शिक्षा में उदात्त, अनुदात्त तथा स्वरित तीन प्रकार के स्वर कहे गये हैं । तिलकमंजरी में उदात्त तथा स्वरित स्वरों का उल्लेख किया गया है । 3
कल्प
तिलक मंजरी में यज्ञ सम्बन्धी अनेक उल्लेख प्राप्त होते हैं। मेघवाहन के राजकुल की यज्ञशालाओं में सान्तातिक अनुष्ठान किये जा रहे थे । मध्यान्हकाल में वैश्चदेवयज्ञ करने का उल्लेख मिलता है । प्रातःकाल में अग्निहोत्र यज्ञ का वर्णन किया गया है ।" अग्निहोत्र तथा वैश्वदेवाग्नि का उल्लेख आया है । 7 यज्ञ में 'प्रयुक्त अरणि अर्थात् निर्मन्थकाष्ठ विशेष का उल्लेख किया गया है । "
छन्द
बृहती तथा जगती नामक बंदिक छन्दों का उल्लेख किया गया है । छन्दशास्त्र के लिए छन्दोविचितिशास्त्र नाम दिया गया है । छन्दों में उपजाति छन्द को सर्वोत्कृष्ट माना है । TO इसके अतिरिक्त तिलकमंजरी में प्रयुक्त विभिन्न छन्दों से धनपाल के इस शास्त्र से सम्बन्धित ज्ञान का पता चलता है ।
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पुनानो नरकाद्यस्मात् पितरं त्रायते सुतः तस्मात् पुत्र इति ख्यातः इति वैदिकधर्मेण ।
- तिलकमंजरी पराग-टीका, भाग 1, पृ. 80 .....आत्मानं त्रायस्व पुनाम्नो नारकात् 'इति सोत्प्रासं शासितस्येव गुरुकृतेन श्रुतिधर्मेण ।
- तिलकमंजरी, पृ. 21
उदात्तेनापि स्वरितेन ..
आरब्धनिविच्छेदसान्तानिककर्मकाम्यक्रतुशालम् " गृहाभिमुखतरूशाखासीनवाय सकुलावलोकितबलिषुहूयमानेषुवं श्वदेवानले षु....
- वही, पृ. 13 - वही, पृ 63
- तिलकमंजरी, पृ. 68 - वही, पृ. 151
- वही, पृ. 201 तथा पृ. 68
प्रसृततापसाग्निहोत्रधूमान्धकारे''''।
""अग्न्याहिताग्नेरिवा ।
वही, पृ. 201
छन्दोविचितिशास्त्रमिव बृहत्या जगत्या भ्राजितम् ...
....
10. उपजातिमिव छन्दोजातीनाम् .........
- तिलकमंजरी, पृ. 115 वही, पृ. 159
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धनपाल का पाण्डित्य
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व्याकरण
'व्याकरणशास्त्र का उल्लेख किया गया है। वैयाकरण को शब्दशास्त्रकार कहा गया है तथा व्याकरण को शब्द-विद्या ।' शब्द-विद्या को सभी विद्याओं में श्रेष्ठ कहा गया है। समस्त पद का उल्लेख प्राप्त होता है। पदों के विग्रह के विषय में कहा गया है। स्वर तथा व्यंजन का उल्लेख प्राप्त होता है। हस्व तथा दीर्घ स्वर एवं व्यंजनों का उल्लेख किया गया है। उपसर्ग सहित धातु कही गई है । लिंगत्रय पुल्लिग, स्त्रीलिंग तथा नपुंसकलिंग शब्दों का प्रयोग हुआ है। बहुवचन पद का प्रयोग किया गया है ।10 ज्योतिष
- ज्योतिष विद्या के लिए निमित्तशास्त्र शब्द का प्रयोग हुआ है ।11 ज्योतिषी को मैमित्तिक कहा गया है।12 हरिवाहन के राज्याभिषेक के प्रसंग में पुरुदंश नामक राजनैमित्तिक का उल्लेख आया है ।13 ज्योतिष शब्द भी प्रयुक्त हुआ है । ज्योतिषी के लिए अन्य शब्द सांवत्सर (263), गणक (76) मोहूर्तिक (95,131), ज्योतिर्गणितविद्भिः (115) प्रयुक्त हुए हैं । ज्योतिष के मुहूर्त (75) तिथि (75), वार (75), करण (75), ग्रह (75), लग्न (115), कला (114) आदि पारिभाषिक शब्दों का प्रयोग हुआ है । ग्रहों की उच्च स्थिति, ग्रह-बल, 1. ..."लिपिविशेषदर्शन......."ध्याकरणादीनि शास्त्राणि -वही, पृ. 79 2. वही, पृ. 134, 159 शब्दविद्याभिव विद्यानाम्,
-तिलकमंजरी, पृ. 159 समस्तानेकपदा अप्याजस्वितां विजहुः,
-वही, पृ. 15 5. पदानां विग्रह।,
-वही, पृ. 15 6. अस्वरवणीं अपि परं न व्यंजनमशिश्रियन्त शत्रवः -वही, पृ. 15
शब्दशास्त्रकाररिव विहितहस्वदीर्घव्यंजनकल्पन::... -वही, पृ. 134 धातूनां सोपसर्गत्वम्,
-वही, पृ. 15 शब्द इव संस्कृतोऽपि प्राकृतबुद्धिमाघते । प्रसिद्धपुंभावोऽपि नपुंसकतया व्यवहियते । सर्वदा स्त्रीलिंगवृत्तिरपि परार्थे प्रवर्तमानः पुंस्त्वमर्जयति ।
-वही, पृ. 406 10. बहुवचनप्रयोगः पूज्यनामसु न परप्रयोजनंगीकरणेषु, -वही, पृ. 260 11. वही, पृ. 143, 263 12. वही, पृ.64 13. पुरुदंशा नाम राजनैमित्तिको राजधानीपुरप्रवेशाय शनकय॑जिज्ञपत् ।
-तिलकमंजरी, प्र.403 14. प्रयाणशुद्धिमिव प्रष्टुमुपससर्प परिणतज्योतिषम् .... -वही, पृ. 197
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म
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तिलकमंजरी, एक सांस्कृतिक अध्ययन
ग्रहों की दशा-फलादि के विषय में उल्लेख प्राप्त होते हैं। होरा का उल्लेख आया है।
अगस्त्य नामक नक्षत्र के उदय का उल्लेख आया है। मकर तथा मिथुन राशियों का संकेत दिया गया है । मृगशिरा नक्षत्र एवं सिंह राशि का उल्लेख किया गया है। स्वाति तथा चित्रा नक्षत्र से युक्त आकाश का वर्णन प्राप्त होता है । मकर, कुलीर (कर्क) तथा मीन राशियों का उल्लेख किया गया है। मेष, वृष, तुला तथा धनु राशियों एवं रोहिणी नक्षत्र का स्पष्ट उल्लेख प्राप्त होता है।
सूर्यग्रहण का उल्लेख किया गया है । सूर्यग्रहण के अवसर पर मदिरावती द्वारा भूमि-दान करने का उल्लेख किया गया है। सूर्य के दक्षिणायन होने का उल्लेख आया है । मकर संक्रमण से प्रारम्भ होकर मीन संक्रमण पर्यन्त छः मास तक सूर्य दक्षिणायन रहता है।10
पौराणिक कथायें तिलकमंजरी में पौराणिक कथाओं का भण्डार भरा पड़ा है जिससे धनपाल के पौराणिक साहित्य के गहन अध्ययन का पता चलता है। रामायण महाभारत एवं पुराण सभी के उद्धरण लिए गए हैं। कहीं कथाओं का निर्देश उपमाओं, उत्प्रेक्षाओं, विरोधाभास आदि अलंकारों के माध्यम से दिया गया है तो कहीं पौराणिक व्यक्तियों, देवी-देवताओं, राजाओं, साधुओं, अप्सराओं, राक्षसादि का केवल नाम मात्र से संकेत किया गया है। रामायण, महाभारत तथा पुराणों से सम्बन्धित 50 से भी अधिक व्यक्तियों, जिनमें राजा, देवी-देवता, साधु,
1. तिलकमंजरी, पृ 75, 76, 263 2. .."उर्ध्वमुख्यां होरायामग्रत एवं जातेन
-वही, पृ. 76 3. वही, पृ. 25, 56 गगनमिव मकरमिथुनाध्यासित्म्,
-वही, पृ. 204 5. ग्रहचक्रालंकृते मृगभाजिसिंहोभासिते नमस्तल इव......"
-वही, पृ. 217 ___ शरनम इव स्वातिचित्रोदयान्दित ........
-वही, पृ. 371 7. मकरकुलीरमीनराशिसंकुलेन"......।
-वही, पृ. 259 प्रमुख एव प्रवृत्तमेषस्य ततश्चलितसरोहिणीकदृषस्य क्वापि क्वापि विभाव्यमानतुलाधनुषः प्रभात एव प्रस्थितस्य तारकासार्थस्य""""।
-तिलकमंजरी, पृ. 150 9. एष दशसीर"....."सूर्यग्रहणपर्वणि देवाग्रहारः। -वही, पृ. 182 10. दक्षिणायनान्तदिनकृत इव....
-वही, पृ. 202
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धनपाल का पाण्डित्य
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अप्सरायें राक्षसादि सम्मिलित हैं, की कथायें तिलकमंजरी में आयी हैं। इससे धनपाल की पुराणेतिहास सम्बन्धी व्युत्पति की जानकारी प्राप्त होती है। पुराण तथा इतिहास से अनभिज्ञ व्यक्ति ऐसे स्थलों का अर्थ नहीं जान सकता, जहां पौराणिक कथाबों का उल्लेख किया गया है । अगस्त्य
____ अगस्त्य मुनि ने सातों समुद्रों के जल को अपने चुलुक में भरकर पान कर लिया था। इस प्रसिद्ध कथा का अनेक बार उल्लेख किया गया है। अगस्त्य की घट से उत्पत्ति मानी गयी है । उर्वशी को देखकर मित्रा तथा वरुण का वीर्य यज्ञ के घड़े में गिर गया था, जिससे अगस्त्य एवं वशिष्ठ की उत्पत्ति हुई। कलश-योनि, कुम्भयोनि, कुटज (360) ये नाम भी इसी कथा की ओर संकेत करते हैं। तिलकमंजरी में इस कथा का संकेत तीन स्थानों पर दिया गया है।
एक समय सुमेरु की स्पर्धा से विन्ध्यपर्वत निरन्तर बढ़ने लगा । देवताओं की प्रार्थना पर अगस्त्य मुनि उसके पास गये, तब विन्ध्य उनके पैरों में गिरकर याचना करने लगा। मुनि ने उसे अपने लौटने पर्यन्त उसी अवस्था में स्थिर रहने का आदेश दिया, अत: मुनि के वचनानुसार वह आज भी उसी स्थिति में स्थित है। इस कथा का उल्लेख तिलकमंजरी में अनेकधा प्राप्त होता है।
1. पद्मपुराण, प्रथम खण्ड 19; महाभारत, 3,105 2. (क) आपीतसप्तार्णवजलस्य रत्नोद्वारमिव तीव्रोदानवेगानिरस्तमगस्त्यस्य,
-तिलकमंजरी, पृ 23 (ख) कवलितोऽगस्त्यचुलुकस्पर्धयेव........
. -वही, पृ. 249 (ग) ग्रस्तसागरागस्त्यजठरस्य ख्यातिदुःखेनेव क्षीणकुक्षिम.......
-वही, पृ. 125 (घ) अगस्त्यजठरानलमिव पानावसरलग्नम्, - वही, पृ. 121 3. (क) कलशयोनिप्रसादनायात.......
-वही, पृ. 151 (ख) ........""कुम्भयोनिनेव ।
-वही, पृ. 262 महाभारत, 3,104 (क) अप्रयत्नभग्नसंततवधिषु भूभृत्तदुप्नतिना.....""कुम्भयोनिनव...... ।
-तिलकमंजरी, पृ. 262 (ख) कलशयोनिप्रसादनायातविन्ध्यशैल........ -वही, पृ. 151 (ग) अभ्यर्थनापदेशस्तम्भितोदयमगस्त्यमुनिभियोद्धमुच्चलिताभिविन्ध्यशिखरावलीभिरिव........
- -वही, पृ. 82 (घ) मेरूमत्सरिणा .."विन्ध्यगिरिणेव प्रतिदिनं प्रवर्धमानेन....
-वही, पृ. 160
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तिलकमंजरी, एक सांस्कृतिक अध्ययन
अगस्त्य नक्षत्र के दक्षिण दिशा में चमकने का उल्लेख प्राप्त होता है । 1
अर्जुन
अर्जुन अद्वितीय धनुर्धारी था । 2 अर्जुन ने शिव से दिव्यास्त्र की प्राप्ति के लिए तपस्या की, जिसकी परीक्षा करने के लिए शिव ने किरात का वेश धारण किया था ।
अभिमन्यु
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कौरव-पांडव युद्ध में अभिमन्यु चक्रव्युह में फंस गये थे। इस कथा का संकेत प्राप्त होता है |
अंगद
अंगद बालि का पुत्र था । अंगदादि वानरों ने त्रिकूट पर्वत के पत्थरों से सेतु का निर्माण किया था (पृ. 135 ) । अंगद के सुग्रीव की सेना में होने का उल्लेख किया गया है (पृ. 55 ) ।
इन्द्र
तिलकमंजरी में इन्द्र सम्बन्धी अनेक कथाओं का उल्लेख मिलता है । इन्द्र के 25 पर्यायवाची शब्द प्राप्त होते हैं, जिनसे उसकी भिन्न-भिन्न विशेषताओं का पता चलता है । इन्द्र के लिए प्रयुक्त शब्द - शक्र (5,142), सुरेन्द्र (7,74375), शतऋतु ( 7 ), वासव ( 12,407), बिडौजस (14), पुरन्दर (30), त्रिलोकीपति ( 30 ), पाकशासन ( 39, 62, 163), त्रिदशपति ( 42 ), वृत्रशत्रु ( 39 ), आखण्डल (43, 71), त्रिदशनाथ ( 44 ), सुरपति ( 42 ), इन्द्र (62), शतमन्यु ( 78, 407), देवराज (99), वज्री (99), संक्रन्दन (105), अमरपति (121), जम्भारि (198), सहस्त्राक्ष (225) पुरुहूत (236), स्वणार्थं (262), मधवत् (305), शतमख ( 371 ) । इन्द्र स्वर्ग का स्वामि है ( 230, 42, 44, 121, 262) तथा वह सदा अपने पद के अपहरणके प्रति शंकित रहता है (पृ. 7, 24) । इन्द्र के द्वारा अपने वज्र से पर्वतों के पंख काट दिये जाने का अनेक स्थानों पर उल्लेख आया है (पृ. 71, 14, 35, 72, 262) 15
भुवनत्रयाभिनन्दितोदयेन कुम्भयोनिनेव"
1.
2. पार्थवत् पृथिव्यभिकधन्वी " वही, पृ. 36
3.
4.
5.
..दक्षिणा दिक् ।
- वही, पृ. 262 तथा 25, 56 - वही, पृ. 95 -वही, पृ. 89
अभिमन्युरिव चक्रव्यूहस्य ....... अविशन्मध्यम् ततः क्रुद्धः सहस्राक्षः पर्वतानां शतक्रतुः । पक्षांश्चिच्छेद वज्रेण ततः शतसहस्रशः ॥
- वाल्मीकि रामायण, सुन्दरकाण्ड 1, 124
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धनपाल का पाण्डित्य
इन्द्र ने जम्भ नामक दैत्य का वध किया था (198। इन्द्र ने बलादि असुरों को पराजित किया था (पृ. 35) । इन्द्र की पत्नी का नाम शची था, जो पुलोम ऋषि की पुत्री थी, अतः उसे पुलोमदुहिता भी कहा जाता है। इन्द्र के पुत्र का नाम जयन्त था (105)। इन्द्र विष्णु के ज्येष्ठ भ्राता थे, अतः शची को लक्ष्मी की ज्येष्ठजाया कहा गया है ।1 इन्द्र की नगरी अमरावती है (पृ. 40) । इन्द्र का वाहन ऐरावत हाथी है (पृ. 74) । एक हजार नेत्र होने से इन्द्र को सहस्राक्ष कहा गया है । इन्द्र ने निवात एवं कवच नामक असुरों के साथ युद्ध किया था। इन्द्र तथा वृत्रासुर के प्रसिद्ध संग्राम का उल्लेख भी प्राप्त होता है । अतः तिलकमंजरी में इन्द्र सम्बन्धी वैदिक एवं पौराणिक दोनों कथाओं का संकेत प्राप्त होता है।
उर्वशी
यह स्वर्ग की प्रमुख अप्सरा है ।। ऐरावत
यह इन्द्र का वाहन है। इसके अपरनाम सुरेन्द्रवाहन (74), ऐरावण (पृ. 54, 121), शतमन्युवाहन (78) है। ऐरावत की पत्नी का नाम अभ्रभू है (पृ. 57) । ऐरावत पर बैठे इन्द्र का उल्लेख आया है (पृ. 105)। ऐरावत की समुद्र से उत्पत्ति हुई थी तथा इन्द्र ने इसका अपहरण कर लिया था (पृ. 54)। कपिल
कपिल मुनि ने सगर के पुत्रों को अपने तेज से भस्मीभूत कर दिया था। इस कथा का उल्लेख किया गया है। कुबेर
यह स्वर्ग का कोषाध्यक्ष तथा नवनिधियों का स्वामी है (पृ. 57) यह उत्तर दिशा का अधिष्ठाता कहा गया है (पृ. 198) इसके अपरनाम धनद (406), वैश्रवण है 123, 198)। चैत्ररथ नामक इसका वन है । नलकूबर कुबेर
1. उपनीतश्च जन्मनिकुमारजयन्तस्य ज्येष्ठजायेति जातपुलकया पुलोमदुहितुः...
-तिलकमंजरी, पृ. 43 2. ऐरावताधिरूढः सहस्राक्ष इव साक्षादुपलक्ष्यमानः, -वही, पृ. 105 3. निवातकवचयुद्धमिव मुक्ताफलवन्द्र......"
-वही, पृ. 122 वृत्रमिवोपकण्ठलग्नवजानुविद्धफेनच्छटापहृतहृदयासु....... '
-वही पृ. 122 वही, पृ. 42, 172, 312 शतमखहृतरावणादिसहोदरोदन्त..."
- वही, पृ 54 7. वही, पृ. 9
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तिलकमंजरी, एक सांस्कृतिक अध्ययन
का पुत्र है (पृ. 163) जो रूप में अद्वितीय है। अलकापुरी कुबेर की राजधानी है (पृ. 23)। कामदेव
. शिव ने अपनी तपस्या भंग करने में प्रयत्नशील कामदेव को अपनी नेत्राग्नि द्वारा भस्मीभुत कर दिया था। इस कथा के अनेक स्थानों पर उल्लेख मिलते हैं (पृ. 23, 104, 162, 248, 266, 276)। रति की प्रार्थना से द्रवित होकर उसे पुनर्जन्म प्रदान किया गया, इस कथा का भी उल्लेख आया है।1 रति कामदेव की पत्नी है, अतः उसे रतिभर्तु कहा गया है । (पृ. 323)। कामदेव को पुष्पधन्वा तथा कुसुमास्त्र कहा गया है । उसे पंचबाण भी कहा गया है क्योंकि अरविन्द, अशोक, चूव, नवमालिका तथा रक्तोत्पल ये पांच पुष्प उसके बाण हैं । कुम्भकर्ण
___ यह रावण का भाई, दीर्घ निद्रा के लिये प्रसिद्ध था (पृ. 135, 1:6)। कृष्ण
कृष्ण द्वारा यमुना के जल से कालिय सर्प को खींच निकालने की कथा का उल्लेख प्राप्त होता है (पृ. 52) कुमार
कुमार कार्तिकेय शर के वन में उत्पन्न हुए थे (पृ. 21)। कुमार की माताएं कृत्तिकाएं थी। गरुड़
यह पक्षियों का राजा कहा गया है (पृ. 86)। यह विष्णु का वाहन है (पृ. 86)। यह सॉं का शत्रु है एवं उनका भक्षण करता है (पृ. 122) इसको तार्क्ष्य भी कहते हैं (122)। जटायु
___ राम द्वारा जटायु को निवापांजलि प्रदान करने का उल्लेख है (पृ. 135)। परशुराम
ये जमदग्नि के पुत्र थे, अतः इन्हें जामदग्न्य कहा गया है। परशुराम द्वारा अपने पिता जमदग्नि की मृत्यु का प्रतिशोध लेने के लिये 21 बार क्षत्रियों
1. मकरकेतोरिवास्य त्वत्प्रसादादवगतेन पुनरूज्जीवनेन रतिरिव कृतार्थाहमुपजाता।
-तिलकमंजरी, पृ. 347 2. विचकर्ष संकषर्णानुज इव कालिन्दतनयातरंगात् कालियम् ।
-वही, पृ. 52 3. कृत्तिकापुंजेनेव कमारशब्दविप्रलब्धेन""तिलकमंजरी, पृ. 100
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धनपाल का पाण्डित्य
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का विनाश किया गया था। इस कथा का उल्लेख तिलकमंजरी में मिलता है।। परशुराम द्वारा अपने बाणों से क्रोंच पर्वत के छेदन की कथा का उल्लेख भी किया गया है (पृ. 8)। पार्वती
पार्वती हिमालय की पुत्री थी, अतः उसे अचलकन्या (पृ 22) शैलराजदुहिता (पृ. 74) कहा गया है । गणेश इनके पुत्र थे (पृ. 74)। ये शिव की पत्नी है (पृ. 17)। पाराशर
पाराशर द्वारा धीवरकन्या मत्स्यगन्धा से गान्धर्व विवाह की कथा का उल्लेख प्राप्त होता है ।
राजा पृथु के आदेश से सुमेरु पर्वत ने गो रूपी पृथ्वी से रत्नादि का दोहन किया था। इस कथा का संकेत प्राप्त होता है । बलि
बलि के दान की कीर्ति सर्वत्र फैल गयी थी (पृ. 203)। विष्णु ने अपने पैर से इसे पाताललोक में भेज दिया था (पृ. 2, 242)।
बलराम
___ ये कृष्ण के अनुज हैं (पृ. 52) । हल धारण करने से इनका नाम लांगली पड़ा (पृ. 16) । बलराम ने अपने हल से यमुना की धारा को वृन्दावन में खींच लिया था। इस कथा का संकेत दिया गया है । ब्रह्मा
__ ब्रह्मा की विष्णु के नाभिकमल से उत्पति की कथा का उल्लेख किया गया है । अतः इन्हें पुरुषोत्तमनाभिसुत (1) तथा कमलयोनि (24) कहा गया है । अन्य नाम स्वयंम्भू (6), प्रजापति (6, 12), ब्रह्मा (24), विधि (24, 299, 176, 243, 313), वेधस (36, 78), हिरण्यगर्भ (200, 206), विधाता
1. दुविनीतज्ञत्रियनरेन्द्रनिहतस्य जनयितुर्जामदग्यमुनिखि""
तिलकमंजरी, पृ. 51 2. महाभारत, 1, 63 भागवतपुराण 1, 3 3. योजनगन्धामिव पाराशरः"."
-तिलकमंजरी, पृ. 129 पृथुपार्थिवोपदेशात्सुमेरूमुख्यः.."
वही, पृ. 277 वामनपुराण 5, 8-11
लांगलीव कालिन्दीजलवेणिकाः""सुदूरमाचकर्ष । तिलकमंजरी, पृ. 17 __ वही, पृ. 1, 241, 206
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तिलकमंजरी, एक सांस्कृतिक अध्ययन
(248) दिये गये हैं । ब्रह्मा के च र मुखों का वर्णन प्राप्त होता है ।1 अतः इन्हें चतुर्मुख कहा गया है । देवी सरस्वती को ब्रह्मा के मुख में स्थित कहा गया है ।
मन्दार
मन्दार पर्वत के द्वारा समुद्र का मन्थन किया गया था (पृ. 76)। मथन से थकित होकर मन्दार का क्रोधित होना (पृ. 214), तथा सुरों एवम् असुरों के द्वारा निर्दयतापूर्वक आलोडन से मन्दार पर्वत का थकना (पृ. 221) वर्णित किया गया है। मन्दोदरी
यह रावण की पत्नी थी। (पृ 135)। मैनाक
यह हिमालय का पुत्र है (पृ. 5, 8)। इन्द्र द्वारा पर्वतों के पंख काटने पर यह समुद्र में जाकर छिप गया था (पृ. 5, 8) । इसके समुद्र में निवास का उल्लेख किया गया है (पृ. 100)। मैनाक अन्य सभी पर्वतों के मध्य अकेला पक्ष सहित था (पृ. 102)। इसके समुद्र में छिप जाने पर दुःखी हिमालय के द्वारा इसके अन्वेषण का उल्लेख प्राप्त होता है । मारीच
मारीच द्वारा स्वर्णमग का रूप धारण करने की कथा का संकेत मिलता है (पृ. 135)। मारूति
हनुमान के द्वारा समुद्र के लंघन का उल्लेख हुआ है (पृ. 201)। हनुमान के द्वारा रावण के पुत्र अक्ष का वध करने की दुर्लभ तथा अप्रसिद्ध कथा का उल्लेख हुआ है । तुम्बरू
यह स्वर्ग का गायक एक गन्धर्व है (पृ 42)। त्रिजटा
त्रिजटा नामक राक्षसी के राम के विरह से व्याकुल सीता के प्रति सखी भाव का उल्लेख किया गया है (पृ. 135)।
1. तिलकमंजरी, पृ. 312 2. वही, पृ. 1,5 3. (क) मैनाकवियोगदुः खरूदितहिमाचला जलमिव-वही, पृ. 203
(ख) मैनाकमन्वेष्टुमन्तः प्रविष्टहिमवतेव... -वही, पृ. 8 .4 मारूतिना भुजबलेन भग्नोऽक्षः,
-तिलकमंजरी, पृ. 135
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त्रिशंकु . . . . . . .
त्रिशंकु के स्वर्ग एवम् पृथ्वी के मध्य आकाश में अधोमुख होकर अधर में लटक जाने की प्रसिद्ध कथा का संकेत दिया गया है (पृ. 23) । त्रिशंकु राजाके द्वारा वशिष्ठ पुत्रों के श्राप से चाण्डाल बन जाने की कथा का संकेत भी प्राप्त होता है । धन्वन्तरि .. यह स्वर्ग का वैद्य कहा जाता है (पृ. 55, पृ. 159)। इसके समुद्र से उत्पन्न होने का उल्लेख मिलता है ।
नल
. . . निषध के राजा नल की कथा प्रसिद्ध है। राजा नल का उल्लेख पृ. 13 पर किया गया है।
नल
राम की वानरसेना के सेनापति नल नामक वानर का उल्लेख प्राप्त होता है।' यम
यह मृत्यु का देवता है। इसे कृतान्त कहा गया है। यम का वाहन महिष है (पृ. 237)। इसे प्राण चुराने वाला चोर कहा गया है (पृ. 410)। संसार का अन्त करने के कारण इसे कृतान्त (52,346,410) तथा अन्तक (185), प्रेतनाथ (318) कहा गया है। इसके अपरनाम धर्मराज (पृ. 24) वैवस्वत (120) कीनाश (293,406) है । यम को यमुना के भ्राता के रूप में वर्णित किया गया है (पृ. 93,120,293)। यमराज को कृष्णवर्ण का बताया
1. रामायण, 1, 50-61 2, वही 3. (क) त्रिशंकोरिव प्रनष्टास्पृश्यसंनिधिपरिहारवासनः..."तिलकमंजरी,
पृ. 134 : (ख). त्रिशंकुसंपर्कजाशीचशोधनाय"
-वही, पृ. 23 4. दिव्योषधिरिव मथनोत्थितस्य धन्वन्तरेविस्मृताः, -तिलकमंजरी, पृ. 159 5. महाभारत, आरण्यकपर्व 6. नलपृथुप्रभोऽप्यनलपृथुप्रभः, .. -अवाहा तिलकमंजरी, पृ. 13 7. ""सेनापतेर्नलस्य...
-वही, पृ. 137 8. : (क) आजिविपन्न""यमदर्शनागतया यमुनयेव... ' वही, पृ. 93 .
(ख) वैवस्वतानुजादेहलावण्येन लिप्ताभिः... -वही, पृ. 120 (ग) कीनाशानुजाजलस्रोतसीव.. . -वही, पृ 293.
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गया है (पृ. 24)। क्रोधित यम की हुंकार एवं वक्र भ्र कुटि का वर्णन किया गया है (86, 52) । यमराज के दूतों का उल्लेख किया गया है (पृ. 40)। यमुना
- यह यम की भगिनी है (पृ. 93,120,293)। बलराम द्वारा इसको अपने हल से खींच लेने की कथा का उल्लेख किया गया है (पृ. 17)। रम्मा
यह स्वर्ग की अप्सरा है (42,172,312)। इन्द्र की सभा में रम्भा के लास्य नृत्य का उल्लेख आया है (पृ. 42)। राम
राम दशरथ के पुत्र थे, अतः दाशरथि कहलाये (पृ. 135)। राम-रावण के युद्ध का उल्लेख किया गया है (पृ. 135)। रावण का वध करने के कारण इनका दशास्यदमन (136) नाम पड़ा। अन्य नाम रामचन्द्र (135) रामभद्र (136) हैं । राम द्वारा समुद्र पर सेतु निर्माण के लिये बाणों से समुद्र का भेदन करने की कथा का संकेत दिया गया है।' राम-रावण युद्ध में वानरसेना द्वारा सेतु निर्माण का संकेत (पृ. 135) मिलता है ।
यह लंकाधिपति राक्षससम्राट था (पृ. 95)। रावण द्वारा पार्वती को प्रसन्न करने के लिये अपना सिर काटकर देने की कथा का संकेत दिया गया है। रावण द्वारा सीता हरण की कथा का उल्लेख है। सीता की उदासीनता से रावण का दुःखी होना। व रावण द्वारा शिव की उपासना करने का उल्लेख है ( 122)। रावण द्वारा कैलाश पर्वत को अपने हाथों से उठा लेने की कथा का संकेत मिलता है।
राहु द्वारा चन्द्रमा को ग्रसने की कथा का अनेक बार उल्लेख किया
1. (क) दाशरथिशरफुशानुकशितत्विषाम्
-तिलकमंजरी, 9 160 (ख) अनपेक्षितरामविशिखशिखिशिखाऽम्बरेण""जलनिधिना....
-वही, पृ. 94 2. प्रणत्यनादरकुपित पार्वतीप्रसादनार्थमुपक्रान्तद्वितीयकण्ठच्छेद इव रावणः
तिलकमंजरी पृ. 53 3. रावणादिवोत्पन्नपरदारग्रहणःभिलाषैः....
वही, पृ. 134 4. जानकीवमुख्यदुःखक्षामदशकण्ठ"""
वही, पृ. 135 5. पौलस्त्यहस्तोल्लासित कैलासमिव हसन्तम्... वही, पृ. 239
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गया है (पृ. 203, 47, 87)। राहु को विधुन्तुद एवम् सैहिकेय भी कहा जाता है (पृ. 203,87, 47)। लक्मण
यह राम के भ्राता एवं सुमित्रा के पुत्र थे, अतः इन्हें सुमित्रासुत (पृ. 136) तथा सौमित्रि (204) कहा जाता है। लक्ष्मण की पत्नी उर्मिला थी।' रावण के साथ युद्ध करते हुए ये मूच्छित हो गये थे। लक्ष्मी
यह विष्णु की पत्नी है (पृ. 43)। इसकी उत्पत्ति समुद्र-मन्थन से हुई थी (पृ. 205), अतः समुद्र का उसके प्रति वात्सल्य दर्शित किया गया है (पृ. 43)। मेघवाहन द्वारा राजलक्ष्मी की आराधना करने का वर्णन किया गया है (पृ. 34,46)। लक्ष्मी श्वेत कमल के आसन पर बैठती है एवम् कमलों के वन में निवास करती है (पृ. 54)। लक्ष्मी का निवास स्थान पद्म नामक महाहद कहा गया है (पृ. 61)। वासुकि
वासुकि नाग पाताल का अधिपति है (पृ. 12, 57)। समुद्र-मन्थन के समय बलि ने बलपूर्वक वासुकि को खींचा था। विभीषण
यह रावण का कनिष्ठ भ्राता था (पृ. 135)। इसके द्वारा राम को रावण की शक्ति के विषय में सूचना देकर सहायता की गई थी (पृ. 136)। रावण की मृत्यु के पश्चात् लंका में विभीषण का सौराज्य स्थापित होने का उल्लेख किया गया है (पृ. 135)। विष्णु
तिलकमंजरी में विष्णु सम्बन्धी अनेक पौराणिक आख्यानों का संकेत मिलता है । विष्णु के लिए प्रयुक्त विभिन्न शब्द उनकी भिन्न-भिन्न विशेषताओं को लक्षित करते हैं । तिलकमंजरी में विष्णु के निम्न 19 पर्याय दिये गये हैंपुरुषोत्तम (1), अज (2), विष्णु (3), वासुदेव (11), अच्युत (13, 120), कंसद्विष (16), दानवारि (20), संकर्षणानुज (52), असुरारि (43, 122), हरि
1. सौमित्रिचरितमिव विस्तारितोमिलास्यशोभम्, -वही, पृ. 204 2"शक्तया समिति सुमित्रासुतस्थ मूीनिपतनस्थानम्,
-वही, पृ. 136 3. वासुकिरपि......."पालयति पातालगराणि । -तिलकमंजरी, पृ. 57 4. मथनाविष्टे बलिहठाकृष्टवासुकीफणापीठगलितः... -वही, पृ. 122
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(43, 121) रथांगपाणि (86), शाङ्गि (121), मधुरिपु (42, 122, 241), वैकुण्ठ (160, 234), केशव (200, 239), दामोदर (206), यवनकाल (234), त्रिविक्रम (240), मुरारि (351)।
विष्णु के विभिन्न अवतारों का उल्लेख मिलता है। विष्णु ने वामनावतार में अपने पाद-त्रय से पृथ्वी, आकाश तथा स्वर्ग तीनों लोकों को नाप लिया था एवं बलि को पाताल भेज दिया। इस कथा का उल्लेख पृ. 2, 3 तथा · 42 पर मिलता है । इनके वराहावतार (पृ. 15, 121, 234) का उल्लेख मिलता है, जिसके अन्तर्गत इन्होंने हिरण्याक्ष का वध किया था (पृ. 121), इनके द्वारा कूर्मावतार में पृथ्वी को उठाने का संकेत मिलता है (पृ. 121, 15)। विष्णु ने मतस्यावतार में समुद्र में गिरे हुए वेदों का उद्धार किया था ।। विष्णु के नरसिंहावतार का उल्लेख मिलता है । इन्होंने कंस का वध किया था, अतः कंसद्विष कहलाये (पृ. 16) । विष्णु सागर में शयन करते हैं (पृ. 16, 20, 120, 121)। शेषनाग इनकी शैय्या है (पृ. 20)। कल्पान्त में विष्णु की योग-निद्रा का उल्लेख किया गया है (पृ. 20) । लक्ष्मी-प्राप्ति के लिए इन्होंने समुद्र-मंथन हेतु मंदराचल को उखाड़ लिया था (पृ. 11)।
विष्णु को मधुकैटभ नामक राक्षसों का शत्रु वणित किया गया है (पृ. 12:, 122, 241)। विष्णु को शंख, चक्र, गदा, खड्ग तथा धनुष से युक्त वर्णित किया गया है (276)। इनका शंख पांचजन्य, चक्र सुदर्शन, कौमोदकी गदा, नन्दक खड्ग है तथा शाङ्ग धनुष है (पृ. 276, 160, 121, 86)। विष्णु का वाहन गरुड़ है (पृ. 86)। समुद्र-मन्थन में विष्णु की भूजारूपी शृखलाओं से मन्दराचल को बांधने का उल्लेख किया गया है (पृ. 239)।
विष्णु के पादान से गंगा के उद्गम की कथा का उल्लेख किया गया है। विष्णु के उदर में समस्त प्राणियों के निवास का वर्णन आया है ।। विश्वकर्मा
यह स्वर्ग का शिल्पी है (पृ. 220)।
1. : विधेहि वेदोद्धारिणः शकुलस्य केलिम्.......
-तिलकमंजरी, पृ. 146 तथा 121 2. प्रौढ़केसरिमकरारित.........
-वही, पृ. 121 3. त्रिविक्रममिव पादाग्रनिर्गतत्रिपथगासिन्धुप्रवाहम। ..
-तिलकमंजरी, पृ. 240 4. मुरारिजठरावासित इव व्यभाव्यत समग्रोऽपिभूतग्रामः ।
-वही, पृ. 351
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सगर
सगर के 60, हजार पुत्रों की कथा का उल्लेख किया गया है । सूर्यवंशी सगर राजा ने सौ अश्वमेघ यज्ञ प्रारम्भ किये जिनमें निन्यानवे यज्ञ पूर्ण हो जाने के बाद जब सौवां यज्ञ चल रहा था तब इन्द्र ने अपने पद के छिन लिए जाने के भय से यज्ञ का अश्व चुराकर, पाताल में ले जाकर कपिल मुनि के आश्रम में बांध दिया । सगर के 60,000 पुत्र उस घोड़े को ढूंढते-ढूंढते जब पृथ्वी खोदकर कपिल मुनि के आश्रम पहुंचे, तो उसे वहां देखकर वे मुनि को ही अपहरणकर्ता समझकर अपशब्द कहने लगे। ध्यान भग होने पर मुनि के तेज से वे भी तुरन्त जलकर भस्म हो गये । इस कथा का उल्लेख पृ. 9 पर किया गया है । जिनका पुनरोद्धार उन्हीं के वंशज भगीरथ ने अपनी तपस्या द्वारा गंगा को स्वर्ग से पृथ्वी पर लाकर किया। इसी कारण गंगा भागीरथी कहलायी। सती
ये शिव की पत्नी तथा हिमालय की पुत्री है (पृ. 5)। शिव का अपमान होने पर दक्ष की पुत्री सती द्वारा आत्माहुति (पृ. 395) देने की कथा वणित की गयीहै। अन्यत्र सती के द्वारा शिव के शरीर में प्रवेश करने का उल्लेख किया गया है। समुद्र मन्थन
समुद्र मन्थन की प्रसिद्ध कथा का तिलकमंजरी में अनेकों बार उल्लेख किया गया है (पृ 43, 205, 54, 159, 58, 211, 76, 121, 122, 203, 204, 214, 221, 234 239) ।
समुद्र मन्थन से अमृत की उत्पत्ति हुई थी (पृ. 205), जिसका वितरण देवताओं में किया गया था 4 ऐरावत की समुद्र-मन्थन से उत्पत्ति एवं इन्द्र द्वारा उसका अपहरण (पृ. 54), पारिजात वृक्ष की मन्थन से उत्पत्ति (पृ. 54), समुद्र से कालकूट की उत्पत्ति पर देवों तथा दानवों का संभ्रमित होने (54) का उल्लेख है । चन्द्रमा, कौस्तुभमणि, सुधा, मदिरा इन सबकी प्राप्ति समुद्र-मन्थन से हुई, अतः इन्हें लक्ष्मी का सहोदर-समाज कहा गया है (पृ. 54)। कामधेनु की क्षीरसागर से उत्पत्ति का उल्लेख है (पृ. 58, 211)। दिव्य अश्व उच्च.श्रवस की
1. रामायण 1 1, 42-44, महा. 3, 108, भाग पु. 99 2. कपिलकोपानलेन्धनीकृतसगरतनयस्वर्गवार्ताभिव प्रष्टुं भागीरथीम्.......
-वही, पृ.१ 3. मैनाकेन महार्णवे हरतनौ सत्या प्रवेशेकृते, -तिलकमंजरी, पृ. 5 4. पीयूषदानकृतार्थीकृतसकलाथिसुरसार्थेनमथनविरत ....... -वही, पृ. 43
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उत्पत्ति भी समुद-मन्थन से हुई (पृ. 121 ) । समुद्र से अप्सराओं की भी उत्पत्ति g (q. 122) 1
सीता
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यह जनक की पुत्री है अत: जानकी (पृ. 135 ) जनकदुहिता (पृ. 136 ) तथा मैथिली (पृ. 135 ) नाम है । ये राम की पत्नी थी। सीता की अग्नि परीक्षा की कथा का उल्लेख किया गया है। राक्षसग्रह में निवास करने के अपवाद रूप कलंक के निवारण हेतु सीता की अग्नि परीक्षा ली गई । 1
सुग्रीव
सुग्रीव राम का मित्र था । सुग्रीव की सेना में तार, नील तथा अंगद थे (पृ. 55 ) 12 सुग्रीव द्वारा स्थापित शिविर भूमि का उल्लेख किया गया है । (पृ. 135 ) ।
शत्रुघ्न
इनकी पत्नी का नाम श्रुतकीर्ति था (पृ. 13 ) ।
शिव
शिव सम्बन्धी अनेक कथाओं का उल्लेख किया है। शिव के लिये प्रयुक्त शब्द उनकी विशेषताओं को प्रकट करते हैं (पृ. 16)। शंकर के द्वारा अन्धक नामक दैत्य का विनाश किया गया (पृ. 5,120, 185 ), अत: इन्हें अन्धकाराति कहते हैं । शिव ने गजासुर का नाश किया (पृ. 185, 87 ) तथा प्रलयकाल में गजासुर के चर्म को धारण किया (पृ. 14), अत: इन्हें गजदानवारि विशेषण प्राप्त हुआ (पृ. 87 ) । प्रलयकाल में शिव के महाभैरव रूप का उल्लेख (पृ. 14 ) किया गया है, उनका अट्टहास (पृ. 84), प्रलयकाल में शिव का ताण्डव नृत्य (पृ. 239) वर्णित किया गया है। शिव विश्व के संहारकर्त्ता कहे गये हैं। शिव का निवास स्थान कैलास पर्वत है (पृ. 23) शिव की जटा में अर्धचन्द्र (पृ.. 23, 313, 44), शिव का गंगा को अपने सिर पर धारण करना (211)। शिव के तृतीय नेत्र से कामदेव का भस्मीभूत होना (23, 104, 162, 248, 266, 276) आदि वर्णित किये गये हैं ।
शिव ने समुद्र मन्थन से निकले विष का पान कर उसे कण्ठ में ही रोक लिया, अतः वे कण्ठेकाल कहलाये |
अपनीतरक्षो गृह निवासनिर्वादकलंकाया जनकदुहितुः....
1.
2. सुग्रीवसेनामिव स्फुरत्तास्त्रीलांगदाम्,
3. कण्ठे कालकूटकालिकामिव कालाग्नि कण्ठे कालस्य ..
- तिलकमंजरी, पृ. 136
- वही, पृ. 55
- तिलकमंजरी, पृ. 134
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शिव के द्वारा अर्जुन की परीक्षा के लिये किरात का वेश धारण किया गया था। इस कथा का उल्लेख पृ. 239 तथा 36 पर प्राप्त होता है इसी के आधार पर शिव को क्रीड़ाकिरात कहा गया है (पृ. 236)। दक्ष के यज्ञ में पति का अपमान होने पर सति ने अपनी आहुति दे दी, तब क्रोधित होकर शिव ने अपने शरीर की भस्म से दक्ष के यज्ञ का नाश कर दिया। इस कथा का उल्लेख पृ. 395 पर प्राप्त होता है। शिव के शरीर पर भस्म मलने का उल्लेख पृ. 239 पर किया गया है। शिव तथा पार्वती के अर्धनारीश्वर रूप का वर्णन किया. गया है।
तिलकमंजरी में शिव के निम्नलिखित 23 नाम आये हैं शंकर (313), रुद्र, (5), हर (5, 101, 266, 225), स्थाणु (6), शूलपाणि (12), महाभैरव (14, 84), शाकमौलि (16), विशालाक्ष (23), ईशान (23, 162, 276), विषभाक्ष (24), श्यम्बक (43, 137, 203, 211), शूलायुध (397), गजदानवारि (87), खण्डपरशु (87, 239). मृगांकमौलि (16), धूर्जटि (104, 121), अन्धकाराति (120), शिव (198), ईश (800) नीललोहित (222), कण्ठेकाल (234), क्रीड़ाकिरात (239), गिरिश (247)। शेषनाग
यह नागों का राजा है। फणिराज से मन्दरपर्वत के मध्यभाग को बांधकर समुद्र का मन्थन किया गया था (पृ, 204)। भुजंगराज का मन्थन के श्रम से थकित होना (पृ. 203), शेषाहि (पृ. 23), शेषनाग द्वारा पृथ्वी को अपने फण पर धारण करने का उल्लेख है (पृ. 54)।
दार्शनिक सिद्धान्त धनपाल वैदिक एवं पौराणिक साहित्य के अतिरिक्त दर्शनशास्त्र में भी पूर्णतः निष्णात थे। यह तिलकमंजरी में प्रयुक्त अनेक दार्शनिक उपमाओं, उत्प्रेक्षाओं तथा अन्य उल्लेखों आदि के विवेचन से ज्ञात होता है। सांख्य
धनपाल ने सांख्य के पुरुष एवं प्रकृति, इन दो प्रमुख तत्वों का एक उपमा के प्रसंग में निरूपण किया है। सांख्यमतानुसार अविद्या के कारण प्रकृति
1. दक्षाध्वरध्वंसिभस्मांगभास्वरेण.....
-वही, पृ. 395 2. (क) ..."शम्भोरिवार्धनारीश्वरस्थ,
-वही, पृ. 253 (ख)""शरीराधेन लब्धप्रियांगसँगामचलकन्याम्... -वही, पृ. 313
(ग) भवानीव शंभोद्वितीयापि भर्तुरेकं शरीरमभवत् । -वही, पृ. 263 3. दर्शनादेव चासो जन्मसहभुवं पुमानिव सांपरिकल्पितः प्रकृतिममुंचत् ।।
-तिलकमंजरी, पृ. 278
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के साथ पुरुष का पुष्करपलाशवत् निर्लिप्त सम्बन्ध होता है, किन्तु विवेकख्याति होते ही यही पुरुष त्रिगुणात्मिका सुखदुःख मोहस्वरूपा प्रकृति से सम्बन्ध विच्छेद करके अपने स्वरूप में स्थित हो जाता है। इसी सिद्धान्त का संकेत धनपाल ने प्रस्तुत प्रसंग में दिया है । सांख्य दर्शन में सत्व, रजस्, तथा तमोगुण युक्त त्रिगुणकल्पना की गई है। तिलकमंजरी में सत्व तथा रजोगुण का उल्लेख किया गया है। विषय एवं ज्ञानेन्द्रियों का भी उल्लेख मिलता है । योग
योग शब्द का प्रयोग किया गया है ।" चित्त की वृत्तियों का निरोध ही योग है । एक प्रसंग में कुम्भक प्राणायाम का संकेत प्राप्त होता है। प्राणायाम का अर्थ है श्वास और प्रश्वास की गति को विच्छिन्न कर देना। श्वास बाहरी वायु को भीतर खींचने की क्रिया को कहते हैं और भीतरी वायु को बाहर निकालना प्रश्वास कहलाता है । उन दोनों का संचरण न होना ही प्राणायाम है । कुम्भक प्राणायाम में वायु को भीतर ही स्तम्भित कर दिया जाता है।'
एक अन्य उल्लेख में योगी द्वारा स्वरूप के साक्षात्कार का वर्णन है।10 जिससे असम्प्रज्ञात समाधि का संकेत प्राप्त होता है।11 अन्यत्र भी इसका संकेत
1. ईश्वरकृष्ण, सांख्यकारिका 64, 65 2. वही, पृ. 12, 13 3. सात्विकरपि राजसभावाप्त ख्यातिमिः:... .
-तिलकमंजरी, पृ. 10 4. स्पर्शगन्धवर्ण विषयसौख्यमिव, ..
-वही, पृ. 335 5. एवं च विकलीभूतसकलेन्द्रिया' -वही, पृ. 335 6. तिलकमंजरी, पृ. 9 7. योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः . . पातंजलयोगसूत्र 1/2 8. अप्रयुक्त योगामिरेकावयव प्रकटाननमरुतामपि गति स्तम्भयन्तीमिः
..... -तिलकमंजरी, पृ. 9 9. तस्मिन् सति श्वासप्रश्वासयोर्गतिविच्छेदः
-योगसूत्र 2/49 10. योगीज्ञानगोचरं चात्मनो रूपमध्यक्षविषयीकुर्वन्ति, ..
__ -तिलकमंजरी, पृ. 45 11. तदा द्रष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम् -योगसूत्र 1117, 18, 113
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दिया गया है। समाधि का उल्लेख मिलता है। ध्यान का संकेत दिया गया है। ध्यान एकाग्रता को कहते हैं । पद्मासन, अपवर्ग, मोक्षादि शब्दों का उल्लेख किया गया है। वेदान्त
वेदान्त के विवर्तवाद का दो स्थानों पर संकेत प्राप्त होता है। विवर्त तथा परिणाम ये दो सिद्धान्त प्रसिद्ध हैं । सांख्य तथा योग परिणाम को मानते हैं तथा वेदान्त विवर्तवाद को स्वीकार करता है। विवर्त अतात्विक परिणाम को कहते हैं जैसे रज्जुखण्ड में सर्प की प्रतीति । न्याय वैशेषिक
__वैशेषिक मत का दो स्थानों पर उल्लेख मिलता है । वैशेषिक मत में द्रव्य की प्रधानता तथा गुणों की गौणता मानी गई है। कणाद के वैशेषिक दर्शन में द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष और समवाय इन छः पदार्थों की व्याख्या की गई है । इसमें से द्रव्य पदार्थ को प्रधान एवं नित्य माना गया है । द्रव्य अन्य सभी पदार्थों का आधार होने से प्रधान है ।' द्रव्य समवायिकारण तथा गुणों
1. ...क्षणदास्वपि समस्तवस्तुजातमुपजातयोगिज्ञान इव विज्ञात निरवशेषविशेषमावेदयति ।
-तिलकमंजरी, पृ. 130 2. तदेवार्थमात्रनिर्भासं स्वरूपशून्यामिव समाधिः । -योगसूत्र 313 3. गृहीतगाढ़चिन्तामोनश्च दृढ़समाधिस्थ इव -तिलकमंजरी, पृ. 130. 4. अवधाननिश्चलेन चेतसा परमयोगीव....
-वही, पृ. 141 5. तत्र प्रत्ययकतानताध्यान ।
-योगसूत्र 312 6. (क) निबद्धपद्मासनाम्""
-तिलकमंजरी, पृ. 217 (ख) आबद्यपद्मासनाम्
वही, पृ. 255 (ग) बद्धपद्मासनो....
. -वही, पृ. 399 (घ) अपवर्गचलितवीरवर्गभिन्नसूर्यमण्डलरूधिर प्रवाह इव -वही, पृ. 96 (ङ) विषमाश्वमण्डलमेदिनः प्राप्तमोक्षाः,
-वही, पृ. 89 7. (क) असुकृतस्येव विवर्तेः....
__ -वही, पृ. 126 (ख) अन्तकमिवोपजातगजविवर्तम्,
-वही, पृ. 185 ___ (क) वैशेषिकमते द्रव्यस्य कूटस्थनित्यता। -तिलकमंजरी, पृ. 12 __ (ख) वैशेषिकमते द्रव्यस्य प्राधान्यं गुणानामुपसर्जनभावो बभूव ।।
-वही, पृ. 15 9. माधवाचार्य, सर्वदर्शनसंग्रह, पृ. 400 ..
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का आश्रय होता है । द्रव्य नी हैं, पृथ्वी जल, अग्नि, वायु, आकाश, काल, दिक, आत्मा और मन ।
न्याय-दर्शन का उल्लेख किया गया है। तर्क-विध्या का भी निर्देष दिया गया है। नैयायिकों को प्रामाणिक तथा प्रमाणविद् कहा गया है । न्यायशास्त्र में प्रमाणों का निरूपण हुआ है, अत: इसे प्रमाणशास्त्र भी कहा गया है। प्रमाण का अनेक स्थानों पर उल्लेख आया है। प्रमाण का लक्षण है-प्रमाकरणं प्रमाणम् अर्थात् प्रमा का साधन प्रमाण है । प्रमा यथार्थ अनुभव को कहते हैं-यथार्थानुभवः प्रमा। अत: यथार्थानुभव के साधन को ही प्रमाण कहते हैं 6 न्यायशास्त्र में चार प्रमाण माने गये हैं-प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान व शब्द प्रमाण ।' समवायिकारण का उल्लेख मिलता है । पट का समवायिकारण तन्तु है । यत्समवेतं कार्यमुत्पद्यते ततः समवायिकारणम् । यथा पटस्य तन्तुः । प्रमेय का उल्लेख किया गया है।' ज्ञातव्य विषय को प्रमेय कहते हैं। बौद्ध
बौद्धों के क्षणिकवाद का संकेत एक उपमा के अन्तर्गत मिलता है ।10 बौद्धों के अनुसार पदार्थों का द्वितीय क्षण में निरन्वय अर्थात् नाश हो जाता है ।
बौदों के शून्यवाद का भी उल्लेख आया है। बौद्धों में माध्यमिक शून्यवाद को मानते हैं।
1. तत्र समवायिकारणं द्रव्यम् । गुणाश्रयो वा । तानि च द्रव्याणि पृथिव्यप्ते. जीवाभ्याकाशकालदिगात्ममनांसि नवैव ।
-केशवमिश्र, तर्क भाषा, पृ. 170 2. न्यायदर्शनानुरागिमिररौद्रः....
-तिलकमंजरी, पृ. 10 3. सत्तकविद्यामिव विधिनिरूपितानबध प्रमाणाम् । -वही, पृ. 24 4. (क) प्रमाणविद्भिरप्यप्रमाणविद्य:""
-वही, पृ. 10 (ख) परमतज्ज्ञाः पौराः प्रामाणिकाश्च,
-वही, पृ. 260 ___ वही, पृ. 10. 260, 24 6. केशवमिश्र, तर्कभाषा, पृ. 13, 14 7. प्रत्यक्षानुमानोपमानशब्दाः प्रमाणानि
-न्यायसूत्र, 11113 8. रीत्युपादानकारः ....
-तिलकमंजरी, पृ. 234 9. कदाचित प्रमाणप्रमेयस्वरूपनिरूपणेन...
-वही, पृ. 104 10. यस्य दोष्णि स्फुरद तो प्रतीये विबुधवः । बौद्धतर्क इवार्थानां नाशो राज्ञां निरन्वयः ।।
-वही, पृ. 16 11. बौद्ध इव सर्वत; शून्यदर्शी।
. -वही, पृ. 28
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बुद्ध के दशबल नामका उल्लेख मिलता है। दान, शील, क्षमा, अवौर्य, ध्यान, प्रज्ञा, बल उपाय, प्रणिधि तथा ज्ञान, इन दस बलों के कारण बुद्ध को दशबल कहा जाता है।
जैन
एक उपमा के प्रसंग में जैन दर्शन का उल्लेख मिलता है। जैन दर्शन को आहत-दर्शन भी कहा गया है । "नगम" तथा "व्यवहार "जैन-दर्शन के पारिभाषिक शब्द हैं । जैन दर्शन में ज्ञान के दो रूप माने गये हैं, प्रमाण और नय । प्रमाण का अर्थ वस्तु के उस ज्ञान से है, जैसी वह स्वयं है और नय का तात्पर्य उस वस्तु के ज्ञाता के विशेष प्रसंग अथवा सम्बन्ध में ज्ञान से है । नय वह दृष्टिकोण है जिससे कि हम किसी वस्तु के विषय में परामर्श देते हैं । वस्तु के अनेक धर्मों में से किसी एक धर्म के द्वारा वस्तु का निश्चय करने पर नय का ज्ञान होता है।
नंगम नय तथा व्यवहार नय ये दो नय के भेद हैं।
नेगम नय-किसी क्रिया के उस प्रयोजन से सम्बन्धित है, जो उस क्रिया में आद्योपान्त उपस्थित है । जैसे कोई व्यक्ति अग्नि, जल, बर्तनादि ले जा रहा है तो यह ज्ञात होता है कि वह भोजन बनाने जा रहा है । यहां अन्य सभी क्रियायें भोजन बनाने के प्रयोजन से की जा रही है।
व्यवहार नय-यह व्यवहारिक ज्ञान पर आधारित सर्वसाधारण का दृष्टिकोण है । इसमें वस्तुओं पर उनके मूर्त रूप में विचार किया जाता है और उनकी व्यक्तिगत विशेषताओं पर जोर दिया जाता है। इस प्रकार यह ज्ञात होता है कि धनपाल ने भारतीय दर्शन के सांख्य, योग, वेदान्त, न्याय-वैशेषिक, बोद्ध तथा जैन इन छः सिद्धान्तों का सम्यग् अध्ययन किया था ।
अन्य शास्त्र धर्मशास्त्र
तिलकमंजरी में धर्मशास्त्र एवं उससे सम्बन्धित अनेक उल्लेख प्राप्त
1. .."बालदशबलनीलच्छदकलापाच्छादिताभिः... -वही, पृ. 245 2. दानं शीलं क्षमाऽचौर्य ध्यानप्रज्ञाबलानि च उपायः प्रणिधिनिं दश बुद्धबलानि वे॥
-वही, पराग टीका भाग 3, पृ. 148 3. अर्द्धदर्शनस्थितिरिव नैगमव्यवहाराक्षिप्तलोका, -तिलकमंजरी, पृ. 11 4. माधवाचार्य, सर्वदर्शनसंग्रह, पृ. 104 5. शर्मा, रामनाथ, भारतीय दर्शन के मूल तत्व, पृ. 96
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तिलकमंजरी, एक सांस्कृतिक अध्ययन
होते हैं । मेघवाहन के मन्त्रिगणों को धर्मशास्त्र का ज्ञाता कहा गया है । 1 स्वयं मेघवाहन धर्म के प्रति पक्षपात रखने के कारण यज्ञादि कर्मों में धर्माधिकारी का स्थान ग्रहण करता था । मेघवाहन की आज्ञा मात्र राज्य में अन्याय का विरोध करती थी, उसके धर्माधिकारी तो धर्म की शोभा थे । पुरुषार्थ का उल्लेख किया गया है । धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष पुरुषार्थंचतुष्टय माने गये । प्रथम पुरुषार्थ धर्म का उल्लेख किया गया है। 5
76
देव ऋण, ऋणि ऋण तथा पितृ ऋण इन तीनों ऋणों का संकेत मिलता है | यज्ञ के द्वारा देव ऋण से, वेदाध्ययन के द्वारा ऋषि ऋण से तथा पुत्रोत्पत्ति द्वारा पितृ ऋण से मुक्ति प्राप्त होती है ।
धर्म, अर्थ तथा काम को त्रिवर्ग कहा जाता है । इस त्रिवर्ग का उल्लेख किया गया है | 7
जन्म के दसवें दिन नामकरण संस्कार का उल्लेख किया गया है, किन्तु एक अन्य प्रसंग में जन्म के ग्यारहवें दिन नामकरण संस्कार निष्पन्न करने का उल्लेख है । 'पारस्कर गृह्यसूत्र के अनुसार दसवें दिन नामकरण का विधान किया गया है - 'दशम्यामुत्थाय पिता नाम कुर्यात्' । मनुस्मृति में भी कहा गया है कि जन्म के दसवें अथवा बाहरवें दिन पुत्र का नामकरण करना चाहिए - 'नामधेयं दशम्या तु द्वादश्यां वास्य कारयेत् ।' जन्म के ग्यारहवें अथवा बारहवें दिन भी नामकरण का विधान है - 'एकादशे द्ववादशे वा पिता नाम कुर्यात् |' नामकरण
1. सचिवलोकोऽपि श्रुतत्वाद्धर्मशास्त्राणाम् .....
- तिलकमंजरी, पृ. 20
2. धर्मपक्षपातितया च द्वेवद्विजातितपस्विजनकार्येषु महत्सु कार्यासनं भेजे ।
3.
4.
5.
6.
7.
8.
9.
आज्ञवान्यायं न्यषेधयद्धर्मो धर्मस्थेयाः, सकलपुरुषार्थसिद्धिभिरिव ........
मन्थरितप्रथमपुरुषार्थसामर्थ्ये "
- वही, पृ. 19
- वही, पृ. 15 —वही,
9
पू.
- वही, पृ. 297
'राजन् ! अध्वरस्वाध्यायविधानादानृण्यं गतोऽसि नः । पितॄणामपि गच्छ' इति याचितप्रसूतेरिव प्रादुर्भूतधर्मवासनया संविहितैर्देवर्षिभिः,
- वही, पृ. 20
अनयास्माकमविला त्रिवर्गसम्पत्तिः,
- तिलकमंजरी, पृ. 28
समागते च दशमेऽह्नि कारयित्वा " "हरिवाहन इतिशिशोर्नमि चक्र |
वही, पृ. 78
अतिक्रान्ते च दशमेऽन्हि ....... मलय सुन्दरीति मे नाम कृतवान् ।
-वही, पू. 263
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धनपाल का पाण्डित्य
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पर ब्राह्मणों को गोदान एवं स्वर्णदान देने का वर्णन किया गया है ।। नामकरण के अतिरिक्त अन्नप्राशन तथा उपनयन संस्कार वेदोक्त विधि से सम्पन्न किये गये थे । उसका छठे वर्ष में उपनयन संस्कार किया गया था ।
गन्धर्व-विवाह का उल्लेख आया है। मलयसुन्दरी की माता गन्धर्वदत्ता का कुसुमशेखर के साथ गान्धर्व-विधि से विवाह सम्पन्न हुआ था। इसी प्रकार तारक का प्रियदर्शना से गान्धर्व-विवाह हुआ था । इसी प्रसंग में प्रतिलोभ विवाह का भी उल्लेख आया है। वैश्य पुत्र तारक का विवाह शद्र कन्या प्रियदर्शना के साथ हुआ था क्योंकि दुष्कुल से भी सुन्दर कन्यारत्न का ग्रहण करना शास्त्रानुकूल है।'
पितरों को निवाप-दान देने का अनेक बार उल्लेख आया है । निवा. पाज्जलि तिलोदक से दी जाती थी। पित-तर्पण का भी वर्णन आया है।10 पंचमी-श्राद्ध सम्पन्न करने का उल्लेख किया गया है ।
याज्ञवल्क्य-स्मृति में ब्रह्मचारी द्वारा ब्रह्मसूत्र धारण करने का विधान किया गया है-दण्डाजिनोपवीतानि मेखला चैव धारयेत् (1/29)। विद्याधरमुनि
1. दत्त्वासमारोपिताभरणाः सवत्साः सहस्रो गाः सुवर्ण च......
-वही, पृ. 78 2. अखिलवेदोक्तविधिना......"निवतितान्नप्राशनादिकसलसंस्कारस्य.......
-वही, पृ. 78 3. अवतीर्णं च षष्ठे ......"उपनिन्ये च तेभ्य:........ -वही, पृ. 78-79 4.. तामुपयम्यसम्यग्विहितेन विवाहविधिना गान्धर्वेण ........
-तिलकमंजरी, पृ. 343 5. वही, पृ. 129 स्वजातिनिरपेक्षस्तत्रव........
-तिलकमंजरी, पृ. 129 7. 'दुष्कुलादपि ग्राह्यमंगनारत्नम्' इत्याचार्यवचनम् ....... -वही, पृ. 129 (क) वत्स, निवापदानरिदानीमायुष्मतासंभाविता स्मः..."पितृभिः,
-वही. पृ. 20 (ख) दशरथात्मजेन......"निवापांजलिः,
- वही, पृ. 135 (ग) निवापसलिलांजलिभिव प्रदातुम् ....... -वही, पृ. 409 9. दत्त्वा संगरसमाप्तप्राणेभ्यो......."तिलोदकं निवापांजलिम्........
वही, पृ. 97 10. पुण्यासु कृष्णचतुदर्शीषु दुविधतक्षत्रियनरेन्द्रनिहतस्य"....."करोमि तर्पणम् ।
-वही, पृ. 51 11. उपकल्प्यमानपंचमीश्रादम्,
- वही, पृ. 64
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तिलकमंजरी, एक सांस्कृतिक अध्ययन
1
ने ब्रह्मसूत्र धारण किया था व्रतावस्था में राजा मेघवाहन कुश- शय्या पर शयन करते थे । 2 नैष्ठिक का उल्लेख किया गया है । 3
78
धर्मशास्त्र में दान का अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान है । तिलकमंजरी में ब्राह्मणों को दान देने का अनेक स्थानों पर उल्लेख है । श्रोत्रियों को दान में दी गई सवत्सा गायों से राजकुल की बाह्यकक्षा भर गई थी। 2
अपराधी व्यक्ति को दण्डित करने के लिए धर्मशास्त्रप्रणीत निग्रहविधियोंका उल्लेख है, जिनमें हाथ पैर काटना, देश निकाला तथा गधे पर बैठाकर घुमाना ये प्रमुख हैं 5
चान्द्रायण व्रत का उल्लेख मिलता है । " पुत्र की कामना से अनेक प्रकार के व्रत धारण करने वाली अन्त:पुर की नारियों का वर्णन प्राप्त होता है । 7 शिशुजन्म पर षष्ठी देवी की पूजा का विधान किया गया है । हरिवाहन के जन्म पर षष्ठी की पूजा की गई थी। इसी प्रकार जातमातृपटल का लेखन तथा आय वृद्धा देव की पूजा का उल्लेख किया गया है । 10 पुत्र जन्म के छठे दिन रात्रि जागरण करने का वर्णन मिलता है । II गायत्रीमन्त्र के जप का उल्लेख है । 3
1.
2.
3.
4.
5.
"प्रकटोपलक्षमाणब्रह्मसूत्राम्,
- तिलकमंजरी, पृ. 24
-- वही, पृ. 61.
वही, पृ. 34
प्रकल्पितं कुशतल्पमगात् । प्रतिपन्ननैष्ठिकोचित क्रियः
वही, पृ. 64
यदीदृशेऽप्यपराधे नैनमन्यायकारिणं करचरणकल्पनेन वा स्वदेश निर्वासनेन वा रामसमारोपणेन वान्येन वा धर्मशास्त्रप्रणीत नीतिना निग्रहणेन विनयं ग्राहयति । - तिलकमंजरी, पृ. 112
चान्द्रायणादिविविधव्रतविधिः
- वही, पृ. 345
6.
7. पुत्रकाम्यन्तीभिरन्तः पुरकामिनीविधीयमानविविधव्रतविशेषम्,
- वही, पृ. 65
8. मातृकासु पूज्यतमा सा च षष्ठी प्रकीर्तिता
शिशूनां प्रतिविश्वेषु प्रतिपालनकारिणी । तपस्विनी विष्णुभक्ता कार्तिकेयस्य कामिनीम् । - वही, पराग टीका, भाग 2, पृ. 185 -वही, पृ. 77
9. आहरत भगवतीं षष्ठीदेवीम्,
10. आलिखत जातमातृपटलम् आरभध्वभार्यवृद्धासपर्याम्,
11. अतिक्रान्ते च षष्ठीजागरे,
- तिलकमंजरी, पृ. 77 वही, पृ. 78
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धनपाल का पाण्डित्य
पंचाग्नि तप का उल्लेख है । अन्य पारिभाषिक शब्दों का उल्लेख किया गया है ।
आयुर्वेद
तिलकमंजरी में आयुर्वेद का उल्लेख किया गया है । आयुर्वेद में पारंगत वैद्य हरिवाहन की देखभाल करते थे । इसके अतिरिक्त सन्निपात नामक व्याधि । मेघवाहन ऐश्वर्य रूपी सन्निपात से व्यामोरोगों में प्रमुख कहा गया है । सन्निपात
का उल्लेख अनेक बार किया गया हित नहीं था । सन्निपात ज्वर को ज्वर में मृत्यु की प्राप्ति का उल्लेख किया गया है । 7
महापातक' तथा दिव्य आदि धर्मशास्त्र सम्बन्धी
गलग्रह नामक रोग का संकेत मिलता है । चरक के अनुसार जिस मनुष्य का कफ स्थिर होकर गले के अन्दर ठहरा हुआ शोथ उत्पन्न करता है, उसे गलग्रह हो जाता है ।
1.
2.
3.
4.
5.
6.
7.
79
बहुगुल्म नामक उदर रोग उपवर्णित किया गया है | 10 गुल्म हृदय तथा नाभि के बीच में संचरणशील अथवा अचल तथा बढ़ने घटने वाली गोलाकार ग्रंथि को कहते हैं । II आयुर्वेद में गुल्म के पांच भेद बताये गये हैं- ( 1 ) वातज (2) पित्तज (3) कफज (4) त्रिदोषज तथा रक्तज 112 यहां वातज गुल्म की ओर संकेत है।
8.
9.
राजयक्ष्मा जिसे आजकल टी. बी. कहते हैं, का उल्लेख आया है | T
8
वही, पृ. 257
पंचतपः साधनविधान संलग्नैः
वही, पृ. 12,253
वही, पृ. 15 सर्वायुर्वेदपारगैभिषम्भि....... अजड़ीकृतः परमैश्वर्यसन्निपातेन, सन्निपातज्वरपुर: सरारोगा : .... दत्तदीर्घनिद्रा महासन्निपाताः, तिमीनां गलग्रह,
.................
10. यस्य श्लेष्मा प्रकुपितस्तिष्ठत्यन्तर्गले स्थिरः । आसु संजनयेच्छोथं जायतेऽस्य गलग्रहः ।। 11. वात रोगोपहत्तमिव बहुगुल्मसंकुलोदरम्, 12. भावप्रकाश, भाग 2, श्लोक 5 13. वही, श्लोक 1
14. सकल विपक्ष राजराज्यक्ष्मा''''''
वही, पृ. 236
-वही, पृ. 78 वही, पृ. 14 - वही, पृ. 376 वही, पृ. 89 तिलकमंजरी, पृ. 15
- चरकसंहिता, 18/22 - तिलकमंजरी, पृ 212
- तिलकमंजरी, पृ. 163
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तिलकमंजरी, एक सांस्कृतिक अध्ययन
तिलकमंजरी में गणित का संख्यान शास्त्र के नाम से अभिहित किया गया है। रेखा गणित का संकेत भी दिया गया है । रेखा गणित के लिए क्षेत्रगणित शब्द प्रचलित था । रेखा गणित में प्रयुक्त लम्ब, मुज तथा कर्ण शब्दों का उल्लेख है। संगीत
तिलकमंजरी में संगीत सम्बन्धी विषयों एवं शब्दों का बहुलता से प्रयोग हुआ है । इसमें संगीत के लिए गीतशास्त्र तथा संगीतज्ञ के लिए गान्धर्विक उपाध्याय शब्दों का प्रयोग किया गया है । संगीत की गोष्ठी का उल्लेख किया गया है तथा गायक को गाथक कहा गया है ।
'संगीतकम्' शब्द का दो बार प्रयोग किया गया है । गीत, नृत्य तथा वाद्य इन तीनों को संगीतक कहते हैं
'गीतनृत्यवायत्रयं प्रेक्षणार्थे कृतं संगीतकमुच्यते'
राग शब्द का अनेक बार प्रयोग किया गया है (पृ. 18, 70, 186) विशिष्ट रागों में पंचम तथा गान्धार का उल्लेख किया गया है। पंचम राग को सर्वश्रेष्ठ कहा गया है । जिसमें नाभि से उठकर वायु वक्ष, हृदय तथा कण्ठ में विचरण करती हुई मध्यम स्थान को प्राप्त होती है उसे पंचम राग कहते हैं ।
1. संख्यानशास्त्रेणेव नवदशालंकृतेन.......
-वही, पृ. 229 2. क्षेत्रगणितमिव लम्बमुजकर्णोद्भासितम्,
-वही, पृ. 24 3. गीतशास्त्रपरिज्ञानदूरारूढगर्वर्गान्धर्विकोपाध्यायः.......
- तिलकमंजरी, पृ. 70 4. (क) ... गीतगोष्ठीस्वरविचारा, -वही, पृ. 41 तथा 184
(ख) वही, पृ. 18, 174 5. आनतितशिखण्डिना दत्तमार्जनमृदंगस्तनितगम्भीरेण स्वरेण संगीतकमिव प्रस्तावयन्""""
-वही, पृ. 34 तथा 268 6. वही, पृ. 70, 57, 42 7. पंचमश्रुतिमिव गीतीनाम्,
-वही, पृ. 159 8. वायुः समुत्थितो नाभेरूरोहत्कण्ठभूर्धसू ।। विचरन् मध्यमस्थानप्राप्त्या पंचम उच्यते ।।
-तिलकमंजरी, पराम टीका, भाग 2, पृ. 172
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धनपाल का पाण्डित्य
स्वर का अनेक स्थानों पर उल्लेख है (41, 227, 372 ) । पंचम एवं षड्ज स्वरों का उल्लेख किया गया है । जो श्रुति के बाद हों तथा अनुरणात्मक श्रोत्राभिराम और रंजक हो, उसे स्वर कहते हैं । 2 स्वर सात हैं – षड्ज, ऋषभ, गान्धार मध्यम, पंचम, धैवत तथा निषाद | 3
गीत का अनेकधा उल्लेख किया गया है । राग या जाति, पद, ताल तथा मार्ग - इन चार अंगों से युक्त गान गीत कहलाता है । 4 ग्राम शब्द अनेक बार प्रयुक्त हुआ है (186, 42, 57, 70 ) । ग्राम स्वरसंघात विशेष को कहते हैं । गान्धार - ग्राम का उल्लेख किया गया है । " मूर्च्छना' शब्द अनेक बार प्रयुक्त हुआ है (पृ.57, 120, 42 ) । गीति शब्द का उल्लेख हुआ है। 8 स्थायी, आरोही तथा अवरोही वर्णों से एवं लय से युक्त गान-क्रिया गीति कहलाती है । केका-गीति का
अलंकृत पद उल्लेख आया काकली - गीत, 13
है । इसके अतिरिक्त आरोह तथा अवरोह, 11 ताल तथा लय 12
1.
2.
3.
4.
5.
6.
7.
8.
9.
10.
(क) सूच्यमान पंचमस्वरप्रवृत्तिः "" (ख) क्रियमाणषड्जस्वरानुवाद इव...... (ग) षड्जादिस्वरविभागनिर्णयेषु "" संगीत दर्पण, प्रथम खण्ड, 1/57 षड्ज ऋषभगान्धारो मध्यमः पंचमस्तथा । धैवतश्च निषादश्च स्वराः सप्त प्रकीर्तिताः ॥
....
81
- तिलकमंजरी, पृ. 227
- वही, पृ. 227 -वही, पृ. 363
- संगीतादामोदर, तृतीय स्तबक, पृ. 30 कैलाशचन्द्र देव, भरत का संगीत सिद्धान्त, पृ. 250 यथा कुटुम्बिनः सर्वेऽप्येकीभूता भवन्ति हि । तथा स्वराणां सन्दोहो ग्राम इत्यभिधीयते ॥
-तिलकमंजरी, पराग टीका, भाग 1, पू. 120
तिलकमंजरी, पू. 42, 57 स्वर समूच्छितो यत्ररागतप्रतिपद्यते । मूर्च्छानाभिति तां प्राहु कवयो ग्रामसम्भवाम् ॥
— तिलकमंजरी, पराग, भाग 2, 120 कल्पतरुतलनिषण्ण किन रारब्धगान्धारग्रामगीतिरमणीयेषु,
11. कृतारोहावरोहयादृष्टया तां व्यभावयत् वही, पृ. 142
12.
1.3.
किनरकुलानां काकली गीत माकर्षयति,
कैलाशचन्द्र देव : भरत का संगीत सिद्धान्त, पृ. 245 विनोदयितुमिव .....मधुर के कागीतिभिः '
- तिलक मंजरी, पृ. 57
- तिलकमंजरी, पू. 180 - वही, पृ. 162
- वही, पृ. 169
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तिलकमंजरी, एक सांस्कृतिक अध्ययन
गमक, श्रुति, तान आदि संगीत के पारिभाषिक शब्दों का प्रयोग हुआ है। सात स्वरों से उनपचास प्रकार की तानों की उत्पत्ति होती है। जहां मूर्च्छना के प्रयोग के लिए विस्तार किया जाय उसे तान कहते हैं । चित्रकला
- तिलकमंजरी में चित्रकला से सम्बन्धित अनेक उल्लेख आए हैं तथा इनसे यह प्रमाणित होता है कि उस युग में यह कला अपने सर्वोत्कर्ष पर थी। चित्रकला को आलेख्यशास्त्र तथा चित्रविद्या कहा गया है तथा चित्रविद्या के शिक्षक को चित्रविद्योपाध्याय कहा है । हरिवाहन ने चित्रकला में विशेष निपु. णता प्राप्त की थी। हरिवाहन तिलकमंजरी के चित्र-दर्शन से ही उस पर आसक्त हो गया था। हरिवाहन ने गन्धर्वक लिखित तिलकमंजरी के चित्र की, चित्रकला की दृष्टि से सम्यक समीक्षा की थी। चित्र लेखन में चित्त की एकाग्रता अत्यन्त आवश्यक है।
चित्रलेखा चित्रकला में अत्यन्त प्रवीण थी, अतः तिलकमंजरी की माता पत्रलेखा ने उसे सुन्दर आकृति वाले राजकुमारों के विद्ध चित्र बनाने का आदेश दिया था ।10 विद्ध एवं अविद यह चित्रकला के दो प्रकार थे। विद्ध चित्र वे होते थे, जिनमें वस्तु का यथार्थ चित्रण होता था। हरिवाहन के चित्रपट पर लिखित विद्ध रूपों का राजकन्यायें अपहरण करा लेती थीं।11 मलयसुन्दरी ने
1. स्पष्टमूर्छनागमकरचितम् ........
-वही, पृ. 186 2. पंचमश्रुतिमिव गीतीनाम्,
-वही, पृ. 159 3. कलमविकलग्रामतानम्"
-वही, पृ 186 4. विस्तार्यन्ते प्रयोगायमूर्च्छना शेषसंश्रया। तानास्तेऽप्यूनपंचाशत् सप्तस्वरसमुद्भवा ।'
- तिलकमंजरी, पराग टीका, भाग, 3 पृ. 41 5. तिलकमंजरी, पृ. 177 6. विशेषतश्चित्रकर्माणि वीणावाचे च प्रवीणताप्राप। -तिलकमंजरी पृ. 79 7. वही, पृ 162 8. वही, पृ. 166
किं पुनश्विन्तकाग्रतातिशयनिर्वर्तनीयचित्रम। -वही, पृ. 171 10. त्वंहि चित्रकर्मणि परं प्रवीणा । ... ..."चित्रकौशलदर्शनव्याजेन दर्शय
निसर्गसुन्दराकृतीनाभवनिगोचरनरेन्द्रप्रदारकाणां यथास्वमङ्कितानि नामामिर्यथावस्थितानि विद्धरूपाणि ।
-वही, पृ. 170 11. "द्वीपान्तरमहाराज"चित्रफलकारोपितो विडस्पो" कुमारः ।
-वही, पृ. 163
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धनपाल का पाण्डित्य
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समरकेतु को एक बार देख लेने के बाद ही उसका चित्र बना लिया था । कांची नगरी में आकर समरकेतु ने सुन्दरी राजकन्याओं के विद्ध रूपों का अवलोकन किया था।
चित्रकला में विदग्धता के लिए चित्रगति शब्द प्रयुक्त हुआ है । चित्रलेखन में प्रयुक्त नीले, पीले एवं पाटल वर्गों का उल्लेख किया गया है । अंगुलीयक के रस्नों से निकलने वाली नीली, पीली तथा पाटल वर्ण की द्युति से आकाश में मानो वह (गन्धर्वक) राजपुत्र को प्रसन्न करने के लिए दूसरा ही चित्र-निर्माण कर रहा था । चित्र में विभिन्न रंगों का यथोचित समायोजन किया जाता था ।। तिलकमंजरी स्वयं चित्रकला में अत्यन्त प्रवीण थी, अतः मलयसुन्दरी ने हरिवाहन को तिलकमंजरी से चित्रकला के विषय में प्रश्न करने का अनुरोध किया । सामुद्रिकशास्त्र
सामुद्रिकशास्त्र के ज्ञाता को सामुद्रविद् कहा गया है। तिलकमंजरी की प्रस्तावना में भोज के चरणों को सरोज, कलश, छत्र इत्यादि चिह्नों से युक्त कहा गया है। निम्नलिखित चिह्नों से युक्त व्यक्ति को राजा कहा गया हैछत्रं तामरसं धनू रथवरो दम्भोलिकूर्माऽङ्क शा वापीस्वस्तिकतोरणानि च सरः पंचाननः पादपः । चक्रं शङ्खगजोसमुद्रकलशोप्रासादमत्स्यायवा यूपस्तूपकमण्डलून्यवनिभृत् सच्चामरो दर्पणः ।। भोज को ही लम्बी और मांसल भुजाओं वाला कहा गया है ।10 सामुद्रशास्त्र में दीर्घ भुजाओं को प्रशस्त माना गया हैं।
1. यथादृष्टमाकारं तस्य नृपकुमारस्य संचार्य चित्रफलके........
-वही, प. 296 2. राजकन्यानां विद्धरूपाण्यादरप्रवर्तितः........ -वही, पृ. 322 3. तिलकमंजरी, पृ. 165 4. नीलपीतपाटलः..."चित्रकर्मनर्मनिर्माणभम्बरेकुर्वाणः -वही, पृ. 164 5. यथोचितमवस्थापितवर्णसमुदाया.......
-वही, पृ. 166 6. वही, पृ. 363 7. अवितथादेशसामुद्रविदाख्यातप्रसवलक्षणानां........ -बही, पृ 64 8. वही, पृ. 6
तिलकमंजरी, पराग टीका, भाग 1, पृ. 36 10. वही, पृ. 6 11. बाहूवामविवलितो वृत्तावाजानुलम्बितो पीनी । पाणी फणछत्राको करिकरतुल्यो समौ नृपतेः॥
-सामुद्रिकशास्त्र, पृ. 34
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तिलकमंजरी, एक सांस्कृतिक अध्ययन
प्रशस्त रेखाओं से युक्त ललाट का वर्णन किया गया है। छत्र के आकार के सिर का उल्लेख हुआ है।
__मेघवाहन चक्रवर्ती के चिह्नों से युक्त था तथा उसका वक्षस्थल श्रीवृक्ष से चिहिन्त था । दण्ड, अंकुश, चक्र, धनुष, श्रीवत्स, वन तथा मत्स्य ये चक्रवर्ती के चिह्न कहे गये हैं
दण्डाकुशो चऋचापो श्रीवत्सः कुलिशं तथा ।
मत्स्यश्चतानि चिह्नानि कथ्यन्ते चक्रवतिनाम् ॥4
हरिवाहन चक्रवर्तित्व के समस्त लक्षणों से युक्त था। दाहिने हाथ में कमल, शंख तथा छत्र के चिह्न प्रशस्त माने गये हैं। अंगूठे के मूल की स्थूल रेखाओं से संतान विषयक ज्ञान प्राप्त होने का वर्णन किया गया है। तिलक. मंजरी के पदचिन्हों का अत्यन्त सुन्दर वर्णन किया गया है। उसकी पादपंक्ति शास्त्रोक्त प्रमाणयुक्त तथा कोमलावयवों से युक्त थी। वह कमल, चक्र, चामर तथा छत्रादि के सदृश निरन्तर गम्भीर प्रशस्त रेखाओं से अंकित थी। साहित्यशास्त्र
तिलकमंजरी में साहित्यशास्त्र सम्बन्धी अनेक विषयों का उल्लेख प्राप्त होता है। प्रसाद, ओज तथा माधुर्य, काव्य के इन तीन गुणों का उल्लेख किया गया है । सुकवि की वाणी रीत्यानुसार प्रसाद गुण से युक्त कही गई है । ओज
1. अतिप्रशस्तललितललाटलेखाक्षरम्"" -तिलकमंजरी, पृ. 51 2. छत्रसदृशाकार...
-वही, पृ. 51 3. (क) चक्रवतिलक्षणः स खलु"राजा मेघवाहनः, -वही, पृ. 39 (ख) पृथुश्रीवृक्षलांछिते वक्षसि..."
-वही, पृ. 39 हर्षचरित, रंगनाथ की टीका स्फुटविभाव्यमानसकलचक्रवर्तिलक्षणाम्"." तिलकमंजरी, पृ. 77 श्लाघ्यशतपत्रशंखातपत्रलक्षणो दक्षिणपाणिः ।
-वही, पृ. 175 7.. (क) अंगुष्ठकादिप्रश्नं प्रति प्रवर्तयता.
-वही, पृ. 64 (ख) गृहीतवामकरतलांगुष्ठमूलस्थूलरेखासंख्यानाम्..
-वही, पृ. 64 आगमोक्तप्रमाणप्रतिपन्नसकलसुकुमारावयवामब्जचक्रचामरच्छत्रानुकाराभिरनल्पबहुमिरविच्छिन्ननिम्नाभि "प्रशस्तलेखाभिः...
-तिलकमंजरी, पृ. 245 9. सुकविवाचमिव मार्गानुसारिप्रसन्नदृष्टिपाताम्...
-वही, पृ. 24
8.
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घनपाल का पाण्डित्य
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तथा प्रसाद गुण का उल्लेख मिलता है। मदिरावती के वर्णन में अलंकार एवं माधुर्य गुण का उल्लेख आया है। विरतिभंग नामक काव्य-दोष का उपनिबन्धन किया गया है। राजा मेघवाहन द्वारा कण्ठछेद के प्रसंग में शोक तथा जुगुप्सा नामक स्थायिभावों का उल्लेख आया है। स्वेद, वैवर्ण्य, वेपयु, स्तम्भ आदि सात्विक भावों का वर्णन किया गया है । अमर्ष, मद, हर्ष, गर्व उग्रतादि व्यभिचारी भावों का निर्देष किया गया है।
हरिवाहन, समरकेतु तथा उनके मित्रों ने मत्तकोकिल उद्यान में काव्यगोष्ठी का आयोजन किया, जिसमें प्रमुखत: चित्रालंकारों का विवेचन किया गया था। इस प्रसंग में साहित्यशास्त्र सम्बन्धी अनेक पारिभाषिक शब्दों का उल्लेख किया गया है। उस गोष्ठी में विद्वानों की सभा में प्रसिद्ध पहेलियां बूझी गई। प्रहेलिका का एक अन्य स्थान पर भी उल्लेख किया गया है। उसी गोष्ठी में बिन्दुच्युतक, मात्राच्युतक, अक्षरच्युतक श्लोकों की विवेचना की गयी।10 बिन्दुच्युतक में बिन्दु के हटा दिये जाने पर, मात्राच्युतक में मात्रा हटाने पर तथा अक्षरच्युतक में अक्षर हटाने पर दूसरे अर्थ की प्रतीति होने लगती है। बिन्दुमती
1. (क) प्रसत्तिमिव काव्यगुणसम्पदाम्,
-वही, पृ. 159 (ख) ओजस्विभिरपि प्रसन्न :....
-वही, पृ. 10. (ग) समस्तानेकपदाअप्योजस्वितां विजहुः,
-वही, पृ. 15 उज्झितालंकारामप्यकृत्रिमेणकान्तिसुकुमारतादिगुणपरिगृहीतेनांगमा धुर्येण
सुकविवाचमिव सहृदयानां हृदयमावर्जन्तीम्""" -वही, पृ. 71 3. कुकविकाव्येषु यतिघ्रशदर्शनम्,
-वही, पृ. 15 4. अथ भीमकर्मावलोकन""स्थायिभिरिव शोकमयजुगुप्साप्रभृतिभिः...
-वही, पृ. 53 5. असाधारणधैर्यशिनादाहितव्रीडैरिव सात्विकैरपि स्वेदववर्ण्यवेपथुस्तम्भारिटभिरपास्तसंनिधिः,
-वही, पृ. 53 अव्याजसाहसावजितमनोवृत्तिभिरिव व्यभिचारिभिः "भावः,
-वही, पृ. 53 7. चित्रपदभङ्गसूचितानेकसुन्दरोदारार्था प्रवृत्ता कथंचित्तस्य चित्रालंकारभूयिष्ठाकाव्यकोष्ठी।
-तिलकमंजरी, पृ. 108 8. तत्र च पठ्यमानासु विद्वत्सभालब्धख्यातिषु प्रहेलिकाजातिषु..
-वही, पृ. 108 9. वही, पृ. 394 10. बिन्दुमात्राक्षरच्युतकश्लोकेषु'
-वही, पृ. 108
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तिलकमंजरी, एक सांस्कृतिक अध्ययन
का उल्लेख भी आया है । बिन्दुमती में श्लोक के व्यंजनों के स्थान पर बिन्दु रख दिये जाते हैं और अ को छोड़कर अन्य स्वरों के चिह्न लगा दिय जाते हैं। इसमें बिन्दुओं और स्वरों के चिह्नों की सहायता से श्लोक बनाया जाता है । इन सबके उदाहरण धर्मदाससूरि के विदग्धमुखमंडन में प्राप्त होते हैं। गोष्ठी में विविध प्रकार के बुद्धिकौशल से युक्त प्रश्नोत्तर किये गये । प्रश्नोत्तर का अन्यत्र भी उल्लेख आया है। गूढचतुर्थपाद का उल्लेख एक परिसंख्या अलंकार द्वारा किया गया है। गूढचतुर्थपाद में श्लोक के तीन चरणों में चतुर्थ चरण छिपा रहता है।
. वैदर्मी रीति तथा जाति अलंकार का उल्लेख भी आया है ।। अर्थशास्त्र
- अर्थशास्त्र का अनेक बार उल्लेख किया गया है। सेनापति वज्रायुध ने अर्थशास्त्र में निष्णात अमात्यों से परामर्श कर कांची की और प्रस्थान किया था। मेघवाहन के अमात्यवर्ग ने समस्त नीतिशास्त्रों का सम्यग् अध्ययन किया था । समरकेतु ने नीतिविद्या का सम्यक अध्ययन किया था। समुद्र-यात्रा के प्रसंग में समरकेतु के मुख से धनपाल ने अर्थशास्त्र पर तीक्ष्ण व्यंग्य किया है। समरकेतु ने अपने कर्णधार तारक से कहा कि वह अर्थशास्त्र सम्मत मार्ग से प्रयाण के प्रतिबन्धक देशकालादि कारणों को विघ्न की आशंका से भयभीत मंत्री के समान अकारण ही न दर्शाये । इसी प्रकार समरकेतु कहता है कि फलाभिलाषी
1. वही, पृ. 394 2. चिन्त्यमानेषु मन्दमतिजनितनिवेदेषु प्रश्नोत्तरप्रमेदेषु"
-वही, पृ. 108 3. कदाचित्प्रश्नोत्तरप्रवहिलकायमकचक्रबिन्दुमत्यादिभिश्चित्रालंकारकाव्यः प्रपंचितविनोदः,
-वही, पृ. 394 4. गूढचतुर्थानां पादाकृष्टयः, . -तिलकमंजरी, पृ. 15 (क) वैदभीमिव रीतीनाम्, .
-वही, पृ. 159 (ख) जाति मिवालंकृतीनाम्,
- -वही, पृ. 159 6. सेनापतिरर्थशास्त्रपरामर्शपूतमतिमिरमान्यः सहकृतकार्यवस्तुनिर्णयः....।
-वही, पृ. 82 विदितनिः शेषनीतिशास्त्रसंहतेः....
-वही, पृ. 16 अधीतनीतिविधम्...
__-वही, पृ. 114 9. मैकान्ततो विनिपातमीमन्त्रीव यात्राभियोगभंगार्थमर्थशास्त्रप्रदर्शितेन वर्मना देशकालसहायवैकल्यादीनि कारणान्यकारणमेव दर्शय ।
-वही, पृ. 143
8.
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धनपाल का पाण्डित्य
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पुरुष को सदा अनिवार्यतः नीति का पालन नहीं करना चाहिये । विधि के सहायक होने पर साहसी पुरुष की अनीति भी फल प्रदान करती है । राजा मेघवाहन ने नीतिशास्त्र में विशेष अध्ययन किया था। समरकेतु को सुविदित दण्डनीतेः' (पृ. 102) कहा गया है । दण्डनीति को राजा की प्रतीहारी के समान बताया गया है । नीतिशास्त्र को बुद्धि को तीक्ष्ण करने वाली कसौटी कहा गया है। दो स्थानों पर राज्यनीति का उल्लेख किया गया है। राज्यनीति के समान उसमें वर्ण एवं समुदाय को यथाविधि स्थापित कर दिया गया था । राज्यनीति में सत्री अर्थात् गुप्तचर के द्वारा परराष्ट्र के समाचार देने पर धन की प्राप्ति होती थी। नीतिमार्ग को तीन शक्तियों से अधिष्ठित कहा गया है । ये तीन शक्तियां प्रभाव, उत्साह तथा मन्त्र हैं ।
षड्गुणों का उल्लेख किया गया है। मेघवाहन षड्गुणों के प्रयोग में चतुर था।10 सन्धि, विग्रह, यान, आसन, द्वंघीभाव व मन्त्र ये छः गुण कहे गये है ।11 मेघवाहन ने चारों विधाओं में निपुणता प्राप्त की थी।12 ये चार विद्याएं बान्वीक्षिकी, त्रयी, वार्ता तथा दण्डनीति है । 13 एक अन्य प्रसंग में चौदह विद्याएं
1: फलामिलाषिणा पुरुषेण नकान्ततो नीतिनिष्ठेन भवितव्यम् ।
-तिलकमंजरी. पृ. 155 2. वही, पृ. 155 3. अनायासगृहीतसकलशास्त्रार्थयापि नीतिशास्त्रेषु ... -वही, पृ. 13 4. सन्निहितदण्डनीतिप्रतीहारीसमाकृष्टाभिः ...
-वही, पृ. 13 5. नीतिशास्त्रशाणनिशित निर्मलप्रज्ञा ।....
-वही, पृ. 262 6. राज्यनीतिरिव यथोचितमवस्थापितवर्णसमुदाया.. -वही, पृ. 166 7. राज्यनीतिरिव सत्रिप्रतिपाद्यमानवार्ताघिगतार्था... -वही, पृ. 11 8. (क) आयतिशालिनीमि: शक्तिभिरिव "नीतिमार्गेण - वही, पृ. 54
(ख) नीतिशास्त्रनित्यविहितासक्तिर्व्यक्त~क्तशक्तित्रयः" - वही, पृ. 167 9. तिसृमिः प्रभावोत्साहमन्त्ररूपैस्त्रिभि: कारणरूद्भूताभिः शक्तिमिरिव
तिलकमंजरी, पराग टीका, भाग 1, -पृ. 142 10. षानण्यप्रयोगचतुरः,
-तिलकमंजरी, पृ. 13 11. “सन्धिश्चविग्रहं यानमासनं च समाश्रयम् । द्वैधीभावं च संविद्यान्मन्त्र. स्यैतांस्तु षड्गुणान् ।"
-तिलकमंजरी, पराग टीका, भाग 1, पृ. 59 12. चतसृष्वपि विद्यासु लब्धप्रकर्षः,
तिलकमंजरी, पृ. 13 13. आन्वीक्षिकी त्रयी वार्ता दण्डनीतिश्च शाश्वती। विद्याश्चंताश्चतस्रस्तु लोकसंस्थितिहेतवः ।।
-तिलकमंजरी, पराग टीका, भाग I, पृ. 59
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तिलकमंजरी, एक सांस्कृतिक अध्ययन
कही गयी हैं । हरिवाहन ने दस वर्ष की अवस्था में सभी उपविद्याओं सहित चौदह विद्याओं का ज्ञान प्राप्त कर लिया था । षड्ङ्गों सहित चारों वेद, मीमांसा, आन्वीक्षिकी, धर्मशास्त्र तथा पुराण ये चौदह विद्याएं कही गयी हैं । । 2
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अर्थशास्त्र में सोलह वर्ष की आयुपर्यन्त विद्याध्ययन का विधान किया गया है । हरिवाहन ने सोलह वर्ष की आयु तक विद्याध्ययन किया था तथा षोडष वर्ष के पूर्ण होने पर मेघवाहन ने उसे अपने राजभवन में प्रविष्ट कराया। 3 समरनीति के अनुसार युद्ध में पराजित होने पर योद्धा अपने शस्त्र का त्याग कर देता है । 4 नीति के अनुसार युद्ध केवल दिन में ही होता था तथा रात्रि-युद्ध वीर क्षत्रियों के लिए हेय माना जाता था । रात्रि-युद्ध को सौप्तिक युद्ध कहते थे । 5 रात्रि युद्ध नीति के विरुद्ध माना गया है । "
कामशास्त्र
कामशास्त्र एवं कामशास्त्र सम्बन्धित विषयों का बहुलता से उल्लेख किया गया है । कामसूत्र का तीन बार उल्लेख आया है । 7 कामशास्त्र के लिए रतितन्त्र शब्द का भी प्रयोग मिलता है । मेघवाहन द्वारा रतिसमर के विस्तार का वर्णन किया गया है । दन्त-दशन, नखक्षत, कच-ग्रह तथा कर प्रहार आदि
1. दशभिरब्देश्चतुर्दशापि विद्यास्थानानि सह सर्वाभिरूपविधाभिर्विदांचकार । - तिलक मंजरी, पृ. 79 षडङ्गवेदाश्चत्वारो मीमांसाऽन्वीक्षिकी तथा । धर्मशास्त्रं पुराणं च बिद्या एताश्चतुर्दश ||
2.
3.
4. तिलकमंजरी, पृ. 93
5.
6.
7.
8.
9.
- तिलकमंजरी, पराग टीका भाग 2, पृ. 188 कारणाय .... - तिलकमंजरी,
अतिक्रान्ते षोडशे वर्षे हर्षनिर्भरो राजा विसर्जितं
क्षुद्रक्षत्रिय लोकसूत्रितः सौप्तिकयुद्धमार्गः ।
..... नायं क्रमो नयस्य,
(क) ''साक्षादिव कामसूत्र विद्यामि:, (ख) कामसूत्रपारगैरप्य विदित वैशिकः, (ग) कामसूत्रध्यात्मशास्त्रम्,
रतितन्त्रपरम्परापरामर्श रसिकमनसः "
वही, पृ. 17
पृ. 79
-वही, पृ. 94
-वही, पृ. 95
-वही, पृ. 10
वही, पृ. 10 - वही, पृ. 260
वही, पृ. 107
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धनपाल का पाण्डित्य
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कामशास्त्रोक्त क्रियाओं का वर्णन किया गया है ।1 नौ प्रकार की रतियों का उल्लेख आया है।
मत्त-कोकिल उद्यान में प्रवृत्त काव्य-गोष्ठी में मंजीर नामक बन्दीपुत्र ने ताडपत्र लिखित एक अनंग-लेख प्रस्तुत किया था। यह अनंग-लेख प्रस्तुत किया था। यह अनंग-लेख एक संक्षिप्त प्रेम-पत्र प्रतीत होता है, जिसमें विवाह के गुप्त स्थान का संकेत दिया गया है। प्रथम दर्शन से प्रेम का आविर्भाव तथा उससे उत्पन्न होने वाले विकारों का वर्णन मलयसुन्दरी एवं समरकेतु के प्रथम मिलन के प्रसंग में आता है ।
रतिकाल में व्यक्त स्त्रियों के शब्द विशेष "मणित" का दो बार उल्लेख आया है । वाजीकरण नामक कामशास्त्रोक्त पारिभाषिक शब्द का उल्लेख किया गया है। हरिवाहन समस्त चौसठ कलाओं में प्रवीण था । तिलकमंजरी ने समस्त कलाओं में निपुणता प्राप्त की थी।8 नाट्यशास्त्र
तिलकमंजरी में नाट्यशास्त्र तथा नाट्यशास्त्र सम्बन्धी विषयों के अनेकशः उल्लेख प्राप्त होते हैं, जो धनपाल के नाट्यशास्त्र से सम्बन्धित विस्तृत ज्ञान का परिचय प्रदान करते हैं । नाट्यशास्त्र के लिए नाट्यवेद शब्द का प्रयोग किया गया है। अयोध्या के नागरिकों को नाट्यशास्त्र का अभ्यस्त बताया गया है ।10 नट के लिए शैलूष शब्द का प्रयोग हुआ है ।11 नर्तक एवं नर्तकियों का अनेक बार उल्लेख किया गया है । नर्तकियों के लिए लासिकाजन शब्द भी प्रयुक्त
1. (क) निवेदयितुमिव दन्तच्छदछेदम्, · -वही, पृ. 278 तथा पृ. 17, 365 (ख) कथयितुमिव नखच्छेदवेदग्ध्यम्,
-वही, पृ. 278 (ग) प्रपंचयितुमिव ताडनक्रमम्, -वही, पृ. 278 तथा पृ. 15, 17 2. नवरतेषु बदरागामिरपि नीचरतेष्वसक्ताभिः,
वही, पृ. 10 3. वही, पृ. 108-9 4. निलकमंजरी, पृ. 277-81 5. (क) अतिशयितसुरतप्रगल्मकेरलीकण्ठमणितम्... -वही, पृ. 186
(ख) विदग्धकामिनीकेलिमन्दिरमिव मणिताराव... -वही, पृ. 215 वाजीकरणयोगोपयोगो व्याधिभेषजम्,
-वही, पृ 260 7. प्रथमसूनुविकलचतुःषष्टिकलाश्रयतया...
-वही, पृ. 362 8. लब्धपताका कलासु सकलास्वपि कौशलन बत्सा" -वही, पृ. 363 9. तिलकमंजरी, पृ. 18 तथा 270 10. अभ्यस्तनाट्यशास्त्ररप्यदर्शितभूनेत्रविकारः,
-वही, पृ. 10 11. रंगशाला रागशैलूषस्य,
-वही, पृ. 23
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तिलक मंजरी, एक सांस्कृतिक अध्ययन
हुआ है । 1 ताण्डव एवं लास्य नृत्य की इन दोनों विधियों का अनेकधा उल्लेख किया गया है । नाट्यशास्त्र सम्बन्धी रंगशाला 3 नाट्यशाला, रंगभूमि, 5 प्रेक्षाविधि, प्रेक्षानृत्य, 7 नान्दी, 8 आदि पारिभाषिक शब्दों के अनेक उल्लेख आये हैं । स्वर्ग में स्वयं भरतमुनि द्वारा प्रणीत दिव्य प्रेक्षाविधि का सजीव चित्रण किया गया है । उन्नत प्रासाद की नाट्यशाला में रंगभूमि रचित कर स्वयं भरतमुनि ने दिव्य प्रेक्षाविधि का आयोजन किया, जो स्वयं ध्वनित मेषरूपी मृदंगों से मनोहर थी । एक कोने में बैठे तुम्बरू वीणा पर गान्धार बजा रहे थे । वेणु पर किनरगण स्वर्ग की प्रसिद्ध मूर्च्छना गा रहे थे । रम्भा रघु दिलीपादि प्रसिद्ध राजाओं के चरित का अभिनय कर रही थी । इस प्रकार समस्त अष्टादश द्वीपों के राजा दिव्य नाट्यविधि का आनन्द प्राप्त कर रहे थे ।
90
रस, अभिनय तथा भाव का उल्लेख प्राप्त होता है । 10 स्थायिभाव, व्यभिचारिभाव तथा सात्विक भावों का उल्लेख भी किया गया है । 11 मुग्धा एवं प्रौढ़ा इन दो नायिका भेदों का उल्लेख प्राप्त होता है । 12 प्रोषित भतृका एवं अभिसारिका नायिका भेदों का वर्णन भी आया है । 13 नाट्य अथवा नाटक के दस भेदों का उल्लेख एवं वीथि तथा डिम नामक भेदों का कथन किया गया है। 14
1.
कुरु सफलानि रंगशालासु लासिकाजनस्य निजावलोकनेन लास्यलीलायितानि
तिलकमंजरी, पृ 61
2. वही, पृ. 61, 18, 87, 239
3.
वही, पृ. 23, 61
4.
वही. पृ. 41
वही, पृ. 57
वही, पृ. 57
7.
वही, पृ. 75
8.
वही, पृ. 76
9.
भरतमुनिना स्वयमागत्य ... प्रेक्षाविधिम् । 10. (क) कदाचिद्रसाभिनय भावप्रपंचोपवर्णनेन,
(ख) अभिनयन्ति सम्यगमिनेयमर्थजातम्,
(ग) आवहन्ति च सहृदयहृदयवर्तिनो रसस्य परमं परिपोषम् ....
5.
6.
11. वही, पृ. 53
12. निसर्गमुग्धापि प्रौढवनितेव.....
13. वही, पृ. 296 तथा 121
14. असम्यज्ञातदशरूपकैरिव सर्वदाडिमीकृत वीथिमि :
- वही, पृ. 57 वही, पृ. 104 - वही, पृ. 268
- वही, पृ. 268
- तिलकमंजरी, पृ. 128
वही, पृ. 370
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धनपाल का पाण्डित्य .
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इस कथन से दशरूपक नामक रचना का भी संकेत मिलता है। इसके रचयिता धनंजय, धनपाल के समकालीन कवि थे। नाट्य के नाटक, प्रकरण, भाण, प्रहसन, डिम, व्यायोग, समवकार, वीथि, अंक, ईहामृग ये दस भेद हैं।
- रस की वृत्तियों एवं कैशिकी वृत्ति का उल्लेख आया है । रस की चार वृत्तियां कही गई हैं, कौशिकी, सात्वती, आरभटी तथा भारती। कैशिकी वृत्ति गीत, नृत्य, विलासादि शृगारमयी चेष्टाओं के कारण कोमल होती है।
उपर्युक्त अध्ययन से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि धनपाल बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। तिलकमंजरी उनके विस्तृत शास्त्रीय ज्ञान तथा व्युत्पत्ति का प्रत्यक्ष प्रमाण है। वे न केवल रामायण, महाभारत, पुराण वेदवेदांगों तथा विभिन्न दार्शनिक सिद्धान्तों के ज्ञाता थे, अपितु वे धर्मशास्त्र, आयुर्वेद, गणित, संगीत, चित्रकला, सामुद्रिकशास्त्र, अर्थशास्त्र, कामशास्त्र, नाट्यशास्त्रादि विभिन्न विषयों में भी पूर्ण हस्तक्षेप रखते थे।
1. नाटकं सप्रकरणं भाणः प्रहसनं डिमः । व्यायोगसमवकारी वीथ्यंकेहामृगा इति ॥
-धनंजय, दशरूपक, प्रथम प्रकाश कारिका 8 2. तिलकमंजरी, कैशिकीमिव रसवृत्तीनाम् पृ. 159
तद्वचापारात्मिका निश्चतुर्धा, तत्र कैशिकी। गीतनृत्यविलासाद्य म॒दुः शृंगारचेष्टितैः ॥
-धनंजय, दशरूपक, द्वितीय प्रकाश, कारिका 47
NO.
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चतुर्थ अध्याय
तिलकमंजरी का साहित्यिक अध्ययन
कथा तथा आख्यायिका विभिन्न साहित्यशास्त्रियों ने गद्य-काव्य के दो भाग किये हैं -कथा तथा आख्यायिका । भामह, दण्डी, रुद्रट, आनन्दवर्धन तथा विश्वनाथ ने अपनेअपने काव्यशास्त्रीय ग्रन्थों में इस विषय पर विवेचन किया है । भामह के अनुसार आख्यायिका की कथावस्तु वास्तविक तथा ऊदात्त होती है, जिसे नायक स्वयं वक्ता के रूप में कहता है । यह उच्छवास नामक विभागों में विभक्त रहती है, जिसके प्रारम्भ में तथा अन्त में भावी घटनाओं के सूचक पद्य वक्त्र तथा अपरवक्त्र छंदों में निबद्ध होते हैं । कन्या हरण, संग्राम, वियोग तथा विजय के सूचक कुछ वर्णन इसमें कवि की अपनी कल्पना से सम्मिलित करता है । इसके विपरीत कथा में न तो वक्त्र और न अपरवक्त्र छंद युक्त पद्य होते हैं और न ही उच्छवासों का विभाग रहता है । कथा का वक्ता भी नायक से इतर कोई व्यक्ति होता है तथा कथावस्तु कवि की कल्पना से प्रसूत होती है । कथा संस्कृत अथवा अपभ्रंश भाषा में लिखी जाती है।
इस प्रकार भामह के अनुसार कथावस्तु, वक्ता, विभाग, छन्द तथा भाषा, ये कथा व आख्यायिका के विभाजक तत्व हैं। दण्डी ने भामह के इस वर्गीकरण की बड़े जोरदार शब्दों में आलोचना की तथा कथा एवं आख्यायिका को एक ही गद्य जाति की दो विभिन्न संज्ञायें बताया । वस्तुत: बाणभट्ट ने कादम्बरी तथा
1. भामह, काव्यालंकार 1, 25-29 2. दण्डी, काव्यादर्श 1, 23-30 . 3. रुद्रट, काव्यालंकार 16, 20-30
__ आनन्दवर्धन, ध्वन्यालोक 5. विश्वनाथ, साहित्यदर्पण 7, 332-36
भामह-काव्यालंकार 1, 25-29 तत्कथाख्यायिककेत्येका जातिः संज्ञाद्वयाङ्किता।
-दण्डी, काव्यादर्श, 1/23-30
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हर्षचरित द्वारा इस द्विरूप गद्य अर्थात् कथा एवं आख्यायिका दोनों का प्रथम निदर्शन प्रस्तुत किया, जिन्हें लक्ष्य ग्रंथ मानकर परवर्ती साहित्यशास्त्रियों ने गद्य की इन दोनों विधाओं को विभक्त करने वाले लक्षण स्थापित किए । रुट के काव्यालंकार से इसकी पुष्टि होती है। रुद्रट ने काव्य, कथा, आख्यायिकादि प्रबन्धों को दो प्रकार का कहा है- उत्पाद्य तथा अनुत्पाद्य । उत्पाद्य प्रबन्ध मे कवि कल्पना प्रसूत कथा निबद्ध रहती है, नायक प्रसिद्ध भी हो सकता है अथवा ल्पित भी।1 प्रसिद्ध नायक वाले उत्पाद्य प्रबन्ध के लिए टिप्पणीकार नमिसाधु ने माघकाव्य का उदाहरण दिया है तथा प्रकारान्तर के लिए तिलकमंजरी तथा बाण-कथा को उर्द्धत किया है । परवर्ती कवियों द्वारा तिलकमंजरी का यह सर्वप्रथम प्रामाणिक उल्लेख है । इससे सिद्ध होता है कि 11वीं सदी के उत्तरार्द्ध में तिलकमंजरी कथा के रूप में अत्यन्त प्रसिद्ध हो गई थी। रूद्रट ने कथा का लक्षण करते हुए कहा है-कथा में कवि को सर्वप्रथम पद्यों द्वारा अपने इष्ट देवताओं नथा गुरुओं को नमस्कार करके संक्षेप में अपने कुल का वर्णन तथा स्वकर्तृव का उल्लेख करना चाहिए। तत्पश्चात् छोटे-छोटे तथा अनुप्रास युक्त गद्य में पुरवर्णन पूर्वक कथा की रचना करनी चाहिए। प्रारम्भ में प्रमुख कथा के अवतरण के लिए उससे सम्बद्ध कथान्तर का भली-भांति विन्यास करना चाहिए । कन्याप्राप्ति (अथवा राज्यलाभ आदि) उसका फल हो तथा शृंगार रस का उसमें भली प्रकार विन्यास किया जाय, संस्कृत से भिन्न भाषा होने पर कथा पद्य में निबद्ध होनी चाहिए।
आख्यायिका का लक्षण इस प्रकार किया गया है-आख्यायिका में कवि को (कथा के समान ही) देवों तथा गुरुओं को नमस्कार करके, उनके रहते हुए काव्य-रचना में उसका उत्साह नहीं होता है यह कहते हुए अन्य कवियों की प्रशस्ति करनी चाहिए। इसके पश्चात् उसकी रचना में, राजा के प्रति भक्ति, पर-गुण संकीर्तन की प्रकृति अथवा अन्य कोई स्पष्ट हेतु बताये । तत्पश्चात् कथा
1. रूद्रट-काव्यालंकार 16/3 2. नमिसाधु की टिप्पणी-प्रकारान्तरमाह-कल्पिता युक्ता घटमानोत्पत्तिर्यस्य
तमित्यं भूतं नायकमपि कुत्रचित्कुर्यात् आस्तामितिवृत्तम् । अत्र च तिलक
मंजरी बाणकथा वा निदर्शनम् । 3. रुद्रट, काव्यालंकार, 16-20 4. वही, 16-21
वही, 16-22 6. वही, 16-23 7. वही, 16-24 8. वही, 16-25
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के समान ही अपना तथा अपने वंश का गद्य में ही परिचय देते हुए आख्यायिका की रचना करे । सर्ग के समान ही उच्छवासों में उसका विभाग करे, प्रथम उच्छवास के सिवाय, जिनके प्रारम्भ में आगामी घटनाओं की सूचक दो श्लिष्ट आर्याओं की रचना करनी चाहिए । भूत, वर्तमान अथवा भावी घटनाओं के विषय में संशय उत्पन्न होने पर संशययुक्त व्यक्ति के सामने अन्य किसी व्यक्ति द्वारा संशय का निवारण करने हेतु अन्योक्ति, समासोक्ति तथा श्लेष में से एक अथवा दो अलंकारों वाले श्लोकों का पाठन करवाये । ये श्लोक आर्या, अपरवक्त्र, पुष्पिताग्रा अथवा विषयानुकूल अन्य छन्दों में (प्रायः मालिनी में) रचित हों । रूद्रट द्वारा लिखित कथा तथा आख्यायिका का यह विभाग निश्चित रूप से बाण की कृतियों पर आधारित है । वस्तुतः सूक्ष्म दृष्टि से निरीक्षण किया जाय तो कथा तथा आख्यायिका में कोई अन्तर प्रतीत नहीं होता। तिलकमंजरी के विवेचन से भी यही सिद्ध होता है । दोनों की शैली में भी कोई अन्तर नहीं होता है। दोनों को विभाजित करने वाली प्रमुख रेखा है प्रतिपाद्य वस्तु, जो कथा में कल्पित होती है तथा आख्यायिका में इतिहास प्रसिद्ध ।
तिलकमंजरी : एक कथा . धनपाल ने स्वयं तिलक मंजरी को कथा कहा है-समस्त वाड्मय के ज्ञाता होने पर भी जैन सिद्धान्तों में निबद्ध कथाओं के प्रति कुतूहल उत्पन्न होने पर पवित्र चरित्र वाले राजा भोज के मनोरंजन के लिए अद्भुत रसों वाली इस कथा की रचना की।
अब देखना यह है कि काव्यशास्त्रियों की परिभाषाओं की कसौटी पर यह कितनी खरी उतरती है । तिलकमंजरी के प्रारम्भ में 53 पद्यों में प्रस्तावना लिखी गयी है, इनमें 26 पद्य पथ्या छंद में, 13 शार्दूलविक्रीडित छंद में, 3 भविपुला में, 3 मविपुला में, 2 उपजाति में, 3 वसन्ततिलका में, 1 मालिनी, एक मन्दाक्रान्ता तथा एक नविपुला छंद में रचे गए हैं। 53 पद्यों में कुल 9 छंदों का प्रयोग हुआ है। इन पद्यों में सर्वप्रथम जिन ऋषभदेव तथा महावीर की स्तुति की गयी है, तत्पश्चात् सरस्वती तथा कवि की वाणी की स्तुति, सत्कवि-प्रशंसा एवं दुर्जन निन्दा तथा प्रचलित गद्यशैली के प्रति अपना अभिमत प्रकट किया गया है। तत्पश्चात धनपाल ने अपने पूर्ववर्ती 17 कवियों की प्रशंसा की है, यहां धनपाल ने साहित्यशास्त्र के लक्षण का उल्लंघन किया है, क्योंकि रुद्रट के अनु
1. रुद्रट-काव्यालंकार, 16-26 2. वही, 16-27 3. वही, 16, 28-30 4. तिलकमंजरी, पद्य 50
+
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सार आख्यायिका में पूर्ववर्ती कवियों को नमस्कार करने का कथा में । 1 इसके पश्चात् कवि ने अपने आश्रयदाता परमार पद्यों में प्रशस्ति लिखी है । तत्पश्चात् कथा रचना के उद्देश्य का उल्लेख किया गया है, जिसमें अपने आश्रयदाता के प्रति भक्ति प्रदर्शित की गयी है। यहां भी धनपाल ने रूद्रट के नियमों के विपरीत आख्यायिका के लक्षण का कथा में समावेश किया है । 2 तदनन्तर धनपाल अपने वंश का संक्षेप में दो पद्यों में वर्णन करते हुए स्वकर्तृत्व का उल्लेख करते हैं । इस प्रकार धनपाल ने 53 पद्यों में तिलकमंजरी की प्रस्तावना लिखी है । इसके बाद पूरी कथा गद्य में बिना किसी विभाग के लिखी गयी है, जिसका प्रारम्भ नगर वर्णन से किया गया है । बीच-बीच में प्रसंगानुकूल कुल 43 पद्यों का समावेश किया गया है । रूद्रट के अनुसार आख्यायिका में आर्या, अपखवज, पुष्पिताग्रा तथा मालिनी छंदों में पद्यों की रचना होनी चाहिए । तिलकमजरी में ये सभी छद पाये गये हैं, अतः धनपाल ने यहां भी कथा के नियमों का उल्लंघन किया है । 3 तिलकमंजरी की कथा स्वय धनपाल द्वारा निर्मित है, न कि इतिहास प्रसिद्ध । तिलकमंजरी का प्रधान रस श्रृंगार है, जो नायक हरिवाहन द्वारा अन्त में नायिका तिलकमंजरी की प्राप्ति में फलीभूत होता है । यह रूद्रट के कथा-लक्षणों के अनुकूल है । प्रमुख कथा में समरकेतु तथा मलयसुन्दरी के प्रेम रूपी कथान्तर का वर्णन किया गया है, जो प्रमुख कथा को आगे बढ़ाने में सहायक होता है तथा जिसे विभिन्न कथा - मोड़ों में प्रस्तुत करके अत्यन्त रोचक बनाया गया है । यह भी भामह के कथा-लक्षण के अनुकूल है । तिलकमंजरी की लगभग आधी प्रमुख कथा हरिवाहन के मुख से कही गयी है । 4 हरिवाहन की कथा में ही, जो समरकेतु तथा हरिवाहन के विद्याधर नगर में मिलने पर प्रारम्भ होती है, मलयसुन्दरी की कथा, गन्धर्वक का वृत्तान्त आदि अन्तर्निहित हैं । भामह के अनुसार कथा का वक्ता नायक से इतर व्यक्ति होना चाहिए, किन्तु तिलकमंजरी में कथा का वक्ता नायक हरिवाहन ही है ।
1. रूद्रट, काव्यालंकार 16-24
रूद्रट, काव्यालंकार 16-25
रूद्रट, काव्यालंकार 16-30
तिलक मंजरी, पृ. 241-420
इन सभी बातों पर विचार करने से यह प्रमाणित हो जाता है कि धनपाल के समय में आलंकारिकों द्वारा कथा व आख्यायिका के विषय में बन ये गये नियम शिथिल हो गये थे, तथा विधायें परस्पर काफी घुल-मिल गयी थी । विषय-वस्तु को आखनायिका के अन्य भेद गौण हो गये थे ।
2.
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गद्य की ये दोनों छोड़कर कथा तथा
विधान है न कि राजाओं की 12
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धनपाल की भाषा-शैली शैली
धनपाल ने तिलकमंजरी की प्रस्तावना में काव्य-गुणों के वर्णन के व्याज से अपनी गद्य-शैली का आदर्श प्रस्तुत किया है ।1 इन पद्यों में धनपाल ने अपने पूर्ववर्ती गद्य-कवियों के गद्य की त्रुटियों को स्पष्ट रूप से बताया है ।
धनपाल ने कहा है कि अतिदीर्घ, बहुतरपदघटित समास से युक्त तथा अधिक वर्णन वाले गद्य से लोग भयभीत होकर उसी प्रकार विरक्त होते हैं, जैसे घने दण्डकवन में रहने वाले अनेक वर्ण वाले व्याघ्र से ।
___ इस पद्य में धनपाल ने संस्कृत गद्यकाव्य की दो प्रमुख विशेषताओं, दीर्घ समास तथा प्रचुर वर्णन की ओर संकेत किया है। समास को संस्कृत गद्य का प्राण कहा गया है । समास ने अधिकतम अर्थ को न्यूनतम शब्दों में व्यक्त करने की सामर्थ्य प्रदान की है। समास बहुलता ओज-गुण का प्रधान लक्षण है तथा ओज गद्य का प्राण है। अत: दण्डी ने कहा है-"ओजः समासमयस्त्वमेतद् गद्यस्य जीवितम् ।"3 इसी ओज गुण के कारण गद्य में विचित्र प्रकार की भावग्राहिता तथा गाढबन्धता का संचार होता है । धनपाल का आविभाव उस युग में हुआ था जब काव्य-क्षेत्र में कालिदास की सरल-सुगम स्वाभाविक शैली के स्थान पर भारवि, माघ की अलंकृत शैली प्रतिष्ठित हो चुकी थी तथा गद्य-काव्य के क्षेत्र में सुबन्धु, बाण तथा दण्डी की विकटगाढ बन्धयुक्त गद्य शैली अपने चरमोत्कर्ष पर थी। सप्तम शती में गद्य का जो परिष्कृत रूप इन तीनों गद्यकवियों की कृतियों में देखने को मिला, वह उसके पश्चात् तीन शताब्दियों तक लुप्त प्रायःसा हो गया । दशम शताब्दी से पूर्व किसी उत्तम गद्य रचना का उल्लेख संस्कृत साहित्य में नहीं मिलता। धनपाल ने इस अभाव का अनुभव किया तथा गद्य को पूनर्जीवित करने का श्लाघनीय प्रयास किया। इस प्रयास में धनपाल ने अपने पूर्ववर्ती कवियों के गद्य की त्रुटियों को पहचाना तथा अपने गद्य को उनसे सर्वथा मुक्त रखा । धनपाल ने परम्परा से हटकर, जन-मानस के अध्ययन के फलस्वरूप उसकी रुचियों को ध्यान में रखते हुए अपनी वाणी को मुखरित किया है। यही उल्लेख करते हुए धनपाल ने कहा है कि दण्ड के समान लम्बे-लम्बे समास तथा अत्यधिक विस्तृत वर्णन जन के हृदय में विरक्ति व भय उत्पन्न करते हैं । इस कथन में धनपाल ने स्पष्ट रूप से बाण की शैली की ओर संकेत किया है। ऐसा
1. तिलकमंजरी-प्रस्तावना, पद्य 15, 16, 17 2. अखण्डदण्डकारण्यभाज: प्रचुरवर्णकात् ।
व्याघ्रादिवभयाघ्रातो गद्याद्द्यावर्तते जनः ।। 3. दण्डी, काव्यादर्श, 1-30
-वही, पद्य 15
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प्रतीत होता है कि धनपाल की इसी उपमा से प्रेरित होकर वेबर ने बाण के गद्य को उस भारतीय जंगल के समान कहा है जिसमें यात्री के लिए अपना रास्ता साफ किये बिना आगे बढ़ना कठिन है, उस पर भी उसे अपरिचित शब्दों रूपी हिंस्र पशुओं से भयभीत होना पड़ता है।
दीर्घ समास व प्रचुर वर्णन के समान ही श्लेष-बहुलता को भी धनपाल ने काव्यास्वादन में बाधक माना है। सुबन्धु तथा बाण दोनों को श्लेष अत्यन्त प्रिय हैं । सुबन्धु की दृष्टि में सत्काव्य वही है जिसमें अलंकारों का चमत्कार श्लेष का प्राचुर्य तथा वक्रोक्ति का सन्निवेश विशेष रूप से रहता है। सुबन्धु ने स्वयं भी अपने प्रबन्ध को प्रत्यक्षरश्लेषमयप्रपंच विन्यासर्वदग्धनिधि" बनाने की प्रतीज्ञा की थी। सुबन्धु वस्तुतः श्लेष कवि है तथा उन्होंने अपनी सारी प्रतिमा श्लेष से अपने काव्य को चमत्कृत करने में ही लगा दी। सुबन्धु के समान बाण को भी श्लेष अत्यन्त प्रिय है तथा वे भी अपने गद्य को निरन्तरश्लेषघन बनाने में गौरव का अनुभव करते हैं, किन्तु सुबन्धु की अपेक्षा बाण के श्लेष अधिक स्पष्ट है ।
जहां सुबन्धु का आदर्श गद्य 'प्रत्यक्षरश्लेषमय' है तथा बाण का आदर्श गद्य 'निरन्तरश्लेष घन' है । वहीं धनपाल के गद्य का आदर्श 'नातिश्लेषघन' है। अतः धनपाल ने कहा है-सहृदयों के हृदय को हरने वाली तथा सरस पदावली से युक्त काव्याकृति भी अत्यधिक श्लेष युक्त होने पर, स्याही से स्निग्ध अक्षरों वाली किन्तु अक्षरों के अत्यधिक सम्मिश्रण से युक्त लिपि के समान प्रशंसा को प्राप्त नहीं करती है।
धनपाल का गद्य न तो सुबन्धु के गद्य के समान प्रत्यक्षश्लेषमय है और न ही बाण के गद्य के सदृश समासों से लदा हुआ व गाढबन्धता से मण्डित है। धनपाल ने मध्यम मार्ग का अनुसरण करते हुए अपने काव्य को समासाढचता व श्लेष बहुलता से विभूषित करने के स्थान पर सुबोध, सरल व यथार्थ का दिग्दर्शन कराने वाली शैली से अलंकृत किया है।
___ गद्य-काय में गद्य एवं पद्य का उचित सन्तुलन भी आवश्यक है, क्योंकि अनवरत गद्य निबद्ध कथा श्रोताओं में निर्वेद को उत्पन्न करती है तथा पद्यबहुल
1. कीथ, ए. बी. : संस्कृत साहित्य का इतिहास, अनुवादक मंगलदेवशास्त्री,
पृ. 326 सुश्लेषवक्रघटनापटु सत्काव्यविरचनमिव,
-सुबन्धु, वासवदत्ता 3. निरन्तरश्लेषघनाः सुजातयो महास्रजश्चम्पककुड्मलैरिव । नवोऽर्थो जातिरग्राम्या श्लेषः स्पष्टः स्फुटो रसः ।।
~~~बाणभट्ट, हर्षचरित 1-18 वर्णयुक्ति दधानापि स्निग्धांजनमनोहराम् । नातिश्लेषघना श्लाघां कृतिलिपिरिवाश्नुते ।। -तिलकमंजरी, पद्य 16
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चम्पू भी कथावस्तु के रसास्वादन में बाधक होता है ।1 अतः बीच-बीच में पद्यों से उपस्कृत गद्य जहां काव्य के रसास्वाद को द्विगुणित कर देता है, वहीं पद्यों की भरमार उसमें बाधक बन जाती है। धनपाल ने तिलकमंजरी के प्रारम्भ में गद्य का जो यह आदर्श उपस्थित किया है, अपने काव्य में उन्होंने उसका आद्योपान्त निर्वाह किया है । अत: उनकी भाषा अत्यन्त प्रवाहमयी, प्रांजल, ओजस्वी तथा प्रभावोत्पादक बन गयी है।
यद्यपि कवि किसी एक ही वर्णन-शैली का क्रीतदास नहीं होता, वर्ण्यविषय तथा प्रसंग के अनुसार वह अपनी शैली को परिवर्तित करता है, किन्तु प्रमुखतया प्रत्येक कवि की वर्णन करने की अपनी एक शैली स्वतः ही बन जाती है। वृत्ति, रीति, मार्ग, संघटना तथा शैली शब्द समानार्थक हैं। एक ही पदार्थ को भिन्न-भिन्न आचार्यों ने भिन्न-भिन्न नामों से व्यवहृत किया है । उद्भट ने जिसे वृत्ति कहा है, वामन ने उसे ही रीति कहा है, कुन्तक तथा दण्डी ने मार्ग एवं आनन्दवर्धन ने संघटना कहा है। उद्भट ने अपने काव्यालंकारसारसंग्रह में तीन प्रकार की वृत्तियां कही हैं, उपनागरिका, पुरुषा तथा कोमला । वामन ने इन्हीं तीनों रीतियों को वैदर्भी, गौडी तथा पांचाली नाम से अभिहित किया है।
धनपाल की प्रतिपाद्य शैली वैदर्भी है । वामन के अनुसार वैदर्भी रीति तो समस्त गुणों से युक्त होती है, परन्तु गौडीया रीति में केवल औज और कान्ति ये दो ही गुण होते हैं और पांचाली में केवल माधुर्य तथा सौकुमार्य ये दो ही गुण रहते हैं । वामन के अनुसार ओज प्रसादादि समस्त गुणों से युक्त और दोष की मात्रा से रहित वीणा के शब्द के समान मनोहारिणी वैदर्भी रीति होती है । मम्मट ने माधुर्यव्यंजक वर्णों से युक्त वृत्ति को उपनागरिका कहा है । विश्वनाथ
1. अश्रान्तगद्यसन्ताना श्रोतृणां निविदे कथा।
जहाति पद्यप्रचूरा चम्पूरपि कथारसम् ॥ -तिलकमंजरी, पद्य 17 2. साधा वैदर्भी गौडीया पांचालि चेति
-वामन, काव्यालंकारसूत्र. 1, 2,9 3. समग्रगुणा वैदर्भी
ओजः प्रसादप्रमुखर्गणरूपेता वैदर्भी नाम रीतिः अस्पृष्टा दोषमात्रामिः समग्रगुणगुम्फिता। विपंचीस्वरसौभाग्या वैदर्भी रीतिरिष्यते ।।
-वामन काव्यालंकारसूत्र, 1, 2, 11 4. माधुर्यव्यंजकर्वणैरूंपनागरिकोच्यते । -मम्मट, काव्यप्रकाश, 9, 107
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ने समास रहित अथवा अल्प समास युक्त, माधुर्य गुण के व्यंजक वर्गों की ललित रचना को वैदर्भी रीति का नाम दिया है ।
धनपाल ने तिलकमंजरी में रीतियों में वैदर्भी को ही सर्वाधिक उद्भासित कहा है । धनपाल की इस विशिष्ट शैली को प्रदर्शित करने हेतु नीचे कुछ उदाहरण दिये जाते हैं
(1) यथा न धर्मः सीदति, यथा नार्थः क्षय वृजति, यथा न राजलक्ष्मीरून्मनायते, यथा न कीर्तिमन्दायते, यथा न प्रतापो निर्वाति, यथा न गुणाः श्यामायन्ते, यथा न श्रुतमुपहस्यते, यथा न परिजनो बिरज्यते, यथा न शस्त्रवस्तरलायन्ते तथा सर्वमन्वतिष्ठत्
-पृ. 19 (2) अनयास्माकमविकला त्रिवर्गसम्पत्तिः, अनुवै जको राज्यचिन्ताभारः, आकीर्णा महीस्पृहणीया भोगाः, सफलं यौवनम् अजनितवीडः क्रीडारसः, अभिलषणीयाविलासा:, प्रीतिदायिनो महोत्सवाः, रमणीयो जीवलोकः -पृ. 28
.. (3) ....... आचारमिव चारित्रस्य, प्रतिज्ञानिर्वाहमिव ज्ञानस्य शुद्धिसंचयमिव शौचस्य, धर्माधिकारमिव धर्मस्य, सर्वस्ववायमिव दयायाः -पृ. 25
प्रमुखतया वैदर्भी रीति का प्रयोग करते हुए भी धनपाल वयं-विषय तथा प्रसंगानुसार पांचाली एवं गौडी रीति का भी आश्रय लेते हैं। धनपाल को वैदर्भी के समान ही पांचाली शैली के प्रयोग में सिद्धहस्तता प्राप्त है। विभिन्न प्रसंगों पर वे इसी शैली में अपने अर्थों को मुखरित करते हैं। माधुर्य एवं सुकुमारता युक्त पांचाली शैली कही गयी है। पांचाली शैली में गद्य प्रायः पांच या छः पदों वाले समास से युक्त होता है। राजशेखर के अनुसार पांचाली रीति में छोटे-छोटे समास, किंचित् अनुप्रास व उपचार का प्रयोग होता है-यत्....... ईषदसमास ईषदनुप्रासभुपंचारगर्भ च जगाद सा पांचाली रीतिः । शब्द तथा अर्थ
1. माधर्यव्यंजकर्वणरूंचना ललितात्मिका । अवृत्तिरल्पवृत्तिवां वैदर्भी रीतिरिष्यते ॥
-विश्वनाथ साहित्य दर्पण, 9, 23 वैदर्भीमिव रीतिनाम्
-तिलकमंजरी, पृ. 159 3. माधुर्यसौकुमार्योपन्ना पांचाली -वामन, काव्यालंकारसूत्रवृत्ति 1, 2, 13 4. समस्तपंचषपदाभोजः कान्तिविजितम् । मधुरासुकुमारांच पांचाली कवयो विदुः ।।
-भोज, सरस्वतीकण्ठाभरण, 2, 30 5. राजशेखर काव्यमीमांसा, पृ. 19 -
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का समान गुम्फन पांचाली रीति की विशिष्टता है। तिलकमंजरी में शब्द और अर्थ का सुन्दर समन्वय प्राप्त होता है। विकट वस्तुओं के वर्णन में विकट पदों का प्रयोग किया गया है तथा सुकुमार प्रसंगों की अवतारणा में कोमल पदावली आयोजित की गई है । इस शैली को निर्देशित करने वाले कुछ उदाहरण दिये जाते हैं - .. (1) मृदुपवनचलितमृद्विकालतावलयेषु वियति विलसतामसितागुरुधूपधूमयोनिनामासारवारिणेवोपसिच्यमानेष्वतिनीलसुरभिषु गृहोपवनेषु वनितासरवैवि. लासिमिरनुभूयमानमधुपानोत्सवा
-पृ. 8, 9 . (2, अलिकुलववाणमुखरया शतमरवहृतरावणादिसहोदरोदन्तदानापप्रहितया पारिजातदूत्येव स्निग्धसान्द्रया मन्दारमन्जर्या समाधितकश्रवणाम्
-पृ. 54 ___(3) क्वचिदावदहनाश्लिष्टवंशीवनध्यमाणश्रवणनिष्ठुरवात्कारया, क्वचिदकुण्ठकण्ठीखारावचकितसारंगलोचनांशुशारया, क्वचित्तस्तलासीनशबरीविरच्यमानकरिकुम्भमुक्तामि: शबलगुंजाफलप्रालम्बया
-पृ. 200 ___ वैदर्भी तथा पांचाली के समान ही धनपाल ने तिलकमंजरी में गौडी शैली को भी प्रसंगानुसार प्रयुक्त किया है । अटवी वर्णन, वैताढ्य वर्णन तथा युद्ध वर्णन में इसके उदाहरण स्पष्ट रूप से देखे जा सकते हैं । कुछ उदाहरण निम्नलिखित हैं
(1) मुक्तमदजलासारकरिघटासहरनमेघमण्डलान्धकारिताष्टविग्भागेषु घनस्तनितघर्घरघूणानिरथनिर्घोषेषु दर्पोत्पतप्तदातिक रतलतुलिततरवारितडिल्लताप्रतानवन्तुरितान्तरिक्षकुक्षिषु प्रचण्डानिलप्रणुनकरकोपलप्रकरपातमुखरसप्तिरचरपुटध्वाननितजगज्ज्वरेषु
-पृ. 16 ___ (2) ... .."समत्सरसुभसिंहनावबधिरीकृताम्यर्णवासिजनकर्णधोरणिनीरन्घ्रपाषाणक्षेपक्षणमात्रस्थलीकृताम्बरतलानि निर्दयप्रहततूर्यखपयासितकातरकरशस्त्राणि यन्त्र विक्षिप्ताग्नितप्ततैलच्छटाविघटामानविकटपदातिगुम्फानि -पृ. 83
(3) ... क्वचित्प्रलयवातविधूतपुष्करावर्तकमेघमुक्तं : क्वचित्कुलिशकर्कश हिरण्याक्षवलोमिधातदलितमहावराहदष्ट्राङ्क रोच्छलिते: क्वचित्कमठपतिपृष्ठकषणोत्थपावकप्रदीप्तमन्दरनितम्बवेणुस्तम्वनिष्ठचूतः
-121 लम्बे-लम्बे समासों से युक्त तथा उत्कट पदों से युक्त गौडी शैली कहलाती है । वामन के अनुसार ओज और कान्ति नामक गुणों से युक्त गौडी शैली होतो
6. शब्दार्थयोः समो गुम्फः पांचालीरीतिरिष्यते । शीलाभट्टारिका वाचि बाणोक्तिषु च सा यदि ॥
-जल्हण, सूक्तिमुक्तावली, पद्य 27
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है।1 गाढपदबन्धता को ओज कहा गया है ।2 मम्मट ने भी ओज के प्रकाशक वर्णों से युक्त वृत्ति को परूषा कहा है । धनपाल ने गौडी रीति का प्रयोग विकट प्रसंगों के वर्णन में ही किया है ।
साहित्यशास्त्र के अनुसार गद्य के चार प्रकार हैं-मुक्तक, वृत्तगन्धि, उत्कलिकाप्राय तथा चूर्णक । मुक्तक गद्य समास रहित होता है, वृत्तगन्धि में पद्य का अंश होता है. उत्कलिकाप्राय दीर्घ समासों से मण्डित होता है तथा छोटे-छोटे समासों वाला गद्य चूर्णक कहलाता है। उत्कलिका गद्य शैली को तण्डक भी कहा जाता था एवं समासरहित मुक्तक शैली को आविद्ध भी कहा जाता था । तिलकमंजरी में यद्यपि चारों प्रकार का गद्य प्रयुक्त हुआ है, किन्तु धनपाल ने प्राय: चूर्णक अर्थात् छोटे-छोटे समासों वाली गद्य शैली का ही अधिक उपयोग किया है । नीचे इन सभी शैलियों को उदाहृत किया जाता है।
मुक्तक-यह गद्य समास रहित होता है. जहां भी तिलकमंजरी में संवादतत्व की प्रधानता है अथवा भावतत्व की प्रधानता है, वहां यह शैली पायी जाती है । धनपाल ने संवादों में समासरहित सरल भाषा का प्रयोग किया है यथा वेताल तथा मेघवाहन, लक्ष्मी तथा मेघवाहन एवं मलयसुन्दरी तथा विचित्रवीर्य के संवाद। यथा
(1) नरेन्द्र, न वयं पक्षिणः न पशवः न मनुष्याः । कथं फलानि मूलान्यन्नं चाहरामः । क्षपाचराः खलु वयम्
__ -पृ. 50-51 (2) इदं राज्यम्, एषा में पृथ्वी, एतानि वसूनि, असो हस्त्यश्वरथपदाति प्रायो बाह्य परिच्छदः, इदं शरीरम्
-पृ. 26
1. ओज : कान्तिमती गोडीया माधुर्य सौकुमार्योरभावात् समासबहुला अत्युल्वणपदा च ।
- वामन, काव्यालंकारसूत्रवृत्ति, 1/2/12 2. गाढपदबन्धत्वभोजः
-वही, 3/1/5 3. ओजः प्रकाशकैस्तैस्तु परूषा
--मम्मट, काव्यप्रकाश, 9/80 वृत्तगन्धोज्झितं गद्य मुक्तकं वृत्तगन्धि च । मवेदुत्कलिकाप्रायं चूर्णकं च चतुर्विधम् ।। आद्य समासरहितं वृत्तभागयुतं परम् । अन्य दीर्घसमासाढ्यं तुर्य चःल्पसमासकम् ।।
-विश्वनाथ, साहित्यदर्पण, 6/330-32 5. अग्रवाल वासुदेवशरण, कादम्बरी : एक सांस्कृतिक अध्ययन, पृ 15 6. वही, हर्षचरित : एक सांस्कृतिक अध्ययन, पृ. 4
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तिलकमंजरी, एक सांस्कृतिक अध्ययन
(3) स वारण: श्रान्त इव सुप्त इव, कोलितश्च, गलितचैतन्य इव,
-q. 186 लिखित इव
-q. 90
क्षणमात्रमभवत् ।
(4) अतिवेगव्यापृतोऽस्य तत्र क्षणे प्रोत इव तूणीमुखेषु, मौर्व्याम्, उत्कीर्ण इव पुंखेषु, अवतंसित इव श्रवणान्ते
(5) क्षणं बाहुशिरसि, क्षणं कृपाणधाराम्मसि, क्षणमातपत्रे, क्षणं मदाध्वजेषु, क्षणं चामरेष्कुरुतः ।
g. 91
हरिवाहन द्वारा वर्णित समस्त वृत्तान्त सुनकर समरकेतु की जो मनोदशा हुयी, उसका धनपाल ने अत्यन्त स्वाभाविक चित्र इसी शैली में खींचा है- स तुन कां चिदेक्षत्, न किचिदाभाषत्, न कस्यचिद्वचनमशृणोत् न कस्यचित् प्रतिवचः प्रायच्छत् । केवलं वंचित इव, छलित इव, मुषित इव केनाऽय्यावेशित इव
...
- पृ. 420 कोमल पदों की योजना इस शैली की विशिष्टता है । यथा - मुहुर्घा - वित्वा दुकूलांचले धार्यमाण, मुहुः प्रसायं भुजलते पृष्ठतः परिरम्यमाणं, मुहुर्निपत्य पादयोः प्रसाधमानं - पृ. 397
--
चूर्ण - धनपाल ने तिलकमंजरी में प्रायेण इसी शैली का प्रयोग किया है । एक दृष्टान्त प्रस्तुत है - कुरूत हरिचन्दनोपलेपहारि मन्दिराङ्गणम्, रचयत स्थानस्थानेषु रत्नचूर्णस्वस्तिकान् दत्त द्वारि नूतनं चूतपल्लवदाम
- पू. 77 उत्कलिकाप्राय - तिलकमंजरी में जहां भी वर्णन तत्व की प्रधानता है, यथा अयोध्या - वर्णन, मेघवाहन-वर्णन, युद्ध वर्णन, वेताल-वर्णन, कामरूप - देश वर्णन, अटवी - वर्णन, अदृष्ट सरोवर-वर्णन, आराम वर्णन, आयतन वर्णन, वैताढ्य वर्णन आदि स्थलों पर इस शैली का प्रचुरता से उपयोग किया गया है । धनपाल की यह विशिष्टता है कि वर्णन स्थल पर भी इस शैली के बीच-बीच में छोटे-छोटे वाक्यों का प्रयोग करते हैं, तथा निरन्तर अधिक लम्बे-लम्बे समासों से वर्णन को झिल नहीं बनाते | युद्ध जैसे विकट प्रसंग में भी यही प्रवृत्ति दृष्टिगोचर होती है । 1 उदाहारणार्थ - परस्परवधनिबद्धक क्षयोश्च प्रसृतरमसोत्तालगजदानवारिगर्त त्रिदशदारिकान्विष्यमाणरमणसार्थो निपीतनखशा विस्वरविसारिशिवा फेत्कारडामर : सतारका वर्ष इव वेतालदृष्टिमि: सोल्कापात इव निशितप्रासवृष्टिभिः सनिर्घातपात इव गदाप्रहारैः
वर्णन शैली - धनपाल जब अथवा किसी विशिष्ट स्थान का चित्र लम्बे वाक्य में उसके प्रमुख स्वरूप का येन यस्मिन् आदि सर्वनामों से प्रारम्भ होने वाले वाक्यों द्वारा उसके स्वरूप का
"q. 87 किसी विशिष्ट व्यक्ति का वर्णन करते हैं प्रस्तुत करते हैं, तो प्राय: पहले वे एक प्रतिपादन करते हैं, तत्पश्चात् य:, यम्,
1. तिलकमंलरी, पृ. 82-93
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विस्तृत वर्णन करते हैं । यथा मेघवाहन के वर्णन में- "तस्यां च""सार्वभौमो राजा मेघवाहनो नाम" इस लम्बे वाक्य से उसका प्रथम परिचय दिया गया है । तदनन्तर यस्य, यः, यस्मिन् से प्रारम्भ होने वाले सात वाक्यों द्वारा उसकी अन्य विशेषताओं पर प्रकाश डाला गया है। इस वर्णन को और अधिक विस्तृत बनाने के लिए तथा विषय का पूरा-पूरा स्पष्ट चित्र खींचने के लिए आगे उसने कदाचित् शब्द से प्रारम्भ होने वाले 13 वाक्यों की रचना की, जिसमें मेघवाहन के अन्य क्रिया-कलाप व मनोरंजन के साधनों का वर्णन किया गया है। इसी प्रकार अयोध्या नगरी के वर्णन में पहले “अस्ति रभ्यतानिरस्त..."यथार्थामिघाना नगरी।" इस लम्बे वाक्य से उसके मुख्य स्वरूप का दिग्दर्शन कराया गया है, तत्पश्चान् या, यस्याः, यस्याम् यत्र वाले 9 वाक्यों से उसका संश्लिष्ट चित्र खींचा गया है। वर्णन प्रसंगों में सर्वत्र यही वृत्ति दृष्टिगत होती है । भाषा तथा संस्कृत भाषा पर अधिकार
... भाषा-कवि चित्रकार अपने हृदयगत भावों को भाषा रूपी रंगों से रंगकर अपने चित्रों को सहृदयों के हृदय में उतारता है, अत: भाषा, कवि एवं सहृदय रूपी दो किनारों को मिलाने वाली तरंग है । सहृदय के हृदय को आकर्षित करने के लिए कवि अपनी भाषा का शृंगार करता है । इसके लिए वह सुन्दर व आकर्षक शब्द योजनाओं सहित वाक्यों की रचना करता है । गति व संचालन वाक्य के प्रमुख सौंदर्य-संघटक उपादान हैं तथा इसके लिए ईश्वरप्रदत्त प्रतिभा के अतिरिक्त निरन्तर अभ्यास की आवश्यकता होती है ।
धनपाल की भाषा अत्यन्त ओजस्वी एवं प्रवाहमयी है। उनकी भाषा में सर्वत्र शब्दगत सौन्दर्य व अर्थ का उचित समन्वय प्राप्त होता है, केवल शब्द श्रवण मात्र से अर्थ की अभिव्यंजना हो जाती है । शब्द कवि के हृदयगत भावों के साथ-साथ स्वाभाविक, सहज रूप से अवतरित होते हैं न कि जानबूझकर लादे हुए प्रतीत होते हैं।
कवि की प्रवाहमयी भाषा को प्रदर्शित करने वाले कुछ सुन्दर वाक्य रचनाओं के उदाहरण दिये जाते हैं
(1) धनपाल अनेक उत्प्रेक्षाओं के एक साथ प्रयोग द्वारा वाक्य को गतिमान बनाते हैं, जैसे
पृथ्वीमय इव स्थैर्ये, तिग्मांशुमय इव तेजसि, सरस्वतीमय इव वचसि, लक्ष्मीमय इव लावण्ये, सुधामय इव माधुर्य, तपोमय इवासाध्यसाधनेषु,-पृ14
1. तिलकमंजरी, पृ. 12-18 2. वही, पृ. 7-12
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(2) एक ही पद से प्रारम्भ होने वाले अनेक वाक्यों की एक साथ योजना करके काव्य में प्रवाह उत्पन्न करते हैं । यथा
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(अ) सर्वसागरैरिवोत्पादितगाम्भीर्यः, सर्वगिरिभिरिवाविर्भावितोन्नतिः, सर्वज्वलनेरिव जनितप्रतापः, सर्वचन्द्रोदयेरिव रचितकीर्तिः, सर्वमुनिभिरिव निर्मितोपशन:, सर्वकेसरिभिरिव कल्पितपराक्रमः
- पृ. 13--14 (आ) ....मुहु: केशपाशे, मुहुर्मुखशशिनि, मुहुरघरपत्रे, मुहुरक्षिपात्रयोः, मुहुर्नाभिचक्राभोगे, मुहुर्जधनमारे, मुहुरूरूस्तम्भयो:, मुहुश्चरणवारिरूहयोः कृतारोहावरोहया दृष्टया तां व्यभावयत्
- पृ. 162 (इ) क्षणं बाहुशिरसि, क्षणं धनुषि, क्षणं कृपाणधाराम्भसि क्षणमातपत्रे, क्षणं मदाध्वजेषु, क्षणं चामरेष्वकुरूत स्थितिम्
- पृ. 91 (ई) यथा न धर्मः सोदति, यथा नार्थः क्षयं प्रजति, यथा न राजलक्ष्मीरून्मनायते, यथा न कीर्तिमन्दायते, यथा न प्रतापो निर्वाति, यथा न गुणाः श्यामायते यथा न तमुपहस्यते, यथा न परिजनों विरज्यते
-g. 19 (3) वर्ण व मात्राओं की समानता से वाक्य में सौन्दर्योत्पत्ति की गयी है
(अ) एक ही वर्ण से प्रारम्भ होने वाले अनेक शब्दों का एक साथ प्रयोग –शरच्छेदेन कं मांसमेदे मन्दं मेदसि मुखरमस्थिषु मन्थरं स्नायुग्रन्थिषु ...
- 90
(आ) पद के प्रारम्भ के वर्ण से अगला पद प्रारम्भ करना - (1) ..............सरला सैकतेषु कुंचितां कुशस्तम्बेषु खण्डितां खण्डशैलेषु वलितां वृक्षमूलेषु कुटिलां पंकपटलेषु विरला बालवननदीवेणिकोत्तरेषु पृ. 254 (2) कोलकायकाली कुपति ...केलिमिव कालीयस्य मूच्छितां मूर्च्छामिव महीगोलस्य कण्ठे कालकूटका लिका मित्रकाला ग्निकण्ठेकालस्य ..... पद्धतिमिव पातालपंकस्य
- पृ. 233
.......
( 3 ) ........नन्दन भिव नन्दनस्य, तिलकभिव त्रिलोक्या, रतिगृहमिव रतेरायुधागारमिव कुसुमायुधस्य .....
-g. 212 (4) अतिशीतलतया च कन्दमिव हिमाद्रेरूवर मित्र क्षीरोदस्थ, हृदयमिव हेमन्तस्थ, शरीरान्तरभिव शिशिरानिलस्य ...
- पृ. 212 (5) आचारमिव चारित्रस्य, प्रतिज्ञानिर्वाहमिव ज्ञानस्य, शुद्धिसंचयमिव शौचस्य, धर्माधिकारमिव धर्मस्य, सर्वस्वदायमिव दयायाः........
g. 25
(इ) समान मात्राओं इकार, ईकार, आकार द्वारा वाक्य में सौन्दर्य का का आधान किया गया है ।
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105 (1) मदनमयमिव शंगारमयमिव प्रीतिमयभिवानन्दमयमिव विलासमयभि रम्यतामयभिवोत्सवमयभिव सकलजीवमाकलयन्न........ -प. 213 (2) सुखमया इव घृतिमया इव अमृतमया इव प्रीतिमया इव........
-प. 104 (3) विस्मयमयीव कौतुकमयीवाश्चर्यमयीव प्रमोदमयीव क्रीड़ामयीव उत्सवमयीव निवृत्तिमयीव तिमयीव हासमयीव........
-पृ. 62 (4) क्षितावमर्षमय इव क्रौर्यमय इव वैरमय इव व्याजमय इव हिंसामय इव विभाव्यमाने जगति ।
-पृ० 88 (ई) पदों के अन्तिम-अन्तिम वर्गों की समानता से वाक्य में चमत्कार पैदा किया गया है
....."आत्मा निवारणीयो घत्या न वृत्या......"दृष्टया न काययष्टया ...".""मनसा न वचसा....."सख्यश्चतुरवर्णरेखा नानंगलेखा:... देवतायतनवने न रतिभवने....... देवतास्तुतिगीतानि न निजचरणनुपूररणितानि......."मागधीश्लोकर्न सुरतदूतीलोकः,......."देवतार्चनकेतकदले न कपोलतले ....... पृ. 31-32 संस्कृत भाषा पर अधिकार
तिलकमंजरी के अध्ययन से ज्ञात होता है कि धनपाल को संस्कृत भाषा पर पूर्ण आचार्यत्व प्राप्त था। उनकी विद्वत्ता पर मुग्ध होकर ही मुंज ने उन्हें अपनी सभा में "सरस्वती" की उपाधि से विभूषित किया था।
धनपाल प्रसंग व भाव के अनुकूल उचित शब्दों के चयन में अत्यन्त निपुण हैं। उनके शब्द ही अर्थ को प्रतिध्वनित करने में समर्थ होते हैं । युद्ध के प्रसंग का यह दृष्टान्त प्रस्तुत है, जिससे युद्ध की ध्वनि स्पष्ट रूप से निकलती है-महाप्रलयसंनिमः समरसंघट्टः सर्वतश्च गात्रसंघट्टरणितघण्टानामरिद्धीपावलोकनक्रोधधावितानामिभपतीनां च वाजिनां हषितेन, हर्षोत्तालमूलतास्तितुरंगबदरंहसा च स्यन्दनानां चीत्कृतेन, सकोपधानुष्कनिर्वयाच्छोटितज्यानां च चापयष्टीना टकृतेन,खरखुरप्रदलितवण्डानां च पर्यस्यतां रथकेतनानां कडत्कारेण निष्ठरधनुर्यन्त्रनिष्ठयूतानां च निर्गच्छतां नाराचानां सूत्कारेण, वेगोकमानविवशवैतालकोलाहलघनेन च रुधिरापगानां धूतकारेण...... साक्रन्दमिव साहसमिव सास्फोटनरवमिव ब्रह्माण्डमभवत् । पृ. 87
धनपाल युद्ध के वर्णन में जितने निपुण हैं, उतने ही स्त्रियां के आभूषणों की मधुर झंकार करने में भी हैं-सत्वरोपसृतवेला....."जघनपुलिनसारसीनां रसनानां शिज्ज्तेिन...""कनककंकणानां क्वणितेन....."मुक्ताहाराणां रणितेन....
अक्षुण्णोऽपि विविक्तसूक्तिरचनेयः सर्वविद्याब्धिना । श्रीमुंजन सरस्वतीति सदसि क्षोणीभृता व्याहृतः ।।
-तिलकमंजरी, पद्य 53
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गुणेन
तारतरोच्चारेण गतिरमसविच्युतानामासाद्यासाद्य सोपानमणिफलकमाबद्धफालानां सीमन्तकालंकारमाणिक्यानां जवावतरणजन्मना स्वादूकृतः स्वनसंतानेन........ अलिगणानां गुड कृतेम......."मधुरगम्भीरेण चरणपातधमारवेण संघितः"...... स्त्रैणस्थ मसृणतारो नूपुराणामुच्चचार झात्कारः ।
- 158 उनके अर्थ को ध्वनित करने वाली कुछ अन्य संगीतमय वाक्य रचनाओं उदाहरण दिये जाते हैं(1) सकलकलोच्छलत्प्राज्यपरिमलव्यंजिततप्ताज्यतक्रबिन्दुक्षेपः
पृ. 117 (2) उत्कर्णतर्णकाणितमल्यमानमयितमन्थनीमण्यरनिर्घोषैः पृ. 117 (3) पदे पदे रणितमधुकरजालकिंकिणीचक्रवालेन बकुलमालामेखला
-पृ. 107 शब्दभण्डार
धनपाल के पास अक्षय शब्द-भण्डार है। प्राय: वे एक ही अर्थ व भाव को धोतित करने वाले मिलते-जुलते अनेक शब्दों को एक साथ प्रयुक्त करते हैं, जिससे उस भाव की प्रबलता स्पष्ट हो जाती है । कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं
(1) भूतैरिवाधिष्ठिता, कृतान्तदूरैरिव कटाक्षिता, कलिकालेनेव कवलिता, समग्रपापग्रहपीडाभिरिव कोडीकृता"....."
-पृ. 40 (2) प्रकीर्ण इव गूजाफलेषु, अंकुरित इव राजशुकचंचुकोटिषु, पल्लवित इव कृकवाकुचूडाचक्रषु, मंजरित इव सिंहकेसरसटासु, फलित इव कपिकुटुम्बिनी कपोलकूटेषु, प्रसारित इव हरितालस्थलीषु, क्षुल्ल इव शबरराजसुन्दरीसान्द्रनरव. दन्तक्षतेषु, राशीकृत इव पद्मरागसानुप्रभोल्लासेषु..." पृ. 151-52
(3) प्रवर्त्यमानापि च गुरुभिः, प्रबोध्यमानापि धर्मशास्त्रविद्भिः, प्रलोभ्यमानापि अनेकधा विधाधरेन्द्रकुलकुमारः, प्रसाध्यमानापि प्रियसखीमिः, विक्रियमाणापि प्रकटितालीकोपाभिः । .....
-प. 169 (4) सर्वसागररिवोत्पादितगाम्भीर्यः, सर्वमिरिमिरिवाविर्भावितोन्नतिः, सर्वज्वलनैरिव जनितप्रतापः, सर्वचन्द्रोदयरिव रचितकीतिः, सर्वमुनिमिरिव निर्मितीपशमः, सर्वकेसरिभिरिव कल्पितपराक्रमः......."उपबंहितप्रभावः........
___- पृ. 13-14 (5) पातालपंकादिवोन्मग्नम्, प्रलयपनदिनादिव निःसृतम्, कृतान्त. मुखकुहरादिवाकृष्टम्, महाकालकरकपालोदरादिवोच्छलितम्, तक्षकाशीविषवेगवेदनवोन्मुक्तम्
-पृ. 192
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पर्याय
तिलकमंजरी में शब्दों की अपार राशि बिखरी पड़ी है, जिनको मिलाकर एक कोष बनाया जा सकता है, यह धनपाल के गहन अध्ययन का परिणाम है। धनपाल ने एक संस्कृत-नाममाला भी रची थी, किन्तु वह प्राप्त नहीं होती, केवल उसका उल्लेख प्राचीन ग्रन्थ सूची में मिला है। हेमचन्द्र ने तो 'व्युत्पत्तिर्धनपालतः' कहकर उसकी प्रशंसा की है । धनपाल की शब्द-सामर्थ्य को प्रदर्शित करने हेतु सूर्य चन्द्रमा, शिव, कामदेव, समूह तथा ध्वनि शब्दों के पर्याय तिलकमंजरी से संग्रहीत किये गये हैं। तिलकमंजरी में प्रायः इनका सर्वत्र प्रयोग होने से पृष्ठ संख्या का उद्धरण नहीं दिया गया है
___(1) सूर्य-वासरमणि, सप्तसप्ति, दिनकर, भास्वत्, गमस्तिमालिन्, अहिमांशु, खरांशु, अर्क, ग्रहग्रामणी, हरिदश्वः,भास्कर, मरीचिमालिन्, चण्डाशु, तिग्मांशु, उष्णदीधिति, तपन्, दिनेश, रवि, अनूरुसारथि, ब्रह्म, अरुणसारथि, अनूरू, अरुण, पतंग, सूर्य, उष्णरश्मि, तिग्मभानुः, मित्रम, दिवसकर, ललाटन्तप, दिबसमणि, तरणि, घुमणि, चण्डदीधिति, अहिमगभस्तिम् ।
(2) चन्द्रमा-हिमकर, अमृतकर, शशधर, निशीथ, हरिणलांछन, श्वेतकिरण, मृगांक, इन्दु, शशि, चन्द्र, ऋक्षपति, रजनिजानि, नक्षत्रनाथ, ग्रहपति, सितांशु, राजा, हरिणांक, एणांक, शशांक, निशाकर, हिमगमस्तिन्, हिमांशु, सुधांशु, शीतरश्मि, तारकाराज।
(3) शिव-हर, स्थाणु, रूद्र, शुलपाणि, भैरव, मृगांकमौलि, विषमाक्ष, विशालाक्ष, ईशान, शिपिविष्ट, शिव, खण्डपरशु, त्रयम्बक, धूर्जटि, गजदानवारि, शूलायुध, अन्धकाराति, क्रीडाकिरात ।
(4) कामदेव-अनंग, कामदेव, कन्दर्प, कुसुमबाण, मनसिशय, कुसुमेषु, कुसुमायुध, मानसभू, मकरलक्ष्मा, मकरध्वज, कुसुमसायक, मदन, संकल्पयोनि, मन्मथ, कुसुमधनुष, स्मर, मार, मनोभव, मनसिज, पंचेषु, चित्तयोनि, प्रद्य म्न, कुसुमकामुर्क, विषमबाण, स्मरणयोनि, अयुग्मेषु, विषमसायक, रतिभर्तु, रतिपति, मीनध्वज ।
(5) समूह-ग्राम, निकर, प्रकर, कलाप, चक्र, श्रेणि, मण्डल, वर्ग, गण, वात, पटल, निवह, जाल, सार्थ, सन्तान, राशि, व्रज, संहति, विसर, वृन्द, संघात, समाज, कुल, चक्रवाल, संघ, निकाय, कदम्ब, जाति, औघ, पैटक ।
(6) ध्वनि-ध्वान, रव, रणित, शिंजित, बबणित, स्वन, गुंजन, आख चीत्कार, मुखरित, निर्धोष, स्तनित, घर्घर, झात्कार, निनाद, निनद, नाद, हाहाख, क्वाण, झंकार, भांकृत, किलकिलाख, कोलाहल, हित, हृषित, चीत्कृत, कडत्कार, सूत्कार, धूत्कार, टंकृत, गजित ।
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अलंकार-योजना अलंकृत शैली धनपाल के समय में दरबारी कवियों की विशेषता थी। धनपाल के मत में कान्ति, सुकुमारता आदि स्वाभाविक गुणों से युक्त काव्य, अलंकार रहित होते हुए भी सहृदयों के हृदय को आकृष्ट करता है। धनपाल ने अलंकारों की अपेक्षा काव्य में गुणों को अधिक महत्व दिया है और गुणों में भी प्रसाद गुण को । अलंकारों में धनपाल के मत में स्वाभावोक्ति को सर्वोत्कृष्ट कहा गया है।
अपने काव्य को अलंकारों की सुषमा से जगमगाने में धनपाल अत्यन्त निपुण हैं । उनके अलंकार-प्रयोग की निम्नलिखित विशेषताएं हैं
(1) धनपाल शब्दालंकार एवं अर्थालंकारों के समन्वय में अत्यन्त चतुर हैं । तिलकमंजरी में सर्वत्र अनुप्रास, यमक की छटा बिखरी हुई है, तथा स्थानस्थान पर अर्थालंकारों से तिलकमंजरी का शृंगार किया गया है।
(2) धनपाल को परिसंख्या अलंकार के प्रयोग में विशेष निपुणता प्राप्त है । तिलकमंजरी में इस अलंकार का प्रयोग बहुलता से किया गया है। अतः कहा जा सकता है, 'उपमा कालिदासस्य, "उत्प्रेक्षाबाणभट्टस्य," परिसंख्याधनपालस्य" । श्लिष्ट परिसंख्या का इतना चमत्कारिक प्रयोग अन्य संस्कृत काव्य में नहीं मिलता है । परिसंख्या के अतिरिक्त धनपाल को घिरोधाभास तथा उत्प्रेक्षा अलंकार अत्यन्त प्रिय हैं । अतः परिसंख्या, विरोधाभास तथा उत्प्रेक्षा अलंकार के प्रयोग में धनपाल की विशिष्टता है।
__ (3) विशिष्ट व्यक्ति अथवा स्थान के वर्णन में धनपाल अलंकारों की झड़ी लगा देते हैं। जैसाकि अयोध्या तथा मेघवाहन के वर्णन से ज्ञात होता है । इनमें प्रायः एक के बाद एक करके सभी प्रमुख अलंकार क्रमबद्ध रूप से प्रयुक्त
(4) धनपाल न केवल अलंकारों के प्रयोग में ही चतुर हैं, अपितु वे उपमान चयन में भी विलक्षण प्रतिभा का परिचय देते हैं । उनके उपमान अत्यन्त समीचीन व प्रसंगोपात्त होते हैं । वर्ण्य विषय तथा प्रसंग के अनुसार उपमान का चयन धनपाल के अलंकारों की चौथी विशेषता है। नाविक तारक के प्रसंग में
1. उज्झितालंकारामप्यकृत्रिमेणकान्तिसुकुमारतादिगुणपरिगृहीतेनांगमाधुर्येण सुकविवाचमिव सहृदयाना हृदयमावर्जयन्तीम् ।
-तिलकमंजरी, पृ. 71 1. प्रसत्तिमिव काव्यगुणसंपदाम्,
-तिलकमंजरी, पृ. 159 2. जातिमिवालंकृतीनाम्,
-वही, पृ. 159
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सभी समुद्र सम्बन्धी वस्तुओं को उपमान बनाया गया है । इसी प्रकार इसके सहयोगी मल्लाहों के प्रसंग में सभी उपमान कृष्णवर्णी तथा जलसम्बन्धी वस्तुओं के हैं। गोपललनाओं के प्रसंग में उनकी तुलना सभी गोरस सम्बन्धी वस्तुओं से की गयी है । वेताल के नखों की कांति को गधे की तुण्ड के समान धूसर वर्ण का कहा गया है । अतः धनपाल अपने अलंकार-प्रयोग में औचित्यत्व के प्रति पूर्ण रूप से सचेत थे । अलंकार का उचित प्रयोग जहां काव्य का सौन्दर्य बढ़ाता हैं, वही अनुचित होने पर रस का बाधक बन जाता है। क्षेमेन्द्र (11 वीं शती) के अनुसार अलंकार वही हैं जो उचित स्थान पर प्रयुक्त किये जायें। काव्य के शोभाधायक धर्मों को अलंकार कहा जाता है । "अलंकरोति इति अलंकारः" यह अलंकार शब्द की व्युत्पत्ति है । अतः जो काव्य के शरीर भूत शब्द तथा अर्थ को अलंकृत करे, वह अलंकार है।
अलंकारों का विभाजन प्रमुखतया दो विभागों में किया गया है । शब्दालंकार तथा अर्थालंकार । जो अलंकार शब्द परिवृत्ति को सहन कर लेते हैं, वे अर्थालंकार कहलाते हैं तथा शब्द परिवृत्ति को सहन नहीं करने वाले शब्दालंकार कहलाते हैं। शब्दालंकार
___ शब्दालंकारों में अनुप्रास, यमक, श्लेष तथा पुनरूक्तवदामास का प्रयोग तिलकमंजरी में हुआ है।
(1) अनुप्रास-वर्णों का साम्य अनुप्रास कहा जाता है! अर्थात् स्वर भिन्न होने पर भी केवल व्यंजनों की समानता होने पर अनुप्रास अलंकार होता
3.
1. इन्दुकान्ततटवालण्यं ललाटेन, शुक्तिसौन्दर्य श्रवणयुगलेन, मौक्तिकाकारं दन्तकुड्मविदुमरागमोष्ठेन...
-तिलकमंजरी, पृ. 126 काककोकिलकलविककण्ठकालकायेर्मकररिवातपसेवितुमकूपारमध्यादेकहेलयानिर्गतर्मद्गुभिरिव...
-वही, पृ. 126 वही, पृ. 118 4. आवद्धास्थिनूपुरेण स्थवीयसा चरणयुगलेन रासभप्रोथघूसरं नखप्रभाविसरम्...
-वही, पृ. 46 5. क्षेमेन्द्र, औचित्यविचारचर्चा, पृ. 1, चौखम्बा संस्कृत सीरीज, बनारस,
1933 6. काव्यशोभाकरान् धर्मानलंकारान् प्रचक्षते ।
-दण्डी, काव्यादर्श, 2/1
वहा,
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तिलकमंजरी, एक सांस्कृतिक अध्ययन
है । अनुप्रास का तिलकमंजरी में सर्वत्र प्रयोग किया गया है। कुछ उल्लेखनीय उद्धरण प्रस्तुत हैं
110
(अ) वंजुल निकुंजपुंजमान मंजुकुक्कुटक्क णितेन
(ब) आरब्धकेलिकलहको किलकुलाकुलितकलिकांचित (स) विपदिव विरता विभावरी
-q. 210
- पृ. 211 - पू. 28
(2) यमक - – अर्थ होने पर भिन्नार्थक वर्णों की पुनरावृत्ति यमक कहलाती है । 2 मेघवाहन के वर्णन में यमक का सुन्दर उदाहरण है—
दृष्टवा वैरस्य वैरस्यमुज्झितास्त्रो रिपुव्रजः । यस्मिन् विश्वस्य विश्वस्य कुलस्य कुशलं व्यवघात् ॥
(3) श्लेष - धनपाल ने इस अलंकार का प्रायः उपमा, उत्प्रेक्षा, परिसंख्या तथा विरोधाभास अलंकारों के साथ संसृष्ट रूप में प्रयोग किया है । श्लेष के तीन उदाहरण दिये जाते हैं - (प्रारम्भिक स्तुति पद्य में समंग तथा वचन - श्लेष का उदाहरण मिलता है)
प्राज्यप्रभावः प्रभवो
धर्मस्यास्तरजस्तमाः । दवतां निर्वृतात्मा न आद्योऽन्येऽपि मुदं जिनाः ॥
इस पद्य में 'जिना: ' तथा 'आद्यो' दोनों के पक्ष में अर्थ घटित होने से एकवचन बहुवचन श्लेष है, तथा 'प्राज्य प्रभा:' तथा 'प्राज्यप्रभाव: ' पद में समंग श्लेष है ।
श्लेष का अन्य उदाहरण -
1.
2.
शेषे सेवाविशेषं ये न जानन्ति द्विजिह्वताम् ।
यान्तो हीनकुलाः किं ते न लज्जन्ते ? मनीषिणाम् ॥15
सज्जन की सेवा न करने वाले दो मुंहे नीच कुल में उत्पन्न लोग क्या सज्जनों के मध्य नहीं लज्जित होते हैं ? अथवा जो दो जीभ धारण करने वाले अहीनकुलों में उत्पन्न होने वाले शेष (नागराज) की सेवा नहीं जानते, वे मनीषियों के बीच क्या लज्जित नहीं होते । इस पद्य में शेषे से, हीनकुलाः द्विजिह तां पदों में श्लेष है ।
युद्ध के प्रसंग में श्लेष का सुन्दर उदाहरण मिलता है – “ उन दोनों सेनाओं का कुछ समय, नवदम्पत्ति के कर- पल्लव के समान कांची के ग्रहण
वर्णं साम्यमनुप्रासः ।
अर्थे सत्यर्थभिन्नानां वर्णानां सा पुनः श्र ुतिः यमकम् ।
3. तिलकमंजरी, पृ. 16
4.
तिलकमंजरी, पृ. 1
5.
वही, पृ. 2
मम्मट, काव्यप्रकाश, 9/103
वही, 9/116
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तथा रक्षण में अत्यन्त आग्रह युक्त होकर बीता। 1 यहां 'कांची" शब्द में श्लेष है, कांची का नगरी तथा करधनी अर्थ है। तारक की नौ-अभ्यर्थना में श्लेष के द्वारा नौ के बहाने से मलयसुन्दरी से प्रणय-याचना की गयी है। यह प्रसंग धनपाल के श्लेष-प्रयोग की निपुणता प्रदर्शित करता है।
पुनरक्तवदामास-विभिन्न आकार वाले शब्दों में समानार्थकता न रहते हुए भी जो समानार्थता की सी प्रतीति होती है। वह पुनरुक्तवदाभास अलंकार है। इसमें पहले पुनरुक्ति में प्रतीति होती है किन्तु अंत में नहीं रहती। यथा-धूर्जटिललाटलोचनाग्निनेव हृदयेनानंगीकृतकंदर्पयोः इसमें 'अनंग' तथा 'कन्दर्प' में पुनरुक्ति सी प्रतीत होती है। , अर्थालंकार
विभिन्न आलंकारिकों ने अर्थालंकारों के अनेक भेद परिगणित किए हैं, तथा वे इनकी संख्या के विषय में एक मत नहीं है। वस्तुतः सभी अलंकारों के मूल में चार बातें हैं, जिनके आधार पर अनेक भेद-प्रभेद बनते हैं । आचार्य रुद्रट के मत में (1) वास्तव (2) ओपम्य (3) अतिशय तथा (4) श्लेष इन चार तत्वों के मूल में सभी अर्थालंकार समा जाते हैं। कुछ अलंकार वास्तविकता पर आधारित होते हैं, कुछ ओपम्य मूलक होते हैं, कुछ अतिशय व्यंजक होते हैं तथा कुछ श्लेष पर आधारित होते हैं । वस्तु के यथावत् स्वरूप का चित्रण वास्तव में है। सहोक्ति, सम्मुचय, यथासंख्य, भाव, पर्याय, विषम, दीपक आदि अलंकार वास्तव जाति में परिगणित होते हैं। जहां वस्तु के सम्यक् वर्णन के लिए उसी के समान अन्य वस्तु का उल्लेख किया जाता है, वहां औपम्य माना जाता है । उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक, अपहुति, संशय, समासोक्ति, अर्थान्तरन्यास, दृष्टान्त आदि अलंकार इस श्रेणी में आते हैं।'
किसी वस्तु को उसके प्रसिद्ध स्वरूप से भिन्न अलौकिक ढंग से कहना अतिशय कहा जाता है । इस वर्ग में अतिशयोक्ति, विशेष, तद्गुण, विषम आदि
1. एवं च कांचीग्रहण रक्षणविधावधिरूढगाढाभिनिवेशयोराभिनवोढदम्पत्तिकरपल्लवयोः
-तिलकमंजरी, पृ. 83 वही, पृ. 283-286 पुनरूक्तवदामासो विभिन्नाकारशब्दगा एकार्थतेव ।
-मम्मट काव्यप्रकाश, 9/121 4. तिलकमंजरी, पृ. 104
रूद्रट, काव्यालंकार 7/9 6. रूद्रट, काब्यालंकार 7/10 7. वही, 8/1
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अलंकार हैं। इसी प्रकार जहां अनेकार्थक पदों से रचित एक काव्य से अनेक अर्थ लगाये जाते हैं, वहां अर्थ-श्लेष होता है। अतः इन्हीं चार मूल तत्वों को ध्यान में रखते हुए कवि कुछ हेरा-फेरी के साथ भिन्न-भिन्न तरीकों से अपने मनोभाव प्रकट करता है, उसी से अलंकार के अनेक भेद-प्रभेद बन जाते हैं।
___ तिलकमंजरी में सभी प्रमुख अर्थालंकारों का प्रयोग हुआ है। तिलकमंजरी में अलंकारों का सर्वत्र ही प्रचुर प्रयोग होने के कारण सभी का उद्धरण देना असंभव है, अतः स्थाली-पुलाव न्याय से प्रत्येक अलंकार के दो-दो, तीन-तीन उदाहरण यहां दिये जायेंगे । उपमा. उत्प्रेक्षा, रूपक, ससन्देह, समासोक्ति निदर्शना, दृष्टान्त, अतिशयोक्ति, तुल्ययोगिता, व्यतिरेक, विशेषोक्ति, अर्थान्तरन्यास, विरोधाभास, स्वाभावोक्ति, सम, विषम, तद्गुण सहोक्ति, व्याजस्तुति, परिसंख्या, काव्यलिंग, कारणमाला, इन 23 प्रमुख अर्थालंकारों का लक्षण तथा उदाहरण सहित क्रमशः विवेचन किया जायेगा।
(1) उपमा-उपमा को समस्त अलंकारों का मूल कहा गया है। प्राचीन तथा अर्वाचीन सभी अलंकारिकों ने उपमा के अनेक भेद-प्रभेद करके उसी में अनेक अलंकारों का अन्तर्भाव कर यह सिद्ध कर दिया है कि उपमा काव्यालंकारों में प्राणभूत है। महिमभट्ट ने 'सर्वेष्वलंकारेषुपमा जीवितायते' कहकर उपमा की महिमा का गान किया है। रूययक ने उपमा को अनेक अलंकारों में बीज-भूत कहा है । अप्पय-दीक्षित (16वीं शती) के अनुसार उपमा वह नटी है जो काव्यरूपी नाट्यशाला में अकेली ही विभिन्न अलंकारों के रूपों को धारण कर अपना नृत्य दिखाती हुई सहृदयों के हृदय को आह्लादित करती है । राजशेखर ने उपमा को अलकारों का शिरोरत्न, काव्य का सर्वस्व यहां तक कि कवियों की माता के समान कहा है । उपमा के इसी प्राधान्य के कारण सभी अलंकारिकों ने अर्थालंकारों में सर्वप्रथम उपमा का ही उल्लेख किया है।
1. वही, 9/1 2. वही, 10/1 3. रूययक, अलंकारसर्वस्व, उपमैवानेकालंकारबीजभूता
-उद्धृत, अलंकार मीमांसा : रामचन्द्र द्विवेदी, पृ. 206 4. उपमंका शैलूषी संप्राप्ता चित्रभूमिकाभेदान् । रज्जयति काव्यरंगे नृत्यन्ती तद्विदां चेतः ॥
-अप्पयदीक्षित, चित्रमीमांसा, पृ. 5, काव्यमाला 38, 1907 अलंकारशिरोरत्नं सर्वस्वं काव्यसम्पदाम् । उपमा कविवंशस्य मातेवेति मतिर्मभ ॥
-उद्धृत, केशवमिश्र, अलंकारशेखर पृ. 32
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मम्मट (11वीं शती) के अनुसार उपमान तथा उपमेय का भेद होने पर उनके समान धर्म का वर्णन उपमा कहलाता है। वह उपमा दो प्रकार की कही गयी है- (1) लुप्तोपमा (2) पूर्णोपमा ।
उपमा में उपमान, उपमेय, साधारण धर्म तथा वाचक शब्द, इन चार तत्वों का समावेश होता है इन चारों के शब्दतः उपस्थित रहने पर पूर्णोपमा होती है तथा लुप्तोपमा में इन चारों में से किसी न किसी का लोप रहता है।
(1) लुप्तोपमा-लुप्तोपमा का एक सुन्दर उदाहरण तिलकमंजरी में मिलता है –'कुन्दनिमला ते स्मिता तिः' (पृ. 113) इसमें वाचक शब्द लुप्त है। इसी प्रकार-'कुसुमायुध इव आयुधद्वितीयः' (पृ. 19) इसमें उपमेयभूत मेघवाहन का शब्दतः उल्लेख नहीं किया गया है अतः यह लुप्तोपमा है।
(2) पूर्णोपमा-यह श्रोती तथा आर्थी, इन दो प्रकार की कही गयी है । यथा, इव, वा का प्रयोग होने पर श्रौती उपमा होती है तथा तुल्य, सदृश आदि के प्रयोग होने पर आर्थी उपमा होती है।
(अ) श्रौती पूर्णोपमा लक्ष्मी के वर्णन में श्लेषोत्थापित श्रौती पूर्णोपमा का उदाहरण मिलता है-"अनेक तथा विस्तृत पत्तों के फणावलय से सुशोभित, लम्बे विशाल मृणालदण्ड के शरीर से युक्त तथा चन्द्रमा की पाण्डुवर्ण कान्ति वाले कमल पर बैठी हुई लक्ष्मी शेषनाग पर स्थित पृथ्वी के समान जान पड़ती थी।
(आ) आर्थी पूर्णोपमा-का सुन्दर उदाहरण प्रातःकाल के वर्णन में प्राप्त होता है-"प्रभातकाल में तारे पके हुए अनार के दाने के समान (लाल) हो गये हैं, अंधकार के जीर्णतन्तु पलालों से तुलनीय हो गये हैं तथा पश्चिम दिशा की भित्ति पर स्थित ज्योतिहीन, पाण्डुवर्णी पूर्णचन्द्र का बिम्ब मकड़ी के जीर्ण जाले के समान प्रतीत होता है ।"5 ये सभी उपमान धनपाल की मौलिक व असाधारण प्रतिभा के प्रतीक हैं।
1. मम्मट, काव्याप्रकाश, साधर्म्यमुपमाभेदे, 10, 124 2. पूर्णालुप्ता च
-वी, 10, 125 मम्मट, काव्यप्रकाश, 10-126 4. विततदलसहस्रफणावलयशोभिनि पृथुलदीर्घनालभोगे शेषभुजग इव मेदिनीमिन्दुकरपाण्डुरत्विषि पुण्डरीके कृतावस्थानाम्.......
-तिलकमंजरी. पृ. 54 जाता, दाडिमबीजपाकसुहृदः सन्ध्योदये तारकाः यान्ति प्लुष्टजरत्पलालतुलनां तान्तास्तमस्तन्तवः । ज्योत्सनापायविपाण्डु मण्डलमपि प्रत्यड्नभोभित्तिभाक्पूर्णेन्दोजरदर्णनाभनिलयप्रागल्भ्यमभ्यस्यति ॥ -तिलकमंजरी, पृ. 238
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-पृ. 222
इसी प्रकार के एक अप्रसिद्ध उपमान का अन्य उदाहरण प्रस्तुत है'यह सूर्य धीवर के समान तारों रूपी मछलियों के समूह से युक्त आकाश रूपी ताधलाब से अंधकार रूपी जाल को किरणों के हाथों से खींच रहा है ।1 इसमें रुपक से संसृष्ट उपमा है। पौराणिक उपमान
___धनपाल प्रायः रामायण, महाभारत तथा पौराणिक कथाओं से उपमान ग्रहण करते हैं, इसी प्रकार की कुछ उपमाओं के उदाहरण प्रस्तुत हैं(1) पार्थवत् पृथिव्यामेकधन्वी समरकेतुर्नाम ।
-पृ. 95 (2) त्रिविक्रमपिव पादापनिर्गतत्रिपथगासिन्धुप्रवाहम्, -पृ. 240 (3) सुग्रीवसेनामिव स्फुरत्तारनीलांगदाम्,
-पृ. 55 (4) जामदग्न्यमार्गणाहतक्रौंचाद्रिच्छिद्ररिव उद्घान्तराजहंसः, -पृ. 8 (5) मौमित्रिचरितमिव विस्तारितोमिलास्यशोभम्, -पृ. 204 (6) कचित्सुग्रीवमिव कपिशतान्वितम्, (7) अजातशत्रुणासत्यव्रताधिष्ठितेन कृष्णद्वैपायनमिव युधिष्ठिरेण""
-पृ. 24 (8) अम्बिकायौवनोदयमिव वशीकृत विशमाक्षचित्तम्, -- पृ. 24 (9) वृत्रभिवोपकण्ठलग्नवज्रानुविद्धफेनच्छटा............ -पृ. 122
(10) शाक्यशिष्ययोरिवानुपजातविप्रयोगदुःखयोः, -पृ. 104 दार्शनिक उपमान
इसी प्रकार तिलकमंजरी में दार्शनिक साहित्य से भी उपमान चुने गये हैं । यथा-(1) बौद्ध इव सर्वतः शून्यदर्शी,
-पृ. 28 (2) सत्तकविद्यामिव विधिनिरूपितानवप्रघमाणाम्, -पृ. 24
धनपाल प्राय: अपने पात्रों की तुलना देवी-देवताओं से करते हैं । हरिवाहन की इन्द्र से समता प्रदर्शित की गयी है-'अच्छकान्तिरत्नदर्पणप्रतिबिम्बितैः प्रीतिनिश्चलचक्षुषो जनस्य सर्वतः सहनसंख्यविलोचनैः शवलितगात्रयष्टिः ऐरावताधिष्टः सहस्राक्षा इव साक्षादुपलक्ष्यमाणः (105)। इसी प्रकार मेघवाहन की शिव से तुलना की गई है --'कदाचिन्मुदितसुहृद्गणोपदिश्यमानमार्गोमृगांकमौलिरिव कैलासशिखरे वभ्राम' पृ. 17 ।
धनपाल प्रायः एक ही उपमा का प्रयोग न करके अनेक उपमाओं की शृंखला एक साथ उपस्थित करते हैं । यथा-करेणुराज इव विलोलयन कमलिनीखण्डानि, पम्रिरिवाजिप्रत् सहलवलकमलामोवम्, इन्दुरिव मोचवन्
1. अन्तविस्फुरितोरुतारकति मिस्तो नभ: पल्क्ला
बान्तानायमयं च धीवर इवानूरू: करैः कर्षति ।।
-वहीं, पृ. 238
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कुमुद मुकुलोदर संदानितान्यलिकदम्बकानि, प्रदोष इव विघटयन्रथांगमिथुनानि, राजहंस इवोल्लसल्लहरीपरम्पराप्रेर्यमाणमूर्तिरूततार । - पृ. 206-207
श्लेषोपमा
श्लेष पर आधारित उपमा का भी तिलकमंजरी में बहुलता से प्रयोग पाया गया है । श्लेषोपमा के उदाहरण, आराम (211-212), आयतन (204) अटवी (200) आदि के वर्णनों में मिलते हैं । चार उद्धृत किये जाते हैं(1) वैशम्पायनशापकथाप्रक्रमभिव दुर्वणशुक्रनाशमनोरमं जीवमिव, ...वसन्तचूतव्र मभिवचारूमंजरीकम्"
मालोपमा
115
......
- पृ. 215 - पृ. 24
(2) नदीतटतरुमिव स्फुटोपलक्ष्यमाणजटम् ग्रीष्मकूपमिव (3) त्रयीमिव महामुनिस हस्रोपासितचरणाम् ..
-g. 222
(4) क्वचिद्वधूलोचनयुगमिव कृष्णतारोचित्तम् क्वचिद्विन्ध्याचलमिव धवलाक्रान्तम्, क्वचित्सुग्रीवमिव कपिशतान्वितम् - पृ. 222
तिलकमंजरी में मालोपमा का प्रयोग अनेक स्थलों पर प्राप्त होता है । जहां एक उपमेय के लिए अनेक उपमानों का ग्रहण होता है वहां मालोपमा होती हैं । चार उदाहरण प्रस्तुत हैं
(1) वारिबद्ध इव वनकरी, लब्धमिथ्याभिशाप इव साधुरकस्मात् प्रनष्टसकलगृहस्वापतेय इव गृहपतिरायतोष्णान् मुहुर्मुहुः सृजसि निःश्वासान् ।
- पृ. 111 (2) गगनाभोग इव शशि - भास्कराभ्यामच्युत इव शंखचक्राभ्यामम्भसां पतिरिवामृतवाडवाभ्यामभिरामभीषणो यशः प्रतापाभ्याम् ।
— पृ. 13
(3) चन्द्रमण्डलमिव शिशिरात्ययेन मानससरस्तोय मिवागस्त्योदयेन, सुकविवाचमिव सज्जनपरिग्रहेण गगनतलमिव शरत्कालागमेन, सप्रसादमपि किमपि मे प्रसादितं हृदयम् ।
-g. 56 (4) कोटरोदर निमग्नदावाग्निमुर्मुर इव महाद्र ुमः, मूललग्नकीट इव पंकजाकरः, बेहनष्टराहुवंष्ट्राशकल इव निशाकरः सान्तस्ताप इव लक्ष्यते भवान् ।
पृ. 27 रशनोपमा का कोई उदाहरण तिलकमंजरी में नहीं मिलता है । मूर्त के लिए अमूर्त उपमान के उदाहरण भी तिलकमंजरी में दुर्लभ हैं । एक उदाहरण प्रस्तुत है - 'प्राप्यन्ते घटना रथांगमिथुनंस्त्वद्वांछितांबें रिव' (238) तुम्हारे मनोरथों के समान चक्रवाकों का भी सम्मेलन हो रहा है ।
अतः तिलकमंजरी में सात प्रकार की उपमाओं के उदाहरण प्राप्त होते हैं । रशनोपमा का इसमें प्रयोग नहीं किया गया है । इस प्रकार ये कतिपय उदा
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हरण धनपाल के उपमा प्रयोग के नैपुण्य को प्रदर्शित करते हैं तथा उनके साम्यदर्शन की क्षमता को दर्शित करते हैं । उत्प्रेक्षा
सम्पूर्ण तिलकमंजरी में उत्प्रेक्षा अलंकार का चमत्कार प्रदर्शित किया गया है । नवीन कल्पनाओं से काव्य को अलंकृत करना गद्य-काव्य की विशेषता है । कुछ विशिष्ट एवं असाधारण उत्प्रेक्षाओं के उदाहरण दिये जाते हैं ।
जहां प्रकृत अर्थात् उपमेय की सम (उपमान) के साथ सम्भावना वर्णित की जाती है वहां उत्प्रेक्षा होती है ।
तिलकमंजरी में विभिन्न प्रकार की उत्प्रेक्षाओं के प्रयोग को दर्शित करने वाले कुछ उदाहरण नीचे दिये जाते हैं -
(I) प्रातःकाल में चन्द्रमा के अस्त होने की कवि ने सुन्दर उत्प्रेक्षा की है- 'प्रात:कालीन वायु के संसर्ग से ठिठुरने के कारण यह चन्द्रमा दिशाओं रूपी शय्यातल से अपने किरणरूपी पैरों को सिकोड़ रहा है। यहां वायु के संसर्ग से ठिठुरना, पैरों को सिकोड़ने का हेतु है, अत: हेतूत्प्रेक्षा है।
(2) विजय-प्रयाण के समय समरकेतु द्वारा धारण की गयी एकावली के विषय में सुन्दर उत्प्रेक्षा की गयी है - "बड़े-बड़े निर्मल मोतियों से निर्मित आनामिलम्ब एकावली ऐसी प्रतीत होती थी मानो तत्समय प्रदृष्ट, वक्षःस्थल में निवास करने वाली राजलक्ष्मी की दोनों ओर बहने वाली आनन्दाश्रुओं की धारा हो।"
(3) धनपाल उत्प्रेक्षित वस्तु अथवा स्थिति या भाव को अधिकाधिक प्रभावोत्पादक बनाने के लिए एक साथ अनेक उत्प्रेक्षाओं का प्रयोग करते हैं । उदाहरण के लिए
(अ) विस्मयमयोव कौतुकमयीवाश्चर्यमयीव प्रमोदमयीव क्रीडामयीवोत्सवमयीव निर्वृत्तिमयीव धृतिमयीव हासमयीव सा विभावरी विराममभजत्
पृ. 62
1. 'सम्भावनमथोत्प्रेक्षा प्रकृतस्य समेन यत्'
-मम्मट, काव्यप्रकाश, 10-136 1. उद्यज्जाडय इव प्रगेतनमरूत्संसर्गतश्चन्द्रमा:, पादानेष दिगन्ततल्पतलतः संकोयत्यायतान् ।
तिलकमंजरी, पृ. 238 स्थूलस्वच्छमुक्ताफलग्रथितां तत्क्षणप्रमुदितायाः वक्षस्थलभाजो राजलक्ष्म्या: लोचनद्वयादानन्दाश्रुपद्धतिमिव द्विधाप्रवृत्तां नामिचक्रचुम्बिनीमेकावली दधानो...
-वही, पृ. 115
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(आ) भूतैरिवाधिष्ठिता, कृतान्तदूतैरिव कटाक्षिता, कलिकालेनेव कवलिता समग्रपापग्रहपीडामिरिव क्रोडीकृता
-प. 40 (इ) पातालपंकादिवोन्मग्नम्, प्रलयघनदिनादिव निःसृतम्, कृतान्तमुखकुहरादिवाकृष्टम्, महाकालकरकपालोदरादिवोच्छलितम्, तक्षकाशीविष. वेगवेदनयेवोन्मुक्तम्
पृ. 192 ___(ई)."अमर्षमय इव क्रौर्यमय इव, वैरमय इव, ब्याजमय इव, हिंसामय इव विभाव्यमाने
पृ. 88 (4) प्रसन्न होकर लक्ष्मी ने मेघवाहन पर जो दृष्टि डाली, उसके लिए कवि की उत्प्रेक्षा है- 'लक्ष्मी अपनी दुग्धधवल दृष्टि की किरणों से मेघवाहन के शरीर को मानो अमृत से सींच रही थी, हिम-जल से स्नान करा रही थी, चन्दनांगराग से मल रही थी, तथा मालती की कलियों से आच्छादित कर रही थी।
___(5) मन्ये, शंके, ध्रुवं, प्राय, नूनं इव आदि उत्प्रेक्षा के वाचक हैं। मन्ये तथा शंके वाचक शब्दों से युक्त दो उदाहरण दिये जाते हैं(अ) मन्ये का प्रयोग
अस्या नेत्रयुगेन नीरजदलस्रग्दामदेध्यंQहा, चंचत्पार्वणचन्द्रमण्डलरूचा वक्त्रारविन्देन च । स्वामालोक्य दृशं रूचं च विजितां तुल्यं त्रपाबाघितै
बंद्धानिर्जनसंचरेषु कमलर्मन्ये वनेषु स्थितिः॥ पृ. 256 (आ) शके का प्रयोग
जानीय श्रुतशालिनो खलु युवामावां प्रकृत्यजूंनी त्रैलोक्ये वपुरीदगन्ययुवतेः संभाव्यते कि क्वचित् । एतत्प्रष्टुमपास्तनीलनलिनश्रेणीविकाशधिणी,
शंकेऽस्याः समुपागते मृगदृशः कर्णान्तिकं लोचने ॥ . प. 248 (6) वैताढ्य पर्वत को जम्बूद्वीप का उष्णीषपट, भारतवर्ष का मानसूत्र, आकाश रूपी सागर का सेतुबन्ध, पृथ्वी की सीमा रेखा, पूर्व दिशा का हार कहा गया है।
1. चक्षुषः क्षरता क्षीरधवलेनाशुविसरेण सुधारसेनेदाप्यायन्ती, हिमजलेनेव
स्नापयन्ती, मलयजांगरागेणेव लिम्पन्ती, मालतीमुकुलदाममिरिवाच्छादयन्ती"राज्ञो वपुः
तिलकमंजरी, पृ. 56 2. उष्णीषपदमिव जम्बूद्धीपस्य, मानसूत्रमिव भारतवर्षस्य, सेतुबन्धमिव गगनसिन्धो, सीमन्तमिव भुवः, हारमिव वैश्रवणहरितः.....
.... :: . -तिलकमंजरी, पृ. 239
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इसी प्रकार कुछ और उल्लेखनीय उदाहरण दिये जाते हैं(1) आधारमिव धैर्यस्य, हृवस्यमिव सौहृदय, स्वतत्वमिव सत्वस्य, परिपाकमिव पौरूषस्य, जयस्तम्भमिवावष्टम्भस्य, दृष्टान्तमिव कष्टं सहानाम्
पृ. 231
(2) सुभटशस्त्र पातरणितेन प्रणम्यमानमिव, भूमिनिक्षिप्तमूर्धभिः कबन्धे रच्यमानमिव, उच्छलकुम्भमुक्ताफलाभिः करिघटामिरमिषिच्यमानमिव, मुक्तासृग्वृष्टिमि -
-
पृ० 90 (3) विरचितालकेव मखानलधूमकोटिभिः, स्पष्टितांजन तिलक बिन्दुरिव बालोद्यानं:, आविष्कृत विलासेसहासेव दन्तवलभीमिः आगृहीतदर्पणेव सरौभि:
पृ० 11
रूपक
भेदयुक्त उपमान तथा उपमेय का सादृश्यातिशय के कारण जो अभेद वर्णन है, वह रूपक अलंकार कहलाता है । 1 नीचे तिलकमंजरी से रूपक के तीन उदाहरण दिये जाते हैं—
(1) “मदिरावती रागरूपी नट की रंगशाला, रूप की सोने की लेखनी, विभ्रम भ्रमरों की कमलिनी, क्रीडारूप कलहसों का शरतकालागमन, कामदेव रूपी महावातिक की वशीकरण विद्या थी । "2 यहां राग तथा नट, रूप तथा स्वर्ण, विभ्रम तथा भ्रमर, केलि तथा कलहंस में अभेद स्थापित किया गया है, अतः रूपक अलंकार है ।
(2) सांगरूपक एक का सुन्दर उदाहरण समुद्र के वर्णन में मिलता है'वह समुद्र, हंसनूपुर के शब्दों को बन्दकर तीव्रता के कारण कम्पित पयोधरतटों से युक्त, क्रौंचमाला रूपी मेखलाओं से रहित पुलिनजघनों वाली, शफर रूपी नेत्रों से इधर-उधर देखती हुई, शैबल, प्रवाल रूपी कस्तूरिका से चिह्नित मुखों को नये जलरूपी वस्त्र से ढकती हुयी, नदियों रूपी अभिसारिकाओं से आलिंगित था । " इसमें प्रमुख रूपक निम्नगा में अभिसारिका का आरोप है, हंसनपुर, पयोधरतट, क्रौंचमालामेखला, पुलिनजघन, शफरलोचनादि रूपक अंगभूत हैं, अतः यह सांगरूपक है ।
1. तद्रूपकमभेदो य उपमानोपमेययोः ।
-मम्मट काव्यप्रकाश 10/139
2.
22
रंगशाला रागशैलषस्य, ज्येष्ठवणिका रूपजातरूपस्य, अम्भोजिनी विभ्रमभ्रमराणां, शरत्कालागति । - तिलकमंजरी, पृ० 3. मुद्रितमुखरहंसनूपुर स्वनाभिः त्वरित गति बशोत्कम्पमान पृथुपयोधरतटाभिमुक्तवाचालक्रौंचमालामेखलानि पुलिनजघनस्थलानि विभ्रतीमिरितस्ततोनिम्ननाभिसारिका मिर्गाढमुपगूढम् । -- तिलकमंजरी, पृ० 120-121
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(3) जिसमें उपमेय पर अन्य का आरोप, अवश्यापेक्षणीय अन्य अर्थ के आरोप का कारण होता है वहां परम्परित रूपक होता है। विद्याधर मुनि के वर्णन में परम्परित रूपक का उदाहरण प्राप्त होता है
"वह विद्याधर मुनि इन्द्रियवृत्ति रूपी स्त्रियों को परपुरुषदर्शन से बचाने वाला कंचुकी, साधुरूपी मयूरों के लिए पृथ्वी के ताप को हरने वाला मेघों का आगमन, काम-विकार रूपी सों के लिए तीव्र विष को हरने वाला महामन्त्र तथा हृदयरूपी जलाशयों के लिए काशपुष्प की शुभ्रता से सुशोभित अगस्त्य नक्षत्र का उदय था।"
यहां इन्द्रियवृत्ति में वनिता रूपक मानने पर ही विद्याधर मुनि से अन्तःपुररक्षक का अभेद स्थापित किया जा सकता है । इसी प्रकार अन्य रूपक भी बनते हैं, अतः यह माला रूप परम्परित रूपक का उदाहरण है। ससन्देह
अत्यधिक सादृश्य के कारण उपमेय में उपमान रूप से संशय करने पर संदेह नामक अलंकार होता है। वह शुद्ध, निश्चय, गर्म तथा निश्चयान्त रूप से तीन प्रकार का होता है । शुद्ध सन्देह के दो उदाहरण प्रस्तुत हैं
(1) शुद्ध सन्देह में संशय बना ही रहता है। इसका उदाहरण तिलकमंजरी को देखकर हरिवाहन की इस उक्ति में मिलता है- "क्या यह राहु के ग्रस लेने से गिरी हुयी चन्द्रमा की शोभा है, अथवा मन्थन से चकित समुद्र से निकली अमृत की देवी है अथवा यह शिव की नेत्राग्नि से भस्मीभूत कामदेव रूपी वृक्ष से उत्पन्न नवीन कन्दली है। इसमें सन्देह का निवारण न होने से शुद्ध सन्देह है।
1. मम्मट, काव्यप्रकाश, 10/144 2. परपुरुषदर्शनसावधानं सोविदल्लभिन्द्रियवृत्तिवनितानाम्, भूतापद्रुहसम्बुधरागमं साधुमयूराणाम्, दुर्विषहतेजसं महामन्त्रमनंगविकाराशीविषाणाम् ।
__ - तिलकमंजरी पृ० 25 ससन्देवस्तु भेदोक्तो तदनुक्ती च संशय -मम्मट, काव्यप्रकाश, 10/137 4. रुय्यक, अलंकारसर्वस्व, जयरथ की टीका, पृ० 43, काव्यमाला, 1893
ग्रहकवलाद् भ्रष्टा लक्ष्मीः किमृक्षपतेरियं, मथनचकितापक्रान्ताऽस्तामृतदेवता। गिरिशनयनोदचिर्दग्धान्मनोभवफादपाद्, विदितमथवा जाता सुभूरियं नवकन्दली ॥ -तिलकमंजरी, पृ० 248
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(2) मलयसुन्दरी समरकेतु को देखकर कहती है- किमेष पाशग्रन्थि - पीडया निबिडमास्कन्दितान्ममेव हृदयाद्विनिः सृतो बहिः अथवा प्रार्थीताभिर्मदनुकम्पया देवनामिदिव्यशत्तया कुतोऽप्यानीतः, उतान्यदेव किंचित्प्रयोजनमालोच्य गुरुजनेन प्रहित: .... पृ० 3121 यहां भी शुद्ध सन्देह है ।
........
निश्चयान्त सन्देह का एक उदाहरण दिया जाता है
120
(3) प्रभातकाल में हरिवाहन को जनाने के लिए बन्दी कहता रात्रि में दो या तीन सहयोगियों के साथ आपके विपक्ष द्वारा देवी के घर में, एक कोने में बैठकर दन्तवीणा बजाते हुए क्या संगीत का सेवन हो रहा है ? नहीं, नहीं, राजन् । शीत ऋतु का सेवन हो रहा है । 1
यहां पहले संदेह से प्रारम्भ किया गया है, पर बाद में निश्चय होने से निश्चयान्त सन्देह का उदाहरण है ।
समासोक्ति
जहां श्लेषयुक्त विशेषणों द्वारा अप्रस्तुत का कथन किया जाय वहां समासोक्ति अलंकार होता है ।" समासेन संक्षेपेण उक्तिः समासोक्तिः - दो अर्थों का संक्षेप से कथन होने के कारण समासोक्ति कहलाता है ।
मम्मट ने श्लिष्ट विशेषण माना है किन्तु उद्भट समान विशेषण मानते हैं । उद्भट (अष्टम शती) के अनुसार प्रस्तुत के द्वारा समान विशेषणों के कारण अप्रस्तुत की प्रतीति समासोक्ति अलंकार है । 3 दो उदाहरण प्रस्तुत हैं-
(1) अयोध्या के वर्णन में समासोक्ति का उदाहरण मिलता है-"अयोध्या नगरी मानों यज्ञ के धुएँ से अलकें संवारती थी, क्रीडाद्यानों से अंजन का तिलक लगाती थी (नगरी के पक्ष में अंजन, बिन्दु, तिलक नामक वृक्ष) दन्तवधियों से विलासमय हास को प्रकट करती थी, तथा सरोवरों से दर्पण ग्रहण करती थी । " 4 यहां प्रस्तुत अयोध्या नगरी में समान विशेषणों के द्वारा नायिका की प्रतीति कराई जा रही है, अतः समासोक्ति है ।
1.
2.
3.
4.
गेहे देव्याः सुषिरनिपतन्मारुतोत्तानवेणो, घृत्वा कोणं विरचितलयो वादयन्दन्तवीणाम्
रात्रौ द्वित्रैः सह सहचरैः सेवते त्वद्विपक्ष:,
• कि संगीत नहि नहि महीनाथ हेमन्तशीतम् ॥ - वही पृ० 358 परोक्तिर्भेदके: श्लिष्टः समासोक्तिः --मम्मट, काव्यप्रकाश, 10/147 प्रकृतार्थे वाक्येन तत्समानं विशेषणैः । अप्रस्तुतार्थकथनं समासोक्तिरुदाहृता ॥ -- उद्भट, काव्यालंकारसंग्रह, 2/10 विरचितालके व मखानलघूमकोटिभिः स्पष्टिलांजन तिलक बिन्दुरिव बालोद्यानैः, आविष्कृतविलासहासेव दन्तवलभीमिः, आगृहीतदर्पणेव सरोभिः
-- तिलकमंजरी, पृ० 11
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(2) अयोध्या के ही प्रसंग में श्लिष्ट विशेषणों द्वारा समासोक्ति का उदाहरण प्राप्त होता है—"पूर्वार्णव से आये हुए, सरल मृणालदण्डों को धारण करने वाले वृद्ध कंचुकों के समान राजहंसों द्वारा क्षण भर भी मुक्त न की जाने वाली सरयू नदी अयोध्या के समीप बहती थी।"1
___ इसमें सरयू में नायिका तथा पूर्वार्णव में नायक की श्लिष्ट विशेषणों द्वारा प्रतीति होती हैं, अतः समासोक्ति है । निदर्शना
ख्ययक (12वीं शत्ती) के अनुसार जहां दो वस्तुओं के सम्भव तथा असम्भव सम्बन्ध के द्वारा बिम्ब-प्रतिबिम्ब भाव की प्रतीति होती है, वहाँ निदर्शना अलंकार होता है। दो वस्तुओं का एकत्र सम्बन्ध अन्वय की बाधा न रहने पर सम्भव होता है तथा अन्वय की बाधा होने पर असम्भव कहलाता है।
मम्मट ने केवल असम्भव वस्तुओं के लिए उपमा की कल्पना को निदर्शना कहा है । दो उदाहरण प्रस्तुत हैं
(1) वेताल के वर्णन में निदर्शना का सुन्दर उदाहरण मिलता है-"भीतर जलती हुई पिंगलवर्णी भीषण कनीनिकाओं से युक्त वेताल के भीषण आकृति वाले नेत्रयुगल ग्रीष्मकालीन सूर्य के प्रतिबिम्ब से युक्त यमुना के आवर्तयुगल के समान प्रतीत हो रहे थे ।"4 यहां जलती हुई कनीनिकाओं से युक्त वेताल के नेत्रों तथा सूर्य के प्रतिबिम्बों से युक्त यमुना के आवर्त-युगल में बिम्बप्रतिबिम्ब भाव होने से निदर्शना अलंकार है।
(2) इसी प्रकार अयोध्या के वर्णन में निदर्शना का उदाहरण प्राप्त होता है-कमल की कणिका के समान अयोध्या नगरी भारतवर्ष के मध्यभाग को अलंकृत करती थी। 1. गृहीतसरलमृणालयष्टिमिः पूर्वार्णववितीणवृद्धकंचूकीमिरिव राजहंसः
क्षणमप्यमुक्तपार्श्वया... सरयूवाख्यया कृतपर्यन्तसरथा... -वही, पृ. 9 2. सम्भवाऽसम्भवता वा वस्तुसम्बन्धेन गम्यमानं प्रतिबिम्बकरणं निदर्शना।।
- रूय्यक, अलंकारसर्वस्व, पृ. 97 __निदर्शना । अभवन् वस्तुसम्बन्ध उपमापरिकल्पकः ।।
-मम्मट, काव्यप्रकाश, 10/148 4. अन्तर्ध्वलितपिंगलोग्रतारकेण करालपरिमण्डलाकृतिना नयनयुगलेन यमुनाप्रवाहमिव निदाधदिनकरप्रतिबिम्बगोदरेणावर्तद्वयेनातिभीषणम्...
-तिलकमंजरी, पृ. 48 5. वृत्तोज्जवलवर्णशालिनी कणिकेवाम्भोरुहस्य मध्यभागमलंकृता स्थिता भारतवर्षस्य.........
-तिलकमंजरी, पृ. 7
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यहां अयोध्या तथा भारतवर्ष, कमल एवं कणिका में बिम्बप्रतिबिम्ब भाव से सम्बन्ध होने के कारण निदर्शना अलंकार है ।
अतिशयोक्ति
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भामह (अष्टम शती) ने गुणातिशय के योग से विशेष ढंग की कही हुई (लोकातिक्रान्तगोचर) बात को अतिशयोक्ति कहा है ।1 दण्डी ने भी काव्यादर्श में प्रस्तुत को असामान्य ढंग से वर्णन करने को अतिशयोक्ति कहा है । तिलकमंजरी में अतिशयोक्ति के इसी प्रकार के उदाहरण मिलते हैं दो दृष्टान्त प्रस्तुत है -
(1) गन्धर्वदत्ता का वर्णन अतिशयोक्ति पूर्ण है – “समान कान्ति के कारण जिसका स्वर्णपट्ट अस्पष्ट दिखाई देता था, (गन्धर्वदत्ता) उसके ललाट पर शत्रुओं के बन्दीजनों के पंखा झलने से सूक्ष्म अलंक लताएँ नृत्य करती थी । " 2 (2) इसी प्रकार आराम के वर्णन में अतिशयोक्ति अलंकार का उपयोग किया गया है— अवतीर्णश्च तस्मिंस्तापमतापमातपमनात पंतपनमतपनं दिवसमदिवस ग्रीष्मम प्रीष्मं कालमकालं तुषारपातमतुषारपातं त्रिभुवनमत्रिभुवनं सर्गक्रम ममंस्त
पृ. 212
दृष्टान्त
उपमान,
उपमेय, उनके विशेषण, साधारण धर्म आदि का बिम्ब प्रतिबिम्ब भाव होने पर दृष्टान्त अलंकार होता है । 3
ज्वलनप्रभ की इस उक्ति में दृष्टान्त की झलक मिलती है - "क्षीरोद के अंक से दूर तथा स्वर्गं निवास को त्यागने के पश्चात् इस हार का आपके यहीं निवास स्थान है, क्योंकि क्षीण होने पर भी चन्द्रमा आकाश या शिव की जटा को छोड़कर पृथ्वी पर नहीं उतरता है । प्रस्तुत उदाहरण में हार तथा चन्द्रमा, सुरलोक वास का त्याग तथा शिव की जटा का त्याग, क्षीरसागर तथा अन्तरिक्ष में परस्पर बिम्बप्रतिबिम्ब भाव होने से दृष्टान्त अलंकार है ।
1. निमित्ततो वचो यत्तू लोकातिक्रान्तगोचरम्, मन्यन्तेऽतिशयोक्तिं ताम- भामह - भामहालंकार, 2/81
लंकारतया यथा ।
यस्यां ललाटे सदृशद्युतित्वादस्पष्टचामीकरपट्ट बन्धे । अनति सूक्ष्मालकवल्लरीणां मालाऽरिबन्दीव्यंजनानिलेन ॥
2.
3.
4.
- तिलकमंजरी, 262
पृ.
दृष्टान्तः पुनरेतेषां सर्वेषां प्रतिबिम्बनम् ।
- मम्मट, काव्यप्रकाश, 10/102 अस्य हि परित्यक्त सुरलोकवासस्य दूरीभूतदुग्धसागरोदर स्थितेस्त्वद्वसतिरेव स्थानम्, न हि त्रयम्बकंजटाकलापमन्तरिक्ष वा विहाय क्षोणोऽपि हरिणलक्ष्मा क्षिती पदं बध्नाति । - तिलकमंजरी, पृ. 43-44
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तुल्ययोगिता
जहां उपमेय तथा उपमान में से एक ही के धर्म, गुण या क्रिया का एक बार उल्लेख किया जाय, वहां तुल्ययोगिता अलंकार होता हैं। इसमें या तो प्रकृत अथवा अप्रकृत का एक धर्म के साथ सम्बन्ध होता है।
कांची नगरी के वर्णन में तुल्योगिता अलंकार पाया जाता है -- यत्र नागवल्लीलालसा घनिन: उद्यानपालाश्च, परमतज्ञा पौराः प्रामाणिकाश्च, सफलजातयः श्रोत्रिया गृहारामाश्च, हरिद्रासान्द्ररूचकयो रागिणः सुवर्णचम्पक-स्तकबकनिचयाश्च प्रगुणविशिखा गृहनिवेशाः-पृ. 260 । यहाँ नागवल्लीलालसा यह एक साधारण धर्म, घनी तथा उद्यानपालक दोनों से सम्बद्ध है, अतः तुल्ययोगिता अलंकार है। इसी प्रकार अन्य सभी पर भी घटित होता है । व्यतिरेकः
__ उपमान से अन्य अर्थात् उपमेय का जो आधिक्य वर्णन है, वह व्यतिरेक अलंकार होता है।
हरिवाहन मलयसुन्दरी को देखकर कहता है-इसके दीर्घ नेत्र नीलकमल को पत्र समर्पित करते हैं, वक्षःस्थल हाथी के मस्तक का तिरस्कार करते हैं, कपोलस्थल हस्तीदन्त की अनुकृति हैं तथा इसके मुख की शोभा अपनी कान्ति से चन्द्रमा के बिम्ब को कलंकित करती है। यहां मलयसुन्दरी के नेत्र, वक्ष स्थल, कपोलस्थल तथा मुख का नीलकमल, हाथी के मस्तक, दांत तथा चन्द्रमा के बिम्ब से आधिक्य वर्णन किया गया है, अतः व्यतिरेक अलंकार है। विशेषोक्ति
कारणों के रहने पर भी फल का कथन न करना विशेषोक्ति कहलाता है । दो उदाहरण दिये जाते हैं
(1) अयोध्या वर्णन में कुलवधूओं के प्रसंग में विशेषोक्ति का कथन हैक्रोध में भी उनके मुख पर विकार उत्पन्न नहीं होता था, अप्रिय करने पर भी 1. नियतानां सकृद्धर्मः सा पुनस्तुल्ययोगिता ।
-मम्मट, काव्यप्रकाश 10/104 2. उपमानाद् यदन्यस्य व्यतिरेकः स एव सः
-वही, 10/158 दत्त पत्रं कुवलयततेरायतंचक्षुरस्याः कुम्भावभौ कुचपरिकरः पूर्वपक्षीकरोति । दन्तच्छेदच्छविमनुवदत्यच्छता गण्डमितेः चान्द्रं बिम्बं धुतिविलसितैर्दूषयत्यास्यलक्ष्मीः ॥ -तिलकमंरी, पृ. 256 विशेषोक्तिरखण्डेषु कारणेषु फलावचः ।
-मम्मट, काव्यप्रकाश, 10/162
3.
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वे विनय का साथ नहीं छोड़ती थीं, दुःख में भी उचित सत्कार करती थीं, तथा कलह में भी कठोर वचन नहीं बोलती थीं।।
(2) इसी प्रकार सेघवाहन के वर्णन में भी इसका उदाहरण मिलता हैअनतितोलक्ष्मीमदविकाररखलीकृतो व्यसनचक्रपीडामिरनाकृष्टो विषयग्राहैरयन्त्रितः प्रमदाप्रमनिगडरजडीकृतः परमैश्वर्यसन्निपातेन-पृ. 14 अर्थान्तरन्यास
सामान्य का विशेष से तथा विशेष का सामान्य के द्वारा जो समर्थन किया जाता है, वह अर्थान्तरन्यास अलकार साधम्यं तथा वैधयं से दो प्रकार का होता है । दो उदाहरण दिये जाते हैं -
(1) समरकेतु आराम को देखकर कहता है – 'संसार में निश्चित रूप से अदृष्ट के कारण अल्प गुणों वाली वस्तु भी प्रमिद्धि प्राप्त कर लेती है, किन्तु अधिक गुण वाली वस्तु भी कीर्ति प्राप्त नहीं करती, अत: यह असंख्य कदली वनों से सुशोभित, अनेक मयूरों के केकारव से उद्भासित एवं सैकड़ों पुष्प-वृक्षों से युक्त इस उद्यान के होते हुए भी एक रम्भा, सप्तचित्र शिखण्डियों तथा कुछ सुमनसों से युक्त उद्यान भी अमरोध्यान कहलाता है। यहां सामान्य का विशेष के द्वारा समर्थन किया गया है।
(2) इसी प्रकार दूसरा उदाहरण भी है-'प्रथितगुण स्थान स्थित. स्यासतोऽपि हि माहात्यमाविर्भवति पद्मिनीदलोत्संगसंगी जलबिन्दुरपि मुक्ताफलद्युतिमालम्बते-मण्डनायते-- पृ० 213 । इसमें भी सामान्य का विशेष से समर्थन किया गया है, अतः अर्थान्तरन्यास अलंकार है । विरोधाभास
तिलकमंजरी में विरोधाभास अथवा विरोध अलंकार का प्रयोग प्रचुरता
1. कोपेऽप्यदृष्टमुखविकारामिळलीकैऽप्यनुज्झितविनयाभिः खेदेऽप्यखण्डितोचितप्रीतिपत्तिमिः कलहेऽप्यनिष्ठुरभाषिणीमिः........ ।
-तिलकमंजरी, पृ. 9 2. सामान्यं वा विशेषो वा तदन्येन समर्थ्यते यत्त सोऽर्थान्तरन्यासः साधयेणेतरेण वा ।
-मम्मट, काव्यप्रकाश, 10/164 व्यक्तं जगत्यदृष्टवशाद्विशालगुणसंपद्भिरप्यसुलभाः स्वल्पगुणरपि सुप्रापा: प्रसिद्धयो भवन्ति । येनात्र निरन्तरकदलीकलापान्तरितदिङमुखे मदमुखरासंख्याशिखिकुलोद्भासिन्यनन्तलतान्तकोटिसंकटकवृक्षविटपे""सुमनसां कोटिभिराकीर्णममरोधानमावर्ण्यते । -तिलकमंजरी, पृ. 212-213
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से हुआ है। जहां भी धनपाल को इस अलंकार के प्रयोग का अवसर मिला है, उन्होंने इसके प्रयोग में अपनी निपुणता का प्रदर्शन किया है।
वस्तुत: विरोध न होने पर भी विरोध की प्रतीति कराने वाले वर्णन को विरोधालंकार अथवा विरोधाभास का नाम दिया गया है1
तीन विशिष्ट उदाहरण दिये जाते हैं
(1) मेघवाहन को 'शत्रुघ्नोऽपि विश्रुतकीतिः' (पृ. 13) कहा गया है अर्थात् वह शत्रुघ्न होते हुए भी श्रुतकीर्ति से वियुक्त था (श्र तकीर्ति शत्रुघ्न की पत्नी थी), यह विरोध है, किन्तु 'वह शत्रुघ्न अर्थात् शत्रुहन्ता होते हुए भी विश्रुतकीर्ति अर्थात् अत्यधिक प्रसिद्ध था' इस अर्थ से इस विरोध का परिहार हो जाता है।
(2) इसी प्रकार अदृष्टसरोवर के प्रसंग में कहा गया है, कि वह लहरों से मनोहर होते हुए भी कुत्सित तरंगों से युक्त था (चारूकल्लोलमपिकूमि-पृ. 122) इस विरोध का परिहार कूर्मि अर्थात् कच्छपों से युक्त इस अर्थ से हो जाता है । अदृष्टसरोवर को 'स्थिरमपि विसारि' भी कहा गया है अर्थात् स्थिर होते हुए भी वह संचरणशील था, इसका परिहार-विसारि का अर्थ मत्स्ययुक्त लेने से हो जाता है।
(3) विद्याधर मुनि को 'निष्परिग्रमपि सकलत्रम्' (पृ. 24) कहा है अर्थात् स्त्रियों आदि से रहित होते हुए भी वह पत्नी सहित था, इस विरोध का परिहार 'सकलत्रम्' का सभी का त्राता अर्थ करने से हो जाता है।
विरोधाभास अलंकारयुक्त कुछ स्थलों को उदाहृत करना अनुचित नहीं होगा(1) प्रमाणविद्भिरप्यप्रमाणविद्यः ...... परोपकारिभिरात्मलामोद्यतः
-पृ. 10 (2) मनुष्यलोक इव गुणेरूपरिस्थितोऽपि मध्यस्थः सर्वलोकानाम्
विशेषज्ञोऽपि समदर्शन: सवदर्शनानाम्, अनायासगृहीतसकलशास्त्रा
र्थयाऽपि नीतिशास्त्रेषु खिन्नया-पृ. 13 (3) असंख्यगुणशालिनापि सप्ततन्तुस्पातेन सर्वदाह्मादितेन-पृ. 13 (4) सौजन्यपरतन्त्रवृत्तिरप्यसौजन्ये निषण्णः-पृ. 13 (5) अंगीकृतसतीव्रताभिरप्यसतीव्रताभिः-पृ. 9
1. विरोधः सोऽविरोधेऽपि विरुद्धत्वेन यद्धचः
-मम्मट, काव्यप्रकाश, 10/165
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स्वाभावोक्ति
धनपाल ने अलंकारों में स्वाभावोक्ति को सर्वाधिक उद्भासित कहा है । 1 बालक इत्यादि की अपनी स्वाभाविक क्रिया अथवा रूप (वर्ण एवं अवयव संस्थान ) का वर्णन स्वाभावोक्ति कहलाता है । 2 तिलकमंजरी से दो उदाहरण प्रस्तुत हैं
सम
(1) गन्धर्वदत्ता के वर्णन में स्वाभावोक्ति की झलक मिलती है - 'विश्वस्त सखियों की गोष्ठी में भी वह खिलखिलाकर नहीं हंसती थी, गृह्नदी के हंसों के साथ भी तीव्रता से नहीं चलती थी, पंजरस्थ सारिकाओं के साथ भी अधिक वार्तालाप नहीं करती थी, तिलकवृक्षों पर भी अधिक देर तक कटाक्षपात नहीं करती थी । 3
(2) मदिरावती का वर्णन भी स्वाभावोक्ति अलंकार में किया गया है । 4
तिलकमंजरी, एक सांस्कृतिक अध्ययन
(6) मद्गुरूचितमपि नमद्गुरूचितम् - पृ. 204
(7) मेरूकल्पपादपालीपरिगतमपि नमेरूकल्पपादपालीपरिगतम्, वनगजा - लीसंकुलमपि नवगजालीसंकुलम् - पृ. 240
किन्हीं दो विशेष वस्तुओं का योग्य रूप से सम्बन्ध वर्णित होने पर सम नामक अलंकार होता है |5
ज्वलनप्रभ राजा मेघवाहन से कहता है कि आप इस हार को प्राप्त कर,
पृ. 159
- मम्मट, काव्यप्रकाश, 10 / 167
3.
1.
तिमिवालंकृतीनाम् 2. स्वाभावोक्तिस्तु डिम्भादे: स्वक्रियारूपवर्णनम् ।
4.
5.
- तिलकमंजरी,
मित्वा संपुट मोष्ठयोर्न हसितं निःशंकगोष्ठीष्वपि, भ्रान्तं न त्वरितः पर्दैगृहनदीहंसानुसारेष्वपि । साधं पंजरसारिका मिरपि नो भूयस्तया जल्पितं, न त्रयस्त्रास्तिलकद्रुमेष्वपि चिरं व्यापारिता दृष्टयः ॥
- तिलक मंजरी, पृ. 262
आढयश्रोणि दरिद्रमध्यसरणि स्रस्तांसमुच्चस्तनं, नीरन्ध्रालकमच्छ्गण्डफलकं छेकभ्र मुग्वेक्षणम् । शालीनस्मितमस्मितांचितपदन्यासं बिमति स्म या, स्वादिष्टोक्तिनिषेकमेकविकसल्लावण्यपुण्यं वपुः ॥ समं योग्यतया योगो यदि सम्भावितः क्वचित् ॥
- वही, पृ. 23
- मम्मट, काव्यप्रकाश, 10 / 192
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समान वस्तु के संयोग का आनन्द प्राप्त करें, क्योंकि यह हार भी मुक्तामय है आप भी मुक्तामय (मुक्त मामय अर्थात् व्याधि रहित शरीर से युक्त), यह भी अपेतत्रास है (अर्थात् धारण करने वाले को भय मुक्त करने वाला) तथा आप भी स्वच्छ हृदय वाले हैं यह भी उज्जवल गुण से युक्त है तथा आप भी गुणव'न् हैं। यहां मेघवाहन तथा हार का योग्य रूप से सम्बन्ध वर्णित किया गया है, अतः सम अलंकार है।
विषम
___ सम्बन्धियों के अत्यन्त वैधर्म्य के कारण जो उनका सम्बन्ध न बनना प्रतीत हो, वहां विषम अलंकार होता है। प्रभात-काल के वर्णन में विषम अलंकार प्रयुक्त हुआ है-रतिगृह दात्यूहपक्षी के कूजन से रहित हो गये हैं, नदियां चक्रवाक युगलों के आक्रन्दन से युक्त हो गयी हैं, तारों की कान्ति क्षीण हो रही है, दीपक की ज्योति तेज हो रही है, आकाश में सूर्य उदित हो रहा है, पृथ्वी अंधकारमय है, इस प्रकार प्रभात और रात्रि का यह सन्धिक्षण मनोहरता की पराकाष्ठा है।
यहां विपरीत वस्तुओं का एक साथ वर्णन होने से विषम अलंकार है । तदगुण
जब न्यून गुणवाली वस्तु अत्यन्त उत्कृष्ट गुणवाली वस्तु के सम्बन्ध से अपने स्वरूप को छोड़कर उस वस्तु के रूप को प्राप्त हो जाती है तो उसे तद्गुण अलंकार कहते हैं।
1. ....... संयोजितं त्वां मुक्तामयवपुषमशेषतो मुक्तामयत्रासविरहितमपेतत्रासः
स्वच्छाशयमतिस्वच्छो गुणवन्तमतिशयोज्जवगुणः प्राप्नोतु सदृशवस्तुसंयोगजां प्रीतिम् ।
-तिलकमंजरी, पृ. 43 2. क्वचिद्यतिवैधान्न श्लेषो घटनाभियात्
-मम्मट, काव्यप्रकाश, 10/193 3. नित्यूहपतद्गिरो रतिगृहा: साक्रन्दचक्रा नदा,
विद्राति द्य तिरोडवी निबिडतां धत्ते प्रदीपच्छवि । द्योर्मन्दस्फुरितारूणा तिमिरिणी सर्वसंहा सर्वथा,
सीमा चित्तमुषामुषः क्षणदयोः संघिक्षणो बर्तते ॥ -तिलकमंजरी, पृ. 237 4. स्वमुत्सृज्य गुणं योगादत्युज्जवलगुणस्य यद, . वस्तु तद्गुणतामेति भव्यते स तु तद्गुणः ॥
-मम्मट, काव्यप्रकाश, 10/203
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आराम के वर्णन में इस उक्ति में तद्गुण अलंकार पाया गया है-कमल के पत्ते पर गिरी हुयी जल की बून्द भी मोती के समान चमकती है, चन्द्रमा में रहने पर कलंक भी अलंकार बन जाता है, मृगनय नियों की आंखों में लगने पर अंजन भी प्रसाधन बन जाता है ।।
__यहां न्यून गुण वाली वस्तु जल की बूंद आदि का उत्कृष्ट गुण वाले कमल पत्रादि के सम्बन्ध से उत्कृष्ट गुण को प्राप्त करने का उल्लेख होने से तद्गुण अलंकार है। सहोक्ति
जहां सह अर्थ की सामर्थ्य से एक पद, दो पदों से सम्बद्ध हो जाता है वहाँ सहोक्ति अलंकार होता है।
तिलकमंजरी में प्रातःकाल के इस वर्णन में सहोक्ति का प्रयोग हुआ है(प्रातःकाल होने पर) वनदीपिकाओं में चक्रवाक युगल निद्रा त्यागकर तथा पख फड़फड़ाकर कुमुदों के साथ-साथ परस्पर मिल गये । (कुमुद के पक्ष में जघटिरे का अर्थ संकुचित हो गये)। यहां सह पद के कारण चक्रवाक तथा कुमुद दोनों पदों का सम्बन्ध बनता है, अतः सहोक्ति अलंकार हैं । अन्य उदाहरण(1) झटिति नष्टाखिलाशः समं मार्तण्डमण्डलाभोगेन विच्छायतामगच्छम्
-पृ. 323 (2) इति विचिन्त्य मुक्त्वा च सफलकं प्रभुताभिमानेन साधं कृपाणमाबद्धांजलिः-पृ. 38। व्याजस्तुति
प्रारम्भ में निन्दा अथवा स्तुति जान पड़ती हो, किन्तु उससे भिन्न (अर्थात् निन्दा स्तुति तथा स्तुति निन्दा में) में पर्यवसान होने पर व्याजस्तुति अलंकार होता है।
1. पद्मिनीदलोत्संगसंगी जलबिन्दुरपि मुक्ताफलद्युतिमालम्बते, मृगांकचुम्बी
कंककोऽप्यलंकारकरणिं घत्त, कुरङ्गलोचनालोचनलब्धपदमंजनमपि मण्डनायते ।
-तिलकमंजरी, पृ. 213 सा सहोक्तिः सहार्थस्य बलादेकं द्विवाचकम् ।
-मम्मट, काव्यप्रकाश 10/169 3. समकालमुत्क्षिपपत्रसंहतीनि सहैव कुमुदरण्यदीपिकासु जघटिरे नष्टनिद्राणि चक्रवाकद्वन्द्वानि ।
-तिलकमंजरी, पृ. 358 4, व्याजस्तुतिमुखे निन्दास्तुतिर्वा रूढिरन्यथा ।
-मम्मट, काव्यप्रकाश, 10/168
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तिलकमंजरी का साहित्यक अध्ययन
पहले निन्दा पर बाद में स्तुति में पर्यवसित होने वाला एक उदाहरण कांची नगरी के वर्णन में मिलता है— गुणों के समूह में उस (नगरी) में केवल एक ही दोष था कि विलासिनीयों के वासभवनों की दन्तवलमियों में निरन्तर जलने वाले कालागरू के धुएं से नवीन चित्रों युक्त भित्तियां मैली हो जाती थी । 1 यहां निन्दा के व्याज से कांची की प्रशंसा की गई हैं, अतः व्याजस्तुति अलंकार हैं । परिसंख्या
परिसंख्या अलंकार धनपाल को सर्वाधिक प्रिय है । सम्पूर्ण तिलकमंजरी में विभिन्न स्थलों पर इसका सुन्दर प्रयोग हुआ है ! धनपाल को इसके प्रयोग में विशेष निपुणता प्राप्त है । कुछ स्थल उदाहृत किये जायेंगे । कोई पूछी गई अथवा बिना पूछी गई बात जब उसी प्रकार की अन्य वस्तु के निषेध में पर्यवसित होती है, तो परिसंख्या अलंकार कहलाती है । 2 यह निषेध शब्दतः अर्थात् वाध्य भी हो सकता है अथवा व्यंग्य रूप भी हो सकता है । इस प्रकार परिसंख्या के चार प्रकार हो जाते हैं - (1) प्रश्नपूर्वक प्रतीयमानव्यवच्छेद्य ( 2 ) प्रश्नपूर्वक वाच्यव्यवच्छेद्य (3) अप्रश्नपूर्वक प्रतीयमानव्यवच्छेद्य तथा (4) अप्रश्नपूर्वक वाच्यव्यवच्छेद्य । धनपाल ने प्रश्नपूर्वक परिसंख्या का प्रयोग नहीं किया है, अत: पहले दो प्रकार के उदाहरण तिलकमंजरी में नहीं मिलते । अन्तिम दोनों को को उदाहृत किया जाता है ।
(1) अप्रश्नपूर्वक वाच्यव्यवच्छेद्य - कांची नगरी के वर्णन में कहा गया है कि जहाँ मुग्धता रूप में पायी जाती थी सुरत में नहीं, हल्दी का रंग देह में लगाया जाता, स्नेह में नहीं, गुरुजनों के नामोच्चार में बहुवचन का प्रयोग होता था, न कि दूसरों के कार्य को करने में बहुत तरह की बातें की जातीं, रति में विलासचेष्टाएँ होती थीं न कि चित्त में भ्रान्ति होती ।
1.
129
2.
3.
संस्करण,
भाग 3,
यस्य गुणौघजुषि दूषणमेकमेव, यद् वासदन्तवल भीषुविलासिनीनाम् । उद्यन्नजस्रमसिता गुरूदाहजन्मा, घूमः करोति मलिनानवचित्रमित्तीः ॥ - तिलकमंजरी, विजयलावण्यसूरीश्वरज्ञानमन्दिर, पृ. 174 (काव्यमाला संस्करण में यह पद्य उपलब्ध नहीं हैं । ) किंचित्पृष्टमपृष्टं वा कथितं यत्प्रकल्पते । तादृगन्यव्यपोहाय परिसंख्या तु सा स्मृता ॥
-मम्मट, काव्यप्रकाश, 10 / 184 यत्र मुग्धता रूपेषु न सुरतेषु, हरिद्वारागो देहेषु न स्नेहेषु, बहुवचनप्रयोगः पूज्यनामसु न परप्रयोजनांगीकरणेषु, विभ्रमो रतेषु न चित्तषु ।
- तिलकमंजरी, पृ. 260
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इसमें शब्दतः निषेध होने से यह अप्रश्नपूर्वक वाच्यव्यवच्छेद्य परिसंख्या का उदा रण है।
इसी प्रकार के अन्य उदाहरण मेघवाहन के वर्णन में मिलते हैं।'
(2) विद्याधर मुनि की मदिरावती के प्रति इस उक्ति में भी इसी भेद की झलक मिलती है - 'आत्मा निवारणीयो धृत्या न वृत्या, स्वभावस्निग्धोपसपणीयो दृष्टया न काययष्टया, संभाषयितव्यो मनसा न वचसा कारयितव्यः कण्ट किनि पत्रच्छेद विरचनं देववतार्चनकेतकदले न कपोलतले -पृ. 31-32
(3) अप्रश्नपूर्वकप्रतीयव्यवच्छेद्य-तिलकमंजरी में प्रतीयव्यवच्छेद्य परि. संस्था के भी अनेक प्रयोग मिलते हैं।
अयोध्या के प्रसंग में कहा गया है-जिस नगरी में वीथीगृह राजमार्ग का अतिक्रमण करते थे (न कि लोग राजाज्ञा का उल्लंघन करते, दोलाक्रीड़ाओं में में दिशान्तर यात्रा होती (न कि किसी को देश निकाला दिया जाता), चन्द्रमा कुमुद वनों का सर्वस्व (निद्रा) हरण कर लेता (न कि किसी व्यक्ति का सब कुछ हर लिया जाता), कामदेव के बाण ही मर्मछेदन का कार्य करते (न कि किसी व्यक्ति का गला घोंटा जाता।, वैष्णव ही कृष्ण की आचार पद्धति का पालन करते (न कि कोई व्यक्ति दुराचारी होता था)।
इसी प्रकार मेघवाहन के लिए कहा गया है - यस्मिंश्च राजन्यनुवतितशास्त्रमार्गे प्रशासति वसुमती धातूनां सोपसर्गत्वम्, इथूणां पीडनम्, पक्षिणां दिव्यग्रहणम्, पदानां विग्रह, तिमीनां गल ग्रहं, गूढचतुर्थकानां पादाकृष्टयः कुक
1. (अ) उच्चापशब्दः शत्रुसंहारे न वस्तुविचारे, वृद्धत्यागशीलो विवेकेन न प्रज्ञोत्सेकेन......."अकृतकारूण्यः करचरणे न धरणे।
__-तिलकमंजरी, पृ. 13 (ब) कुशाग्रीयबुद्धिः कार्याणां वेषम्येण जहर्ष न समतया......"सकलाधर्म
निर्मूलनाभिलाषी कलेखतारस्योदकण्ठत् न कृतयुगस्य - पृ. 14 (स) यस्य च प्रताप एव वसुधामसः धयत्परिकर एव सैन्यनायका :.."त्याग एव दिक्षु कीर्तिमगमयद्विभवो बन्दिपुत्राः।
पृ. 15 2, (अ) यस्यां च बीथीगृहाणां राजपथातिक्रमः, दोलाक्रीडासु दिगन्तरयात्रा,
कुमुदखण्डानां राज्ञा सर्वस्वापहरणमनंगमार्गणांनां मर्मघट्टनव्यसनं, वैष्णवानां कृष्णवर्त्मनि प्रवेशः, सूर्योपलानां मित्रोदयेन ज्वलनम्, वैशेषिकमते द्रव्यस्य कूटस्थनित्यता।
- वही, पृ. 12 (ब) थत्र च भोगस्पृहया दानप्रवृत्तयः .. .."विनयाधानाय वृद्धोपास्तयः पुसांभासन्
-तिलकमंजरी, पृ. 12
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विकाव्येषु यतिभ्रंशदर्शनम्, उदधोनामपवृद्धिः निधुवनक्रीडासुतर्जन ताडनानि, द्विजातिक्रियाणां शाखोद्धरणम्, बौद्धानुपलब्धेरसद्भवहारप्रवर्तकत्वम्, प्रतिप्रक्षक्षयोघत मुनिकयासु गुणानामुपसर्जन मावोबभूव | 1
इस प्रकार इलेष पर आधारित परिसंख्या की श्रृंखलाओं की रचना धनपाल को अत्यन्त प्रिय थी । अयोध्या की कुलवधुओं के वर्णन में भी इस अलंकार का प्रयोग किया गया है - अलसामिनितम्ब भारवहने तुच्छाभिरूदरे तरलाभिश्चक्षुषि कुटिला मिभ्रुवोरतृप्ता मिरंगशोभायामुद्धतामिस्तारूण्ये कृतकुसंगाभिश्च रणोयोर्न स्वभावे | 2
अर्थापत्ति
जहां दण्ड- पूपिका न्याय से एक अर्थ की सिद्धि के साथ उसी की सामर्थ्य से दूसरा अर्थ भी सिद्ध हो जाये वहां अर्थापत्ति अलंकार होता है । इसका उदाहरण कुलवधुओं के इस वर्णव में मिलता है - वे शालीनता तथा सुकुमारता के कारण कुचकुम्भों के भार से भी पीड़ित होती थीं, मणिभूषणों के कोलाहल से भी व्यथित होती थी, धृष्टता के कारण सम्भोग में भी अरूचि दर्शित करती थी तथा स्वप्न में भी द्वार की देहरी नहीं लांघती थी । ±
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यहां जब स्तनकलशों के भार से पीडित होती थी इस अर्थ से 'तो अन्य किसी वस्तु का भार उठाने में कैसे समर्थ होगी' इससे अर्थान्तर का बोध होता है, इसी प्रकार जब स्वप्न में देहरी नहीं लांघती 'तो जाग्रतावस्था में कैसे लांघेगी' इससे अर्थान्तर का बोध होता है अतः यहां अर्थापत्ति अलंकार है । इसी प्रकार वारवधूओं के लिए भी कहा गया है 15
काव्यलिंग
जहां हेतुका कथन वाक्यार्थ अथवा पदार्थ रूप से किया जाय, वहां काव्यलिंग अलंकार होता है ।"
1.
2.
3.
4.
5.
6.
तिलकमंजरी, पृ. 15 वही, पृ. 9
दण्डपूपिकथार्थान्तरापतनमर्थापत्तिः ।
- रूय्यक - अलंकारसर्वस्व शालीनतया सुकुमारतया च कुचकुम्भयोरपि कदर्थ्यमानामिरुद्धत्या मणिभूषणानामपि खिद्यमानाभिर्मु खरतया रतेष्वपि ताम्यन्तीभिर्वैयात्यपरिग्रहेण स्वप्नेऽप्यलघयन्तीमिर्द्धारतोरणम् - तिलकमंजरी, पृ. 9
तिलकमंजरी, पृ. 10 काव्यलिंगं हेतोर्वाक्यपदार्थता ।
-मम्मट, काव्यप्रकाश, 10/173
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मेघवाहन के इस वर्णन में काव्यलिंग अलंकार मिलता है-वह युद्धव्यसनी होने के कारण शत्रुओं की उन्नति से संतुष्ट होता था न कि प्रणाम से, दानप्रिय होने के कारण लोगों की याचकवृत्ति से अतृप्त होता था न कि सिद्धि से, तीव्रबुद्धि होने के कारण कार्यों की विषमता से प्रसन्न होता था न कि समता से-11 यहां युद्ध-प्रियता, दान प्रियता. तीव्रबुद्धि आदि हेतु रूप से वर्णित किये हैं, अतः काव्यलिंग अलंकार है। कारणमाला
जहां अगले 2 अर्थ के प्रति पहले 2 अर्थ हेतु रूप में वर्णित हों, वहां कारणमाला अलंकार होता है । इसी प्रकार पूर्व 2 के प्रति उत्तर 2 की हेतुता वणित होने पर भी कारण-माला अलंकार होता है। इसका उदाहरण विद्याधर मुनि के इस कथन में मिलता है-मुनि-जन सामान्य प्राणी के लिये अपेक्षित आहार को शरीर के लिए ग्रहण करते हैं, शरीर को भी धर्म का हेतु होने से धारण करते हैं. धर्म को भी मुक्ति का कारण मानते हैं तथा मोक्ष की भी विरक्ति से इच्छा करते हैं। यहां आहार, शरीर, धर्म तथा मोक्ष इन पूर्व 2 के प्रति शरीरधारण, धर्म-साधन मोक्ष तथा अनिच्छा ये उनरोत्तर अर्थ कारण रूप में वर्णित किये गये हैं, अतः कारणमाला अलंकार है।
तिलक मंजरी से प्रस्तुत 4 प्रकार के शब्दालंकारों तथा 23 प्रकार के अर्थालंकारों अर्थात् कुल 27 प्रकार के अलंकारों का यह अध्ययन, जिसमें उनके लक्षण तथा तिलकमंजरी से गृहीत उदाहरणों का विवेचन किया गया, धनपाल की अलंकार योजना का नैपुण्य प्रदर्शित करने में पर्याप्त है।
रसाभिव्यक्ति कवि की वाणी को ह्रदैकमय तथा नवरसरुचिरा कहा गया है। इसी प्रकार तुरन्त रसास्वादन से उत्पन्न परम आनन्द की प्रतीति काव्य के समस्त
1. यश्च संगरश्रद्धालुरहितानामुन्नत्यातुतोष न प्रणत्या, दानव्यवसनी जनाना
मर्थितयाऽप्रीयत न कु कृतार्थतया, कुशाग्रीयबुद्धिः कार्याणां वैषम्येन जहर्ष न समतयाः ।
-तिलकमंजरी, पृ. 14 2. यथोत्तरं चेत्पूर्वस्य पूर्वस्यार्थस्य हेतुता तदा कारणमाला स्यात् ।
-मम्पट, काव्यप्रकाश, 10/185 3. ये च सर्वप्राणिसाधारणमाहारमपि शरीरवृत्तये गृहन्ति, शरीरमपि धर्म
साधन मिति धारयन्ती, धर्ममपि मुक्तिकारणमिति बहुमन्यते, मुक्तिमपि निरूत्सुकेन चेतसाभिवांछति ....।
-तिलकमंजरी पृ. 26 4. नियतिकृत....नवरसरुचिरा निर्मिति.... -मम्मट, काव्यप्रकाश,1/1
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रसाभिव्याक्त
प्रयोजनों में प्रमुख मानी गयी है । 1 अतः मम्मट के अनुसार काव्य-रचना का प्रमुख उद्देश्य तथा फल दोनों ही रस की सिद्धि है । विश्वनाथ ने तो रसात्मक वाक्य को ही काव्य कहा है । 2 आनन्दवर्द्धन ने भी रस, जोकि व्यंग होता है, को काव्य की आत्मा कहा है । भरत मुनि ने बहुत पहले ही काव्य में रस की प्रधानता प्रतिपादित करदी थी - न हि रसादृतेकश्चिदर्थः प्रवर्तते । अतः प्राचीन तथा अर्वाचीन सभी काव्यशास्त्रियों ने काव्य में रस को प्राणभूत माना है । काव्य में रस की महत्ता के आधार पर काव्यशास्त्रियों का एक भिन्न सम्प्रदाय ही बन गया, जो रस सम्प्रदाय के नाम से प्रसिद्ध है 15
धनपाल ने स्वयं भी रसपूर्ण उक्ति को समस्त मणियों में श्रेष्ठ कहकर काव्य में रस की महत्ता स्थापित की है ।" काव्य के पठन, श्रवण अथवा दर्शन से जिस आनन्द की अनुभूति होती है वही काव्यानन्द रस कहलाता है । यह अनुभूति किन साधनों से होती है ? भरत के अनुसार रस को निष्पत्ति विभाव, अनुभाव तथा व्यभिचारि भावों के संयोग से होती है । अतः विभाव अनुभाव तथा व्यभिचारिभाव रस के साधन हैं । रस की यह अनुभूति कैसे होती है ? सहृदय सामाजिक के हृदय में भाव रहता है, जिसकी उत्पत्ति लौकिक व्यवहारिक जीवन से होती है लौकिक जीवन के बार-बार के अनुभवों से विभिन्न भाव सामा जिक के हृदय मे संस्कार रूप में परिणत हो जाते हैं । काव्य-श्रवण अथवा दर्शन से सामाजिक के हृदय का यही भाव काव्य वर्णित विभावादि के द्वारा पुष्ट होकर रसरूप में परिणत हो जाता है इस भाव को रसशास्त्री स्थायिभाव कहते हैं । मम्मट ने विभाव. अनुभाव तथा व्यभिचारि आदि ( कारण, कार्य तथा सह
1.
2.
3.
4.
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काव्यं यशसेऽर्थकृते .. सद्यः परनिर्वृत्तये .... 1
1800
वाक्यं रसात्मकं काव्यम्
वही, १/२ - विश्वनाथ, साहित्यदर्पण, 1/3
काव्यस्यात्मा स एव अर्थस्तथा चादिकवेः पुरा । क्रौचंद्वन्द्ववियोगोत्थः शोकः श्लोकत्वमागतः ॥
-आनन्दवर्धन, ध्वन्यालोक 1/5 नाट्यशास्त्र, अध्याय 6, उदघ्तः पी.वी. काणे, संस्कृत पोइटिक्स, पृ. 357 काणे पी. वी., संस्कृत पोइटिक्स, पृ. 355
सोक्तिमिव मणितीनाम् .... अधिकमुद्भासमानाम् । तिलकमंजरी, 159 पृ. उक्तं हि भरतेन - विभावानुभावव्यभिचारिसंयोगाद्रसनिष्पत्तिः । — मम्मट, काव्यप्रकाश, चतुर्थ उल्लास, पृ. 100
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कारियों) के योग से व्यक्त रत्यादि स्थायी भाव को रस कहा है। दशरुपककार धनंजय ने इनमें सात्विक भाव को और जोड़ दिया है, जिसे अन्य शास्त्रियों ने अनुभाव के अन्तर्गत ही माना है। धनंजय के अनुसार विभाव, अनुभाव, सात्विक तथा व्यभिचारि भावों द्वारा चर्वणा के योग्य बनाया गया रत्यादि स्थायिभाव ही रस है।
अतः रस के चार अंग हैं- स्थायिभाव, विभाव, अनुभाव, तथा व्यभिचारिभाव । इन चारो का आश्रय तथा आलम्बन इन दोनों पक्षे में बांटा जा सकता है। काव्य में जिस पात्र के हृदय में रत्यादि स्थायिभाव व्यंजित होता है, वह पात्र उस भाव का आश्रय होता है । उस पात्र की जो तद्तद् भाव की अ अनुभूति के समय चेष्टाए होती हैं, वे अनुभाव कहलाती है तथा स्थायिभाव में जो क्षणिक भाव उन्मग्न-निमग्न होते है, उन सहकारी कारणों संचारी अथवा व्यभिचारि भाव कहा जाता है । इस प्रकार स्थायिभाव, अनुभाव तथा संचारी भाव ये आश्रय में रहने वाले हैं । इस आश्रय का स्थायी भाव जिस पात्र-वस्तु के प्रति जागृत होता है. वह आलम्वन कहलाता है तथा उस पात्र या वस्तु की अवस्था चेष्टा या अन्य परिस्थितियां जो आश्रय में उस विशेष भाव को उद्दीप्त करती है, उद्दीपन कहलाती है। ये आलम्बन नथा उद्दीपन दोनो, विभाव कहलाते हैं । रस की प्रक्रिया में आलम्बन -उद्दीपन विभाव बाह्यय कारण हैं, वस्तुतः स्थायिभाव ही रस का आन्तरिक कारण है। यह स्थायिभाव ही रस का बीज है, मूल है । सामाजिक के हृदय में यह प्रसुप्तावस्था में रहता है, काव्य में वर्णित विभावादि अनुकूल सामग्री प्राप्त कर यह अभिव्यक्त हो जाता है तथा हृदय में अपूर्व आनन्द का संचार कर देता है। अतः स्थायिभाव की अभिव्यक्ति ही रस है। ये स्थायिभाव आठ हैं- रति, उत्साह, जुगुप्सा, क्रोध, हास, स्मय, भय तथा शोक । धनंजय नवें स्थायिभाव शम को नाटक में पुष्टि न होने के कारण, नहीं
1. विभावा अनुभावास्तत् कथयन्ते व्यभिचारिणः । व्यक्तः स तैविभावाद्यः स्थायी भावो रसः स्मृतः ॥
-मम्मट, काव्य प्रकाश. 4/43/28 2. विभावरनुभावैश्च सात्विकर्व्यभिचारिभिः । ___ आनीयमानः स्वाद्यत्वं स्थायी भावो रसः स्मृतः ।।
-धनंजय, दशरूपक, 4/1 3. रत्युत्साहजुगुप्साः क्रोधो हासः स्मयो भयं शोकः ।
-धनंजय, दशरूपक, 4/35
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रसाभिव्यक्ति
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मानते हैं 1 किन्तु मम्मट ने निर्वेद अर्थात् शम को नवां स्थायिभाव माना है। इन्हीं नौ भावों की परणति क्रमशः शृङ्गार, वीर, वीभत्स, रौद्र, हास्य, अद्भुत, भयानक, करूण तथा शान्त रसों में होती है।
घनपाल ने तिलकमंजरी को 'स्फुटाद्भुतरसा 'कथा कहा है। प्रभावकचरित में तिलकमंजरी को नवरसयुता कथा कहा गया है। इसमें सभी नौ रसों की सुन्दर अभिव्यक्ति हुई है ।अंगीरस शृंगार है तथा अन्य सभी उसके अंगभूत रस हैं। इसमें नायक हरिवाहन तथा तिलकमंजरी, जो पूर्वजन्म में स्वर्गलोक केनिवासी ज्वलनप्रभ तथा प्रियंगुसुन्दरी थे. की प्रेम-कथावर्णित की गयी है , तथा इसमें समर केतु और मलयसुन्दरी के प्रेम की प्रासंगिक कथा भी उपणित है। इसके अतिरिक्त तारक प्रियदर्शना, कुसुम शेखर व गन्धर्वदत्ता तथा मेघवाहन तथा मदिरावती आदि के प्रेम का भी वर्णन किया है। अतः शृगार इसका प्रधान अंगीरस है । अब सभी नौ रसों का तिलकमंजरी के संदर्भ में अध्ययन किया जायेगा । शृंगार ।
__ श्रृंगार का स्थायिभाव रति है। शृंगार रस के दो भेद हैं-(अ) सम्भोग तथा (आ) विप्रलम्भ । तिलकमंजरी में श्रृंगार के इन दोनों भेदों का भली-भांति निरूपण हुआ है।
(अ) सम्भोग शृगार की सुन्दर अभिव्यक्ति समरकेतु तथा मलयसुन्दरी के चित्रण में हुयी है । समरकेतु आलम्बन विभाव है, जो मलयसुन्दरी के हृदय में प्रेम की उत्पत्ति करता है । सर्वप्रथम आलम्बन समरकेतु का वर्णन किया गया है । मलयसुन्दरी उसे देखती है और कहती है
“कामदेव ने शृंगार धारण कर मेरे हृदय में प्रवेश किया, उसके पीछेपीछे ही प्रवेश करने वाला राग, लाक्षारस से चिन्हित के समान सारे अंगों में फैल गया । वैरागी देवता के निवास पर रागियों का रहना विरुद्ध है," अतः उस राग को धोने के लिए ही मानों स्वेदजल बहने लगा। स्वेदजल से ठंड
3.
1. शममपि केचित्प्राहुः पुष्टिर्नाटयेषु नेतस्य ।
वही, 4/35 2. निर्वेदस्थायि भावोऽस्ति शान्तो ऽपि नवमो रसः ।
__ -मम्मट, काव्यप्रकाश, 4/47 स्फुटाद्भुतरसा रचिता कथेयम् ॥
-तिलकमंजरी, पद्य 50 4. सुधीरविरचयांचके कथां नवरसप्रथाम् ।
__-प्रभावकचरित, महेन्द्रसूरिचरितमु पद्य 197 5. तस्य शृगारस्य द्वौ भेदो, सम्भौगो विप्रलम्भश्च
-मम्मट काव्यप्रकाश, चतुर्थ उल्लास, पृ. 121
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तिलकमंजरी, एक सांस्कृतिक अध्ययन
में,
लगने के कारण मानों रोमांचित होकर वक्षःस्थल कांपने लगा । तब मैं लज्जा तथा अनुराग से अभिभूत होकर 'समुद्री हवा ठंडी है' कहकर बार-बार सीत्कार करने लगी- मैं कौन हूँ, कहां हूँ — यह सब भूलती हुयी, शब्द को भी नहीं सुनती हुयी, स्पर्श को भी न जानती हुयी, गन्ध को भी नहीं सूंघती हुई, केवल उसके रूप को ही देखने उसी के अवयव सौन्दर्य का वर्णन करने में, उसके यौवन की भव्यता का भावन करती हुयी तथा उसके विभ्रम क्रमों में निलीन-चित्त होती हुई, दूर स्थित भी असाधारण प्रेम से द्रवीभूत उठाकर उसके पास ले जायी जाती हुई सी, उसके बाहुपाश में बंधी हुई -- अंगों के निष्पन्द हो जाने पर तथा समस्त शरीर पर आनन्द जल की बूंद छा जाने पर न जाने विकास के कारण फैली हुई, स्तब्ध अथवा चंचल तारिकाओं वाली मुग्ध अथवा प्रात्भ, कुटिल अथवा सरल न जाने कैसी दृष्टि से उसे देखने लगी | 2
किसी के द्वारा
-- समस्त
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यहां समरकेतु का यौवन तथा उसका सौन्दर्य, उसके हाव-भाव, समुद्री वायु आदि उद्दीपन विभाव हैं। स्वेद, रोमांच, वेपथु, स्तम्भ, सीत्कार, चंचल कटाक्षादि अनुभाव हैं तथा लज्जा, श्रम, जड़ता, आलस्य, औत्सुक्यादि संचारी भाव हैं ।
इसी प्रकार समरकेतु ने मलयसुन्दरी को देखा, इस वर्णन में मलयसुन्दरी आलम्बन विभाव है -- वह राजकुमार भी, सागर के समान धीर प्रकृति का होते हुए भी तरंगों के समान इधर-उधर तरल तथा कुटिल कटाक्षपात करने लगा । समुद्री हवा के न लगने पर भी उसका समस्त शरीर पुलकित होकर कांपने लगा । बहुत देर पहले निद्रा त्याग देने पर भी सद्योजाग्रत के समान अंगडाई लेते हुए जम्भाई लेने लगा । प्रागल्भवक्ता होते हुए भी कर्णधारों को गदगद
1.
2.
इति चिन्तयन्त्या एव मे साम्यसूयः स्वरूपमापिष्कतुं मिव हृदयम विशद्गृहीत शृंगारो मकरकेतुः । तदनुमार्गप्रविष्टरचितरण लाक्षारसलांछितेष्विव प्रससार सर्वागेषु रागः । वीतरागदेवतामारसंनिधो विरुद्ध - रोमांचजालकमुच्चममुचत्कुचस्थली । - तिलकमंजरी पृ. 277 ततोऽहं लज्जयानुरागेण च युकपदास्कन्दिता शीतलो जलधिवेलानिल; इति विमुक्त सीत्कारा- काहम् क्वागता, क्व स्थिता - इत्यजात - स्मृतिरशृण्वती शब्दमचेतयन्ती स्पर्शमनुपजिघ्रन्ती गन्धम् केवलं तस्येव रूपलेखावलोकनेकिं विकाशोत्तानया किंस्तिमितिया किं तरलतारकया कि प्रांजलया, तत्कालमहमपि न जानामि कीदृश्या दृशा तमद्राक्षम् ।
- तिलकमंजरी, पृ. 278
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रसाभिव्यक्ति
स्वर में आदेश देने लगा ।1 यहां कटाक्षपात, रोमांच, पुलक, कम्पन, जम्भा, अंगभंग, वैस्वर्यादि अनुभावों का वर्णन हैं ।
अवहित्था-संचारी भाव की सुन्दर अभिव्यक्ति इसी प्रसंग में हुयी हैलज्जा के कारण वह कामदेव के विकारों को छिपाने के लिए विभिन्न प्रकार की चेष्टाएँ करने लगा मुझे एकटक देखने के कारण बहने वाले आनन्दाश्रुओं की धार को रत्नदर्पण के तेज से निकल रहे हैं, यह कहकर बार-बार पोंछता, मेरे लीलालापों में ध्यान देने के कारण शून्य हृदय से बन्दी को सुभाषित पढ़ाये | मेरे समागम के ध्यान में नेत्र बन्द कर चित्रफलक पर व्यर्थ ही रूप लिखने लगा | 2 यहां अश्र, नेत्रमीलनादि अनुभाव हैं ।
इस प्रकार धनपाल सम्भोग श्रृंगार को क्रमशः विकसित कर उसके सभी तत्वों, आलम्बन उद्दीपन, अनुभाव, व्यभिचारी भावों का सम्यक् वर्णन करने में अत्यन्त निपुण है । संभोग श्रृंगार के अन्य उदाहरण तारक तथा प्रियदर्शना, 3 हरिवाहन तथा तिलकमंजरी, 4 मलयसुन्दरी तथा समरकेतु के वर्णनों में भी मिलते हैं ।
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संभोग श्रृंगार के समान ही तिलकमंजरी में विप्रलम्भ शृंगार की भी मनोरम अभिव्यंजना हुई है, विशेषकर पूर्वराग विप्रलम्भ की । काव्यप्रकाश में विप्रलम्भ के पांच भेद वर्णित किये गये हैं- अभिलाष (अर्थात् पूर्वराग), ईर्ष्या ( या मान), विरह, प्रवास तथा शाप 16
हरिवाहन द्वारा तिलकमंजरी के चित्र अवलोकन से उत्पन्न अनुराग पूर्वराग विप्रलम्भ का उदाहरण है । 7 इसमें अभिलाष तथा चिन्तन काम - दशाओं का
1.
सोऽपि नृपकुमारः.... निसर्गरोऽपि सागर इव.... प्रगत्मवागपि सगद्वदस्वरः स्वकर्नसु कर्णधारानतत्वरत् वही, पृ. 278 निहनोतुकामश्च लज्जयात्मनो मन्मथविकाराननेकानि चित्तहारीणि चेष्टितान्यकरोत् । तथा हि-मदवलोकनाबद्धस्यन्दमानान्दाश्रु बिन्दुविसरमति भास्वरेण....बीणाखानभावयत् । - तिलकमंजरी, पृ. 279
3.
वही, पृ. 127-129
4.
वही, पृ. 248 - 250, 362-63
5.
वही, पृ. 310-313
6. अपरस्तु अभिलाषविरहेर्ष्याप्रवासशापहेतुक इति पंचविधः ।
तिलकमंरी,
2.
7.
पृ. 162-174
- मम्मट, काव्यप्रकाश, चतुर्थ उल्लास, पृ, 123
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तिलकमंजरी का साहित्यिक अध्ययन
वर्णन किया गया है ।1 तिल कमंजरी का चित्र आलम्बन विभाव है, उसका मौन्दर्य, अदृष्टसरोवरादि उद्दीपन विभाव हैं।
इसी प्रकार मलयसुन्दरी के इस वर्णन में विरह विप्रलम्भ शृंगार का उदाहरण मिलता है -अहमपि ततः प्रभृति ...मुहुर्मुहुः प्रमृष्टपर्यशृ नयना यथादृष्टमाकार तस्य नृपकुमारस्य संचार्य चित्रफलके सततमवलोकयन्ती....दुःसह प्रियवियोगः इत्युपजात करुणा च दोहदानुभावादिवापि विकसितानां विलासधिकानीलनलिनाकराणां प्रभान्धकारेषु रजनी शंकया विघटितानि मुग्धचक्रवाकमिथुनानि मिथः संयोजयन्ती....शोकविकला कंचित्कालमनयम् -पृ. 296-97 2 वीर
वीर रस का स्थायिभाव उत्साह है। वज्रःयुध तथा समरकेतु का धनुयुद्ध वीररस का उत्कृष्ट उदाहरण है । वज्रायुध के इस वर्णन में वीर रस की झलक मिलती है-सेनापतिस्तु तं तयोराकर्ण्य कर्णामृतकल्प जल्पमुपजात! रणरसोत्कर्षपुष्यत्पुलकजालकं सजलजीमूतस्तनितगम्भीरेण स्वरेण तत्क्षणादिष्टकिंकर ध्वनन्तमाजिदुन्दुभि....समरढक्कानां ध्वनितेन पातयन्निव सबन्धनान्यराति हृदयानि ...शिविरान्निरगच्छत् ।।
वीर रस की चरम परिणति समरकेतु के इस वर्णन में मिलती है। समरकेतु इतनी तीव्रता से बाण चला रहा है कि उस समय उसका दांया हाथ एक साथ ही तूणीर के अग्र भाग पर गुंथा हुआ सा, धनुष की डोरी पर लिखित सा, बाणों के पुखों पर खुदा हुआ सा तथा कर्णान्त पर अवतंसित सा जान पड़ता है ।4 मेघवाहन के वर्णन में भी वीररस का उदाहरण मिलता है ।।
1. न जाने कस्य सुकृतकर्मण :- शतयामेव क्थमपि क्षमा विराममभजत ।
___ -तिलकमंजरी, पृ. 175-177 2. वारंवारमन्योन्यकृततर्जनयोश्च-सायकाः प्रसश्रुः ।
वही, पृ. 89 3. वही, पृ. 86
अतिवेगव्यापृतोऽस्य तत्र क्षणे प्रोत इव तूणीमुखेषु, लिखित इव मौर्व्याम्, उत्कीर्ण इव पुखेषु, अवतसित इव श्रवण न्ते तुल्यकालमलक्ष्यत वामेत्तरः पाणिः ।
.. -तिलकमंजरी, पृ. 90 मुक्तमदजलासारकरिघटा सहस्रमेषमण्डलान्धकारिताष्ट दिग्भागेषु धनस्तनितघर्घरघूर्यमाणरथनिर्घोषेषु दर्पोत्पतत्पदातिकरतलतुलिततखारितडिल्लताप्रतानदन्तुरितान्तरिक्ष कुक्षिषु....यदीयसन्येषु सकलप्रतिपक्षलक्ष्मीजिघृक्षया ... निद्राक्षय मगच्छत्
-वही, पृ. 15-16
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रसाभिव्यक्ति
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3 वीभत्स
तिलकमंजरी का वेताल-वर्णन वीभत्स रस का उत्तम उदाहरण है । जुगुप्पा वीभत्स रस का स्थायिभाव है।
अश्रुद्रसरलशिरादण्डनिचितेन निश्चेतुमुछायमूर्ध्व लोकस्य संगृहीतानेकमानरज्जुववोपलक्ष्यमाणेन....अघृणांचनादाननोद्वान्तगरेण जरदजगरेणगाढीकृतज्ञ तजक्वाथरक्ताशार्दूलचर्मसिचयम....आई पंकपटलश्याममति कृशतया काय दूरदशितोन्नतीनां पशुकानामन्तरालद्रोणीषु निद्रायमाणशिशुसरीसृपं सीरगतिमार्गनिर्गताविरलविषकन्दलं साक्षादिवाधर्मक्षेत्रमुर:प्रदेशं दर्शयन्तम्....गात्रपिशितमुतकृत्योत्कृत्य कीकशोपदंशमश्नन्तम्.....- पृ. 47
वेताल वर्णन के अतिरिक्त युद्ध वर्णन में भी बीभत्स रस की अभिव्यक्ति की गई है ।। 4 रौद्र
रौद्र रस का स्थायिभाव क्रोध है । वज्रायुध की. इस उक्ति में रौद्र रस की अभिव्यक्ति होती है-रे रे दुरात्मन् ! दुर्गहित धनुविद्यामदा-ध्यातविणाधम, बधान क्षणमात्रमग्रतोऽवष्थानम् । अस्थान एव कि दृप्यसि । पश्य ममापि संप्रति शश्वविद्याकौशलम् । इत्युवीर्य निर्यत्पुलकम सिलतामहणाय दक्षिणं प्रसारितवान्बाहुम् । अरिवघावेशविस्मृतात्मनश्च तस्योल्लासितको पसाटोपकम्पितांगुली ....अतिष्टिपम्-पृ. 91
वैरियमदण्ड नामक हस्ती के वर्णन में भी रौद्र रस का वर्णन किया गया है-अधःकृत प्रलयजलधरस्तनितेन विस्तारिणा कण्ठरसितेन वित्रासितसकलवनचरवृन्दम्, आसक्तवनदन्तिदानपरिमले पुरोतिनि महति पर्वतपादपाषाणे सरोषनिहितोभयविषाणम्....क्रोधमिव मूर्तिमन्तकमिवो पजातगजविवर्तम्-पृ. 185
लक्ष्मी के सेवक यक्ष महोदर ने अत्यन्त कुद्ध होकर गन्धर्वक को विमान सहित अदृष्ट सरोवर में फेंक दिया था। महोदर की निम्न उक्ति उसके क्रोधाधिक्य का संकेत देती है-स एवमुक्तमात्र एव मया रोषरक्तेक्षणो ललाटतटविघटित भंगुरभ्रकुटिरा विष्कृतवेतालरूपः रे रे दुरात्मन, अनात्मज्ञ, विज्ञानरहित, परिहुत विशिष्टजन समाचार....रे विधाधराधम, न जानासि मे स्वरूपम् ।तदरे दुराचार ऋ रहृदयोऽहम् । -इत्युदीर्य दत्तहुंकारः स्थास्थ एव तद्विमानं कधचिदुत्क्षिप्य दूरमदृष्टपारे सरसि न्यक्षिपत् ।।
1. युगपदेकीभूतोदारवारिराशिरस्रजलविसखषिर्धनपदाति घोरो मुदितयोगिनी ....कर्दमप्रायमपीयत क्षतजापगाम्बुकोणपगणेन । ।
-तिलकमंजरी, पृ. 87-88 2. तिलक मंजरी, पृ. 382-83
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तिलकमंजरी, एक सांस्कृतिक अध्ययन
5 हास्य
हास्य रस का स्थायिभाव हास है। मेघवाहन तथा लक्ष्मी के संवाद में हास्य का पुट दिया गया है। इसी प्रकार कमलगुप्त की मंजीर के प्रति इस उक्ति में हास्य रस की अभिव्यंजना हुयी है, जिसे सुनकर सभी राजपुत्र हंसने लगे-शोच्यः पुनरसो पापकर्मा कर्मचण्डालः प्रकृतिदुष्टात्मा विशिष्टामास: सकलचौरग्रामणीरग्राहयनामा मंजीरो येन मारिणेव मूषिकामिषमुपसृत्य निमृतमत्रयदि वा किमनेन किलष्फलया नरेन्द्रसेवयैव शासितेन मूयः कथितेन क्रपणेनेति कृपामनुरुद्धयमानों न निष्ठूरं व्यवहरति-यद्विप्रयोगसंभावनया स्वशरीरभूतस्य सुहृदो हृदयदाह ईदृशो युवराजस्य इत्युक्तवति तस्मिन्सकलोऽपि परिहासालापरंजित :-पृ. 112-113
हास्य का एक सुन्दर उदाहरण ग्रामीणों के प्रसंग में मिलता है- वे ग्रामीण हथिनी पर बैठी हुयी वेश्याओं को भी अन्त:पुर की स्त्रियां सम्झ रहे थे, छत्र धारण करने वाले चारण को भी राजपुत्र समझ रहे थे, स्वर्ण का निष्क आभूषण धारण करने वाले वैश को भी राजकर्मचारी मान रहे थे, प्रश्न पूछे जाने पर भी दूसरी ओर चले जाते थे, सामने स्थित होने पर भी अंगुली से इंगित करते थे, श्रवणीय होने पर भी निःशंक होकर ऊंचे स्वर में बोलते थे, घृष्ट हस्ती, अश्व, वृषभादि पशुओं के तीव्रता से समीप आने पर गिरने वाले तथा भागने वाले लोगों को देखकर तालियां बजा-बजाकर खिलखिलाकर हंस रहे थे। ग्रामीणों की सरलता का यह वर्णन पाठक को हंसने के लिए बाध्य कर देता है।
अद्भूत
अद्भुत रस का स्थायिभाव स्मय है। सम्पूर्ण तिलकमंजरी में जगहजगह पर अद्भुत रस का समावेश है। विद्याधर मुनि वैमानिक ज्वलनप्रभ का वर्णन अद्भुत का ही दृष्टान्त है। वैमानिक द्वारा भेंट किये गये चन्द्रातप दिव्य हार का वर्णन जिसे पहनते ही तिलकमंजरी पूर्वजन्म की स्मृति से व्याकुल हो
1. तिलकमंजरी. पृ. 59-60 .....करेणुकाधिरूढं क्षुद्रगणिकागणमप्यन्तः पुरमितिघृतोष्णवारणं चारणमपि महाराजपुत्र इति कनकनिष्कावृतकन्धरं वणिजमपि राजप्रसादचिन्तक इति चिन्तयद्भिः पृष्टरपि प्रतिवचनम् प्रच्छयदिभरप्यन्यतो गच्छद्भिः पश्यतोऽप्यभिमुखमंगुलीभिदर्शयद्भिः शृण्वतामपि चेष्टितमशंकितेरूच्चस्वनेन सूचयदिमविषमावता रसभर्देषु दुर्दान्तकरमवाजिवृषभोतलवनेषु व्यालदन्ति वेगोपसर्पणेषुसतालशब्दमुच्चस्तरां हसद्भिः ,
-वही, पृ. 118-19
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रसाभिव्यक्ति
गयी थी. अद्भुत रस के अन्तर्गत ही आता है । लक्ष्मी द्वारा भेंट की गयी बालाअंगुलीयक, जिसे पहनते ही शत्रु की सेना दीर्घनिद्रा में लीन हो गयी, अद्भुत रस का संचार करने वाली है । हाथी के द्वारा हरिवाहन को आकाश में उड़ाकर जाना अत्यधिक विस्मयजनक है । मलयसुन्दरी द्वारा पुष्पमाला पहनाये जाने पर तथा हरिचन्दन का तिलक लगाने पर समरकेतु के नेत्रों से उसका अदृश्य हो जाना, ये सभी आश्चर्ययजनक घटनाएं हैं। निशीथ नामक दिव्य वस्त्र का वर्णन किया गया है, जिसे पहनकर अदृश्य हुआ जा सकता था । इसके स्पर्श से ही समस्त शाप नष्ट हो जाते थे । शुक रूप गन्धर्वक का शाप इसी से नष्ट हो गया था वह अपने पूर्वरूप में आ गया । महर्षि द्वारा तिलकमंजरी तथा मलयसुन्दरी के पूर्वजन्मों की कथा के वर्णन में यह अद्भुत रस अपने चरमोत्कर्ष पर पहुँच जाता है, अतः धनपाल ने इसे 'स्फुटाद्भुतरसा' कथा उचित ही कहा है ।
भयानक
भयानक रस का स्थायिभाव भय है । इस रस की अभिव्यक्ति वज्रायुध तथा कुसुमशेखर की सेनाओं के युद्ध में हुयी है - महाप्रलयंसनिभ: समरसंघट्टः सर्वतश्च गात्रसंघट्ट रणितघण्टानामरिद्विपावलोकनक्रोधधाविताना मिभ्रपतीनां बू' हितेन प्रतिबलाश्च दर्शनक्षुमितानां च वाजिनां हेषितेन, हर्षो तालमूलताडिततुरंग बद्धरंहसां च स्यन्दनानां चीत्कृतेन, सकोपधानुष्कनिदिया च्छोटितधानां च चाययष्टrai टंकृतेन - समरभेरीणां भाङ्कारेण, निर्भराध्मातसकलदिवचक्रवालं यत्र साक्रन्दमिव साट्टहासमिव सास्फोटन रवमिव ब्रह्माण्डमभवत् - पृ. 87 इसके अतिरिक्त भयानक रस की अभिव्यक्ति मेघवाहन के वर्णन में बेताल वर्णन में मेघवाहन द्वारा अपने शिरच्छेद कर्तन के प्रसंग में, * समुद्र वर्णन
1.
141
2.
यथा किल परैरलक्षिनतनुः कुमारो दिदृक्षते नगरमिति । तदि सत्यमेततदमुना स्पर्शानुमेयेन निशीथनाम्ना दिव्यपटरत्नेन प्रावृतांग पश्य त्वम् । .....व्यापृताक्षोऽपि लोकः स्तोकमपि नालोकयति देहिनम, अंधिमूलाक्रान्त सरोषमारोपितान पहरति मद्गात्रमुत्तमांगन सह -तिलकमजरी, पृ. 376
भोगनालोऽपि न दशति दन्दशूक..... दिव्यपुरुष दीर्घशापानपि स्पर्शमात्रेणायमिति निगद्य
तेनाच्छादयत् ।
यस्य फेनवत्स्फुट प्रसृतयशोट्टहासभरित भुवन कुक्षिरंगीकृतजेन्द्रकृत्तिभीषणः संजहार विश्वानि शात्रवाणि महाभैरवः कृपाणः ।
- तिलकमंजरी, पृ. 14
3.
वही, पृ. 47-49 4. वही, पृ. 52-53
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तिलकमंजरी, एक सांस्कृतिक अध्ययन
में, 1 बैताढयपर्वत की अटवी के वर्णन में, 2 वैजयन्ती नगर के विप्लवादि प्रसंगों
हुयी है ।
142
करुण
करूण रस का स्थायिभाव शोक है । इसकी सुन्दर अभिव्यक्ति हस्ती द्वारा हरिवाहन का अपहरण कर लिये जाने पर समरकेतु के विलाप में हुयी है - हा सर्वगुणनिधे, हा बुधजनैकवल्लभ, हा प्रजाबन्धौ, हृा समस्तकलाकुशल कोसलेन्द्रकुलचन्द्र, हरिवाहन, कदा द्रष्टव्योऽसि ।
समर केतु की शोक-विहवलता प्रस्तुत वर्णन में स्पष्ट है- अनुपदमास्पीकृतो दादहनेन सततबाष्पसलिलसंगादमूलमंकुरितमिव निःसंख्यता गतं दुःखभारमुद्वहन्मानसेन क्षणं निशण्णः क्षणमासीनः, क्षणं परावर्तमानो, मनुजलोकाया - सविद्धोषण द्वेषमव्रजन्ती महीमपतदुपरि ब्रह्माण्डमदलत्सहस्रधा - येन भुवनत्रय ख्यातविक्रमस्तस्मादपि करटिकीटादापदं प्राप्तोऽसि इत्यादि विलपन्विलीन - स कथमपि क्षपामनयत । पृ, 190
इसी प्रकार मलयसुन्दरी ने पाषाण के हृदय को भी द्रवीभूत करने वाला विलाप किया है - शतमुखी भूतदुःखदाहा निदाघसरिदिव प्रथमजलधरासार वाखिरणबन्धेन महतापि प्रयत्नेन हेलानतं बाष्पवेगमपारयन्ति धारयितुन्मुक्तातितारकरूणपुत्कारा हा प्रसन्नमुख, हा सुरेखसर्वाकार, हा रूपकन्दर्प —– किमेकपद एव निस्नेहतां गतः । किं न पश्यसि मामस्थान एव निर्वासितां पित्रा विसर्जितां मात्रा परिजनेनावधीरितां बन्धुमिरेका किनीमदृष्टप्रवासां वनवासदुःखमनुभवन् किमागत्य नाथ, नाश्वासयसि कदा त्वमीदृशो जातः
-g. 332
शान्त रस
शान्त रस का स्थायिभाव शम है । शान्तातप कुलपति के आश्रम के इस वर्णन में शान्त रस की व्यंजना की गयी है ।
जहां प्रातः काल में यज्ञ की अग्नि के धुएँ को दुर्दिन समझकर आश्रम के मयूर हर्षित होकर तीव्र केकारव करते है, जिससे भयभीत होकर सर्प समाधि के कारण निश्चल शरीर वाले मुनि के चटक पक्षियों के घोसलों से युक्त जटामडल के नीचे छिप जाते हैं । 4
वही, पृ. 120-122
वही, पृ. 200. वही, पृ. 342-43
प्रातरवेक्ष्य
1.
2.
3.
4. प्रातः
होमहुतभुग्धूम्यामहादुर्दिनं, हृष्टस्याश्रम बर्हिणस्य रसितेरायामिभिस्रासिताः । नीचैरेत्य समाधिनिश्चलतनोर्मध्ये जटामण्डलं, यस्याबाधितबद्धनीडचटकाश्चक्रुः स्थिति भोगिनः ॥
• तिलकमंजरी,
-
329-30
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रसाभिव्यक्ति
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इस प्रकार हम देखते हैं कि तिलकमंजरी में सभी नौ रसों की सम्यक अभिव्यक्ति हुयी है । प्रधान रस शृंगार है, जिसके दोनों भेदों की सुन्दर अभिव्यंजना कर उसे चरम परिपाक तक विकसित किया गया है। वीर, वीभत्स तथा अमृतादि अन्य रस अंगरूप से वर्णित करके प्रमुख रस के परिपोषण तथा कथा के विकास में सहायक हैं ।
प्रस्तुत अध्याय में तिलकमंजरी का साहित्यिक विश्लेषण प्रस्तुत किया गया जिसके प्रमुख प्रतिमान थे, तिलकमंजरी : एक कथा, धनपाल की भाषाशैली, अलंकार-योजना तथा रसाभिव्यक्ति । गद्य-काव्य की दो विधायें काव्यशास्त्रियों द्वारा निर्धारित की गयी है -- कथा तथा आख्यायिका। तिलकमंजरी ग्रन्थ गद्य-काव्य की कथा-विधा के अन्तर्गत आता है। यह काव्य संस्कृत साहित्य के एक प्रमुख अंग गद्य-काव्य के अल्पशेष दुर्लभ ग्रन्थों के अन्तर्गत होने से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । धनगल ने अति प्रांजल. ओजस्वी, भावपूर्ण भाषा में इस ग्रन्थ की रचना की है तथा छोटे-छोटे समासों युक्त ललित वैदर्भी रीति का प्रयोग किया है । सुन्दर प्रसंगानुकूल अलंकार-योजना से काव्यकलेवर सजाया-संवारा गया है । राजकुमार हरिवाहन तथा विद्याधर कुमारी तिलकमंजरी की यह प्रेम-कथा शृंगार-रस से सिंचित होते हुए भी अन्य सभी आठों रसों से भी अभिसिक्त है। अपनी इन्हीं विशेषताओं से तिलकमंजरी ने कथा-साहित्य में अपना विशिष्ट स्थान बना लिया है तथा वासवदत्ता, कादम्बरी, की पंक्ति में तृतीय स्थान पर विराजमान हो गयी है।
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पंचम अध्याय
तिलकमंजरी का सांस्कृतिक अध्ययन
मनोरंजन के साधन
धनपाल के समय में साहित्य एवं कला अपने चर्मोत्कर्ष पर थे । तत्कालीन राजा कविता कामिनी के उपासक और रक्षक दोंनों ही थे । स्वयं राजा भी साहित्य सृजन करते एर्ब अन्य कवियों की कृतियों को भी पूरे मनोयोग से ग्रहण कर | अपनी रचनाओं द्वारा राजा का मनोरंजन करना कवि का प्रमुख उद्देश्य था । स्वयं धनपाल ने तिलकमंजरी की भूमिका में लिखा है कि उसने इस कथा की रचना जैन आगमों में कथित कथाओं के श्रवण को उत्सुक भोज के विनोद हेतु की थी। 1
अत: उस समय राजकीय मनोरंजन के प्रमुख साधन साहित्य तथा कलाविषयक थे अर्थात् वे मनोरंजन की अपेक्षा मस्तिष्क रंजन में अधिक रूचि लेते थे । राजकुमार हरिवाहन व समरकेतु के प्रसंग में इसका विस्तार से वर्णन किया गया है - वे दोनों मित्र परस्पर अपनी अस्त्र कुशलता का प्रदर्शन करते, कभी पद - वाक्य का विवेचन करते, कभी प्रमाण व प्रमेय के स्वरूप का विचार करते, कभी धर्मशास्त्र के विषयों का समर्थन करते, कभी असत् दर्शन की युक्तियों का खण्डन करते, कभी नीतिशास्त्र के विषयों का अध्ययन करते, कभी कला-सम्बन्धी विषयों पर वाद-विवाद करते, कभी रस, अभिनय, भावादि का वर्णन करते, कभी वेणु, वीणा, मृदंगादि वाद्यों का वादन करते तथा कभी प्राचीन कवियों की रचनाओं के अनुशीलन में अपना समय व्यतीत करते थे । 2
इस प्रकार के मनोरंजन के लिए प्रायः गोष्ठियां आयोजित की जाती थी जो प्रायः या तो राज दरबार में ही हुआ करती अथवा नगर से दूर कहीं वन या किसी रमणीक उद्यान में की जाती थी । इस प्रकार की अनेक गोष्ठियों का
1. तिलकमंजरी, पृ. 7, पद्य 50
2. वही, पृ. 104
3. तिलकमंजरी, पृ. 61, 108, 172, 184, 372
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तिलकमंजरी का सांस्कृतिक अध्ययन
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उल्लेख तिलकमंजरी में आया है-नर्मालापरहस्यगोष्ठी (61), चित्रालंकार बहुल काव्य गोष्ठी (108), सुभाषित गोष्ठी (172,372), गीतगोष्ठी (184) आदि । हर्षचरित के टीकाकार शंकर के अनुसार-विद्या, धन, शील, बुद्धि और आयु में मिलते-जुलते लोग जहां अनुरूप बातचीत के द्वारा एक जगह आसन जमा, वह गोष्ठी है ।1 इन गोष्ठियों का प्रमुख उद्देश्य विनोद-मात्र होते हुए भी इनसे राजकुमार साहित्य एवं कला सम्बन्धी अपने ज्ञान में वर्धन करते थे। अब इनका विस्तार से वर्णन किया जायेगा। साहित्यिक मनोरंजन
साहित्यिक मनोरंजन के लिए राजकुमार गोष्ठियां आयोजित करते थे, जिनमें कलाविद्, शास्त्रज्ञ, कवि, कुशलवक्ता, काव्य के गुण-दोषों का विभाग करने वाले, कथा-आख्यायिका में रुचि रखने वाले तथा कामशास्त्रादि ग्रन्थों की आलोचना में अनुरक्त अनेक देशों के राजपुत्र सम्मिलित होते थे। ये गोष्ठियां समान आयु वाले युवकों की होती थी। मतकोकिलोद्यान के जलमण्डप में हरिवाहन ने इसी प्रकार की चित्रालंकार बहुल काव्य-गोष्ठी आयोजित की थी। इस गोष्ठी में विद्वत्सभाओं में प्रसिद्ध पहेलियां बूझी गयी, प्रश्नोत्तर किये गये, षट्प्रज्ञकों की कथा कही गयी, बिन्दुच्युतक, अक्षरच्युतक, मात्राच्युतक श्लोकों का विवेचन किया गया तथा इसी प्रकार की अन्य साहित्यिक पहेलियां बूझी गयीं। ऐसी सभाओं में वेदग्ध्यपूर्ण हास्य के फव्वारे छूटते थे।
इसी प्रकार मलयसुन्दरी के आश्रम में विद्याधरगणों के साथ प्रश्नोत्तर, प्रहेलिका, यमकचक्र, बिन्दुमती आदि चित्रालंकार युक्त काव्यों से हरिवाहन ने अपना मनोरंजन किया।1 महापुराण में पद-गोष्ठी, काव्य-गोष्ठी, जल्प-गोष्ठी, गीत-गोष्ठी, नृत्य-गोष्ठी, वाद्य-गोष्ठी तथा वीणा-गोष्ठी के उल्लेख हैं। बाण ने विद्या-गोष्ठी का उल्लेख किया है, जिसके अन्तर्मत पद-गोष्ठी, काव्य-गोष्ठी और
1. अग्रवाल वासुदेव शरण, हर्षचरित : एक सांस्कृतिक अध्ययन, पृ.12 2. (क) विरमतु विनोदकफला तावदेषा गीतगोष्ठी -तिलकमंजरी पृ. 184
(ख) जायते गीतनृत्यचित्रादि कलासु व्युत्पत्तिः - वही, पृ, 172 3. वही, पृ. 107-8 4. तिलकमंजरी, पृ. 108 5. कदाचित्प्रश्नोत्तरप्रहेलिकायमकचक्रबिंदुमत्यादिमिधित्रालंकारकाव्यः प्रपंचितः विनोदा
- वही पृ. 394
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तिलकमंजरी, एक सांस्कृतिक अध्ययन
जल्प-गोष्ठी आती है | पद- गोष्ठी में अक्षरच्युतक, मात्राच्युतक, बिन्दुमती, गूढचतुर्थपाद आदि अनेक प्रकार की पहेलियां बुझाई जाती थी । काव्य गोष्ठी में काव्य-प्रबन्धों की रचना की जाती थी। जल्प-गोष्ठी में आख्यान, आख्यायिका, इतिहास पुराणादि सुने सुनाये जाते हैं । 1 मेघवाहन द्वारा अपने परममित्रों के साथ नर्माला रहस्य- गोष्ठी किये जाने का उल्लेख है । 2 यह एकान्त में आयोजित मित्रमण्डली की उत्कृष्ट हास्य से पूर्ण मनोरंजक गोष्टी होती थी ।
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काव्य के अतिरिक्त कथाओं से भी राजकीय जन अपना मनोरंजन करते थे। 3 प्रायः भोजन के पश्चात् राजा मनोरंजक कथाएँ सुनते हुए विश्राम किया करते थे । ये कथाएँ रामायण, महाभारत, पुराण, बृहत्कया तथा प्रसिद्ध महाकाव्यों से ली जाती थी । प्रायः अन्तपुर तथा वासभवनों में कथाएं कहने में निपुण स्त्री-पुरुष हुआ करते थे, जिन्हें 'कथक जन' अथवा 'कथकनारीयां' कहते
1 व्यक्ति समस्त भाषाओं के ज्ञाता तथा कलाओं में निपुण एवं पौराणिक आख्यानको को कहने में अत्यन्त चतुर होते थे । 5 समरकेतु ने मलयसुन्दरी को प्राप्त करने की आशा से अपने वृतान्त को कथाबद्ध कर प्राचीन कथाओं के ब्याज से कथकनारियों के माध्यम से सभी सामन्तों के अन्तःपुरों में पहुँचाया है । " कुलपति के आश्रम में वृद्ध तपस्विनी स्त्रियां पौराणिक कथाएं कहकर मलयसुन्दरी का मनोरंजन करती थी। 7
1.
2.
3.
4
5.
अग्रवाल वासुदेव शरणः हर्षचरितः एक सांस्कृतिक अध्ययन, प्रवर्तय यदृच्छा सुहृज्जनेन सार्धमग्राम्यनर्मालापरहस्य गोष्ठी :
To 13 तिलकमंजरी, पृ० 61 तिलकमंजरी, पृ० 10, 75, 163, 169, 172, 237, 322, 331, 394,
वही, पृ० 174, 237, 394
(क) अग्रतः प्रपंचतविचित्रा ख्यानकेन श्रव्यवचसा कथकनारीजनेन .... -वही पृ० 75 (ख) सर्वकलाशास्त्रकुशलेन सर्वदेशभाषाविदा सर्वपौराणिका ख्यानकप्रवीणेन स्त्रीजनेन चित्रामिः कथामिविनोधमाना दिनान्यतिवाहयति ।
वही, पृ० 169
6.
वही, पृ० 322
7 यथावसरममिनवामिनवानि पौराणिकास्थानकानि कथयता स्थविरतापसी
. समूहेन .....
वही, पृ० 331
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तिलकमंजरी का सांस्कृतिक अध्ययन
147 डा० हजारीप्रसाद ने साहित्यक मनोविनोदों में प्रतिमाला, दुर्वाचक, मानसीकता तथा अक्षरमुष्टि का उल्लेख किया है ।1।
(1) प्रतिमाला या अन्त्याक्षरी में एक आदमी एक श्लोक पढ़ता था और उसका प्रतिपक्षी पंडित श्लोक के अंतिम अक्षर से शुरु करके दूसरा श्लोक पढ़ता।
(2) दुर्वाचक योग के लिए ऐसे कठोर उच्चारण वाले शब्दों का श्लोक सामने रखा जाता था कि जिसे पढ़ सकना कठिन होता था ।
(3) मानसी कला में कमल के या अन्य वृक्ष के पुष्प अक्षरों की जगह पर रख दिये जाते थे और उसे पढ़ना पड़ता था।
___(4) अक्षरमुष्टि दो प्रकार की होती थी सामासा तथा निरामासा । सामासा संक्षिप्त करके बोलने की कला है तथा निरामासा गुप्त भाव से वार्तालाप करने की कला है।
कलात्मक सनोरंजन संगीत, चित्रकला, नृत्य, तथा नाटक, पत्रच्छेद, पुस्तकर्मादि प्रमुख कलाएं थीं। साहित्य के पश्चात राजकीय मनोरंजन का प्रमुख साधन थीं। सम्भ्रान्त जनों के लिए इन कलाओं में दक्षता प्राप्त करना अनिवार्य था। राजकुमार हरिवाहन को समस्त चौसठ कलाओं में प्रवीण कहा गया है। तिलकमंजरी को समस्त विद्याधरों में कला में लब्धपताका कहा गया है । न केवल राजकीय व्यक्ति अपितु साधारण नागरिक भी इनमें पूर्ण निष्णात होते थे । गीत, वाद्य तथा नृत्य प्रत्येक राजकुमारी की शिक्षा के आवश्यक अंग थे । मलयसुन्दरी ने राजकोचित विद्या ग्रहण कर नाट्यशास्त्र तथा गीतवाद्यादि कलाओं में प्रवीणता प्राप्त की थी। तिलकमंजरी ने चित्रकला, वीणादि वाद्यों का वादन, लास्य तथा ताण्डवनृत्य, संगीत, पुस्तककर्म तथा विभिन्न प्रकार की पत्रच्छेद रचनादि विदग्धजन विनोद योग्य विभिन्न कलाओं में निपुणता प्राप्त की थी। अतः मलयसुन्दरी हरिवाहन को तिलकमंजरी के साथ इन विषयों पर
1. द्विवेदी, हजारीप्रसादः, प्राचीन भारत के कलात्मक विनोद, बम्बई 1952 2. तिलकमंजरी, पृ० 362 3. कृतस्नेऽपि विद्याधरलोक इह लब्धपताका कलासु सकलास्वपि कोशलेन वत्सा तिलकमंजरी।
-वही, पृ० 363 4. वही, पृ० 10, 260 - . 5. वही, पृ० 264 6. तिलकमंजरी, पृ० 363
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वार्तालाप करने के लिए कहती है ।। पुरुष एवं स्त्रियां भी परस्पर इस प्रकार के वाद-विवाद करते थे। हरिवाहन ने तिलकमंजरी के अन्त:पुर की विलासिनीयों के साथ कलाओं में वाद-विवाद किया था । 'अ) संगीत
संगीत एवं वाद्य-वादन दोनों में ही राजाओं की समान रूचि थी। राजा स्वयं भी गाते थे तथा गायकजनों के गीत सुनकर भी अपना मनोरंजन करते थे । मेघवाहन स्वरचित शृंगाररस पूर्ण सुभाषितों को स्वरबद्ध कर गाथकगोष्ठी द्वारा उनका पुनर्गान कराकर आनन्द प्राप्त करता था ।3 गीत गोष्ठियों का आयोजन किया जाता था, जिसमें स्वरादि पर विचार विमर्श होता था । प्रायः मध्यान्ह में भोजन के पश्चात् राजा अपने प्रासाद के शिखर प्रान्त में निर्मित दन्तवलमिका में विश्राम करते हुए संगीत वाद्यादि के द्वारा मनोरंजन करते थे ।। संगीत एवं वाद्य राजकीय जीवन की दैनिक आवश्यकता बन गये थे, अत: तिलकमंजरी के विरह में व्याकुल हरिवाहन न चाहते हुए भी वेणुवीणादिवाद्यों का आदःपूर्वक श्रवणकरता था। यही स्थिति समरकेतु की भी वर्णित की गयी है।' तिलकमंजरी हरिवाहन के वियोग से संतप्त होकर कृत्रिमाद्रि के शिखर पर स्थित कामदेव के मन्दिर में देवपूजा के व्याज से रत्नवीणा बजाती थी।
1. चित्रकर्माणि वीणादिवाधे लास्यताण्डवगतेषु नाट्यप्रयोगेषु पड्जादिस्वर
विभागनिर्णयेषु पुस्तककर्मणि द्रविडादिषु पत्रच्छेदभेदेष्वन्येषु च विदग्धजन विनौदयोग्येषु वस्तुविज्ञानेषु पृच्छनाम् ।
-वही, पृ. 363 2. यत्र कलासु कुशलामिरन्तः पुरविलासिनीमिः सह कृतः क्रीडा विवादः।।
-वही, पृ. 390 कदाचित्स्वयमेव रागविशेषेषु संस्थाप्य समथितानि शगारप्रायरसानि स्वरचितसुभाषितानि स्वभावरक्तकण्ठया गाथकगोष्ठया -पुनरुक्तमुपगीयमानान्यनुरागभावितमनाः शुश्राव ।
___-वही, पृ. 18 4. गलितगर्वगन्धर्वशिथिलिगीतगोष्ठीस्वरविचारा.... -तिलकमंजरी, पृ. 41 5. तत्कालसेवागतर्गीतशास्त्र....सह वेणुवीणावाद्यस्य विनोदेन दिनशेषमनयत् ।
-वही, पृ. 70 6. वही, पृ. 180, 183 7. वही, पृ. 279
कदाचित्कृत्रिमाद्रिशिखरवर्तिनि स्मरायतने देवतार्चनव्यपदेशेन....रत्नवीणां. वादयन्ती।
-वही पृ. 391
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सीत में वीणा-वादन सर्वाधिक लोकप्रिय था। मृच्छकटिक में कहा गया है कि वीणा असमुद्रेत्पन्नरत्न है, उत्कंठित की संगीनी है, उकताये हुए का विनोद है, पिरही का ढाढ़स है और प्रेमी का रागवर्धक प्रमोद है ।1 चित्रकला
विष्णुधर्मोत्तरपुराण (3,45,38) के चित्र-सूत्र में कहा गय है कि समस्त कलाओं में चित्रकला श्रेष्ठ हैं। प्राचीन ग्रन्थों में चार प्रकार के चित्रों का उल्लेख है-(1) विद्ध चित्र -जो इतना अधिक वास्तविक वस्तु से मिलता हो कि दर्पण में पड़ी परछाई के समान लगता हो, (2) अविद्ध चित्र जो काल्पनिक होते थे (3) रस चित्र जो भिन्न-भिन्न रसों की अभिव्यक्ति के लिए बनाये जाते थे तथा (4) धूलि चित्र ।
चित्र - अवलोकन एवं चित्रनिर्माण दोनों ही मनोरंजन के साधन थे। निपुग चित्रकार प्रसिद्ध रूपवती राजकन्याओं के चित्र बनाकर राजाओं को उपहार में देते थे, जिन्हें देखकर राजा अपना मनोरंजन करते थे। गन्धर्वक ने तिलकमंजरी का चित्र हरिवाहन को मेंटस्वरूप प्रदान किया तथा चित्रकला की दृष्टि से उसकी समुचित समीक्षा करने के लिए कहा। बिदग्धजनों की सभाओं में प्रसिद्ध राजकन्याओं के चित्र प्रस्तुत किये जाते तथा राजकुमार स्वयं भी उनकी समीक्षा करते तथा अन्य चित्रकलाविदों के साथ भी विशिष्ट चित्रों के विषय में विचार-विमर्श करते थे । समरकेतु द्वारा कांची में प्रसिद्ध राजकुमारियों के विद्धचित्रों को देखकर समय व्यतीत किया गया . 6
स्त्रियां एवं पुरुष अपने प्रेमी प्रेमिकाओं के चित्र बनाकर आना मनबहलाव करते थे । निलकमंजरी अत्यन्त निपुणतापूर्वक चित्रफलक पर हरिवाहन का चित्र बनाती थी । मलयसुन्दरी के ध्यान में पलकें मूदे समरकेतु चित्रफलक
1. शूद्रक, मृच्छकटिकम्, पृ. 3, 4
द्विवेदी, हजारीप्रसाद, प्राचीन भारत के कलात्मक विनोद, पृ, 64 3. कदाचिदंगनालोल इति निपुणचित्रकारैश्चित्र पटेण्वारोप्य सादरमुपायनी. कृतानि रूपातिशयशालिनीनामवनीपालकन्यकानां........दिवसमालोकयत् ।
. -तिलकमंजरी, पृ. 18 4, वही, पृ. 161 5. वही, पृ. 166, 177 6. वही, पृ. 322
तिलकमंजरी, पृ. 278, 296, 391 8. कदाचिदन्तिकन्यस्तविविधवर्तिकासमुद्रा ....देवस्यव रूपं विद्धममिलिखन्ती,
-वही, पृ. 391
7.
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पर व्यर्थ ही तूलिका चला रहा था । 1 संस्कृत साहित्य में चित्र बनाकर प्रेमी - प्रेमिका द्वारा विरह वेदना को हल्का करने का वर्णन प्रायः किया गया है । यथा मृच्छकटिक में वसन्तसेना चारुदत्त का चित्र बनाती है । शाकुन्तल में दुष्यन्त शकुन्तला का चित्र बनाकर मन बहलाता है । रत्नावली नाटिका में नायिका सागरिका राजा उदयन का चित्र बनाती है | 2
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नृत्य तथा नाटक
संगीत एवं चित्रकला के अतिरिक्त नृत्य तथा नाटक भी राजदरबारों में मनोरंजन के प्रमुख साधन थे। मेघवाहन का नृत्यकला में दक्ष नृत्यविशारदों के नेतृत्व में लास्य नृत्य करती हुई नर्तकियों के नृत्य द्वारा मनोरंजन किया जाना वर्णित किया गया है राजा स्वयं भी इस कला में पूर्णत निष्णात होते थे एवं नर्तकियों के नृत्य की आलोचना करके मनीषियों का मनोरंजन करते थे 14 उत्सवों पर विशेषकर जन्मोत्सव एवं विवाह, वसन्तोत्सवः युद्ध में विजय प्राप्त करने पर. राजा उद्यानों में नृत्य का आयोजन करते थे । जिनायतन के यात्री - त्सवों पर भी नृत्यों का आयोजन किया जाता था । जिनेन्द्र के अभिषेक के अवसर पर विचित्रवीर्य की सभा में विभिन्न देशों से अपहृत राजकन्याओं ने नृत्य करके विधाधरों का मनोरंजन किया था। 7 मलयसुन्दरी ने अपने नृत्य कौशल से विद्याधरों को भी चमत्कृत कर दिया । तिलकमंजरी शोधशाला की रंगशाला में निपुण नर्तकियों पर नृत्यों के नवीन प्रयोग करती थी । गर्भकाल में मदिरावती ने सागरान्तरवर्ती द्वीपों के सिद्धायतनों में अप्सराओं के सायंकालीन प्रेक्षानृत्य देखने की अभिलाषा प्रकट की थी 10
1.
2.
3.
मत्समागमध्यानमीलिताक्षः पुरः स्थापिते वृथैव तूलिकया चित्रफल के रूपम लिखत् ।
— वही,
पृ. 279
द्विवेदी, हजारीप्रसाद; प्राचीन भारत के कलात्मक विनोद, 65 पृ. कदाचिदावेदित निखिल नाट्य वेदोपनिषद्मिर्तर्तकोपाध्यायै..
वही, पृ. 18
तिलकमंजरी, 75, 163, 263, 302, 323, 391
4.
5.
6.
at, q. 158, 269
7.
वही, पृ. 269
8, वही, पृ. 270
9.
कदाचिदुपरितन सौधशाला र चितरंगा ........
• जहार । — तिलकमंजरी,
............
18
प्रयोगजातमारोपयन्ती
वही, पृ. 391
10. विबुघवृन्दपरिवृता शाश्वतेषु सागरान्तरद्वीप सिद्धायतनेषु सांध्य मारव्धमप्सरोभिः प्रेक्षानृत्य मीक्षितुमाकांक्षत् ।
- वही, पृ. 75
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___ नाट्य-दर्शन राजाओं एवं साधारण जनता के मनोरंजन का विशिष्ट अंग था ।1 अयोध्या के नागरिकों को नाट्यशास्त्र में अभ्यस्त कहा गया है । राजप्रासाद की उर्वभूमिका में स्थित चन्द्रशाला में नाट्यशाला अथवा रंगशाला का निर्माण किया जाता था. जिनमें विभिन्न अवसरों पर नाटकों का आयोजन किया जाता था, जिनमें कभी-कभी अन्य देशों के राजा भी आमन्त्रित होते थे।
पत्रच्छेद
वात्स्यायन के कामसूत्र में 64 कलाओं में पत्रच्छेद जिसे विशेषकच्छेय कहा गया है, की भी गणना की गयी है। पत्तों में कैंची से भांति-भांति के नमूने काटना पत्रच्छेद है। इसे ही पत्रवल्ली. पत्रभंग, पत्रलता, पत्रांगुली कहा जाता था । स्त्रियों के कपोल-स्थल अथवा स्तनों पर फूल-पत्तियों की चित्रकारी पत्रवल्ली, पत्रभंग अथवा पत्रांगुली कहलाती थी । तिलकमंजरी में इनका अनेक स्थलों पर उल्लेख आया है । तिलकमंजरी के कपोल स्थल पर कस्तूरी-द्रव से पत्रांगुली रचना की गयी थी, जो स्निग्ध नीली अलकलता के प्रतिबिम्ब सी जान पड़ती थी। तिलकमंजरी ने अन्य कलाओं के साथ पत्रच्छेद में भी निपुणता प्राप्त की
1. वही, पृ. 10, 41, 57, 270, 292, 372, 399 2. वही, पृ. 10 3. वही, पृ. 57, 61, 391 4. .."उन्नतप्रासादशिखरचन्द्रशालायां रचितरंगभूमिस्वरेषु द्रष्टुमागताना
मष्टादशद्वीपनेदिनीपतीनां दर्शयति दिव्य प्रेक्षाविधिम् । -वही, पृ. 57 (क) कामिनीकुचमितिष्वनेकभंगकुटिलाः पत्रांगुलीरकल्पयत् ।
-तिलकमंजरी, पृ. 18 (ख) रिपुकलत्रकपोलपत्रवल्ली....
-वही, पृ. 5 (ग) कामिनीकपोलतलामिव पत्रलतालीकृतच्छायम्, -वही, पृ. 211 (घ) कण्टकिनि पत्रच्छेदविरचन देवताचंनकेतकदले न कपोलतले,
-
-वही, पृ. 32 (ङ) उल्लसितविरलस्वेदाम्बुकणकर्बुरीकृत कपोलपत्रभंगाम्,
-वही पृ. 270 6. स्वच्छकान्तिना कपोलयुगलेन""कुरंगमदपत्रांगुलीरूद्धहम्तीम्,
-वही, पृ. 247
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थी । द्रविड़ देश की पत्रच्छेद रचना विशेष प्रसिद्ध थी 2 हरिवाहन ने भी चित्र - कर्म, पुस्तकर्म तथा पत्रच्छेद इन शिल्प कलाओं से अपना मनोरंजन किया
था | 3
पुस्तकर्म
पुस्तकर्म अथवा पुस्तक कर्म मिट्टी के खिलौने बनाने की कला को कहा जाता था । हर्षचरित इसका उल्लेख मिलता है ।4 बाण की मित्रमंडली में कुमारदत्त पुस्तकर्म दक्ष था 15 पुस्तक व्यापार या पुस्तक कर्म सभ्रान्त जनों की शिक्षा का आवश्यक अंग बन गया था । बाण ने कादम्बरी में चन्द्रापीड़ की शिक्षा में पुस्तक व्यापार का उल्लेख किया है । पुस्तकर्म प्रमुख शिल्प-कलाओं में माना जाता था । 7 तिलक मंजरी पुस्तककर्म में निपुण थी । 8
अन्य मनोरंजन
सभ्रान्त जनों के इन विशिष्ट मनोरंजनों के अतिरिक्त राजाओं एवं अन्य नागरिकों द्वारा पानोत्सव, द्यूत-क्रीड़ा, दोला-क्रीड़ा, जल-क्रीड़ा, भ्रमण, मृगया, इत्यादि से भी मनोरंजन करने का उल्लेख अनेकशः आया है, जिनका नीचं विस्तार से वर्णन किया जाता है ।
पानोत्सव
मधु-पान स्त्री एवं पुरुषों का अति प्रिय मनोरंजन था । विलासीजन अपने गृहोद्यान में अपनी प्रेयसियों के साथ मधु-पानोत्सव का आनन्द लेते थे । मेघवाहन द्वारा माणिक्य चषकों से अपनी प्रेमिकाओं को अनुनयपूर्वक कापिशायन
1. द्रविड़ादिषु पत्रच्छेद मेदेष्वन्येषु च विदग्धजन बिनोदयोग्येषु वस्तुविज्ञानेषु पृच्छ्नाम् । वही, पृ. 363
2.
वही, पृ. 363
3. कदाचिच्च बहुविकल्पेश्चित्रकर्म पुस्तपत्र च्छेदादिभिः शिल्पमेदंरापाद्यमानविस्मय: ....
वही, पृ. 394
— बाणभट् : हर्षचरित, पृ. 78
4. पुस्तकर्मणां पार्थिव विग्रहाः,
5. अग्रवाल वासुदेवशरण, हर्षचरित : एक सांस्कृतिक अध्ययन, पृ. 29
6. वही, कादम्बरी : एक सांस्कृतिक अध्ययन, पृ. 90
7. तिलकमंजरी, पृ. 394
8. वही, पृ. 363
9. गृहोपवनेषु वनितासखः विलासिमिरनुभूयमांनमधुपानोत्सवा - वही, पृ.
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नामक द्राक्षारसात्मक मद्यविशेष पिलाये जाने का वर्णन किया गया है । यक्षों द्वारा उपवनों के लतामण्डपों में पानकेलि किये जाने का उल्लेख आया है । 2 प्रमद-वन कृत्रिम नदी की तरंगों से सिंचित भीनी-भीनी बयार से शीतल सहकार वृक्षों की छाया में राजा मुरजों की ध्वनि का आनन्द लेते हुए अन्तःपुरिकाओं के साथ पुराने मद्य का पानोत्सव करते थे । 8 तिलकमंजरी ने उत्तरकुरू से लाये गये कल्पवृक्ष के फल के रस से तैयार किये गये मद्य से विद्याधर कुमारियों के साथ पानोत्सव मनाया | 2
द्यत-कीड़ा
द्यूतक्रीड़ा प्राचीन भारत का अत्यन्त लोकप्रिय खेल था, जिसमें राजा व प्रजा दोनों अनुरक्त थे । एक परिसंख्या अलंकार के प्रसंग में द्यूत-क्रीड़ा क बन्ध व्यध तथा मारण पारिभाषिक शब्दों का उल्लेख किया गया है । द्यूत-क्रीड़ा 15 में सारीयों का परस्पर बन्ध व्यघ तथा मारण होता था । सारी तथा अक्ष शब्दों का उल्लेख किया गया है । सारी का अर्थ खेलने की गोटी एवं अक्ष का अर्थ पासा खेलना था अर्थात् गलत पासा खेलने पर सारियों को या तो रोक दिया जाता जिसे बन्ध कहते थे, अथवा उनका प्रत्यावर्तन कर दिया जाता जिसे व्यघ कहते थे अथवा उन्हें मार दिया जाता ( मारण) अर्थात् पट्ट से बाहर निकाल दिया जाता था । द्यूत में पराजित होने पर दाव में रखी गयी वस्तु जिसे 'पणित' कहते थे, देनी पड़ती थी । जुए में हार जाने पर पणित दिये बिना कहां जाता है, यह कहकर चतुरवनिताओं द्वारा मेघवाहन को बलात् खींच लिया जाता था । युद्ध में सोने की ढाल का यम रूपी घूतकार के कौतुकपूर्ण चतुरंग के रूप में वर्णन किया गया है ।' स्त्रियों में भी द्यूत खेलने का प्रचलन था । सरोवर के तीर पर
1. तिलकमंजरी, पृ. 18
2. वही, पृ. 41
3. विधेहि कृत्रिमनदीत रंगमारुतावतारशीतलेषु प्रमदवन सहकारपादपतलेष्वनुत्ताल’''पुराणवारूणीपानोत्सवम् ।
- वही, पृ. 61
4. वही, पृ. 196
5. सारीणामक्षप्रसरदोषेण परस्परं बन्धव्यघमारणानि,
1:3
6. कदाचित्कीड़ाये तपराजितः पणितमंप्रयच्छन् 'गच्छसि' इति,
7.
वहीं, पृ. 15
- तिलकमंजरी पृ. 18
अन्तककितवकौतुकाष्टापदं प्रकोष्टविनिविष्टमष्टापदम् .........
— वही,
पृ. 84
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तिलकमंजरी, एक सांस्कृतिक अध्ययन
सीपियों से निकले मोतियों से द्य ूत-क्रीड़ा करने का उल्लेख किया गया हैं । 1 पुरुष एवं स्त्रियां भी परस्पर धत-क्रीड़ा से मनोरंजन करते थे । हरिवाहन ने तिलकमंजरी की सखी मृगांकलेखा के साथ अक्ष क्रीड़ा कर अपना मनोरंजन किया । 2 -क्रीड़ा के अन्यत्र भी उल्लेख आये हैं ।
बोला-क्रीड़ा
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वसन्त मास में रमणीक उद्यानों में वृक्षों पर दोला रचकर झूलने में नगर निवासी अत्यधिक आनन्द का अनुभव करते थे । स्फटिक दोलायन्त्र पर बैठकर विलासी युगल आनन्द प्राप्त करते थे । दोला क्रीड़ा का अनेकथा उल्लेख किया गया है ।
जल-क्रीड़ा
राजाओं की जल-क्रीड़ाओं के लिए राजभवनों में क्रीड़ा दीर्घिका, केलिवापियां. भवन दीर्घिकायें आदि निर्मित की जाती थी । इनमें राजा अन्तपुर की स्त्रियों के साथ जल-क्रीड़ा करते थे। मेघवाहन द्वारा अन्तःपुर की स्त्रियों के साथ जल-क्रीड़ा करने का वर्णन आया है, जिसमें वह उनकी जल में गिरी हुई अंगूठियों को खोज-खोज कर निकालने का खेल खेलना था तथा इस खेल के बहाने जल में डुबकी लगाकर वह उनके जघनाशु कों को खींच लेता था । दीर्घिकाओं में जल-क्रीड़ा के अतिरिक्त परस्पर पिचकारियों से कुंकुम युक्त जल छिड़क कर रंग खेलने का भी वर्णन किया गया है । अन्तःपुर की स्त्रियों द्वारा सिंचित मेघवाहन कनशृंग हाथ में लेकर उनके साथ जल क्रीड़ा करता था 17 वसन्तोत्सव पर वेश्याओं एवं विटों में परस्पर रंगभरी पिचकारियों से जल-सेक युद्ध हुआ करता
1.
अपरः सरस्तीरविघटितशुक्तिमुक्तं मुक्ताफलं धूं तक्रिया प्रावर्तयत्,
2. मृगांकलेखया सावन क्षक्रीड़ा विनोदेन क्षणमात्रणस्थात् ।
3. वही, पृ. 89, 219, 420
4. (क) अपरिस्फुटस्फटिक दोलासु
गनान्तरा.....
-वही, पृ. 3523
- वही, पृ. 370
बद्धासनविलासिमिथुनं खगाह्यमानग
- वही, पृ. 11 -वही, पृ. 12
(ब) दोलाक्रीडासु दिगन्तरयात्रा,
5, तिलकमंजरी, पृ, 8, 11, 12, 17, 18, 105, 204, 213, 296
6. वही, पृ. 18
7. वही, पृ. 17
8. वही, पृ. 108
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तिलकमंजरी का सांस्कृतिक अध्ययन
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था। जिनायतन में यात्रोत्सव पर भी मुर्जगजन वारविलासिनियों के साथ जलक्रीड़ा करते थे। भ्रमण
राजकुमार क्रीड़ार्थ नगर के बाह्योद्यान में जाते थे, जहां सभी प्रकार के पुष्प एवं फलों के वृक्ष लगाये जाते थे। उनमें सघन लता-मण्डप सजाये जाते थे तथा इन उद्यानों में क्रीड़ा-गिरि, कृत्रिमापगा, कमल-पुष्करिणी, जल-मण्डप आदि निर्मित किये जाते थे। मेघवाहन क्रीड़ागिरि पर राजी के साथ भ्रमण करता था। स्वेच्छापूर्वक विहार कर.राजा अत्यधिक आनन्द प्राप्त करते थे। लक्ष्मी मेघवाहन को सुहृज्जनों के साथ विमान में बैठकर सम्पूर्ण पृथ्वी का भ्रमण करने के लिए कहती है। राजकुमार मन बहलाव के लिए अपने राज्य का भ्रमण भी करते थे। राजकुमारियां भी अपनी सखियों के साथ स्वेच्छापूर्वक वन-विहार पर निकल जाती थी। जहां वे विभिन्न प्रकार के खेल खेलने लगती थी, यथा कोई दोला रचने में लग जाती, कोई वल्कल-छिद्र से कपूर निकाल कर शरीर पर छिड़क लेती थी, कोई कर्णकपूर बनाने के लिए लवंगपल्लवों का संग्रह करती कोई सरोवर के किनारे सीपियों से निकले मोतियों से छत खेलने लगती तथा अन्य कोई पुष्प-चयन में लग जाती। मृगया
राजकुमार अपने मित्रों के साथ घने जंगलों में हिंसक जन्तुओं का शिकार कर आनन्द प्राप्त करते थे ।' एण, अरण्यमहिष, सिंह, वराह, व्याघ्र, चमरादि इनके प्रमुख शिकार थे ।10
जहां वे जंगली जानवरों के शिकार से मनोरंजन करते, वहीं वे सुन्दर । हरिणों तथा अन्य पशु-पक्षियों के साथ विभिन्न प्रकार की किड़ाये करते हुए
1. वही, पृ, 158 2. तिलकमंजरी, पृ. 11, 17, 33,35,78, 180,390 3. वही, पृ. 17 4. वही, पृ. 42, 180 5. वही, पृ. 57 6. वही, पृ. 181 7. वही, पृ. 353 8. वही, पृ. 353 9. वही, पृ. 183 10. वही, पृ. 182-83
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आन्नदित होते थे । हरिवाहन एवं उसके साथियों द्वारा कामरूप के जंगलों में इसी प्रकार की क्रीड़ाओं का स्वाभाविक वर्णन किया गया है - वे राजपुत्र किन्ही शावकों के शरीरों पर कुंकुम के बड़े-बड़े थापे लगा देते, किन्हीं के सिरों पर पुष्पशेखर बांध देते, किन्हीं के कान में रंग-बिरगे चंवर लटका देते, किन्हीं के सींग से पटाशुंक की पताका बांध देते, किन्हीं के गले में सोने के धुंघरुओं की माला पहना देते तथा किन्हीं की पूछ में पत्तों के फूल बांध देते ।1 इस प्रकार प्रतिदिन वे राजपुत्र उनके साथ क्रीड़ाएं करते थे । इसी प्रकार पालतू पक्षियों से भी क्रीड़ा करने के उल्लेख आये हैं ।
इसके अतिरिक्त राजा सयं अनेक प्रकार के वदन-मण्डनादि से अन्तःपुर की स्त्रियों का मनोरंजन करते थे ।
वालिकाओं को कन्दुक-क्रीड़ा अत्यन्त प्रिय थी 4 बालिकाएं गुड़ियों का विवाह रचाकर खेल खेलती थी । वसन्तोत्सव पर कृत्रिम हाथीयों तथा घोड़ों के खेल जनता के मनोरंजन के लिए दिखाये जाते थे ।
___ इस प्रकार हमने देखा कि विदग्धजन जहां गोष्ठियों का आयोजन करके उनमें काव्य, आख्यान, आख्यायिका, दर्शन, निशास्त्र, नाटक, संगीत, चित्रकला आदि विविध विषयों पर परस्पर वाद-विवाद करके मस्तिष्क के व्यायाम के साथ मनोविनोद करते थे, वहीं छू त-क्रीड़ा, दोलायन्त्र भ्रमण, मृगयादि हल्के फुल्के साध ों से भी अपना मन बहलाया करते थे।
वस्त्र तथा वेशभषा मनुष्य के जीवन में वस्त्र तथा वेशभूषा का अत्यधिक महत्व है। सुरुचिपूर्ण वेशभूषा मनुष्य के व्यक्तित्व को आकर्षक बना देती है। प्राचीन युग में भी वस्त्र-धारण की कला को अत्यधिक महत्व दिया गया था, अत: संस्कृत में इसके लिए आकल्प वेश, नेपथ्य, प्रतिकर्म ओर प्रसाधन शब्द आये हैं । वात्स्यायन
1. तिलकमंजरी, पृ. 183 2. वही, पृ. 364 3. कदाचिद्वदनमण्डादिविडम्बनाप्रकाररूपहसन्चिदूषकानन्तःपुरिकाजनमहासयत्।
- वही, पृ. 18 4. पांचालिकाकन्दुकदुहितृकाविवाहगोचरामिः........शिशुक्रीडामिः,
-वही, पृ. 168 तथा पृ..365 5. वही, पृ. 168 6. कृत्रिमतुरंगवारणक्रीडाप्राधानेषु प्रेक्षणकेषु, --वही, . 323
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तिलकमंजरी का सांस्कृतिक अध्ययन
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ने अपने 'कामसूत्र' में 64 कलाओ की सूची में वस्त्र तथा वेशभूषा से सम्बन्धित तीन कलाओं की जानकारी दी है
(1) नेपथ्यप्रयोग-अपने को या दूसरे को वस्त्रालंकार आदि से सजाना (2) सूचीवान-कर्म-सीनापिरोनादि . (3) वस्त्रगोपन-छोटे कपड़ें को इस प्रकार पहनना कि वह बड़ा दिखे
और बड़ा छोटा दिखें। धनपाल ने तिलकमंजरी में अनेक प्रकार के वस्त्रों का उल्लेख किया है, जिससे तत्कालीन भारत के समृद्ध वस्त्रोउद्योग पर प्रकाश पड़ता है । तिलकमंजरी में न केलल भारतीय वस्त्र अपितु विदेशों से आयातित वस्त्रों का भी उल्लेख है । तिलकमंजरी से प्राप्त वस्त्र सम्बन्धी इस जानकारी को तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है(1) सामान्य वस्त्र-जैसे अंशुक, दुकूल, चीन, नेत्र, क्षोम, पट्ट,
अम्बरादि । (2) पहनने के वस्त्र -जैसे कचुक, उत्तरीय, कूर्पासक, तनुच्छद, चण्डा
तक, कोपीन, उष्णीष, परिधानादि । (3) अन्य गृहोपयोगी वस्त्र-जैसे कन्था, प्रावरण, आस्तरण, प्रेसेंविकाः
विस्तारिका, उहधान, वितानादि । तिककमंजरी में वस्त्र सामान्य के लिए कपंट, वसन, निवसन, वासस्, परिधान, सिचय, अम्बर, तथा चेल शब्द प्रयुक्त हुए हैं। कपड़ा बुनने को 'वान' कहा जाता था । तिलकमंजरी में सात प्रकार के वस्त्रों का उल्लेख किया गया है-अंशुक, दुकूल, · चीन, नेत्र, क्षोम, पट्ट, अम्बर । अमरकोश में वल्क, फाल, कोशेय तथा रांकव नामक वस्त्रों के चार भेद कहे गये हैं। जैन साहित्य में वस्त्रों की भनेक तालिकाएं आयी हैं, जिनका विस्तृत विवेचन डा० मोतीचन्द्र ने दिया है। आगे इन सभी प्रकार के वस्त्रों का विस्तार से विवेचन किया जाता है।
1. प्रावरणपटवानार्थमिः....
-तिलकमंजरी, पृ. 106 2. अमरकोश, 2/6/11 3. . मोतीचन्द्र, भारतीय वेशभूषा,पृ. 145-154...
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तिलकमंजरी एक सांस्कृतिक अध्ययन
सामान्य वस्त्र
अंशुक
तिलकमंजरी में अंकुश का उल्लेख चालीस से भी अधिक बार हुआ है। इससे पता चलता है कि धनपाल के समय में यह वस्त्र सर्वाधिक प्रचलित था । 4 वल्कलाशुंक, उत्तरीयाशुंक, स्तनाशंक, जघनाशुंक, पाशुंक, वर्णाशंक, दिव्याशुंक इत्यादि शब्द अंकुश वस्त्र के विभिन्न प्रकारों व प्रयोगों पर प्रकाश डालते हैं । अंकुश वस्त्र के उत्तरीय अत्यधिक प्रचलित थे। अदृष्टपारसरोवर में स्नान के पश्चात् समरकेतु ने अपने उत्तरीयाशुक को लपेटकर तकिये की तरह सिरहाने लगा लिया था। अन्यत्र वीर-बहूटी के समान रक्तःकांति के अंशुक वस्त्र के उत्तरीय का उल्लेख किया गया गया है । अंशुक वस्त्र के उत्तरीय से मुंह ढापकर तिलकमंजरी चिरकाल तक रोयी थी।
रक्ताशुंक का अनेक बार उल्लेख किया गया है। कामदेवोत्सव पर नगर में प्रत्येक प्रासाद पर लाल अंशुक की पताकाएं लगायी जाती थी। एक स्थान पर संध्याराग रूपी रक्ताशुंक का वर्णन है। समरकेतु की नाव पर बंधी हुयी रक्ताशुंक पताका को सिंहमकर आई मांस समझकर झपटने लगा। जलमण्डप कामदेवगृह में रक्ताशंक की पताकाएं बांधी गयी थी।
पट्टाशंक नामक विशेष प्रकार के अंशुक वस्त्र का उल्लेख किया गया है। आस्थानवेदिका के दन्तपट्ट पर पट्टाशंक की धुली हुयी चादर बिछायी
.2
1. जरी, पृ. 12, 18, 31, 33, 57, 69, 72, 106, 123, 132, ___152,-157, 160, 163 164, 145, 177, 165, 197, 207, 20 215, 229, 248, 257, 265, 267, 263, 277, 292,
302, 313, 303,337, 338, 356, 381, 417 2. शिरोभागनिहितपिण्डीकृतोतरीयाशुक.... -तिलकमंजरी, पृ. 207 3. इन्द्रगोपकास्णा तिमिरुत्तरीयाशंक....
-वही, पृ. 301 वही, पृ. 417 5. (क) लोहिताशंकवंजयन्तीमिः....
-वही, पृ. 12 (a) वही, पृ. 303 6. वही, पृ. 197 7. वही, पृ. 145 8. बिरलोपलक्ष्यमागरक्ताशुपताकस्य कुसुमायुधामना.... -वही, पृ. 163
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तिलकमंजरी, एक सांस्कृतिक अध्ययन
गयी थी । 1 दिव्यावदान में पट्टांशुक एक प्रकार के रेशमी वस्त्र के लिए आया है । डॉ. मोतीचन्द्र के विचार में यह सफेद और सादा रेशमी वस्त्र था | 2 गन्धक ने शुक्र के समान हरित वर्ण का पट्टाशुंक धारण किया था, जिसे स्वर्ण पट्टी से कसा गया था । गन्धर्वक के विमान में पट्टाशुंक की पताकाए लगायी गयी थी । 4 पट्टाशुंक वस्त्र के प्रावरण तथा वितान का भी उल्लेख है। 5 अंशुक वस्त्र को कल्पवृक्ष से उत्पन्न कहा गया है ।" तपस्विनी मलयसुन्दरी ने हंस के समान शुभ्र वल्कलाशुंक धारण किया था 17 दिव्याशुं क नामक उत्तम अंशुक वस्त्र का भी उल्लेख है । 8 इसी प्रकार वर्णाशुंक का उल्लेख किया गया हैं । समरकेतु की नाव पर ध्वज के अग्रभाग पर नये वर्णाशंक की पताका बांधी गयी थी ।'
1.
2.
3.
भारत में निर्मित इन अंशुक वस्त्रों के अतिरिक्त चीन से भी एक अंशुक वस्त्र मंगाया जाता था जिसे चीनांशुक कहते थे । तिलकमंजरी में चीनांशुक का अनेक बार उल्लेख हुआ है 110 दिव्यायतन में स्वणर्मय दोलायण्त्र के उर्ध्वभाग में चीनाशुंक की पताकाऐं बांधी गयी थी । 11 दिव्यायतन में चंचल चीनाशुंक पताका प्रतिबिम्ब को सर्प समझकर मयूरी उस पर आक्रमण कर रही थी । 12 मलय
अच्छावलधीत पट्टाशुं कपटाच्छादितम् .....
- वही, पृ. 69
मोतीचन्द्र, भारतीय वेशभूषा, पृ. 95 ज्वलदनेकपद्मराग तपनीयपट्टिकयागाढावनद्व शुकहरितपट्टांशुक निक्सन
- तिलकमंजरी, पृ. 165
- वही, पृ. 292 वही, पृ. 356
4.
5.
·
वही, पृ. 381
(क) अपनी तसर्वांगीणहपट्टाशुं कप्रावरणा.... (ख) वही, पृ. 337, 267
6. (क) कल्पपादपाशुंक प्रावार......
(ख) वही, पृ. 152
(ग) वही, पृ. 160
7. हंसधवलं दिव्यतरुवल्कलांशुक मन्तिकम्...
159
8. वही, पृ. 69, 213, 338
9. वही, पृ. 132
यन्त्राणि ....
. 2 वही, पृ.215
- वहीं, पृ. 257
10 वही, पृ० 106, 157,215,262,302
11 प्रत्यग्ररचितामिश्चीनाशुं कपताकाभिः पब्लवितशिखराणि चामीकरचक्रदोला
- तिलक मंजरी, पृ० 157
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तिलकमंजरी, का सांस्कृतिक अध्ययन
सुन्दरी के जन्मोत्सव पर काँची के निवासियों ने अपने घरों में चीनाशुंक की रंग बिरंगी पताकाएं फहरायी थीं। मलयसुन्दरी ने गुप्तरूप से अपने भवन से निकलते समय अपने शरीर को पैरों तक लटकते हुए चीनाशंक पट से आवृत कर लिया था। चीनाशंक के वितानों का भी उल्लेख आया है। - एक अन्य प्रसंग में अंशुक वस्त्र के परदे का उल्लेख किया गया है । बाण के अनुसार अशुक वस्त्र अत्यन्त झीना तथा स्वच्छ था । धनपाल द्वारा प्रयुक्त 'अमलाशुंक' शब्द भी इसी विशेषता की और संकेत करता है।
हर्षचरित में मुक्ताशुंक का वर्णन आया है- मुक्तमुक्ताशुंक- रत्नकुसुमकनकपपत्राभरणाम् (पृ०242)। डॉ. अग्रवाल के अनुसार असली मोती पोहकर बनाया गया वस्त्र राजघरानों में प्रयुक्त होता था। इसी प्रकार अत्यन्त झीने वस्त्र को भग्नाशुंक कहा गया है।
__आ दुकूल अशुंक के पश्चात् तिलकमंजरी में दुकूल वस्त्र का सर्वाधिक उल्लेख किया गया है। दुकूल वस्त्र को प्राय: जोड़े के रूप पहना जाता था। मेघवाहन ने व्रतावस्था में चांदी के समान घुले हुए श्वेत दुकूल का जोड़ा पहना था ।10 समरकेतु ने हरिवाहन के अन्वेषण के लिए जाते समय श्वेत दुकूल का जोड़ा पहना थादुकल का जोड़ा पहनने के अन्य प्रसंगो में भी उल्लेख है ।12 तारक ने शंख
1. वही, पृ० 263 2. आप्रपदीनपरिणाहेनाप्रतनुना चीनांशुकपटेन प्रच्छाद्य....
- तिलकमंजरी, पृ० 302 3. वही, पृ० 57, 106 4. विस्तारितरूचिरपरिवस्त्रांशुके....।
-वही, पृ. 171 5. सूक्ष्म विमलेन अंशुकेनाच्छादितशरीरा.... बाणभट्ट, हर्षचरित, पू०१ 6. तिलकमंजरी, पृ० 229 7. अग्रवाल, वासुदेवशरण, हर्षचरितः एक सांस्कृतिक अध्ययन, पृ० 200 8. वही पृ० 100 9. तिलकमंजरी, पृ० 24, 34, 54, 198, 203, 219, 115, 243, 125,
255,397 10. परिघाय तत्कालधोते कलधोते इवातिघलयतया विभाध्यमाने दुकूलवाससी,
• वही, पृ० 34 11. निवसितप्रत्यग्रसितदुकूलयुगल....
-वही, पृ. 198 12. वही, पृ० 115, 125, 243
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तिलकमंजरी का साहित्यक अध्ययन
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के समान शुभ्र तथा सूक्ष्म दुकूल वस्त्र का जोड़ा पहना था । लक्ष्मी ने श्वेत दुकूल का अधोवस्त्र धारण किया था, जो कमलनाल के सूत्रों से निर्मित सा जान पड़ता था । मलयसुन्दरी द्वारा दिव्यवृक्ष के वल्कल का दुकूल धारण किया गया था। बाणभट्ट ने भी दुकूलवल्कल का उल्लेख किया है। दुकूल वस्त्र की कल्पवृक्ष से उत्पति बतायी गई है। श्वेत दुकूल के वितानों का अनेक स्थानों पर उल्लेख है। अदृष्टपार सरोवर को सर्पराज का लीलादुकूलवितान कहा गया है।' श्वेत तथा स्वच्छ दुकूल की चादर का उल्लेख है। वाणभट्ट ने भी दकूल से बने उत्तरीय, साड़ियों, पलंग की चादरों, तकियों के गिलाफ आदि अनेक प्रकार के वस्त्रों का उल्लेख किया है। बाण के अनुसार दुकूल पुण्डदेश अर्थात बंगाल से बनकर आता था तथा इसके बड़े थान में से टुकड़े काटकर धोती या अन्य वस्त्र बनाये जाते थे। दोहरी चादर अथवा थान के रूप में विक्रयार्थ आने के कारण यह द्विकूल या दुकूल कहलाने लगा।10 . ....
कोटिल्य के अर्थशास्त्र से दुकूल के विषय में विशेष जानकारी मिलती है। इसके अनुसार बंगाल में बना हुवा दुकूल वस्त्र सफेद और मुलायम होता था । पौंड देश में निर्मित दुकूल वस्त्र नीले और चिकने होते थे तथा सुवर्णकुड्या में बने दुकूल ललाई लिये होते थे। दुकूल तीन तरीको से बुना जाता था-(1) मणिस्निग्धोदकवान (2) चतुरस्रकवान (3) व्यामिश्रवान । बुनावट के अनुसार दुकूल . के चार भेद होते थे-(1) एकाशुक (2) अध्यधांशुक (3) द्वयंशुक (4) यशुक ।
1. उल्लिखितशंखाबदातधुतिनी तनियसी नवे दुकूलवाससी वसानम्...............
वही पृ० 125 2. अच्छधवलं दिव्यदुकूलमम्बुजवनप्रीत्या पद्मिनीनालसूत्रेणेव कारितम् ....वही,
पृ.54
3. दिव्यतस्वत्कलदुकूलनिवसनाम्.............. .................. वही, पृ० 255 4. अग्रवाल वासुदेव शरण, हर्षचरितः एक सांस्कृतिक अध्ययन पृ. 78 5. स्वंयपतितकल्पद्रुमदुकूलवत्कल ........................... तिलकमंजरी, पृ० 24
वही, पृ० 203,219 7. लीलादुकूलवितानमिव फणीन्द्रस्य,
-वही, पृ. 203 8. सितस्वच्छमृदुकूलोत्तरच्छदम्,
-तिलकमंजरी, पृ. 70 9. अग्रवाल, वासुदेवशरण, हर्षचरितः एक सांस्कृतिक अध्ययन, पृ.78 . 10. वही, पृ. 78 11. कोटिल्य, अर्थशास्त्र 2/11
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तिलकमंजरी, एक सांस्कृतिक अध्ययन
- जैन ग्रन्थ निशीथ के अनुसार दुकूल वृक्ष की छाल को लेकर पानी के साथ तब तक गोखली में कूटा जाता था, जब तक उसके रेशे अलग नहीं होते थे। तत्पश्चात् वे रेशे कात लिये जाते थे। प्रारम्भ में इस प्रकार दुकूल वस्त्र का निर्माण होता था, कालान्तर में सभी महीन धुले वस्त्रों को दुकूल कहा जाने लगा।
" हंस दुकल'-हंस दुकूल गुप्त-युग के वस्त्र निर्माण कला का एक उत्कृष्ट उदाहरण था। जैन ग्रन्थ बाचारांग तथा नायाधम्मकहानो में इसके उल्लेख मिलते हैं । आचारांग (2, 15, 20) के अनुसार शक्र ने महावीर को जो हंस दुकूल का जोड़ा पहनाया था, वह इतना हलका था कि हवा का मामूली झटका उसे उड़ा ले जा सकता था। वह कलाबत्त के तार से मिला कर बना था। उसमें हंस के अलंकार थे । नायाघम्म (1.13) के अनुसार यह जोड़ा वर्ण स्पर्श से युक्त, स्फटिक के समान निर्मल और बहुत ही कोमल होता था। अंतगडदसाओ (32) में दहेज में दुकूल के जोड़े दिये जाने का उल्लेख है । कालिदास ने भी हंस चिहित दुकूल का उल्लेख किया है। बाण ने कादम्बरी में शूद्रक को गोरोचना से चित्रित हंस-मिथुन से युक्त दुकूल का जोड़ा पहने हुए वर्णित किया है। नेत्र
तिलकमंजरी में नेत्र वस्त्र का उल्लेख सात बार हुआ है । गन्धर्वक ने - पाटल पुष्प के समान पाटलवर्ण के झीने एवं स्वच्छ नेत्र वस्त्र का कूसिक पहना
था।' कढ़े हुए नेत्र वस्त्र के तकिये मेघवाहन के दोनों पार्श्व में रखे गये थे। मदिरावती के विशाल भवन में नेत्र का वितान खींचा गया था, जिसके किनारों पर मोतियों की माला लटक रही थी। युद्ध के प्रसंग में लाल रंग के नेत्र वस्त्र की पताकाओं का उल्लेख है।10 नेत्र वस्त्र से निर्मित कंचुक के अग्रपल्लव के हिलने से मलय
1 मोतीचन्द्र, प्राचीन भारतीय वेशभूषा, पृ. 147 2 मोतीचन्द्र, प्राचीन भारतीय वेशभूशा, पृ. 147-148 3 वही, पृ. 148 4 कालिदास, रघुवंश 17/25 5 बाणभट्ट, कादम्बरी, पृ. 17 6 तिलकमंजरी, पृ. 70, 71, 85, 164, 276, 279, 323 7 सूक्ष्मविमलेन पाटलाकुसुम पाटलकान्तिना---- नेत्रकूर्पासकेन, वही, पृ. 164 8 उभयपावविन्यस्तचित्रसूचित्रतनेत्रगण्डोपधानम्.... .... -वही, पृ. 70 9 उपरिविस्तारिततारनेत्रपटविताने,
-तिलककर्मजरी, पृ०71 10 अरूणनेत्रपताकापटपल्लवितरथनिरन्तरम् -वही, पृ०85
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सुन्दरी का नाभिदेश प्रकाशित हो रहा था । एक सन्दर्भ में नेत्र वस्त्र की विस्तारिका का उल्लेख है। तिलकमंजरी के टीकाकार विजयलावण्यसूरि ने 'नेत्र' का सही अर्थ न जानते हुए उसकी भ्रमित व्याख्या की है। नेत्रगण्डोपधान का अर्थ'नेत्रगण्डस्थलयोः उपघाने स्थापनाऽधारी यस्मिंस्तादृशम् किया है, जो सर्वथा अनुचित है। इसी प्रकार 'नेत्रफ्टवितान' में नेत्रपट शब्द में नेत्र वस्त्र का स्पष्ट उल्लेख होते हुए भी टीकाकार ने तारनेत्र:-'तारंविशालम् नेत्राकृतिर्यस्मिस्तादृशः पटवितान वस्त्ररूप उल्लोचो' यह असंगत अर्थ दिया है। नेत्र पतका के लिए टीकाकार ने 'नेत्रपताकानां नेत्रकारविशिष्टवस्त्रनिर्मित-ध्वजानाम् पटवस्त्रः पल्लविताः' इस प्रकार अर्थ किया है । इससे ज्ञात होता है कि टीकाकार को नेत्र वस्त्र के विषय में कोई ज्ञान नहीं था तथा उसने उसके स्वबुद्धिकल्पित भिन्न-भिन्न अर्थ कर दिये। इसी प्रकार नेत्रकूर्पासक में टीकाकार ने नेत्र तथा कूसिक दोनों का ही गलत अर्थ किया है ।--'घृतनेत्रकूसिकेन गृहीतनेत्रावरणेन' ।
संस्कृत साहित्य में नेत्र वस्त्र का उल्लेख अत्यन्त प्राचीन है। कालिदास ने सर्वप्रथम नेत्र शब्द का उल्लेख रेशमी वस्त्र के रूप में किया है। बाण के अनुसार नेत्र श्वेत रंग का वस्त्र था। किन्तु धनपाल के उल्लेखों से ज्ञात होता है कि नेत्र कई रंगों का होता था। बाण ने छापेदार नेत्र वस्त्रों का उल्लेख भी किया है । इसकी बुनावट में फूल पत्ती का काम बना रहता था। डॉ. मोतीचन्द्र के अनुसार नेत्र बंगाल में बनने वाला एक मजबूत रेशमी कपड़ा था, जो 14 वीं सदी तक बनता रहा । इसकी पाचूडी पहनी और बिछायी जाती थी। उद्योतनसूरि (779) के उल्लेख से ज्ञात होता है कि नेत्र चीन देश से भारत में आता था ।10 वर्णरत्नाकर में चौदह प्रकार के नेत्र वस्त्रों का उल्लेख है।
-
1. वही, पृ० 279 2. तिलकमंजरी, विजयलावण्यसूरि कृत पराग टीका, भाग 2, पृ. 171 3. वही, पृ० 174 4. तिलकमंजरी, पराग टीका, भाग 2, पृ० 200 5. वही, भाग 3, पृ. 5 6. नेत्रोंक्रमेणोपरूरोध सूर्यम्
--कालिदास, रघुवंशम् 7/39 7. धोतधवलनेनिर्मितेन निर्मोकलघुतरेण कंचुकेन, बाणभट्ट, हर्षचरित, पृ० 31 8. अग्रवाल वासुदेवशरण, हर्षचरित : एक सांस्कृतिक अध्ययन, पृ० 79. 9. मोतीचन्द्र, प्राचीन भारतीय वेशभूषा, पृ. 157 10. उद्योतनसूरि कुवलयमाला, पृ. 66
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तिलकमंजरी, एक सांस्कृतिक अध्ययन
चीन
चीन का अर्थ चीन देश में निर्मित रेशमी वस्त्र से है । तिलकमंजरी में चीनी वस्त्र का उल्लेख छः बार हुआ है। इसके अतिरिक्त प्रसिद्ध चीनांशुक का भी छः बार उल्लेख है, जिसका विवेचन अंशुक के अन्तर्गत किया जा चुका है। वृद्ध प्रतशिकों ने पैरों तक लटकने वाले चीन कंचुक धारण किये थे। चीनी वस्त्र के जोड़े का भी उल्लेख आया है। हरिवाहन ने अभिषेक के अनन्तर स्वच्छ श्वेत चीनी वस्त्र का जोड़ा पहना था ।
मलयसुन्दरी द्वारा शुकांग अर्थात् हरे रंग के चीनी वस्त्र का जोड़ा पहनने का उल्लेख है। उत्तम चीनी वस्त्र की थैली में गन्धर्वक तिलकमंजरी का चित्र लेकर आया था। समरकेतु तथा मलयसुन्दरी के प्रसंग में अन्यत्र भी चीनी वस्त्र का उल्लेख हुआ है। डॉ. मोतीचन्द्र के अनुसार भारत में ईसा से पूर्व ही चीन देश से रेशमी वस्त्र लाया जाने लगा था । कौटिल्य के अर्थशास्त्र में कौशेय तथा चीनपट्ट नामक दो प्रकार के रेशमी वस्त्रों का उल्लेख है । सोम
तिलकमंजरी में क्षौम वस्त्र का पांच बार उल्लेख हुआ है। उपनयन समूह के समय हरिवाहन ने विशुद्ध तथा महीन क्षौम वस्त्र का उत्तरासंग धारण किया था। समरकेतु ने हरिवाहन की कुशल वार्ता लाने वाले लेखहारक परितोष को
1: तिलकमंजरी, पृ. 153, 164, 229, 293, 311, 404 2. आप्रपदीनचीनकंचुकावच्छन्नवपुषा -वृद्धान्तर्वशिक समूहेन ।
-वही, पृ. 153 3. अतिविमलघनसूत्रेण संख्यानशास्त्रेणेव नवदशालंकृतेन श्वेतचीनवस्त्रद्वयेन संवीतम ।
-वही पृ. 229 4. केन परिवर्तिते....... .....शुकांगखचिनी ते चीननिवासी......
तिलकमंजरी, पृ. 293 5. प्रकृष्टचीनकर्पटप्रेसविकायाः........ वही पृ. 164 6. (क) तेनव चिरन्तनेन चीनवाससा........- वही पृ 311
(ख) दरमलिनजीर्णचीनवासमा....."--वही पृ. 404 7. मोतीचन्द्र-प्राचीन भारतीय वेशभूषा, पृ. 60 8. तिलकमंजरी, पृ. 79, 62, 125, 150, 195 9. अनुपहतसूक्ष्मक्षोमकल्पितोत्तरासंगम् .".""--वहीं, पृ. 19.
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तिलकमंजरी का साहित्यिक अध्ययन
2
अपना क्षौमयुगल भेंट में दे दिया था। मेघवाहन के विश्वस्त परिचारकों ने धुले हुए निर्मल क्षौमं वस्त्र धारण किये थे। नेत्रों की कांति को क्षौम वस्त्र के समान प्रांडु वर्ण का कहा गया है। एक उत्प्रेक्षा के प्रसंग में चन्द्रमा को पिण्डीकृत उत्तरीय क्षौम के समान कहा गया है । इससे ज्ञात होता कि क्षौम वस्त्र श्वेत रंग का होता था । क्षौम वस्त्र क्षुमा या अलसी नामक पौधे के रेशों से
बनता था ।
क्षौम का व्यवहार बहुत प्राचीन काल से चला आ रहा है । इसका सर्वप्रथम उल्लेख मंत्रायणी संहिता (3/6/7) और तैत्तिरीय संहिता ( 6/1/1/3) में आया है । कुसमी रंग के क्षौम परिधान का उल्लेख शांखायन आरण्यक में आया है ।" रामायण में अनेक स्थलों पर क्षौम के उल्लेख हैं । बौद्ध व जैन ग्रन्थों में भी क्षौम वस्त्र के उल्लेख मिलते हैं ।" काशी तथा पुंडू के क्षौम प्रसिद्ध थे । ? यह अत्यन्त कीमती व मुलाय मकपड़ा था अमरकोश में क्षौम व दुकूल को पर्याय माना गया है, किन्तु धनपाल के उल्लेखों से ज्ञात होता है कि क्षौम तथा दुकूल भिन्नभिन्न वस्त्र थे । बाण ने भी दुकूल व क्षौम को अलग-अलग माना है । बाण ने शुक की उपमा मंदाकिनी के श्वेत प्रवाह से और क्षौम की दुधिया रंग के क्षीरसागर से दी है 18
।
पट्ट
यह पाट संज्ञक रेशमी वस्त्र था । मलयसुन्दरी ने कामदेव मंदिर जाते समय रक्ताशोक पुष्प के समान पाटल वर्ण के पट्ट वस्त्र का जोड़ा पहना था । अनुयोगद्वारसूत्र के अनुसार पट्ट, मलय, प्रंसुग, चीनासुय तथा किमिराग से पांच प्रकार के कीटज वस्त्र कहे गये हैं, अर्थात् पट्ट वस्त्र रेशम के कीड़ों से उत्पन्न किया जाता
दत्वा च सक्षौमयुगलम्,
जलक्षालन विमलनिरायामाक्षौमधरिणा
165
1.
2.
3. लोचनयुगलस्य क्षौमपाण्डुलिभः
4.
उत्तरीयक्षौममिव पिण्डीकृतमिन्दुमण्डलम्, 5. मोतीचन्द्र, प्राचीन भारतीय वेशभूषा, पृ. 13
6. वही, पृ. 28
7. वही, पृ. 55
8.
76
अग्रवाल वासुदेवशरण, हर्षचरितः एक सांस्कृतिक अध्ययन, पृ. 9. रक्ताशोकपुष्पपाटलं परिधाय पट्टवासोयुगलम् .....
-- वही पृ. 195 -वही पृ. 62 -वही पृ. 125 — तिलकमंजरी,
........
पृ.
150
-- तिलक मंजरी, पृ. 300
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तिलकमंजरी, एक सांस्कृतिक अध्ययन
था। प्राचारांग की टीका में इसकी व्याख्या है पट्टसूत्र 'निष्पन्नानि' अर्थात् पट्टसूत्र से बने वस्त्र बृहदकल्पसूत्रभाष्य में भी इसका उल्लेख रेशमी कपड़ों के अन्तर्गत किया गया है। मम्बर
मेघवाहन के व्रत-काल में मदिरावती ने चन्द्रिका के समान शुभ्र अम्बर धारण किया था। अम्बर सूती वस्त्र को कहा जाता था । पहनने के वस्त्र
इन सामान्य वस्त्रों के वर्णन के अतिरिक्त धनपाल ने स्त्री एवं पुरुष दोनों की अनेक पोशाकों का उल्लेख किया है। नीचे इनका विस्तार से वर्णन किया जाता है। उत्तरीय
अमरकोश में उत्तरीय अथवा दुपट्टे के लिए पांच शब्द आये हैंप्रावार, उत्तरासंग, बृहतिका, संव्यान तथा उत्तरीय । तिलकमंजरी में उत्तरीय का उल्लेख तीस से भी अधिक बार हुआ है। उत्तरीय स्त्री एवं पुरुष दोनों की पोशाक थी । मदिरावती ने अपने उत्तरीय के पल्लू से सिंहासन की धूल साफकर विद्याधर मुनि को बिठाया । मेघवाहन ने उत्तरीयपल्लव से मुह ढककर लक्ष्मी की मूर्ति का सिंचन किया ।' विजयवेग अपने उत्तरीय में मेघवाहन के लिए उपहार छिपाकर लाया था। मेघवाहन ने चन्द्रातप हार को उत्तरीय के अंचल की छोर
1. अनुयोगद्वारसूत्र, 37, उद्धृत, अग्रवाल, हर्षचरित : एक सांस्कृतिक अध्ययन,
पृ. 79
2. मोतीचन्द्र, प्राचीन भारतीय वेशभूषा, पृ. 148 3. तिलकमंजरी, पृ. 71 4. अमरकोष, 3/3/181 5. तिलकमंजरी, पृ. 25, 34, 37, 45, 63, 81, 79, 107, 109, 131,
155, 173, 190, 192, 207, 229, 250, 259, 265,277, 301,
306,312, 314, 334, 342, 369, 378,417 । 6. मदिरावत्या निजोत्तरीयपल्लवेन प्रभष्टरजांसि हेमविष्टरे न्यवेशयत् ।
-तिलकमंजरी, पृ. 25 7. उत्तरीयपल्लवेन मुद्रितमुखः,
-वही, पृ. 34 8. उत्तरीयपटगोपायितोपायनेन'
-वही पृ. 81
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.. 167
पर बांध दिया । महोदधि नामक रत्नाध्यक्ष ने दाहिने हाथ से उत्तरीय के छोर से मुह ढापकर तथा बायें हाथ को जमीन पर रखकर राजा को प्रणाम किया। उत्तरीय के पल्लू के उड़ने से आकाश में जाता हुआ गन्धर्वक ऐसा मालूम पड़ता था मानों गरुड़ का शिशु हो । तिलकमंजरी ने पसीने से चिपटे हुए वस्त्र वाले नितम्ब को अपने उत्तरीय के अंचल से ढ़का था। एक स्थान पर उत्तरीय की गात्रिकाबन्ध ग्रन्थि का उल्लेख है। हर्षचरित में सावित्री के शरीर के ऊपरी भाग में महीन अंशुक की स्तनों के बीच बंधी गात्रिका प्रन्थि का उल्लेख है। उत्तरीय के लिए उत्तरासंग शब्द भी प्रयुक्त हुआ है । ज्वलनप्रभ ने अग्नि के समान शुद्ध सिचय वस्त्र का उत्तरासंग धारण किया था। क्षौम वस्त्र के उत्तरासंग का उल्लेख है। उत्तरीय के लिए संव्यान शब्द भी प्रयुक्त हुआ है । जलमण्डप में बैठी हुयी चार स्त्रियों ने बिसतन्तु से निर्मित संव्यान धारण किये थे। उत्तरीय को भी प्रावार भी कहते थे। गन्धर्वक ने मलयसुन्दरी को अपने प्रावार से ढक दिया था । 10 एक प्रसंग में उत्तरीयांचल से पंखा झलने का उल्लेख है।
यह एक प्रकार की कोटनुमा पौशाक थी जो स्त्री तथा पुरुष दोनों पहनते थे। मलयसुन्दरी ने त्रिवल्ली को ढकने वाला, हारीत पक्षी के समान हरे रंग का
1. वही, पृ. 45. 2. वही, पृ. 63 3. पवनवेल्लितोत्तरीयपल्लवप्रान्तपक्षतिः, -वही, पृ. 173
उत्तरीयांचलेन स्वेदनिबिडासक्तसूक्ष्म मृकुमाराम्बरं नितम्बम्" वही, पृ. 250 5. विधाय चिरमुत्तरीयेरण बन्धुरं गात्रिकाबन्धम् ..... तिलकमंजरी. पृ. 306 6. स्तनमध्यबद्धगात्रिका प्रन्थि
-बाणभट्ट : हर्षचरित, पृ. 10, हर्षचरित : एक सांस्कृतिक
अध्ययन, फलक 1 चित्र ३ 7. कपिशितग्निशौचसियोत्तरा संगम्............ तिलकमंजरी, पृष्ठ 37 8. वही, पृ. 79. १ वही, पृ. 107 10. (क) द्वौ प्रावारोसरासंगो समौ बृहतिका तथा संव्यानमुत्तरीयं च
-अमरकोश, 2/6/117 (ख) तिलकमंजरी, पृ. 380 11. वही, पृ. 155
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तिलकमंजरी, एक सांस्कृतिक अध्ययन
कंबुक पहना था, जिसके अग्रपल्लव के बार-बार उड़ने से उसका नाभिमंडल दिखायी दे जाता था । टीकाकार ने कचुक का अर्थ चोलक दिया है । वृद्ध अन्तवंशिकों ने पैरों तक लटकते हुए चीन कंचुक धारण किये थे। एक अन्य प्रसंग में हरिवाहन के साथी राजपुत्रों द्वारा कंचुक पहनने का उल्लेख है । .
. धनपाल ने कंचुक का चोली अर्थ में भी प्रयोग किया है। कंचुकावृत होने पर भी मलयसुन्दरी ने अपने वक्षःस्थल को पूर्ण रूप से आवृत करने के लिए अपने उत्तरीय से गात्रिकाबन्ध ग्रन्थि लगायी। प्रन्यत्र भी मलयसुन्दरी घृत नेत्र वस्त्र के कंचुक का उल्लेख किया गया है ।
सिक ... .
'तिलकमंजरी में कूसिक का एक बार ही उल्लेख है । गन्धर्वक ने पाटलपुष्प के समान पाटल वर्ण का झीना तथा स्वच्छ नेत्र वस्त्र से निर्मित कूर्पासक पहना था। कूसिक कमर से ऊंचा तथा आधी आस्तीन का कोटनुमा वस्त्र था, जिसे स्त्री तथा पुरुष दोनों पहनते थे। हर्षचरित में राजावों की वे भूषा के वर्णन में कूर्पासक का उल्लेख आया है।
तिलकमंजरी में वारबाण के लिए तनुच्छद शब्द का प्रयोग हुआ है । तनुच्छद का उल्लेख केवल एक बार ही पाया है। वारबाण भी कंचुक के समान ही पहनावा था, किन्तु यह कंचुक से भी लम्बा होता था । प्रायः यह युद्ध में पहना जाता था। यह विदेशी वेशभूषा थी जो सासानी ईरान से भारत में आयी थी। बाणभट्ट ने भी वारबाण का उल्लेख किया है।10
1. आच्छादितोदखलित्रयस्य हसितहारीतपक्षीहरिनिम्नः कंचुकारपल्लवस्य चंचलतया............
-वही, पृ. 160 2. आप्रपदीनचीन कंचुकावच्छन्नवपुषा........
-वही, पृ० 153 3. हढाकृष्टकंचुककशाधिककृशोदरश्रियः........ - वही, पृ० 232 4. निविशितमशिथिल कंचुकावृत्तस्य कुचमण्डलस्योपरिविधाय चिरमुत्तरीयेण ...
. -तिलकमंजरी, पृ० 306 5. चटुलनेत कंचुकाग्रपल्लव प्रकाशितनामिदेशायाः.... -वही, पृ० 279 6. सूक्ष्मविमलेन पाटलाकुसुम . ....नेत्रकूसकेन, -वही, पृ. 164 7. अग्रवाल, वासुदेवशरण; हर्षचरित : एक सांस्कृतिक अध्यय, पृ० 155 8. नानाकषायकर्बुरे : कूसिके : ........ बाणभट्ट, हर्षचरित, पृ0 206 .9 कश्चिदुल्लासिताभिनवतनुच्छदै : ........ तिलकमंजरी, पृ० 303 10. अग्रवाल, वासुदेवशरण; हर्षचरित : एक सांस्कृतिक अध्ययन, पृ. 153,54
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चण्डातक
यह जांघों तक पहुंचने वाला अधोवस्त्र था जिसे स्त्री तथा पुरुष दोनों पहनते थे । तिलकमंजरी में चण्डातक का एक बार ही उल्लेख हुआ है । तिलकमंजरी-प्रासाद के वर्णन में क्रीडाशैल की गुहा में निवास करने वाले शबरमिथुनों के कल्पवृक्ष की छाल से निर्मित चण्डातकों का उल्लेख है। कोपीन
एक मात्र कौपीन धारण करने वाले मछुओं का उल्लेख किया गया है । कौपीन एक प्रकार की छोटी चादर थी, जो प्रायः साधु लोग पहनने के काम में लेते थे। उष्णीव - यह पगड़ीनुमा शिरोवस्त्र था। गन्धर्वक ने पट्टाशुक वस्त्र का उष्णीष धारण किया था। हरिवाहन के साथ जाने वाले राजपुत्रों ने उष्णीष पट्टों के शिरोवेष्टन बांधे थे । वैताढ्यपर्वत को जम्बूद्वीप का उष्णीषपट्ट कहा गया है । परिधान __ परिधान नाभि से नीचे पहने जाने वाले अधोवस्त्र के लिए प्रयुक्त हुआ है ।' गृहोपयोगी वस्त्र
इन वस्त्रों के अतिरिक्त तिलकमंजरी में कन्या' प्रावरण, उत्तरच्छदपट, प्रसेविका, विस्तारिका, उपधान तथा वितानादि गृहोपयोगी वस्त्रों का भी उल्लेख है। कन्या
तिलकमंजरी में कन्या का दो बार उल्लेख किया गया है। गरीब लोग
1. मोतीचन्द्र-भारतीय वेशभूषा, पृ. 23 2. क्रीड़ाद्रिकन्दराशबरमिथुनानामखन्डानि कल्पतरुचीरचण्डातकानि,
तिलकमंजरी, पृ. 372 3. कौपीनमात्रकर्पटावरणेष्वतरूणलुण्ठिततिमिर...""जालिकेषु,
-वही प. 151 4. पट्टाशुकोष्णीषिणा.........
-वही पृ 165 5. उष्णीषपट्टकृतशिरोवेष्टना....... -वही पृ. 232 6. उष्णीषट्टमिव जम्बूद्वीपस्य, -वही पृ. 239 7. तिलकमंजरी, पृ. 36, 209, 265 8. वही, पृ. 3, 139
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तिलकमंजरी, एक सांस्कृतिक अध्ययन
ठंड से बचाव के लिए पुराने जीर्ण वस्त्रों को सिल कर गद्दा बना लेते थे, जिसे वे
ओढ़ने और बिछाने के काम में लेते थे। समरकेतु के शिविर-लोक के कोलाहल के प्रसंग में कन्था का उल्लेख किया गया है । सैनिक के हाथ से छूटकर कन्था समुद्र में गिर गयी तथा तिमिंगल मत्स्य द्वारा निगल ली गयी, अत: दूसरा सैनिक कहता है कि अब शीत ऋतु में ठंड से ठिठुरना। प्रावरण
शीत से बचाव के लिए ओढ़ने की चादर को प्रावरण कहा जाता था। प्रावरणका तीन बार उल्लेख है। उत्तरच्छवपट
उत्तरच्छदपट बिछाने की चादर के लिए प्रयुक्त हुआ है। इसके लिए मास्तरण तथा प्रच्छदपट शब्द भी प्रयुक्त हुए हैं । धुले हुए नेत्रवस्त्र की चादर समरकेतु के शयन पर बिछी थी मेघवाहन के विद्रुमपर्यक पर श्वेत दुकुल की चादर बिछायी गयी थी। प्रसेविका
थेली अथवा पोटली को प्रसेविका कहा जाता था। गन्धर्वक उत्तम चीनी वस्त्र की थैली में तिलकमंजरी का चित्र लाया था । उत्तम कपड़े की थैली में ताम्बूल के बीड़ों की टोकरी रखी गयी थी। विस्तारिका
विस्तारिका बड़ी गद्दी को कहते थे। नेत्र वस्त्र से निर्मित गद्दी का उल्लेख किया गया है।
1. सा स्थवीयसी कन्था मलितमात्रैव करतलाद्विलिता तिमिगिलेन गललग्न हस्तेन मर्तव्यमधुना हिमों शीतेन ।
-वही, पृ. 139 2. वही, पृ 106, 292, 337 3. तिलकमंजरी, पृ. 70, 177 4. वही, पृ. 75, 174, 276, 367 5. वही, पृ. 276 6. मृदुदुकूलोत्तरच्छदम्........... वही, पृ. 70 7. प्रकृष्टचीनकर्पटप्रसेविका............वही, पृ. 164 8. वही, पृ. 165 9. नेत्रविस्तारिकायामुपविष्ट........ . वही, पृ. 323
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वितान
तिलकमंजरी में वितान का अनेकधा उल्लेख आया है । मदिरावती के भवन में ऊपर की ओर नेतवस्त्र का वितान खींचा गया था, जिसके किनारों पर मोतियों की मालाएं लटक रही थी । 1 वितानक में लटकती हुई झूलों का उल्लेख किया है । 2 अन्यत्र श्वेत दुकूल वितान का उल्लेख है । 3 चीनाशुक के वितानों का जिनमें मोतियों की लड़ें टांकी गयी थी, उल्लेख किया गया है । अन्यत्व पट्टाशुकवितान का वर्णन भी किया गया है । कादम्बरी में शुद्रक के आस्थानमण्डप के दुकूल वितान के बीच मोतियों के झुग्गे लटकने का उल्लेख है ।"
उपधान
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तिलकमंजरी में गण्डोपवान तथा हंसतुलोपधान नामक विशेष प्रकार के तकियों का उल्लेख है । 7 गण्डोपधान सिर के नीचे एक तरफ रक्खी जाने वाले गोल तकिये को कहते थे । 8 समरकेतु के हस्तदन्तीमय शयन के दोनों भोर दो हंसतुलोपघान रखे गये थे । कढ़े हुए नेत्र वस्त्र से निर्मित गण्डोपधान मेघवाहन के दोनों पार्श्व में लगाये गये थे । 10 बृहत्कल्पसूत्रभाष्य में उपधान, तुलि, आलिगिका, गण्डोपधान तथा मसूरिका नाम के तकियों का वर्णन हैं । 11
आभूषण
तिलकमंजरी में शरीर के विभिन्न अंगों पर धारण किये जाने वाले सभी आभूषणों का वर्णन मिलता है, जो तत्कालीन अलंकारशास्त्र की दृष्टि से प्रत्यन्त महत्वपूर्ण है ।
शिरोभूषणों में मौलि, किरीट, चूड़ारत्न, मुकुट तथा सीमन्तक, कर्णाभूषणों
1. उपरिविस्तारिततारनेत्रपटविताने... अवचूलरत्नमालिकाइव.
2.
3. वही, पृ. 203, 219
4. वही, पृ. 57, 105
5. वही, पृ. 71, 267
- तिलकमंजरी, 71 पृ. वही, पृ. 159
6. स्थूलमुक्ताकलाप - कादम्बरी : एक सांस्कृतिक अध्ययन पृ. 28
7. तिलकमंजरी, पृ. 70, 276
8. मोतीचन्द्र, प्राचीन भारतीय वेषभूषा, पृ. 168
9. तिलकमंजरी, उमयतः स्थापितमृदुस्थूलहंसतुलोपधाने, पृ. 276 10. उभयापार्श्व विन्यस्तचित्र सूत्रित नेत्रमण्डोपधानम्....... तिलकमंजरी, पृ. 70 11. बृहत्कल्पसूत्रभाष्य, 4, 24, 38
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तिलकमंजरी, एक सांस्कृतिक अध्ययन
में कुण्डल, कर्णाभरण तथा कर्णपूर, गले के आभूषणों में हार, निष्क, एकावली, प्रालम्ब, मौक्तिककलाप एवं कण्डिका, भुजा के आभूषणों में अंगद तथा केयूर, कलाई के आभूषणों में कंकण, वलय और कटक, अंगुलियों के आभूषणों में उमिका और अंगुलीयक, कटि के आभूषणों में कांची, मेखला, रसना, एवं सारसन तथा पैरों के आभूषणों में नूपुर, हंसक, मंजीर तथा चरणोमिका के नाम आए हैं। इस प्रकार कुल सत्ताइस प्रकार के आभूषणों का वर्णन तिलकमंजरी में मिलता है । शिरोभूषण
__ सिर के अलंकारों में मौलि, किरीट, चूड़ारत्न, मुकुट तथा सीमन्तक का उल्लेख है। मौलि
समस्त द्वीपों के राजाओं की मौलिमाला का उल्लेख किया गया है। अन्यत्र भी मौलि का उल्लेख है। एक स्थान पर मौलि मुकुट का उल्लेख किया गया है। दिव्यातन को मृत्युलोक रूपी नरेन्द्र का मौलिमुकुट कहा गया है। किरीट
एक प्रसंग में स्वर्ण-निर्मित किरीट, जिसमें मणियों का जड़ाव किया गया था, का उल्लेख है।
चूहारत्न
ज्वलनप्रभ ने चूड़ारत्न धारण किया था, जो शिरोमाला के मधुकरों के प्रतिबिम्ब से चितकबरे रंग का जान पड़ता था। अन्यत्र चूडामणि शब्द भी प्रयुक्त हुआ है।
महादण्डनायकों ने मणियों के मुकुट धारण किये थे। युद्ध में आग में
1. खल्वशेषद्वीपावनीकालमौलिमाला......-तिलकमंजरी, पृ. 194 2. वही, पृ. 267, 279, 249 3. मौलिमुकुटमिव मर्त्यलोकभूपालस्य, -तिलकमंजरी, पृ. 216 4. उन्मयूखमाणिक्यखण्डखचितकांचनकिरीटभास्वरशिरोभिः... वही, पृ. 225 5. चूड़ारत्नेन....... कलितोत्तमांगम्,
-वही, पृ. :7 6. वही, पृ. 81, 216 7. वही' पृ. 70
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तिलकमंजरी का साहित्यिक अध्ययन
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तपाये गये नाराओं के तीव्रता से लगने पर नृपतियों के स्वर्णमुकुट विलीन हो जाते थे। मुकुट का अन्यत्र भी उल्लेख है।
(५) स्त्रियों के सीमन्तक नामक शिरोभूषण का उल्लेख पाया है। तीवता से उतरने के कारण बिखरे हुए सीमन्तकाभूषण के माणिक्यों के सीढ़ियों पर लुढ़कने की मधुर ध्वनि उत्पन्न हो रही थी। कर्मामूषण ___ कर्णाभूषणों में कुण्डल, कर्णाभरण, कर्णपूर का उल्लेख है । कुण्डल
- कुण्डल का चार बार उल्लेख किया गया है । हरिवाहन ने चन्द्रकांतमणि निर्मित कुण्डल कानों में पहने थे, जो नीति का उपदेश देने के लिए आये हुए बृहस्पति तथा शुक्र के समान जान पड़ते थे ।। मेघवाहन ने बायें कान में इन्द्रनीलमणि का कुण्डल पहना था । . कर्णाभरण
कर्णाभरण का पांच प्रसंगों में उल्लेख है।' तारक ने पदमरागमणि का कर्णाभरण पहना था । गन्धर्वक ने इन्द्रनीलमणि युक्त कर्णाभरण धारण किये थे। शुकचंचु के आकार के पद्मरागमणि से अंकुरित कर्णाभरण का उल्लेख मिलता है ।10 एक मरिण मात्र से निर्मित कर्णाभरण का उल्लेख है।11
1. वेलग्नाग्नितप्तनाराचविलियमाननृपतिकांचतमुकुटानि........-वही, पृ. 83 2. वही, पृ. 74, 218 3. तारतरोच्चारेण गतिरमसविच्युतानामासाद्यासाद्य सोपानमरिणफलकमाबद्धफलानां सीमन्तकालंकारमाणिक्यानां.............
-तिलकमंजरी, पृ. 158 4. वही, पृ. 53,90, 229,311 5. नयमार्गमुपदेष्टुममरगुरुभार्गवाभ्यामिवोपगताभ्यामिन्दुमणिकुण्डलाभ्यामाश्रितोभयश्रवणम्,
-तिलकमंजरी, पृ. 229 6. वामेनदोलायमानविततेन्द्रनीलकुण्डलेन........-वही, पृ. 53 7. वही, पृ. 48, 125, 164,311,403 8. आसक्तकर्णाभरणपद्मरागरागाम् ... .... -वही, पृ. 125 9. इन्द्रनीलकर्णाभरणयों:........
-वही, पृ. 164 10. शुकचंच्वाकारकर्णाभरणपद्मरागरत्नांकुरेण........-वही, पृ: 311 11. एकैकमणिपवित्रिकामात्र कर्णाभरणं........ -वही, पृ. 403
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तिलकमंजरी, एक सांस्कृतिक अध्ययन
3. करणपूर
कर्णपूर का उल्लेख केवल एक बार हुआ है। समरकेतु ने मोतियों का कर्णपूर पहना था । 1
गले के आभूषण
गले के आभूषणों में हार निष्क, एकावली, प्रालम्ब, मुक्ताकलाप तथा कण्ठिका के उल्लेख हैं ।
हार
2
तिलकमंजरी में हार का उल्लेख अनेकों बार आया है " यह समस्त अलंकारों में प्रधान है । 3 ज्वलनप्रभ ने जवाकुसुम की कांति को हरने वाला, नायकमणि युक्त मुक्ताहार पहना था । गन्धर्वक के हार की छवि ऐसी जान पड़ती थी मानो वक्षःस्थल पर सूखे चन्दन का लेप किया गया हो। तिलकमंजरी शिव के अट्टहास के समान श्वेत हार धारण किया था । वैताच्य पर्वत को उत्तर दिशा का हार कहा गया है मलयसुन्दरी ने नाभिमण्डल को स्पर्श करने वाला हार पहना था 18 बन्धुसुन्दरी द्वारा हाथ फैला-फैला कर वक्षःस्थल को पीटने से उसके मुक्ताहार के मोती टूट-टूट कर गिरने लगे । एक प्रसंग में विशुद्ध मोतियों के हार का उल्लेख है । 10
froक
यह स्वर्ण का आभूषण था, जिसे स्त्री तथा पुरुष दोनों ही गले में
1. कर्णपूरमोक्तिकस्तबकेन
— तिलकमंजरी, पृ. 100
2. at, q. 22, 37, 43, 45, 54, 63, 100, 158, 160, 165, 233, 239, 247, 309, 396, 330, 404, 410, 411
3. वही, पृ. 22
4.
वही, पृ. 37
5. शुष्क चन्दनांगरागसंदेह " हारच्छविपटलेन छुरितोरः कपाटम्, - वही पृ. 165
6. हासमिव हारं हारमुरसा
7. हारमिव वैश्रवणहरित:
8. नाभिचक्रचुम्बिनो हारनायकस्य" 9. वही पृ. 309
10. नरलायमानतारहा रच्छटा छोटितवक्षःस्थलं :--
.
वही पृ. 247
-बही पृ. 239 वही पृ. 160
-वही पृ. 233
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तिलकमंजरी का साहित्यिक अध्ययन
पहनते थे । 1 द्वयाश्रयकाव्य में बच्चे द्वारा भी निष्काभूषण के पहनने का उल्लेख है ।
एकावली
तिलकमंजरी में एकावली का दो बार उल्लेख हुआ है । मोतियों की एक लड़ी माला को एकावली कहते थे । समरकेतु ने नौ-युद्ध में जाते समय नाभिपर्यंत लटकती हुई बड़े-बड़े मोतियों की एकावली पहनी थी। मेघवाहन द्वारा एकावली धारण करने का उल्लेख है । 4
कण्ठिका
कण्ठिका का एक बार उल्लेख आया है । दिव्यायतन में उत्कीर्ण प्रशस्ति की वर्णपंक्ति सरस्वती के कण्ठ की मणिकण्ठिका सी जान पड़ती थी 15
प्रालम्ब
हरिवाहन घृत नाभिपर्यन्त लटकने वाले मुक्ताप्रालम्ब का उल्लेख किया गया है 16 अटवी में शबरी स्त्रियां हाथियों के मस्तकमणियों से शबलित गुंजाफल के प्रालम्ब गूंथ रही थी । तिलकमंजरी नाभिपर्यन्त लटकते हुए मणिप्रालम्बों को चेटी के गले से निकालकर शालभंजिकानों के कण्ठ में बांध रही थी । हर्षचरित में पद्मराग तथा मरकत मणि से गूंथी गई प्रालम्बमाला का उल्लेख है ।
6
मुक्ताकलाप
मुक्ताकलाप का दो बार उल्लेख किया गया है ।
1. स्थूलस्वच्छ मुक्ताफलग्रथितानाभिचक्रचुम्बिनीमेकवालीं दधानो
115
2
हेमचन्द्र, द्वयाश्रयकाव्यम् 8 / 10
3. सरस्वतीकण्ठ मणिकण्ठिकानुकारिणी मिर्वर्ण
4. कनकनिष्का वृत्तकन्धरं वणिजमपि
5.
6. आनाभिलम्बं मौक्तिकप्रालम्बम्
7. तिलकमंजरी, पृ. 200
8.
-तिलकमंजरी,
बघ्नती घनस्तनद्वन्द्वशालिनीनां"
पु.
175
वही, पृ. 219
वही पृ. 114
वही, पृ. 53 -वही पृ. 229
'चेटीकण्ठतो हठादानामिलम्बान्मणि-वही पृ. 364
प्रालम्बान्,
9. अनाभिलम्बं कम्बुपरिमण्डलेन कण्ठनालेन मुक्ताकलापं कलयन्तीम्,
वही पृ. 54 तथा 79
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तिलकमंजरी, एक सांस्कृतिक अध्ययन
मुना के मामूषण
भुजा के आभूषणों में केयूर तथा अंगद के नाम आये हैं । अंगद
लक्ष्मी ने नीलमणिमय अंगद धारण किया था ।।
केयूर
केयूर का चार बार उल्लेख है। ज्वलनप्रभ ने पद्मराग जड़ित केयूर पहना था । समरकेतु द्वारा भी पद्मरागखचित केयूर धारण किये जाने का उल्लेख
कलाई के आभूषण
कलाई के आभूषणों में कंकण, वलय तथा कटक का उल्लेख है। गन्वर्धक ने दोनों हाथों में स्वर्ण के वलय पहने थे । मलयसुन्दरी ने हीरों से जड़ित स्वर्णकंकण पहने थे । अन्यत्र भी मणिवलय, रत्नवलय, कांचनवलय का उल्लेख पाया है। द्वीपान्तरों के निषादधियों ने काले लोहे के वलय धारण किये थे । कटक का अन्यत्र भी उल्लेख है।1 रत्नकटक तथा स्वर्ण-कटक का भी उल्लेख है। अंगुलियों के मामूषण
तिलकमंजरी में अंगूठी के लिए अंगुलीयक तथा उमिका ये दो शब्द आए हैं ।
1. स्फुरत्तारनीलांगवम्,
-वही पृ. 55 2. वही, पृ. 37, 101, 311, 404, 3. वही, पृ. 37 4. अतिबहलकेयूरपद्मरागांशु "। -वही पृ. 101 5. प्रकोष्ठहारकवलयवाचालस्य........ -तिलकमंजरी, पृ. 165 6. अविरलप्रत्युप्तवज्रोपलगणःकनककंकणेः....... -वही, पृ. 160 7. वही, पृ. 17, 330 8. वही, पृ. 54, 307 9. वही, पृ. 80, 356 10. काललाहकटकान्यपि ........ -वही, पृ. 134 11. वही, पृ. 311, 404 12. विस्फुरद्रलकटककान्तं बाहुमिव क्षीरोदस्य दीर्घबाहुना सुवर्णकटकोद्भासितेन
-वही, पृ. 276
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तिलकमंजरी का साहित्यिक अध्ययन
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उमिका
तिलकमंत्ररी ने मरकतमणि की उर्मिका धारण की थी। एक अन्य स्थान पर रत्नोमिका का उल्लेख है । अंगुलीयक
गन्धर्वक ने नीले, पीले तथा पाटल वर्ण के रत्नों से खचित अंगुलीयक धारण की थी। मलयसुन्दरी ने पद्मराग जड़ित मंगूठी पहनी थी। बालारुण नामक दिव्य रत्नांगुलीयक का वर्णन किया गया है। अन्यत्र भी अंगुलीयक का वर्णन है। कटि के मामूषण
कटि के आभूषणों में कांची, मेखला, रसना तथा सारसन का उल्लेख है । ये शब्द समानार्थक रूप में प्रयुक्त हुए हैं, यद्यपि इनमें परस्पर भेद था, किन्तु यहां इनका भेद ज्ञात नहीं होता। ऐसा जान पड़ता है कि मेखला डोरी युक्त होती थी, क्योंकि मेखला गुण शब्द का उल्लेख पाया है ।' ज्वलनप्रभ ने पद्मराग तथा इन्द्रनील मणियों से खचित मेखला धारण की थी। पृथ्वी को सात समुद्रों वाली रशना से युक्त कहा गया है । रशना के लिए रसना तथा रशना दोनों शब्दों का प्रयोग किया गया है ।10 मलयसुन्दरी के जन्मोत्सव पर नृत्य करती हुई गणिकाओं की कांचियां, मद से विचलित पादक्षेप के कारण क्षुभित हो रही थी।1 तिलकमंजरी ने मरकत, इन्द्रनील तथा कुरूविन्द मणियों से जड़ित कांची
1. वही, पृ. 247 2. वही, पृ. 356 3. वही. पृ. 166 4. वही, पृ. 160 5. तिलकमंजरी, पृ. 61 6. वही, पृ. 18, 63, 164, 404 7. (क) विततमेखलागुणपिनद्धमच्छघवलम् ........ -वही, पृ. 54 8. (ख) मेखलागुणस्खलनविशृखलेन........ -वही, पृ. 158 4. पद्मरागेन्द्रनीलखण्डखचितस्य मेखलादाम्नः....-- वही, पृ. 36 9. सप्ताम्बुराशिरशनाकलापां काश्यपीम्........... -वही, पृ. 16 10. वही, पृ. 5, 16 11. वही, पृ. 263
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धारण की थी। सारसन का दो बार उल्लेख है। तीव्रता से नृत्य करती हुई मलयसुन्दरी की सारसन में से एक पद्मरागमणि उछलकर गिर गया था।' पैर के आभूषण
पैरों के आभूषणों में नूपुर, मंजीर तथा हंसक का उल्लेख है । नूपुर
नूपुरों की ध्वनि से प्राकृष्ट होकर मलयसुन्दरी का अनुसरण करने वाले विलास-दीपिका हंसों का उल्लेख आया है । वेताल के पहने हुए अस्थि नूपुरों का उल्लेख आया है। समरकेतु ने दिव्यायतन के समीप नूपुरों की मधुर झंकार सुनी थी। मणिनूपुरों का उल्लेख है। नूपुर का अन्यत्र भी उल्लेख है। मंजीर
पैरों के दूसरे बाभूषण मंजीर का एक बार उल्लेख है । यह तीव्रता से चलने पर बजता था।
हंसक
___हंसक का भी एक बार ही उल्लेख हुआ है ।10 चरणोमिका - परों की अंगुली में पहनने की अंगुठी, जिसे चरणोमिका कहते थे का भी उल्लेख पाया है। मदिरावती ने रत्नखचित चरणोमिका पहनी थी।1
1. अविरलविभाव्यमानमरकतेन्द्रनीलकुरूविन्दशकलया........कांचिलतया वलयितविशालश्रोणि पुलिनम्........
-वही, पृ. 246 2. वही, पृ. 288, 371 3. नृत्यन्त्यास्तवातिरभसेन सारसनमध्यसमा समुच्छलित एष पद्मरागः ।
-वही, पृ. 288 4. तिलकमंजरी, पृ. 301 5. वही पृ. 46 6. वही पृ. 158 7. वही पृ. 160, 302 8. वही पृ. 76, 206, 341 9. हेलोत्तालचलनरणन्मुखरमंजीरया...........
-वही पृ. 283 10. विलासिनीगमनमिव कलहंसकालापकृतक्षोभम्,
-वही, पृ. 204 11. वही, पृ. 32
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प्रसाधन प्रसाधन की प्रवृति मनुष्य में स्वभावजन्य है। सृष्टि के प्रारम्भ से ही अविकसित मानव में भी यह पायी गई है। जिनका सारा जीवन शिकार में ही व्यतीत हो जाता था, ऐसी जंगली जातियां भी शिकार में प्राप्त वस्तुओं से अपने शरीर को अलंकृत करती थीं। जंगल में निवास करने वाली कन्याएं भी वन में प्राप्त होने वाली वनलताओं और पल्लवों से अपना शुगार करती थी। शकुन्तला ने वृक्ष का वल्कल पहिने ही सम्राट दुष्यन्त के चित्त को प्राकृष्ट कर लिया था ।
प्राकृतिक रूचि के कारण मनुष्य का प्रसाधन सर्वप्रथम मनःसिला, सिन्दूर हरताल, अंजनादि प्राकृतिक वस्तुतों से प्रारम्भ में हुमा । जैसे-जैसे मनुष्य की रूचि परिष्कृत होती गई, वैसे-वैसे ही प्रसाधन के नवीन साधन विकसित हए तथा उसमें कलात्मकता तथा सुरूचि का समावेश हुआ तथा प्रसाधन एक कला बन गयी । इस कला में दक्ष स्त्री को सैरन्ध्री कहा जाता था। महाभारत में अज्ञातवास के समय द्रोपदी ने विराट भवन में सैरन्ध्री का ही कार्य किया था। कादम्बरी में पत्रलेखा तथा तिलकमंजरी में चित्रलेखा आदि स्त्रियां इसी प्रसाधन कार्य तथा अन्य शृगार कार्य के लिये पात्र रूप में वर्णित हैं । विचिनवीर्य द्वारा चित्रलेखा के प्रसा. घन कर्म की इस प्रकार से प्रशंसा की गयी है-'तुम्हारे द्वारा प्रसन्न होकर निपुणता से शृंगार करने पर वृद्धा स्त्रियां भी नवयुवती के समान दिखाई देने लगती हैं, साधारण रूप से युक्त स्त्रियां भी अन्तपुर की स्त्रियों के रूप को तिरस्कृत कर देती हैं तथा कुरूप स्त्रियां भी अप्सरा की तरह रूपवती हो जाती हैं। .. मल्लिनाथ ने मेघदूत की टीका में पांच प्रकार के प्रसाधन या शृंगार बताये हैं-(1) कचधार्य-वेणी या केश रचना (2) देहधार्य शरीर का शृगार
1. विद्यालंकार,अत्रिदेव. प्रचीन भारत के प्रसाधन, पृ. 19 2. वही, पृ. 20-21 3. सैरन्ध्री शिल्पकारिका, अमरकोश 2/6/18 4. महाभारत, विराट पर्व, 3/18/19 5. प्रसादपरया त्वया रचितचतुरप्रसाधनाः परिणतवयसोऽपिसद्यस्तरुणतां प्रतिपद्यन्ते............ कुरूपा अप्यप्सरायन्ते स्त्रियः ।
-तिलकमंजरी, पृ. 268 6. कचधार्य देहधार्य परिधेयं विलेपनम् ।
चतुधा भूषणं प्राहुः स्त्रीणामन्यच्च देशिकम् ॥ -मेघदूत, मल्लिनाथ टीका
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(3) परिधेय ओढ़ना या पहिनना-वस्त्रों की सजावट (4) विलेपन अनेक प्रकार के अंगराग, उबटन, तेल, इत्र आदि शरीर की सुन्दरता को बढ़ाने के लिए लगाना। इनके अतिरिक्त देश की भिन्नता या रुचि के अनुसार भी शृंगार कला प्रचलित थी' इसे दैशिक कहते थे। - अब हम तिलकमंजरी के संदर्भ में तत्कालीन प्रसाधन सामग्री, केशविन्यास तथा पुष्प-प्रसाधन का विवेचन करेंगे। प्रसाधन सामग्री
तिलकमंजरी में निम्नलिखित प्रसाधन सामग्री का उल्लेख प्राप्त होता है ।
(1) अगुरू (16), कालागुरू (8) असितागुरू (9) कृष्णागुरू (34)। कालागुरू से तिलक लगाने का उल्लेख किया गया है । इसका प्रयोग पालेपन में सुगन्ध लाने के लिए होता है । घूम के रूप में इसका व्यवहार दुर्गन्ध और जन्तु. नाशक गुण के लिए किया जाता है । मृगमर
कस्तुरी के अंगराग का उल्लेख किया गया है। गोशीर्षचन्दन
इसके अंगराग मलने का उल्लेख किया गया है ।
.. चन्दन के अंगराग का अनेकों बार उल्लेख आया है 12, 34, 36 56, 66,79, 115, 180। कपूर से सुरभित चन्दन रस के अंगराग का उल्लेख है 105। कपूर तथा कस्तूरी मिश्रित चन्दन का, भोजन के पश्चात् उबटन किया जाता था 69। हरिचन्दन 152, 257
कपूर व अगुरू को तुलसीकाष्ठ के साथ घिसकर हरिचन्दन बनाया जाता था । ईसके अंगराग का उल्लेख है ।
इसका समस्त शरीर पर उद्वर्तन किया जाता था 178। कुंकुम के
1. उत्कलिनकालागरुतिलकशोभम्.... .....
- 2. प्रत्यग्रमृगमदांगरागमलिनवपुषो........
कदाचिद्धौतमृगमदांगरागमनुरागजं........ 3. वही, पृ. 37, 217
-तिलकमंजरी पृ. 161 -तिलकम
-वही, पृ. 17 -वही, पृ. 18
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अंगराग का उल्लेख है 313 कुंकुम द्रव से पैरों की सजावट भी की जाती थी । नवीन कुंकुम द्रव से रंगे हुए चरण कमलों के चिन्हों से कांची नगरी की सोधा भूमियों पर पंकज के उपहार व्यर्थ हो जाते थे 261 |
7
हरिद्रा
द्रविड देश की स्त्रियां सायंकालीन स्नान के पश्चात हल्दी का लेप करती थी (261) ।
सिन्दूर
मांग में सिंदूर भरने का उल्लेख किया गया है । कुसुमशेखर अपने शत्रुओं की स्त्रियों की मांग के सिन्दूर के लिए समीर के समान था 262 । अन्जन 10, 24, 213, कज्जल 27, 36, 46, 48, 54
पटवास 73
पिष्टातक 76
अलक्तक
181
अलक्तक का होठों पर लगाना वर्णित किया गया है ओष्ठमुद्रालक्तक, g. 153 1
यावक
आवक अर्थात् अलक्तक का होठों तथा पैरों में सजाने का उल्लेख प्राता है 157, 2011
केश विन्यास
तिलकमंजरी में केशविन्यास सम्बन्धी प्रचुर सामग्री प्राप्त होती है । तिलकमंजरी में केशों के लिए अलक, कुन्तल, केश, कच, जटा, चिहुरचय, शिरसिजकलाप शब्द आये हैं । केशों को धोकर धूप से सुगन्धित कर सुखा लिया जाता था तथा तदनन्तर पुष्पों एवं पत्तों प्रादि के द्वारा कलात्मक ढंग से सजाया जाता । तिलकमंजरी में केश के संवारने के छ; प्रकारों का उल्लेख है
अलक, केशपाश, कुन्तलकलाप, कबरी, वलि, मौलिबन्ध प्रादि ।
अलक
अलक चूर्ण के द्वारा घुंघराले बनाये गये बालों को कहते थे । तिलकमंजरी
1. अलकाश्चचूर्णकुन्तल:
- अमरकोष, 2/6/96
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तिलकमंजरी, एक सांस्कृतिक अध्ययन
में इस विन्यास के लिए अलकपद्धति, अलकवल्लरी, अलकलतादि शब्दों का प्रयोग हुआ है । तिलकमंजरी के कपोलस्थल की पत्रांगुलि रचना ऐसी जान पड़ती थी मानों अलकपाल का स्वच्छ गण्डस्थलों पर प्रतिबिम्ब पड़ रहा हो । कुत्रित अलकों का उल्लेख किया गया है । गन्धर्वदत्ता के ललाट पर स्थित सूक्ष्म अलकवल्लरी की पंक्ति शत्रुबन्दियों के व्यजन-वायु से नृत्य करती थी। केशपाश
तिलकमंजरी में केशपाश का छ: बार उल्लेख हुआ है। केशपाश बालों के उस विन्यास को कहते थे, जिसमें बालों को इकट्ठा कर पुष्प पत्रादि से सजाकर बांध दिया जाता था । लक्ष्मी बायें हाथ से अपने केशपाश को बार-बार पीछे की ओर बांधने की कोशिश कर रही थी। चित्र में तिलकमंजरी के बाल केशपाश विधि से संवारे गये थे। ऋषभ की प्रतिमा के केशपाश को कृष्णागरु के द्रव से लिखित पत्रभंग अलंकरण के समान कहा गया है।10 मालती पुष्पों की माला से ग्रथित केशपाश का उल्लेख किया गया है, जो ऐसा जान पड़ता था मानो यमुना के जल में गंगा की लहरें मिल गयी हों। कुन्तलकलाप
इस विधि के लिए कुन्तलकलाप12 तथा केशकलाप13 शब्द बाये हैं ।
1. तिलकमंजरी, पृ. 29, 312 2. वही, पृ. 32, 262 . 3. वही, पृ. 247 4. स्निग्धनीलालकलता इव छायागताः........-तिलकमंजरी, पृ. 247 5. संकुचितालकाः प्रधानापणाः प्रमदाललाटलेखाश्च, -वही, पृ. 260 6. वही, पृ. 262 7. वही, पृ. 54, 162, 214, 217, 293, 334 8. वामकरतलेन...... कज्जलकूटकालं कालकूटमिव केशपाशं पुनः पुनः पृष्ठे बद्ध मामृशन्तीम्,
-वही पृ. 54 9. वही, पृ. 162 10. वही, पृ. 217 11. न ताः सन्ति सांयतन्यो मालतीस्रजस्तमिस्रनीकाशे केशपाशे कीनाशानुजाजलस्रोतसीव त्रिस्रोतोवीचयः,
-वही, पृ. 293 12. तिलकमंजरी, पृ. 202 13. वही, प. 209
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तिलकमंजरी का साहित्यिक अध्ययन
कुन्तलदेश की स्त्रियों के कुन्तलकलाप की कालिमा से वनराजि की उपमा दी गयी है । 1
कबरो
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कबरी केश- रचना का दो बार उल्लेख है ।" कबरी के लिए केशवेश शब्द भी आया है । शबरों के भय से सोने को भीतर रखकर तथा कसकर बांधे गये केशवेश वाले पथिक का उल्लेख किया गया है ।
वेली
यह द्रविड़ स्त्रियों की विशेष केशरचना थी, जो पीठ पर झूलती रहती
थी 14
मौलिबन्ध
मौलिबन्ध का दो बार उल्लेख है । " मेघवाहन का मौलिबन्ध हाथ से छूटकर कंधे पर गिर गया था ।
पुष्प-प्रसाधन
तिलकमंजरी में पुष्प-प्रसाधनों का प्रचुर मात्रा में उल्लेख हुआ है । प्राचीन भारत में पुष्पों, पत्तों तथा मंजरियों से बालों तथा शरीर के अन्य अवयवों को सजाने की कोमल कला अत्यधिक विकसित थी । स्त्री तथा पुरुष दोनों पुष्प-पत्रों से श्रृंगार करते थे । तिलकमंजरी में पुष्प एवं पत्तों के निम्नलिखित आभूषणों का उल्लेख है ।
शेखर
तिलकमंजरी में शेखर का 16 बार उल्लेख किया गया है ।7 बालों को संवारकर उसमें पुष्पों की माला बांधी जाती थी जिसे शेखर, शिरोमाला, कुसुमा पीड गण्डमाल, मुण्डमालादि कहा जाता था । मालती पुष्पों से ग्रथित माला के - वहीं,
पृ.
वही, पृ. 261
1. निरन्तरा मिस्तरूणकुन्तली कुन्तल कलापकान्तिमिः..
2.
तिमिरभरमिव क्षेप्तुकामाः कबर्याम,
3.
त्रयी भक्तेनेव गाढांचित हिरण्यगर्भकेशवेशेन देशिकजनेन .... - वही, पृ, 200 4. पृष्ठप्रेङ्खद्वलीनां ......... वही, पृ. 261
5. वही, पृ. 53, 233
6
202
करविमुक्तमोलिबन्धनिरालम्ब कन्धरे....... -वही, पृ. 53
7. तिलकमंजरी, पृ. 34, 37, 38. 73, 79, 105, 107, 115, 125, 152, 165,,178, 198 232, 237, 377
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शेखर का उल्लेख मिलता है । मेघवाहन ने मालतीमाला से ग्रथित शेखर लक्ष्मी की प्रतिमा को पहनाया था। ज्वलनप्रभ ने मन्दार की कलियों से दन्तुरित पारिजात पुष्पों का शेखर बांधा था। समरकेतु ने श्वेत पुष्पों का शेखर बांधा था।' मल्लिका की कलियों से बनाये गये शेखर का उल्लेख है। गन्धर्वक ने अपने केशों में विचकिल पुष्पों की माला बांधी थी। अन्यत्र सन्तानक. नमेरू तथा मन्दार के शेखरों का भी उल्लेख किया गया है । इन उल्लेखों से ज्ञात होता है कि बालों में पुष्प की माला सजावट करने का उन दिनों आम प्रचलन था । स्त्री तथा पुरुष दोनों बालों को पुष्पों से सजाते थे।
अवतंस
पुष्पों-पत्तों आदि को कान में पहनकर अवतंस बनाया जाता था । तिलकमंजरी में अनेक प्रकार के अवतंसों का उल्लेख है । लक्ष्मी को केतकी के पत्ते का अवतंस पहनाया गया था। अन्यत्र मंदारमंजरी के अवतंस का उल्लेख है। संहानक वृक्ष के प्रवाल के अवतंस का वर्णन किया गया है ।11 पल्लवावतंस के अन्य उल्लेख भी मिलते हैं। शैवल प्रवाल का भी अवतंस बनाकर कानों में
1. (क) मालतीमुकुलगण्डमालम्
-वही पृ. 79 (ख) विकचमालतीदानचितशेखरो....... -वही पृ. 198
(ग) बाबढमालतीकुसुमशेखर....... -वही, पृ. 377 2. उदारमालतीदामग्रथितशेखराम्
-वही पृ. 34 3. मन्दारकलिकाभिरन्तरान्तरा दन्तुरितेन"पारिजातकुसुमशेखरेण विराजमानम्
-वही पृ. 38 4. सितकुसुमग्रथितशेखर..
वही पृ. 115 5. वही पृ. 105, 107, 178, 237 6. विचकिलमालभारिणा केशभारेण भ्राजमान........ वही पृ. 165 . 7. तिलकमंजरी, पृ. 152 8. वहीं, पृ. 6, 34, 37, 53, 54, 73, 107, 211, 228, 270, 233,
__311,368 9. श्रवणशिखरावतंसितककेतकगर्भपत्राम,
-वही, पृ. 34 10. मन्दारमन्जर्या समांश्रितकश्रवणाम्,
-वही पृ. 54 11. अवतंसलालसभुजंग भामिनी..
-वही पृ. 211 12. आरोग्य विलासावतंस पल्लवं श्रवसि,
-वही पृ. 228,270
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पहना जाता था । पुरुषों द्वारा कानों में कमल पहनने के उल्लेख भी मिलते हैं। कर्णपूर
कर्णपूर का तिलकमंजरी में पांच बार उल्लेख आया है। किरातस्त्रियां कणिकार का कर्णपूर बनाती थीं। हरिवाहन में शिरीषपुष्प का कर्णपूर धारण किया था । चन्द्रमा को चम्पक पुष्प के कर्णपूर के समान कहा गया है। शुक सदृश नीलवर्ण के प्रार्द्र शवल प्रवाल के कर्णपूर का उल्लेख किया गया हैं । अन्यत्र लवंगपल्लव के कर्णपूर का वर्णन किया गया है।, जिसे स्त्रियां अपने नाखूनों की कोरों से चुनती थीं। बन्तपत्र .. तिलकमंजरी ने कानों में कुमुदिनी कन्द के दन्तपत्र पहने थे ।10 प्रालम्ब
हरिवाहन ने धूलीकदम्ब पुष्पों का प्रालम्ब पहना था।11 प्रालम्ब घुटनों तक लटकने वाली माला को कहते थे। माला सीधी गले में न पहनकर कंधे से कमर की ओर तिरछी भी पहनी जाती थी, जिसे वैकक्ष्यकस्रगदाम कहा जाता था।12 तिलकमंजरी ने चम्पक की वैकक्ष्यकमाला धारण की थी।13
1. शशिहरिणहरितरोचिका शवलप्रवालेन कल्पितकर्णावतंस..
-वही पृ. 107 तथा 311 2. नाकमन्दाकिनीनीलोत्पलेन चुम्बितकश्रवणपार्श्वम्, -वही, पृ. 37 3. आन्दोलितश्रवणोत्पलगलत्परागपांशुल... '
-वही पृ. 233 4. वही, पृ. 105, 261, 268, 297. 353 5. किरातकामिनीकर्णपूरोपयुक्तकणिकारे........
-वही पृ. 297 6. शिरीषतरुकुसुमकल्पितकर्णपूर... -तिलकमंजरी, पृ. 105 दलितचम्पककर्णपूरमनुकरोति,
-वही, पृ 261 शुकांगनीलसजलशवलप्रवालकल्पितकर्णपूरा .. -वही, पृ. 268 9. कर्णपूराशया करनखाग्रेलवंगपल्लवानगृहीत्,' -वही, पृ. 353 10. श्रवणपाशदोलायमानकुमुदिनीकन्ददन्तपत्रा -वही पृ. 368 11. धूलीकदम्बप्रालम्ब...
-वही, पृ. 105 12. वही, पृ. 36 13. द्विगुणितप्रलम्बचम्पकप्रालम्बवैकक्ष्यका... -वही, पृ. 247
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तिलकमंजरी, एक सांस्कृतिक अध्ययन
मेलला
जलमण्डप की वाररमणियों ने बकुल पुष्पों की माला की मेखलाएं धारण की थी। रसना
तिलकमंजरी ने नीलकमलों की माला पिरोकर रसना के स्थान पर बांध ली थी। नूपुर
कैरव की कलियों को मण्डलित करके नूपुर के स्थान पर पहने जाने का उल्लेख किया गया है। मृगाल के आभूषण
मृणाल के हार, केयूर तथा कटक बनाकर पहने जाते थे। ये मृणाल के आभूषण ग्रीष्म ऋतु में शीतलता के लिए धारण किये जाते थे।
इस प्रकार हम देखते हैं कि तिलकमंजरी कालीन भारत में स्त्रियां तथा पुरुष न केवल आभूषण और सजीले वस्त्रों से ही अपना शृंगार करते थे, अपितु अपने शरीर को स्नान से स्वच्छ करके विभिन्न प्रकार के अंगरागों से सुगन्धित कर, नाना प्रकार की केश रचनाओं से अपने केशों को संवारते तथा विभिन्न ऋतुओं में खिलने वाले पुष्पों से अपने शरीर के विभिन्न अवयवों का प्रसाधन करते थे । स्त्रियां इन कोमल कलाओं में विशेष निपुण हुआ करती थीं।
पशु-पक्षी वर्ग तिलकमंजरी में विभिन्न प्रकार के 80 पशु, पक्षी तथा जलचरों का वर्णन आया है। कहीं उपमान के रूप में, कहीं प्रकृति-वर्णन के प्रसंग में इनका उल्लेख आया है । तिलकमंजरी में 35 पक्षी, 22 पशु तथा 24 जलचर व सरीसृप उपवर्णित किये गये हैं। समुद्र यात्रा का विस्तृत वर्णन होने से इसमें अनेक ऐसे जलचरों का वर्णन किया गया है, जो संस्कृत साहित्य के अन्य ग्रन्थों में दुर्लभ हैं ।
1. वही, पृ. 107 2. जघनमंडलनद्धनीरन्ध्रकुवलयदाम रसनागुणा" -तिलकमंजरी, पृ. 368 3. नूपुरस्थानसंदानितसनिद्रकैरवमुकुलमण्डलीका...."-वही, पृ. 368 4. कण्ठमुजकराग्रादिभि "हारकेयूर कटकप्रभृत्याभारणजालं माणार्लमुद्वहन्ती,
.. -वही पृ. 368 5. वही, पृ. 180
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तिलकमंजरी का साहित्यिक अध्ययन
तिमि, तिमिंगल, शकुल, शफरादि प्रकार की विभिन्न मत्स्यों, दन्दशुक, दुन्दुभ जल-सर्पों सिंहमकर, करियादस, जलरंकु जल- पशुओं के दुर्लभ उल्लेख इसमें मिलते हैं । इसी प्रकार मारुदण्ड तथा मद्गु आदि जलीय पक्षियों का भी वर्णन किया गया है । इन पशु-पक्षियों के भोजन तथा उनके स्वाभाविक क्रिया-कलापों का भी वर्णन किया गया है । इनमें पालतू तथा हिंस्र दोनों ही प्रकार के पशु तथा पक्षियों का भी उल्लेख किया गया है । दात्पूह नामक पक्षी रति-गृहों में पाला जाता था, चकोर, शुक, सारिका, क्रौंच, कपोत राजभवन के प्राहारमण्डप में विषाक्त भोजन के परीक्षरणार्थं पाले जाते थे ।
पक्षी-वर्ग
187
(1) उलूक 151, 351 इसे दिन में दिखाई नहीं पड़ता, 1 अतः इसे दिनान्धवयस भी कहा जाता है 238 । इसका अपर नाम कौशिक भी है 238
(2) कपिंजल 211 पक्षी विशेष
(3) कपोत 211,222 पारापत 158,215,220,359, 364
( 4 ) कलहंस 22, 158, 204, 253, 301, 341, 361 । कलहंसों द्वारा नूपुरों की ध्वनि का अनुसरण किया जाना वर्णित किया गया है । 341
(5) कलविंक 67, 126 चटक - 330 । इसका वर्ण कृष्ण है 126 ( 6 ) कादम्ब 89,105,116,391
(7) कारण्डव 181, 425 यह कौवे के समान काले पैरों वाले बतख विशेष का नाम है | 2
(8) कुक्कुट 210 कृकवाकु 152 ।
(9) कुरर 116,181,261,425 ।
( 10 ) कोकिल 69,126,211,261,270,297 1 कलकण्ठ 106, 180, 221,351 | पिक 135,297,353 परमृत 314 (11) क्रोंच8, 69, 120, 210, 253,401 क्रौंचयुगल को परस्पर कमलकेसर के ग्रास देते हुए वर्णित किया गया है। क्रौंच पक्षी विषाक्त अन्न को देखकर मदमत्त हो जाता है । 4
1. मुकुलितोलूकचक्षुरालोकसम्पदि, 2. अमरकोष 2/5/34
3. परस्परवितीर्णतामरस केसरकवलानि, 4. केषांचित्क्रौंचवयसामिव मदावहेषु,
- तिलक मंजरी, पृ. 151
- तिलकमंजरी, पृ. 210 - वही, पृ. 410
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(12) बंजरीट-खंजन पक्षी विशेष 211 (13) खंगी-शरभपक्षी विशेष । यह रात्रि में चरण ऊपर रखता है ।। (14) गरुड़ 363 विद्रुगपति 173
(15) चक्रवाक 55,181,188,,253,302,358,386,401, 408 इन्हें कमलनाल अत्यन्त प्रिय हैं । चक्रवाकों को लामंजक तृण भक्षण करते हुए भी बताया गया है। इनका वर्णन प्रायः प्रेमी युगल के रूप में होता है कवि समय के अनुसार ये रात्रि में वियुक्त हो जाते हैं। इसके अपर नाम कोक 55,245, 311, 359 चक्र 237, 351 तथा रथांग 3, 207, 238 हैं।
(16) चकोर 69, 73, 211, 218, 296, 401। विषाक्त भोजन की परीक्षा के लिए इसे राजभवन के आहार-मण्डप में पाले जाने का उल्लेख किया गया है 69। चकोर को चन्द्रमा की किरणों का पान करते हुए वर्णित किया गया है।
(17) चातक 180, 210, 215 ।
(18) दात्यूह 211, 237 यह धुमिल रंग के जलकौवे का नाम है। इसे रतिगृहों में पाले जाने का उल्लेख किया गया है ।
(19) बक 204 वक्रांग 181 अवाकचंचु 210 इसे शकुल मत्स्य प्रिय है। (20) बलाका 154, 204 इसके श्वेत रंग से उपमा दी जाती है।
(21) मारूण्ड 138, 147, 235। यह जलीय वृक्षों पर निवास करने वाला पक्षी विशेष है।
(22) मद्गु-जलवायस 126, 204, । इनका भोजन मछलियां है ।।
(23) मयूर 25, 106, 141, 202, 408, 426, कलापी 87, 215, 408, शिखण्डी 17, 106, 309,। नीलकण्ठ 154, 240, 351, । शितकण्ठ 227 । बहिण 329, 364, 409 । शिखि 211, 212, 233, 1. खड्गिनामूवंचरणस्थिति।
-वही पृ. 351 2. चक्रवाकचंचुगलितार्घजग्घलामंजकजटालेन, तिलकमंजरी, प. 210 3. अस्ताचलचकोरकामिनीमन्दमन्दाचान्तविच्छाय विरसचन्द्रिके,-बही, प. 73 4. वित्यूपतद्विरो रतिगृहाः,
-वही, प. 237 5. शकुलजिघृक्षयान्तरिक्षाद्विवावचंचुकृतजलप्रपातानि"" - वही, 210 6. बलाकायमानपवनलोलसितपताकम्
वही, प. 154 प्रभूतमत्स्यावहारतष्नया........
तिलकमंजरी, पू,126
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418,। प्रचलाकी 210 हस्तताल द्वारा मयूरों को नचाये जाने का उल्लेख मिलता है।
(24) मल्लिकाक्ष 209, 212, 408 सफेद शरीर तथा धूमिल रंग के चोंच तथा पैरों वाला हंस विशेष ।
(25) सारस 116, 142,158, 207 इसकी ध्वनि को केडार कहा गया है ।
(26) सारिका 65, 68, 69, 211, 262, 401 ये अन्तःपुर में पिंजरों में पाली जाती थी 65, 68 इनको आहार-मंडप में विषाक्त भोजन के परिक्षण के लिए रखा जाता था 69 ।
(27) शरीर-आडी पक्षी विशेष 204 ।
(28) शुक 65, 68, 69, 97, 106, 164, 194, 200, 215, 218, 293, 296, 302, 311, 349, 374, 396,401 इसे भी विषाक्त भोजन की परिक्षा के लिए आहारमंडप में रखे जाने का उल्लेख किया गया है 69।
(29) श्येन -बाज 215 यह मांसाहारी पक्षी है ।
(30) हंस 106, 120, 141, 177, 245, 257, 262, 301, 319, 371, 4261
(31) हारीत 152, 160, 229, यह हरे रंग का पक्षी है।'
(32) राजहंस 159, 179, 203, 207, 232 यह सफेद शरीर तथा लाल रंग के पैर वाला हंस विशेष है राजहंसी 8, 58, 232 ।
(33) वायस 68 । काक-126 । पशु-वर्ग
(1) कपि 4, 118, 152, 211 । वानर 135, 152, 202, 240 हरि 212 शाखामृग 200 ।
(2) कस्तूरीमृग 178, 236 गन्धमृग 210। कस्तूरिकाकुरङ्ग 211 (3) केसरी केसरि-14, 79, 84, 409, 426 कण्ठीख 200
1. नर्तयन्तीचलितवाचालवलयश्रेणिना........ 2. सरलीकृतकेङ्कारविरूतिमिः 3. हारीतहरितप्रभम्........
-वही, पृ. 364
-वही, पृ. 207 -तिलकमंजरी, पृ. 229
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मृगपति 183,398 । मृगाराति 88, 240 मृगाधिप 208 । सिंह 5,152,204, 400 । हरिवाहन को सिंहशावक के समान बलशाली उपणित किया गया है ।। मृगेन्द्र 215, 2171
(4) कोल 200, 210, 233, 238। वराह 115, 116, 122, 183, 184, 208 पौत्रि 235 । इसका भोजन कसेरू नामक तृण विशेष बताया गया है। इसकी पङ्कक्रीड़ा का वर्णन किया गया है 233, 208 ।
(5) कोलेयक 117-कुक्कर । सारमेय 200 । (6) क्रमेलक 118 करम 202
(7) गज 80, 84, 86, 87, 124, 181, 197, 209, 115, 240, 244, 386, करि 15, 83, 86, 87, 89, 95, 97, 118, 182, 184, 200, 209, 243, 246, 386। द्विरद 93, 118, 152, 184, 202, 355, 366, 392, 409 । दन्ती 5, 119, 184, 185, 249, 251 । हस्ती 201। बारण 68, 74, 184, 186, 216, 241, 243, 244, 248, 323, 348, 367, 387, 420 । सिन्धुर 5, 61, 105, 426 । कुम्भी 16 । अनेकप 15, 92, 233 । करेणु 84, 88, 118, 206, 291, 330, 323 । सामाज । द्विप 83, 83, 87, 189, 257, 363, 408। इम 84,87, 116, 202, 275। मातंग 84,89, 406। नाग 91, 216, 260 मृग 189 । करटी 190, 241 । स्तम्बेरम् 234 । आरण्यक 235 । कुजर 243 । वेगदण्ड 233, 387 ।
(8) चमर 211, 183 । (9) ऋक्ष 183,234, । अच्छमल्ल 2001
(10) तुरंग 80, 84, 85, 89, 97, 188, 198, 323, 388, 405 । तुरग 61, 85, 117, 188, 207, 389, 419, । अश्व 85, 86, 87, 89, 143, 187, 201, 207, 248, 418, 426 । वाजि-83, 87, 89, 119, 124, 152, 184, 187, 419 । सप्ति 82, 88, 207 । हरित 66। हय 68, 86, । रथ्यः 93, । वाह - 242, 248 ।
(11) धेनु-58 । कामधेनु नामक स्वर्गीय गो का वर्णन किया गया है 58,
1. केसरिकिशोरस्येव........
-वही, पृ. 79 2. दृश्यमानार्धचर्वितकसेरूग्रन्थिकथितकोलयूथप्रस्थानेन............
-तिलकमंजरी, पृ.210
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गौः 3, 117, रोहिणी 150 । तर्णक गाय के वत्स के लिए प्रयुक्त हुमा है 64 । गवय 234, वन्य गो के लिए प्रयुक्त हुआ है।
(12) महिष 124, 134, 182, 183, 240, 409 । (13) मेष 150 (14) मार्जार-1121 (15) मूषिका-112
(16) मृग-73, 135, 175, 138, 122, 165, 217, 235, 253, 256, 333, 395 । हरिण 209, 222। सारंग-200। एण 135, एणक 182 । कृष्णसार 277 ।
(17) सोरभेय-118 । अनुडुह-118 वृषभ-119 वृष 124, 150 । ' (18) शरभ 116, 184, 200 मृग विशेष का नाम है ।
(19) शिवा-शृगाली 87, शिवाफेत्कारडामरः ।
(20) रासभ-46, 112 । वैताल के पैरों के नखों की कांति को गर्दभतुण्ड के समान धूसरित कहा गया है ।।
(21)व्याघ्र 2, 51। इसे अपने पराक्रम से अजित आहार का भक्षण करने वाला पशु कहा गया है । शार्दूल-47, 116 । द्विपि 183, 200, 351।
(22) वेसर-85 अश्वतर-1171 जलचर एवं सरीसृप तथा अन्य
1. अजगर-47, 200, 239, 409 । नीचे सोये हुए हप्त अजगरों के निःश्वास से वृक्ष के तने के हिलने का वर्णन किया गया है।
2. उर्णनाभ-मकड़ी 237 । 3. कुलीर-259 । केकड़ा 4. कुम्भीर-8 नक्र 145, 146, 269 जलचर विशेष ।
1 रासमप्रोथधूसरं नखप्रभाविसरम्........... -तिलकमंजरी, पृ. 51 2 व्याघ्रणामिवास्माकमात्मभुजविक्रमोपक्रीतमामिषमाहारम्,
-वही पृ. 46 3 अधःसुप्तहप्ताजगरनिःश्वासनतितमहातरूस्तम्बया.......तिलकमंजरी, पृ.200
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5. कुर्म – 15 122, 139 मकठ - 121, 145, 222
6. गोरखर - गिलहरी 200 |
7. ग्राह: - घड़ियाल जलजन्तुविशेष 139, 146 1
8. जलरङ्क – जलीयमृग विशेष 183, 210, 425 1
9. जलवारण - 121, 138 | करियादस - 130 |
10. जलौक - जौंक 239 । गन्दे रूधिर को चूस कर निकालने के लिए जलौक का प्रयोग किया जाता था । 2
11. तिमि – 15, 122, 204, 238 शतयोजन बृहदाकार मत्स्य विशेष ।
मानदण्ड के समान कहा
12. तिमिङ्गिल - 139, 145 1 इसे सागर के गया है ।
(13) दर्दुर- मेंढ़क 180, 234, मेक 117 | प्लवक - 140, 180,
234 I
( 14 ) दन्दशूक - जलसर्पविशेष 146, 376
(15) दुन्दुभ - जलसर्प विशेष 130 ।
(16) नकुल-2
(17) मुजङ्ग – 58,215, 283 | पन्नग - 52, 122 भुजंग - 48 । श्रहि : 2, 86, 88,205 | सर्प- 2, 47, 48, 122, 145, । उरग - 6, 57, 85 126, 1 विषधर - 41, 48 । श्राशीविष – 41, 25, 58, 192 | द्विजिहवः 2। पृदाकु - 284 मोगी - 320 |
8, 116, 126, 130, 138, 145, 204 256,
(18) 276, 303, I
( 19 ) मत्स्य - 116, विसारी - 89, 122, 146, । मीन - 203, 259,
283 1
( 20 ) सरीसृप - गिरगिट 47 |
( 21 ) सिंहमकर - जलीयजन्तु विशेष 145 |
( 22 ) शकुल - मत्स्य विशेष 146, 210
1. दुष्टरक्तापकर्षरणार्थमायोजित जलौकं...
2. विदारितगिरिकन्दराकारतुण्डो मानदण्ड इव सागरस्य,
269
.................................
वही, पृ. 239
वही पृ. 145
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तिलकमंजरी का साहित्यक अध्ययन
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(23) शफर-मत्स्य विशेष 120, 126,156, ।
नयनविक्षेपों की उपमा शफर मत्स्य से दी जाती। तिलकमंजरी के नयन युगलों को शफर द्वन्द्व की उपमा दी गयी है। (24) शिशुमार-जलीयजन्तुविशे 145 ।
वनस्पति-वर्ग तिलकमंजरी से बनस्पति-विज्ञान सम्बन्धी प्रभूत सामग्री उपलब्ध होती है। तिलकमंजरी वह क्रीड़ोद्यान है, जिसमें कहीं पुष्प मुस्करा रहे हैं, कहीं फल अपना रस बिखेर रहे हैं, तो कहीं लताएं अपनी जम्भाइयां ले रही हैं, कहीं औषधियां जगमगा रही हैं, तो कहीं कलम की सौरभ वायु को सुरभित कर रही है । अपने इस प्रकृति प्रेम के कारण ही धनपाल ने अपनी नायिका का नाम भी तिलकमंजरी (तिलक नामक पुष्प-वृक्ष की मंजरी) रखा है तथा नायिका के नाम के आधार पर ही ग्रन्थ का नाम रखा गया है ।
तिलकमंजरी में कुल मिलाकर 132 प्रकार की वनस्पतियों का उल्लेख आया है, जिनमें 88 वृक्षों के नाम हैं, 43 पुष्प वृक्ष हैं, 17 फल वृक्ष एवं 28 प्रकार के अन्य वृक्ष हैं । बृक्षों के अतिरिक्त 22 प्रकार की लताओं का वर्णन है। 22 प्रकार की वनस्पतियों, जिनमें धान्य अनेक प्रकार के तृण तथा औषधियों आदि के नाम हैं । इन सबका आगे क्रमशः विस्तार स वर्णन किया जा रहा है ।
. .. वृक्ष : पुरुष-वृक्ष
1. अंकोल्ल-नीहार के समान धवल पुष्प नीहारधवलाकोल्लपूलिपटलसंपादितदिगङ्गानांयुके 297 ।
2. अक्ष-विभीतक वृक्ष (24,212) । भूतपादप (200) इसे भूतपादप भी कहते हैं अमरकोश-2,4,58 ।
(3) अलक-2471
(4) अगस्त्य-370 यह श्वेत-रक्त वर्ण का पुष्प है, जो आकृति में टेढ़ा होता है।
(5) प्रशोक-125,135,159,165,166,250,297,301,305,305
1. आयतस्फारघवलोदरशोभिशफरद्वन्द्वामिव,
-तिलकमंजरी, प्र.247. 2. अग्रवाल. वासुदेवशरण; कादम्बरी-एक सांस्कृतिक अध्ययन पृ. 233
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तिलकमंजरी, एक सांस्कृतिक अध्ययन
अशोक वृक्ष के सुन्दर स्त्री के पाद-प्रहार से कुसुमित होने की मान्यता है असंपातिपावप्रहतिदोहदेवशोकशाखिषु पृ. 301। रक्ताशोक-211,214,246,252 262,300,301
(6) उदुम्बर-गूलर वृक्ष 397 ।
(7) कमल-1,24,37, 54,162,177, 180,182,205,229,252, 266,301,324,256,390 । सरोज-6,11,76। पद्म-6,9,256, पंकज-7, 12,77,153,221,214,376 । पुष्कर-75,202 । उत्पल-107 । पुण्डरीक54,73,165 । अरविन्द-73 । सरसिज-232 । अम्बुज-:4। वारिरुह-162 जलरूह-359 । अम्भोज-166 । वारिज-3451 सरोरुह-254 । पंकेरह-209 । नलिन-248,296 । नीरज-256,387 । राजीव-207 । शतपत्र-251,228 161 । अम्भोरुह-7,261 । अब्जिनी-54,179,229 । अम्बुरूहिणी-66 । अम्भोजिनी-22,391। नलिनी-153,162,204,3801 कमलिनी-159,181, 205,311,338,385 । पद्मिनी-55,67,203,213 । सरोजिनी-368 । पूटकिनी-207,305, । विसिनी-17,418 । तामरस-58,101,264। रक्तोत्पल 18,204 । कोकनद-55 । कुवलय-100, 120,180,229,254,368 । इन्दीवर-174,198,204,248 । नीलोत्पल-37,232,253 ।
(8) कल्पवृक्ष-पंचदेववृक्षों में से एक । 41,42,57,152,153,169, 216,241,262,266,300,301,372 ।
(9) कणिकार-152,297 । कठचम्पा नामक पुष्प वृक्ष । (10) कांचनार-238,297,370 । (11) किंकिरात-297 (12) कुन्द-श्वेत पुष्प विशेष 113,153,371 ।
कुन्द पुष्प से श्वेतातपन की उपमा दी गई है। कुन्दधवलातपत्रिकाभि-.. 153 । स्मितकांति को कुन्द पुष्प के समान स्वच्छ कहा गया है ।-कुन्दनिर्मला ते स्मितद्युतिः 113 दन्तपत्र-161 ।
(13) कुटज-गिरिमल्लिका नामक सुगन्धित पुष्प 180, 370 । (14) कुरबक-297
(15) कुमुद-एक प्रकार का वेत पुष्प । 12, 69, 174, 253, 264, 92, 94,68, 180, 222, 229, 204, 205, 251, 319, 324, 338, 356, । कुमुदिनी-311, 368, 417, 419 । करव-198, 204, 205 ।
(16) केतक-34, 210, 251। केतकी-32, 179, 105, 304, । कण्टकित पुष्प विशेष केवड़ा ।
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तिलकमंजरी का साहित्यिक अध्ययन
. 195
(17) चम्पक-134, 102, 159, 166, 165, 251, 247, 260 304, 271, 2971
(18) जपा-11, 37, 214 । रक्त पुष्प विशेष । (19) जाति-260। (20) मालती-3, 34, 56, 175, 198, 293,125, 297, 79,
3771 (21) तगर-211, पिण्डीतगर 3601
(22) तमाल-24, 105, 120, 126, 166, 168, 165, 250, 260, 212, 351, 354 । तापिच्छ 93 ।
(23) ताली-166, 165,211, 250 । (24) तिलक-102, 134, 161,166, 250, 262, 304,369. ' (25) धव-221, । घातकी 409 । एक प्रकार रक्त का पुष्प । (26) धूलीकदम्ब-105, 3951 (27) नमेरू-152, 211, 241। (28) नीप-211। कदम्ब-179, 217, 391. (29) पलाश-214, 257, । किंशुक-229, 292। रक्त पुष्प विशेष । (30) पाटल-160 । रक्त पुष्प विशेष । (31) पारिजात-देववृक्ष विशेष -54,57, 38, 100, 211, 217,
(32) बकुल-211, 135, 107, 297, 301, 324 । विलासिनी के मुख के मद के सेक से बकुल का विकसित होना माना गया है (विलासिनीवदनसरससेकविकासितबकुले 297 । अनाहितसरसगण्डूषसेकेषु बकुलखण्डेषु-301 ।
(33) बन्धुजीवक-37 (34) बन्धूक-रक्त पुष्प विशेष 107, 152, 215, 247 ।
(35) मन्दार-पंचदेववृक्षों में से एक । 54, 135, 152, 205, 211, 297, 405।
(36) मधूक (मधु)-211, महुआ पुष्प वृक्ष । (37) मुचुकुन्द-2971
(38) सप्तच्छद-शरदऋतु में खिलने वाला श्वेत पुष्प विशेष 6, 115, 211, 1831
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तिलकमृजरी, एक सांस्कृतिक अध्यय
(39) सन्तानक - 57, 152, 211, देववृक्ष विशेष
(40) fargar-297
( 41 ) शिरीष - 105, 106, 315, 338 ।
( 42 ) हरिचन्दन - देववृक्ष विशेष 405
(43) रोध - 211
(44) farafa-52, 297 | वृक्ष (फल (फल)
(1) श्रामलक - 67, 234 । आमलकीफल 43, आंवलों की उपमा मोटे-मोटे मोतियों से दी जाती है 43 | सिर में लगाया जाता था । 67 । तिरछे गिरे हुए आंवलों से वनभूमि तिलकित सी हो रही थी- निपतितमिरश्चीनामलक तिलकित क्षितित लामिः - 234 |
125, 255 । पके आंवला स्नानोपरान्त
(2) आम्र - 97, 297 चूत - 77, 211, 215, 135, 163, 194 । 61, 106, 135, 261, 270, 297, 301, 370, 405 I
(3) इक्षु - 15, 119, 304 गन्ना
पुन्ड्रेक्षु - 40, 182, 304, विशेष प्रकार का गन्ना - ( 4 ) कवकोलक - 210
(5)-28, 106, 137, 212, 248, 276, 241, 260, 227, 305, 311 रम्भा - 9, 164, 213 । उरुदण्ड की उपमा रम्भा स्तम्भ से दी जाती है 164 । राजकदली-211।
( 6 ) कपित्थ - 305 | कैंथ नामक फल ।
(7) किपाक - एक प्रकार का विषैला फल । मलयसुन्दरी ने आत्महत्या करने के विचार से किपाक वृक्ष का फल खा लिया था
334
( 8 ) जम्बीर - 211 । जम्बीरी नींबू
( 9 ) जल - जम्बू – 105, 151
( 10 ) दाडिमी -- 211, 215, 238, 2370 कारक -- 211
( 11 ) नाग--210, 370
( 12 ) नारंग -- 210, 260, 305 +
(13) नारिकेल - नारियल 211, 137, 305
( 14 ) पनस - कटहल 137, 200, 211, 260 1
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तिलकमंजरी, एक सांस्कृतिक अध्ययन
(15) पिण्ड – खर्जूर-137 । ( 16 ) मातुलिंग 210, 305 (17) राजादन -- खिरनी 370 ।
अन्य वृक्ष
(1) अलक -- 247
( 2 ) अश्वत्थ - - 66 पीपल का पेड़
(3) अर्ज ुन - 199, 369, 372 एक प्रकार का काष्ठ वृक्ष विशेष ।
(4) अगरू – 3031 कुष्णागरू - 161, 182, 211 ।
-
(5) उलप - 236
(6) कर्पूर - 140 281 ।
(7) खदिर वृक्ष - कत्था, खैर वृक्ष 188, 304
( 8 ) कतक – 205, 261, इसका फल जल के मल को हरने वाला कहा गया है [ कतकविटपिनामनारतं गलभिः फलैः प्रशमितपंकोदयानि - 261 । (9) क्रमुक – 261 । पूगतरू - 203, 211, 166, 165 पूगीफल – 133, 261 । राजताली 135
( 10 ) चन्दन 41, 202, 281, 303, 369, 250, 133 | श्रीखण्ड140,370 I
( 11 ) करंज -- 199 ।
(12) ara-102, 203, 210, 240, 261 । ताड़-पत्र का पेड़ ताल पत्र 108, ताडीतरू - 136
(13) तिन्दुक - 397 तेंदु वृक्ष ( 14 ) ( 15 )
धूम्रिका वृक्ष -- शिशपा वृक्ष - 145
न्यग्रोध - - 381 वट--(
-66, 117 1
(16) ( 17 )
( 18 ) प्रियाल - 200 चिरोंजी का पेड़
(19) बाण - 89 नीलझिण्टी नामक वृक्ष ( 20 ) भूर्ज - 234 भोज पत्र । जर्जर के छितराने
से
प्लक्ष -- 397 पाकड़ वृक्ष
पिचुमन्द -- 397
197
भोजपत्रों की छालों के समूह
अटवी का मार्ग सुगम हो गया था पर्यस्तजर्जर भूर्ज .... 234 । (21) सरल - 199, 372 एक प्रकार का काष्ठ वृक्ष (22) सर्ज 1991 साल 372 --शाल का सखुप्रा वृक्ष ( 23 ) श्रीवृक्ष -- विल्व वृक्ष 39
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198
तिलकमंजरी, एक सांस्कृतिक अध्ययन
(24) हरिद्रा--260 (25) हरित--297 (26) यमलताल--46 (27) लकुच-250 बड़हर वृक्ष
(28) विद्रुप-37 लताएं
(1) मृद्विका-8 दाख, मुनक्का (2) प्रतिमुक्तकलता-162, 227, 301, 353 । माधवीलता (3) कल्पलता, 68, 76, 100, 2791 (4) कर्कारू 120 । कूष्पाण्ड 305 कोहड़ा नामक शाक की बेल । (5) कारवेल्ल-120 करेला नामक शाक की बेल । (6) कांचनलता-148 नागकेसर-304
(7) एलालता-इलायची 102, 210, 245, 252, 261, 353 354 तिलकमंजरी एवं हरिवाहन का प्रथम साक्षात्कार एलालतागृह में ही हुआ था।
(8) गुजालता-70, 234 । मेघवाहन की दन्तवलभी के मणिगवाक्ष पर गुजाफल की कांची पहने जाने का उल्लेख किया गया है वरीगृह प्रस्तरगलितगुजाफलकांचीसूचितवनेचरी .... 234 | गुजाफल -152, 200, 234,
(9) ताम्बूलवल्ली 211, 261,353 । नागवल्ली 166, 165, 260, तुण्डीरक-एक प्रकार का शाक विशेष-305 1. त्रपुस-120, 305 एक प्रकार का शाक (12) निर्गुण्डीलता-199
(13) पाटला-105, 160, 164, 297 । कृष्णवृन्त नामक पुप्पलता विशेष (14) प्रियंगु-125, 211, 266 381।
फली-200 । फलिनी-2911 (15) मल्लिका- 105, 107, 174, 178, 212,237 (16) सल्लकी - 185, 199 हाथियों को प्रियलता विशेष ।
(17) लवङ्ग-लौंग 250, 102, 260, 303, 353 140, 151 210, 135
(18) लवङ्गकंक्कोल-260 अत्यन्त सुगन्धित लता लवङ्गकक्कोल परि. मलबाही मुलानिलो मलयसमीर:
(19) लवलीलता-166, 140, 168, 210, 165, 353 ।
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तिलकमंजरी, का साहित्यिक अध्ययन
( 20 ) वार्ताक - एक प्रकार का शाक विशेष 305 |
( 21 ) विद्रुमलता - 204
( 22 ) हरिचन्दनलता - 57,211, 405
धान्य, तरण तथा औषधियां
(1) कलम - साठी धान विशेष 82, 116, 182, 186 यह शरदऋतु के प्रारम्भ में पक जाता है । परिणमत्कलम कपिलायमानकंदारिके-82 । उत्पाककलमकेदारकपिलाय मानसकलग्राम सीमान्तम् - 182 । समृद्ध कलम के खेतों की सुगन्ध से वनानिल सुगन्धित हो रही थी उदार कलमकेदारपरिमला मोदितवनानिलाम -116 1
( 2 ) कसेरू – शूकर का भोजन तृण विशेष 210 ।
(3) काश - तृण विशेष 21, 25, 395 इसमें श्वेत पुष्प लगता है । ( 4 ) कुम्भिका - जलतृण विशेष - 233 इसमें भी श्वेतपुष्प खिलता है । इसके पुष्प से श्वेतातपत्र की उपमा दी जाती है जृम्भौतानकुम्भिका कुसुमसमभा
साश्वेतातपत्रिकया 233 ।
(5) कुसुम्भ – रक्तवर्ण औषधि 214
-
( 6 ) कुश - एक प्रकार का तीक्षण तृण, जिसे अत्यन्त पवित्र माना गया है । 61, 63, 254 । कुश - शय्या का उल्लेख किया गया है कुश तल्पमगात् - 61 इसे हाथ में लेकर पुरोहित शांति जल छिड़कते थे-- 63 | इसे दर्भ भी कहते हैं— 67 ।
( 7 ) तण्डुल - चावल 235
(8) तिल - 67, 97 धान्य विशेष
( 9 ) दूर्वा — दूब 237, 236, 72, 86, 209, 245
199
( 10 ) नल - एक प्रकार का तृण विशेष 126, 251, 199 ।
(11) नागर - सौंठ नामक औषधि विशेष । क्रमुक वृक्ष से लिपटी हुई
नागर लता का उल्लेख किया गया है | 261
( 12 ) नीवार 236 जग ली धान्य विशेष (13) नीली – 227, 125 औषधि विशेष
नीलीरसेनेव - 125
-
( 14 ) पिप्पली 211 औषधि विशेष
(15) मंजिष्ठा -- 234 मंजीठ नामक औषधि विशेष
( 16 ) शर - सरकण्डा नामक तृण 21,
184 I
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तिलकमंजरी, एक सांस्कृतिक अध्ययन
( 17 ) शब्प -- कोमल ग्रास । मलयसुन्दरी द्वारा कुलपति के आश्रम में शप कवलों से बालहरिणों का वर्धन किया था 331 ।
200
( 18 ) शाद्वल 179 तृण विशेष
( 19 ) शालि.... धान्य विशेष 182, 305, 1 गोपिकाओं द्वारा शालि धान के खेत से हाथ की तालियाँ बजा-बजा कर सुग्गों को भगाये जाने का वर्णन प्राप्त होता है उत्तालशालिवनगोपिकाकरतलता लतर लितपलायमानकीरकुल 182 वसन्तोत्सव पर काम देव के मन्दिर में सजावट के लिए स्थान-स्थान पर शालि चावल के स्तूप बनाये गये थे-- 305 1
( 20 ) शैवल - तृण विशेष 233, 107, 121, 158, 37, 203, 254 311, 368 जम्बाल 228 ।
( 21 ) हरिताल विशेष प्रकार की औषधि, जिसका वर्ण पीला होता है 152, 234, 247,
( 22 ) विशल्या 136 औषधि विशेष ।
सान-पान सम्बन्धी सामग्री
तिलकमंजरी में धान्य, तैयार की गई खाद्य सामग्री, गोरस तथा अन्य द्रव्य एवं पेय शाक तथा फलादि सम्बन्धी निम्नलिखित जानकारी प्राप्त होती है। पाक - विज्ञान में कुशल व्यक्ति सूपकार कहलाता था । राजा के ग्राहारमण्डप का अध्यक्ष पौरोगव तथा अन्य रसोइये आरालिक कहलाते थे । 1
बिना पकायो गयो खाद्य सामग्री
(1) यवस 82, 119, बुस 119 जो
( 2 ) व्रीहि 119
(3) नीवार - 236 जंगली धान्य (4) तिल - 67
( 5 ) तण्डुल- 140,235 तण्डुल सामान्य प्रकार के चावल को कहते थे । शालि तथा कुलय नामक विशेष प्रकार के चावलों का उल्लेख किया गया है । शालि एक विशेष प्रकार के सुगन्धित चावलों कों कहते थे । कामदेव मंदिर में शालि चावलों के स्तूप बनाकर सजावट की गयी थी । खड़ी शालि फसल की रक्षा करती हुई गोपिकाओं का वर्णन किया गया है । 2 शालि के तीन
go 305 तिलकमंजरी, पृ० 182
1. स्थानस्थानविनिहिताखण्डशालितण्डुल स्तूपेन ..
Joose door
-तिलकमंजरी, उत्तालशालिवनगोपिकाकरतलताल- तरलितपलायमान ............
1.
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तिलकमंजरी का साहित्यक अध्ययन
201
भेद कहे गये हैं- (1) रक्तशालि (2) कमलशाली (3) महाशालि । कलम भी शालि का ही एक प्रकार था। कालिदास ने भी गन्नों की छाया में बैठकर गाती हुयी शालि की रखवाली करने वाली स्त्रियों का उल्लेख किया है। पके हुए कलम की सुगन्ध से वनानिल सुगन्धित हो रही थी। अन्यत्र पके हुए कलम के खेतों से कपिलायमान ग्राम की सीमाओं का उल्लेख किया गया है । तैयार की गई सामग्री
(1) मोदक- तिलकमंजरी में मोदक का चार बार उल्लेख है । मोदक को देखते ही लार टपकाने वाला स्वादिष्ट व्यंजन कहा गया है । समुद्र के खारे जल से नष्ट हुए मोदकों का उल्लेख किया गया है। मोदकादि पकवान कामदेव की पूजन-सामग्री में रखे गये थे। चावल, गेहूं अथवा दाल के आटे को भून कर घी, चीनी अथवा गुड़ डालकर गेंद के समान गोल-गोल बनाये जाने वाले मिष्टान्न को मोदक कहते थे।
(2) पायस-पायस खीर को कहते थे । घोषाधिप द्वारा भ्रमण करते हुए पथिक दारकों को बुला-बुलाकर पायस बांटी जा रही थी।
(3) फेनिका-305 (4) शोकवति-305 (5) खण्डवेष्ट-305
(6) प्रोदन-117 पके हुए चावलों को प्रोदन कहा जाता था । गोरस, अन्य द्रव्य एवं पेय
(1) क्षीर-66 . (2) दधि-66, 72, 115, 117, 123, 197 (3) प्राज्य-117, 66 सपि-130
..
. (2)
1. Om Prakash Foods and Drinks in Ancient India P. 58 2. इक्षुच्छायानिषादिन्यः शालिगोप्यो जगुर्यशः । कालिदाश रघुवंश पू० 4/120 3. उदारकलमकेदारपरिमलामोदितवनानिलाम्, -तिलकमंजरी, पृ० 116 4. उत्पाकवलमकेदारकपिलायमान सकलग्रामसीमान्तम्,
वही, पृ० 5. दृष्टमात्र: क्षुदुपवृहणो मोदकादि........
-वही पृ० 50 6. विनष्टाः क्षारोदकेन मोदकाः........
-वही पृ० 139 7. वही पू० 305 8. Om Prakash Foods and Drink in Ancint India P. 287 9. सतोषघोषाधिपसमायमानपर्यटत्पायसाथिकपटकः, तिलकमंजरी, पृ. 117
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202
तिलकमंजरी, एक सांस्कृतिक अध्ययन
घी के लिए आज्य तथा सर्पि शब्द प्रयुक्त हुए हैं ।
(4) तक्र-11' छाछ (5) नवनीत 117, हैयंगवीन 117, मक्खन (6) तैल-131 (7) इक्षुरस 305 (8) माक्षिक 305-मधु शहद (9) पुण्डे क्षुरस 40 (10) नालिकेरीफलरस 260
(11) कापिशायन-18 कपिशा अर्थात गान्धार देश में उत्पन्न होने वाले अंगूरों से तैयार किये गये मद्य को कहते थे । शाक
(1) अपुष, 120, 305 खीरा को वपुष कहा जाता था। इसकी बेल लगती थी।
(2) कर्कारू 120, कूष्माण्ड 305-कोहड़ा को कर्कारू तथा कूष्माण्ड कहते थे। यह भी वल्लीफल था।
(3) कारवेल्लक-120 करेला, इसकी भी बेल लगती है। (4) तुण्डीरक-305 । (5) वार्ताक-(बैंगन) 305 ।
वनस्पति-वर्ग के अन्तर्गत अन्य फलों, ओषधियों आदि के नाम बताये जा चुके हैं।
इस अध्याय में हमने देखा कि तिलकमंजरी कालीन समाज सांस्कृतिक दृष्टिकोण से कितना समृद्ध तथा सम्पन्न था। साहित्य तथा कला का साम्राज था। क्या साधारण प्रजा व क्या सम्भ्रान्त वर्ग, सभी उच्च कोटि के साहित्य व कला में रुचि रखते थे व उनसे अपना मनोविनोद करते थे। उत्तम वस्त्रों का प्रचलन था, जिससे ज्ञात होता है कि वस्त्रोद्योग उस समय कितना विकसित था। वस्त्रों के अतिरिक्त विभिन्न प्रकार के आभूषणों केश विन्यासों तथा प्रसाधनों से विभिन्न प्रकार से शरीर की सजावट की जाती थी, जो तत्कालीन सांस्कृतिक परिष्कृत रुचि की परिचायक है। अतः तिलकमंजरी तत्कालीन राजाओं के वैभव मनोविनोद, विभिन्न वस्त्रों तथा आभूषणों व अन्य प्रसाधनों से सम्बन्धी महत्त्वपूर्ण सांस्कृतिक उपादानों के दृष्टिकोण से एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है।
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षष्ठ अध्याय
तिलकमंजरी में वर्णित सामाजिक व
धार्मिक स्थिति
.
- सामाजिक स्थिति वर्गाश्रम व्यवस्था
वर्णाश्रम व्यस्था प्राचीन भारतीय संस्कृति की रीढ़ थी। भारतीय समाज को वैज्ञानिक तरीके से चार प्रमुख वर्गों में विभक्त किया गया था, तथा औसत मनुष्य जीवन को शतवर्षी मानकर, उसके चार विभाग किये गये थे। तिलकमंजरी से भारतीय समाज तथा जीवन के इस चतुर्मुखी रूप की स्पष्ट जानकारी प्राप्त होती है।
राज्य में वर्णाश्रम व्यवस्था की स्थापना तथा रक्षा का उत्तरदायित्व राजा का होता था। राज्य में वर्ण, आश्रम तथा धर्म को विधिवत् स्थापित करने के कारण राजा को प्रजापति का उपमान मिला। राज्य में वर्णाश्रम व्यवस्था की स्थापना करना राजा का परम कर्त्तव्य था, तथा इसके पश्चात् राजा भी निश्चित हो जाता था। वर्ण व्यवस्था
वैदिक काल में ही भारतीय समाज चार वर्षों में विभक्त हो गया था।
1. तिलकमंजरी, पृ. 12, 13, 17 2. यथाविधिव्यवस्थापितवर्णाश्रमधर्मः यथार्थः प्रजापतिः, 3. (क) रक्षिताखिलक्षितितपोवनोऽपि नातचतुराश्रमः
(ख) स्वधर्मव्यवस्थापितवर्णाश्रमतया जातनिर्वतिः (ग) राजनीतिरिव यथोचितमवस्थापितवर्णसमुदाया,
-वही पृ. 12 -वही, पृ. 13 -वही, पृ. 17 -वही पृ. 166
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204
विलकमंजरी, एक सांस्कृतिक अध्ययन
ऋग्वेद का पुरुष सूक्त इसका प्रमाण है। अतः वैदिक काल से ही वर्ण-व्यवस्था का प्रादुर्भाव हो गया था। ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्य एवं शूद्र इन चार वर्गों में समाज को विभक्त किया गया था । ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य यह त्रिवर्ण सम्मिलित रूप से द्विजाति कहा जाता था। एक वर्ण शूद्र के लिए प्रयुक्त होता था। ब्राह्मण
___ धनपाल के समय में ब्राह्मणों को सर्वोच्च सामाजिक सम्मान प्राप्त था। राजा की सभा में ब्राह्मणों का विशिष्ट स्थान था। मेघवाहन के राजकुल में ब्राह्मणों की एक विशिष्ट सभा थी, जिसे द्विजावसरमंडप कहा गया है। समर केतु ने युद्ध के लिए प्रयाण करने से पूर्व समुद्र पूजा के समय अपनी सभा के ब्राह्मणों को बुलाया ।
तिलकमंजरी में ब्राह्मण के लिए द्विजाति 15, 19, 65, 66, 67, 114 115, 116, 117, 123, 127, 132, 331, द्विज 11, 44, 64 67, 122 351,406 श्रोत्रिय 11, 62, 63, 67, 260 द्विजन्मा 7, 63, 173, विप्र 7, 78, पुरोधस् 15, 65,78, 115, 117, पुरोहित 63,73 115, 123, देवलक 67, 321, नैमित्तिक 64, 190, 403 मौहूर्तिक 95 131, वेलावित्तक 193 दैवज्ञ 232 सांवत्सर 263 शब्द प्रयुक्त हुए हैं।
ब्राह्मणों में पुरोहित का स्थान सर्वोच्च था । इसे उच्च राजकीय सम्मान प्राप्त था। राजा द्वारा राजसभा में ताम्बूल तथा कपूर दान अत्यधिक सम्मानजनक माना जाता था। पुरोहितों को समस्त वेदों का ज्ञाता प्रजापति के समान कहा गया है। पुरोहित को महारानी के वास भवन में जाने का भी अधिकार था।' यह राज्य के मांगलिक कार्यों को सम्पन्न कराता था।
1. Kane, P. V.; History of Dharmasastra, Vol. II, Part I.
P. 47. 2. त्रिवर्णराजिना द्विजातिशब्देनेवोद्भासितः -तिलकमंजरी, पृ 348 3. कथितनिर्गमोद्विजावसरमण्डपानिजंगाम ....... -वही पृ.65 4. समाहूतसकल निजपरिषद्विजातिः....... .... -वही पृ. 123 5. ताम्बूलकर्पू रातिसर्जनविजितपुरोधःप्रमुखमुख्यद्विजातिः .. ....
-वही, पृ. 65 6. अखिलवेदोक्तविधिविदा वेधसेवापरेण स्वयं पुरोधसा निवर्तितान्नप्राशनादिसकलसंस्कारस्य .......
-तिलकमंजरी, पृ 78 . 7. पुरोहितपुरः सरेषु विहितसांयतनस्वस्त्ययनकर्मस्वपक्रान्तेषु, -वही पृ. 72
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तिलकमंजरी में वर्णित सामाजिक व धार्मिक स्थिति
205
पुरोहित के पश्चात् श्रोत्रिय ब्राह्मणों में श्रेष्ठ माने जाते थे। श्रोत्रियों को जप में अनुरक्त कहा गया है। श्रोत्रिय प्रातःकाल में राजा से भेंट करने जाते थे।
- समस्त वेदों के ज्ञाता को द्विज कहा गया है । सामस्वरों से आनन्दित होने वाले द्विजों का वर्णन किया गया है। द्विज समूहों से युक्त अयोध्या नगरी ब्रह्मलोक सी जान पड़ती थी।। देवों तथा द्विजों की प्रसन्नता से शुभ कार्य सिद्ध होते हैं, यह मान्यता थी। . .
विप्रों को नामकरण संस्कार पर गो तथा स्वर्ण-दान देने का उल्लेख आया है।' नामकरण संस्कार जन्म के दसवें अथवा बारहवें दिन सम्पन्न किया जाता था। राजकुल के वर्णन में ब्राह्मणों द्वारा सम्पन्न विभिन्न कार्यों का उल्लेख किया गया है। पुरोहित हरे कुश हाथ में लेकर स्वर्णमय पान से शांतिजल छिड़क रहा था। यज्ञमण्डप के पास अजिर में बैठे द्विज मन्त्रोच्चार कर रहे थे।10 श्रोतियों के दानार्थ लायी गायी गायों से बाह्य कक्षा भर गयी थी। नैमित्तिक ज्योतिषी के लिए प्रयुक्त हुआ है । पुरूदंशा नामक राजनैमित्तिक का उल्लेख आया है ।12 यह राजकार्यों के लिए मुहुर्त शोधन का कार्य करता था।18 मौहूर्तिक,
1. जपानुगगिमिरूपवनरिव श्रोत्रियजनैः.... -वही, पृ. 11 2. वही, पृ. 62 3. सकलवेदविद्वजोऽपि....
-वही, पृ. 406 4. सवनराजिमिः सामस्वररिव क्रीडापर्वतकपरिसरैरानन्दितद्विजा,
-वही, पृ. 11 5. सब्रह्मलोकेव द्विजसमाजः,
- वही, पृ. 11 6. देवद्विजप्रसादादिहापि सर्व शुभं भविष्यतीति.... -वही, पृ. 64 7. दत्वा समारोपिताभरणाः सवत्साः सहस्रशो गाः सुवर्ण च प्रचुरमारम्भानि स्पृहेभ्योविप्रेभ्यः
--वही, पृ. 78 8. पाण्डेय, राजबली-हिन्दू संस्कार पृ. 107 चौखम्बा विद्याभवन,
वाराणसी, 1966 . 9 तिलकमंजरी, पृ. 63 10. वही, पृ. 64 11. वही, पृ. 64 12. वही, पृ. 403 13. वही, पृ. 64, 95, 131, 190, 193, 232, 263, 403
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206
तिलकमंजरी, एक सांस्कृतिक अध्ययन
वेलावित्तक, देवज्ञ, सांवत्सर भी इसी के लिए प्रयुक्त हुआ है । देवलक मन्दिर में पूजा करने वाले ब्राह्मण को कहा जाता था ।। धनपाल ने ब्राह्मणों को भीरू कहा है। ग्रामीणों के प्रसंग में स्वरक्षा में अत्यधिक संलग्न व्यक्ति को ब्राह्मण्य प्रकट करने वाला बताया गया है ।' धनपाल के समय में द्विजों में मद्य-पान का प्रचलन नहीं था, अतः मदिरा के स्वाद-सौन्दर्य का वर्णन द्विज के लिए कर्णोत्पीड़क कहा गया है। समुद्र वर्णन में भी द्विज तथा मदिरा परस्पर विरोधी बताए गये हैं। इसके विपरीत यशस्तिलक में श्रोतियों को मादक द्रव्यों का उपयोग करते हुए बताया गया है। इससे ज्ञात होता है कि दक्षिण भारत के ब्राह्मणों में मदिरा का प्रचलन हो गया था किन्तु उत्तर भारत में इसका प्रचलन नहीं हुआ था। भत्रिय _ तिलकमंजरी में क्षत्रिय के लिए क्षत्र तथा क्षत्रिय ये दो शब्द प्रयुक्त हुए हैं। मेघवाहन को क्षत्रियों में अलंकार स्वरूप कहा गया है । क्षात्र तेज का उल्लेख किया गया है। शौर्य, तेज, धैर्य, युद्ध में दक्षता तथा अपलायन, दान एवं ऐश्वर्य, ये क्षत्रियों के स्वाभाविक गुण कहे गये हैं।' वैश्य
वैश्य के लिए तिलकमंजरी में नंगम तथा वणिक शब्दों का व्यवहार हुआ है। वणिक का व्यवहार जनता के साथ अधिक मधुर नहीं था अतः वणिक के
1. वही, पृ. 67, 321 2. दूरीकृतात्महननैरात्मनोऽविडम्बनाय ब्राह्मण्यमाविष्कुर्वद्भिः,
-वही, पृ. 119 3. किमनेन कर्णोद्वेगजनकेन द्विजस्येव मदिरास्वादसौन्दर्यकथनेन भक्ष्येतरवस्तुतस्वप्रकाशनेन ...........
-वही, पृ. 51 कुलमंदिरं मदिराया द्विजराजस्य च,
-वही, पृ. 122 5. अशुचिनि मदनद्रव्यनिपात्यते श्रोत्रियो यद्वत्, सोमदेव, उद्धृत : गोकुलचन्द्र जैन यशस्तिलक का सांस्कृतिक अध्ययन,
पृ. 60 6. तिलकमंजरी, पृ, 27, 30, 44, 51, 89 7. अलंकारः क्षत्रियकुलस्य........
-वही, पृ. 44 8. प्रक्रमप्रकटितक्षात्रतेजसा........
-वही, पृ. 30 9. तिलकमंजरी, पराग टीका, भाग 1, पृ. 98
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तिलकमंजरी में वर्णित सामाजिक व धार्मिक स्थिति
व्यवहार से जनता का क्षुब्ध रहना बताया गया है ।1 सीधे-साधे ग्रामीण जन स्वर्ण के निष्क प्राभूषण को धारण करने वाले वणिक को भी राजकीय व्यक्ति समझ बैठे 12 रंगशाला नगरी की सीमान्त भूमि के निकट नदी के किनारे वणिक भात्, दही, घी, मोदकादि विक्रेतव्य वस्तुएँ फैलाये बैठे थे । 3 वैश्रवण नामक सुवर्णद्वीप के सांयात्रिक वणिक का उल्लेख आया है । समुद्र के मार्ग से द्वीपान्तरों तक व्यापार करने वाले बड़े-बड़े व्यापारियों को सांयात्रिक वणिग् कहा जाता था । वंश्यों को स्वभावतः भीरू कहा गया है । 5 वैश्य सदा देव, द्विजाति, श्रमण तथा गुरु की सेवा में तत्पर रहता था ।
शूद्र
शूद्र का तिलकमंजरी में नाम से भिन्न निर्देश नहीं किया गया है, किन्तु एक प्रसंग में श्लेष के माध्यम से एक वर्ण कहकर शूद्र वर्ण का संकेत किया गया है । अंधकार के समूह से ग्रासीकृत समस्त विश्व एक वर्ण अर्थात् कृष्ण वर्ण का हो गया जैसे कलियुग से ग्रासीकृत समस्त जगत एक वर्णी अर्थात् शूद्र वर्ण से युक्त हो गया हो ।
अन्य जातियां तथा व्यवसाय
इन चार वर्णों के अतिरिक्त अन्य सामाजिक व्यक्तियों के उल्लेख आये हैं,
जिनसे विभिन्न व्यवसायों एवं जातियों का पता चलता है ।
।
(1) कलाब - कलाद स्वर्णकार को कहते थे दुर्जन व्यक्ति से की गई है, जो कसौटी के पाषाण के
1.
नैगमव्यवहाराक्षिप्तलोका
वही, पृ. 98
2. कनकनिष्का वृतकन्धरं वणिजमपि राजप्रसादचिन्तक इति चिन्तयद्भिः,
—वही, पृ. 118
3. वही, पृ. 117
4. वही, पृ. 127
5. ईषदपि न स्पृष्ट एष कैवर्तकुलसंपर्कदोषाशङ्किनेव वणिग्जातिसहभुवा
भीरूत्वेन .
6.
7
207
कलाद की तुलना उस समान कृष्णमुख को नीचे
....
- वही, , पृ. 130
- वहीं,
पृ. 127
सर्वदा देवद्विजातिश्रमणगुरूशुश्रूषापरस्य ...
कलयता कलिकालेनेव कलुषात्मना तमस्तोमेन कवलितं सकलमपि भुवनमेकवर्णमभवत् । -- तिलकमंजरी, पृ. 351
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तिलकमंजरी, एक सांस्कृतिक अध्ययन
कर काव्यरूपी स्वर्ण के गुणों को कहता है ।1 स्वर्णकार के कषा उपकरण का उल्लेख किया गया है।
(2) वलयकार-वलयकार हाथी दांत के कंगन बनाने वाले को कहते थे ।
(3) कुलाल-कुम्हार के लिए कुलाल शब्द का व्यवहार हुआ है । कुलाल के चक्र का उल्लेख किया गया है। प्रजापति की कुलाल से तुलना की गयी है । .... .
(4) सूत्रधार-सूत्रधार राजमिस्त्री को कहते थे। जीर्ण मन्दिरों को पुननिर्मित करने के लिए मेघवाहन ने सूत्रधारों को नियुक्त किया था ।
(5) कार्म--तृणमय गृह अर्थात् घास फूस के बंगले बनाने में कुशल व्यक्ति को कार्म कहते थे। राजा जब सैनिक प्रयाण के लिए निकलते तो राजकुल से निकलने के बाद जगह-जगह पर सैनिक पड़ाव के लिए घास फूस के राजमन्दिर बनाये जाते थे। इस कार्य में कुशल व्यक्तियों को काम कहा जाता था।
(6) मालिक-मालाकार को मालिक कहा जाता था। कांची नगरी में मालाकारों की बहुलता वणित की गई है।
(7) भिषग्-आहारमण्डल में राजा के प्रासन के समीप भोजन के परीक्षण हेतु भिषग् अर्थात् वैद्य बैठता था । भिषग् मरणासन्न व्यक्ति के धन का अपहरण कर लेता था ।10
(8) लूप-नाट्य में काम करने वाले नट को शैलूष कहा जाता था ।11 मदिरावती को रागरूपी नट की रंगशाला कहा गया है ।12
1. कपाश्मनेव श्यामेन मुखेनाधोमुखेक्षणः। .
काव्यहेम्नो गुणान्वक्ति कलाद इव दुर्जनः ॥ -वही, पृ. 2, पर 14 2. क्वचिद्वलयकारा इव कल्पितकरिविषाणाः, -वही, पृ. 89 3. वही, पृ. 145, 216 4. कुलालचक्रक्रमेण........
--तिलकमंजरी, पृ. 245 5. प्रलयार्कमण्डलोत्पत्तिमृत्पिण्डमिव प्रजापतिकुलालस्य, -वही, पृ. 216 6. शीर्णदेवतायतनेषु कर्मारम्भाय... सूत्रधारान्व्यापरयतः, -वही, पृ. 66 7. स्वकर्मावहितकार्मनिर्मिततार्णमन्दिर........ -वही, पृ. 196 8. बहुमालिकाः प्रासादाः प्रकृयश्च, .
-वही, पृ. 260 9. नपासनासन्ननिषण्णभिषजि.........
-वही, पृ. 69 10. विपत्प्रतीकारासमर्थः क्षीणायुषोऽस्य भिषगिव कथमृकथमाहरामि । 11. वही, पृ. 22, 372 12. रङ्गशाला रागशैलूषस्य........
-वही, पृ. 22
वही, पृ. 44
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तिलकमंजरी में वर्णित सामाजिक व धार्मिक स्थिति
(9) गोप या गोपाल - गोप अथवा गोपाल ग्वाले के लिए आया है । इसकी स्त्री को गोपाललना कहा गया है । गोपाललनाएं शरीरधारिणी साक्षात् गीरसश्री के समान जान पड़ती थी । गोप के लिए बल्लव शब्द भी प्रयुक्त हुआ है । 3 समरकेतु की विजय यात्रा के प्रसंग में गोशालाओं का सुन्दर चित्रण किया गया है 14
(10) सूपकार - पाक-शास्त्र में कुशल रसोइये को था । रसोइये को आरालिक तथा पौरोगव भी कहा गया है ।
(11) बालुवादिक - पारे से सोना बनाने को धातुवाद कहा जाता था तथा इस विद्या के ज्ञाता को धातुवादिक कहते थे । 7 हर्षचरित में बाण के धातुवादविद् विहगंम नामक मित्र का उल्लेख किया गया है । बाण ने अनाड़ी धातुवादियों का वर्णन भी किया है, जिन्हें उसने कुवादिक कहा है । "
(12) चित्रकृत् — चित्रकृत् तथा चित्रकर, चित्रकार को कहते थे 10 (13) कंबक - पेशेवर कथा सुनाने वाले व्यक्ति को कथक कहते थे । 11 हर्षचरित में बाण के मित्रों में कथक जयसेन का उल्लेख आया है । 18
(14) कुशीलव - नाटक में कार्य करने वाले बन्दीगणों को कुशीलव कहा जाता था 113
1. तिलकमंजरी, पृ. 117, 118
2.
गोरसश्रीमिरिव शरीरिणीमिः.... गोपाललनाभिः सर्वतः समाकुलंगकुलः,
वही, पृ. 118
3. वही, पृ. 118
4.
209
सूपकार कहा जाता
वही, पृ. 117-18
वही, पृ. 373
5.
6. वही, पृ. 69
7.
(क) रससिद्धिवेदश्च धातुवादिकस्य ........
- वही, पृ. 22
(ख) वही. पृ. 235
8.
अग्रवाल, वासुदेवशरण, हर्षचरित : एक सांस्कृतिक अध्ययन, पृ 30 9. अग्रवाल, वासुदेवशररण; कादम्बरी : एक सांस्कृतिक अध्ययन, पृ. 236 10. तिलकमंजरी, पृ. 179, 322
11. वही, पृ. 322
12.
अग्रवाल, वासुदेवशरण : हर्षचरित : एक सांस्कृतिक अध्ययन, पृ. 29 13. विस्तारितरगे: कुशीलवंरिव नदीपूरैर्नर्त्यमानम्... - तिलकमंजरी. पृ. 122
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तिलकमंजरी, एक सांस्कृतिक अध्ययन
(15) जाङ्ग लिक - विषवैद्य को जाङ्ग लिक कहते थे । इसे वातिक, महावातिक, गारूडिक, महानरेन्द्र, मन्त्रवादी भी कहते थे । 1
210
(16) कायस्थ - तिलकमंजरी के वर्णन में श्लेष द्वारा अक्षपटल में स्थित नवीन राजा के राज्य की प्रमापक कृष्णवर्ण अक्षर-पंक्ति को दर्शाने वाले कायस्थ का उल्लेख किया गया है । अक्षपटल उस सरकारी दफ्तर को कहते थे जहाँ राज्य की आय - व्यय का हिसाब रखा जाता था तथा इसके अधिकारी को अक्षपटलिक कहा जाता था । तिलकमंजरी में सुदृष्टि नामक अक्षपटलिक का उल्लेख है, जिसने राजा की श्राज्ञा से हरिवाहन को उत्तरापथ तथा समरकेतु को अंगादि जनपद कुमारमुक्ति के रूप में प्रदान किये थे । इस दफ्तर में कार्य करने वाले foपिक को कायस्थ कहा जाता था । हर्षचरित में इसी प्रकार के कर्मचारी के लिये करणि शब्द आया है, जो कायस्थ की एक उपजाति थी । यह ग्रामाक्षपटलिक का सहायक होता था । *
(17) कर्णधार - तिलकमंजरी में नौ-सन्तरण सम्बन्धी प्रभूत सामग्री प्राप्त होती है । कर्णधार नाविकों के नायक को कहते थे । कर्णधार का अनेक बार उल्लेख हुआ है। कैवर्त, धीवर' जालिक शब्द मछुए के लिए प्रयुक्त हुए हैं । पौतिक श्ररित्र चलाने वाले को तथा निर्यामक 10 नाव को आगे बढ़ाने वाले को कहते थे । नाव को कैवतों से तरण विद्या सीखने वाली विद्यार्थिनी कहा गया है । 11 तिलकमंजरी में नौवहन सम्बन्धी निम्नलिखित शब्दावली का प्रयोग हुआ है
1. तिलकमंजरी, पृ. 22, 51, 78, 89, 171, 234
2. अभिनवागतेनाक्षपटलमास्थाय कायस्थेन....
- वही, पृ. 246
3. वही, पृ. 103
4.
अग्रवाल वासुदेवशरण - हर्षचरित : एक सांस्कृतिक अध्ययन, पृ, 140-41 5. तिलकमंजरी, पृ. 125, 127, 130, 131, 187, 278, 282
6. वही, पृ. 126, 130
7. वही, पृ. 238, 283
8. वही, पृ 151, 282
9. वही, पृ. 124, 138
10. वही, पृ. 138
11. नौमिरप्यन्तेवासिनी मिस्तरण विद्यामिवोपशिक्षितु सर्वदा पादतले लठ्ठन्तीमि
- तिलकमंजरी, पृ. 126
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तिलकमंजरी में वर्णित सामाजिक व धार्मिक स्थिति
(1) सितपट – 125, 132, 140, 146
( 2 ) नाङ्गरशिला - लंगर 125, 134, 146 ( 3 ) कपूस्तम्भ – 134, 138
(4) अरित्र - पतवार 132, 138, 146
(5) बडिश - मछली पकड़ने का कांटा 126, 200
(6) जाल, श्रानाय – 126, 200, 238
(7) यानपात्र - 125, 130, 150, 138 ( 8 ) प्रवहण - 138
( 9 ) पोत - छोटी नाव 125, 130, 140 ( 10 ) नौ - 126
(18) पुलिन्द - पुलिन्द बाण चलाने वाली जंगली जाति थी । 1 अमरकोष में पुलिन्द म्लेच्छं जाति कही गयी है । 2
(19) मातङ्ग — कर्मों के विपाक से समस्त वेदों का ज्ञाता ब्राह्मण भी मातङ्ग जाति में उत्पन्न हो सकता है । मातङ्ग चण्डाल को कहा जाता था तथा यह अत्यन्त निकृष्ट माना जाता था ।
(20) नाहल – म्लेच्छ जाति विशेष | यह जाति नदियों के किनारे के वनों में रहने वाली बतायी गयी है 14
( 21 ) हूण -- मेघवाहन के दण्डनायक नीतिवर्मा ने हूणराज को युद्ध में मृत्युलोक पहुंचा दिया 15
( 22 ) किरात -- म्लेच्छ जाति विशेष 18
(23) भोल -- भील जाति का उल्लेख किया गया है। 7
(24) शबर -- शबर का अनेक बार उल्लेख हुआ है । अटवी के प्रसंग में
1. वही, पृ. 4, पद्य 26
2.
211
मेदा : किरातशबरपुलिन्दाम्लेच्छजातयः
3. सकलवेदविद्विजोsपिमातङ्गजाती जायते ।
4. उच्छलत्कूलनलवन विलीनना हलनिवहकाहलकोलाहलामि..... --
5.
समारब्धकर्मणा प्रापितः प्रेतनगरम् हूणपतिः, 6. क्रीडा किरातवंश्यानि शबरवृन्दानि ....
7.
विपक्षभीत भिल्लपतेरिव प्राकृतजनदुरारोहा..... 8. वही, पृ. 200, 239, 152, 236, 418
.
- अमरकोष - 2/10/20
- तिलकमंजरी, पृ. 406
तिलकमंजरी, 199 पृ - वही पू. 182
-वही पृ. 239 -वही, पृ 201
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तिलकमंजरी, एक सांस्कृतिक अध्ययन
शबरों की बस्ती का विशद वर्णन किया गया है। ये निषादों से भी अधिक क्रूर होते थे । बस्ती के प्रत्येक घर के चूल्हे पर शिकार किये हुए पशुओं का मांस पक रहा था, उद्यान से बंदियों के रुदन की ध्वनि आ रही थी, चोरों से अपहृत धन आपस में बांटा जा रहा था, बालकों को मृगों को आकर्षित करने वाले गीत सिखाये जा रहे थे। शबर चण्डिका देवी के उपासक थे तथा चण्डिका को नर-बलि देने के लिए पुरुषों की खोज करते थे। पत्रशबर नामक जाति का भी उल्लेख हुआ है। पत्रशबर शबरों की वह जाति थी, जो छोटा नागपुर तथा बस्तर के जंगलों में शबरी नदी के दोनों ओर निवास करती थी।
आश्रम-व्यवस्था __ आश्रम व्यवस्था का प्रमुख आधार मनु का यह सिद्धान्त है- शतायुर्वेपुरुषा : । इसका अर्थ यह नहीं है कि सभी व्यक्ति सौ वर्ष जीवित रहते हैं, इसे अधिकतम आयु मानकर मनुष्य जीवन को चार भागों में विभक्त किया गया था। यही चार आश्रम कहलाये । जीवन के प्रथम भाग में व्यक्ति गुरू के पास प्रध्ययन करता था, यह ब्रह्मचर्य कहा गया। द्वितीय भाग में वह विवाह करके गृहस्थ जीवन का पालन करता एवं पुत्रोत्पत्ति द्वारा पितृ-ऋण तथा यज्ञों द्वारा देव-ऋण से मुक्ति प्राप्त करता । इसे गृहस्थाश्रम कहा गया। जब व्यक्ति के बाल सफेद होने लगते, तो जीवन की तीसरी अवस्था में वह गृह त्याग कर वनवास धारण कर लेता । इसे वानप्रस्थ कहा गया। इनके पश्चात् व्यक्ति अपने जीवन की अंतिम अवस्था में सर्वस्व त्याग कर सन्यास धारण कर लेता। इसे सन्यासाश्रम कहा गया।
तिलकमंजरी में चार आश्रमों का उल्लेख किया गया है। मेघवाहन के लिए कहा गया है कि समस्त पृथ्वी रूपी तपोवन की रक्षा करते हुए भी वह
1. वही, पृ. 200 2. तिलकमंजरी, पृ. 200 3. पत्रशबरपरिबह वहद्भिः ,
-वही पृ 236 4. अग्रवाल वासुदेवशरण, कादम्बरी : एक सांस्कृतिक अध्ययन, पृ. 193 5. Kane, P. V. ; History of Dharmasastra, Vol. II, Part
I,P. 417. 6. चत्वार आश्रमा गार्हस्थ्यमाचार्यकुलं मौनं वानप्रस्थमिति । .
-आपस्तम्ब धर्मसूत्र ॥ 9/21/1 7. Kane, P V.; History of Dharmasastra Vol. II,Part I,P.417 .
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तिलकमंजरी में वर्णित सामाजिक व धार्मिक स्थिति
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चारों आश्रमों का रक्षक था। मेघवाहन ने व्रत-पर्यन्त ब्रह्मचर्य का पालन किया था। गृहस्थाश्रम का अनेक बार उल्लेख हुआ है । अपनी पत्नी का भरणपोषण गृहस्थ व्यक्ति का धर्म कहा गया है । पत्नी द्वारा ही गृहस्थाश्रम की सिद्धि कही गयी है । अभ्यागत द्वारा दी गयी वस्तु को ग्रहण करना गृहस्थ के लिए अत्यन्त लज्जाजनक था, इसे दरिद्र गृहस्थ ही स्वीकार करता था । तिलकमंजरी में वानप्रस्थ आश्रम में स्थित वैखानसों का उल्लेख पाया है। जीवन की आधी अवधि समाप्त हो जाने पर राजा भी राज्य त्याग कर पत्नी सहित वानप्रस्थ आश्रम में प्रवेश करते थे। पारिवारिक जीवन एवं विवाह
पारिवारिक जीवन में संयुक्त प्रणाली प्रचलित थी, जो गुरूजनों के प्रति आदर-सत्कार की भावना पर आधारित थी। गुरूजन जो भी करणीय अथवा अकरणीय कृत्य करते, उसका बिना विचार किये अनुसरण करना छोटों का कर्तव्य था । गुरुजन भी छोटों की मनोवृत्ति जानकर उनके अनुकूल ही कार्य करते थे।10
स्त्री का स्थानः-डॉ. अल्टेकर11 के अनुसार दसवीं शती में स्त्रियों की स्थिति बहुत सम्मानजनक थी। सम्भ्रान्त परिवारों में स्त्रियों को उच्च शिक्षा दी
1. रक्षिताखिलक्षितितपोवनोऽपि बातचतुरााश्रमः, -तिलकमंजरी, पृ. 13 2. गृहीतब्रह्मचर्यस्य दिवसाः कतिचिदतिजग्मुः ।। -वही, पृ. 35 3. स्वदारपरिपालनकर्म गृहमेधिनां धर्म :
-वही, पृ. 318 4. पालनीया गृहस्थाश्रमस्थितिः
-वही, पृ. 28 5. याचकद्विज इव कथं प्रतिग्रहमंगीकरोमि गृहाभ्यागतेनामुना दीयमानं दुर्गतं
गृहस्थ इव गृहनन्नपरं लघिमानमासादयिष्यामि.... -तिलकमंजरी, पृ. 44 6. तिलकमंजरी, पृ. 258, 329, 358 7. ततो धृताधिज्यधनुषि भुवनभारधारणक्षमे....गमिष्यति पश्चिमे वयसि वनम्
वही, पृ. 33 8. वही, पृ. 9, 300 9. यदेव गुरवः किंचिदादिशन्ति यदेव कारयन्ति कृत्यमकृत्यं वा तदेव निर्विचारे:
कर्तव्यम्, विचारो हि तद्वचनेष्वनाचारो महान् । -वही, पृ. 300 10. अविज्ञाय मच्चित्तवृतिम्....नरपतीनाम्....
-वही, पृ. 299 11. Altekar,A.S.; The Position of Women in Hindu Civilizat
ion, p. -0-21
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तिलकमंजरी, एक सांस्कृतिक अध्ययन
जाती थी। संगीत, नृत्य चित्रकलादि कलाओं में पूर्ण दक्षता प्राप्त करना इनके लिए अनिवार्य था।
तिलकमंजरीकालीन समाज में स्त्रियों की स्थिति अत्यन्त सम्मानजनक थी। राजा मेघवाहन विद्याधरा मुनि को मदिरावती का परिचय प्रदान करते हुए कहता है कि इसी से हमारी त्रिवर्ग सम्पत्ति सिद्ध होती है, शासन-भार हल्का लगता है, भोग स्पृहणीय है, यौवन सफल है, उत्सव आनन्ददायक है, संसार रमणीय जान पड़ता है तथा इसी से गृहस्थाश्रम पालनीय है। राजा भी किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाने पर अपनी महारानी से ही परामर्श लेता था । कांची नरेश कुमुमशेखर ने मलयसुन्दरी के विषय में अपनी पत्नी गन्धर्वदत्ता से सलाह ली थी।
धनपाल ने अयोध्या नगरी के वर्णन में स्त्रियों के दो प्रमुख रूपों का वर्णन किया है-कुलवधूएं तथा वारवधूएं । कुलवधूएं सदा गृहकार्यों में निमग्न रहती थीं। वे गुरुजनों के वचनों का पालन करने वाली, स्वप्न में भी देहरी न लांघने वाली, शालीन, सुकुमार तथा पतिव्रत धर्म का पालन करने वाली थीं। क्रोधित होने पर भी उनके मुख पर विकार उत्पन्न नहीं होता था, अप्रिय करने पर भी, वे विनय का साथ नहीं छोड़ती थी, कलह में भी कठोर वचनों का प्रयोग नहीं करती थीं।
धनपाल ने कुलवधूओं के रूप में स्त्री के जिस आचरण का प्रतिपादन किया है, वह भारतीय संस्कृति का आदर्श है । अतः वे कुलवधूएं मानों मूर्तिमती समस्त पुरुषार्थों की सिद्धियों के समान थीं।।
इसके विपरीत वाखनिताओं का आचरण वरिणत किया गया है । ये नृत्य गीतादि कलाओं में कुलक्रमागत निपुणता से पूर्ण होती थी। अपने एक कटाक्षपात से ही वे राजाओं का सर्वस्व हरण करने में समर्थ थीं। किन्तु वे केवल धन से ही नहीं अपितु गुणों से भी आकृष्ट होती थीं।
1. अनयास्माकमविकला त्रिवर्गसम्पत्तिः........गृहस्थाश्रमस्थितिः,
-तिलकमंजरी पृ. 28 2. एवं स्थिते कर्त्तव्यमूढ़े में हृदयमिदमपेक्षतेतवोपदेशम् । आदिश यदत्र सांप्रतंकरणीयम् ।
-वही पृ. 327 3. वही, पृ. 9-10 4. सततगृहव्यापारनिषण्णमानसामिः................कुलप्रसूताभिरलंकृता वधूमिः,
____ वही, पृ.9 6. इतरांभिरपि त्रिभुवनपताकायमानाभिः........साक्षादिव कामसूत्र विद्यामि
विलासिनीभिः............................... -वही, तिलकमंजरी पृ. 9-10
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तिलकमंजरी में वर्णित सामाजिक व धार्मिक स्थिति
धनपाल ने एक अन्य प्रसंग में स्त्रियों को पुरुष को स्वभावतः सरल बताया है । 1 स्त्रियां मृत्यु का भी आश्रय ले लेती किन्तु अन्य पुरुष की अभिलाषा नहीं करती थी । 2
कुटिल प्रकृति का अपने चरित्र की
1. कुटिलस्वाभावास्त्रियः निसर्ग सरलः पुरुषवर्गः
2.
अस्य च ....
त्यागस्य,
धनपाल ने स्त्री के रमणीय स्वरूप के अतिरिक्त स्त्री के कठोर रूप का भी वर्णन किया है । तिलकमंजरी तथा पत्रलेखा के प्रसंग में शस्त्रधारिणी अंगरक्षक स्त्रियों का वर्णन किया गया है । वनविहार के समय पत्रलेखा सैकड़ों अंगरक्षक स्त्रियों से घिरी हुई थी। इन स्त्रियों ने तलवारें धारणा की थीं। इनको इस कार्य के लिए विशेष प्रशिक्षण दिया जाता था ।4 मलयसुन्दरी से मिलने के लिए जब तिलकमंजरी उसके पास आती है तो वह भी अनेकों अंगरक्षक स्त्रियों से घिरी होती है उन अंगरक्षक स्त्रियों ने मोतियों के जड़ाव से युक्त सोने के कवच धारण किये थे तथा वे विभिन्न रंगों के रत्नों से जड़ित अतः चितकबरे रंग की कार्मरंगी ढालें लिए थीं । कार्मरंग ढालें कर्मरंग द्वीप में बनने वाली चमड़े की गोल ढ़ालें थी । कर्मरंग द्वीप । जिसे कादरंग या चर्मरंग भी कहते थे, हिन्देशिया का प्रमुख द्वीप माना जाता था । हर्षचरित में भी सुनहरे पत्रलता के अलंकरण से सज्जित कार्दरंग ढ़ालों का उल्लेख किया गया है ।8 डा. अल्टेकर ने भी राजकीय परिवारों में स्त्रियों को प्रशासकीय तथा सैनिक शिक्षा दिये जाने की पुष्टि की है ।
4.
215
वही, पृ. 316 निजचारिवरक्षणार्थमेव केवलमध्यवसितस्य जिवितपरि
- ही पृ. 306
3. घृतासिफलकाभिः परिवृता समन्तत .... ....अङ्गरक्षाधिकारनियुक्ताभिरङ्गनाभि
5.
6.
7.
कहा है तथा रक्षा के लिए
8.
9.
-वही पृ. 341
(क) साधितमहाप्र भावविधाविवृद्धपौरूषावलेपामिः
वही पृ. 341 वही पृ. 361
(ख) प्रोढ़ विद्याबलविवृद्ध शौर्यावलेयामिः ...
मुक्ताफलखचितवामीकरवर्ममिरनेकरत्न किर्मीरकार्मरङ्गा सिपट्टप्रणभ्यरमणीय
वही, पृ. 361
भीषरणामिः........
तिलकमंजरी, पृ. 361
....... तदन्यद्धीपसमुद्भवा
मंजुश्रीमूल कल्प - कर्म रङ्गाख्यद्वीपेषु... उद्घृत अग्रवाल वासुदेवशरण, हर्षचरितः एक सांस्कृतिक अध्ययन, पृ. 159 वही, पृ. 159
Altekar A S. the position of Women in Hindu civilization p. 20-21.
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तिलकमंजरी, एक सांस्कृतिक अध्ययन
विवाह .
षोडश संस्कारों में विवाह को सर्वाधिक महत्वपूर्ण माना गया है। क्योंकि यह समस्त गृह्य यज्ञों तथा संस्कारों का उद्गम अथवा केन्द्र है ।। स्मृतियों के अनुसार विवाह के आठ प्रकार माने गये हैं ब्राह्म, देव, अर्ष, प्राजापत्य, असुर, गान्धर्व, राक्षस तथा पशाच । प्रथम चार प्रकार प्रशस्त माने जाते हैं तथा अंतिम चार अप्रशस्त । प्रथम सर्वोत्तम तथा अंतिम दो वजित किन्तु वैध माने जाते थे।
तिलकमंजरी में (1) ब्राह्म (2) गान्धर्व (3) राक्षस तथा (4) स्वयंवर इन चार प्रकार के विवाहों का उल्लेख है ।
बाह्म विवाह-यह विवाह का शुद्धतम सर्वाधिक विकसित प्रकार माना गया है। इसे ब्राह्म विवाह कहते थे, क्योंकि यह ब्राह्मणों के योग्य समझा जाता था । इसमें पिता विद्वान तथा शीलसम्पन्न वर को स्वयं आमन्त्रित कर तथा उसका विधिवत् सत्कार कर उससे शुल्कादि स्वीकार न कर दक्षिणा के साथ यथाशक्ति वस्त्राभूषणों से अलंकृत कन्या का दान करता था। तिलकमंजरी में समरकेतु तथा मलयसुन्दरी का विवाह इसी कोटि का है ।
(2) गान्धर्व:-मनु के अनुसार जब कन्या और वर कामुकता के वशीभूत होकर स्वेच्छापूर्वक परस्पर संयोग करते हैं तो विवाह के उस प्रकार को गान्धर्व कहते हैं
इच्छाया न्योन्यसंयोगः कन्यायाश्च वरस्य च ।
गान्धर्वस्य तु विज्ञेयो मथुन्य: कामसम्भवः ।। हिमालय की तराई में रहने वाले गन्धर्वो में विशेष रूप से प्रचलित होने के कारण इसे गान्धर्व कहा जाता था। तिलकमंजरी में दो प्रसंगों में गान्धर्व विवाह का उल्लेख है। नाविक तारक ने प्रियदर्शना के साथ पाराशर द्वारा योजनगन्धा के सदृश गान्धर्व विवाह किया था। इसी प्रकार कांची नरेश कुसुमशेखर ने गन्धर्वदत्ता के साथ गान्धर्व विधि से विवाह किया था ।
1. पांडेय, राजबली, हिन्दू संस्कार, पृ. 195 2. वही, पृ. 203 .. 3. पांडेय, राजबली, हिन्दू संस्कार, पृ.207-8 4. तिलकमंजरी, पृ. 129 5. तामुपयक्य सम्यग्विहितेन विवाहविधिना गान्धर्वेण गर्वोदरः स्वनगरी काँचीमगच्छत् ।
-वही, पृ. 343
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(3) राक्षस कन्या का बलपूर्वक मथवा उसकी स्वीकृति से हरण कर विवाह करना राक्षस विवाह था । बन्धुसुन्दरी समरकेतु से मलयसुन्दरी का अपहरण कर विवाह करने को कहती है किन्तु यह विधि अत्यन्त गहित व लज्जाजनक मानी जाती थी।
(4) स्वयंवर–स्वयंवर विधि से विवाह करने का अनेक बार उल्लेख है । राज-परिवारों में स्वयंवर विधि से विवाह करने का आम-रिवाज था अतः राजकन्या के लिए स्वयंवर विधि से विवाह करना अनुचित नहीं माना गया है। तारक मलयसुन्दरी से समरकेतु के साथ विवाह के लिए स्वयंविधि का अनुसरण करने के लिए कहता है । समरकेतु को मलयसुन्दरी का 'स्वयंवृतवर' कहा है । स्वयंवर समारोह का उल्लेख किया गया है, जिसमें रूपवती राजकन्या के अद्वितीय रूप से आकृष्ट अनेक राजा उपस्थिति हुए थे। स्वयंवर में कन्या गले में वरमाला डालकर, अपने अभिलषित पुरुष का वरण कर लेती थी हरिवाहन तिलकमंजरी का चित्र देखकर कहता है कि न जानें इसकी स्वयंवर-माला किस के गले का आभूषण बनेगी।
अन्तरजातीय विवाह का भी उल्लेख है । तारक नामक वैश्यपुत्र ने शूद्र-पुत्री प्रिय दर्शना से विवाह किया था 18
- विवाह से पहले लग्न स्थापित किया जाता था । विवाह मण्डप का उल्लेख किया गया है । 0 मलयसुन्दरी तथा समरकेतु के विवाहोत्सव का सुन्दर वर्णन किया गया है ।
1. किं च हत्वा गत इमामवनिर्दोषगीतचरितस्य तस्यापि पितुरात्मीयस्य दशयिष्यामि कथमात्मानम् ।
-वही, पृ. 326 2. वही, पृ. 285, 288, 175, 142, 310 3. अविरूद्धो हि राजकन्याजनस्य स्वयंवरविधिः, -तिलकमंजरी, पृ. 288 4. आश्रय स्वयवररयथम्................ .
-वही, पृ. 285 5. स्वयंवृतो वरस्त्वदीयायाः स्वसुर्मलयसुन्दर्या ....... ....... -वही, पृ. 231 6. प्रकृष्टरूपाकृष्टसकलराजकस्य कन्यारत्नस्य स्वयंवरप्रकमेण ... वही, पृ. 142 7. कस्य संचिताकुण्ठतपसः कन्ठकान्डे करिष्य.... स्वयंवरस्रक । वही, पृ 175 8. स्वजातिनिरपेक्षस्तत्रवक्षणे
वही, पृ. 129 9. स्यापितम् लग्नम्,
वही, पृ. 422 10. विवाहमण्डपमिव दृश्यमानामिनवशालाजिरसंस्कारम्, ___वही, पृ. 371 11. वही, पृ. 422-23-25-26
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(5) मेले, त्योंहार, उत्सवादि
तिलकमंजरी में जन्ममहोत्सव, कामदेवोत्सव, कौमुदी महोत्सव, दीपोत्सवादि
का वर्णन किया गया है ।
जन्ममहोत्सव — पुत्र तथा पुत्री दोनों के जन्म पर महान उत्सव किया जाता था । यह उत्सव मास पर्यन्त चलता था ।" हरिवाहन के जन्मोत्सव का सजीव वर्णन किया गया है। हरिवाहन के जन्म का समाचार पाते ही समस्त नगर में उल्लास का वातावरण छा गया । घर-घर में काहल, शंख, झल्लरी मुरज पटहादि वाद्य बजाये गये । रंगावलियां सजायी गयी। राजा से पूर्णयान ग्रहण करने के लिए अन्तःपुर की वाखनिताओं में होड़ सी लग गयी । उत्सवों पर बेलाद् छीनकर जो वस्त्र आभूषणादि उतार लिए जाते उसे पूर्णपात्र कहा जाता था । 3 अन्तःपुर सहित नगर की सभी स्त्रियां श्रानन्द-विभोर होकर नृत्य करने लगी । पाठशालाओं में अवकाश घोषित कर दिया गया । कारागार से बन्दीजनों को मुक्त कर दिया गया । हर्षचरित में भी हर्ष के जन्म पर बंदियों को मुक्त करने का उल्लेख है ।
इसी प्रसंग में सूतिका - गृह तथा इस अवसर पर सम्पन्न किये जाने वाले मांगलिक कार्यों का वर्णन किया गया है। प्रसूति गृह के बाहर पल्लवों से ढके हुए दो मंगल कलश रखे गये थे । नंगी तलवारें लिए सैनिक उसकी रक्षा कर रहे थे,
दुष्ट वक्र दृष्टि से बचाव करने के लिए गुग्गुल धूप का धुंआ उठाया गया था, मंगल-गीतों का शोर हो रहा था, लौकिकाचार में कुशल वृद्धा स्त्रियां विभिन्न आदेश दे रही थी, जिनसे तत्काल सम्पन्न किये जाने वाले मांगलिक कार्यों का संकेत मिलता है । शिशु जन्म पर द्वार पर वन्दनमाला बांधी जाती थी, जगहजगह स्वस्तिक लिखे जाते, शांति जल छिड़का जाता था, षष्ठी देवी का अह्वान
-तिलकमंजरी, पृ. 168
1. (क) जन्मदिन महोत्सवश्री ..... (ख) वही, पृ 263, पृ 76-77
2. वही, पृ. 76-77
3. उत्सवेषु सुहृद्भिर्यद् बलादाकृष्य गृहयते । वस्त्रमाल्यादि तत्पूर्णपात्रं पूर्णनकं च यत् ....
- वही, पराग टीका, भाग 2, पृ. 182
वही, पृ. 76 वही, पृ. 77
- बाणभट्ट हर्षचरित, पृ. 129
4. कृताध्ययनभङ्गविद्वज्जन.... अन्तेवासिमण्डलानि । 5. विमोचिताशेषबन्धनः ....
6. मुक्तानि बन्धनवृन्दानि ....
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किया जाता था । षष्ठी देवी सोलह मातृकाओं में पूज्यतम मानी गयी है । यह कार्तिकेय की पत्नी तथा विष्णु की भक्त कही गयी है ।। कादम्बरी में रानी विलासवती के द्वारा पुत्रप्राप्ति के लिए मातृदेवियों की मानता मानने का उल्लेख है।' हर्षचरित में भी मातृकासंजक देवियों का उल्लेख किया गया है।
जातमातृ देवी की आकृति सूतिकागृह में लिखी जाती थी।' कादम्बरी में भी सूतिका गृह के वर्णन में इसका उल्लेख आया है। हर्षचरित के टीकाकार शंकर ने इसे जातमातृदेवता मार्जारानना बहुपुत्रपरिवारा सूतिकागृहे स्थाप्यते कहा है। इसका अपरनाम चचिका देवी भी था। यह परमार नरेशों की कुलदेवी थी। परमार नरेश नरवर्मदेव के भिलसा-लेख में चचिका देवी की स्तुति की गयी है।
आर्यवृद्धा देवी का पूजन किया जाता था । कादम्बरी में सूतिका-गृह के भीतर श्वेत पलंग के सिरहाने अक्षत चावल बिछाकर उनके ऊपर बीच में देवी आर्यवृद्धा की मूर्ति रखकर पूजा करने का उल्लेख मिलता है। डॉ. अग्रवाल के मत में आजकल लोक में प्रचलित बीहाई अथवा बीमाता ही प्राचीन आर्यवृद्धा थी
___ जन्म के छठे दिन रात्रि में जागरण किया जाता था।10 इसे षष्ठी जागर कहा जाता था। लोक में ऐसी मान्यता थी कि बीमाता बच्चे को देखने के लिए छठी पूजन की रात्रि को अवश्य आती है और उसके भाग्य का शुभाशुभ फल लिख जाती है, इसीलिए उस रात में जागरण किया जाता है। आज भी उत्तरप्रदेश में छठी पूजन किया जाता है । जन्म के दसवें दिन नामकरण संस्कार किया जाता था, जिसमें विप्रों को स्वर्ण तथा गायों का दान दिया जाता था।
1... तिलकमंजरी, पराग टीका, भाग 2, पृ. 185 2. अग्रवाल वासुदेवशरण, कादम्बरी एक सांस्कृतिक अध्ययन, पृ. 76 3. वही, हर्षचरितः एक सांस्कृतिक अध्ययन, पृ. 65 4. आलिखत जातमातृपटलम्,
-तिलकमंजरी, पृ. 77 5 अग्रवाल वासुदेवशरण : कादम्बरी : एक सांस्कृतिक अध्ययन, पृ. 83 6. वही, पृ. 83.. 7. भंडारकर लेख सूचि, 1658, उद्धृत : वासुदेवशरण अग्रवाल, हर्षचरितः
एक सांस्कृतिक अध्ययन, पृ. 66 8. प्रारमध्वमार्यवृद्धासपर्याम्,
___-तिलकमंजरी, पृ. 77 9. अग्रवाल वासुदेवशरण, कादम्बरी : एक सांस्कृतिक अध्ययन, पृ. 86 10. अतिक्रान्ते च षष्ठीजागरे,
-तिलकमंजरी, पृ. 78 11. समागते च दशमेऽहि....हरिवाहन इति शिशो म चक्रे । वही, पृ. 78
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. वसन्तोत्सव-वसन्तोत्सव उस समय का एक बड़ा उत्सव था, जो बड़े धूमधाम से मनाया जाता था। तिलकमंजरी में वसन्तोत्सव का अनेक स्थलों पर उल्लेख किया गया है। यह उत्सव चैत्र मास की शुक्ल त्रयोदशी के दिन मनाया जाता था । चैत्र मास में होने के कारण इसे चैत्रोत्सव और चैत्रीयत्रा भी कहते थे। इस दिन प्रत्येक घर में रक्तांशुक वस्त्र की कामदेव की पताकाएं फहरायी जाती थी। नगर के निवासी सजधज कर कामदेव का यात्रोत्सव देखने नगरोद्यान में निर्मित कामदेव के मंदिर में जाते थे। इसका स्त्रियों के लिए विशेष महत्त्व था। आसन्न-विवाहा कुमारियों के लिए तो इसका अलग ही महत्त्व था।? अन्तःपुर में गीत तथा नृत्य की गोष्ठियां आयोजित की जाती थी। कामदेव मंदिर में विभिन्न प्रकार के मनोरंजक खेल दिखाये जाते थे, जिनमें कृत्रिम हाथी घोड़ों के खेल प्रमुख थे । विटजन एवं वैश्याएं रास नृत्य करते एवं परस्पर रंगभरी पिचकारियों से रंग खेलते थे। पानोत्सव मनाया जाता था।
युद्ध के प्रसंग में अनंगोत्सव की तिथि आने पर वज्रायुध द्वारा उत्सव मनाया गया था ।10 मृदंगों की ध्वनि के साथ पानोत्सव किया जाता था तथा स्त्रियों के मधुर गीतों को सुनते हुए रात भर मदन जागरण किया जाता था।
वस्तुतः मदनोत्सव फाल्गुन से लेकर चैत्र के महीने तक मनाया जाता था । इसके दो रूप थे, एक सार्वजनिक धूमधाम का तथा दूसरा अन्तःपुरीकारों के
1. अति हि महानुत्सवोऽयम्,
वही, पृ. 300 2. वही, पृ. 12 84 95 108 298 302 303 304 305 322 3. (क) मधुमासस्य शुद्धत्रयोदश्यामहमहमिका.... वही, पृ. 108
(ख) अद्यमदनत्रयोदशीप्रवृत्ता मन्मथायतने यात्रा.... वही, पृ. 298 4. वही, पृ. 302, 323, 5. वही, पृ. 12, 108 6. वही, पृ 298, 323 7. प्राराधनीयः सर्वादरेण सर्वस्यापि विशेषतः समुपस्थितासन्नपाणिग्रहण मंगलानां कुमारीणाम् ।
-वही, पृ. 300 8. प्रवृत्तासु निर्भरं गीतनृत्तगोष्ठीषु,
-तिलकमंजरी, पृ. 302 9. वही, पृ. 323-24, पृ. 108 10. एकदा वसन्तमये प्राप्ते च समागतायामनङ्गोत्सवतिथावतीते.... वही, पृ. 83 11. श्रूयमाणेष्वापानकमृदंगध्वनिषु शयनमंदिराङ्गण .. प्रारब्धमदनजागरस्य जायाजनस्य गीतकान्याकर्णयति।
-वही, पृ. 84
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परस्पर विनोद तथा कामदेव के पूजन का । तिलकमंजरी में दोनों ही रूपों का 'वर्णन है । हर्ष की रत्नावली नाटिका में इसका अत्यन्त सजीव वर्णन किया गया है। भवभूति ने भी मालतीमाधव नाटक में मदनोत्सव का स्निग्ध चित्र खींचा हैं।
कौमुदीमहोत्सवः- कांची नगरी के नागरिकों द्वारा कौमुदीमहोत्सव मनाये जाने का उल्लेख किया गया है। वात्स्यायन के कामसूत्र में कौमुदीजागरण अर्थात् चांदनी रात में जागकर क्रीड़ा करने का उल्लेख है। कौमुदीमहोत्सव से यही अभिप्राय जान पड़ता है। डॉ. हजारीप्रसाद ने प्राचीन भारतवर्ष में मनाये जाने वाले ऋतु सम्बन्धी उत्सवों में दो प्रमुख उत्सवों की गणना की हैवसन्तोत्सव तथा कौमुदी महोत्सव । कौमुदीमहोत्सव शरदऋतु में मनाया जाता था।
- दीपोत्सवः- समरकेतु द्वारा वर्णित आयतन के प्रसंग में दीपोत्सव का उल्लेख किया गया है । मदिर के शिखर भाग में जड़े हुए पद्मराग कलशों की दीप्ति से मानों असमय में दीपोत्सव आयोजित हो रहा था । आज भी दीपावली का उत्सव सम्पूर्ण भारतवर्ष में पूर्ण उत्साह के साथ मनाया जाता है । कृषि तथा पशुपालन व्यापार, समद्री व्यापार, सार्थवाह, कलान्तर, न्यासादि
कृषि तथा पशुपालन:- समरकेतु के प्रयाण के समय ग्रामीणों के वर्णन में कृषि सम्बन्धी अनेक उल्लेख आये हैं। ग्रामपति की पुत्री का सान्निध्य प्राप्त होने पर ग्रामीण, सैनिकों द्वारा खलिहान से ले जाये जाते हुए समस्त बुस (यवादिखान्य) को बुस (भूसा) समझकर उसकी अवहेलना कर रहे थे । कुछ ग्रामीण
1. द्विवेदी, हजारीप्रसाद, प्राचीन भारत के कलात्मक मनोरजन, पृ. 106-107 2. हर्षदेव रत्नावली, प्रथम अंक, पद्य 8-12 3. भवभूति, मालतीमाधव 4. सर्वान्तःपुरपरीता शुद्धान्तसौधशिखरात्पुरजनप्रवर्तितं कौमुदीमहोत्सवमवलोकयन्ती।
__ तिलकमंजरी, पृ. 271 5. - द्विवेदी, हजारीप्रसाद, प्राचीन भारत के कलात्मक विनोद, . पृ. 106 6. ज्वलभिरूच्छिन्नः पद्मरागकलशः प्रकाशिताकालदीपोत्सवविलासम्....
-तिलकमंजरी, पृ. 154 7. खलधानतः साधनिलोकेन निखिलमपि नीयमान बुसंबुसाय मत्वावधिरयद्मिः ....
-वही, पृ. 119
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अपने जो की रक्षा करने के लिए लोभी लढतों को रिश्वत दे रहे थे ।। गन्ने के खेतों को लूटे लिये जाने पर किसान दु:खी हो रहे थे, जिन्हें ग्रमीण दण्डित लुटेरों के किस्से सुनाकर आश्वासन दे रहे थे। इससे ज्ञात होता है कि लुटेरों को राजा की ओर से दण्डित किया जाता था तथा सेना के प्रयाण के समय खेतों की रक्षा के लिए रक्षक टुकड़ियां भी भेजी जाती थी।
खेतों के समूह के लिए केदार, क्षेत्र शाकट वाट वन हेय शब्दों का प्रयोग हुआ है। पुण्ड्रे क्षु कलम, शालि, इक्षु तथा प्रीहि के खेतों का उल्लेख आया है । द्वीपान्तरों के प्रसंग में चन्दनवृक्षों की बाड़ लगाकर खेतों की रक्षा करने का उल्लेख भाया हैकृषि के लिए केवल वर्षा पर निर्भर न रहकर रहट का प्रयोग किया जाता था। रहट को अरघट्ट तथा घटीयन्त्र कहा जाता था । हर्षचरित में भी घटीयन्त्र का उल्लेख पाया है। इससे ज्ञात होता है कि सातवीं शती के पहले ही रहट का प्रचार हो गया था। खेती का प्रमुख साधन हल था। सीर तथा युग शब्दों का उल्लेख आया है ।' कृषकों की स्त्रियां भी उनके कार्य में हाथ बटाती थी। वे खेतों की रखवाली करने का कार्य करती थी। कामरूप देश के प्रसंग में शालि धान्य के खेतों में हाथ से ताली बजाकर सुग्गों को उड़ाने वाली गोपिकाओं का वर्णन किया गया है ।
1. कैश्चिद्गृहयमाणयवसरक्षणव्यग्रैरर्थलोभादमिलषितलंचानां लंचयाला कुटिकानां क्लेशमनुभवद्मिः....
-वही, पृ. 119 2. कैश्चिद्........निगृहीतलुण्टाकवातवार्तया लुण्टितेषुवाटदुःखदुर्बलं कृषीवललोकमपशोकं कुर्वद्भिः ........
-तिलकमंजरी, पृ.119 . 3. कश्चिज्जवप्राप्तपरिपालकव्यूहरक्षितसुजातव हेयरनेकधानरेन्द्रमभिनन्दयभिः
___ -वही, पृ. 119 4. चन्दनविटपवृत्तिपरिक्षेपरक्षितक्षेत्रवलयानि.... -वही, पृ. 133 5. (क) मधुरता रघटीयन्त्रचीत्कारैः........
-वही, पृ. 8 (ख) चीत्कारमुखरितमहाकूपारघट्टा........ -वही, पृ. 11 (ग) जगदुपवनं सेक्त ....सुघटितकाष्ठस्य गगनारघट्टस्य घटीमालयेव,
-वही, पृ. 121 6. कुपोदंचनघटीयन्त्रमाला......... -बाणभट्ट, हर्षचरित, पृ. 104 7. (क) युगायतं निजमेव मुजयुगलम्, __ -वही, पृ. 144 (ख) एष दशसीरसहस्रसमितसीमा,
-वही, पृ. 181 8. उत्तालशालिवनगोपिकाकरतलतालतरलितपलायमान कीरकुलकिलकिलाखयन्त्रितपथिकयात्रम्........
-वही, पृ. 182
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कृषि के अतिरिक्त पशुपालन तत्कालीन समाज का प्रमुख व्यवसाय था । समरकेतु के प्रयाण के प्रसंग में नगर की बाहरी सीमा पर बड़ी-बड़ी गोशालानों का सचित्र वर्णन किया गया है ।1 गोशालाओं में कुत्ते भी पाले जाते थे । जो निरन्तर गोरस के पान से अत्यन्त परिपुष्ट काया से युक्त थे । 2 गोशालाओं का स्वामी घोषाधिय कहलाता था । समरकेतु के स्कन्धावार में बैलों की रोमन्थलीला का एक साथ छोड़ना तथा एक दूसरे को सीगों से मारकर घास चरने का स्वाभाविक वर्णन किया गया है। ग्रामीणजन समरकेतु की सेना के प्रयाण के समय बैलों को देखकर उनके प्रमाण, रूप, बल तथा वृद्धि के अनुसार उनके मूल्य का अनुमान लगा रहे थे । 5
व्यापारः - तिलक मंजरी में ऐसे अनेक उल्लेख आये हैं जिससे तत्कालीन वाणिज्य व्यवस्था का पता चलता है । यह व्यवस्था दो प्रकार की थी- स्थानीय एवं बाहरी बाहरी व्यापार में देश के अन्य भागों के अतिरिक्त द्वीपान्तरों तक व्यापार होता था। इसके लिए समुद्री मार्ग तथा सार्थवाह ये दो साधन थे ।
स्थानीय व्यापार के लिए बाजारों की व्यवस्था होती थी जिन्हें वीथीगृह तथा विपणि पथ कहा जाता था । ये बाजार प्रायः राजमार्ग पर होते थे तथा इनके दोनों ओर स्वर्ण के बड़े-बड़े प्रासाद निर्मित रहते थे । अयोध्या नगरी की स्वर्णमय प्रासाद पंक्तियों के मध्य हीरे-जवाहरात के विपणि पथ ऐसे लगते थे मानों सुमेरू पर्वत पर सूर्य के रथ के चक्र-चिह्न बने हों । व्यापारी को प्रापणिक कहा जाता था । पण्य विक्रेतव्य वस्तु के लिए प्रयुक्त किया जाता था । मध्याह्न
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1. तिलकमंजरी, पृ. 117 118 2. वही, पृ. 117
3. वही, पृ. 117
4. समकालशिथिलितरोमन्थलीलं सहेलमुत्थाय चरति सति पुञ्जितमग्रतः प्रयत्न- संगृहीतं यवसमन्योन्यतुण्डता डनरणाद्विषाणे वृषगणे.....
5. प्रमाणरूपबलोपचयशालिनां प्रत्येकमनडुहां मूल्यमानं.... (क) वीथीगृहाणां राजपथातिक्रमः,
6.
( ख ) वही, पृ. 8, 67, 84, 124
7. गिरिशिखरततिनिमशातकुम्भप्रासादमाला..
प्रसाधिता,
8. वही, पृ. 67, 84
9. वही, पृ. 67, 84, 124
-तिलकमंजरी, 124 पृ. वही, पृ. 118 वही, पृ. 12
...पथुलायतैर्विपणिपर्थः
...........
- तिलक मंजरी, पृ. 8
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काल में व्यापारी जब अपने घर जाते तो सभी वस्तुओं को समेटकर द्वार पर कालायस का ताला लगा देते थे । समरकेतु के सैनिक पड़ाव की विपणिवीथियों में पण्य वस्तुओं के समेट लिए जाने पर भी ग्राहक पैसे लेकर व्यर्थ ही घूम रहे थे ।" युद्ध शिविरों में भी बाजार लगाये जाने का उल्लेख किया गया है।
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द्वीपान्तरों से व्यापार - द्वीपान्तर पूर्वी द्वीप समूह के लिए प्रयुक्त होता था । द्वीपान्तरों के राजाओं के प्रधान पुरुष मेघवाहन के लिए उपहार लेकर आये थे। 4 समरकेतु के प्रसंग में द्वीपान्तरों से व्यापार करने का उल्लेख आया है । द्वीपान्तरों से व्यापार समुद्र के मार्ग से किया जाता था । समुद्र के मार्ग से व्यापार करने वाला व्यापारी सांयात्रिक वणिग् कहलाता था । सुवर्णद्वीप के मणिपुर नगर के वासी वैश्रवण नामक सांयात्रिक का उल्लेख किया गया है। उसका पुत्र तारक सुवर्णद्वीप से अन्य सांयात्रिकों के साथ नाव पर विपुल सामग्री लादकर द्वीपान्तरों से व्यापार करता हुआ सिंहलद्वीप की रंगशाला नगरी में माया था रंगशाला नगरी के धनाड्य व्यापारी भी द्वीपान्तरगामी बड़े-बडे माण्डों को लादकर व्यापार के लिए सार्थ बनाकर निकलते थे । ऐसी व्यापारिक यात्राओं में अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता था किन्तु ये उसके अभ्यस्त हो जाते थे । तारक ने नौसन्तरण में विशेष प्रशिक्षण प्राप्त किया था ।" सोयात्रिकों के प्राकृतिक विपदा के कारण कभी-कभी जहाज भी टूट जाते थे । प्रियदर्शना ऐसे ही एक व्यापारी की पुत्री थी, जिसका जहाज टूट जाने पर कंवर्तों ने उसे बचा लिया
1 निग्र होन्मुखा पणिकसंवृत्तपण्यासु विपणिवीथीषु प्रत्यापणद्वारमघटन्त कालायस - तालकानि, - वही, पृ. 67 वही, पृ. 124
2. संहृतपण्यवीथी वृथाभ्रमद्गृहीतमूल्य क्रयिकलोके,
3. वही, पृ. 84, 124
4. उपनीत विविधोपायनकलापं
द्वीपान्तरायातमवनीपतीनांप्रधानप्रणधिलोकम्
— वही,
71
पृ.
5. अधिरुह्य यौवनं यानपात्रं च गृहीतप्रचुरसारमाण्डैर्भूरिशः कृतद्वीपान्तरयात्रः सहकारिभिरवेकं : सांयात्रिकैरनुगभ्यमानः.......
- वही, पृ.
6. ( क ) श्रगृहीतद्वीपान्तरगामिभूरिमाण्ड :.......
साथै: स्थानस्थानेषु कृता
वही, पृ. 117
वस्थानाम्,
(ख) सर्वद्वीपसांया त्रिकाणाममार्गो मार्गः . 7. वही, पृ. 129 130
-वही, , पृ. 156
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तिलकमंजरी में वर्णित सामाजिक व धार्मिक स्थिति
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था । यशस्तिलक में भी द्वीपान्तरों से व्यापार करने का उल्लेख मिलता है। पद्मिनीखेटपट्टन का निवासी भद्र मित्र अपने समान धन और चरित्र वाले वणिक्पुत्रों के साथ सुवर्णद्वीप व्यापार करने के लिए गया था।
सार्थवाह-तिलकमंजरी में सार्थ का दो बार उल्लेख है । रंगशाला नगरी के सीमान्त प्रदेश में पड़ाव डाले हुए द्वीपान्तरों से व्यापार करने वाले धनाड्य व्यापारियों के सार्थों का उल्लेख आया है। ये सार्थ प्रयाण के लिए तैयार थे । इनमें द्वीपान्तरों में जाने योग्य बृहदाकार भाण्डों का संग्रह किया गया था, बलों के आभूषण पर्याणादि सामग्री भृत्यों द्वारा तैयार की गयी थी, नवीन निर्मित तम्बुओं के कोनों में बड़े-बड़े कण्ठाल रखे गये थे प्रांगन में बोरियों के ढेर लगाये गये थे तथा घोड़ों खच्चरों की भीड़ लगी थी।
प्रातःकाल के वर्णन में रूपक के द्वारा सार्थ का संकेत दिया गया है। प्रातः काल में प्रस्थान को उद्यत तारामों रूपी सार्थ, जिसमें सबसे आगे मेष तथा उनके पीछे धेनुओं सहित बैल हैं तथा कहीं-कहीं तुलाएं और धनुष दिखाई दे रहे हैं, के चलने से उड़ी हुई धूल से आकाश धूसरित हो गया था । समान धन वाले व्यापारी जब विदेशों से व्यापार करने के लिए टांडा बांधकर चलते थे, सार्थ कहलाते थे, उनका नेता व्यापारी साथवाह कहलाता था ।
आज भी जहां वैज्ञानिक साधन नहीं पहुंच सके हैं, वहाँ सार्थवाह अपने कारवां वैसे ही चलाते हैं जैसे हजार वर्ष पहले । आज भी तिब्बत के साथ व्यापार सार्थों द्वारा ही होता है।
कलान्तर-ब्याज लेकर ऋण देने की विधि का प्रचलन हो चुका था, जिसके लिए कलान्तर शब्द का प्रयोग हुआ है ।। 1. जलकेतुना कस्यापि सांयात्रिकस्य तनया वहनभङ्गे सागरादुद्ध त्य........
-वही, पृ. 129 2. सोमदेव यशस्तिलक, पृ. 345 उद्धृत, गोकुलचन्द्र जैन यशस्तिलक का
सांस्कृतिक अध्ययन, पृ. 194 . 3. आगृहीतद्वीपान्तरगामिभूरिभाण्डराभरणपर्याणकादिवृषोपस्करसमास्वन संतत
व्यापृत........सार्थः स्थानस्थानेषु कृतावस्थानाम्, -तिलकमंजरी, पृ. 117 4. प्रमुख एव प्रवृत्तमेषस्य........तारकासार्थस्य चरणोत्थापितो रेणुविसर इव....
-तिलकमंजरी, पृ. 150 5. सार्थान् सघनान् सरतो वा पान्थान् वहति सार्थवाहः -अमरकोष 3/9/78 6. मोतीचन्द्र, सार्थवाह, बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्, पटना 1953, पृ. 29 7. ........इन्दुनापि प्रतिदिनं प्रतिपन्नकलान्तरेण प्रार्थ्यमानमुखकमलकान्तिभिः,
-तिलकमंजरी, पृ.१
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तिलकमंजरी, एक सांस्कृतिक अध्ययन
न्यास - समरकेतु के सैनिक प्रयाण के प्रसंग में न्यास का उल्लेख आया है । सैनिक प्रयाण के समय ग्रामीण कांसे के बर्तन, सूत, कम्बलादि गृह धन को बलाधिकृत के घर धरोहर के रूप में रख रहे थे । 1
लेखन - कला तथा लेखन-सामग्री
226
तिलकमंजरी में अनेक स्थानों पर ऐसे उल्लेख आये हैं, जिनसे तत्कालीन लेखन - कला लिपि, लेखन सामग्री, पत्र तथा पुस्तकों आदि के विषय में जानकारी मिलती है । लिपि के विषय में धनपाल ने तिलकमंजरी की प्रस्तावना में स्पष्ट लिखा है कि स्याही से स्निग्ध अक्षरों से युक्त लिपि भी अत्यधिक सम्मिश्रित होने पर प्रशंसनीय नहीं होती है । 2 लिपि की इसी विशेषता का, मंजीर द्वारा प्राप्त अनंग - लेख के सम्बन्ध में उल्लेख किया गया है । 3
लेखन-सामग्री:- पत्र लेखन अथवा पुस्तकें लिखने के लिए ताडबृक्ष की छाल जिसे ताडपत्र, ताडीपत्र, अथवा ताडपर्ण कहा जाता था, का प्रयोग किया जाता था । 1 मलयसुन्दरी को प्राप्त समरकेतु का पत्र ताडपत्र पर लिखो गया था - 15 समरकेतु की द्वीपान्तरयात्रा के अन्तर्गत ताडपत्र पर लिखी हुई पुस्तकों का वर्णन आया है । कालिदास के समय में उत्तरी भारत में लिखने के लिए भोजपत्र का प्रचार था, किन्तु बाण के समय में तालपत्र पर पुस्तिकाएं लिखने की प्रथा चल चुकी थी ।7 धनपाल के समय में भी असम प्रदेश की ओर भोजपत्र का प्रचार था, जैसाकि कामरूप देश की लौहित्य नदी के तट पर स्थित स्कन्धावार में निवास करने वाले कमलगुप्त के लेख से ज्ञात होता है । कमलगुप्त ने हरिवाहन को भोजपत्र पर लेख लिखा था । हर्षचरित में असम के कुमार भास्करवर्मा के उपायनों में अगरू पेड़ की छाल पर लिखी हुयी पुस्तकों का उल्लेख आया है ।
1. गृहधनं च कांस्यपालिका सूत्रकम्बलप्रायं बलाधिकृतधामन्यबलाजनस्य न्यासीकुर्वद्भिः
- वही, पृ. 120
2. वर्णयुक्ति दधानापि स्निग्धांजनमनोहराम् ।
नातिश्लेषघना श्लाघां कृर्तिलिपिरिवाश्रुते ।
3. निरन्तरैरपि परस्परास्पर्शिभिः
- तिलकमंजरी, पद्य 16 वही, पृ. 109
4. वही, पृ. 108, 134, 196, 291, 338, 349
5. दृढ़तरग्रन्थिसंयतमतिपृथुलताडीपत्रसंचारित सुरेखाक्षरलेखम् .. - वही,
पृ.
6
वही, पृ 134
7.
अग्रवाल वासुदेवशरण, हर्षचरित एक सांस्कृतिक अध्ययन, पृ, 52 8. अजर्जरं भूर्जलेखम्, - तिलकमंजरी, अग्रवाल वासुदेवशरण, हर्षचरित : एक सांस्कृतिक अध्ययन, पृ 52
9.
338
पृ. 375
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तिलकमंजरी में वर्णित सामाजिक व धार्मिक स्थिति
लेखन के लिए स्याही के अतिरिक्त धातु-द्रव गैरिक-रस कस्तूरी द्रव प्रयुक्त किया जाता था । समरकेतु को प्राप्त हरिवाहन का लेख ताडपत्र पर धातु-द्रव से लिखा गया था, जिसे सुनहरी धूल सुखाया गया था 12
लेखन के लिए लेखनी प्रयुक्त होती थी जिसे वर्णिका कहते थे । सोने की लेखनी का उल्लेख किया गया है । 2 लेखनी के अभाव में नखाग्र से भी पत्र लिखने का उल्लेख है । एक अन्य प्रसंग में कपड़े में गांठ लगाकर उससे लेख लिखे जाने का उल्लेख किया गया है । 4
227
पत्र - तिलकमंजरी में पत्र - लेखन, पत्र - प्रेषण तथा पत्र प्राप्ति का अनेक प्रसंगों में उल्लेख है 15 मंजीर नामक बंदीपुत्र को कामदेवायतन में आम्रवृक्ष के नीचे ताडपत्र पर लिखित एक पत्र प्राप्त हुआ था, जो किसी कन्या द्वारा अपने प्रेमी को लिखा गया प्रेम पत्र था । इसे मृणालसूत्र से बांधा गया था, इसके दोनो ओर चन्दनद्रव की वेदिकाकृति बनी हुई थी । यह कस्तुरी की स्याही से लिखा गया था । लेखक ने अपना नाम सूचित नहीं किया था ।" अन्य पत्र कुशल समाचार सूचक हैं । इनमें पत्र के प्रारम्भ में स्वस्ति तथा अन्त में अपना नाम लिखा जाता था. 17
पुस्तकें :- तिलकमंजरी में दो स्थानों पर पुस्तकों का उल्लेख है । समरकेतु ने तारक को द्वीपान्तर विजय से प्राप्त ताडीपत्र पर लिखित पुस्तकों को पंडितों में योग्यतानुसार बांट देने का आदेश दिया था । इससे ज्ञात होता है कि युद्ध में जीते गये देश से लूटकर लाई हुई पुस्तकें पंडितों में उनकी योग्यता के अनुसार बांट दी जाती थी । समरकेतु की द्विपान्तर यात्रा के प्रसंग में ही पुस्तकों का मौर उल्लेख है । इस वर्णन से तत्कालीन हस्तलिखित ग्रन्थों के रखरखाव के विषय में महत्वपूर्ण
1. (क) नूतने ताडीपत्रशकले निहितसान्द्रधातुद्रवाक्षरों यथा चावचूर्णितोक्षोदीयसा स्वर्णरेणुनिक रेण.............. तिलकमंजरी, पृ 196
(ख) गैरिकरसेन.....सुरेखाक्षरं लिखित्वा....
वही, पृ. 349
2.
ज्येष्ठवरणका रूपजातरूपस्य,
वही, पृ. 22
3. गैरिकरसेन.... ताडीतरूदले कराङ्ग ुलिनखाग्रलेखन्या सुरेखाक्षरं लिखित्वा .... 4. प्रत्यग्रलिपिना दिव्यपटपल्लवग्रन्थलेखेन...
—वही, पृ. 344
5. वही, पृ. 108, 173, 193, 196, 338, 349, 39,
6. वही, पृ. 108-109
7.
प्रवितर
अवलोक्य पृष्ठेऽस्य लब्धप्रतिष्ठानि कुमारनामाक्षराणि वही, पृ. 193 प्रशस्तताडीपत्र विन्यस्तलोचनले हृयलिपिविशेषाणि पिण्डीकृत्य पण्डि - तेभ्यः समस्तानि पुस्तकरत्नानि,
तिलकमंजरी पृ. 291
8.
...
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तिलकमंजरी, एक सांस्कृतिक अध्ययन
जानकारी प्राप्त होती है । ये पुस्तकें बड़े बड़े कठोर ताडपत्रों पर कर्णाटक लिपि में लिखी गई थी। इनकी रक्षा के लिए इन्हें दोनों ओर से बांस की पटलियों से प्रावृत्त किया गया था। इनमें काव्य ग्रन्थों की रचना की गई थी।।
उपरोक्त सूचनाओं से ज्ञात होता है कि धनपाल के समय में लेखन कला का समुचित विकास हो चुका था। शस्त्रास्त्र
तिलकमंजरी में विभिन्न प्रसंगों में अठाइस शस्रास्रों का उल्लेख पाया है जो निम्नलिखित हैं
(1) मनुष....तिलकमंजरी में समरकेतु तथा वजायुध के धनुयुद्ध का अत्यन्त विशद वर्णन किया गया है, जो धनपाल के धनुर्वेद सम्बन्धी सूक्ष्म ज्ञान का परिचय प्रदान करता है । धनुर्विद्या अथवा धनुर्वेद का उल्लेख किया गया है। समरकेतु ने धनुर्विद्या का पूर्ण अभ्यास किया था । धनपाल ने श्लेष द्वारा बाण के लिए प्रयुक्त मार्गण, कादम्ब, बाण तथा शिलीमुख शब्दों की व्युत्पत्ति दी है। धनुष चलाने के कार्य को सायक व्यापार, इषु-व्यापार कहा गया है। समरकेतु इतनी तीव्रता से बाण चला रहा था कि उसका दाहिना हाथ, एक साथ तूणीर पर गुथां हुआ, धनुष की डोरी पर लिखित, पुंखों पर जड़ा हुआ तथा कर्णान्त पर अवतसित सा जान पड़ता था।' धनुर्धर के प्रयत्न लाघव की इस क्रिया को खुरली कहा जाता है । तिलकमंजरी में धनुर्वेद सम्बन्धी निम्नलिखित जानकारी मिलती है:
धनुष के लिए प्रयुक्त शब्द(1) सायक-88, 89, 12, 92, 113, 104, 5, 92
1. उभयतो वेणुकर्परावरणकृतरक्षेष्वसंकीर्णखरताडपर्णकोत्कीर्णकर्णाटादिलिपषु पुस्तकेषु विरलमवलोक्यामानसंस्कृतानुविद्धस्वदेशभाषानिबद्धकाव्यप्रबन्धानि
वही, पृ 134 2. तिलकमंजरी, पृ. 89-90 3. (क) भ्रूविभ्रमैमन्मथमिव धनुर्वेद शिक्षयन्ती, -वही, पृ. 159
(ख) वही, पृ. 90 4. अभ्यस्तनिखधनुर्वेदम्
-वही, पृ. 114 5. वही, पृ. 89 6. वही, पृ. 88-99 7. अतिवेगव्याप्तोऽस्य तत्र क्षणे प्रोत इव तूणीमुखेषु, लिखित इव मौर्याम्,
उत्कीर्ण इव पुखेष, अवतंसित इव श्रवणान्ते तुल्यकालमलक्ष्यत् । वही, पृ. 90
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तिलकमंजरी में वर्णित सामाजिक व धार्मिक स्थिति
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(2) साया-93
(3) पत्री-246 • (4) इषु-5, 88
(5) हेतिः-16, 65, 88 (6) धनुः-6, 90, 210 (7) मार्गण-12, 90, 104, 113 (8) चाप-13, 227 (9) कामुक-17, 88, 90, 92 (10) शर-17, 86, 136, 212 (11) शिलीमुख-89, 93, 303 (12) विशिख -94 (13) कोदन्ड-236 (14) कादम्ब-89.... .. (15) नाराच-83,87 गुण-बाण की डोरी 6, 88 ज्या-बाण की डोरी 6, 87 मोर्वी-बाण की डोरी 90 सन्धान-बाण को धनुष की डोरी पर चढ़ाना 4 तूणीर, तूणी-बाण का आधार पत्र 37, 90, 116, 200 धानुष्क, धनुष्मान्, धन्दी-धर्नधारी सैनिक 87, 88, 90 उद्गूर्णहेतिः-बाण छोड़ने के लिए उद्यत सैनिक 88 आकर्णान्ताकृष्टमुक्ताः-कर्ण पर्यन्त खींचकर बाण छोड़ना 89 शख्य-धनुष का लक्ष्य 92 चापयष्टि-धनुर्दण्ड 93
बाणों के समूह की बौछार का उल्लेख किया गया है। बाणों को शिलापट्ट पर घिसकर तीक्ष्ण किया जाता था।
(1) वज्र-14, 122, 298, 348
1. अविरल निरस्तशरनिकरशीकरासारडामरम्...........तिलकमंजरी, पृ. 86 2. निशानमणिशिलाफलकमिव कुसुमास्रपत्रिणाम. वही, पृ. 246
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तिलकमंजरी, एक सांस्कृतिक अध्ययन
(2) -46, 35, 243, 240, 189, 121, 149, 138, 159, 168 अशनि - 133 निर्धात 87
(3)-1, 12, 14, 38, 52, 47, 53, 84, 88, 91, 93, 92 226, 323, 370, 376
( 4 ) करवाल - 57, 53, 93,403
(5) खड्ग – 53, 85, 189, 198, 232
(6) af-15, 85, 91, 62, 114, 391, 361, 219, 341, 173
276
( 7 ) तरवारि - 15, 55, 102
(8) कर्तिका - 48, 52
( 9 ) चक्र - 1, 87, 88, 90, 114, 276, 370
( 10 ) शक्ति - 4, 87, 136
(11)-85, 87, 91, 114, 324, 370
( 12 ) पट्टिश – 370
( 13 ) गदा – 87, 114, 276
( 14 ) मण्डलाग – 206, 209
(15) क्रकच - 212, 291, 350
( 16 ) असिधेनुका - 118, खड्गधेनुका 165, 243, 314 शस्त्रिका – 134, 249, 307 कृपाणिका 92, 325
छोटी छुरी या तलवार असिधेनुका कही जाती थी । हर्षचरित में पदातियों द्वारा कमर में कपड़े की दोहरी पेटी की मजबूत गांठ लगाकर उसमें असिधेनुका के खोंसने का उल्लेख किया गया है । 3
( 17 ) परशु – 5, 87, 307 (18) शूल – 298 ( 19 ) त्रिशूल - 88
(20) fafa-53, 274, 307 (21) दात्र- 307
( 22 ) कुन्त - 114, 173, 323
(23) आस – 93
(24) कुद्दाल - 47
(25) कोदण्ड - 123, 236
1. द्विगुणपट्टपट्टिकागाढागन्थिग्रथितासिधेनुना — बाणभट्ट हर्षचरित, पृ. 21
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तिलकमंजरी में वर्णित सामाजिक व धार्मिक स्थिति
(26) कुठार-83 (27) परश्वघ-228
(28) अंकुश-92, 367 वाच
तिलकमंजरी में बीस प्रकार के विभिन्न वाद्यों का उल्लेख आया है। वाद्य के लिए वादित्त वाद्य तथा आतोद्य शब्दों का प्रयोग हुआ है।
(1) भेरी-86, 87, 138, 402 (2) वेणु-57, 70, 180, 141, 227, 269, 372 (3) वीणा-57, 70, 104, 141, 180, 183, 249, 269, 279,
227, 244, 372 (4) दुन्दुभि-86, 218, 370 (5) शंख-370, 132, 141, 58, 67, 76, 360, 363 (6) झल्लरी-76, 132, 141, 236, 264,360, 370 (7) पटह-84, 85, 123, 132, 236, 264, 260, 41, 67, 76,
321,370 (8) पणव-132, 370 (9) डिण्डिम-367 (10) तूर्य-74, 116, 123, 144, 147, 193, 217; 236, 263,
___264, 269 (11) ढक्का -86, 116 (12) मुरज-57, 76, 141, 269 (13) मृदंग--84, 104, 106, 34, 41, 67, 141, 227, 236,
264, 269 (14) कांस्यताल-141 (15) काहल-84, 86, 76, 199 (16) विपंची-183,70 (17) वल्लकी-41, 186, 260 (18) घण्टा-84 (19) मर्दल-200
(20) करटा-367 बर्तन, मशीनें तथा अन्य गृहोपयोगी वस्तुएँ
(1) पटलक-72, 256 पिटारी
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तिलकमंजरी, एक सांस्कृतिक अध्ययन
(2) कुतुप-124 घी तेल रखने का बर्तन (3) काष्ठपात्री-124 लकड़ी का बर्तन (4) लोहकर्पर-124 लोहे की कड़ाही (5) गलन्तिका-करूआ 67 (6) कुट-घड़ा 67 (7) प्रपिकाकर्पर-प्याऊ में रखा जाने वाला बड़ा माट 67 (८) कटाह-कड़ाही 197 (१) कांस्यपात्रिका-कांसे का बर्तन 120 (10) करण्डक-396 पिटारी (11) स्थाली, स्थाल-69, 72, 124, 197 (12) श्रृंगार-स्वर्ण का जलपात्र 22,63 (13) कलश-71, 76,77,79.. (14) चटस-जल पात्र 124 (15) इति-चमड़े का जल पात्र 62 (16) गोणी-बोरी 117 (17) कण्ठाल-117, 124 (18) मन्थनी-117 (19) शूर्प-124 (20) शराव-77 सकोरा (21) करक-305 जलपात्र (22) पतद्ग्रह-पीकदान 69 (23) मणि-दर्पण-72 (24) तालवृन्त-69, 77 (25) तालका:-ताला 67 (26) तनिका-124 (27) कील-124 (28) चुल्ली-124, 200 (29) तुला-150 तराजू (30) क्षुरप्र-घास काटने का औसार
धार्मिक स्थिति धार्मिक सम्प्रदाय
तिलकमंजरी के अध्ययन से हमें तत्कालीन समय में प्रचलित विभिन्न सम्प्रदायों के विषय में विस्तृत जानकारी मिलती है । इस अध्ययन से ज्ञात होता है कि दशम
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तिलकमंजरी में वर्णित सामाजिक व धार्मिक स्थिति
तथा एकादश शती में सर्वाधिक प्रचलित सम्प्रदाय जैन तथा शैव थे । इनके अतिरिक्त वैष्णव धातुबादी, वैखानस तथा नैष्ठिक सम्प्रदायों के उल्लेख भी मिलते हैं । अब इनका विस्तार से वर्णन किया जायेगा ।
जैन सम्प्रदाय
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धनपाल ने तिलकमंजरी की रचना जैन धर्म में दीक्षित होने के पश्चात् की थी, अत एक प्रेम कथा होते हुए भी तिलकमंजरी की रचना जैन धर्म व दर्शन की पृष्ठभूमि को आधार बनाकर की गयी है । प्ररम्भ में ही धनपाल ने संकेत दे दिया है कि जैन सिद्धान्तों में कही गयी कथाओं के विषय में राजा भोज के कुतूहल को शांत करने के लिए उसने इस कथा की रचना की । अतः विशुद्ध रूप से धर्म-कथा न होते हुए भी, जैन धर्म के प्रचार व प्रसार का इसका लक्ष्य स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है । तिलकमंजरी जैन धर्म सम्बन्धी निम्नलिखित उल्लेख प्राप्त होते हैं
तीर्थंकर - तिलकमंजरी का प्रारम्भ 'जिन' की स्तुति से किया गया है । 2 तत्पश्चात् नाभिराजा के पुत्र आदिनाथ नामक प्रथम तीर्थंकर की स्तुति पद्यद्वय में की गयी है | आदिनाथ के पौत्र नमि विनमि उनके पार्श्व में वर्णित किये गये हैं । प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव थे । धनपाल के समय में ऋषभदेव प्रिय तीर्थंकर । ऋषभदेव को त्रिकालदर्शी धर्मतत्व के उपदेशक संसार सागर के सेतु, चतुविध देवसमूह के उपास्य, गणधर केवलियों में श्रेष्ठ कहा गया है । ऋषभदेव के समवसरण का उल्लेख किया गया है ।" जैन शास्त्रों के अनुसार तीर्थंकर को केवलज्ञान होने के पश्चात् इन्द्र कुबेर को आज्ञा देकर एक विराट सभा मण्डप का निर्माण कराता है, जिसमें तीर्थंकर का उपदेश होता है। इसी सभा मण्डप को समवसरण कह जाता है । एक अन्य स्थल पर ऋषभदेव की मूर्ति का सजीव वर्णन किया गया है ।
ऋषभदेव के पश्चात् महावीर की स्तुति की गयी है । एक अन्य प्रसंग में महावीर की मूर्ति का वर्णन है । महावीर की पक्ष - पर्यन्त मंगल-स्नानायात्रा मनाये
1. तिलकमजरी, पद्य 50
2.
वहीं, पद्य,
2
3.
तिलकमंजरी, पद्य 3, 4
4.
वही, पृ. 39
5. वही, पृ. 1, 218, 226 6. वही, पृ. 216, 217 7. वही, पद्य 6
8. वही, पृ. 275
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तिलकमंजरी एक सांस्कृतिक अध्ययन
जाने का उल्लेख मिलता है । यह यात्रोत्सव महावीर के निर्वाण दिवस से प्रारंभ कर कार्तिक मास की पौर्णमासी को समाप्त होता था । "
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ऋषभदेव व महावीर के अतिरिक्त अजितनाथादि अन्य तीर्थंकरों की मूर्तियों का भी उल्लेख आया है । #
जैन मंदिर - तिलकमंजरी में अनेक स्थलों पर जैन मन्दिरों का वर्णन है, जिनमें तीन मन्दिर प्रमुख हैं ।
(1) अयोध्या के समीप शक्रावतार नामक आदिनाथ के मन्दिर का वर्णन किया गया है । यह आदितीर्थ के नाम से प्रसिद्ध था ।
(2) समरकेतु द्वारा हरिवाहन - अन्वेषण के प्रसंग में ऋषभदेव के ही दूसरे मन्दिर का सजीव वर्णन किया गया है । इसी मन्दिर में हरिवाहन ने पद्मासन लगाते हुए मलयसुन्दरी को ऋषभदेव की प्रतिमा के सम्मुख बैठे देखा था 18
(3) तीसरे स्थल पर रत्नकूट पर्वतस्थ महावीर के मन्दिर का वर्णन है, जहां समरकेतु तथा मलयसुन्दरी का प्रथम समागम हुआ था । "
इनके अतिरिक्त समवसरण, परिव्रज्या, गणधर, केवली, जीवादि अनेक जैन धर्म से सम्बन्धित पारिभाषिक शब्दावली का प्रयोग किया गया है ।
वैष्णव सम्प्रदाय
एक परिसंख्या अलंकार के प्रसंग में वैष्णव सम्प्रदाय का उल्लेख किया गया है कि वैष्णवों का ही कृष्ण के मार्ग में प्रवेश था। इस उल्लेख के अतिरिक्त वैष्णवों के आचार-विचार, ग्रन्थों, पूजादि सम्बन्धी कोई जानकारी नहीं मिलती अतः तत्कालीन समय में वैष्णव सम्प्रदाय की स्थिति के विषय में तिलकमंजरी से विशेष सूचना नहीं मिलती ।
1. वही, पृ. 157, 244, 265, 275
2... भगवतो महावीरजिनवरस्य निर्वाण दिवसात्प्रभृति...
निसीथे मया दृष्टा ........
3. जिनानामजितादीनामप्रतिमशोभाः प्रतिमाः 4. आदितीर्थतया पृथिव्यां प्रथितमतितुङ्गशिखरतोरण
सिद्धायतनमगमत् ।
5. वही, पृ. 216-17
6. वही, पृ. 255
7. वही, पृ. 275
8.
वैष्णवानां कृष्णवर्त्मनि प्रवेशः
कार्तिकमास पौर्णमासीवही, पृ. 344
- वही, पृ. 226 प्राकारंशक्रावतारं नाम -तिलकमंजरी, पृ. 35
.......
वही, पृ. 12
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तिलकमंजरी में वर्णित सामाजिक व धार्मिक स्थिति
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शेवसम्प्रदाय
'तिलकमंजरी में एक श्लेषोक्ति में शैव सम्प्रदाय का उल्लेख है, जिसके दक्षिण तथा वाम दो मार्ग कहे गये हैं। यशस्तिलक में भी शव सिद्धान्त के दो मार्ग कहे गये हैं। दक्षिण मार्ग सामान्य जन के लिये था तथा वाम मार्म, भोग तथा मोक्ष प्रदान कराने वाला तथा तांत्रिकों से सम्बन्धित था । धनपाल के समय में कदाचित वाम मार्ग अधिक प्रचलित हो गया था, अतः उसने प्रेत साधना करने वाले, दक्षिण से वाम मार्ग में आकर परम शिव की साधना करने वाले शवों का उल्लेख किया है। प्रेत साधना का एक अन्य स्थल पर भी उल्लेख है। शैव सम्प्रदाय के चार मत ग्यारहवीं सदी में प्रचलित थे- (1) शैव सिद्धान्त को मानने वाले (2) पाशुपत लकुलीश (3) कापालिक तथा (4) कालामुख । ...
धनपाल ने कराल क्रियाए करने वाले कालामुख तथा कापालिक शवों की भयंकर साधनाओं का उल्लेख किया है । वेताल के वर्णन में इनका उल्लेख है। वेताल ने मन्त्र साधकों की मुण्डमाला पहनी थी। वह कपाल में से रक्तपान कर रहा था। वह वेताल साधना करने वाले पुरुष के मांस को काट-काट कर खा रहा था। उसके ललाट पर रक्त का पंचागुल चिन्ह अंकि तथा । इसी प्रकार की एक अन्य भयंकर साधना असुर-विवर साधना का धनपाल ने अनेक प्रसंगों में
1. प्रतिपन्नदक्षिणवाममार्गागमः परं शिवं शंसदिभरभिप्रेत साधकः शैवेरिव....
तिलकमंजरी, पृ. 198 99 2. · भगवतो हि भर्गस्यसकल जगदनुग्रहसर्गो दक्षिणो वामश्चः
___ सोमदेव, यशस्तिलक, पृ. 251 3. (क) तत्रलोकसंचरणार्थ दक्षिणो मार्गः
वही पृ. 206 (ख) भुक्तिमुक्तिप्रदस्तु वाममार्गः परमार्थ वही.पृ. 208 4. तिलकमंजरी, पृ. 198-99
कदाचित् प्रेतसाधकस्येव नक्तचराध्यासिताषुभूमिषु .. वही, पृ. 201 6. यामुनाचार्य, आगमप्रामाण्य
उद्धृत Handiqui K.K.
Yasastilaka and Indian Culture, p. 234 7. अचिरखण्डितं मन्त्रसाधकमुण्डं........गलावलम्बित्, बिभ्राणम् वही, 47 8. वेताल साधकस्य साघितमुत्सर्पता....कीकशोपदंशम्.... तिलकमंजरी,पृ. 47 9. आभोगिना ललाटस्थलेन........असृक्पंचांगुलम् ........ वही, पृ. 48
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तिलकमंजरी एक सांस्कृतिक अध्ययन
उल्लेख किया है। असुर कन्या को प्राप्त करने के इच्छुक रसातल में प्रविष्ट मिथ्या साधको को वेताल अपनी नख रूपी कुद्दालो से निकालने की कोशिश कर रहा था । असुर विवर साधना करने वाले वातिक कहलाते थे घनपाल ने श्मशान भूमि में भ्रमण करने वाले वातिकों के समूह का उल्लेख किया है । वातिकों के टंकों द्वारा पत्थरों के टुटने से बने हुए प्रकृत्रिम शिवालिंगों का उल्लेख किया गया है' बाण के मित्रो में से लोहिताक्ष असुर विवर-व्यसनी था ।। बाण ने भी असुर विवर साधना करने वाले वातिकों का उल्लेख किया है । असुर-विवर साधना में, पाताल में गड्डा खोदकर उसमें उतर जाता था तथा उसमें वेतालसाधा जाता था। हर्षचरित में महामास-विक्रय जैसी भयंकर साधना का उल्लेख है, जिसमें साधक शवमांस लेकर शमशान में फेरी लगाते हुए भूत-पिशाच को प्रसन्न करते थे यशस्तिलक में अपने शरीर के मांस को काट-काट कर बेचने वाले महावतियों का उल्लेख पाया है। घनपाल ने भी महाव्रत का उल्लेख कियाहै ।10 वस्तुतः ऐसी भयंकर क्रियाएं करने वाले ही महाव्रती कहलाते थे तथा ये शैवों के कापा. लिक सम्प्रदाय से सम्बन्धित थे । क्षीरस्वामी ने अपने प्रतीक नाटक प्रबोध चन्द्रोदय में कापालिक साधु का पूर्ण चित्र खींचा है । भवभूति ने मालतीमाधव के अंक 5 में कापालिक अघोरघण्ट का वर्णन किया है । डा० हान्दीकी ने कापालिक सम्प्रदाय का विस्तृत वर्णन किया है।11 कापालिक सम्प्रदाय का साधु कर्णिका,
1. (क) प्रविष्टारूणालोकस्तोकतरलितद्वारपालवेतालेष्वसुरदेवतार्चनारम्भ . पिशुनमपूर्वसौरभं दिव्यकुसुम घूपामोदमुद्गिरत्सु विवरेषु . वही, पृ. 151 (ख) विविक्षुसिद्वविक्षिप्तवलि शबलितासुरविवरः.... वही पृ. 235 (ग) उद्घाटितसमग्रासुरविवरेवः विलासिनीभवनः .... वही, पृ 260 कररूहकुद्दालरसुरकन्यारिरसया रसातलगतानलीकसाधकान्.... वही, पृ.47 अनेकवातिकभ्रमणलग्न........
- वही, पृ. 46 वातिककुट्टा क्टंकशकलिताकृत्रिमशिवलिगे
___ वही, पृ. 235 बाणभट्ट हर्षचरित, पृ 20 6. वही, पृ. 97 103
__ वही, पृ. 58 8. बाणभट्ट हर्षचरित, पृ. 58 9. महाव्रतिकवीरक्रयविक्रीयमाणस्ववर्लनवल्लूरम् सोमदेव, यशस्तिलक पृ. 49 10. नप्रतिपन्नं महाव्रतम्,
तिलकमंजरी पृ, 316 11. Handiqui K.K; Yasastilaka and Indian Culture p. 356-57.
5.
न
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तिलकमंजरी में वर्णित सामाजिक व धार्मिक स्थिति
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रूचक कुण्डल, शिखामणि, भस्म और यज्ञोपवीत इन छः मुद्रामों तथा कपाल और खटवांक इन दो उपमुद्राओं का विशेषज्ञ होता है। घातुवादी
तिलकमंजरी में घातुवादियों का दो स्थानों पर उल्लेख माया है ।। पारे से सोना बनाने की क्रिया को घातुवाद कहा जाता था। इस विद्या के ज्ञाताको धातुवादिक कहते थे । वताढ्य पर्वत की अटवी के वर्णन में इनके द्वारा पोषषियों के विभिन्न प्रयोग एवं सिद्धियों का उल्लेख किया गया है। हर्षचरित में भी कारन्धमी या धातुवादी लोगों का वर्णन आया है । ये लोग नागार्जुन को अपना गुरू मानकर औषधियों से होने वाली अनेक प्रकार की सिद्धियों और चमत्कारों को दर्शन का रूप दे रहे थे । बाद में यही मत रसेन्द्र दर्शन के नाम से प्रसिद्ध हुआ । बाण के मित्रों में विहंगम नामक धातुवादी था । कादम्बरी में अनाड़ी धातुबादिकों का उल्लेख है, जिन्हें कुवादिक कहा गया हैं धनपाल ने धातुवादियों का शैवों से सम्बन्धित होना सूचित किया है। तिलकमंजरी में धातुवादियों के लिए भी वातिक शब्द का प्रयोग हुआ है । वातिकों द्वारा पत्थरों के कूटने मे निर्मित अकृत्रिम शिवलिंगों का वर्णन आया है। इसी प्रकार युद्ध के प्रसंग में श्लेष द्वारा पारे को नष्ट करने वाले वातिकों का उल्लेख किया गया है । डा. हान्दीकी ने भी इसी तथ्य की पुष्टि की है कि कापालिक मन्त्रविद्या धातुवाद तथा रसायनादि में सिद्धि प्राप्त करते थे पर यह अनिवार्य नहीं था कि
1. कर्णिकारूचक चव कुण्डलं च शिखामणिम । भस्म यज्ञोपवीतं चमुद्राषट्कं
प्रचक्षते । कपालमथ खट्वांगमुपमुदे प्रकीर्तिते । .. सोमदेव यशस्तिलक उद्घत Ibid. 356 2. (क) रससिद्विवदग्ध्यधातुवादिकस्य, तिलकमंजरी पृ .22 (ख) स्वर्णाचूणविकीर्णभस्म पुंजकव्यज्यमाननरेन्दधातुवादक्रियः....... वही
पृ. 235 3. उद्धृत डा. वासुदेवशरण अग्रवाल हर्षचरित ; एक सांस्कृतिक अध्ययन.
पृ. 196 4. वही. पृ. 30 5. वही, कादम्बरी : एक सांस्कृतिक अध्ययन, पृ. 235 6. तिलकमंजरी, पृ. 235 .7 कचित् वातिका इव सूतमारणोद्यताः,
वही, पृ 89
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तिलकमंजरी एक सांस्कृतिक अध्ययन
सभी मन्त्रवादी. चातुवादी आदि कापालिक हों । अतः धातुवादियों का अपना
अलग सम्प्रदाय था ।
वैखानस
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तिलकमंजरी में वैखानसों का तीन स्थानों पर उल्लेख आया है । हरिवाहन मलयसुन्दरी से प्रश्न करता है कि वह प्रसिद्ध वैखानस आश्रमों को छोड़कर शून्य वन में स्थित जिनायतन में क्यों रह रही है ? प्रभातकाल में आश्रम की पर्णशालाओं में वृद्ध वैखानसों द्वारा गंगास्तोत का पाठ किये जाने का वर्णन है 3 मलयसुन्दरी को शान्तातप कुलपति के प्रशान्तवैराश्रम नामक वैखानसाश्रम में भेजा गया था, वैखानस उन साधुओं के लिए प्रयुक्त होता था जो गृहस्थ जीवन के बाद तपोवन में वानप्रस्थाश्रम व्यतीत करते थे, जिसमें स्त्रियाँ भी उनके साथ रहती थी । उत्तररामचरित में राजधर्म का पालन करने वाले तपोवन में वृक्षों के नीचे रहने वाले वृद्ध गृहस्थों को वैखानस कहा गया है । सम्प्रदायों के वर्णन में वैखानस साधुयों का निर्देश दिया गया है। हर्षचरित में वैष्णव धर्म को मानने वाले वैखानस साधुओं का उल्लेख है, 17 किन्तु तिलकमंजरी में वैदिक धर्म को मानने वाले वैखानस साधुओं का उल्लेख हैं । कुलपति शान्ततप के प्रशान्तवैर वैखानसाश्रम में प्रातःकाल में ही यज्ञ के धुएँ को दुर्दिन समझकर आश्रम का मयूर हर्ष से केकार व करता था । इस श्राश्रम में मलयसुन्दरी के
हर्षचरित में 22
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Handiqui. K K. Yasastilaka and India Culture, P.357 केन हेतुना विहाय विख्यातानि वैखानसाश्रमपदानि निर्जनारण्यवासिनी शून्यमेतज्जियतनमधिवससि.... तिलकमंजरी, पृ. 258 क्षीरनिद्रेण निकटदुमकुलायशायिना शुककुलेन वार:वारमावेद्यमानविस्मृतक्रमारिण प्राक्रम्यन्त पठितुमाश्रमोटजनिण्णैवृद्धवैखानसः प्राभातिकानि गंगास्तोत्र गीतकानि । वही, पृ. 358
तिलकमंजरी, पृ' 329
एतानि तानि गिरिनिर्झरिणीतटे वैखानसाश्रि ततरूरिण तपोवनानि येष्वातिथेयपरमाः शमिनो भजन्ति नीवारमुष्टिपचना गृहणी गृहाणि ।
भवभूति, उत्तररामचरित 1 / 25
अग्रवाल : वासुदेवशरण, हर्षचरित : एक सांस्कृतिक अध्ययन, पृ. 111 वही, पृ. 195
प्रातः प्रारवेक्ष्य होमहुतमुग्धूम्यामहादुर्दिन हृष्टस्याश्रम बर्हिणस्य रसितैरायामिमिस्त्रा सिताः ।
तिलकजमंरी, पृ. 329
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तिलकमंजरी में वगित सामाजिक व धार्मिक स्थिति
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क्रिया-कलापों का विस्तृत विवरण दिया गया है। ऐसे मायनों में मुनि-पत्नियों के अतिरिक्त किसी कारणवश मुनि-व्रत धारण करनेवाली म्याएं भी रहा करती थी। टीका के अनुसार 10,000 मुनियों का पालनपोषण तथा अध्यापन करने वाले ब्रह्मर्षि को कुलपति कहा जाता था।
नैष्ठिक
मेघवाहनने लक्ष्सी की आराधना करते हुए नैष्ठिक धर्म का पालन किया था ये ब्रह्मचर्य का पालन करते थे तथा अपने व्रत के सूचक चिन्हों को धारण करते थे ये चिन्ह जटा, अजिन, वल्कल, मेखला, दंड, अक्षवलयादि थे इन्हें वर्णी भी कहा जाता था 4 भारवि ने वर्णिलिंगी ब्रह्मचारी वनेचर का उल्लेख किया है। तिलकमंजरी में अजिन, जटादि तापस वेष को धारण कर तपस्या करने वाले विद्याधरों का उल्लेख हैं । ।
विभिन्न व्रत तथा तप
इन सम्प्रदायों के अतिरिक्त वैताढ्य पर्वत की अटवी के प्रसंग में विभिन्न विद्याधरों द्वारा अपने-अपने आचर्यों से उपदिष्ट विविध व्रतों एवं तपों के अनुष्ठान का वर्णन किया गया है, जो तत्कालीन धार्मिक स्थिति पर प्रकाश डालता है।' ये विद्याधर विभिन्न सिद्धियों की प्राप्ति के लिए वन में तपस्या कर रहे थे, कोई नदी के तट पर निवास कर रहा था, कोई पर्वत की गुफा में कोई लता गृह में तो कोई घास फूस की झोपड़ी बना कर रह रहे थे। इस प्रकार एक-एक धार्मिक, ने
1. वही, पृ. 330-31 2. मुनीनां दशसाहस्र योऽन्नपानादिपोषणात् । अध्यापयति विप्रणिरसो कुलपतिः स्मृतः ।।
___ तिलकमंजरी, पराग टीका भाग 3, पृ. 68 3. प्रपिन्नैष्ठिकोचितक्रियो.......
तिलकमंजरी पृ 36 4. अग्रवाल वासुदेवशरण, हर्षचरित्र : एक सांस्कृतिक अध्ययन, पृ.107 5. भारवि, किरातार्जुनीयम, 1/1 6. कश्चित्............ विघृताजिनटाकलापस्ता पसाकल्प .......... तिलकमंजरी
पृ. 236
वही, पृ. 336 8. वही, पृ. 235-236
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तिलकमंजरी, एक सांस्कृतिक अध्ययन
विभिन्न निझरों प्रपातों एवं शून्य पायतनों में अपना-अपना निवास बना लिया था। उन विभिन्न तपों व व्रतों का नीचे विवरण दिया जाता है
पाहारत्याग- कुछ विद्याधरों ने आहार का त्याग कर दिया था। हर्षचरित में भी 22 सम्प्रदायों के वर्णन में निराहार रहकर प्रायोपवेशन द्वारा शरीर त्यागने वाले अथवा लम्बे-लम्बे उपवास करने वाले जैन साधुओं का संकेत दिया गया है । अतः यहां निश्चित रूप से जैन साधुओं की ओर संकेत है ।
अन्नत्याग-कुछ विद्याधर अन्नत्याग कर केवल फलमूल का आहार लेने लगे (फलमूलाहारः पृ. 236)
पंचाग्नि-तापन- कुछ विद्याधर पंचाग्नि ताप के अनुष्ठान में लग गये (पंचतपः साधनविधानसंलग्नः पृ. 236) कालिदास ने कुमारसम्भव में पार्वती की पंचाग्नि तपस्या का वर्णन किया है। इसमें अपने चारों ओर अग्नि जलाकर पंचम अग्नि सूर्य की ओर एकटक देखा जाता था। हर्षचरित में भी पंचाग्नि साधना का संकेत दिया गया है ।
उदकवास-कुछ विद्याघर आकण्ठ जल में डूबकर तपस्या कर रहे थे (आकण्ठमुदकमग्नश्च)। शीत ऋतु की रात्रियों में जल में खड़े होकर तपस्या करने वाली पार्वती का कालिदास ने वर्णन किया है ।
धूमपान- कुछ विद्याधर नीचे की ओर मुंह करके धूमपान कर रहे थे (प्रारब्धधूमपानाषोमुखश्च, पृ 236)
सूर्य की ओर टकटकी लगाकर देखना- कुछ विद्याधर ऊपर की ओर मुख करके सूर्य के बिम्ब को टकटकी लगाकर देख रहे थे । सूर्य की ओर एकटक देखती हुई पार्वती का कुमारसम्भव में वर्णन किया गया है ।।
1. एकंकधार्मिकाध्युषितनिर्झरप्रपातासन्नशून्यसिद्धायतनः....
-तिलकमंजरी, पृ. 235 2. फलमूलप्रायाहारः,
वही, पृ. 236 3. अग्रवाल, वासुदेवशरण हर्षचरित: एक सांस्कृतिक अध्ययन, पृ. 108 4. कालिदास, कुमारसम्भवत् 5/20
अग्रवाल, वासुदेवशरण; हर्षचरितः एक सांस्कृतिक अध्ययन, पृ. 108 6. कालिदास, कुमारसम्भवत् 5/26 7. ... विजित्य नेत्रप्रतिघातिनी प्रभामनन्यदृष्टिः सवित्तारमैक्षत् ।
कालिदास कुमारसम्भवम्, पृ. 5/20
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तिलकमंजरी में वर्णित सामाजिक व धार्मिक स्थिति
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जप-कुछ विद्याधर मन्त्रों के पाप, में संलग्न श्रे पूडच पृ. 236 ।
मौन-व्रत- कुछ विद्याधरों ने मौन व्रत धारण कर लिया था (पांचयमः पृ. 236) यहाँ निश्चित रूप से जैन साधुओं का संकेत है। कल्पसूत्र में माम्नाय के अनुसार तत्व को जानकर उसी का एक मात्र ध्यान करने कारोकोवाचंयम कहा गया है , न कि पशु की तरह मौन रहने वाले को।।
. . कन्द-मूल त्याग- कुछ विद्याधरों ने कन्द-मूल तोड़ना त्याग दिया था। (श्चिदकन्दमूलोद्धारिभि:236) यहाँ भी जैन धार्मिक साधुओं का ही संकेत है।
बलावणाहन- कुछ विद्याधरों ने वायु तथा आतप दूषित जल में समाधि ले ली थी (अवगाढवातातपोपहतवारिभिः)
तापस वेष धारण - कुछ विद्याधरों ने अजिन तथा जटादि रूप तपस्वी वेष धारण कर लिया था। इस प्रकार के तपस्वी नैष्ठिक धर्म को मानने वाले तथा वर्णी कहलाते थे । हर्षचरित तथा कादम्बरी में भी इनका उल्लेख किया गया है ।
हिसा-त्याग- कुछ विद्याधर हाथ में धनुष लेकर भी जीवों की हत्या नहीं कर रहे थे (कश्चिदुद्दण्डकोदण्डपाणिभिः प्राणिविरासनोपरतःपृ. 236)
कुछ विद्याधर प्रेयसियों के निकट रहने पर भी संभोग-सुख से विरत थे (अन्तिकस्वप्रेयसीभिः संभोगसुखपराङ्गमख:- 236) । इसे प्रसिधाराव्रत कहा जाता है।
चान्द्रायण-व्रत- मलयसुन्दरी समरकेतु से समागम की प्रतीक्षा में चन्द्रायणादि व्रतों द्वारा अपने शरीर को क्षीणतर बना देती है । वह शाक, फल मूलादि वन्याहार ही ग्रहण करती है, वह भी अतिथियों का उच्छिष्ट मात्र ही।
* इस प्रकार तिलकमंजरी में 14 प्रकार के विभिन्न तपों तथा व्रतों का उल्लेख आया है। धार्मिक व सामाजिक मान्यताएं, अंधविश्वास, शकुन-अपशकुन
शकुन- भारतीय समाज में यह मान्यता है कि प्रकृति आगामी शुभ अथवा
1. योऽवगम्य यथाम्नायं तत्त्वं तत्त्वकभावनः ।
वाचयंमः सः विज्ञेयो न मौनी पशुवन्नरः ।। -कल्पसूत्र 44/867 2. विघृताजिनजटाकलापस्तापसाकल्प कलयद्भिः , तिलकमंजरी, पृ. 236 3. समारब्धोपवासकृच्छ्चान्द्रायणादिविविधव्रतविधि....शाकफलमूलादिभिः सादरमुपरचन्ती तदुपन तशेषेण वन्यान्नेन विरलविरलात्मदेह वर्तयन्ती ।
-वही, पृ. 345
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- तिलकमंजरी, एक सांस्कृतिक अध्ययन
प्रशुभ घटना का पूर्वाभास मनुष्य को कुछ विशिष्ट संकेतों द्वारा करा देती है , जिसे शुभ शकुन कहते हैं। कुछ विशिष्ट संकेत शुभ-सूचक माने जाते हैं तथा अन्य अशुभ-सूचक ।
शुभ-शकुन-तिलकमंजरी में विभिन्न स्थलों पर निम्नलिखित शुभ शकुन माने गये हैं
1. पुरुष की दायीं आंख तथा अधरपुट का स्पन्दन । 2. पुरुष की दायीं भुजा का फड़कना 3. वायु का दक्षिण की ओर से बहना 4. वाम नासिका का श्वास बोलना । 5. शुगाल का दायीं ओर से बायीं ओर जाना ।।
अपशकुन-(1) पुरुष की बायीं प्रांख फड़कना अशुभ सूचक माना जाता था। तिलक मंजरी का पत्र मिलने पर हरिवाहन की बायीं आंख फड़कने लगी।
(2) स्त्री के लिए दक्षिणाक्षि स्पन्दन अपशकुन माना गया था।'
(3) मृग का वाम भाग से निकलना प्रयाण के लिए अशुभ माना जाता था। अन्य मान्यताएं
तिलकमंजरी कालीन समाज में लोग पुनर्जनम में विश्वास रखते थे। पूर्वजन्मों में कृत कर्मों के कर्मोदय की अपेक्षा से रहित कारण फल उत्पत्ति में असमर्थ
1 (क) स्पन्दिताधरपुटमचिरभाविनमानन्दमिव मे निवेदयामास दक्षिणं चक्षुः ।
. -तिलकमंजरी, पृ. 144 (ख) प्रतिक्षणं च स्फुरता दक्षिणेन चक्षुषा....- . वही, पृ. 210 2. (क) स्पन्दमानेन तत्क्षणं दक्षिणेन भुजदण्डेन व्यंजितारब्धकार्यसिद्धिः...
-वही, पृ. 198 (ख) प्रतिक्षणं च स्फुरता दक्षिणेन चक्षुषा भुजशिखरेण.... -वही, पृ. 210 3. पृष्ठतो दक्षिणपवनेन....
-वही, पृ. 198 4. पुरतो वा वामनासिकापुटश्वसनेन....
--वही, पृ. 198 5. प्रतिपन्नदक्षिणवाममार्गागमः परं शिवं शंसमिरमिप्रेतसाधक: शैवैरिव पदे पदे प्रधानशकुनरिव........
--वही, पृ. 198-99 6. अहं तु तत्क्षणोपजातवामाक्षिस्पन्दनेन.... -तिलकमंजरी, पृ. 396 7. मुहर्मुहुः कम्पते दक्षिणाक्षिः । _ --वही, पृ. 413 8. वामचारिण्यत्र मार्गमृग इवाध्वगानधिगच्छन्ति वांछितानि । --वही, पृ. 112
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तिलकमंजरी में वर्णित सामाजिक व धार्मिक स्थिति
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हैं. ऐसी मान्यता थी। ऐसी धारणा थी कि विविध कर्मों से बंधे हुए जीवों का अनेक जन्मान्तरों में सम्बन्ध होने के कारण अपने बन्धुओं, मित्रों से नाना प्रकार से पुनः पुनः सम्बन्ध होता है। यह मान्यता थी कि पूत्र हीन व्यक्ति पुत् नामक नरक में जाता है । पुत्र प्राप्ति के लिए विभिन्न उपाय किये जाते हैं ।
.. लोगों का तन्त्र-मन्त्र औषधियों, भूत-प्रेत में विश्वास था । इहलोक तथा परलोक में जनता का विश्वास था तथा धार्मिक कृत्य पारलौकिक सुख की प्राप्ति के लिए किए जाते थे।
गुरूजनों के नाम में बहुवचन का प्रयोग करने का प्रचलन था। शुभ कार्य के लिए प्रस्थान करते समय पूर्व दिशा की ओर मुख करके बैठा जाता था । प्रस्थान से पूर्व सप्तच्छद के पत्तों के डाट से बंद मुख वाले चांदी के पूर्ण-कुम्भ को प्रणाम किया जाता था। वारविलासिनियां स्वर्णपात्रों में दही-पुष्प, दूर्वा, अक्षतादि मांगलिक वस्तुएं रखकर अवतारमकमंगल करती थी। अप्रतिरथ मंत्रों का जाप करता हुप्रा पुरोहित आगे-आगे चलता तथा उसके पीछे अन्य द्विज अनुसरण करते । शिशु-जन्म के समय भी अनेक प्रकार के मांगलिक कार्य किये जाते थे जिनका अन्यत्र वर्णन किया जायेगा ।
- प्रसन्नता के अवसर पर मित्रों से बलपूर्वक छीनकर वस्त्र बाभूषणादि ले लिए जाते थे, इसे पूर्णपात्र कहते थे ।10 समरकेतु तथा हरिवाहन के समागम पर
1. समग्राण्यपि कारणानि न प्राग्जनितकर्मोदयक्षणनिरपेक्षाणी फलमुपनयन्ति
___-वही, पृ. 20 2. सम्भवन्ति च भवार्णवे विविधकर्मवशवर्तिनां जन्तूनामनेकशो जन्मान्तरजात५. सम्बन्धर्बन्धुभिः सुहृदभिरर्थश्च नानाविधैः सार्धमबाधिताः पुनस्ते सम्बन्धाः ।
--वही, पृ. 44 3. • आत्मानं तायस्व पुनाम्नो नारकात्,
--वही, पृ. 21 4. वही, पृ. 64-65 5. वही, पृ. 311, 64. 65, 51 6. वही, पृ. 42 7. बहुवचनप्रयोगः पूज्यनामसु न परप्रयोजनांगीकरणेषु,-तिलकमंजरी, पृ. 260 8... वही, पृ. 115 9. वही, पृ 115 10. उत्सवेषुसुहृद्मिर्यद बलादाकृष्य गृहयते वस्त्रमाल्यादि तत् पूर्णपात्रम् ।
. -तिलकमंजरी, पराग टीका, भाग 3, पृ. 123
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तिलकमंजरी, एक सांस्कृतिक अध्ययन
वनलताएं समरकेतु के उत्तरीय को बार-बार खींचकर मानों पूर्णपान का आग्रह कर रही थी। हरिवाहन के जन्मोत्सव पर अन्तः पुर की वारविलासिनीयां पूर्णपान ग्रहण करने के लिए राजा के पास गयीं।
वन-विधि- किसी शोक-समाचार के मिलने पर स्त्रियां सिर तथा वक्षः स्थल को हाथ से पीट-पीट कर रोती थीं। मलयसुन्दरी द्वारा अशोक वृक्ष से फंदा लगाकर लटक जाने पर बन्धुसुन्दरी दोनों हाथों से सिर तथा छाती पीट-पीट कर रोने लगी, जिससे उसकी अंगुलियों से रक्त बहने लगा तथा गले के हार के मोती आंसुओं के साथ-साथ टूट-टूट कर गिरने लगे। इसी प्रकार हरिवाहन का समाचार न मिलने पर स्त्रियां सिर पीट-पीट कर रोने लगी।
शोक समाचार के श्रवण पर पुरुष सिर सहित समस्त शरीर को उत्तरीय से ढ़ककर विलाप करते थे । मदमत्त हाथी द्वारा हरिवाहन का अपहरण कर लिये जाने पर समरकेतु ने इसी प्रकार विलाप किया था ।...
मात्महत्या के उपाय- असह्य दुःख से छुटकारा प्राप्त करने के लिए तिलकमंजरी में चार प्रकार से जीवन का अन्त करने का उल्लेख है । शस्त्र द्वारा विष द्वारा, वृक्ष की टहनी से फंदा लगाकर तथा प्रयोपवेशन कर्म द्वारा । मलयसुन्दरी ने तीन बार आत्महत्या करने का प्रयास किया था, किंपाक नामक विषला फल खाकर, समद्र में कदकर, तथा फंदा लगाकर । प्रायोपवेशन निराहार रहकर शरीर त्यागने को कहते थे। हर्षचरित में भी निराहार रहकर प्रायोपवेशन के द्वारा शरीर त्यागने वाले जैन साधुओं का उल्लेख किया गया है । यशस्तिलक में भी प्रायोपवेशन का उल्लेख है।'
हर्षचरित में भृगु-पतन, काशी-करवट, करीषाग्नि-दहन तथा समुद्र में आत्मविलय इन चार उपायों का उल्लेख है। तिलकमंजरी में भी गन्धर्वक द्वारा
1. पूर्णपात्रसंभावनयेव वारंवारमवलम्ब्यमान.... वही, पृ. 231 2. वही, पृ. 76 3. तिलकमंजरी, पृ. 309, 193 4. वही, पृ. 190 5. शस्त्रेण वा विषेण वा वृक्षशाखोद्वन्धनेन वा प्रायोपवेशनकर्मणा वा जीवितं मुचति ।
-वही, पृ. 327 6. अग्रवाल वासुदेवशरण, हर्षचरितः एक सांस्कृतिक अध्ययन, पृ. 108 7. जैन, गोकुलचन्द्र, यशस्तिलक का सांस्कृतिक अध्ययन, पृ. 323 8. अग्रवाल वासुदेवशरण हर्षचरितः एक सांस्कृतिक अध्ययन, पृ. 107
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तिलकमंजरी में वणित सामाजिक व धार्मिक स्थिति
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सार्व-कामिक प्रपात से गिरकर आत्महत्या करने के प्रयास का उल्लेख किया गया है।
प्रस्तुत अध्याय में तिलकमंजरी से प्राप्त सूचनाओं के आधार पर हमने तत्कालीन सामाजिक व धार्मिक स्थिति का सर्वेक्षण किया। हमने देखा कि तत्कालीन समाज चार वर्णों से सुविभक्त था तथा इस वर्णव्यवस्था की स्थापना व रक्षा राजा स्वयं करता था । चार वर्णो के अतिरिक्त अन्य व्यावसायिक जातियां भी पूर्ण विकसित हो चुकी थीं। वर्ण व्यवस्था के साथ-साथ आश्रम व्यवस्था का भी पूर्ण रूप से पालन किया जाता था। परिवारों में संयुक्त प्रणाली प्रचलित थी, जो परिवार के छोटे और बड़े सदस्यों में परस्पर सम्मान की भावना पर आधारित थी। स्त्रियों का स्थान बहुत सम्मानजनक था । सम्भ्रान्त परिवारों में स्त्रियों को उच्च शिक्षा प्रदान की जाती थी। कृषि व व्यापार बहुत उन्नतावस्था में थे। द्वीपान्तरों तक समुद्र से व्यापार होता था। धनपाल स्वयं जैन थे, अतः तिलकमंजरी से जैन धर्म के आचार-विचार तथा सिद्धान्तों की विस्तृत जानकारी मिलती है जैन-धर्म के अतिरिक्त यद्यपि शैव वैष्णवादि धर्मों की स्थिति के भी उल्लेख मिलते हैं, किन्तु प्रमुखतया जैन धर्म के ही सिद्धान्तों का प्रतिपादन इसका उद्देश्य है।
1. तिलकमंजरी, पृ. 418
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उपसंहार
अंत में तिलकमंजरी के उपयुक्त अध्याय से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध की प्रमुख उपलब्धियां निम्नलिखित हैं
(1) दशम शती के उत्तरार्ध तथा एकादश शती के पूवार्ध के प्रसिद्ध जैन कवि धनपाल ने तिलकमंजरी कथा की रचना करके संस्कृत गद्य कवियों में अपना विशिष्ट स्थान बना लिया है। इन्होंने सीयक, सिन्धुराज, मुंज तथा भोज की सभा को विभूषित किया तथा 'सरस्वती' विरूद प्राप्त किया । तिलकमंजरी के अतिरिक्त ऋषभपंचाशिका, पाइयलच्छीनाममाला, वीरस्तुति आदि इनकी अन्य रचनाएं हैं ।
(2) तिलकमंजरी राजकुमार हरिवाहन तथा विद्याधरी तिलकमंजरी की प्रेम-कथा है । धनपाल ने एक अत्यन्त सरल व सीधे-साधे कथानक को तत्कालीन युग प्रचलित रूढ़ियों यथा, पुर्नजन्म, देवयोनि एवं मनुष्य योनि के व्यक्तियों का परस्पर समागम, श्राप, दिव्य आभूषण, आकाश में उड़ना, अपहरण, आत्महत्या आदि के आधार पर विभिन्न कथा - मोड़ों में प्रस्तुत करके अत्यन्त नाटकीय तथा रोचक बना दिया है ।
( 3 ) यद्यपि इस कथा का मूल स्रोत ज्ञात नहीं हो सका, तथापि धनपाल के 'जिनागभोक्ता :' इस संकेत से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि यह कथानक जैन आगमों में कही गयी कथाओं से ग्रहण किया गया है । तिलकमंजरी कथा की रचना जैन धर्म व उसके सिद्धान्तों की पृष्ठभूमि पर की गयी है ।
(4) तिलकमंजरी के कर्ता धनपाल बहुमुखी प्रज्ञा के घनी कवि थे । यह ग्रन्थ उनके शास्त्रीय ज्ञान तथा व्युत्पत्ति का प्रत्यक्ष प्रमाण है । धनपाल वेद-वेदांग, पौराणिक साहित्य, विभिन्न दार्शनिक सिद्धान्त तथा धर्मशास्त्र, आयुर्वेद, गणित, संगीत, चित्रकला सामुद्रिकशास्त्र, साहित्यशास्त्र, अर्थशास्त्र, कामशास्त्र, नाट्यशास्त्रादि विभिन्न शास्त्रों में पूर्णतः निष्णात थे ।
(5) तिलकमंजरी की गरणना गद्यकाव्य की कथा तथा आख्यायिका इन दो विद्यानों में से कथा-विद्या के अन्तर्गत होती है । इसका कथानक कवि-कल्पना
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उपसंहार
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से प्रसूत है। यह काव्य संस्कृत गद्य-काव्य के अल्प-शेष दुर्लभ ग्रन्थों के अन्तर्गत होने से अत्यन्त महत्वपूर्ण है । यह ग्रंथ प्रति प्रांजल, ओजस्वी, भावपूर्ण भाषा तथा छोटे-छोटे समासों से युक्त ललित वेदी रीति में रचा गया है। प्रसंगानुकूल पांचाली व गोडी रीति का भी प्रयोग किया गया है। मनोहर प्रसंगानुकूल प्रलंकार-योजना से इसके कलेवर का शृंगार किया गया है। सर्वत्र मनोहर अनुप्रास यमकादि शब्दालंकारों के साथ उपमा, उत्प्रेक्षादि अर्थालंकारों का उचित समन्वय इसकी विशिष्टता है । प्रमुख रस शृंगार होते हुए सभी समस्त नव-रसों का परिपाक इसमें परिलक्षित होता है ।
(6) तत्कालीन सांस्कृतिक दृष्टि से तिलकमंजरी एक अत्यन्त महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। दशम-एकादश शती की संस्कृति के अध्ययन हेतु तिलकमंजरी कोष का काम करती है। इसमें तत्कालीन राजाओं के मनोविनोद, वस्त्र तथा वेशभूषा, सभी प्रकार के आभूषण तथा प्रसाधनों का विस्तृत वर्णन हैं।
(7) तिलकमंजरी में तत्कालीन सामाजिक व धार्मिक स्थिति प्रतिबिम्बित होती है। तत्कालीन समाज में वर्ण तथा आश्रम की विधिवत् व्यवस्था की जातो थी, संयुक्त परिवार प्रणाली प्रचलित थी, स्त्रियों की स्थिति सम्मानजनक थी। कृषि व व्यापार बहुत उन्नतावस्था में थे। द्वीपान्तरों तक समुद्र से व्यापार किया जाता था।
(8) तिलकमंजरी से जैन धर्म के आचार-विचार तथा सिद्धान्तों की विस्तृत जानकारी मिलती है। जैन धर्म के अतिरिक्त, शैव तथा वैष्णवादि धर्मों की स्थिति के भी उल्लेख मिलते हैं।
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डॉ० (श्रीमती) पुष्पा गुप्ता जन्म स्थान, बाड़मेर, जन्म-तिथि-24 अगस्त, 1948 योग्यता-एम. ए. संस्कृत व मनोविज्ञान, पी. एच. डी. जोधपुर विश्वविधालय से सन् 1977 में 'धनपाल विरचित तिलकमंजरी का आलोचनात्मक अध्ययन' विषय पर पी. एच. डी. सम्प्रति—सन् 1978 से राजकीय स्नात्कोत्तर महाविद्यालय. सिरोही में स्नातक एवं स्नातकोत्तर स्तर पर अध्यापन कार्यरत ।
मूख्य 180 रुपये
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________________ Other Works on Indology Sculptural Traditions of Rajasthan Neelima Vashistha 625/ Shiva Mahimnah Stotram by Pushpadanta edited and translated into English by Pandit Gopal Narain Bahura Rs. 95/ Iconography of the Hindu Temples in Marathwada by Dr. Bhagwan Deshmukh Rs. 375/ Mahakavi Hal Aur Gaha Satsai (Hindi) by Dr. Hariram Acharya Rs. 120/ Jaipur ki Sanskrit Sahitya Ko Den (Hindi) by Dr. Prabhakar Shastri 275/ Works of Panditraj Jagannatha's Poetry Kala Nath Shastri Rs. 100/ Abhinandan Felicitation Volume in honour of Pandit Shri Gopal Narain Bahura Ed by Dr. Chandramani Singh Shortly Available at ; - SHARAN BOOK DEPOT Galta Road, JAIPUR-302003