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तिलकमंजरी का साहित्यिक अध्ययन
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प्रसाधन प्रसाधन की प्रवृति मनुष्य में स्वभावजन्य है। सृष्टि के प्रारम्भ से ही अविकसित मानव में भी यह पायी गई है। जिनका सारा जीवन शिकार में ही व्यतीत हो जाता था, ऐसी जंगली जातियां भी शिकार में प्राप्त वस्तुओं से अपने शरीर को अलंकृत करती थीं। जंगल में निवास करने वाली कन्याएं भी वन में प्राप्त होने वाली वनलताओं और पल्लवों से अपना शुगार करती थी। शकुन्तला ने वृक्ष का वल्कल पहिने ही सम्राट दुष्यन्त के चित्त को प्राकृष्ट कर लिया था ।
प्राकृतिक रूचि के कारण मनुष्य का प्रसाधन सर्वप्रथम मनःसिला, सिन्दूर हरताल, अंजनादि प्राकृतिक वस्तुतों से प्रारम्भ में हुमा । जैसे-जैसे मनुष्य की रूचि परिष्कृत होती गई, वैसे-वैसे ही प्रसाधन के नवीन साधन विकसित हए तथा उसमें कलात्मकता तथा सुरूचि का समावेश हुआ तथा प्रसाधन एक कला बन गयी । इस कला में दक्ष स्त्री को सैरन्ध्री कहा जाता था। महाभारत में अज्ञातवास के समय द्रोपदी ने विराट भवन में सैरन्ध्री का ही कार्य किया था। कादम्बरी में पत्रलेखा तथा तिलकमंजरी में चित्रलेखा आदि स्त्रियां इसी प्रसाधन कार्य तथा अन्य शृगार कार्य के लिये पात्र रूप में वर्णित हैं । विचिनवीर्य द्वारा चित्रलेखा के प्रसा. घन कर्म की इस प्रकार से प्रशंसा की गयी है-'तुम्हारे द्वारा प्रसन्न होकर निपुणता से शृंगार करने पर वृद्धा स्त्रियां भी नवयुवती के समान दिखाई देने लगती हैं, साधारण रूप से युक्त स्त्रियां भी अन्तपुर की स्त्रियों के रूप को तिरस्कृत कर देती हैं तथा कुरूप स्त्रियां भी अप्सरा की तरह रूपवती हो जाती हैं। .. मल्लिनाथ ने मेघदूत की टीका में पांच प्रकार के प्रसाधन या शृंगार बताये हैं-(1) कचधार्य-वेणी या केश रचना (2) देहधार्य शरीर का शृगार
1. विद्यालंकार,अत्रिदेव. प्रचीन भारत के प्रसाधन, पृ. 19 2. वही, पृ. 20-21 3. सैरन्ध्री शिल्पकारिका, अमरकोश 2/6/18 4. महाभारत, विराट पर्व, 3/18/19 5. प्रसादपरया त्वया रचितचतुरप्रसाधनाः परिणतवयसोऽपिसद्यस्तरुणतां प्रतिपद्यन्ते............ कुरूपा अप्यप्सरायन्ते स्त्रियः ।
-तिलकमंजरी, पृ. 268 6. कचधार्य देहधार्य परिधेयं विलेपनम् ।
चतुधा भूषणं प्राहुः स्त्रीणामन्यच्च देशिकम् ॥ -मेघदूत, मल्लिनाथ टीका