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________________ तिलकमंजरी, एक सांस्कृतिक अध्ययन है । अनुप्रास का तिलकमंजरी में सर्वत्र प्रयोग किया गया है। कुछ उल्लेखनीय उद्धरण प्रस्तुत हैं 110 (अ) वंजुल निकुंजपुंजमान मंजुकुक्कुटक्क णितेन (ब) आरब्धकेलिकलहको किलकुलाकुलितकलिकांचित (स) विपदिव विरता विभावरी -q. 210 - पृ. 211 - पू. 28 (2) यमक - – अर्थ होने पर भिन्नार्थक वर्णों की पुनरावृत्ति यमक कहलाती है । 2 मेघवाहन के वर्णन में यमक का सुन्दर उदाहरण है— दृष्टवा वैरस्य वैरस्यमुज्झितास्त्रो रिपुव्रजः । यस्मिन् विश्वस्य विश्वस्य कुलस्य कुशलं व्यवघात् ॥ (3) श्लेष - धनपाल ने इस अलंकार का प्रायः उपमा, उत्प्रेक्षा, परिसंख्या तथा विरोधाभास अलंकारों के साथ संसृष्ट रूप में प्रयोग किया है । श्लेष के तीन उदाहरण दिये जाते हैं - (प्रारम्भिक स्तुति पद्य में समंग तथा वचन - श्लेष का उदाहरण मिलता है) प्राज्यप्रभावः प्रभवो धर्मस्यास्तरजस्तमाः । दवतां निर्वृतात्मा न आद्योऽन्येऽपि मुदं जिनाः ॥ इस पद्य में 'जिना: ' तथा 'आद्यो' दोनों के पक्ष में अर्थ घटित होने से एकवचन बहुवचन श्लेष है, तथा 'प्राज्य प्रभा:' तथा 'प्राज्यप्रभाव: ' पद में समंग श्लेष है । श्लेष का अन्य उदाहरण - 1. 2. शेषे सेवाविशेषं ये न जानन्ति द्विजिह्वताम् । यान्तो हीनकुलाः किं ते न लज्जन्ते ? मनीषिणाम् ॥15 सज्जन की सेवा न करने वाले दो मुंहे नीच कुल में उत्पन्न लोग क्या सज्जनों के मध्य नहीं लज्जित होते हैं ? अथवा जो दो जीभ धारण करने वाले अहीनकुलों में उत्पन्न होने वाले शेष (नागराज) की सेवा नहीं जानते, वे मनीषियों के बीच क्या लज्जित नहीं होते । इस पद्य में शेषे से, हीनकुलाः द्विजिह तां पदों में श्लेष है । युद्ध के प्रसंग में श्लेष का सुन्दर उदाहरण मिलता है – “ उन दोनों सेनाओं का कुछ समय, नवदम्पत्ति के कर- पल्लव के समान कांची के ग्रहण वर्णं साम्यमनुप्रासः । अर्थे सत्यर्थभिन्नानां वर्णानां सा पुनः श्र ुतिः यमकम् । 3. तिलकमंजरी, पृ. 16 4. तिलकमंजरी, पृ. 1 5. वही, पृ. 2 मम्मट, काव्यप्रकाश, 9/103 वही, 9/116
SR No.022662
Book TitleTilakmanjari Ek Sanskritik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPushpa Gupta
PublisherPublication Scheme
Publication Year1988
Total Pages266
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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